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सैनेन्द-च्याकरणम् अतएव समन्तभद्र और देवनन्दि छठी शताब्दिके हैं और समकालीन हैं। सिद्धसेन उनके पूर्ववती हैं।
जैनेन्द्रोक्त अन्य प्राचार्य पाणिनि अादि बयाकरणों ने जिस तरह अपने से पहले के वैयाकरणों के नामों का उल्लेख किया है, उसी तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे पूर्वाचार्यों का उल्लेख मिलता है
राद् भूतमलेः [३-४-८३], २ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् [:-४-३४], ३ कृवृषिमुजां यशोभद्रस्य [२-५-१६, ४ रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [५-३-१८०], ५ वेत्ते सिन्द सेनस्य [५-१-७], ६ चतुष्टयं समन्तभवस्य [५-४-१४०] ।
जहाँतक हम जानते हैं इन छहों आचार्यों से शायद किसीने भी कोई व्याकरण अन्य नहीं लिखा है | इनके ग्रन्थोमैं कुछ भिन्न तरहके शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्हीको लक्ष्य करके उक्त सब सूत्र रचे गये हैं। शाकटावनने भी इसीका अनुकरण करके तीन प्राचार्योक मत दिये हैं।
१-भूतबलि-भूतबलिका टीक-ठीक समय निश्चित करना कठिन है। इतना ही कहा जा सकता है कि वे बीर नि० सं० ६८३ के बाद हुए हैं।
२-स्वामी समन्तभद्र' और ३-सिद्धसेन प्रसिद्ध है।
४-श्रीदत्त-विद्यानन्दने अपने तत्वार्यश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'इल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है । मालूम होता है कि ये बड़े भारी वादि-विजेता थे। श्रादि पुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने भी इनका स्मरण किया है । संभव है ये श्रीदत्त दूसरे हों और जल्प-निर्णयके कर्ता दूसरे, तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख छैनेन्द्र में किया गया हो।
५-यशोभद्र-आदिपुराणमें यशोभद्र का स्मरण करते हुए कहा है कि विद्वानों की सभामैं बिनका नाम कीर्तन सुननेसे ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता है।'
६-प्रभाचन्द्र-आदिपुराणमें जिनसेन स्वामीने प्रमाचन्द्र कविकी स्तुति की है, जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना की थी। हरिवंशपुराणमें भी इनका स्मरण किया गया है। ये कुमारसेनके शिष्य थे।
उपलब्ध ग्रन्थ जैनेन्द्रके सिवाय पूज्यपादले केवल पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं।
१-सर्वार्थसिद्धि-प्राचार्य उमास्वातिकृत तत्वार्थसूत्रपर दिगम्बर सम्प्रदायकी उपलब्ध टीकाओं में सबसे पहली टीका।
२-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, इसलिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं।
३-इयोपदेश-यह केवल ५१ श्लोकौका छोटा-सा ग्रन्थ है। पं. अशाधरने इसपर एक संस्कृत टीका लिखी है।
४-दशभक्ति [ संस्कृत ]-प्रभाचन्द्राचार्यने अपने क्रियाकलापमें इसका कर्ता पूज्यपाद या पादपूज्यको बतलाया है। परन्तु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
. १-२. इसके लिए प्रो० हीरालालजीकी धवलाकी 'भूमिका' और पं. जुगलकिशोरजा मुख्तारका 'स्वामी स्मन्त भद्र' देखिए।
३. द्विप्रकारं जगौ जल्पं तरव-प्रातिभगोचरम् । निषष्टे दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये । १. श्रीदसाय नमस्तस्मै तपाश्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवाषितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४५॥ ५. विदुश्विणीषु संसस्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखषयत्ति नद्गर्ष यशोभद्रः स पातु नः ॥४६॥