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मेघनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
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सर्वार्थसिद्धि टीका 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' यादि
पर समाधानामय अन् लिखा है। इससे जान पड़ता है कि दोनों समकालीन एक दूसरेका आदर करनेवाले हैं और एक दूसरेके ग्रन्थोंसे सुपरिचित होने के कारण ही यह संभव हुआ है कि देवनन्दि अपने जैनेन्द्र व्याकरण में समन्तभद्र का व्याकरणविषयक मत देते हैं और समन्तभद्र देवनन्दिकी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरणपर अपनी आस मीमांसा निर्माण करते हैं ।
आचार्य विद्यानन्द ने अपनी प्राप्त परीक्षा के अन्त में लिखा है
श्रीमत्तस्वार्थशास्त्राद्भुत सलिलनिधेरिद्वरस्नोद्भवस्य प्रोस्थानारम्भकाले सकलमलमिदे शास्त्रकारः कृतं यत् ।
स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितयशं स्वामिमीमांसितं तत्,
विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै ।। १२३ ।।
अर्थात् प्रकाशमान रत्नों के उद्भवस्थान तत्वार्थशास्त्र रूप अद्भुत समुद्रके उत्थान या बढ़ाय आरम्भकालमै शास्त्रकार ( देवनन्दि ) तीर्थके तुल्य जो प्रसिद्ध और श्रुति यशस्वी स्तोत्र ( मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि) बनाया और जिसकी स्वामि ( समन्तभद्र ) ने मीमांसा की, उसीका अपनी शक्ति के अनुसार सत्यवाक्यार्थसिद्धि के लिए विधानन्दने बड़े आदर के साथ कथन किया । इसमें यह बिकुल स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि 'मोतमार्गस्य नेता' इस मंगलाचरण पर हो मीमांसा रची गई है और उसपर विद्यानन्द परीक्षा ( आसपरीक्षा ) लिखते हैं ।
परन्तु उक्त पद्य में जो 'शास्त्रकारैः पद पड़ा हुआ है, उसपर एक बड़ा भारी विवाद खड़ा कर दिया गया है और उसका अर्थ किया जाता है- तत्वार्थसूत्रकार उमास्वाति जय कि वास्तवमै मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धिका है। मूल तत्रार्थसूत्रका नहीं। क्योंकि यदि यह मंगल्यचरण तत्वार्थसूत्रका क्षेता तो उसकी टीका सभी दिगम्बर श्वेताम्बर टीकाकार जो प्राचीन हैं - श्रवश्य करते' । और कोई न करता तो देवनन्दि पूज्यपाद तो [सर्वार्थसिद्धि] अवश्य करते । सर्वार्थसिद्धि टीकाका पहला संस्करण स्व० पं० कलाप भरमाप्पा निटवेने प्रकाशित किया था। उसमें इसे टीका मंगलाचरणके रूपमें ही दिया है और भूमिकामैं भी उन्होंने इसे टीकाका ही बतलाया है। शोलापुरके पं० वंशीधरजी शास्त्रोके संस्करण में भी वह टीकाका है और यह संस्करण उन्होंने गरेकी तीन प्राचीन प्रतियोंके आधारसे सम्पादित किया है। उसकी एक प्रतिको तो वे ५०० वर्ष पुरानी बतलाते हैं। अकलंकदेव और विद्यानन्द ने भी राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक इसकी टीका नहीं की है, श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन और हरिभद्र आदिने भी नहीं की । तत्त्वार्थसूत्रपाठ [मूल] की भी अधिकांश लिखित प्रतियाँ इस मंगलाचरण से रहित हैं । सनातन ग्रन्थमाला प्रथम गुच्छक, जैननित्यपाठ संग्रह श्रादि मुद्रित प्रतियों में भी यह नहीं है । तत्त्वार्थसार में भी, बो तत्त्वार्थका एक तरहसे पल्लवित पद्यानुवाद है, अमृतचन्द्रने इस मंगल पथका अनुवाद नहीं किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धि टीका कर्ता पूज्यपाद देवनन्दिका है, इसीपर समन्तभद्रने श्राप्तमीमांसा और विद्यानन्दने आप्त परीक्षाको रचना की ।
३. दिगम्बर टीकाकारोंमें श्रुतसागर और भास्करनन्दिने 'मोतमार्गस्य' श्राविकी टीका की है। इनमें श्रुतसागर विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि के अन्तमें हुए हैं और भास्करनन्दि १३-१४ वीं शताब्दि ।
२. जिन पोथियों या गुटकों में मूल तत्वार्थसूत्र लिखा मिलता है, उसमें इस मंगलाचरणकं साथ ही प्रायः "कायषट्क" आदि संस्कृत पथ और भगवती आराधना के प्रारम्भकी 'सिव जयस्य सिद्ध' आदि दो गाथाएँ भी लिखी रहती हैं और उनके बाद 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोजमार्गः शुरू होता है । वास्तव से जो लोग नित्यपाठ करते हैं, उन्होंने यह परम्परा चला दी है।
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