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________________ ३० जैनेन्द्र-व्याकरणम् वि० [सं० ५२६ | यह महामाती संघ उत्पन्न हुआ । बज्रनन्दि चूँकि देवनन्दिके शिष्य थे, इसलिए इस संघ स्थापना काल के लगभग या दस बीस वर्ष पहले देवनन्दिका समय माना जा सकता है। सिद्धसेन के पूर्वोक्त निश्चित किये हुए समय से भी यह असंगत नहीं जान पड़ता । पं० युधिष्ठिर मीमांसकने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास" लिखा है । उन्होंने जैनेन्द्र के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्रपरसे अनुमान किया है कि सिद्धसेनका कोई व्याकरण मन्थ अवश्य होगा। उज्ज्वलदत्तकी उणादि सूत्रवृतिमैं 'क्षपणक' के नामसे एक ऐसा सूत्र उद्धृत है जिससे प्रतीत होता है कि क्षपणकने भी उणादि सूपर कोई व्याख्या लिखी थीं और उससे यह भी संभावना होती है कि क्षपकने अपने शब्दानुशासनपर भी कोई वृत्ति रत्री होगी। मैत्रेयरक्षितने तंत्रप्रदीपमें भी क्षपाकके व्याकरणका उल्लेख किया है 1 बहुतसे विद्वानोंकी राय है कि ज्योतिर्विदाभरण में बतलाये हुए विक्रमके नौ रत्नों में जो क्षपणक है, सिद्धसेन है और गुप्तवंश के चंद्रगुप्त (द्वितीय) ही विक्रमादित्य हैं। इतिहासज्ञ विर्मेंट स्मिथ के अनुसार चन्द्रगुप्तका समय वि० सं० ४३२ से ४७० तक है और इस तरह सिखेनका समय जो पं० सुखलाल जी ने विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है, और भी पुष्ट हो जाता है । द्देन्चुरुके श्वानपत्रमैं गंगबंशी महाराजा श्रविनीत के पुत्र दुर्विनीत को "शब्दावतारकारः देव भारती निबद्धबृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः " ये तीन विशेषण दिये हैं जिनका अर्थ होता है - शब्दावतार के कर्ता, पैशाचीसे संस्कृतमैं गुणाढ्य की वृहत्कथाको रचनेवाले और किरातार्जुनीय काव्य के पन्द्रह सगों के टीकाकार | इन विशेषणों में कोई ऐसी बात नहीं जिससे यह प्रकट हो कि देवनन्दि दुर्विनीतके शिक्षागुरु थे या उनके समकालीन थे | परन्तु चूंकि शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुकेके ४६ शिलालेख में पूज्यपादको पाणिनीयके शब्दतारका कर्ता बताया है, इसलिए दुर्विनीत के साथ लगे हुए "शब्दावतारकार" विशेषण से कुछ विद्वानोको भ्रम हो गया और दोनोंको समकालीन समर शिया सम्बन्ध खड़ा कर दिया है। दुर्विनीता राज्यकाल वि० सं० ५३९ से शुरू होता है, इसलिए इसीके लगभग पूज्यपादका समय मान लिया गया, परंतु मैसूरके आस्थान विद्वान् पं० शान्तिराज शास्त्रीने भास्करनन्दिकृत तत्त्वार्थटीकाको प्रस्तावना में इस भ्रमको स्पष्ट कर दिया है। इसलिए भले ही पूज्यपाद देवनन्दि दुर्विनीतके राज्यकाल में रहे हो, परन्तु केवल इस दानपत्र से वह सिद्ध नहीं किया जा सकता | चैनेन्द्र व्याकरणके एक और सूत्र “चतुष्टयं समन्सभद्रस्य” [ ४-४- १४०] में सिद्ध सेनके ही समान श्राचार्य समन्तभका उल्लेख है, जिससे समन्तभद्रका देवनन्दिते पूर्ववती होना सिद्ध होता है, परन्तु साथ ही १. सिरिपुज्नपादांसो विसंघस्स कारणो दुट्टो । णामेण षज्जणंडी पाहुडवेड़ी महासतो || पंचसए से विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दविणमहुरा-जादो दाविवसंचे महामोहो ।। २. प्रकाशक- भारतीय साहित्यभवन, नवाबगंज, दिल्ली । ३. धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशं कुबेताल भट्टघट परकालिदासः । व्यासो वराहमिहरो नृपतेः समायाः रत्नानि वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ ४. मैसूर पुण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम भाग पृ० ३७३. ५. इस शिक्षालेखका वह 'न्यास जैनेन्द्रसंतं' आदि पद्य इसके पहले पृष्ठ ३३ पर उद्धृत किया है । ६. बौद्धाचार्य कीर्तिने "समन्तभद्र" नामका एक व्याकरण जिला था और चन्द्रकीर्ति धर्मकीर्तिले भी पूर्ववर्ती है । १४ वीं शताब्दिमें लिखे हुए बौद्ध धर्मके इतिहास से जो तिब्बती भाषा में है, और जिसका दलसुख मालवणिया ने अपने एक अंग्रेजी अनुवाद हो गया है इस बातकी सूचना मिलती है। पं० श्री पत्रमें मुझे यह लिखा है ।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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