________________
देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
देवनन्दिका समय
देवनन्दिने अपने किसी ग्रन्थ में न तो कोई रचना तिथि दी है और न अपनी गुरुपरम्परा | इसलिए उनके समयका निर्णय उनके ग्रन्थोंके उल्लेखों तथा दूसरे साधनों से ही करना पड़ेगा ।
२९
जैनेन्द्र व्याकरणके ‘बेलेः सिद्धसेनस्य' [५-१-७ ] सूत्र सिद्धसेनका मत दिया है और प्रज्ञाचतु पं० सुखलालजीने सिद्धसेनका समय दिक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है। उनके लेखका सारांश आगे दिया जाता है—
"जैसलमेर के जैन मएद्वार में विशेषावश्यक भाष्यकी जो श्रतिशय प्राचीन प्रति मिली है उसके अंत में ग्रन्थकार जिनभद्र गणिने स्वयं ही ग्रन्थ-रचना-काल दिया है। और उसके अनुसार उक्त ग्रन्थ वि० सं० ६६६ मैं वल्लभी में समाप्त हुआ है। उन्होंने अपने इस विशेषावश्यक भाष्य में और द्वितीय लघुग्रन्थ विशेषावती में सिद्धसेन श्रौर मल्लवादिके उपयोगाभेद-वादको विस्तृत समालोचना की है। मल्लबादि सिद्ध सेनके सन्मतितर्क के टीकाकार हैं। इससे सिद्ध होता है कि मल्लवादि और सिद्धसेन जिनभद्रगणिते क्रमशः पूर्व और पूर्वतर हैं। मल्लवादिके विनष्टमूल द्वादशार नयचकके जो प्रतीक उसके विस्तृत टीका ग्रन्थ में मिलते हैं उनमें सिद्धसेन दिवाकरके उल्लेख तो हैं, परन्तु जिनमद्रगणिके नहीं है। इससे फलित होता है कि मल्लवादि बिनभद्र से पहले हुए हैं और मल्लवादिने सिद्धसेन के सम्पतितर्कपर टीका लिखी थी, उसका निर्देश आचार्य हरिभद्रने किया है। अतः यह सिद्ध है कि सिद्धसेन मल्लवादिसे पहले हुए हैं। इसलिए मल्लवादिको विक्रमकी छठी शताब्दि के पूर्वार्ध में माना जाय, तो सिद्धसेनका समय पाँचवीं शताब्दि ठीक लगता है ।
"सिद्धसेन के मत के अनुसार 'विद्' धातुमें 'र' का आगम होता है, भले ही वह सकर्मक हो । उनकी नवीं द्वात्रिंशतिका के २२ पथ में 'र' श्रागमवाला 'विद्वते' प्रयोग मिलता है । अन्य वैयाकरण 'सम्' उपसर्गपूर्वक कर्मकविद् धातुमें 'र' आगम मानते हैं जब कि सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक बिद् धातुमें 'र' श्रागमबाला प्रयोग किया है। इसके सिवाय पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि टीका के [श्र० ७ सूत्र [१३] में सिद्ध सेन की तीसरी द्वात्रिंशिका १६ वें पाको 'उक्तं च' शब्दके साथ “वियोजयति वासुभिर्न वधेन संयुज्यते" पंक्ति उत की हैं। द्वात्रिंशिका में यह पूरा पत्र इस प्रकार है
वियोजयति वासुभिर्न वधेन संयुज्यते शियं च न परोपम [प] रुस्मृतेर्विद्यते । बधायतनमभ्युपैति परान निघ्नमपि स्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रथ[स] महेतुरुद्योतितः ॥ १६॥
"पूज्यपाद देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध माना जाता है । परन्तु मेरी समझ मैं अभी इसपर और भी गहराई से विचार होने की जरूरत है । यदि सिद्धसेनको देवनन्दिते पूर्ववर्ती अथवा उनका वृद्धसमकालीन माना जाय, तो भी उनका समय पाँचषीं शताब्दिले अर्वाचीन नहीं जान पड़ता ।”
सिद्धसेन से देवनन्दि कितने बाद के हैं, इसका निर्णय करनेके लिए देवसेन के दर्शनसार से भी कुछ सहायता मिल सकती है। यह ग्रन्थ उन्होंने वि० सं० १६० में धारानगरी में निवास करते हुए पूर्वाचार्यकी बनाई हुई गाथाओं का एकत्र संचय करके - 'पुण्याहरियकयाई गाहाई संचिया एत्थ' लिखा गया है। अर्थात् इस ग्रन्थको गाथाएँ देवसेनसे भी पहले की हैं और इस दृष्टिसे उनकी प्रामाणिकता अधिक है। उसके अनुसार श्री पूज्यपाद का शिष्य पाहुडवेदि बज्रानन्दि द्राविड संघका कर्ता हुआ और तब दक्षिण मथुरा [ मदुरा ] मैं
१ देखो भारतीय विद्या, भाग ३, अंक ५ में 'श्री सिद्धसेन दिवानां समयनी प्रश्न' शीर्षक लेख ।