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जैनेन्द्र-व्याकरणम् नागचन्द्र नामके दो विद्वान हो गये हैं, एक पम्प रामायणके कर्ता नागचन्द्र जिनका दूसरा नाम अभिनव पम्प था, और दुसरे लब्धिसारटीकाक्रे कर्ता नागचन्द । पहले गृहस्थ थे और दूसरे मुनि । अभिनव पम्पके गुरुका नाम बालचन्द्र था जो मेषचन्द्र के सहाध्यायी थे और दूसरे स्वयं बालचन्द्र के शिष्य थे। इन दूसरे नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्र के लिए, यह वृत्ति बनाई गई है। इन्हें जो 'राधान्तसोयनिधिवृद्धिकर' विशेषण दिया है उससे मालूम होता है, कि ये सिद्धान्तचक्रवर्ती या टीकाकार झेंगे।
२-शब्दार्णव-प्रकिया यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके नामसे छपी है, परन्तु वास्तवमें इसका नाम शब्दारणव-प्रक्रिया ही है । हमें इसकी कोई इस्तलिखित प्रति नहीं मिल सकी। जिस तरह अभयनन्दिको वृत्तिके वाद उसीके आधारसे प्रक्रियारूप पंचवस्तु टोका बनी है, उसी प्रकार सोमदेवकी शब्दार्णव-चन्द्रिकाके बाद उसीके आधारसे यह प्रक्रिया बनी है। प्रकाशकोंने इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि प्रकट किया है। परन्तु जान पड़ता है कि इसके अन्तिम श्लोकमै गुणनन्दिका नाम देखकर ही भ्रमवश इसके कर्ताका नाम गुणन्दि समझ लिया है।
इनमेंसे पहले पद्यसे यह स्पष्ट है कि गुणनन्दिके शब्दार्णवके लिए यह प्रक्रिया नायके समान है और दूसरे पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुण नन्दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहें। यदि इसके कर्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो स्वयं ही अपने लिए, यह कैसे कहते कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहे ? अतः गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वे श्रद्धास्पद समझते हैं ।
तीसरे पद्यमें भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे मेरे मनरूप मानसरोवरमें राजहंसके समान चिरकालतक विराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्ता अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे अतिकीर्तिदेवके कोई शिष्य होंगे और संभवतः उन अतिकीर्तिके नहीं जो पंचवस्तुके कर्ता है। ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके कर्तासे पृथक जान पड़ते हैं। क्योंकि इन्हें प्रक्रियाके कर्ताने 'कविपति' बतलाया है, व्याकरणज्ञ नहीं। ये वे ही श्रुतिकीर्ति मालूम होते हैं जिनका समय प्रो. पाठकने शक संवत् १०४५ या वि० सं० ११८० बतलाया है । श्रवणबेल्गोलके जैन गुरुयोने 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य' का पद शक संवत् १०३२ के बाद धारण किया है और पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पुत्र थें । श्रवणबेलगोलके १०८ वें शिलालेखमें इनका जिक्र है और इनकी बहुत ही प्रशंसा की गई है।
प्रक्रियाके कर्त्ताने इन्हें भट्टारकोप्तम और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेखमें भी भट्टारकति लिखा है। अतः ये दोनों एक मालूम होते हैं । आश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति पण्डि. ताचार्य ही इस प्रक्रियाके कर्ता हो ।
१. छपी हुई प्रति के अन्तम "इति प्रक्रियावत्तारे कृद्विधिः समाप्तः। समाप्तेयं प्रक्रिया ।" इस तरह छपा है । इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र-प्रक्रिया नहीं जान पड़ता ।। २. सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनामोन्नतं नितिं बहुत हितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयं नावित्याश्रयता विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रकिया ।।। दुरितमभनिशुम्भकुम्भस्थलभेदनसमोग्रनखैः । राजन्मृगाधिराजो गुणनम्दी भुधि चिरं जीयात् ॥२॥ सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सदने दिग्बासस्सु चरित्रवानमलकः कान्तो विवेकी प्रियः । सोऽयं यः श्रुतकीर्ति देवयतिपो भद्वारको संसको रंरम्यान्मम मानसे कविपतिः सदाजहंसश्विरम् ॥३॥ ३. देखो 'सिस्टिम्स आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ट ६७ । ५. देखो 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २० । ५. तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । सिद्धशासनवर्धनप्रतिक्षधकार्तिकालापकः ॥२२॥ विश्रुतश्रुतकीर्तिभद्वारफयतिस्समजायत । प्रस्फुरदचनामृतांशुविनाशिताखिलाह तमाः ॥२३॥