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________________ देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण है-१ श्री गुणनन्दि, २ विबुध गुणनन्टि, ३ अभयनन्दि और ४ वीरनन्दि | यदि पहले गुणनन्दि और वीरनन्दिके बीच में हम ७८ वर्षका अन्तर मान ले, तो पहले गुण नन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५.७ के लगभग आ जायगा । इससे यह निश्चय होता है कि बीरनन्दिको गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदि पम्पके गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे। गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] में हुए हैं जो मेषचन्द्र विद्यके गुरु थे। शब्दार्णवकी इस समय दो टीकाएँ उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातनजैन ग्रन्थमालामें छप चुकी है१-शन्दार्णवचन्द्रिका, और २-शब्दाव प्रक्रिया । १-शब्दार्णव-चन्द्रिका-इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूट में है। यह ताइपत्रपर नागरी लिपिमैं है। इसके श्रादि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं। छपी हुई प्रतिमें जो गद्य-प्रशस्ति है, वह इसमें कहा है और अन्य कोक हे मी पूरा नहीं पढ़ा जाता इन्द्रश्चन्द्रः शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यस्प्रोवाचापिशलिस्मरः काशकृत्स्न""""शब्दपारायणस्येति । इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं । ये शिलाहार बंशके राजा भोजदेव [द्वितीय के समयमै हुए हैं और अर्जु रिका मामक प्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिरमैं-जो कि महामण्डलेश्वर गंहरादित्यदेवका बनवाया हुआ था। इसे शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२७२] में बनाया है । यह ग्राम इस समय अाजरें नामसे प्रसिद्ध है और कोल्हापुर राज्य में है। वादीभवनांकुश श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयामृत्यसे इस अन्यकी रचना हुई है। इस अन्धके मंगलाचरण के पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और सोमदेव ये विशेषण वीर भगवान् को दिये हैं और दूसरे श्लोकमें कहा है कि यह टीका मूलसंधीव मेघचन्द्र के शिष्य नागचन्द्र (भुजंगसुधाकर) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई गई । गुणनन्दिकी प्रशंसा चुरादि धातुपाठके अन्तमें भी एक पद्यमें की गई है, जिसका अन्तिम चरण यह है"शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिप्रतीशस्सुसौख्यः ।" इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दिको शब्दार्णव व्याकरण का फर्ता ही प्रकट किया गया है। ये मेधचन्द्र आचारसारके कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु ही मालूम होते हैं। इन्हें श्रवणबेलगोलके नं. ४७ के शिलालेख में सिद्धान्तद्धतामें जिनसेन और वीरसेनके सदृश, न्यायमैं अकलंकके समान और व्याकरणमें साक्षात् पूज्यपादसदृश बतलाया है। श्रवणबेल्गोलके नं० ५० और ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६८ [वि० सं० १२०३] में हुआ था। इसके सिवाय उनके दूसरे शिष्य प्रभाचंद्रदेवने शक सं० १०४१ [वि० सं० ११७६ ] में एक महापूजाप्रतिष्ठा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिका मेषचन्द्र के प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शफ सं० ११२७ [वि० सं० १२६२] में बनाई थी, तब मेघचन्द्रका समय वि० सं० १९४२ के लगभग माना जा सकता है। 1.नं. २५ सन् १८८०-5 की रिपोर्ट । २. श्रीपूज्यपादममवं गुणमन्दिदेवं सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् । __ सिद्धं समुन्नतपदं धूपभं जिनेन्द्र सच्छब्बलक्षणमहं धिनमामि वीरम् ॥ १ ॥ ३. श्रीभूनसंघजलजप्रतिबोधभानोमधेन्दुदीक्षितभुजङ्गसुधाकरस्य । राहाम्ततोयनिधिजिकरस्य पुसि भे हरीदुपतये घरदारिताय ॥२॥
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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