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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण ५-सिद्धप्रियस्तोत्र-निर्णयसागरको काव्यमाला सितमगुच्छ] में उप चुका है। २६ पद्योंमें चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति है।
अनुपलब्ध ग्रन्थ शब्दावतार न्यास और जैनेन्द्र न्यास--पूज्यपादका पाणिनि व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामका न्यास है और जैनेन्द्र पर स्वोपश न्यास भी है।
वैद्यक प्रन्य-शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवके 'अपाकुर्वन्ति' श्रादि श्लोकके 'काय' शब्दसे ध्वनित होता है कि पूज्यादका कोई वैद्यक ग्रन्थ होगा।
सार-संग्रह मला [ग : ९० ६i] के एक उद्धरणके आधारसे 'सारसंग्रह' नामक एक और ग्रन्थके होनेका अनुमान है-“तथा सारसग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपाद। अनन्तपर्यायास्मकस्य वस्तु नोऽन्यत्मपर्यायाधिगमे कर्तव्ये आत्महत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।" यह कोई न्याय या सिद्धान्तका ग्रन्थ जान पड़ता है। उक्त वाक्यका 'पूज्यपाद' किसी अन्य पूज्य आचार्यका विश्वेषण भी हो सकता है ।
'जैनाभिषेक' नामके एक और ग्रन्थका जिकर श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ४० के 'जैनेन्द्रं निजशब्द भागमतुलं' आदि श्लोकमें किया गया है।
इस लेखके लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजय और एं० बेचरदास जीवराजको न्याव-याकरातीर्थसे बहुत अधिक सहायता मिली है। इसलिए इम उक्त दोनों सज्जनौंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। मुनि महोदयकी कृपासे हमको जो साधन सामग्री प्रास हुई है यदि न मिलती तो यह लेख शायद ही इस रूपमे पाठकों के सम्मुख उपस्थित हो सकता।
परिशिष्ट १
पूज्यपाद-चरित कनड़ी भाषाके हस चरितको चन्द्रय्य नामक कविने जो कारक देशके मलयनगरको 'ब्राह्मणगली' के रहनेवाले थे । दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें समाप्त किया है। चरितका सारांश यह है
1. अपाकुर्वन्ति यवाचः कायवाचितसम्भवः । कलङ्कमसिन सोध्यं देवनन्दी नमस्यते ।।
पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्य टमें 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ है, परन्तु वह आधुनिक कनड़ीमें लिखा हुआ कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है। उसमें न कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न वह उनका बनाया हुआ है। “वैद्यसार' नामका एक और अन्य अभी जैन-सिद्धान्त-भास्कर में प्रकाशित हुआ है, पर वह भी उनका नहीं है।
विजयनगरके राजा हरिहरके समय में एक मंगराज नामके कनड़ी कवि हुए हैं। वि० सं० १४१६ के लगभग उनका अस्तित्व-काल है। स्थावर विषोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उनका खगेन्द्रमणिदर्पण नामका ग्रन्थ है। वे उसमें अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाते हैं और यह भी कि यह ग्रन्थ पूज्यपाद वैद्यक अन्यसे संगृहीत है । अभी हाल ही शोलापुरसे उमादित्याचार्यका 'कल्याणकारक' नामका ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। उसमें भी अनेक जगह 'पूज्यपादेन भाषितः कहकर पूज्यपादके घेचक ग्रन्थका उल्लेख किया गया है। उमादित्य राष्ट्रकूट अमोधवर्षके समयके बतलाये गये है, परन्तु हमें इसमें सन्देह है। उसकी प्रशस्तिकी भी बहुत-सी बातें सन्देहास्पद है जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है।
२. इसके लिए प्रो. हीरालालजी जैन लिखित धवला (पुस्तक) की भूमिकाके पृष्ठ ६०-६१ देखिए ।
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