SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र-व्याकरणम् कर्नाटक देश के 'कोले ' नामक ग्रामके माधव भट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणी से पूज्यपादका जन्म हुआ। ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यवाद रक्खा गया । माघ भने पनी स्त्रीके कहने से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। भट्टनीके सालेका नाम पाणिनि था उसे भी उन्होंने जैनी बनने को कहा, परन्तु प्रतिष्ठा के खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंड ग्राम में वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई, और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुधा । २४ पूज्यपादने एक बगीचे में एक सॉपके मुँहमें फँसे हुए मैडकको देखा। इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये । पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरण काल निकट नाया जान कर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने घूरा करना स्वीकार कर लिया । पाणिनि दुर्ध्यानवश मरकर सधैं हुए। एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूँगा । इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया। इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, श्रईत्य तिष्ठा लक्षण और वैद्यक ज्योतिष यादिके कई प्रन्थ रच चुके थे । गुणभ के मर जानेसे नागार्जुन श्रतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावती का एक मन्त्र दिया और सिद्ध करने की विधि भी बता दी । उसके प्रभाव से पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी । इस सिद्ध-रस से नागार्जुन सोना बनाने लगा | उसके गर्वका परिहार करनेके लिए पूज्यपादने एक मामी वनस्पति से कई बड़े सिद्ध-रस बना दिया । नागार्जुन जब पर्वतको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरन्द्रपद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेको कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की | पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जावा करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा करके द्राविड़ संघको स्थापना की। नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया। एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई जो गाने नाचने में कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित शे गया । वे वहीं रहने लगीं और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं। पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देव विमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीथोंकी यात्रा की। मार्गमै एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्योकी त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने आममैं आकर समाधिपूर्वक मरण किया । इस वरिपर कोई टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है । इस तरह के न जाने कितने मनगढन्त और ऊलजलूल किस्से हमारे यहाँ इतिहासके नामसे चल रहे हैं । परिशिष्ट २ हेम्बूरुका दानपत्र श्रीमन्माधवमद्दाधिराजः, तस्य पुत्रः श्रविच्छिनाश्वमेघाषभृथाभिषिकः श्रीमष्कदम्बकुलगगनगभस्तिमालिनः श्रीमत्कृष्णा महाराजस्य प्रियभागिनेयः जननीदेवताकपर्यङ्क एवाधिगतराज्यः विह्नकविकाञ्चननिकपोपलभूतः सम्भावनमित समस्तसामन्तमण्डलः अविनीतनामा श्रीमत्कोङ्ग थिमहाराजः तस्य पुत्रः पुनाडराजप्रियपुत्रिकापुत्रः विजभमाण शक्तित्रवोपन मित्तसमस्तसामन्तमण्डलः अन्यर्यालस रुपीरुल रेपेनं गरायनेकसमर
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy