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________________ भूमिका [ लेखक-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ] भारतवर्ष व्याकरणशास्त्रका अध्ययन लगभग तीन सहस्र वर्षसे चला आ रहा है। भाषाके शुद्ध ज्ञानके लिए व्याकरणका महत्त्व सर्व सम्मनिसे स्वीकृत हुआ. अतएव व्याकरणको 'उनरा विन्द्या' अर्थात् अन्य विद्याओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ कोटिम माना गया। किसी भी भाषाके इतिहासमें धातु और प्रत्ययों की पहचान उस गौरवपूर्ण स्थितिको सूचक है जिसमें सूक्ष्म दृष्टिसे भापाके अान्तरिक संगठनका विवेक कर लिया जाता है, और शब्दोंकी उत्पत्ति और निर्माणको जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्यको आत्मसात् कर लिया जाता है। यों तो सभी मनुष्य अपनी अपनी मातृभाषामैं घोलकर अपना अभिप्राय प्रकट कर लेते हैं। किन्तु व्याकरणकी प्रक्रियाका जन्म उस राजपथका निर्माण है जिसपर चलकर निर्भय भाक्से हम भाषाके विस्तृत साम्राज्यमें जहाँ चाहे पहुँच सकते हैं और शब्दोंमै भावप्रकाशनकी जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्रात कर सकते हैं। संस्कृत वैयाकरणोंने संसारमैं सर्वप्रथम इस प्रकारका महनीय कार्य किया | शब्दोंके विभिन्न रूपोंके भीतर जो एक मूल संज्ञा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूपका निश्चय और प्रत्यय जोड़कर उससे बननेवाले क्रिया और संज्ञा रूपी भनेक शब्दोकी रचना एवं प्रत्ययोंके अर्थों का निश्चय-इस प्रकारके विविध विचारको पद्धतिका जिस शास्त्र में प्रारम्भ और विकास हुआ उसे शब्दचिया या न्याकरणशास्त्र कहा गया । संस्कृत साहित्यमै पाणिनिको अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्रका सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहन सूत्रों में लौकिक और वैदिक संस्कृतका जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है । पाणिनिने संस्कृत व्याकरणका जो स्वरूप स्थिर किया उसीका विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, माय, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदिके रूपमें लगभग इस शती तक होता आया है। किन्तु पाणिनिके अतिरिक्त, पर मुख्यतः उन्हीकी निर्धारित पद्धतिसे और भी व्याकरण-मन्थोंका निर्माण हुआ । इस विषयमें एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है. इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरमैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ यह श्लोक मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेवका कहा जाता है। इस सूची में चैयाकरणोंकी दो कोटियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती है। पहली कोटिमें इन्द्र, शाकटायन, श्रापिशलि, काशकृस्न और पाणिनि, ये पाँच . प्राचीन वैयाकरण थे। दूसरी कोटिमैं अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिकोंकी गणना है। पाणिनीय सूत्र 'तूक्थादिसूत्रान्ताह' [॥२॥६०] के एक वार्तिकपर काशिकामें 'पञ्चव्याकरण:' यह उदाहरण पाया जाता है। इसका अर्थ था पाँच व्याकरणोंका अध्ययन करनेवाला या जाननेवाला विद्वान् तदधीते तद्वेद] । इसमै जिन पाँच व्याकरणों का एक साथ उल्लेख है, वे यही पाँच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए जिनकी सूची मुग्धबोधके इस श्लोक है। इसपर सूक्ष्म विचार करनेसे यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनिसे पूर्व. कालमें व्याकरणका अध्ययन अध्यापन व्यापक रूपसे हो रहा था, जैसा कि पाणिनीय न्याकरणके इतिहास से शात होता है । प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायीमें लगभग ६४ श्राचायोंके नाम आये हैं जिन्होने शब्दशास्त्र के सम्बन्धमैं उस प्राचीनकालमें ऊहापोह किया था। इनमेंसे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि और 'काशकरस्नके व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु पाणिनिसे पहले वे अवश्य विद्यमान थे। शात
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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