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भूमिका होता है कि उन प्राचीन व्याकरणको अधिकांश सामग्रीके आधारपर एवं स्वतः अपनी सूचमेक्षिका द्वारा लोक्से शब्द-सामग्रीका संग्रह करके पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीका निर्माण किया । वह शास्त्र लोकमैं इतना महान् और सुविहित समझा गामिनीयं पर निहितात, आप ३६६ णिनिके उत्तर कालमै नये व्याकरणोंको रचनाका क्रम एक प्रकारसे बन्द सा हो गया | उसके बाद व्याकरणका परिष्कार केवल वार्तिक, भाग्य और वृत्तियों द्वारा चलता रहा । कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिशाली प्राचार्य ने पाणिनि ध्याकरणपर लगमग सन्ना चार सहस्र वार्तिकोंकी रचना करके उस महान शास्त्र के प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र व्याकरण रचने का उपक्रम नहीं किया | इसी प्रकार भगवान् पतञ्जलिका महामाष्य भी पाणिनीय व्याकरणकी सोमाके भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था | पाणिनि लगभग पांचवीं शती विक्रम पूर्व में नन्द राजाओं के समग्रमें हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्यपर श्राश्रित जान पड़ती है जैसा कि हमने अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थम प्रदर्शित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनिके बाद लगभग एक सहस वर्षतक नूतन व्याकरणकी रचनाका प्रयत्न नहीं किया गया ।
भारतीय साहित्यिक इतिहासका यह सुविदित तथ्य है कि कुषाण कालके लगभग संस्कृत भाषाको पुनः सार्वजनिक रूपमै साहित्यिक भाषा और राजभाषाका पद प्राप्त हुश्रा ।कनिष्कके समयमें अश्वघोषके काव्योकी रचना और कद्रदामाके जूनागढ़ लेवसे यह स्पष्ट विदित होता है। वस्तुतः इस समय भाषाके क्षेत्रमैं जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठोक स्वरूप कुछ इस प्रकार था-ब्राह्मण साहित्यमें तो संस्कृत भाषाको परम्परा सदासे अक्षुण्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त बौद्ध और जैन श्राचार्योंने भी संस्कृत भाषाको उन्मुक्त भावसे अपना लिया और उसके अध्ययनसे दोनोंने अपने अपने क्षेत्रमैं विपुल साहित्यका निर्माण किया जिसमें किसी समय सइसो ग्रन्थ थे। कुषाण कालसे नो भारा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ या वह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहाँ तक कि लगभग चौथी-पाँचत्रीं शती ईस्वी में संस्कृत भाषाको न केवल भारतवर्ष में अखएड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वरच मध्य एशिवासे लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तक देश में पारस्परिक व्यवहारके लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई । |
इस पृष्ठभूमिमें शब्दविद्याका पुनः वह छूटा हुआ सूत्र आरम्भ हुआ और नये व्याकरणशास्त्र लिखे बाने लगे । स्वयं पाणिनीय व्याकरणों पर वामन अयादित्य कृत काशिका वृत्ति और जिनेन्द्रमुद्धि कृत न्यासकी रचना हुई। यह टीकाके मार्गसे प्राचीन व्याकरणका ही विशदीकरण था; किन्तु बौद्ध और जैन जो दो बड़े समुदाय संस्कृत भाषाकी नई शक्ति से परिचित हो रहे थे, उन्होंने अपने अपने क्षेत्र में दो नये व्याकरणों का निर्माण किया । बौद्धोंमें आचार्य चन्द्रगोमी कृत चान्द्र व्याकरण और जैनों में प्राचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरण गुन युगमैं अस्तित्व में आये। ज्ञात ोता है कि दोनों की ही रचना लगभग ५. वी शती ईस्वीके उत्तरार्धमें हुई। चान्द्र च्याकरणकी स्वोपज्ञ वृत्ति में 'अजयद् जो हणान् [१२८ ] उदाहरणसे सिद्ध है कि पाँचवीं शतीके मध्य में स्कन्दगुप्तने होंपर जो बड़ो विजय प्रात की थी उसकी समकालीन स्मृति इस उदाहरणमैं अवशिष्ट है। इससे चान्द्रव्याकरणके रचनाकाल पर प्रकाश पड़ता है। पूज्यपाद देवनन्दीने दो सूत्रों में प्रसिद्ध आचार्य, सिद्धसेन [ वेत्तेः सिद्धसेनस्य, ५।११७ ] और समन्तभद्र 'चतुष्टय समन्समद्स्य' [ ४०] का उल्लेख किया है, ये दोनों देवनन्दीसे कुछ समय पूर्व हो चुके थे। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकरका समय भी सर्वथा निश्चित नहीं है किन्तु अनुश्रुति के अनुसार उन्हें विक्रमादित्यका समकालीन माना जाता है। विक्रमके नवरत्नों की सूचीम जिस क्षपणकका उल्लेख है उन्हें विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर ही मानते हैं। श्री राइसने सिद्धसेनका समय पाँचवीं शतीके मध्यभागमें माना है; किन्तु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य [ ३७५-४१३ ]
और सिद्धसेनकी समसामयिकताका आधार यदि सत्य हो तो सिद्ध सेनको चौथी शतीके अन्त मानना ठीक होगा। लगभग यही समय समन्तभद्रका होना चाहिए । श्री प्रेमीजीने अपने पाण्डित्यपूर्ण लेख में देवनन्दीके