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जैनेन्द्र-व्याकरणम समयके विनय में जो प्रमाण संगृहीत किये हैं उनकी सम्मिलित साक्षीसे भी यही सूचित होता है कि प्राचार्य देवनन्दी लगभग पाँचवी हातीके अन्तमें हुए हैं 1 इस सम्बन्ध में एक विशेष प्रमाणकी ओर ध्यान दिलाना अावश्यक है । इसके अनुसार संवत् ६६० में बने हुए दर्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थमें कहा है कि पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीने दक्षिण मधुरामैं ५२६ विक्रमीम [ ४६६ ई० ] द्राविष्ट संघकी स्थापना की । इससे भी पूज्य पादका समय ५ वी शतीके उत्तरार्ध में सिद्ध होता है | इसीका समर्थन करनेवाला एक अन्य प्रमाण है-कर्नाटक कविचरित्र के अनुसार गंगवंशीय राजा अविनोत [वि० सं० ५२३] के पुत्र दुनिीत [वि० सं०५३८, ईस्वी ४८१ श्राचार्य पूज्यपादके शिम्य थे; अतएव पूज्यपाद ५ वीं शतीके उत्तरार्धके सिद्ध होते हैं। महाराज पृथिवीकोंकणके दानपत्र में लिखा है-श्रीमकोकणमहाराजाधिराजस्याविनीतनाग्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देषभारसीनिवन्ध वृहत्कन्धेन किरातार्जुनीयपंचदशसर्गटीकाकारेण दुर्भाितनामधेयेन.'; अर्थात् अविनीतके पुत्र दुविनीतने शब्दावतारनामक ग्रन्थकी रचना की थी। जैसे प्रेमीजीने लिखा है शिमोगा जिलेकी नगर तहसीलके शिलालेख में देवनन्दीको पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यासका को लिखा है। अनुमान होता है कि दुर्विनीसके गुरु पूज्यपादने वह ग्रन्थ रचकर अपने शिष्यके नामसे प्रचारित किया था ।
जैनेन्द्र व्याकरण उस शृंखलाको पहली कड़ी है जिसमें गुप्तकालसे लेकर मध्यकाल तक उत्तरोत्तर नये. नये व्याकरणों की रचना होती चली गई । जैनेन्द्र पांचवीं शती], चन्द्र [पांची शती], शाकटायन नवमी शती का पूर्वाद्ध ], सरस्वतीकण्ठाभरण । म्यारहवी शताका पूर्वार्द्ध ] और प्रसिद्ध हैमशब्दानुशासन [ बारहवीं शतीका पूर्वा ] इन सबने उन्मुक्त मनसे और अत्यन्त सौहार्द भावसे पाणिनीय व्याकरणको मुल साममीका अवलम्बन लिया। इनमें भी जैनेन्द्र व्याकरणने भोजके सरस्वतीकण्ठाभरणको छोड़ कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रोंक सबसे निकट रखा है। किसी भी प्रकरण के अध्ययनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्रने पाणिनि सामग्रीकी मायः अविकल रक्षा की है। केवल स्वर और वैदिक प्रकरणों को अपने युगके लिए आवश्यक न मानकर उन्होंने छोड़ दिया था । जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ताने पाणिनीय गणपाटकी बहुत सावधानीसे रक्षा की थी । मूल व्याकरणमैं पाणिनिके गण सूत्रोको प्रायः स्वीकार किया गया है। यद्यपि वैदिक शाखाओवाले और गोत्र सम्बन्धी गणेसे सिद्ध होनेवाले नामोंका जैन साहित्यके लिए उतना उपयोग न था, किन्तु जिस समय इस व्याकरणकी रचना हुई उस समय भाषाके विश्यमें लोकको चेतना अत्यन्त स्वच्छ और उदार भावसे युक्त यो; अतएव जैनेन्द्र व्याकरणकी प्रवृत्ति पाणिनि सामग्री के निराकरणमें नहीं, वरन् उसके अधिकसे अधिक संरक्षणमैं देखी जाती है। जैनेन्द्र व्याकरण के साथ उसका अलग गणपा किसी समय अवश्य ही रहा होगा, यद्यपि अच बह पृथक् रूपसे उपलब्ध न होकर अभयनन्दी कृत महावृत्तिके अन्तर्गत ही सुरक्षित है | कात्यायनके वार्तिक
और पतञ्जलिके भाग्यको इटियोंमें जो नये नये रूप सिद्ध किये गये थे उन्हें देवनन्दीने सूत्रों में अपना लिया है। इस लिए भी यह व्याकरण अपने समयमै विशेष लोकप्रिय हुआ होगा। यह प्रवृत्ति काशिकामें भी किसी अंश में आ गई थी और चन्द्र श्रादि व्याकरणों में भी बराबर पाई जाती है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठौकी परम्परा इस समय पाई जाती है—एकमे तीन सहस्त्र सूत्र हैं। दूसरे में लगभग ७०० सूत्र अधिक है। इस विषय में श्रीप्रेमीजीका निष्कर्ष यथार्थ है कि मूल जैनेन्द्र सूत्रपाठकी संख्या ३ सहल हो थी जिसपर अभयनन्दीको टीका पाई जाती है।
. अभयनन्दी कृत महावृत्ति लगभग १२ सहस्र श्लोक परिमारणका बड़ा ग्रन्थ है। काशीसे १६२८ में इसके प्रथम ३ अध्यायों का एक संस्करण प्रकाशित हुआ था। किन्तु वह केवल एक प्रतिके श्राधारपर तैयार किया गया था, अतएव इस बातकी बहुत अावश्यकता थी कि सम्पूर्ण जैनेन्द्र व्याकरण तथा उसकी महावृत्तिका एक संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जाय । हर्षकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठके सत्प्रयत्नसे इस मूल्यवान् ग्रन्थका यह संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है जिसके तैयार करने में पूनाके भण्डारकर ओरिएण्टल इंस्टीट्यइमें सुरक्षित प्रतियोंका और काशी में ही प्राप्त ३ प्रतियोंका उपयोग किया गया है । आशा है, व्याकरण