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भूमिका शास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन के लिए जैनेन्द्रका वह वर्तमान संस्करण अधिक उपयोगी सिद्ध होमा, विशेषतः गणपाठसे तुलनात्मक अध्ययन के लिए इस संस्करणका विशेष उपयोग हो सकेगा ।
आचार्य अभयनन्दीकी महावृत्ति लगभग काशिकाके समान ही वृहत् ग्रन्य है। इसके कर्ताने कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके माध्यसे बहुत अधिक उपादेय सामग्रीका अपने ग्रन्थमें संकलन कर लिया है । महावृत्तिका काल पाठवीं शताब्दीका प्रारम्भ माना जाता है और सम्भावना ऐसी है कि अभयनन्दीने काशिका वृत्तिका उपयोग किया था । वस्तुतः किसी भी पाठकसे यह तथ्य छिपा नहीं रह सकता कि अष्टाध्यायी और काशिकाका ही रूपान्तर जैनेन्द्र पञ्चाभ्याची और उसकी महावृत्तिमें प्राप्त होता है। फिर भी काशिका और महावृत्तिको सूक्ष्म तुलना करनेपर यह प्रकट हो जाता है कि अभयनन्दीने कुल ऐसे उदाहरण दिये हैं जो काशिकामें उपलब्ध नहीं होते औन फलस्वरूप ऐसी सामग्रीकी रक्षा की है जो काशिकासे प्रास नहीं हो सकती। उन्होंने जहाँ सम्भव हो सका वहाँ जैन तीर्थकरॉके, महापुरुषोंके, या अन्यों के नाम उदाहरणों में डाल दिये हैं। जैसे, सूत्र श१५ के उदाहरणमें 'अनु शाविभाहम् प्राश्याः, अनुसमन्तभद्रं तार्किकाः; सूत्र १।४।१६ के उदाहरण में 'उपसिंहनन्दिनं कवयः, उपसिद्धसेनं वैयाकरयाः'; सूत्र १।४।२० की वृत्तिमैं 'अकुमारभ्यो यशः समन्तभद्रस्य'; सूत्र १।४।२२ की टीकामै अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति'; सूत्र १११६८ की टीकामै 'भरतगृखः, भुजबलिगमाः'; ग १० की वृत्निमें 'आकृमारं यशः समन्तभद्रस्य' ऐसे उदाहरण हैं जो वृत्तिकारने मुलग्रन्थके अनुकूल जैन वातावरणका निर्माण करनेके लिए, अपनी प्रतिमासे बनाये हैं। सूत्र ११३५ की वृत्तिमें 'प्राभृतपर्यन्तमधीते' उदाहरण महत्त्वपूर्ण है, उमौके साथ 'समन्धम् , सटीकम् अधीते' भी च्यान देने योग्य हैं। यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्राभूतसे तात्पर्य महाकर्मप्रकृति प्राभूतसे या जिसके रचयिता श्रा० पुष्पदन्त तथा भूतबलि माने जाते हैं [प्रथम-द्वितीय शती] | इसीका दूसरा नाम पट्खण्डागम प्रसिद्ध है। इसीका भागविशेष 'बन्ध' या महानन्ध [महाधवल सिद्धान्तशास्त्र] था जिसके अध्ययनसे यहाँ अभयनन्दीका तात्पर्य ज्ञात होता है। अर्थात् उस समय भी विद्वानों में प्रामृत या पट खण्डागमसे पृथक् महाबन्धका अस्तित्व था और दोनोंका अध्ययन जोक्नका आदर्श माना जाता था । 'सरीकमधीते' में जिस टीकाका उल्लेख है वह धवला टीका नहीं हो सकती क्योंकि उसकी रचना बोरसेनने ८१६ ई० में की थी। श्रुतावतारके अनुसार महाकर्मप्राभृतपर प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी एक बड़ी प्राकृत टीका लिस्त्री श्री जो इस समय अनुपलब्ध है। संभवतः वही टीका प्राभूत और बन्धके साथ पढ़ी जाती थी। इनके स्थान पर पाणिनि सूत्रके उदाहरणों में किप्ती समय इष्टि, पशुबन्ध, अग्नि, रहस्य नामक शतपथ ब्राह्मणके तत्तद् काण्डौंका अध्ययन विद्याका आदर्श माना जाता था। देवनन्दीने सूत्र ११४३४ में जिन श्रीदत्त आचार्यका उल्लेख किया है उन्हें कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते हैं, परन्तु अभयनन्दीकी महावृत्तिसे सूचित होता है कि श्रीदत्त कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण ये जिनका लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इतिश्रीदत्तम्', यह प्रयोग 'इतिपाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार 'तच्छ्रीदत्तम्', 'अहोश्रीदत्तम्' प्रयोग भी श्रीदत्तकी लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते हैं [श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशते; महावृत्ति १:३५] । सूत्र ३।३।७६ पर 'सेन प्रोक्तम्' के उदाहारणम अभयनन्दीने श्रीदत्तके विरचित ग्रन्धको श्रीदत्तीयम् कद्दा है। इससे ज्ञात होता है कि श्रीदत्तका बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था। सूत्र २४/४ की वृत्ति में 'शारदं मथुरा रमणीया, मासं कल्याणी कानी' वे दोनों उदाहरण अभयनन्दीकी मौलिकता सूचित करते हैं। पाणिनि सूत्र 'कालावनोरस्यन्तसंयोगे' २३.५] की काशिका वृत्ति में 'मासं कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'मासं कल्याणी काडी' यह ऐतिहासिक सूचना अभयनन्दीने किसी विशेष स्रोतसे प्राप्त की थी। जिस काञ्चीपुरीके मासव्यापी उत्सर्वोकी विशेष शोमाकी ओर इस उदाहरणमैं संकेत है वह महेन्द्रवर्मन् , नरसिंह वर्मन् आदि पल्लवनरेशों की राजधानीके सम्बन्ध होना चाहिए । अतएव सप्तम शतीसे पूर्वं यह उदाहरण भाषा में उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४।६।११४ को दृत्तिमै अभयनन्दी. ने मायके 'सटाइटामिनधनेन बिभ्रता'श्लोकका उद्धरण दिया है। मापके दादा मुगभदेव बर्मलातके मंत्री