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________________ । १० जैनेन्द्र-व्याकरणम् थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है। अतएव माचका समय सप्तम शतीका उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही अभयनन्दीने महावृत्तिका निर्माण किया होगा | सुत्र ११४१६९ पर 'चन्द्रगुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिका में जो 'पुष्पमित्रसभा ' दूसरा उदाहरण है उसकी जगह महावृत्तिकारने 'सातवादनसभा' उदाहरण रक्खा है । उसी प्रकार काशिकामे [२/४/२३] में केवल 'काइसभा' उदाहरण है, किन्तु श्रभयनन्दीने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये हैं। कहीं-कहीं अभयनन्दीने काशिकाकी अपेक्षा भाष्य के उदाहरणोंको स्वीकार किया है। जैसे सूत्र १|४ | १३७ में 'औडालकिः पिता, श्रौद्दालकायनः पुत्रः' यह भाष्यका उदाहरण था जिसे बदलकर काशिकाने अपने समय के अनुकूल 'आर्जुनिः पिता, आर्जुनायनः पुत्रः [काशिका २०६६ ] यह उदाहरण कर दिया था । 'आर्जुनायन' काशिकाकारके समय अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्ति में आर्जुनायनगा के उल्लेख से ज्ञात होता है। कहीं-कहीं महावृत्ति काशिका की सामग्रीको स्वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये हैं जो सूचित करते हैं कि श्रभ्यनन्दोकी पहुँच अन्य प्राचीन वृत्तियों तक थी, जैसे सूत्र १/४/८३ की वृत्ति में 'उदय रावति' तो काशिका में भी है किन्तु 'विपाद्चक्रमिदम्' [विपाशा और चक्रभिद नदका संगम] उदाहरण नया है। ऐसे ही एक २४/२९ में सरिकाकन्ध, कञ्चन्ध, कन्ध, कूम्भ उदाहरण महावृत्ति और काशिका में समान हैं, पर Testones और महिकिबन्ध उदाहरण महावृत्ति में नये हैं। काशिकाका मुष्टिबन्ध महावृत्ति दृष्टिबन्ध और वोरकयन्ध चारकक्ष हो गया है | सूत्र १/३/३६ में भी चारवन्त्र पाठ है। सूत्र ५/४१९६ 'पानं देशे' की वृत्तिमैं काशिका के 'क्षीरपाणाः उशीनराः' को 'क्षीरपाणाः आम्धाः' और 'सौवीरपाणा वाह्रीका:' को 'सौवीरपाणाः दुत्रिणाः 'कर दिया है। 'द्रविगाः' द्रमिल या द्रमिङका रूप है। ये परिवर्तन भयनन्दीने किसी प्राचीन वृत्तिके आधार पर या स्वयं अपनी सुचनाके श्राधारपर किये होंगे । आन्ध्र देशमें दूध पीने का और तामिल देश में hat fire व्यवहार लोक में प्रसिद्ध रहा होगा । कीं कहीं महावृत्ति में कठिन शब्दोंके नवे अर्थ संग्रह करने का प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २/४११६ का 'षडक्षीण' शब्द है । पानि सूत्र ५|४/७ की काशिकावृत्ति में 'अक्षय मन्त्रः' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मंत्र या परामर्श जो केवल राजा और मंत्री बीचमें हुआ हो [ यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभिः ] 'षट्कर्यो भियते मन्त्रः' के अनुसार राजा और मुख्य मंत्रीकी 'चार आँखों' या 'चार कानों' से बाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जाने की आशंका रहती थी । अभयनन्दीने काशिका के इस अर्थको स्वीकार तो किया है, किन्तु गौण रीतिसे । उन्होंने 'अषडक्षीणो देवदत्तः' उदाहरणको प्रधानता दी है। अर्थात् कोई देवदत्त नामका व्यक्ति जिसने अपने पिता, पितामह और पुत्रमेंसे किसीको न देखा हो । अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामहकी मृत्यु के बाद उत्पन्न हो और स्वयं ऋपने पुत्र जन्मके कुछ मास पहले गय हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंद को भी अक्षीणा कहा है [ येना कन्दुकेन द्वौ कीद्रतः सोऽप्येवमुक्तः ] । या तो ये अर्थ अभवनन्दीके समय में लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है । महावृत्ति में 'पक्षी' का एक अर्थ मछली भी किया है पर उसमें खींचतान ही ज्ञान पड़ती है | सूत्र ३१४ १३४ में 'अयानवोन' शब्द के अर्थका भो महावृत्तिमें विस्तार है ! महावृत्ति सूत्र २/२/६२ में इतिहासको विशेष महत्त्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गई है । उसमें ये दो उदाहरण आये हैं 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । अरुणद् यवनः साकेतम्' व्याकरणकी दृष्टिसे यह आवश्यक था। कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध घटनाका सूचक हो, जो कहनेवालेके परोक्षमें घटित हुआ हो किन्तु जिसका देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन कालकी ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो | भाष्यकार पतनलिने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओं का उल्लेख किया था- 'अरुणद
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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