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भूमिका यवनः साकेतम् , अरुण यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमें शाकलके यवन राजाओं द्वारा किये हुए उन दो श्मलोंका उल्लेख है जिनमेंसे एक पूर्वकी ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिममें मध्यमिका पर। मध्यमिका चित्तौड़ के पासका यह स्थान था जिसे इस समय नमरो कहते हैं और जहाँ खुदाई में प्राप्त पुराने सिक्कों पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है । ये इमले किस राजाने किये थे उसका नाम पतजलिने नहीं दिया, किन्तु गूनानी इतिहासलेखकोंके वर्णनसे शात होता है कि उस राजाका नाम मिनन्ष्टर था जिसे पाली भाषामें मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्कों पर तत्कालीन बोलचालको प्राकृत भाषामें उसका नाम मेनन्द्र मिलता है। महाबृत्तिके 'अरुणान्महेन्द्रो मथुराम्' इस उदाहरणमें दो महत्वपूर्ण सूचनाएँ हैं। इसमें राजाका नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी सम्मतिमैं इसका मूलपाठ 'मेनन्द्र' या । पीछेके लेखकोंने मैनन्द्र नामको ठीक पहचान न समझ कर उसका संस्कृत रूप महेन्द्र कर डाला | इस उदाहरणसे संस्कृत साहित्यकी भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्वकी ओर अभियान करनेवाले यवनराजका नाम मेनन्द्र या मिनन्डर या । वानराज मेनन्द्रने पाटलिपुत्र पर दाँत गड़ा कर पहले धक्के में मथुरा पर अधिकार जमाया और फिर श्रागे बढ़कर साकेतको बैंक लिया। साकेत पहुँचने के लिए मथुराका जीतना यावश्यक था। अब यह सूचना पक्के रूपमें अभयनन्दीके उदाहरणसे प्राप्त हो जाती है। इससे यह भी पता लगता है कि काशिकाके अतिरिक्त भी अभयनन्दी के सामने पाणिनि व्याकरणकी ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुश्रा । सूत्र १४३१३६ की वृत्तिमें प्रारण्यक पर्व १२६।८-१० का यह श्लोक पठित है
उलखलराभरणः पिशाची यदभापत् । एतत्तु ते दिवा नृसं रात्री नृत्तं नु द्रश्यसि ।।
काशिका १४५ में यह श्लोक किन्हीं प्रतियों में प्रक्षिप्त और किन्हीं में मूलके अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्तिसे सिद्ध हो जाता है कि वह काशिकाके मूलपाटका भाग था । श्लोकके उत्तरार्धमें जो दिवानृत्त रात्रौ नृतं पाठ है उसका समर्थन महाभारतकी कुछ प्रतियौसे होता है पर कुछ अन्य प्रतियों में 'वृत्त पाठ है जैसा कि काशिकामें और महाभारतके पूना संस्करण में भी स्वीकार किया गया है । श्राचार्य प्रभयनन्दीने अपनी महावृत्तिको जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरणकी पुष्कल सामग्रीसे भर दिया है वह सर्वथा अभि.. नन्दनके योग्य है। श्राशा है जिस समय काशिकावृत्ति, अभयन दीकृत महात्ति और शाकटायन व्याकरणको अमोघवृत्ति इन तीनोंका तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूपसे जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकारने परम्परासे प्राप्त सामग्रीकी कितनी अधिक रक्षा अपने अपने अन्य की थी। यह सन्तोषका विषय है कि इन कृतियोंने सावधानीके साथ प्राचीन सामग्रीको बचा लिया ।
श्राचार्य देवनन्दीने पाणिनीय अष्टाध्यावीको आधार मानकर उसे पञ्चाथ्यावीमें परिवर्तन करते समय दो बातों की ओर विशेष ध्यान रखा था-एक तो धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरणमें इतनी स्पष्टता और स्वारस्य श्रा सका था, डीने बोजगणितके जैसे अतिसक्षिप्त संकेतों में बदल दिया है जिनकी सूची परिशिष्ट दे दी गयी है। दसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको प्रा० देवनन्दीने छोड़ दिया है । किन्न ऐसा करते हुए इन्होंने उदारतासे काम लिया है, जैसे आनाग्य, धाच्या, सानाव्य, कुण्डपाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, [ २११११०४.१०५]: प्रावस्तुत् [२१२।१५६ ] श्रादि वैदिक साहित्यमैं प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंको रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण [३।२।२१.२८] में शुक्र अपोनात, महेन्द्र, सोम, यावाप्रथिवी. शुनासीर, मरत्वत् , अग्नीषोम, बास्तोस्पति, गृहमेध आदि गृह्यसूत्रकालीन देवतायोके नामों को पाणिनीय प्रकरणके अनुसार हो रहने दिया है। प्रत्ययोंमें आनेत्राले फ, द, ख, छ घऔर यु, त्रु, एवं उनके स्थान में होनेवाले आदेशोंको भी ज्योंका त्यों रहने दिया है। [५११११:५३१२ ] | 'तेन प्रोफम्' प्रकरण [ ३।३७६-८० में वैदिक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम भी ज्यों के लों जैनेन्द्र व्याकरणमें स्वीकृत कर लिये गये हैं। कहीं कहीं जैनेन्द्रने उन परिभाषाओंको स्वीकार किया है जो प्राक् पाणिनीय व्याकरणों में मान्य थी और जिनका