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________________ १२ जैनेन्द्र-च्याकरणम् उल्लेख माध्य या वर्तिकों में प्राधा है। उदाहरण के लिए जैनेन्द्र खूब १४३१०५ में उत्तरपदकी संज्ञा मानी गई है। पतञ्जलिके महाभाष्यमैं सूत्र ७।३।३ पर श्लोकवार्तिकमैं घु पाठ है और वहां किमिदं छोरिति उत्तरपदस्येति' लिखा है। सूत्र ७१।२१ के भावमैं अघुको अनुत्तरपदका पर्याय माना है पर कोलहान का सुझाव था कि त्रु का शुद्ध पाट यु होना चाहिए । वह बात जैनेन्द्र के सूत्र १।३।१०५ 'उत्तरपदं धू' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है। और अब भायमैं भी वही शुद्ध पाठ मान लेना चाहिए। ___ सबसे श्राश्चर्यकी बात यह है कि पाणिनिके 'पूर्वनासिद्धम् [२३] सूत्र और उससे संबंधित असिद्ध प्रकरणको भी जो पाणिनिके शास्त्रनिर्मागा कौशलका अद्भुत नमूना है, जैनेन्द्र व्याकरण में 'पूर्वश्रासिम सूत्र [५॥३॥२०] में स्वीकार किया है । तदनुसार जैनेन्द्र के साढ़े चार अध्यायोंके प्रति अन्तके लगभग दो पाद असिद्ध शाके अन्तर्गत आते हैं। देवनन्दीने अपनी पञ्चाध्यायीमें पाणिनीव अष्टाध्यायीके सूत्रक्रममें कमसे कम फेरफार करके उसे जैसेका तैसा रहने दिया है। केवल सूत्रों के शब्दों में जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है | जैनेन्द्र और पाणिनीय व्याकरणों की तुलनात्मक पाद सारणीसे वह स्पष्ट हो जाता है । विशेष तुलनात्मक सूत्रसूची अन्य के अन्त में परिशिष्ट रूप में दी गयी है। जैनेन्द्र पाणिनि जैनेन्द्र पाणिनि श ११-२ ४|३-४|४|१०३ ३१४ ५।१-धारा४७ १३ २१-२ ५/२/४८-५३१११० २।३-४ ४२ २।१ ४।३ २।२ ६४ ५१ ७/१-२।११३ ३।४ પા૨ ७/१९१४-७४ १/४ २।३ २४ ४१ ३२ કાર ५४ ३-४ पूज्यपाद देवनन्दीने आचार्य गद्धपिच्छ उमास्यातिके तत्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि नामक टोकाका निर्माण किया था जो ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुकी है। उस ग्रन्थमें उन्होंने कई स्थलोंपर व्याकरणके सूत्रोंका उद्धरण दिया है। उनमें बिना पक्षपातके जैनेन्द्र सूत्रोको भी और पाणिनीय सूत्रोंको भी उद्धृत किया गया है। उदाहरणके लिए अध्याय ४ सूत्र १६ की सर्वार्थसिद्धिः टीकामें दो सूत्रोंका उल्लेख है—'सदस्मिन्नस्तीति' और 'तस्य निवासः' । इनमें पहले के विषय में यह कहना कठिन है कि वह किस व्याकरणसे लिया गया है किन्तु दूसरा पाणिनीय व्याकरणका ही है [४।२।६९] श्योंकि उसका जैनेन्द्रगतपाठ 'तस्य निवासादूरभवी' रूप में मिलता है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृष्ठ ५०] | पूज्यपादने न केवल नवीन व्याकरण सूत्रों की रचना की, वरन् उनपर जैनेन्द्रन्यास भी बनाया था। उन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर शब्दावतार न्यास भी लिखा था किन्तु अभी तक ये दोनों अन्य उपलब्ध नहीं हुए हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्राचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके भाष्यके पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैनधर्म और दर्शनपर भी उनका असामान्य अधिकार या । वे गुप्त युगके प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनक तत्कालीन प्रभाव कोकणके मरेशीपर था, किन्तु कालान्तरमें बो सारे देशको विभूति बन गये। काशी विश्वविद्यालय ! ५ जुन १९५६
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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