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जैनेन्द्र-व्याकरणम् पाठ चाहिए । 'भूत इति वर्तमाने' आदि पदों द्वारा जिस सूत्रको बृत्ति लिखी है वह, 'त:' [२१२१८५] सूत्र यहाँ श्रुटित है।
___घ - अनेक स्थानों पर वृत्तिमें उद्धृत जैनेन्द्र सूत्र तथा परिभाषा आदिको भिन्न टाइपमें करना रह गया है।
-कहीं कहीं सम्पादकीय टिप्पणियों में भी भूल प्रतीत होती है। क्या--पृष्ठ १६ पं०१६ पर [४ अन्यथा अनिदित इति उकः खस्य प्रतिषेधः स्यात् ।] पर टिप्पणी है-५. कोष्ठ स्थितः पाठोपासंगिक इव भाति । "लुछ:-विछत्यनिदितः" इत्यस्यात्राप्रवृत्तः । प्रत'न होता है यह पति पाणिनीय व्याकरणकी प्रक्रियाको भ्रान्तिसे लिखी गई है। 'हस्त' इस अवस्थामै 'त' के परे रहने पर 'यस्ये तदादि गुः' [जे० शरा१०२] सूत्रसे 'इन् स्' को 'गु' [पाणिनीय अंग] संज्ञा है। जैनेन्द्र प्रक्रियानुसार २११।३८ सूत्रसे 'सि' प्रत्यय होता है, उसका इकार इत् है। गुके इदित् झनेसे 'हलुकः शिल्यनिदितः' [४।४।२३] सूत्रकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसकी प्रवृत्ति न होने से उङ [= उपधा] के 'न् का लोप नहीं हो सकता। अतः कोष्टान्तर्गत पक्ति सर्वथा शुद्ध है।
इन सब कमियोंने रहने पर भी जो संस्करण प्रकाशित हुआ है, वह निस्सन्देह महान् प्रयत्नका फल है । प्रथमबार इतना सुन्दर संस्करण प्रकाशित हो गया, यह महान संतोषपकी बात है।
ग्रन्थके सम्पादनमें कितना परिश्रम पड़ता है, यह भी भुक्तभोगी ही जान सकता है। हाँ, ग्रन्थको सर्वाङ्गसुन्दर बनानेका लक्ष्य तथा उसके लिए सविध प्रवन सम्पादकका अवश्य होना चाहिए। तत्पश्चात् जो कार्य हो जाय उससे सन्तुष्ट रहते हुए अगले संस्करणको सर्वात्मना श्रेष्ठ बनानेका प्रयन्य होना चाहिए ।