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________________ ५३ जैनेन्द्र- शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ हमारी दृष्टि अभीतक सबसे प्राचीन यही ग्रन्थ है, जिसमें व्यवधान-सन्धि का साक्षात् उल्लेख किया है।' श्रागे वृत्तिकारने महाभाष्योक्त वकारके मंगलार्थत्वकच खरडन किया है। हमारे विचार में 'मङ्गलार्थः प्रयुज्यते' लेखमें पतञ्जलिका 'मंगल' का वह भाव नहीं है जो जनसाधारण में प्रसिद्ध है। अपितु यहाँपर अध्येता छात्रोंका मंगल अभिप्रेत है। इसकी व्याख्या मैं स्पष्ट कहा है- श्रध्येतारश्च मंगलार्था यथा स्युः । अध्येताका मंगल लक्षण ज्ञानसे ही सम्भव है । ' महावृत्ति मध्यमध्य में त्रुटि - यद्यपि महावृत्तिका यह संस्करण पाँन हस्तलेखों के आधार छपा है, परन्तु इसमें अनेक स्थलोंपर कई-कई सूत्रोंकी व्याख्या खण्डित है। देखो पृष्ठ २८, २१७, ३५८ । इससे स्पष्ट है कि ये पाँचों हस्तछेत्र किसी एक हो मूल प्रतिकी प्रतिलिपियाँ हैं । अतः इसकी पूर्ति के लिए अन्य हस्तलेख प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । जैनेन्द्र व्याकरण नामुद आजसे ४६ वर्ष पूर्व काशीकी लाजरस कम्पनीकी ओरसे सन् १६१० मैं महावृत्ति सहित जैनेन्द्र व्याकरणका मुद्रण प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादक थे, विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी । इसका मुद्रण तृतीय अध्याय द्वितीय पादके ६० चे सूत्र तक ही होकर रह गया। तब से वह परमोपयोगी ग्रन्थ अधूरा ही रहा । यह परम सौभाग्यका विषय है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस प्रत्यरत्नको प्रकाशने लानेका महान् प्रयत्न किया । उसका यह फल है कि ४६ वर्ष के अनन्तर यह अन्य पूरा कर प्रकाश में आया है। इसके लिए उक्त संस्था अन्त धन्यवादकी पात्र है। इस संस्थाने इसी प्रकार के अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंका प्रकाशन करके समस्त भार तीयों, विशेषकर जैन मतानुयायियों का महान् उपकार किया है। हमारी यही कामना है कि यह संस्था भविष्य में भी इसी प्रकार अपना कार्य करने में समर्थ हो, दिन दूनी रात चौगुनी फले फूले । महावृत्तिका नूतन संस्करण - भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित महावृत्तिका यह संस्करण निस्सन्देह महान् परिश्रम का फल है। इसके सम्पादन में ५ हस्तलों से सहायता की गई है। इतना प्रयत्न करनेपर भी इसके सम्पादन में कुछ कमियाँ रह गई हैं। उनकी ओर भी संकेत कर देना हम उचित समझते हैं, जिससे आगामी संस्करण में उसका परिमार्जन हो सके । क - अनेक स्थानों पर उद्धृत जैनेन्द्र सूत्रोंके पते देने रह गये हैं। यथा-पृष्ठ ११५० २ - जेरिति दीवम् — 'जे' ४ | ३ | २३४ का सूत्र है, यहीं पृष्ठ पं० १३- शास इत्येवमादिषु – 'शास' यह ४१४ | ३३ का प्रतीक है। स्व-वृत्तिमै उद्धृत उद्धरणों के पते देने रह गये। यथा पृष्ठ २४ पङ्क्ति २६ – 'एति जीवन्तमानन्दः ' । यह रामायण सुन्दरका ३४ श्लोक ६ का तृतीय चरण है । पृष्ठ ११६ पं० ६ पर निर्दिष्ट 'बाहुलकं प्रकृतेस्ततुष्टेः' कारिका महाभाष्य ३।३।१ की है। इसी प्रकार १/२/१२१ सूत्रपर उद्धृत कारिकाएँ भी भाष्य को हैं । ग- कई स्थानों पर कुछ अधिक सावधानता वर्ती जाती तो अनेक पाट ठीक हो सकते थे। वथा -- पृष्ठ ११६ ० ३ पर मुद्रित 'अण्ड: । कृवृद्धः' पाठ 'अण्डो जुड: ' चाहिए। ८० ५-६ - कृतः । कृतवान् । भूतवर्तमाने । यहाँ 'कृसः । कृतवान् । "तः " [ २२२२६५ ] भूत इति वर्तमाने - १. यद्यपि शाकटायन लघुवृत्ति [पृष्ठ २३] में यह नियम उल्लिखित है। उसका काल अनिश्चित है । अमोघवृत्तिमें इसका उल्लेख है या नहीं यह हमें ज्ञान नहीं । २. महाभाष्यकी पंक्ति का यह अभिप्राय हमें महावृत्तिके प्रकाशमें ही समझ में श्राया ।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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