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जैनेन्द्र च्याकरणम् महावृत्ति ३ । २ । ५.५ में भट्ट अकलंक [जिनका कास्न ८०० विक्रम माना जाता है] के तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख है। इससे यह वृत्ति उसके बाद की है, यह निश्चित है। हमने अपने संव्या . शास्त्रका इतिहास अन्ध, अभयनन्दीका काल विक्रम संवत् १०००.१०५० के मध्य में लिखा है [पृष्ठ ४२६] । अभी इस विषयमें अनुसंधान की आवश्यकता है।
अभयनन्दीकी महावृत्ति-जैनेन्द्र व्याकरण के वाङ्मयमें महावृत्तिका वही गौरवपूर्ण स्थान है जो पाणिनीय व्याकरणमें काशिका का है। यह महावृत्ति काशिकासे भी अधिक विस्तृत है। इसका ग्रन्थ परिमाण १२ सहस श्लोक है। ग्रन्थ कारने अपनी वृत्तिके सम्बन्धमै पूर्वनिर्दिष्ट श्लोकमें जो लिखा है वह पूर्णतया सल्प है, उसमें यस्किचित् अतिशयोक्ति नहीं है।
अभयनन्दीका पारिहत्य-निश्चय ही अभयनन्दी व्याकरण शास्त्रमें परम निपुण थे। उनका व्याकरण विषयक ज्ञान केवल जैनेन्द्र तक सीमित नहीं था, अपितु पाणिनीय व्याकरण में भी उनकी अप्रत्यादत गति मी। यह इस वृत्तिके सूक्ष्म अध्ययनले पदे-पदे स्पष्ट होता है। महावृत्तिमें कई स्थल उनके घ्याकरण विषयक अभूतपूर्व पाण्डित्यका निदर्शन कराते हैं। यथा शरा९६ सूबकी व्याख्यामें "प्रविनय्य" प्रयोगको सिद्धिके सम्बन्धमें जो विचार किया है, वह हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुया ।
महावृत्तिके उपजीव्य ग्रन्थ-यद्यपि अभयनन्दीने अपनी महावृत्तिकी रचनामें निस्सन्देह जैनेन्द्र न्यास, प्राचीन लघु वृत्तियों, पातञ्जल महाभाष्य अादि सभी अन्धोंसे सहायता ली है, तथापि सूत्र व्याख्या शैली और वाक्य विन्यासमें काशिकावृत्तिका प्रभान अधिक प्रतीत होता है ।
पालिके परचिलोपर-का पतञ्जलिने जिस प्रकार पाणिनि और कात्यायनके प्रति सम्मानकी भावना रखते हुए उनके सूत्र तथा वार्तिककी सूक्ष्म विवेचना करते समय पाणिनि और कात्यायनके गौरवसे प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय प्रकट किया है, उसी प्रकार अभयनन्दी मुनिने मी अनेक स्थलों पर जैनेन्द्र वार्तिकौंका निष्प्रयोजनात्व दर्शाया है। वथा-पृष्ठ १५ पर "उगित् कार्यम्' तथा पृष्ठ २६ पर 'दाणश्च सा' वार्तिक का।
ख] जैसे पत्तालिने पाणिनीय सूत्रों से साक्षात् असिद्ध प्रयोगोंका साधुत्व दर्शानेके लिए. योगविभाग रूपी कौशल दिखाया है। उसी प्रकार अभयनन्दीने भी योगविभाग द्वारा अनेक पदोंका साधुत्व दर्शानका प्रयत्न बहुत स्थानोंपर किया है ।।
महावृत्तिकी एक महती विशेषता--महावृत्तिकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पाणिनि पतन्जलि चन्द्र तथा पूज्यपाद द्वारा असंगृहीत प्राचीन व्याकरण-नियमों का यत्र तत्र संग्रह उपलब्ध होता है। यथा [१।२।१]
'भूचादीनां चकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते। इको परिमळवधानमनेकेषामिति संग्रहः।"
अर्थात्-'भूवादयो धुः' [१।२।१] सूत्रमै 'भू+श्रादवों के मध्यमें वकारका निर्देश ब्याकरणका लक्षण बतलानेके लिए रखा गया है। अनेक आचार्योंके मनमैं 'इक् से परे यणका व्यवधान होता है, इस लक्षणका संग्रह वकारसे दर्शाया है।
१. कलकताके श्री पं० क्षितीशचन्द्र जी चट्टोपाध्यायने 'टेक्निकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' [पृष्ठ ७१] में इस कारिका तथा महावृत्तिमें आगे व्याख्यात दो चरणोंका पाठ इस प्रकार उधत किया है-"भूवादीनां कारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यरिमायुक्म्परयोरिव ॥ भूत्रो वार्य वदतीति वदेरौणादिके इति । भूयाश्य इति ज्ञेया भूत्रोऽर्था वादयोऽथवा ।"
२. इस सन्धि तथा इससे पदसिद्धि-प्रक्रियापर पड़नेवाले प्रभावके लिए हमारा सं० न्या. शा. का इतिहास, पृष्ट २१-२५ विशेष रूपसे देखना चाहिए।