________________
जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ
४६
लिङ्गानुशासन --- आचार्य देवनन्दो प्रोक्त लिगानुशासनका कोई मन्थ हमारी दृष्टि में नहीं श्राया, परन्तु जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन था अवश्य । इसमें निम्न प्रमाण हैं
१ - वामन अपने लिकानुशासन के अन्त में प्राचीन आचार्य प्रोक्त लिङ्गानुशासनका निर्देश करता हुआ लिखता है - व्याडप्रणीतमथ चाररूचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणयतं विविधं तथाऽन्यत् । जिङ्गस्य लक्ष्म...... ॥ ३० ॥ इसमें जैनेन्द्र लिङ्गानुशासनका उल्लेख स्पष्ट है ।
२ - अभयनन्दी अपनी महावृत्ति १|४|१०८ में लिखता है - गोमय कषायका पाठागमः कर्तब्य श्रादिनमें उभयलिंगता देखी जाती
है,
पकृत पक्षाशंखादि
उनका ज्ञान पाटसे कर
लेना चाहिए ।
यहाँ पाठसे अभिप्राय लिङ्गानुशासनका ही है, क्योंकि 'पुंसि चार्धर्चा:' [ १|४|१०८ ] सूत्र पर पाणिनिके समान जैनेन्द्र में कोई गण नहीं है । अतः इनका पाठ लिङ्गानुशासन में ही सम्भव हो सकता है | ३. आचार्य हेमचन्द्रने अपने लिङ्गानुशासन के स्त्रोपस विवरण में नन्दीके नाम से एक पाठ उद्धृत किया है - "भ्रमरं तु भवेश चौदं तु कपिलं भवेत्” इति नन्दी | पृष्४० ८५ पंक्ति २५ ।
हमारे विचार यह पाठ देवनन्दीके लिङ्गानुशासनका है और पूर्वीलिखित नियम के अनुसार यहाँ नन्दी शब्द देवनदीका ग्रहण है । हर्तवर्धनीय लिङ्गानुशासन के सम्पादक पं० बेङ्कट राम शर्माने अपनी निवेदनामें २३ प्राचीन लिङ्गानुशासनों का उल्लेख किया है। उसमें संख्या १८ पर 'नन्दिकृत लिङ्गानुशासन' का निर्देश है। इससे भी हमारे विचारकी पुष्टि होती है कि श्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा नन्दी नामले स्मृत श्राचार्य देवनन्दी ही है ।
लिङ्गानुशासन छन्दोबद्ध था---हैमलिङ्गानुशासन विवरण में उदधृत पूर्व वचन से प्रतीत होता है। कि देवनन्दी प्रोक्तानुशासन छन्दोबद्ध था ।
लिङ्गानुशासन व्याख्या - श्राचार्य देवनन्दौने अपने लिङ्गानुशासनपर कोई व्याख्या भी लिखी थी । हेमचन्द्र अपने लिङ्क विवरण लिखता है - "नन्दिनः गुणवृसंस्वाश्रयनिङ्गता स्वादुरोदनः स्वाझी पेया, स्वादु पयः । श्राचार्य हेमचन्द्रने यह पहूक्ति अथवा अभिप्राय निश्चय ही जैनेन्द्रलिङ्गानुशासन की व्याख्याले लिया होगा ।
व्याकरणके अन्य ग्रन्थ
पूर्वलिखित धातुपाट, गापाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन इन ४ खिलों के अतिरिक्त चैनेन्द्र शब्दानुशासन से संबन्ध रखनेवाले न्यूनातिन्यून तीन अन्य श्रौर थे । उनके नाम हैं - बार्तिकपाठ, परिभाषा पात्र शिक्षा |
वार्तिक-पाठ - अभयनन्दीकी महावृत्तिमें जैनेन्द्र शब्दानुशासन से संबन्ध रखनेवाले बहुत से वार्तिक व्याख्यात है। ये वार्तिक किसके है, अज्ञात है। इसी प्रकार महावृत्तिने समस्त वार्तिक व्याख्यात हैं अथवा उसमें काशिका के समान अधिक उपयोगी जातियोंका ही सन्निवेश है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जैनेन्द्र वार्तिक पाटका स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं श्राया ।
आर्य श्रुतकीर्तिने अपनी पञ्चवस्तुप्रक्रिया के अन्त में जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर रचे गये किसी भाष्य ग्रन्थको सूचना दी है। यह भाग्य इस समय अनुपलब्ध है। स्वयं श्राचार्य पूज्यपाद भी अपने शब्दानुशासनपर एक न्यास लिखा था, वह भी अप्राप्य है। अतः जैनेन्द्र से संबद्ध वार्षिक पात्रको रचना किसने की यह श्रज्ञात है । वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं--महावृत्ति व्याख्यात वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं, क्योंकि उसमें स्थान-स्थानपर पातञ्चल महाभाष्यके समान वार्तिकां का निराकरण करके सूत्र द्वारा कार्यका
१. अग्रेजीमें पृष्ठ ११ पर, संस्कृत में पृष्ठ ३४ पर !