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________________ जैनेन्द्र-व्याकरणम् निर्वाह दर्शाया है । यथा--उदित्कार्य वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति वक्तम्यं भवती, अतिभवती, वाषिः । नैतद वसन्यम्..... | पृष्ठ १५ । यदि बार्तिक अमानटी विरनित होते तो वह सई अनर्थक हार्तिक रनकर उनका खण्डन न करता। इतना ही नहीं, अभयनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्यानन्द जैनेन्द्र महावृत्ति ११४३७ में पठित 'प्यस्खे का वक्तव्या' वार्तिकका अष्टसहस्री [ पृष्ठ १३२ ] में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' इस रूपमें अर्थतः अनुवाद करता है । 'प्य, ख' ये जैनेन्द्र के पारिभाषिक प्रयोग हैं। अभयनन्दोकी वृत्तिमें वार्तिकों के व्याख्यात होने तथा श्रष्ट सहस्री में उद्धृत होनेसे इतना तो निश्चय है कि ये अभयनन्दीसे प्राचीन हैं। हमारा विचार है कि व्याकरण संबंधी अन्य अन्योंके समान बार्तिकपाठ भी आचार्यने स्वयं रचा होगा । परिभाषा-पाठ- परिभाषाएँ व्याकरण शास्त्रका महत्त्वपूर्ण भाग हैं। परिभासएं दो प्रकार की हैं। कुछ सूत्रकार द्वारा स्वयं सूत्रों में पटित होती हैं। यथा - इको गुणवृन्धी [अष्टा० १।१।३ ] इकस्तो [ जैनेन्द्र० १११।१७ ] | कुछ सूत्रसे बहिर्भूत होती हुई मी सूत्रकार-द्वारा स्वीकृत होती हैं । पाणिनीय ब्याक रणसे संबद्ध परिभाषाएँ व्यालिकृत मानी जाती हैं। भाष्यकार पतञ्जलिने अनेक परिभाषाओंको सूत्रोंसे ज्ञापित किया है, अनेकको वे बिना ज्ञापकके प्रमाण मान लेते हैं । अभयनन्दीकी महावृत्तिमैं अनेक परिभाषाएँ उद्धृत है। कतिपय परिभाषाओंके ज्ञाक भी लिखे हैं। इन परिभाषाओंका पाठ पाणिनीय परिभाषाओंके समान होते हुए भी स्वतन्त्रानुसार परिवर्तित है । जैनेन्द्र संबद्ध परिभाषाओंका प्रवक्ता कौन है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता | परिभाषा पाठका स्वतन्त्र ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । परिभाषाओंकी व्याख्या-इन चैनेन्द्र परिभाषाओं की व्याख्या भी किसी प्राचीन ग्रन्धकारने की थी । अभयनन्दो १।१।६१ पर लिखता है-- सन्निपातपरिभाषाया अनित्यता वचयति । यहाँ 'वश्यति' क्रियाका कर्ता कौन है, य अज्ञात है । परन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि अभयनन्दीसे पूर्व किसीने परिभाषाओंको व्याख्या रची यौ । इस प्रकारका विचार परिभाषा वृत्तिमें ही सम्भव हो सकता है। श्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरणसे संबद्ध परिभाषाओंको स्वयं ही रचना की और स्वयं ही उनकी व्याख्या की । इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादने भी स्त्रयं परिभाषा पाठ और उसकी व्याख्या लिखी हो यह सम्भव हो सकता है। शिक्षा-अभयनन्दीने १ । १ । २ की वृत्तिमें लाभग ४. शिक्षासूत्र उद्धृत किये हैं। ये अधिकांश में प्रापिशल शिक्षासूचीसे मिलते है । पुनरपि इनका प्रवचन जैनेन्द्र व्याकरण की प्रकियानुसार किया हुआ है, यह दोनों की तुलनासे स्पष्ट है। यद्यपि ये जैनेन्द्र सम्बन्धी शिक्षासून किसके द्वारा प्रोक्त है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, तथापि जैसे आपिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमीने अपने अपने शब्दानुशासनौसे सम्बद्ध शिक्षासूत्रों का प्रवचन किया। इसी प्रकार सम्भव है श्राचार्य देवनन्दीने इन शिक्षासूत्रोका भी प्रवचन किया हो। इसका विशेष वर्णन हम 'शिक्षाका इतिहास' नामक अन्धमें करेंगे [पाण्डुलिपि प्रायः तैयार हो चुकी है। १. देखो, श्री प्रेमीजीका 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख, ग्रही ग्रन्थ पृष्ठ २४ । २. सं० व्या शा० का इतिहास पृष्ठ २०७। ३. देखो महावृत्ति पृष्ठ ५५५, ४५६ । इस सूची में कुछ परिभाषारह गई हैं । यथा-पृष्ठ १२ पर उरत-"अनुबन्धकृतमनेकालत्वं न" परिभाषा । ४. देखो हमारे द्वारा सम्पादित तथा प्रकाशित 'शिक्षा-स्त्राणि' [प्रापिशल, पाणिनीय तथा कान्द] ।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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