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जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ
[श्री युधिष्ठिर मीमांसक. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, दिली ] संसारमें वाङ्मयके प्रादुर्भावका श्रादिस्थान पुगभूमि भारत है । उसका विशाल संस्कृत वाङ्मय मुख्यतः तीन धाराओंमें विभक्त है। इस बाङ्मयकी समृद्धि में वैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों तथा श्राचाोंने मुक्तहस्तसे सहयोग प्रदान किया है। भगवान् महावीरसे पूर्व के जैन तीयङ्करोंने उपदेश और अन्ध-रचनामें किस भाषाका आश्रय लिया था, इसके प्रमाण अभी नहीं मिले । उनका कोई अन्य उपलब्ध अथवा ज्ञात नहीं। इसलिए उपलब्ध संस्कृत वाङ्मयमैं वैदिक वाङ्मय हो प्राचीनतम कहा जा सकता है । भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध तथा उनके अनुयायी मनीषियोंने अपने विचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए उपदेश और अन्ध-रचनामे तात्कालिक जनभाषा प्राकृत तथा पालीका आश्रय लिया । कालान्तरमें, सम्भवतः विक्रमकी प्रमय शतीके लगभग जैन तथा औद्ध प्राचार्योंने भारतीय जनताके हृदयमें संस्कृतके प्रति युग-युगसे वर्तमान विशिष्ट अनुराग और बादरकी भावनाको अनुभव किया और उदारचेता होकर उन्होंने भो विद्वज्जनोपयोगी विशिष्ट अन्योंकी रचनाके लिए संस्कृत भाषाको अपनाना प्रारम्भ किया।
नये युगके प्रवर्तक इस नो युगके प्रवर्तक जैन सम्प्रदायमै आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर तया बौद्ध सम्प्रदायमें भदन्त अश्वघोष थे | ये सब वैदिक सम्प्रदायके विशिष्ट ज्ञाता थे। इसलिए उभय सम्प्रदायके शास्त्रज्ञानकी ओ प्रौढ़ता इनके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, यह अन्यत्र दुर्लभ है। इन आचार्योंने अपनी अगाध विद्वत्ताके कारण अपने-अपने सम्प्रदायों में नये युगका सूत्रपात किया । इनका अनुकरण करके उत्तरवर्ती अनेक सुहृद आचार्योने अपने-अपने उत्तमोत्तम ग्रन्यो-द्वारा संस्कृत वाङ्मयको आगे बढ़ाया ।
संघर्ष युग-दोनों सम्प्रदायोंमें संस्कृत भाषाके प्रति अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। प्रत्येक विषय पर संस्कृतमें ग्रन्य-रचनाएँ होने लगी। विक्रमकी प्रथम शतीसे १२ वी शती तकका युग संस्कृत वाङ्मयके इतिहासमें अपना स्वतन्त्र स्थान रखता है। इस काल में चैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों के पारम्परिक तार्किक बाद-प्रतिवादने वाङ्मयके पल्लेक क्षेत्रको, विशेषकर न्यायशात्रको परिबृहित करने में विशेष योग प्रदान किया। इस कालमैं चैदिक न्यायशास्त्रकी तो प्रवृत्ति ही बदल गई। वह अपने मूल प्रयोजनमे हटकर अर्थात प्रमेय निर्णायक न रहकर केवल प्रमाण लक्षण-
निय तक ही सीमित हो गया और अन्त में उसने नव्य न्यायके रूपमें केवल बौद्धिक श्रमका रूप धारण कर लिया।
जैन व्याकरण-वाङ्मय संस्कृत वाङ्मवमें व्याकरणशास्त्र अपना प्रमुख स्थान रखता है। प्राचीन शास्त्रों में इसे स्वतन्त्र विद्या. स्थान माना है। इसलिए, जन जैन विद्वानौने संस्कृत भाषाको अपनाया, तब जैन सम्प्रदायमें भी इस शास्त्रका महत्त्व बढ़ा | अनेक जैन आचार्योंने व्याकरण के क्षेत्र में भी अनेक उत्तम कृतियाँ प्रदान की। उनमें से अधिकांश विकराल काल द्वारा कवलित हो गई, अनेक प्रन्यों का नाम भी स्मृति-पटलसे नष्ट हो गया। कइयोंका नाममात्र शेष रहा। बहुत स्वल्प कृतियाँ दोष अची। जो कृतियाँ कम्चिन कालकवलित होने से इस समय तक बच भी गई वे अन्यागारों में चेष्ठनों में श्री, प्रकाश यानेकी तिथिर्की प्रतीक्षा कर रही हैं। सम्भव है उनमें से अधिकांश कृतियाँ 'शीर्यते वन एव वा नियम के अनुसार विद्वजगतको तुरभित न कर, वनोपम ग्रन्यागारों में ही