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________________ ४० जैनेन्द्र-व्याकरणम् शीर्ण हो जायें । ईंट पत्थरोंसे बने भौतिक कृतियों को बचाने अथवा उनके उद्धारकी चिन्ताको अपेक्षा न सांस्कृतिक और बौद्धिक कृतियों का बचाना, उनका उद्धार करना परम आवश्यक है। जो विद्वान् महानुभाव, धनीमानी श्रेष्ठ वर्ग तथा संस्थाएँ इस कार्यमें लगी हुई हैं वे देश, जाति तथा धर्मकी वास्तविक सेवा कर रही हैं। देशके स्वतन्त्र हो जाने पर युगयुग उपार्जित प्राचीन वाङ्मयकी रक्षाका भार मुख्यतया राज्यको ही वहन करना चाहिए, नुम्हारी है। उपलब्ध जैन व्याकरण जैन अस्यों द्वारा लिखे गये ६, ७ व्याकरण इस समय उपलब्ध हैं। उनमें से केवल तीन व्याकरण प्रमुख हैं— जैनेन्द्र शाकटायन और सिद्ध हैम । इनमें आचार्य देवनन्दी, अपर नाम पूज्यपाद, इतर नाम जिनेन्द्रबुद्धि द्वारा प्रोक्त जैनेन्द्र व्याकरण सबसे प्राचीन है । इन प्रमुख तीन व्याकरणों के ग्रन्थ भी अभी तक पूरे प्रकाशित नहीं हुए। सबसे अधिक हैम व्याकरण के ग्रन्थ प्रकाशनें आये हैं' । शाकटायन व्याकरण केवल चिन्तामणि नामक लघुवृत्ति सहित प्रकाशित हुआ है [परिशिष्ट में मूल गणपाठ, लिङ्गानुशासन तथा धातुपाठ भी छपे हैं ] । सूत्रकारको स्वोपज्ञ अमोघ महावृत्ति अभी तक लिखित रूपमें ही क्वचित् उपलब्ध होती है। जैनेन्द्र व्याकरण भी तृतीय अध्यायके द्वितीय पाद के ६० सूत्र तक श्रभयनन्दी विरचित महावृत्ति सहित कुछ वर्ष पूर्व लाजरस कम्पनी काशी से प्रकाशित हुआ। था [अब भी दुर्लभ है]। यह प्रथम अवसर है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस भारी कमीको पूर्ण करने का बीड़ा उठाया और वह उसे भवनन्दीकी महावृत्ति सहित प्रकाशित कर रहा है। जैनेन्द्र से प्राचीन व्याकरण शब्दानुशासनने निम्न ६ पूर्ववर्ती याचायों का उल्लेख किया है— १ - गुणे श्रीदन्तस्यास्त्रियाम् [ १ । ४ । ३४ ] २- कृषिजां यशोभद्रस्य [ २ । १ । ३६ ३ - रादु भूतबलेः [२ । ४ । ८३ ] 1 ] ४- रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [ ४ । ३ । १८० ५- वेतेः सिद्धसेनस्य [ ५।१७ ] ६ – चतुष्टयं समन्तभद्रस्य [ ५४ । ५४० ] आचार्य पूज्यपाद ने अपने इन छ आचार्यों में से किसीका भी अन्य इस समय उपलब्ध नहीं है। अनेक विद्वानोंको इन श्राचार्योंके व्याकरण-शास्त्र-प्रवक्तृत्वमैं भी सन्देह हैं। जैसा कि जैन इतिहास - विशेषज्ञ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' [ पृष्ट १२० ] में लिखा था "इन छ आचार्यनिये किसोका भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके अन्य ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरह के शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्होंको व्याकरण सिद्ध करने के लिए वे सत्र सूत्र रचे गये हैं ।" १ सम्प्रति हैम व्याकरयाकी केवल लघुवृचि सुप्राप्य है, अन्य सभी मुद्रित ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये । इनका पुनर्मुद्रण अत्यन्त श्रावश्यक है । २ यह महावृत्ति भी शीघ्र ही भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे ही प्रकाशित होगी । ३ यद्यपि माननीय प्रेमीजीने इस विचारकी निस्सारता को समझकर अपने ग्रन्थके द्वितीय संस्करण में उक्त अंश निकाल दिया, पुनरपि जिनकी ऐसी धारणा अभी भी है उनके विचारोंके प्रतिनिधित्व रूपमें उस पहियों उद्धृत की है।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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