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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ पं० फूलचन्द्र सि० शा ने भी सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामैं लगभग इसी मतका प्रतिपादन किया है।
पाणिनीय व्याकरणा में स्मृत शाकल्य प्रापिशलि शाकटायन प्रादि १० प्राचीन शाब्दिकोंके विषयमें भी अनेक विद्वानों की ऐसी ही धारणा है।
हमारे विचारमें इस प्रकारको धारणाओंका मूलकारण भारतीय प्राचीन ग्रन्थों और ग्रन्थका के विषयमें पाश्चात्य विद्वानों द्वारा समुत्पादित अविश्वास की भावना और अनर्गल कल्पनाएँ ही हैं।
हम अपने 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्रका इतिहास' ग्रन्थ. याणिनिसे पूर्ववर्ती आपिशलि काशकृत्स्न और भागुरि अादि अनेक शाब्दिक श्राचायाँके सूत्र, धातु और गरणके बचन उद्धृत करके सिद्ध कर चुके हैं कि पाणिनिसे प्राचीन आचार्यों के भी पाणिनिके समान ही सर्वांगपूर्ण व्याकरण थे । अब तो काशकृत्स्न व्याकरणका समग्र धातुपाठ चनवीर कवि कृत कन्नड' टीकासहित प्रकाशमें आ गया है। उसमें काराऋत्ल शब्दानुशासनके लगभग १४० सूत्र भी उपलध हो गये हैं। ये [ धातुपाठ तथा सूत्र ] न केवल उनके सर्वाङ्गपूर्ण होनेके, अपितु पाणिनीय व्याकरणसे अधिक विस्तृत होनेके भी प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादके शब्दानुशासनमें उद्धृत प्राचीन वैयाकरणों के विषयमें भी हमारी यही धारणा है कि उन आचाोंने भी अपने-अपने शब्दानुशासन रचे थे | उन्हींके शब्दानुशासोंसे आचार्य पूज्यपादने उनके मतों का संग्रह किया। इसके विपरीत कल्पना करना पृज्यपाद जैसे प्रामाणिक श्राचार्यको मिथ्यावादी कहना है [ आः शान्त पापम् ] | जब हमने पाणिनिसे पूर्वी अनेक शाब्दिक प्राचार्योंकि बहुतसे वचन प्राचीन ग्रन्थों में ढूंढ लिये, यहाँ तक कि आद्य शब्दतन्त्र-प्रणेता इन्द्र के भी 'प्रथ वर्णसमूहः', 'अर्धः पदम्' दो सूत्र उपलब्ध कर लिये, ऐसी अवस्थामै हमें पूर्ण निश्चय है कि यदि जैन वाङमयका सावधानता पूर्वक अवगाहन किया जाय तो इन आचार्योंके शब्दानुशासनों के सूत्र भी अवश्य उपलब्ध हो जायेंगे।
___ या सिइसेसका व्यापारव-पावा सिद्धसेनके व्याकरणविषयक मतका उल्लेख प्राचार्य पूज्यपादने तो फिया ही है। उसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनसे उनके व्याकरण प्रवक्ता होने की पुष्टि होती है । यथा
१ सर्वार्थ सिद्धि प्रस्तावना पू० ५३ । २. देखो 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास के सतत् प्रकरण ।
३. श्री डा. वासुदेवशरण जी अग्रवालने "पाणिनि कालीन भारतवर्ष [ हिन्दी संस्करण ] पृष्ठ ५ पं० २२, २३ पर पाणिनिपूर्ववर्ती व्याकरणों को बिना किसी प्रमाणके एकाही लिखा है । पृष्ठ २६ पं० ६ पर
सामग्रीको पाणिनिकी मौलिक देन बताया है। परन्तु पृष्ठ २१ पं०१६.१ में भर्तहरिके प्रमाणसे पाणिनि-पूर्ववर्ती प्रापिशालिके गणपाठकी सत्ता भी स्वीकार की है। डा. कीलहानका भर्तृहरि कृत महाभाष्य टीका संबंधी लेख हमें सुलम नहीं हुश्रा । अतः नहीं कह सकते कि उसमें प्रापिशल गरापाठका उलेख था या नहीं। परन्तु हमने अपनी भर्तृहरिकृत महाभाग्य टीकाकी प्रतिलिपिके प्राधारसे 'सं व्या. शास्त्रका इतिहास' पृष्ठ १०२ पर प्रापिशल गणपाठमा उल्लेख किया है। तथा इसी अन्धके पृष्ठ २७४-२४८ पर महाभाष्यटीकाके इतिहासोपयोगी समी वचन एकत्रित कर दिये है।
१. इन सूत्रोंका प्रकाशन हम शीघ्र ही कर रहे हैं।
५, सं० व्या० शा का इतिहास पृष्ठ ६२ । महाभाग्य मराठी अनुवाद प्रस्तावना खण्ड [ भाग, सन् १९५४ ] पृष्ठ १२१, १२६ पर श्री पं० काशीनाथ अभ्प्रङ्करजीने हमारे द्वारा प्रथमतः [सन् १९५५] प्रकटीकृत दोनों सूत्रोंका उल्लेख किया है। दूसरे सूत्रका पाठ भी हमारे द्वारा परिष्कृत हो स्वीकार किया है। लेखकने अन्यन भी हमारे ग्रन्थके पर्याप्त दुर्लभ सामनी स्वीकार की है, परन्तु हमारे ग्रन्धका कहीं निर्देश नहीं किया।