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________________ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ४६ 'पुलिंगनिर्देशः किमर्थः ' यह शंका तथा उसका समाधान उत्पन्न हो सकता है। पुंलिंग निर्देश [करणः ] होनेपर अनवकाश संप्रदान संज्ञासे भी करण संज्ञाकी बाधा नहीं होगी और 'शतेन परिक्रीतः ' प्रयोग भी उपपन्न हो जायगा | जैनेन्द्र में एक विवेचनीय स्थल- जैनेन्द्र माकया लेकिकमलाका व्याकरण है। इसलिए उसमें स्वर और वैदिक प्रक्रियाका अंश छोड़ दिया है। प्रथमाध्याय के प्रथम पादमें आचार्यने तीन सूत्र पड़े है – कौवैतौ, उन्नः क्रम् [ २४-२६ ] [ यहाँ शुद्ध पात्र 'ॐ' चाहिए] इन सूत्रोंके पाठ तथा इनकी वृत्तिसे प्रतीत होता है कि इनका प्रयोग विषय लोकभाषा है । परन्तु इनका वास्तविक प्रतिपाद्य विषय वैदिक [पपाठ ] है । यह बात पाणिनिके 'संबुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे, उमः ॐ [१/१/१६-१७] सूत्रोंसे स्पष्ट है । पाणिनि ने प्रथम सूत्रमें वैदिक सम्प्रदाय के पारिभाषिक 'अनार्थ इति' का निर्देश किया है [ इसकी अनुवृत्ति अगले सूत्र मैं भी जाती है ] | पदकारों द्वारा पदपाठ मगृह्य आदि संज्ञाका निदर्शन करानेके लिए मन्त्र से बहिर्भूत जिस 'इति' शब्दका प्रयोग किया जाता है यह अनार्ष इतिकरण कहाता है। इसीको उपस्थित भी कहते हैं । इस शब्दका व्यवहार भी पाणिनिने ६ | १|१२६ में किया है। ये संज्ञाएँ प्रातिशाख्यग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हैं । पपाठ नार्थ इतिकरणका प्रयोग कहाँ करना चाहिए इसका प्रतिपादन प्रातिशाख्यों में विस्तारसे किया है। ऋग्वेद के पदपाद शाकल्यने प्रगृह्य संज्ञक [जैनेन्द्र अनुसार 'दि' संज्ञक] पदसे परे सर्व इति शब्दका प्रयोग किया है। यथा— अग्नि इति [ ० ५/४५ ४] मेथेते इति [ ऋ० १।११३।३ ] युप्मे इति [ऋ० ४११०२८] वायो इसि [ऋ० ११२।१], ॐ इति [ऋ० २४], गौरी इति [ ऋ० १२ २] । पाणिनिने शाकल्य का अनुवाद अपने शास्त्र में किया है। इससे स्पष्ट है कि जैनेन्द्रके उक्त सूत्रों द्वारा प्रतिपात्र विषय भी वैदिक नियमके अर्न्तगत आता है। इसलिए आचार्यको चाहिए था कि उसने जैसे पाणिनिके " " [१।१।१३] और "इदूतौ च सप्तमी” [१११।१८] सूत्रोंके प्रतिपाद्य विषय के लिए सूत्र रचना नहीं की, बैले ही इनका भी समावेश न करता । समावेश करने से विदित होता है कि श्राचार्यने इन सूत्रों के प्रतिपाद्य विपयको लौकिक समझा है । परन्तु लोक मैं चाया इति ॐ इति ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं हैं । के भूलका कारण - इस भूलका कारण भगवान् पतञ्जलिकी पाणिनीय उनः ॐ [ ११।१७ ] सूत्र की व्याख्या है । पतञ्जलिने शाकल्य ग्रहणको विकल्पार्थ मानकर और उमः ॐ का योग विभाग करके 'दायो इतेि वायविसि, वाय इति, ॐ इसि उ इति विति' इतने काल्पनिक रूप बनाये हैं। पतञ्जलि ने भी पारि भाषिक 'अना इति' को 'लौकिक इति' मान लिया, ऐसा प्रतीत होता है, परंतु है यह समस्त प्राचीन वैदिक साम्प्रदाय के विपरीत। इस विषय भाष्यकार पतञ्जलिका अनुकरण करनेसे ही जैनेन्द्र में यह भूल हुई प्रतीत होती है। जैनेन्द्र के सम्बन्ध एक भ्रम --- जैनेन्द्र शब्दानुशासन के सम्बन्ध में भ्रम है कि जैनेन्द्र हो प्रथम व्याकरण है जिसमें एकशेष प्रकरण नहीं है। इसका कारण महावृत्ति में निर्दिष्ट 'देवोपज्ञमनेकशेष व्याकरणम्' [ १|४|१७ ] उदाहरण है । हमने सं० व्या शास्त्रका इतिहास' मैं [ पृष्ठ ४२४ ] इस भ्रमका निराकरण किया है । जैनेन्द्रसे प्राचीन चान्द्र मैं भी एकशेष प्रकरण नहीं है। सर्वार्थसिद्धि और जैनेन्द्र शब्दानुशासनका पौर्वापर्य --- श्राचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक व्याख्या में कहीं पाणिनीय शब्दानुशासन के और कहीं खरचित शब्दानुशासनके सूत्र यत्र तत्र उद्धृत किये हैं। उससे विदित होता है कि जैनेन्द्र शब्दानुशासनकी रचना आचार्यने सर्वार्थ सिद्धिके पूर्व ही कर १. इसकी विशद विवेचमाके लिए देखो हमारे द्वारा सम्पादित 'अष्टाध्यायीप्रकाशिका' का 'उभः ॐ' [ १ । १ । १७ ] सूत्र |
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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