SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाट ऐच् [१ । १ । १५], एङ् [१ । १।७०] । थे प्रत्याहार पाणिनीय प्रत्याहारोंके समान हैं। किस प्रत्याहारमें कितने वर्गोका निर्देश समझना चाहिए अथका प्रत्याहार कैसे बनाया जाता है, इसका नियम-प्रदर्शक "अन्त्ये नेतादिः" सूत्र जैनेन्द्र शब्दागुशासन [१।१ । ७३] में विद्यमान है। इस सूत्र द्वारा अच् प्रत्याहारोंका परिज्ञान तभी सम्मव है, जब ग्रन्थके आरम्भमै पाणिनीय प्रन्यवत् प्रत्याहार सूत्र पठित हो। अन्यथा 'अन्स्येनेतादिः' सूत्र तथा इसकी वृत्ति कभी समझ नहीं पा सकतो। ख–जैनेन ? । ४. परनामा गन्दी प न्त इति जुणो लकारेण प्ररलेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् ।' अर्थात् 'रन्त' इस निर्देशमै लण सूत्रके लकारमें पठित अकारसे र प्रत्याहार लिया गया है । "ल" यह पाणिनिके समान प्रत्याहार सूत्र ही है। --प्रभयनन्दी १ । १। ३ सूत्रकी वृत्ति के अनन्तर उदाहरण देता है.--'अ उ –णकारः । अर्थात् 'प्रहउण्' सूत्र में '' इत् संज्ञा है। वहाँ भी पाणिनिके समान ' उण्' सूत्रको उद्धत किया है। इन प्रमाणोसे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र व्याकरणके आरम्भमें भी प्रत्याहार सूत्र थे। हमने प्रत्याहार-सूत्रों के विषवने इस महावृत्तिके सम्पादक महोदयसे पूछा था कि किसी हस्तलेखमें ये सूत्र मिलते हैं, अथवा नहीं। श्री सम्पादक जीने २६ । ६ | ५६ के उत्तरमें लिखा--"प्रत्याहार सूत्रों का पाठ किसी भी हस्तलिखित प्रतिमें उपलब्ध नहीं है । मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायो तथा शब्दार्णव-चन्द्रिकामें कुछ हेर फेरके साथ पाणिनीय व्याकरण सदृश [ इ उ ए अादि] दो प्रकारके सूत्रपाठ मिलते हैं।" हमारा विचार है कि प्रत्याहार सूत्रोकी व्याख्याको आवश्यकता न समझकर अभयनन्दीने इनकी व्याख्या नहीं की । अव्याख्यात होने के कारण महावृत्ति के हस्तलेखोंमें इनका अभाव हो गया । अथवा वह भी सम्भव है-जैसे अन्यत्र कई स्थानों पर सूत्रोंको वृत्ति उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार इन प्रत्याहार-सूत्रों की भी व्याख्या नष्ट हो गई और व्याख्याके न रहने पर महावृत्तिके दस्तलेखोंमें सूत्र पाठका भी प्रभाव हो गया। जो कुछ भी कारण उनके अभावका हो, परन्तु इतना निस्सन्दिग्ध है कि भवनन्दी जैनेन्द्र प्रत्याहार-सूत्रोसे परिचित या । सूत्रपाठके पाठान्तर-पहावृत्ति के साथ जो जैनेन्द्रसूत्र पाठ छुपा है उसमें तथा अभयनन्दीकी व्याख्याने उधृत सूत्र पाट कतिपय पाटान्तर उपलब्ध होते हैं। कई पाठान्तर अभयनन्दीको वृत्ति के गम्भीर अनुशीलनसे विदित होते हैं। यथा - अभयनन्दी ने १।१।८५ की व्याख्या में ५।११७९ का पाठ उद्धृत किया है-'बदनज' इत्यादिनैपू । परन्तु ३.२७६ पर सूत्रपाट छपा है-'अजवदल्योऽतः' [ इस पर वृत्ति अप्राप्त है । ख-जैनेन्द्र १।२।। १४ सूत्रका मुद्रित पाठ है-साधकतम करणम् | इसकी व्याख्या अभयनन्दी लिखता है-'पुलिङ्गनिर्देशः किमर्थः ? परिक्रयणम् [ ३१२१११२ ] इत्यनवकाशया संप्रदानसंशया बाधा मा भूत ।' अर्थात्--पुलिंग निर्देश क्यों किया .... | इस सूत्र में दो पद हैं। दोनों ही नपुंसक लिङ्ग पढ़े हैं । ऐसी अवस्थामें न तो शंका ही उपपन्न होती है और न उनका समाधान हो । क्योंकि 'नव्याध्य भासम्' [ १।२।६१] सूत्रानुसार नपुंसक लिंगसे निर्दिष्ट संज्ञाका अनवकाश संज्ञासे बाघ होता है। अतः 'करण' संज्ञाका नपुंसकसे निर्देश होने के कारण अनवकाश सम्प्रदान संशा [१२।१११२ ] से निश्चय ही बाध होगा। इस कारण प्रतीत होता है अभयनन्दीका सूत्रपाठ "साधकतमः करण;" था, जो पीछेसे विकृत हो गया । 'करणः' पुल्लिंग निर्देश होनेपर ही १. शाकटायनकी चिन्तामणि घृत्ति में भी प्रत्याहार सूत्र व्याख्यात नहीं हैं। २. पृष्ट २ , ३३७,३२८ ।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy