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________________ ४४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् महेन्द्र और उसका मथुरा-विजय-जैनेन्द्र में स्मृत महेन्द्र गुप्तवंशीय कुमारगुप्त है। इसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमितं पूर्वोत्तरपदयोर्चा खं अक्तव्यम्' [११३५] वार्तिक अथवा 'पद्देषु पदैकदेशान्' नियमके अनुसार उसीको महेन्द्र अथवा कुमार कहते थे। उसके सिक्कोंपर श्री महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्रधर्मा, महेन्द्रकुमार श्रादि कई नाम उपलब्ध होते हैं।' तिव्वतीय नन्ध चन्द्रगर्भ सूत्रमें लिखा है--"यवनों पलिहकों शकुनी [कुशनों] ने मिलकर तीन लाख सेनासे महेन्द्र के राज्यपर आक्रमण किया | गलाके उत्तरप्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेन के युवा कुमारने दो लाख सेना लेकर उनपर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की । लौटनेपर पिताने उसका अभिषेक कर दिया । चन्द्रगर्भ सूत्रका महेन्द्र निश्चय ही महाराज कुमारगुप्त है और उसका युवराज स्कन्दगुम । मञ्जु श्री मूलकल्प श्लोक ६४६ मैं श्री महेन्द्र और उसके सकारादि पुत्र [स्कन्दगुत] को स्मरण किया है। चन्द्र गर्म-सूत्र में लिखित घटनाकी जैनेन्द्र के उदाहरणमें उल्लिखित घटना के साथ तुलना करनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के उदाहरण इसी महत्वपर्ण घटनाका संकेरा है। उक्त उदाहरणसे यह भी विदित होता है कि विदेशी आक्रान्ताओंने गङ्गाके आस-पासका प्रदेश जोतकर मथुराको अपना केन्द्र बनाया था | इस कात्या महेन्द्रकी सेनाने मथुरा का ही घेरा डाला था। महाभाष्य, शाकमधन तथा सिद्ध हैम व्याकरणों में निर्दिष्ट उदाहरणों के प्रकाशमें यह स्पष्ट हो बाता है कि आचार्य पूज्यपाद गुमवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुहा अपर नाम महेन्द्र कुमारके समकालिक हैं। पाश्चात्यमतानुसार कुमारगुप्तका काल वि० सं० ४७०-५१२ [=४१३-४५५. ई. तक था। अतः पूज्यपादका काल अधिक से अधिक विकारकी ५ वीं शतीके चतुर्थ चरणसे पष्ठ शताब्दीके प्रथम चरण तक माना जा सकता है, इसके पश्चात् नहीं । भारतीय ऐतिहासिक काल गणनानुसार गुप्तकाल इससे कुछ शताब्दी पूर्व ठहरता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुणग्महेन्मो मथुराम्' उदाहरणमें महेन्द्रको मेनेन्द्र= मिमएडर समझना भारी भ्रम है। जैनेन्द्र शब्दानुशासन अब हम जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धमें संक्षेपसे लिखते हैं जैनेन्द्र शब्दानुशासनका परिमाण-जैनेन्द्र शब्दानुशासनमें ५ अध्याय, २० पाद और ३०६७ सूत्र [प्रत्याहार सूत्रोंके बिना है। जैनेन्द्रका प्रधान उपजीव्य ग्रन्थ-प्राचार्य पूज्यपाद के समय निश्चय ही पाणिनीय और चान्द्र शब्दानुशासन विद्यमान थे। पूज्यपादने अपने शब्दानुशासन को रचना पाणिनीय शब्दानुशासन के आधार पर की है, यह पाणिनीय चान्द्र तथा जैनेन्द्र माब्दानुशासनों को सूत्र-रचना और प्रकरण-विन्यासको तुलनासे स्पष्ट है। कही-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूज्यपादने चान्द्र शब्दानुशासनसे भी कुछ सहायता ली है। जैनेन्द्र में प्रत्याहार सूत्राका सदभाव-अभयनन्दीकी महावृत्तिके साथ 'अहउ' श्रादि प्रत्याहार सूत्र उपलब्ध नहीं होते, परन्तु जैनेन्द्र शब्दानुशासनके मूल पाटमें वे अवश्य विद्यमान थे। इसमें निम्न हेतु है। फ-जैनेन्द्र सूत्रपाठमें जहाँ अनेक वणों का निर्देश करना होता है, वहाँ संक्षेपार्थ पाणिनीय अनुशासन के समान प्रत्याहारोंका प्रयोग किया है । यथा--अच् [१ । ११ ५६], इक् [१ | १ | १७], यण [११११४५], 1. श्री पं० भगधहत्तजी कृत भारतवर्ष का इतिहास सं० २००३], पृष्ठ ३५४ । २. वही, पृष्ट ३५५ । ३. महेन्प्रनृपवरो मुख्यः सकाराद्यो मतः परम् । ४. जैनेन्द्र और पाणिनीय सूत्रोंकी तुलनात्मक सूची इस प्रन्थ के अन्तमें छपी है।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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