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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाट
अर्थात् —-जैनेन्द्र व्याकरण सन् ६७८ [ ७३५ वि० ] के समीप लिखा गया 1
२- श्री प्रेमी जीने अनेक प्रमाण उपस्थित करके देवनन्दीका काल सामान्यतया विक्रमकी पर शताब्दी निश्चित किया है। [ख मी अन्य के साथ मुद्रित उनका लेख ] ।
३ - श्री लाई एस० पत्रतेने अपने 'स्ट्र कवर श्राफ दो अध्यायी' में लिखा है
'महामहोपाध्याय नरसिंहाचार्यने कर्णाटक कवि चग्निके ईस्वी सन् ४७० [ ५२७ वि०] मैं बताया है और दूसरे परन्तु मुझे २१|१२|१९३३ को लिखे एक पत्र में लिखा है आसपास है' ।
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प्रथम भाग के प्रथम संस्करण में पूज्यपाद को संस्करण में सन् ६०० = ६५० वि० ] का । कि पूज्यपाद ४३० ई०
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[ = ५०० त्रि० ] के
४ -- हमने श्रपने व्याकरण शास्त्र के इतिहास में श्री प्रेमीजी द्वारा उद्धृत प्रमाणीक आधारपर आचार्य पूज्या काल विक्रमकी पर शताब्दीका पूर्वाद्ध माना था । अथ हम उसे टोक नहीं समझते । विक्रमकी पष्ठ शताब्दीसे पूर्व हमें जो नृन प्रभाग उपलब्ध हुआ है, उसके अनुसार पूज्यपाद विक्रम पठ शताब्दी पूर्ववर्ती हैं, यह निश्चित होता है।
कात्यायनने एक विशिष्ट प्रकार के प्रयोग के लिए नियम बनाया है-परोक्षे व लोकशि प्रयोक्तुर्दर्शनfare [महा ३२/१६ ] । अर्थात् — ऐसी घटना जो लोकविज्ञान हो, प्रयोक्ताने उसे न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ता दर्शनका विषय सम्भव हो [अर्थात् वह घटना] प्रयोक्ता के जीवन काल में घटी हो] उस घटनाको कहने के लिए भूतकाल मेँ लङ् प्रत्यय होता है ।
पतञ्जलिने महाभाष्य में इस वार्तिकपर उदाहरण दिये हैं- अरुण यवनः साकेतम् श्ररुणद् यनो माध्यमिका | वार्तिके नियमानुसार साकेत [ = अयोध्या] और माध्यमिका [ = चित्तौड़ समीपवर्ती नगरी ग्राम] पर वह लोकप्रसिद्ध आक्रमण पतञ्जटिके जीवनकाल में हुआ था । प्रायः सभी ऐतिहासिक इस विषय में सहमत हैं ।
इसी प्रकारका नियम पाणिनिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याकरण-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है और उसका उदाहरण देते हुए अन्धकार प्राचीन उदाहरणों के साथ साथ स्वसमकालिक किन्हीं महती घटनाओं का भी प्रायः निर्देश करते हैं। यथा-
अजयद् जत हूणान् । चान्द्र
महेन्द्रो मधुराम् । जैनेन्द्र० [२२३६२ ] श्रदोषवर्षोऽरातीन् । शाकटायन [४।३।२०८ ] अरुण सिद्धराजोऽन्तिम् । म० [२]
इन अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा राष्ट्र हैं । आचार्य पाल्यकीर्ति [शाकटायन] महाराज अमोघवर्ष और वाम महाराज सिद्धराजके कालमें विद्यमान थे। इसमें किसीको विप्रतिपत्ति नहीं। परन्तु चान्द्र के जर्त और जैनेन्द्र के महेन्द्र नामक व्यक्तिको इतिहास प्रत्यक्ष न पाकर पाश्चात्य मतानुयायी विज्ञानीने
गुप्त र महेन्द्रको मेनेन्द्र-मिनण्डर बनाकर धनर्गल कल्पनाएँ की हैं। इस प्रकारको कल्पनाओं से इतिहास नष्ट हो जाता है । हमारे विचार में जैनेन्द्रका 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम' पाठ सर्वथा टीक है, उसमें किञ्चिन्मात्रान्तिको सम्भावना नहीं है। आचार्य पूज्यपाद के कालकी यह ऐतिहासिक घटना इतिहास में सुरक्षित है।
१. देखो, स्ट्रक्चर ग्राफ दी अष्टाध्यायी, भूमिका, पृष्ठ १३
२, यद्यपि ये उदाहरण क्रमशः धर्मदास तथा श्रभ्यनन्दी की वृत्तिसे दिये हैं, परन्तु इन कृतिकारोंने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपाद की स्त्रोपञ्च वृत्तिसे लिये हैं ।