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________________ ४७ जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ ली थी | तत्वार्थसूत्र अध्याय १ ० रात्र ४ की समिति टीकाः पनाये प्रत्यपादने शतमी बिभक्तिके लिए स्त्रनिर्मित 'का' संशाका निर्देश किया है। हमसे भी उक तथ्यको पुष्टि होती है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ०५१ जैनेन्द्र शब्दानुशासानके खिल पाठ वैयाकरण वाङ्मयमै शब्दानुशासन पद केवल सूत्रपाठके लिए प्रयुक्त होता है । सूत्रपाठको लयु मनानेके लिए उससे सम्बद्धं विस्तृत विषयोको सूत्रकार जिन ग्रन्थों में संग्रहीत करते हैं के शब्दानु. शासनके खिल अथवा परिशिष्ट कहाते हैं। प्रायः प्रत्येक शब्दानुशासनके धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन ये चार खिल होते हैं। इन्हें मिलाकर व्याकरणकी पञ्चपाठी बनती है। जैनेन्द्र व्याकरण के भी ये चार ग्विल थे [ उणादि और लिङ्गानुशासन उपलब्ध नहीं हैं ] । धातुपाठ-आचार्य देवनन्दी प्रोक्त धातुपाठका मूल ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । गुरणनन्दी प्रोक्त शब्दार्णव व्याकरण [ जैनेन्द्रका परिवर्धित संस्करण ] का चन्द्रिका टीकासहित जो संस्करण काशीसे छपा है, उसके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ भी मुद्रित है। यह धातुपाठ जिनेन्द्र [ पूज्यपाद ] प्रोक्त मूल रूपमें है अथवा शब्दार्णवके समान परिवर्धित है, यह हम नहीं कह सकते | अभयनन्दी को महावृत्ति में जैनेन्द्र धातुबाट के अनेक सूत्र' उधृन हैं उनकी मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठकी तुलनासे कुछ परिणाम निकाला जा सकता है । परन्तु सम्प्रति मेरे पास मुद्रित जैनेन्द्र धानु बाट नहीं है | अतः मैं इसके निर्णयमें इस समय असमर्थ हूँ। ___ मैं इसी वर्ष ६ अगस्तको काशीमें भारतीय ज्ञानपीठके व्यवस्थापक तथा महवृत्तिके सम्पादक महोदयोंसे मिला यो [ यह मेरा प्रथम मिलन था] और उन्हें ग्रन्थके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ छापनेका सुझाव दिया था । दोनो महानुभाोंने बड़ी साहयतासे मेरे सुझावको स्वीकार किया और वह इस अन्धके अन्तमें दिया जा रहा है [अभी छपा मेरे पास नहीं पहुँचा] । __ घातुपारायण-आचार्य हेमचन्द्रने स्वीय लिङ्गानुशासनके स्वोपज्ञ विवरणमें पृष्ट १३२ पं० २० पर नन्दिधातुपारायण तथा पृष्ठ १३३ पं० २३ पर नन्दिपारायण उदधृत किया है । इस नामके साथ हैमघातुपारायण नामको तुलनासे प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य देवनन्दीका अपने धातुपाठ पर स्वोपज़ विवरण रहा होगा। गणपाठ-जैनेन्द्र गणपाठ अभयनन्दीकी महावृत्ति में यथास्थान सन्निविष्ट है, पृथक छपा नहीं मिलता। उणादिसूत्र-जैनेन्द्र उणादिसूत्रका कोई हस्तलेख अभी तक हमारी दृष्टि में नहीं आया | महावृत्तिके सम्पादकजीसे भी इसके विषयमें पूछा था। उन्होंने २६ । ६ । ५६ के पत्रमैं लिखा—"उणादि सूत्र तथा परिभाषाओंका मी संकलन कहीं नहीं उपलब्ध हो सका। लिङ्गानुशासन भी जैनेन्द्रका अनुप लभ ही है। अभयनन्दीको महावृत्तिमें अनेक उणादि सूत्र उद्धृत हैं। कुछ प्राचीन पञ्चपादीसे पूर्णतया मिलते हैं, कुछमें पाठान्तर है। अनेक सूत्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रत्यक्ष जैनेन्द्र संज्ञानोंका प्रयोग हुश्रा है । इसलिए यह निश्चित है कि जैनेन्द्र प्रोक्त उगादि सूत्र भी थे। उदाहरणके लिए हम कुछ सूत्र उद्धृन करते हैं । यथा 1. काशिका १३२२ में खिल शब्द इसी अर्थमें प्रयुक्त है। २. प्राचीन परम्परानुसार 'भू ससायाम' एध वृद्धी' आदि वामय सूत्र माने जाते हैं। हर-अस्मत्संपादित खीरतरकिणी, पृष्ठ १, टि० २ ।
SR No.090209
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size16 MB
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