Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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मृगस्थान/४३ नष्ट सम्बन्धी दो उदाहरण कहने के पश्चात् अब उद्दिष्ट जाल करने के लिए उदाहरण देते हैं-'भोजनकथालापी मायावी चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान्' इस पालाप की संख्या ज्ञात करनी है । भोजनकथा पर अङ्क दो, माया कषाय पर अङ्क पाठ, चक्षु इन्द्रिय पर प्रङ्क अड़तालीस हैं, इन तीनों को जोड़ने से (२++४==) ५८ प्राप्त होते हैं। अतः उक्त 'भोजनकथालापी मायावी चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान्' पालाप की संख्या ५८ है, इसी प्रकार अन्य नष्टों के पालाप और अन्य पालापों के उद्दिष्ट ज्ञात कर लेने चाहिए।
शङ्का--गाथा ४३ व ४४ में निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के कोष्ठक वयों नहीं बनाये गये?
समाधान-निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के दो व तीन प्रादि उत्तरभेद नहीं हैं अतः उनके कोष्ठक नहीं बनाये गये हैं । यदि कोष्ठक बनते भी तो निद्राप्रमाद के स्थान पर शून्य और स्नेहप्रमाद के स्थान पर शुन्य रखा जाने से तथा इन दोनों शुन्यों को जोड़ने से संख्या में कोई अन्तर न पड़ने के कारण निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के कोष्ठक नहीं बनाये गये ।
अथवा प्रमाद के ३७५०० भङ्ग भी हैं जो इस प्रकार हैं-स्नेह के दो भेद, निद्रा पाँच प्रकार की, इन्द्रिय पाँच व मन ये छह, कषाय व नोकषाय मिलकर पच्चीस और विकथा २५ । इनको परस्पर गुणा करने से (२४५४६४२५४२५) ३७५०० भङ्ग होते हैं ।
नष्ट व उद्दिष्ट ज्ञात करने के लिए यंत्र इस प्रकार बनाये जाते हैं जितने मूल भेद हो उतनी पंक्तियां यंत्र में होती हैं । जिस मूलभेद के जितने उत्तरभेद हों, उस मूलभेद की पंक्ति में उतने कोठे होते हैं । मुलभेद और उत्तरभेद यथाक्रम लिखे जाते हैं । प्रथम पंक्ति के कोठों में यथाक्रम एक दो तीन प्रादि संख्या लिखी जाती है । उसके नीचे की पंक्ति अर्थात् दूसरी पंक्ति के प्रथम कोठे (अनन्तानुबन्धी ) में शून्य लिखा जाता है । द्वितीय कोठे में वह संख्या लिखी जाती है, जो संख्या (२५) प्रथम पंक्ति के अन्तिम (संगीतवाद्यकथा) कोठे में लिखी गई थी, क्योंकि इस प्रथम पंक्ति से पूर्व कोई पंक्ति नहीं है । द्वितीय पंक्ति के तृतीयादि (अनन्तानुबन्धी मायादि) कोठों में क्रम से द्वितीय (अनन्तानुबंधीमान) कोठे की संख्या को दुगुनी २५४२ (५०), तिगुनी २५४३ (७५). चौगुणी २५४४ (१००), आदि २५४२४ (६००) पर्यन्त संख्या लिखी जाती है । द्वितीय पंक्ति के नोचे तृतीय
इन्द्रिय) पंक्ति के प्रथम (स्पर्शनेन्द्रिय) कोठे में शून्य लिखा जाता है। प्रथम पंक्ति के अन्तिम कोठे की संख्या (२५) और द्वितीय पंक्ति के अन्तिम कोठे की संख्या (६००) इन दोनों संख्याओं को जोड़ने से जो प्रमाण (६२५) आवे उतनी (६२५) संख्या तृतीय (इन्द्रिय) पंक्ति के द्वितीय (रमना) कोठे में लिखी जाती है । इसके पश्चात् तृतीय आदि कोठों में द्वितीय कोठे की संख्या की दुगुगणी (६२५४२), तीनगुणी (६२५४३), चारगुरणी (६२५४४) आदि संख्या यथाक्रम लिखी जाती है। इसी प्रकार चतुर्थ, पंचमादि पंक्तियों के कोठों में से प्रथम कोठे (स्त्यानगद्धि) में शून्य और द्वितीय कोठे (निद्वानिद्रा) में पूर्व पंक्तियों के अन्तिम कोठों की संख्याओं का जोड़ {२५ + ६०० + ३१२५ = ३७५०) और नृतोय आदि कोठों में द्वितीय कोठे को दुगुणी (३७५०x२), तीनगुणी (३७५०४३) अादि संख्या लिखी जाती है। प्रत्येक पंक्ति के अन्तिम कोठों की संख्याओं को परस्पर
जोड़ने से कुल भंगों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इस विधान के अनुसार प्रमाद के ३७५०० भंगों __ के दो प्रस्तारों को अपेक्षा दो यंत्र बनाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं: -