Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४७
अथ "बन्धोदयसत्त्व" अधिकार
गार
आवायटेक पाचरणम्पूर्हक बंध-उदय-सत्त्वअधिकारका कधन करने की प्रतिज्ञा
करते हैं -
णमिऊण णेमिचंदं असहायपरक्कम महावीरें।
बंधुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं वोच्छं ॥८७ ।। अर्थ – जिनका पराक्रम दूसरों की सहायता से रहित है और जो महावीर हैं ऐसे नेमिनाथ तीर्थकर को नमस्कार करके गुणस्थान और मार्गणा में बन्ध-उदय तथा सत्त्व का कथन करनेवाले स्तवरूप ग्रन्थ को कहूँगा। स्तव का लक्षण कहते हैं -
सयलंगेलंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं।
वण्णणसत्थं थयथुइधम्मकहा होइ णियमेण ॥८८ ।। अर्थ - जिसमें सकलअङ्ग का वर्णन विस्तार से या संक्षेप से किया गया है उसशास्त्र को स्तव कहते हैं। तथा एकअङ्ग का वर्णन विस्तार अथवा संक्षेप से जिस शास्त्र में किया गया है उसशास्त्र को स्तुति कहते हैं। एकअङ्ग के अधिकार का वर्णन विस्तार या संक्षेप से जिसमें किया गया है उसे धर्मकथा (वस्तु) कहते हैं ऐसा नियम से जानना ।
विशेषार्थ - जैसे चतुर्विंशतितीर्थंकर की वन्दना को स्तव कहते हैं उसीप्रकार संक्षेप या विस्तार से सकलअन के अर्थ का प्रतिपादकशास्त्र यहाँ 'स्तव' नाम से कहा गया है। तथैव जब एक तीर्थंकर की वन्दना की जाती है तो उसे स्तुति कहते हैं, वैसे ही यहाँ एकअनके अर्थ का संक्षेप या विस्तार से कथन करनेवाला शास्त्र स्तुति कहलाता है एवं एक अङ्ग में २० वस्तु-अधिकार होते हैं इसलिए एकअङ्ग के अधिकार का संक्षेप या विस्तार से कथन करनेवाला शास्त्र धर्मकथा कहलाता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में धर्म का ही कथन है अतः यहाँ वस्तु को धर्मकथा कहा गया है। वस्तु और धर्मकथा यहाँ पर्यायवाची ही प्रतीत होते हैं।