Book Title: Paumappahasami Cariyam
Author(s): Devsuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIRI DEVASŪRI'S PAUMAPPAHASĀMI CARIYAM L.D. SERIES 116 Edited by PT. RUPENDRAKUMAR PAGĀRIYĀ General Editor JITENDRA B. SHAH भारतीय L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY, AHMEDABAD-9 अवतमाई domem Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIRI DEVASŪRI PAUMAPPAHASĀMI CARIYAM L.D. SERIES 116 Edited by GENERAL EDITOR PT.RUPENDRAKUMAR PAGĀRIYĀ JITENDRA B. SHAH L.D.INSITUTE OF INDOLOGY, AHMEDABAD-9 2010_04 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by : Gayatri Computers 20/1, Tulshishyam Society, Opp. Bhimjipura, New Wadaj Road, Ahmedabad-380 013. Phone : 7483845 Published by L. D. Institute of Indology AHMEDABAD - 380 009. First Editon : July 1995 Price Rupees : 250/ 2010_04 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिदेवसूरिविरइयं सिरिपउमप्पहसामिचरियं सम्पादक पं. रूपेन्द्रकुमार पगारिया प्रकाशक: लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद-९. 2010_04 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE . We are glad to publish Sri Padmaprabha-swami-caritra composed by Sri Devasuri, the great Jain Acarya of Jalihara Gachha. It is a good coincidence that this work was composed in Vikram Samvat 1254 in Vadhavana a well-known city of Gujarat. The Diction of this biographic Prakrit work, though scholarly is lucid and easy to follow. The author has occasionally interspersed the Prakrit passages with Sanskrit and Apabharamsa and this has made the work more relishable. Though the theme of the work is the life-story of the Tirthamkarapadma Prabha, to make it more interesting and enlightening the author has woven the narrative with many stories and substories depicting the contemporary religious and social milieu. It is needless to say that this poetic depiction of contemporary socio-religious life will be very much useful to the students and the scholars interested in knowing the socio-religious and cultural life of that period. The editor of this work Pt. Rupendrakumar Pagaria is well-known scholar of Prakrit and enjoys a long and rich experince of editing and research in the field. He has edited this work on the basis of a rarely available manuscript written in the 15th century. He has also taken pains to introduce this work to readers by giving preview of the work. Our Institute is greatful to Pt. Rupendrakumar Pagaria for having undertaken this challenging work. We believe his work will be of great help to the scholars and lovers of the Indian literature. Jitendrabhai B. Shah Hon. Director (Research) 2010_04 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रतिपरिचय : पद्मप्रभ स्वामी चरित की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैं । एक ताडपत्रीय और दूसरी कागज की । प्रथम ताडपत्रीय प्रति संघभण्डार (संघवी पाड़ा) पाटण में हैं । संघभण्डार की सूची में इसका क्रमांक ३४६ है। इसका परिमाण ३२१/४ इंच और पत्र संख्या १८० है। इस प्रति के अन्त में दी गई पुष्पिका इस प्रकार है- “संवत १४७९ वर्षे वैशाखवदि ४ गुरौ । इष्टदेवताभ्यो नमः"। दूसरी पाण्डुलिपि कागज की है। यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार में है। इसका सूची में क्रमांक १८८७ है। इस प्रति में पृष्ट १६२ है। इसकी लम्बाई चौडाई२८११ सें.मी. है। इस पर लिपिकार की प्रशस्ति है किन्तु लेखन संवत नहीं हैं किन्तु लिपिकारकी लेखन शैली एवं अक्षरों के आकार प्रकार से यह अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रति पंद्रहवी सदी के उत्तरार्द में किसी समय लिखी गई होगी। इस प्रति के अन्त में लिखी गई प्रशस्ति इस प्रकार है. ___ "इति श्रीमत् पदमप्रभ चरित्रं समाप्तं ॥छ।। कृतिरियं श्री जालिहरगच्छमण्डन श्री धर्मघोषसूरि शिष्य श्री देवसूरिणामिति भद्रं ॥छ।। आशीर्वादोयं संघस्य लिख्यते । यथा-- कार्याणामनिशं यतः शिवकरी सिध्दिः समासाद्यते । यस्मात् सर्वमनोरथद्गमततिर्विश्वस्य पंफुल्यते ।। यन्यद्याच्चमनोरथाभिगमहो सर्व समासाद्यते । युष्माकं भवताच्छुभाशयवतां पद्मप्रभः सश्रिये ॥९॥ एला यत्र दया क्षमा बलवती सत्यं लवंगं परम् । कारुण्यं क्रमुकीफलानि विदितश्चूर्णश्च सत्वोदयः ।। कर्पूरं मुनिदानमुत्तमगुणं शीलं च पत्रोच्चया । गृह्णीध्वं गुणकृज्जनैर्निगदितं ताम्बूलमेतज्जनाः ॥२॥ शुभं स्यात् श्री चतुर्विधस्य संघस्य ॥छ।।श्री।। अन्य अक्षरों में "पुस्तकमिदं श्री कमलसंयमोपाध्यायानां गृहीतं श्री चित्रकूटे ॥ संशोधन : मैने अपने सम्पादन कार्यमें उपरोक्त प्रति का ही उपयोग किया है। साथ ही इसी ज्ञान भण्डार की अन्य दो प्रतियों का भी उवलोकन किया। मेरे सम्पादन में ये दो प्रतियां भी बडी उपयोगी सिद्ध हुई । कई अशुद्धियों को शुद्ध करने में इससे बडी सहायता मिली है । ग्रन्थ परिचय : विक्रम की ग्यारहवी, बारहवी और तेरहवीं सदी में जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में अनेक चरितग्रन्थों की रचना 2010_04 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर प्राकृत साहित्य की अभिवृद्धि की है । इन में कुछ चरित्रग्रन्थ प्रकाशित हुए है और कुछ आज भी अप्रकाशित स्थिति में ज्ञान भण्डारों की शोभा बढ़ा रहे हैं । ला. द.भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर का एक उद्देश्य रहा है कि अप्रकाशित प्राकृत और संस्कृत के मूल ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन और अनुवादित कर उन्हें प्रकाशित करना, एवं प्राचीन ग्रन्थों के विशिष्ट अध्येताओं को प्रोत्साहित करना । उसी के अन्तर्गत आ. देवसूरी द्वारा रचित पद्म प्रभ चरित्र का यह संशोधित प्रकाशन हो रहा है। पद्मप्रभचरित्र मध्यकालीन चरित्रग्रन्थों की एक महत्वपूर्ण कृति है। इनके कर्ता जालिहरगच्छीय विद्वान आचार्य देवसूरि हैं । इन्होंने वि.सं.१२५४ में वढवाण नगर गुजरात में भीमदेव के राज्यकाल में पज्जुन श्रेष्ठी की वसति मे रहकर विदयलक्खन की प्रार्थना से इस चरित ग्रन्थ की रचना की । यह ग्रन्थ गद्य-पद्यामय है । इसका रचना परिमाण ८००० श्लोक है । यह पांच अवसरों में विभक्त है । अब तक के उपलब्ध पद्मप्रभ चरित्र में यह सबसे बडा है । इस ग्रन्थ के प्रथम अवसर में भ. पद्मप्रभ के पूर्वभव का वर्णन है और शेष में उनके वर्तमान जन्म का। प्रथम अवसर में पद्मप्रभ के पूर्व जन्म अपराजित से देव भव तक का विस्तार से वर्णन करते हुए बतलाया है कि किस प्रकार उन्होंने अपराजित राजा के भव में सम्यक्त्व और संयम की कठोर साधना से अपने व्यक्तित्व का विकास किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्धकर तीर्थंकर पद को प्राप्त किया । दूसरे अवसर में देव भव और देव भव के पश्चात् तीर्थंकरत्व के रूप में उनका जन्म, एवं देवों और मानवों द्वारा किये गये जन्मोत्सव, नामकरण, विवाह, राज्यारोहन, वर्षीदान, महानिष्क्रमण एवं केवलज्ञान का वर्णन है । तृतीय और चतुर्थ अवसर में भगवान की धर्मदेशना, उनके द्वारा संघस्थापन विविध देशों में विहार करते हुए अपनी अमोघ देशना द्वारा भव्यों को प्रतिबोध एवं पंचम अवसरमें उनके निर्वाण का विशद विवेचन है । इस ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है । भाषा सरल, प्रौढ तथा परिमार्जित है । इसकी गाथाएँ आर्या छंद में है। कहीं-कहीं कवि ने अत्यल्प मात्रा में कवि ने अत्यल्प मात्रामें वसन्ततिलका. शार्दलविक्रीडित स्त्रग्धरा. अनष्टप आदि छंदों का भी उपयोग किया है ।भगवान के जन्म का (पृ. १७३ - से १७७ तक) वर्णन अपभ्रंशभाषा में है । पद्मप्रभ के पूर्वभवमें अपराजित राजा ने अपने धर्मोपदेशक आचार्य से उनकी दीक्षा का कारण पूछा तो आचार्य ने अपने जीवन की रूपक द्वारा अन्तरंग कथा कह सुनाई, यह अन्तरंग कथा (उपमिति भव प्रपंचा कथा की अन्तरंग कथा का संक्षिप्त रूप है, । रचना श्लेषपूर्ण प्रौढ संस्कृत में है । इस कथानक में सुक्तियों का एवं लोकोक्तियों का प्रचुरमात्रा में उपयोग किया है । इस चरितकाव्य में धर्म, कथा, काव्य और दर्शन का एक साथ समन्वित रूप विद्यमान है । इस में प्रधान रूप से धर्म के मुख्य अंग दान, शील, तप और भावना के आचरण पर विशेष भार देते हुए उन पर एक एक कथा रोचक शैली में प्रस्तुत की है । साथ ही श्रावक के बारहव्रतपर एक एक कथाओं का गुंथन कर उनके सुन्दर परिणामों का भावपूर्ण शैली में निरूपण किया है । कथानक का जितना विस्तार है उससे कहीं अधिक वर्णनों का विस्तार है । अन्धविश्वास, मिथ्यात्व, वितण्डावाद एवं क्रोधादि मानवीय विकारों का विश्लेषण तर्क पूर्ण दार्शनिक शैली में किया है । इसमें कथावस्तु के विस्तार में कथानकों का चमत्कारपूर्ण योग है । मनोरंजन के 2010_04 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ उपदेश तत्व की योजना और लक्ष्य की दृष्टि से आद्यन्त एक रूपता पायी जाती है । क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, प्रमाद के शोधन, परिमार्जन और उनके विलयन का अनेक रूप से वर्णन किया है । साथ ही कथानक का आधार आश्चर्यजनक घटनाओं से परिपूर्ण कथावस्तु के विकास में जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का सघन जाल, कथानक रूढियों का प्रयोग, एवं पात्र वैविध्य इस चरित्र ग्रन्थ की विशेषता है । कथा को गतिशील और चमत्कार पूर्ण बनाने के लिए स्वप्र दर्शन, अश्वापहरण, एवं पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर प्रणयोद्बोध आदि कथानक की रूढ परंपरा का प्रयोग यत्रतत्र मिलता है। समासान्त पदावली, नये-नये शब्दों का प्रयोग पदविन्यास की लय, संगीतात्मक गति, भावतरलता एवं प्रवाहमय भाषा इस चरित्र काव्य की विशेषता हैं। इसमें विविध प्रकार के अलंकार, रस एवं भावादि की अभिव्यंजना उत्तम प्रकार से प्रस्तुत की गई है । इस चरित्र काव्य में लोक जीवन का सजीव चित्रण भी सरलभाषा में हुआ है । साथ ही आचार्य श्री ने अपने कथानकों में मानवीय मनोवेग, भावावेश, विचार, भावना उद्देश्य, प्रयोजन आदि का सुन्दर आकलन किया है एवं सामन्त, राजा, सेठ, मन्त्री प्रभृति नाना व्यक्तियों के चरित्र उनके छल, कपट, प्रेम के विभिन्न पक्षों, मध्यवर्गीय संवेदनाएं और कुंठाएँ सुन्दर रूप में अभिव्यक्त की गई है । इनकी लोकोक्तियां भी हृदयस्पर्शी हैं । इस प्रकार लेखक ने भाषा को सशक्त और मुहावरेदार बनाया है । इसमें उपमा और रूपक भी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। कथावस्तु : ग्रन्थकर्ता प्रारंभ में आदि जिनेश्वर भगवान ऋषभदेव, पद्मलंछन से युक्त भगवान शान्तिनाथ, श्यामलवर्णीय भगवान नेमिनाथ, नव हाथ उंचे कुवलय प्रभावाले भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य तीर्थंकरों को स्तुतिपूर्वक प्रणाम कर जिनेश्वर के मुख से निकली जिनवाणी स्वरूप सरस्वती की प्रशंसा करते हैं । तत् पश्चात् अष्टापद शिखर पर पहुँचनेवाले, संसार परिभ्रमण से मुक्त अभिनव सूर्य के समान तेजस्वी गौतमगणधर को एवं श्रेष्ठ दस नियुक्तियों के निर्माता भद्रबाहु को प्रणाम करते हैं । जिन के मुख से सदा अमृतरस का झरना बहता हो ऐसे हरिभद्र सूरि, विविध ग्रन्थों के रचयिता हेमचन्द्राचार्य जैसे महान् साहित्यकारों को हृदयपूर्वक स्मरण करते हुए कहते हैं- कवि रत्नाकर है जो रत्नों के समूह को ग्रहण कर स्वर्णकार की भाति नये नये अलंकारों को बनाता है अर्थात् अलंकारों से युक्त नये नये सुन्दर काव्यों की रचना करता हैं । सज्जन आंखों के समान होते हैं जैसे आंखे छोटी या बडी सभी वस्तु को प्रकाशित करती है किन्तु अपने आपको नहीं। उसी तरह सज्जन सदैव दूसरों के काव्यों की ही प्रशंसा करते रहते हैं भले ही वह अल्प गुणवाला ही क्यों न हो । दुर्जन का तो कहना ही क्या वे स्वभाव से ही निंदक होते हैं । मंत्र या चूर्ण से तो बिच्छु आदि का प्रतिकार किया जा सकता है किन्तु दुर्जनों का प्रतिकार करने में तो ब्रम्हा भी असमर्थ है । दुर्जन जन तो महा भयानक होता है फिर भी मै उनसे प्रार्थना करता हूं कि वे मेरे काव्य में रहे हुए दोषों को प्रकट कर मुझे अवश्य कृतार्थ करें । इसके बाद कवि अपने कार्य में आनेवाले विघ्रों के नाशक जिन भगवान को नमस्कार कर ग्रन्थारम्भ करता है और कहता है-सभी योगीश्वर मिलकर भी जिनेश्वर भगवान के सम्पूर्ण चरित्र को प्रकट करने में असमर्थ है तो मुझ जैसा सामान्य व्यक्ति भगवान के चरित्र को पूर्णरूप से कैसे प्रकट कर सकता है ? फिर भी मेरा नया ग्रन्थ निर्माण रूप व्यापार निष्फल नहीं होगा, ऐसा 2010_04 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मानना है । ऋषभदेव के तेरहभव, भ. शान्तिनाथ के बारहभव, भ. नेमिनाथ के नौ भव. भ. पार्श्व के दस भव एवं भ. वीर के २७ भव कहे गये हैं। शेष तीर्थंकरों के तीन तीन भव शास्त्रों में वर्णित है तदनुसार मै भी भ. पद्मप्रभु के तीन भवों का ही वर्णन करूंगा । भ. पद्मप्रभु का प्रथम भव - जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में ऐश्वर्य सम्पन्न वत्सविजय में सुसीमा नाम की एक अत्यन्त रमणीय नगरी थी । जिसका क्षितिज मंदिरों एवं विशाल प्रासादों की पताकाओं से सुशोभित था । वह नगरी इतनी सुन्दरी थी कि अमरावती नगरी भी उसके सामने फिकी लगती थी। उसी नगरी में अपराजित नाम का राजा राज्य करता था । वह अपराजित था और न्यायनीति से राज्य का संचालन करता था । एक बार वसन्त के समय राजा अपराजित मागध के अनुरोध से उद्यान श्री को देखने के लिए उद्यान में गया। वहां घूमते घूमते एक शिलापट्ट पर विराजमान ध्यानस्थ मुनि को देखा। मुनि सुन्दर युवा एवं तप तेज से प्रकाशित थे । मुनि के तपतेज से आकर्षित राजा मुनि के पास पहुंचा और मुनि को वन्दन कर उनके समीप बैठ गया। मुनि ने राजा को आशिर्वाद के साथ धर्मोपदेश दिया । उन्होंने कहा - " इस असार संसार में अगर कोई सारभूत वस्तु है तो वह धर्म है । धर्माचरण से ही मनुष्य जन्म, जरा, मृत्यु और रोग से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । दान, शील, तप और भावना रूप धर्म चार प्रकार का है"। आचार्य श्री ने चारों धर्मो का विशद विवेचन किया और दान के महत्व को प्रकट करने के लिए हंसपाल कथानक, शील का प्रभाव बतलाने के लिए मृगांकलेखा चरित्र, तप का महत्व बताने के लिए रोहिनी कथानक, और भावना का प्रभाव व्यंजित करने के लिए सुरसुन्दर कथानक बड़े रोचक ढंग से सुनाया । उपदेश श्रवण के बाद राजाने आचार्य से युवावस्था में दीक्षा लेने का कारण पूछा तो उन्होंने अपने जीवन की अन्तरंग कथा सुनाकर अपनी प्रव्रज्या का कारण बताया । इन चारों प्रधान कथाओं का संक्षिप्त सार इस प्रकार है — हंसपाल की कथा : (पृ. ९-३५ ) वाराणसी नामकी नगरी थी। वहां कुसुमसार नाम का धनाढ्य श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम स्वयंप्रभा था । उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दीया । उसका नाम मयंक रखा। उसी नगरी में धनंजय नाम का श्रेष्ठी रहता था । उसकी पद्मावती नामकी पुत्री थी । मयंक और पद्मावती जब आठ वर्ष के हुए तब दोनों को एक ही दिन एक ही अध्यापक के पास पढने के लिए भेजा। सहाध्यायी होने से दोनों में अच्छी मैत्री थी। दोनों आपस में मिलकर पिता से प्राप्त धन से खाने पीने आदि की वस्तुएँ खरीदते थे और दोनों आपस में बाटकर खाते थे । एक दिन पद्मावती के पिता ने ८० कोड़ियां पद्मावती को दी । पद्मावती ने उनमें से ५० कोड़ियां मयंक को दे कर कहा- "तुम इन ५० कोडियों के खाद्यान्न ले आओ हम मिलकर खायेंगे । मयंक बाजार में गया और उन ५० कोड़ियों का खाद्य लेकर वह स्वयं खा गया । पद्मावती को जब इस बात का पता लगा तो उसने मयंक को उपालंभ देते हुए कहा- “कुमार ! तुमने मेरा विश्वासघात किया है । यदि ये कोड़ियां मेरे पास होती तो मैं अपने लिए वस्त्र या अलंकार लाती किन्तु तुमने तो अपनी स्वार्थवृत्ति का ही परिचय दिया है" । पद्मावती की यह बात उसे खटकी। अब वह बार बार पद्मावती के वचन का स्मरण करता रहता और 2010_04 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदा योग्य अवसर आने पर 'मै इसका उत्तर दूंगा ऐसा सोच उसने मौन रखा । कुछ वर्ष तक कलाचार्य के पास अध्ययन कर दोनों अपने अपने घर आ गये । बदले की भावना से मयंक ने अपने पिता को कहकर पद्मावती के साथ विवाह कर लिया । दोनों सुख पूर्वक रहने लगे। एक दिन मयंक सागरदत्त नामक पोतवाहक के साथ व्यापारार्थ समुद्रीयात्रा के लिए निकला। साथ में अत्यन्त आग्रह से अपनी पत्नी पद्मावती को भी ले लिया । कई दिनों की यात्रा के पश्चात् उनकी नौका समुद्र के बीच मानवरहित राक्षसद्वीप पर आ पहुंची। मयंक ने अपने साथियों के साथ यहीं रात्रि विश्राम करने का विचार किया । सभी यात्री द्वीप पर उतर गये । सायंकाल में मयंक पद्मावती को साथ में लेकर उस द्वीप की प्राकृतिक छटा को दिखाता हुआ वह उसके साथ एक घने जंगल में पहुंचा । थकी होने के कारण पद्मावती वृक्षपल्लवों की शय्यापर अपने पति के साथ सो गई । मयंक को पद्मावती से बदला लेने का अच्छा अवसर मिला । उसने ५० कोड़ियां उसके वस्त्र के आंचल में बांधकर उसके साथ एक पत्र भी लिखकर रख दिया । वह उसे गहरी में छोडकर चिल्लाता हआ नाविकों की और भागा और बोला-पद्मावती को एक राक्षस ने मार डाला है और हमें भी मार डालेगा - इस प्रकार नाविकों को डराता हुआ वह उन्हें अपने साथ ले कर वहां से चल पडा । __ कुछ समय के बाद पद्मावती जागी तो उसने अपने पति को अपने पास नहीं पाया । वह उसे ढूंढ़ने लगी । बहुत खोज करने पर भी उसे न पाकर भयभीत होकर करुण क्रन्दन करने लगी। सहसा उस की दृष्टि अपने आंचल की गांठ पर पडी। उसे खोल कर देखा तो ५० कोडियों के साथ एक पत्र भी था । पत्र में लिखा था "इन ५० कोड़ियों से अपने योग्य वस्त्र और अलंकार बना लेना।" पत्र पढ़कर उसे बडा दुःख हुआ। वह समुद्र के किनारे आई । उंचे टीले पर एक वृक्ष के ढूंठ पर उसने वस्त्र बांध दिया और उस तरफ आनेवाले यात्रियों की राह देखने लगी । अपना समय व्यतीत करने के लिए उसने मिट्टी की भ.ऋषभजिन की प्रतिमा बनाई । वह उसकी त्रिकाल अर्चना और जिनभगवान द्वारा प्ररूपित तत्वों का चिन्तन करती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी। किसी द्वीप की ओर जाते हुए एक दिन पद्म नामक सार्थवाह मानव शुन्य राक्षस द्वीप में वस्त्र की पताका देखकर द्वीप पर उतरा । वहां मानव पद चिन्हों का अनुसरण करता हुआ वह पद्मावती के पास पहुंचा। पद्मावती से उसने सारी घटना सुनी । उसे दया आई । आश्वस्त कर उसे साथ ले कर पद्मसार्थवाह अन्य द्वीप के लिए चल दिया। मार्ग में पद्मावती से उसने अनुचित याचना की । पद्मावती ने धर्म विरुद्ध आचरण न करने के लिए उसे खूब समझाया परन्तु वह अपनी जिद्द पर अटल रहा । समुद्रमें तुफान आया । पद्मसार्थवाह की नौका टूट गई । वह अपनी नौका के साथ समुद्र में डूब गया । एक टूटे हुए काष्ट खण्ड का सहारा लेकर पद्मावती समुद्र में तैरने लगी । उस समय एक खेचर आकाश मार्ग से जा रहा था । उसकी दृष्टि समुद्र में तैरती हुई पद्मावती पर पडी । उसने उसे उठाकर अपने विमान में बैठा दिया । खेचर भी पद्मावती के रूप पर मुग्ध था । उसने उसे अपनी पत्नी बनाने का प्रस्ताव रखा । उसने उसका प्रतिकार किया और उसे उपदेश दिया । पद्मावती के उपदेश से प्रभावित हो उसने उसे अपनी बहिन मान लिया । उस पर प्रसन्न होकर अदृश्य करण अंजन, परविद्या छेदनविद्या और रूपपरावर्तन नामकी तीन विद्याएँ उसे दी और उसे सुंसुमार पुरके उद्यान में छोड 2010_04 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया । पदमावती ने रूप परावर्तन गुटिका से एक तरुण सुन्दर पुरुष का रूप धारण किया और अपना नाम साहसांक रखा । साहसांक सुन्दर चित्रपट बनाकर बेचने लगा। उसके चित्र खूब बिकने लगे । उसके चित्रपट की प्रशंसा राजा तक पहुंची । राजा ने उसे राजसभा में बुलाया । उसके कला कौशल्य से प्रसन्न हो कर राजा ने अपनी पुत्री विजया और कुमार अचल को पढाने के लिए उसे अध्यापक के रूप में नियुक्त किया और अपने पास रख लिया । साहसांक ने अल्प दिनों में ही पुत्र और पुत्रियों को सब कलाओं में निपुण बना दिया। राजाने प्रसन्न होकर उसकी दण्डाधिप के रूपमें नियुक्ति कि ।। उसी नगर में एक चोर रहता था वह अदृश्य अंजनप्रयोग से एवं तालोग्घाटिनी विद्या से नगर को लूटता था । राजा प्रजा एवं कोटवाल ने उसे पकड़ने के बहुत प्रयत्न किये किन्तु वे सब निष्फल गये । चतुर साहसांक ने कुशलतापूर्वक उसे चोरी करते हुए रंगे हाथों पकडा । राजा ने प्रसन्न होकर उसे आधा राज्य दे दिया और अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया । वह सुख पूर्वक रहने लगा। एक बार मयंक माल से लदी हुई नौका के साथ सुंसुमार बंदर पर पहुंचा। शुल्क न देने के कारण साहसांक ने उसे पकड़ा और उसे कैद खाने में डाल दिया । पद्मावती (साहसांक) ने उसे पहचान लिया और राजा से छुडवाकर उसे अपने पास नौकर के रूप में रख लिया । कुछ दिनों के बाद मयंक ने पद्मावती को पहचान लिया और पद्मावती से अपने अपराध की क्षमा मांगी । पदमावती ने उसे क्षमा प्रदान कर अपना असली रूप प्रकट किया। राजा ने मयंक का सम्मान किया। साहसांक की पत्नी विजया के साथ मयंक ने पुनः विवाह किया । कुछ समय तक मयंक अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुसुमार नगर में रहा । पश्चात् राजा की आज्ञा प्राप्त कर पद्मावती और विजया के साथ वह अपने नगर लौट आया । एक बार गुणाकरसूरि नामके आचार्य उद्यान में पधारे । परिवार सहित मयंक आचार्य के पास गया और वन्दना कर उनका धर्मोपदेश सुनने लगा। उपदेश समाप्ति के बाद उसने आचार्य से प्रश्न किया- भगवन्! मुझे यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई और किस पाप के कारण पनि वियोग और सेवकपन की प्राप्ति हुई ? मुनि ने कहा - "तुमने पूर्व जन्म में मासोपवासी मुनि को श्रद्धा से खीरान दिया और बाद में पश्चाताप किया। भावना से आहारदान देने से तुझे सम्पत्ति की प्राप्ति हुई और पश्चाताप से जो तुमने कर्मबन्ध किये उसी के फल स्वरूप तुझे पत्नि वियोग और दासत्व की प्राप्ति हुई । अतः दान देने के बाद उसका कभी पश्चाताप नहीं करना चाहिए । मुनि का उपदेश सुनकर दोनों ने ग्रहस्थ धर्म स्वीकार किया। धर्मध्यान करते हुए वे समाधि पूर्वक मरे और अच्युतकल्प में देव बने । भविष्य में वे सिद्धिपद प्राप्त करेंगे। दान की महिमा समझाने के बाद आचार्य ने श्री शील का महात्म्य समझाया । इस पर उन्होनें मृगांकलेखा सति का दृष्टान्त कहा। मृगांकलेखा : (पृ. ३५-७४) उज्जैनी नगरी में अवंतिसेन नाम का राजा न्यायनीती पूर्वक राज्य करता था। वहां धनसार नामका धनाढ्य सार्थवाह रहता था। उसकी रंभा नामकी रूपवती पनी थी। उसने मृगांकलेखा नामकी एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया । मृगांकलेखा युवा हुई । वह एक दिन जिन पूजा के लिए मंदिर में गई । वहां भक्ति पूर्वक जिनपूजन कर 2010_04 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के ध्यान में निमग्न हो गई । उस समय सागरदत्त श्रेष्ठी का पुत्र सागरचन्द अपने मित्रों के साथ जिनपूजा के लिए गा। वहां ध्यान मद्रा में खडी मंगाकलेखा को देवी की प्रतिमा समझ प्रणाम करने लगा | इसकी इस मूढता पर मित्रगण हंस पडे और बोले-"मित्र! जिसे तू देवी की प्रतिमा समझ रहा है वह तो यहां के धनाढ्य श्रेष्ठी धनसार की पुत्री मृगांकलेखा है" । मृगांकलेखा के अद्भुत सौंदर्य को देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया और मन ही मन में इसके साथ विवाह करने का निश्चय कर वह घर आया । मृगांकलेखा के विरह में उसने खान पान भी छोड़ दिया । माता पिता के अत्यन्त आग्रह से उसने अपने मन की बात उन्हें बता दी । सागरदत्त श्रेष्ठी ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- मै शीघ्र ही इसका उपाय करूंगा । सागरदत्त श्रेष्ठी धनसार के घर पहुंचा और उसने अपने पुत्र के लिए मृगांकलेखा की मंगनी की । धनसार ने स्वीकृती दी और शुभमुहूर्त में मगांकलेखा की सागरचन्द के साथ सगाई कर दी। एक दिन मृगांकलेखा अपनी सहेलियों के साथ बैठी हुई बाते कर रही थी। उस समय सागरचंद धनमित्र के साथ सिद्ध पुत्र के वस्त्रपट के प्रभाव से छिपकर मृगांकलेखा के महल में आया और दोनों एक कोने में खडे हो कर मृगांकलेखा एवं उसकी सखियों की बातें सुनने लगे। सखि चित्रलेखा पत्रलेखा से कहती है - “पत्रलेखे ! इस बात के लिए हमे विधाता को धन्यवाद देना चाहिए जिसने हमारी प्रियसखी मृगांकलेखा को सागरचंद जैसा सुन्दर और बुद्धिमान वर दिया है । इसका तो सचमुच में ही जीवन सार्थक हो गया है ।पत्रलेखा मुंह मटकाती हुई बोली- "अरे ! चित्रलेखे ! कहां हमारी राजहंसी जैसी स्वामीनी मृगांकलेखा और कहा कौवे जैसा सागरचन्द । वास्तव में हमारी प्रिय सखी के लिए तो साक्षात् कामदेव के समान अनंगदेव ही योग्य था किन्तु उसकी आयु बीस वर्ष की ही थी इसीलिए श्रेष्ठी ने इसकी सगाई सारचन्द से कर दी । सेठ ने मृगांकलेखा जैसी रन्न को सागरचंद जैसे बकरे के गले में बांध दिया है । यह श्रेष्ठी ने ठीक नहीं किया ।' यह सब वार्तालाप मृगांकलेखा मौनभाव से सुन रही थी । अपने पति की निंदा का जवाब न देनेवाली मृगांकलेखा की तटस्थता पर सागरचंद को बड़ा क्रोध आया। उसने म्यान से तलवार खिची और मृगांकलेखा को मारने के लिए उसकी ओर लपका । धनमित्र ने उसे रोका और कहा – “अबला पर हाथ उठाना ठीक नहीं है । मृगांकलेखा तो निर्दोष है ।" धनमित्र ने समझा कर सागरचंद को शान्त किया । दोनों घर वापस आये । कुछ दिनों के बाद सागरचन्द ने मित्रों के कहने पर अनिच्छापूर्वक मृगांकलेखाके साथ विवाह कर लिया। मृगांकलेखा को अलग महल में रखा गया। सागरचंद को उसका मुख देखना भी पसन्द नहीं था। पति के वियोग में मृगांकलेखा के २१ वर्ष व्यतीत हो गये । एक दिन राजा अवंतिसेन अपनी विशालसेना के साथ लाड देश पर आक्रमण के लिए निकला । सागरचंद को भी राजा ने साथ में रहने का आदेश दिया। माता पिता की आज्ञा प्राप्त कर एवं पत्नी से मिले बिना ही अपने मित्र धनमित्र के साथ लाट देश की ओर चला । ग्राम नगरों को पार करता हुआ सागरचंद एक घने जंगल में पहुंचा । रात्रि के समय एक सरोवर के किनारे उसने अपना पडाव डाला । चांदनी रात थी । अर्धरात्रि के समय उसने किसी स्त्री के रुदन की आवाज सुनी । वह उठा और उसके पास पहुंचा। उसने पूछा- 'देवी । ११ 2010_04 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम कौन हो ? और क्यों रो रही हो ?' उसने कहा- "मेरा नाम हारावली है और मेरे प्रियतम का नाम हारप्रभ । हम दोनों विमान में बैठ कर जा रहे थे । सरोवर के सौंदर्य को देखकर मैने अपने पति से कहा - "प्रियतम ! हम इसी सरोवर के कदलीगृह में क्रीडा करेंगे । पति ने कहा यहां नहीं, किन्तु नन्दनवन में ही क्रीडा करेंगे । मैने कहा नहीं, यही क्रीडा करेंगे।" बस इतनी सी बात को लेकर मेरा पति मुझ से रुठ गया है और दो घंटे से एकान्त में बैठा है। मैं उसी के वियोग में रो रही हूं।"मै तुम्हारे पति को समझाता हूं 'यह कहकर सागरचंद हारप्रभ के पास पहुंचा और उसे समझाने लगा। हारप्रभ ने कहा-'मित्र ! दो घंट के विरह दुःख से संतप्त मेरी पन्नी को सान्त्वना देने के लिए आप मुझे उपदेश देने के लिए यहां आये हो किन्तु तुम जैसे कठोर हृदयी को मुझे समझाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि तुम पति के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव रखने वाली और सत्य, शील पर आत्मसमर्पण करने वाली मृगांकलेखा जैसी पन्नी को २१ वर्ष से विरहाग्नि की ज्वाला में जला रहे हो । जब मेरी पत्नी दो घंटे के विरह से इतनी दुःखी है तो २१ वर्ष तक तुम्हारे वियोग में जिसने अपना समय व्यतीत किया है उसकी क्या स्थिति होगी उसका भी तुमने विचार किया है ? इन शब्दों का असर सागरचंद पर गहरा पडा उसने उसी क्षण मृगांकलेखा से मिलने का निश्चय किया। उसने हारप्रभ से आकाशगामिनी लेप प्राप्त किया और उसकी सहायता से सागरचंद और धनमित्र मृगांकलेखा के महल में पहुंचे। सागरचंद का मृगांकलेखा से मिलन हुआ। सागरचंद ने मृगांकलेखा से अपने अपराध की क्षमा याचना की । विदाई लेते समय मृगांकलेखा ने अपने पति से कहा - "यदि मैं गर्भवती हुई तो तुम्हारे माता पिता मुझे दुराचारीणी समझ कर घर से निकाल देंगे। " सागरचंद ने कहा - "प्रिये !हमारे गुप्त मिलन के साक्षी मेरा मित्र धनमित्र और तुम्हारी सखी चित्रलेखा है । साथ ही मेरी नाममुद्रावाली अंगूठी तुम्हें देता हूं । इस प्रकार मृगांकलेखा को आश्वस्त कर सागरचन्द्र धनमित्र के साथ आकाश मार्ग से चला और अपने पडाव में पहुंचा । ___इधर मृगांकलेखा गर्भवती हुई । यह बात उसके सास सुसुर तक पहुंची । सास ससुर ने मृगांकलेखा को उसकी किसी भी बात पर विश्वास न कर और उसे व्यभिचारिणी मानकर घर से निकाल दिया। सखी चित्रलेखा के साथ वह अपने पितृगृह पहुंची। वहां भी लोक अपवाद के भय से उसके माता पिताने उसे निकाल दिया । गर्भ का भार वहन करती हुई मृगांकलेखा एक घने वन में पहुंची । बन में भटकते हुए भीलों ने चित्रलेखा का अपहरण किया । मृगांकलेखा सखि के वियोग में आक्रन्द करती हुई असहाय अवस्था में वन में इधर उधर भटकने लगी ।वन में उसे चित्रगुप्त नामका एक सार्थवाह मिला । उसने मृगांकलेखा को आश्रय दिया। चित्रगुप्त सार्थवाह को रास्ते में विजयसेन नाम के राजा ने लूट लिया । मृगांकलेखा अपने शील की रक्षा के लिए वहां से भागी और एक जीर्ण मन्दिर में जा कर छुप गई । रात्रि का समय था । वहाँ सिंह की भयंकर गर्जना सुनकर वह भयभीत हुई और उसने वही पुत्र को जन्म दिया । अशूचि निवारणार्थ उसने नवजात शिशु को एक वस्त्र में लपेट कर मन्दिर के एक कोने में रख दिया और वह समीप के सरोवर में पहुंची । इतने में एक कुत्ता आया और मांस की गंध से पोटली को मुह में पकडकर घसीटता हुआ उसे दूर ले गया। उधर धनवती नामकी सेठानी ने उस समय एक मृत बालक को जम्म दिया था। उसे बाहर फैकने के लिए दासी उसी जगह पहुंची जहा कुत्ता पोटली खींच रहा था । दासी ने कुत्ते को भगा दिया और पोटली में रखे हुए दिव्य नवजात शिशु को देखा । दासी को बहुत प्रसन्नता हुई । उसने मृत बालक को वही छोड़ दिया और नवजात शिशु को उठाकर सेठानी को दे दिया । 2010_04 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठानी बालक को देखकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने उसे अपना पुत्र मानलिया और उसका जन्मोत्सव किया । उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा । सुरेन्द्रदत्त युवा हुआ और उसका ३२ कन्याओं के साथ विवाह कर दिया गया । इधर मृगांकलेखा वस्त्र आदि का प्रक्षालन कर मंदिर पहुंची तो पुत्र को न पाकर उसे बडा आघात लगा । आसपास में पुत्र की उसने बहुत खोज की किन्तु वह नहीं मिला । निराश होकर वह अकेली ही आगे चली । रास्ते में उसे ग्वालों का अधिपति वसंत मिला । विलापकरती हुई मृगांकलेखा को उसने आश्वस्त किया और उसे अपने घर ले आया । वसंत इसके रूप पर मुग्ध हो गया था । रात्रि के समय जब वसन्त मृगगांरूलेखा की छेडखानी करने लगा तो सती के शीलप्रभाव से उसके उदरमें शूल हो गया और उसकी मृत्यु हो गई । मृगांकलेखा वहां से भागी और मकरंद तापस के आश्रम में पहुंची। मकरंद तापस ने उसे गांवके अधिकारी सुन्दर को रक्षण के लिए सोप दिया। गांव के अधिकारी ने देवी को बलि चढाने के लिए दस स्त्रियों और पुरुषों को बंदी बना रखा था। मृगांकलेखा को भी उसने बन्दी खाने में रख दिया । मृगांकलेखा ने बलि के दिन ग्रामाधिकारी सुन्दर को अहिंसा और दया का महत्व समझाया । उपदेश से प्रभावित होकर सुन्दर ने मृखांक लेखा एवं उनके साथियों को मुक्त कर दिया । बन्दीखाने से मुक्त होकर मृगांकलेखा आगे चली । मार्ग में सिंह और राक्षस मिला । किन्तु शील के प्रभाव से दोनो शान्त होकर चले गये । मृगांकलेखा भूख प्यास को सहती हुई और अनेक विपत्तियों का सामना करती हुई सिद्धपुर नामके नगर के बाहर एक उद्यान में वृक्ष के नीचे सो गई। थकान के कारण उसे नींद आ गई । उस समय नगर की प्रसिद्ध वेश्या कामसेना उद्यान में अपने साथियों के साथ घूम रही थी । उस की दृष्टि मृगांकलेखा पर पडी। उसके अद्भुत सौदर्य से मुग्ध होकर वह उसे उठाकर अपने घर ले आई । उसी दिन कामसेना की मृत्यु हो गई । वेश्याओं की मुखियाने बलपूर्वक मृगांकलेखा को कामसेना के स्थान पर त कर दिया। राजा कनकरथ ने मगांकलेखा के रूप की प्रशंसा सनी तो उस ने प्रतिहारी को मगांकलेखा को लाने के लिए भेजा । मृगांकलेखा ने अपने शील की रक्षा के लिए पागल बनने का ढोंग किया । उसने अपने वस्त्र फाडे । शरीर पर कीचड़ मला और पागल की तरह बकवास करती हुई नगरमें भटकने लगी । राजा ने उसकी चिकित्सा करवाई किन्तु वह ठीक नहीं हुई । बल्कि उसका पागलपन बढने ही लगा । शील के प्रभाव से जालामालिनी देवी को दया आई । उसने राजा से कहा-मृगांकलेखा शीलवती नारी है । उसने अपनी शीलकी रक्षा के लिए ही पागलपन का ढोंग किया है । तुम उसे अपनी पुत्री की तरह अपने घर रखना । इसी में तुम्हारी भलाई है । राजा ने वैसा ही किया । मृगांकलेखा सम्मानपूर्वक राजा के घर रहने लगी। ___ इधर धनवती के दो पुत्र हुए । वे दोनों बडे हुए । किन्तु सुरेन्द्रदत्त के प्रभाव के सामने उसे अपने दोनों पुत्र निस्तेज लगने लगे । एक दिन उसने सुरेन्द्रदत्त को मार डालने के लिए दो लड्डूओं में जहर मिला दिया । भाग्यवशात् सुरेन्द्रदत्त तो बच गया किन्तु भूल से वे विष मिश्रित लड्डू धनवती ने अपने पुत्रों को खिला दिये । दोनों पुत्रों की मृत्यु हो गई । एक दिन वसुसार श्रेष्ठी ने कहा- पुत्र ! सुरेन्द्रदत्त ! तुम मेरे पुत्र नहीं हो । तुम तो हमें रास्ते में पडे हुए मिले थे। यह नाममुद्रा लो और अपने माता पिता की अन्यत्र खोज करो। वसुसार श्रेष्ठी की बात सुनकर सुरेन्द्रदत्त 2010_04 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ ज नगर से निकला और ग्रामनगरों में माता-पिता की खोज करता हुआ वह ताम्रलिप्ति नगरी पहुंचा। वहां उसने भगवान ऋषभदेव के मंदिर में चक्रेश्वरी देवी की आराधना की । देवी ने प्रसन्न होकर कहा - वत्स ! तुमारे माता पिता तुम्हें सिद्धार्थपुर में मिलेंगे । देवी के कहने से वह सिद्धार्थपुर की ओर रवाना हुआ। इधर सागरचन्द्र घर पहुंचा । वहां जब उसे पता चला कि मृगांकलेखा पर झूठा दोषारोपण कर उसे घर से निकाल दिया गया है तो वह मृगांकलेखा की खोज में निकल पड़ा । अनेक गाम,नगर,वन,उपवनों में घूमता कलेखा नहीं मिली तो वह अपनी प्रियतमा के वियोग को नहीं सह सका । उसने अग्नि में प्रवेश कर मरने का निश्चय किया । एक विद्याधरने उसे मरने से रोकते हुए कहा- “सागरचन्द्र ! तुम मत मरो । तुम्हारा पुत्र और पनी जीवित है और वे तुम्हें सिद्धार्थपुर में मिलेंगे । यह बात सुनकर सागरचन्द्र सिद्धार्थपुर की ओर चला । रास्ते में चित्रलेखा का मिलन हुआ । वहां से वे दोनों चलते हुए सिद्धार्थपुर पहुंचे । यहां तीनों का मिलन हआ। तीनों मिलकर अपने नगर लोटे। नगर निवासियोंने तथा सागरचन्द के माता पिता ने पत्र के आगमन का बडा उत्सव किया और दीन अनाथों को दान देकर अपने आपको कृतार्थ किया । सारा कुटुम्ब प्रसन्नता पूर्वक रहने लगा। एक दिन यगन्धर नामके केवली नगर के बाहर उद्यानमें ठहरे । सागरचन्द्र परिवार सहित उनके दर्शन के लिये गया । आचार्य ने उपदेश दिया । उपदेश के अन्त में मृगांकलेखा ने आचार्य से पूछा - "भगवन् ! मुझे जो पति का वियोग सहन करना पड़ा और अनेक कष्ट सहन किये वह किस कर्म का प्रभाव है ?'' आचार्यश्री ने कहा – “भद्रे ! यह सब पूर्वकृत कर्म का ही प्रभाव है । तुमने पूर्व भवमें जो पाप कर्म किये थे। उन्हें मै सुनाता हूँ । तुम ध्यान पूर्वक सुनो । सिंहपुरनगर में एक राजकुमार का मित्र कंदर्प नामका वेदविज्ञ अभिमानी ब्राह्मण रहता था। उसी नगर में उत्कटतप करने वाला सत्यकीर्ती नामका तापस भी रहता था । कंदर्प सत्यकीर्ती के उत्कर्ष को सहन नहीं कर सका। उसने सत्यकीर्ती को बदनाम करने का विचार किया। उसी नगरी में पदमदेव सेठ की पत्री कमला ललितांग श्रेष्ठी के पुत्र पर आसक्त थी । अवसर देख कर दोनों नगर से भाग गये। जिस दिन ये दोनों नगर से भागे उसी दिन सत्यकीर्ति तापस भी निजी कार्यवश नगर छोड कर अन्यत्र चला गया था । कंदर्प को सत्यकीर्ती को बदनाम करने का अच्छा अवसर मिला । उसने नगर में यह बात फैला दी कि तापस सत्यकीर्ति कमला को ले कर भाग गया है । कुछ दिन के बाद सत्यकीर्ति जब वापस लौटा तो कंदर्प घबडा गया । उसने अपना भंडा फूट जाने के भय से सत्यकीर्ति को नगर प्रवेश के पूर्व ही खूब पीटा । इस पाप के कारण कंदर्प के जीभ में फोडा हुआ । उस फोडे की असह्य वेदना से वह मरा और कुतिया के रूप में जन्मा । वहां भी उस कुतिया की जीभ में फोडा हुआ और वह कुतिया मर कर एक वेश्या के घर में पुत्री के रूप में जन्मी । पुत्री युवा हुई । वह चन्दन श्रेष्ठी के सम्पर्क में आई । चन्दनश्रेष्ठी के सत्संग से वह धर्मपरायणा हुई । एक दिन वह श्रेष्ठी के साथ क्रीडा करने के लिए सरोवर के तीर पर पहुंची । वहाँ सरोवर में हंस का एक जोडा जलक्रीडा कर रहा था । वेश्या ने हंस को पकड़ा और उसे रंग से रंग दिया । रंग से रंगे हुए हंस को हंसी पहचान नहीं सकी । वह उसके वियोग में तडप ने लगी । वेश्या को दया आई उसने हंस को पानी से धो डाला । हंस पूर्ववत् हो गया । हंसी ने हंस को पहचान लिया और दोनों का सुखद मिलन हो गया । हंसी हंस के वियोगमें २१ घंटे तक तडपती रही । 2010_04 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ समय के बाद धर्माचरण करती हुई वेश्या मरी और सौधर्म देव लोक में देवी के रूप में जन्मी । वहां से मरकर देवी के जीव ने मृगांकलेखा के रूप में जन्म लिया । अन्त में मुनि ने कहा-मृगांकलेखे ! वेश्या के भव में तू ने हंस हंसी का २१ घंटे तक का वियोग करवाया था उसी के फल स्वरूप तुझे अपने पतिका २१ वर्ष तक पतिका वियोग सहना पड़ा । तू ने कंदर्प के भवमें सत्यकीर्ति तापस पर झूठा दोषारोपन किया था जिसके कारण इस भवमें भी तेरे पर भूठा कलंक आया। आचार्यश्री से अपना पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन मृगांकलेखा को वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने पति के साथ दीक्षा ली और केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई। रोहिणी (पृ. ७४-९९) शील का महात्म्य बताकर आचार्यश्री तप का महत्व समझाते हुए उस पर रोहिनी की कथा कहते है मथुरा नाम की एक नगरी थी । वहा नरसिंह नामका एक राजा राज्य करता था। उसी नगर में धनद नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम था रोहिणी । वह अत्यन्त कलह प्रिय और चामुण्डा जैसी क्रूर प्रकृति की थी। श्रेष्ठी धनद की अन्य भी पलियां थी। रोहिणी सदैव अपने पति और सौतन के साथ लडती रहती थी । एक बार श्रेष्ठी ने रोहिणी के कलह से तंग आकर निद्रित अवस्था में ही उसे एक काष्ठ मंजूषा में बंदकर नदी में बहा दिया । नदी के प्रवाह में बहती हुई मंजूषा विजयस्थल गांव के किनारे पहुंची । सिद्धार्थ नाम के एक ग्रामाधिपति के हाथ में वह मंजूषा लगी । ग्रामाधिपति ने उसे खोला तो उसमें रोहिणी मिली । वह उसे घर ले गया । रोहिणी ने ग्रामाधिपति को कहा - "मुझे अपने गांव छोड दो। मै वहां जा कर अपने पति एवं सौतन से खूब झगड़ा करूंगी । ग्रामपति ने उसे समझाया और कहा - तुम अब शान्ति से मेरे घर पर ही रहो । एक बार गांव के उद्यान में भुवनभूषण नामके केवली पधारे । ग्रामपति के साथ रोहिणी भी केवली के दर्शनार्थ गई । केवली ने धर्मोपदेश दिया और तप का माहत्म्य समझाया । केवली के उपदेश का रोहिणी पर गहरा प्रभाव पडा । उसने मुनि से कहा – “आपने जो तप के प्रकार और उसकी विधि बताई है मैं उसी के अनुसार तपश्चर्या कर अपने जीवन को निर्मल करना चाहती हूँ।" अब वह केवली द्वारा बताये गये विविध प्रकार के तप करने लगी । कठोर तप के कारण उसका देह काष्ठ सा शुष्क हो गया । मणिचूड नामक देव अपनी देवी की मृत्यु से बड़ा संतप्त था । उसकी दृष्टि तप करती हुई रोहिणी पर पड़ी । वह रोहिणी के पास आया और अपना दिव्य रूप बताकर बोला- "तुम अगर अपनी तपस्या का निदान करो तो मृत्यु के बाद मेरी देवी बन सकती हो। रोहिनी ने कहा – “देव ! मै अल्पसुख के लिए अपनी तपस्या को निदान से अल्पफलवाली नहीं कर सकती । मैं संसार के सुख के लिए तप नहीं कर रही हूं किन्तु कर्म के क्षय के लिये कर रही हूं।" देव चला गया। रोहिणी ने निदान रहित कठोर तप कर के समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। मरकर अच्युतकल्प में महर्द्धिक देव बनी । रोहिनी के कठोर तप से प्रभावित हो सिद्धार्थ ग्रामाधिप ने भी कठोर तप किया और अन्त में समाधि पूर्वक मरकर अच्यत कल्प में देव बना । श्री विजय की चमरचंचा राजधानी में चम्पा नामकी नगरी थी । वहां पुरुषचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सर्वांगसुन्दरी था। सिद्धार्थदेव का जीव अच्युत कल्प से चवकर सर्वांगसुंदरी के उदर में आया । रानी ने शुभ स्वप्र देखा । गर्भकाल के पूर्ण होने पर उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । उसका 2010_04 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम समरसिंह रखा । समरसिंह युवा हुआ । वह स्वभाव से बड़ा उदार था । वह दीन, दुखियों, अनाथों में लाखों की सम्पत्ति बांट देता था। राजा को कुमार की यह उदार और उडाउ वृत्ति अच्छी नहीं लगी । उसने कुमार को देश निष्कासित कर दिया। कुमार अपने गांव से निकल कर अनेक ग्राम, नगरों में भटकता हुआ एक पर्वत की गुफा में पहुंचा । वहां कुछ किमियागिर स्वर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे थे किन्तु साहसी उत्तर साधक के बिना वह अपने कार्य में सफल नहीं हो रहे थे । कुमारने उत्तरसाधक बनकर उनकी सहायता की । धातुवादी स्वर्ण बनाने में सफल हुए । कुमार की वीरता से प्रसन्न हो कर किमियागिरों ने सारा स्वर्ण कुमार को दे दिया । कुमार ने भी उन में स्वर्ण बाट दिया । कुमार वहां से निकला और चनक नाम के गांव में तुंदिल नामक यक्ष के मंदिर में पहुंचा । यक्ष मन्दिर के आंगन में एक सूखा आम्रवृक्ष था । कुमार के प्रभाव से वह वृक्ष नवपल्लवित हो गया । यह चमत्कार देख यक्ष कुमार पर बहुत प्रसन्न हुआ। वहां प्रतिदिन मध्य रात्रि के समय योगिनियां किसी व्यक्ति को बाहर से अपहरण कर यक्षमंदिर में लाती थी और उत्सव पूर्वक उसका बलि चढाती थी । उस दिन भी योगीनियों ने लग्रमण्डप में विवाह के लिए बैठे हुए एक व्यक्ति को उठा लायी और उसकी हत्या करने की तैयारी करने लगी । मृत्यु के भय से पुरुष करुण क्रंदन कर रहा था । समरसिंह को उस पुरुष पर दया आई । उसने योगिनियों को ललकारा और उनसे खग युद्ध कर उन्हें पराजित कर दिया । योगिनियां भाग गई । कुमार के कहने से यक्ष ने उस तरुण को उसके स्थान पर पहुंचा दिया । कुमार के पराक्रम से प्रसन्न तुंदिल यक्ष उसका सदैव के लिए सेवक बन गया। कुछ दिनों के बाद वहां से निकल कर कुमार घूमता हुआ श्रीमन्दिर नाम के नगर में पहुंचा । वहाँ महाबल नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम जयंती था । अच्युतकल्प से चवकर रोहिणी का जीव जयन्ती के उदर में आया । जयन्ती ने एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया । देवताओं ने रत्नवृष्टि की । राजा ने पुत्री का जन्मोत्सव किया और कन्या का नाम रत्नमंजरी रखा । रत्नमंजरी ने सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त की। युवावस्था में उसका सौंदर्य इतना आकर्षक था कि नगर के युवा वर्ग उसको पाने के लिए सदैव प्रयलशील रहते थे । एक बार जब समरसिंह नगर में घूम रहा था तब नगर चर्या करती हुई राजकुमारी रत्नमंजरि की उस पर दृष्टि पडी । पूर्व जन्म के स्नेहवश वह उस पर मुग्ध हो गई । रत्नमंजरी हाथी पर बैठी हुई थी। सहसा हाथी उन्मत्तदशा में पागल हो गया । कुमार न बडे साहस के साथ हाथी को वश में कर लिया । अपनी पुत्री को मृत्यु के मुख से बचाने वालो कुमार समरसिंह पर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। एक बार एक विद्याधर ने राजकुमारी रत्नमंजरी का अपहरण किया। समरसिंहने अपहरण कर्ता विद्याधर के साथ यद्ध कर उसे पराजित कर दिया और राजकमारी को उसके बन्धन से मुक्त किया । राजा ने रत्नमंजरी के साथ कुमार का विवाह बडे उत्सव के साथ करवाया । दोनों सुख पूर्वक श्रीमन्दिर नगर में रहने लगे। ___एक बार देव विमान से उतरकर एक देव समरसिंह के पास आया और बोला-कुमार । शतद्वार नगर का असंख्यबाह नामक राजा अपुत्र ही मर गया । उसका राज्य पाने के लिए सगोत्रीय सामन्तगण आपस में युद्ध कर रहे है । उनके आपसी कलह के कारण सारा राज्य अस्त व्यस्त हो गया । तब मंत्रीयों ने पुरवासिणी देवी की आराधना की । प्रसन्न हो कर देवी ने कहा-इस राज्य के योग्य समरसिंह नामका एक कुमार है वह श्रीमन्दिर नगर में रहता है । देवी के कहने से मै अमृताम्बर केशरीयान में बैठकर आपके पास आया हूं | आप मेरे साथ 2010_04 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चले और राज्य ग्रहण करे । कुमार ने स्वीकृति दे दी । अमृताम्बर देव के साथ केशरीयान में बैठकर कुमार वा। मंत्रीयोंने उसका राज्याभिषेक किया। कछ दिन वहाँ रह कर राजा समरसिंह अपनी सेना के साथ अपने पिता के पास पहुंचा । उन से युद्धकर अपना परिचय दिया । पिता पुत्र का मिलन हुआ । पिता पुत्र के पराक्रम से बडा प्रसन्न हुआ। कुछ समय तक वहाँ रह कर समरसिंह शतद्वार नगर लौट आया और न्याय नीतिपूर्वक राज्य करने लगा। एक बार निर्वाणधर नामके केवली शतद्वार नगर के मधुकर नामके उद्यान में ठहरे । राजा समरसिंह परिवार के साथ उनकी बन्दना करने के लिए गया । धर्मोपदेश के बाद राजा ने मुनि से पूछा-भगवन् । व्यक्ति चक्रवर्ती पद देव और तीर्थकर पद कैसे प्राप्त कर सकता है ? केवली ने कहा-तप से । उसके पश्चात् केवली ने समरसिंह और रत्नमंजरी का पूर्व भव बताते हुए कहा-समरसिंह तुम पूर्वजन्म में सिद्धार्थ नामके ग्रामपति थे और रत्नमंजरी रोहिणी थी। दोनों ने कठोर तप किया। जिसके फल स्वरूप तुम्हें यह रिद्धि और सम्पदा मिली है । अपना पूर्व जन्म का वृत्तांत सुन दोनों को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। राजा ने अपने पुत्र विजय को राज्य गद्दी पर स्थापित किया और अपनी रानी रत्नमंजरि के साथ आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । कठोर तप कर उसने निर्वाण प्राप्त किया । तप का महात्म्य समझाने के बाद आचार्यश्रीने भावना धर्म का निरूपण किया और इस पर सुरसुन्दर कुमार की कथा कही । राजा सुरसुन्दर (पृ. १००-१३५) जम्बूद्वीप के लवण समुद्र के किनारे साल नामका एक गहन वन था । उस वन में एक विशाल शाखा प्रशाखा युक्त वट वृक्ष था । उस वृक्ष पर एक सारस युगल रहता था। सारसी ने गर्भ धारण किया । एक दिन सारसी ने सारस से कहा-'प्राणनाथ । यह वासों का जंगल है । कभी भी आग लग सकती है अतः हमें अन्यत्र निवास करना चाहिए। सारसी की बात पर सारस ने ध्यान नहीं दिया । अवधि पूर्ण होने पर सारसी ने दो अण्डे दिये । सारसी रोज अपने पंखों से अण्डे सेंती थी । जब अण्ड़े परिपक्व हुए तब उस में से दो बच्चों ने जन्म लिया । सारस-सारसी बड़े प्यार से उनका लालन पालन करने लगे। एक बार बासों के संघर्षण से दावानल भड़क उठा। आग की तीव्र लपटे वट वृक्ष के पास पहुंच गई । सारस ने अग्नि के ताप से व्याकुल होकर सारसी से कहा-मै बच्चों के लिए पानी लाता हूँ। तुम इन बच्चों की दावानल से रक्षा करना । ऐसा कहकर सारस उड़ा और इधर उधर पानी की खोज करने लगा। इधर दावानल की ज्वाला के ताप से सारसी अर्धमृतक अवस्था में तडप रही थीं । एक विद्याधर आकाश मार्ग से निकला । सारसी की हालत पर उसे दया आई । उसने विद्याबल से वर्षा वर्षा कर दावानल को शान्त किया । अर्धमृतक सारसी को उसने नमस्कार मंत्र सुनाया, पश्चात् सारस भी वहां पहुंचा । दोनों ने नमस्कार मंत्र श्रवण कर देह छोडा । नमस्कार मंत्र के प्रभाव से सारस मरकर श्रीतिलक नाम के नगर के राजा तिलक सुन्दर की रानी तिलकावली के गर्भ से सुरसुन्दर नामक पुत्र रूप में जन्मलिया और सारसी ने चन्द्रचूड के राजा चन्द्रपुर की रानी चन्द्रावली की कुक्षी से लीलाकुमारी नाम की सुन्दर राजकुमारी के रूप में जन्म लिया । सुरसन्दर राजकुमार युवा हुआ । १७ 2010_04 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा तिलकसुन्दर ने उसे राज्य गद्दी पर स्थापित किया और स्वयंने दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण किया । राजा सुरसुन्दर न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करने लगा । राजा का मतिसार नामका एक अनन्य मित्र था । एक दिन राजा ने स्वप्न में चन्द्रपुरीनगरी के एक सुन्दर सरोवर के बीच एक स्थंभ प्रासाद में एक सुन्दर कन्या के साथ गांधर्व विवाह किया । स्वप्न का वृतान्त अपने मित्र मतिसार से कहा । मतिसागर मित्र ने चन्द्रपुरी नगरी की बहुत तलाश करवाई किन्तु नगर का पता नहीं लगा । उसने दान शाला खोली । दान ग्रहण करने के लिए हजारों पथिक वहां आने लगे । एक वृद्ध पथिक भी वहां आया । वह चन्द्रपुरी नगरी का निवासी था । मतिसार ने वृद्ध पथिक को बुलाकर पूछा- “तुम कहा से आये हो और तुमने अपने जीवन में कोई आश्चर्य जनक घटना देखी या सुनी है ?" पथिक ने कहा- "मैं चन्द्रपुरी का रहने वाला हूँ। वहां एक विशाल सरोवर के बीच एक स्थंभ प्रासाद है । वहां पुरुष से द्वेष करनेवाली लीलाकुमारी नामकी राजकुमारी रहती है ।'पथिक के मुख से चन्द्रपुरी नगरी की राजकुमारी की घटना सुन मतिसागर राजा के पास गया और उसने पथिक के मुख से राजकुमारी का जो वृत्तान्त सुना वह सब कह सुनाया । राजा बहुत प्रसन्न हुआ । दूसरे दिन राजा और मतिसार पथिक के साथ चन्द्रपुर की ओर चले । मार्ग में एक विद्याधर ने राजा को रूपपरावर्तिनी गुटिका दी। लम्बी यात्रा के पश्चात् वे चन्द्रपुरीनगरी के समीप पहुंच गये । नगर के बाहर तापसियों का आश्रम था। दोनों तापसियों के आश्रम में ठहर गये । धनादि की साहयता से उन्होंने मुख्या तापसी को अपने वश में कर लिया । राजा ने एक बार लीलाकुमारी से मिलने की इच्छा व्यक्त की । तापसी ने कहा-लीलाकुमारी नरद्वेषिणी है । स्त्रियों की प्रशंसा करना और पुरुषों की निंदा करना उसका स्वभाव है । राजा ने पूछा-पुरुषों पर द्वेष क्यों करती है ? तापसी ने कहा उसे पूर्व भव का स्मरण हुआ है । पूर्व भव में मरते समय सारसी की यह विचार धारा थी कि पुरुष स्वार्थी होता है । सारस पानी लेने के बहाने मुझे बच्चों सहित छोड स्वयं प्राण बचाने के लिए भाग गया । इतना प्रेम रखने पर भी प्रेम की कसौटी आने पर वह अपने ही प्राणों की रक्षा में रहा । अपनी प्राण प्रिया को भी छोड़ दिया । धिक्कार है इन पुरुषों की स्वार्थ वृत्ति पर । इन्हीं पूर्व संस्कारों के कारण वह पुरुषों पर द्वेष रखती है । अतः उसे यदि मिलना हैं तो स्त्री वेश में ही मिल सकते हो । राजा ने गुटिका के प्रभाव से स्त्री का रूप धारण किया । लीलावती से मिला । अपनी संगीत और चित्रकला से उसे प्रसन्न किया । राजा ने एक चित्रपट बनाया । उसमें दावाग्नि के समय का सारा दृश्य चित्रित किया । सारस जीवन में पानी लेने जाना, पानी ले के वापस लौटना और अपनी प्राणेश्वरी सारसी के वियोग में सिर पटक पटक कर प्राण देना आदि घटनाएँ उसने चित्रित की । वह चित्रपट उसने लीलाकुमारी को बताया । अपने जीवन चरित्र पट को देखा तो उसे जातिस्मरण हो गया। वह उसी क्षण मूर्छित हुई और वह अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। राजा ने अपना परिचय दिया । पूर्व जन्म का पति पाकर लीलाकुमारी बडी प्रसन्न हुई । पिता ने लीलाकुमारी का विवाह सुरसुन्दर के साथ कर दिया । सरसुन्दर राजा लीलाकुमारी के साथ अपने नगर लौट आया । लीलाकुमारी पर राजा का प्रगाढ स्नेह था वह एक क्षण भी उसे अपने से अलग नहीं रखता था । एक बार शूल वेदना से लीलाकुमारी की मृत्यु हो गई । वह शव के पास बैठकर सतत विलाप करता था। शव का अग्नि संस्कार भी नहीं करने देता था। एक दिन सडे हुए रानी के शव की बिभत्सता देख उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। अशरण, अनित्य,भव,एकत्व,असुचि,आश्रव,संवर १८ 2010_04 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि भावनाओं को भाता हुआ भावों की उच्च श्रेणी में उसने केवलज्ञान प्राप्त किया। लीलाकुमारी मरकर सौधर्मकल्प में देव बनी । भविष्य में नन्दन के भव में लीलाकुमारी सिद्धि पद को प्राप्त करेगी। देशना समाप्ति के बाद अपराजित राजा ने पूछा- "भगवन् ! आपने इस नवयौवनकाल में आपारसुख वैभव का त्याग कर दीक्षा क्यों ली ?" आचार्य ने कहा-राजन् ! मैने अपाररिद्धि को छोड दीक्षा क्यों ग्रहण की उसका कारण बताता हूँ । आचार्यश्रीने अन्तरंग कथा कही (पृ. १३६ -१६२) और कहा-संसार की ऐसी विचित्रता से प्रेरित होकर ही मैने प्रवज्या ग्रहण की। आचार्य के उपदेश का राजा पर बड़ा प्रभाव पड़ा । उसने सम्यक्त्व पूर्वक ग्रहस्थ धर्म स्वीकार किया । कालान्तर में पिहिताश्रव नाम के आचार्य का आगमन हुआ। अपराजित राजा ने आचार्य का उपदेश सुना । उपदेश से प्रभावित हो उसने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की और कठोरतप किया । अर्हत भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराधना कर उसने तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन. किया । अन्तमें पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते हुए वह समाधि पूर्वक मरा और उवरिम नाम के ग्रैवेयक में देव रूप से उत्पन्न हुआ । पद्मप्रभ का जन्म दीक्षा और निर्वाण- (पृ. १६६ से-) ___ जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में वत्सदेश में कौशाम्बी नामकी नगरी थी । वह अत्यन्त सुन्दर थी । वहाँ धर नामका एक प्रतापी राजा राज्य करता था। उसकी सुसीमा नाम की सुन्दर रानी थी । उपरीम उपरीम ग्रैवेयक से अपराजित देव माघमास की कृष्णा छट्ठी को चन्द्र जब चित्रा नक्षत्र में अवस्थित था तब वहाँ से च्युत होकर देवी सुसीमा के उदर में प्रवेश किया। उस समय रानी सुसीमा ने तीर्थंकर जन्म सूचक हस्ती,सिंह,वृषभ आदि चौदह महास्वप्न देखे । नौ मास पूर्ण होने पर कार्तिक कृष्णा को जब चन्द्र चित्रा नक्षत्र में था तब उर्द्ध रात्री के समय रक्तपद्म लांछन से युक्त एक पुत्र को जन्म दिया । भोगंकरा आदि छप्पन दिककुमारियां आई और प्रभु-माता एवं प्रभु का जन्मकृत्य सम्पन्न किया । सौधर्मेन्द्र पालक विमान से आये और भगवान को मेरु पर्वत पर ले गये । वहां प्रभु को गोद में ले कर वे अतिपाण्डुकवला रक्षित सिंहासन पर बैठ गये। अच्युतेन्द्रादि त्रेसठ इन्द्रों ने तीर्थस्थलों से लाए जल से प्रभु को विधिपूर्वक नान करवाया। उसके बाद शक्र ने भगवान को ईशानेद्र की गोद मे रख कर उन्हें स्नान करवाया। अंगराग लगाया और फिर उन्हें वन्दना कर उनकी स्तुति की । स्तुति के पश्चात् शक्र भगवान को ले कर उनकी माता के निकट पहुंचा और भगवान को माता के पार्श्व में सुला कर प्रणाम किया । तीर्थंकर माता की अवस्वापिनी निदा दूर कर तीर्थकर बिम्ब को वहां से हटाकर शक्र स्व निवास को लौट गया और अन्यान्य इन्द्र मेरु पर्वत से ही अपने अपने स्थान को चले गये। प्रातः राजा धर मे पुत्र का जन्मोत्सव किया । बारह दिन पूर्ण होने पर राजा ने अपने मित्र-मण्डल से कहा 'जब यह बालक मां के उदर में था तब इसकी माता को ऐसा दोहद हुआ था कि मै कमल की शय्या पर सोऊं । अतः बालक का नाम पद्म रखा जाय । शक्र द्वारा अंगुष्ठ में भरा अमृत-पान कर प्रभु बढने लगे । अर्हत् स्तन पान नहीं करते इस लिए धात्रियों का केवल अन्य कार्य ही अवशेष था। वासव द्वारा नियुक्त पांच धात्रियों द्वारा प्रभु लालित होने लगे । वे छाया की तरह उनका अनुसरण करती रहती थी। भगवान के देव,असुर और राजन्यगण 2010_04 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सखा बन गये थे उनके साथ विविध क्रीडा करते हुए वे अपना शैशवकाल व्यतीत कर युवावस्था को प्राप्त हुए। दो सौ पचास धनुष दीर्घ प्रभु यद्यपि वैरागी थे फिर भी माता पिता की इच्छा से उन्होंने विवाह किया । जन्म से साडे सात लाख वर्ष अतिक्रान्त होने पर उन्होंने पिता के अनुरोध से राज्यभार ग्रहण किया। मंगल निधान पद्मप्रभु ने अक्षुण्ण प्रताप से साडे ईक्कीस लाख पूर्व सोलह पूर्वांग वर्ष तक पृथ्वी पर शासन किया । संसार से विरक्त हो कर जब उन्होंने दीक्षा लेने का विचार किया तो सारस्वत आदि नौ लौकान्तिक देव उनके पास आये और दीक्षा लेने के लिए प्रार्थना की । भगवान ने एक वर्ष तक शक्र के आदेश से कुबेर द्वारा प्रेरित और जृम्भक देवों द्वारा लाए धन को दान में दिया । वर्ष के अन्त में इन्द्र आये और प्रभु को दीक्षा पूर्व का अभिषेक नान करवाया। देवों ने उनके देह पर दिव्य सुगन्धित द्रव्य का विलेपन कर उन्हें वस्त्र एव रत्नालंकारों से विभूषित किया। शुभ देव दृष्य वस्त्र धारण कर वे शक्र के कन्धेपर हाथ रखकर और छत्र चामर धारी अन्यान्य इन्दों द्वारा परिवृत हो कर रत्नजडित निवृत्ति कर नाम की शिबिका में चढ़े। फिर देव और मनुष्यों से घिरे सहस्त्राम्रवन उद्यान में पहुंचे। वहां शिबिका से उतर कर समस्त अलंकारों को शरीर से उतार दिये और स्कन्ध पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त देव दूष्य वस्त्र रखकर कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन चित्रा नक्षत्र में उन्होंने पंचमुष्टिक लोच किया । उन केशों को इन्द्र ने क्षीर समुद्र में फेक दिया । फिर कोलाहल शान्त कर इन्द्र सेवक की तरह एक तरफ खड़े हो गये । दो दिनों के उपवासी प्रभुने एक हजार राजाओं सहित देव असुर और मनुष्यों के सन्मुख सब प्रकार के सावायोग का त्याग कर प्रभ दीक्षित हए । भगवान को उस समय अतिदिव्य मनःपर्यवज्ञ देवादि सभी उन्हें प्रणाम कर अपने अपने स्थान पर लौट गए। ब्रह्मस्थल नगर में सोमदेव के घर खीरान ग्रहण कर भगवान ने पारणा किया । देवोंने रत्न वर्षादि पंच दिव्य प्रकट किए । विभिन्न अभिग्रहों को धारण करते हुए एवं परिषह को सहते हुए भगवान ने छ मास तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण किया । ___छ महिने के पश्चात् त्रिलोकनाथ अप्रमादी भगवान पुनः दीक्षा स्थल सहस्त्राम्रवन में लौट आये । वहां न्यग्रोध वक्ष के नीचे प्रतिमा धारण कर ली । शक्लध्यान की परमोच्च स्थिति पर पहंचे हए भगवान ने चा कर्मों को नष्ट कर दिया। चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन षष्ठ तप की अवस्था मे चित्रा नक्षत्र के योग में भगवान को लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया । इन्द्रादि देवों ने भगवान का केवल ज्ञान उत्सव किया । उसके पश्चात् देव और असुरेन्दो ने चार द्वार विशिष्ट रल,स्वर्ण और रौप्य के चार प्राकार युक्त समवसरण की रचना की। भगवान ने पूर्वद्वार से प्रविष्ट हो कर तीन सहस्त्र धनुष्य उँचे चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा दे कर "नमो तित्थस्स, कह कर तीर्थ को नमस्कार किया। उसके बाद पूर्वाभिमुख हो कर सिंहासन पर बैठ गए । देवों ने उनकी अन्य तीन ओर प्रतिकृति बनाई । उस समय शक्र ने भगवान को प्रणाम कर स्तुति की । शक्र के द्वारा स्तुति पूर्ण होनेपर भगवान ने उपस्थित परिषद के सामने देशना प्रारंभ की । भगवान ने कहा- "मनुष्य भव और दुर्लभ सामग्री के प्राप्त होने पर भी जो व्यक्ति प्रमाद करता है वह अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । मद्य,विषय,कषाय,निद्रा और विकथा ये पांच प्रमाद है । इनमें का एक भी प्रमाद सेवन करता है तो उस का 2010_04 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम बडा भयानक होता है तो जो पांचों प्रमाद का सेवन करते है उनका तो कहना ही क्या ? संसार को अन्त - करने का अमोघ उपाय चारित्र है और चारित्र शुद्धि से ही आत्मा की शुद्धि होती है । शुद्ध आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करता है। ___चारित्र दो प्रकार का है । एक गृहस्थ चारित्र और दूसरा अणगार चारित्र । अणगार चारित्र का पालन सब के लिए अशक्य है किन्तु गृहस्थ चारित्र का पालन सभी गृहस्थ यथाशक्ति कर सकते हैं । गृहस्थ चारित्र में अहिंसा,सत्य,अचौर्य,परदारा विवर्जन एवं अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत,दिग्परिमाण,भोगोपभोग विवर्जन, अनर्थदण्डपरित्याग ये तीन गुणव्रत एवं सामायिक,देशावगासिकव्रत पौषधव्रत एवं अतिथिसंविभागवत ये चार शिक्षा व्रत ये बारह व्रत है । भगवान इन व्रतों का विशद विवेचन कर प्रत्येक व्रत पर एक एक कथा कहते है । प्रथम अहिंसा व्रत पर हरिवाहण राजा की द्वितीय सत्यव्रत पर ललितांग कुमार की परविभव परिहार पर वजूबाहु, की परदारविरमण व्रत पर अणन्तकीर्तिकुमारकी, परिग्रह परिमाणव्रतपर रत्नसार कुमार की, दिसि परिमाण व्रत पर शंखकुमार (की) भोगोपभोग परिमाणवत पर महापद्मकुमार की अनर्थदण्ड पर वाचालक की सामायिक व्रत पर चंद्रलेखा की देशावगासिक व्रत पर वसन्तकुमार की पौषधव्रत पर कुरुचन्द्रकुमार की अतिथिसंविभागवत पर धनसेन की कथा कही। भगवान की इस देशना को सुनकर बहुतों ने अणगार धर्म स्वीकार किया। कईयों ने सम्यक्त्व पूर्वक श्रावक धर्म ग्रहण किये । दिन का प्रथम याम बीत जाने पर प्रभु ने देशना समाप्त की और उन्ही पादपीठ पर बैठ कर धर नामक गणधर ने देशना आरंभ की । दिन का तृतीय याम बीत जाने पर उन्होंने भी अपनी देशना समाप्त की । श्रोतागण प्रभु को वन्दना-नमस्कार कर अपने अपने निवास को लौट गये । भगवान भव्य जीवों को ज्ञानदान करते हुए ग्राम,पुर,नगरादि में विहार करने लगे। उनके संघ में ३३०००० साधु, ४ लाख २० हजार साध्वियाँ २२१४ पूर्वधर, १०,००० अवधिज्ञानी, १०३०० मनपर्यवज्ञानी, १२००० केवलज्ञानी,१६१०८ वैक्रीयलब्धिधारी, ९६०० वादी, २७६००० श्रावक एवं ५०५००० श्राविकाएं थी । केवलज्ञान प्राप्त करने के पाश्चात् प्रभु छमास सोलह पूर्वांग कम एक लाख वर्ष तक सयोगी केवली अवस्था में विचरण करते रहे । अपना निर्वाण समय निकट जान कर भगवान एक हजार साधुओं के साथ सम्मेत शिखर पर गए और अनशन प्रारंभ किया। एक मास पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को जब चन्द्र चित्रा नक्षमें था तब ३०८ साधुओं सहित प्रभु पद्मप्रभने निर्वाण प्राप्त किया। भगवान ने निर्माण के समय जिन पूजा के महात्म्य को बताने वाली सिंहराज पुत्र की कथा कहीं। प्रभु के निर्वाण के समय कभी भी सुख का मुख नहीं देखनेवाले नारकी जीवों ने भी क्षणमात्र के लिए सुखानुभूति की । फिर शोकग्रस्त इन्द्र ने दिव्य जल से भगवान को स्नान करवाया और उनकी देह पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया। इसके पश्चात् उन्हें देवदूष्य वस्त्र पहराया और दिव्य रत्नमय अलंकारो से विभूषित किया । देवताओं ने अन्यमुनियों को स्नान करवा कर अंगराग कर वस्त्रालंकारादि पहनाए । फिर इन्द्र प्रभु की देह को शिबिका में रखकर गोशीर्षचंदन की काष्ट की चिता पर ले गए । देवों ने अन्यमुनियों के देह को अन्य शिबिका में रखकर गोशीर्षचन्दन काष्ठ की अन्य चिता पर ले गये । अग्निकुमार देवों ने चिताओं 2010_04 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अग्नि प्रज्वलित की । वायुकुमार देवों ने वायु से अग्नि को प्रज्वलित किया । इन्द्र की आज्ञा से देवों ने कर्पूर कस्तुरी एवं घी के घडे चिता में डाले । अस्थियों को छोडकर जब प्रभु की देह के समस्त धातु जल गए तब मेघकुमार देवों ने जवृष्टि कर चिता को शान्त किया। भगवान की ऊपरी बायी और दाहिनी ओर की दाढे शक व ईशानेन्द्र ने नीचे के दोनों ओर की दाढे चमर और बलि इन्द्र ने ग्रहण की । अन्य इन्द्रोंने प्रभु के अन्य दांत ग्रहण किए और भक्तिपूर्वक देवों ने अस्थियां संग्रह की । उन अस्थियों को मानस्थंभ में रखकर इन्द्र ने उनकी पूजा की । पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप जा कर. समारोह पर्वक शाश्वत अहतों का अष्टाह्निका उत्सव किया । इन्द्र ने सुधर्मा नामक सभा के मध्यभाग में मानवक स्तंभ में वजूमय गोलाकार डिब्बे में प्रभु की दाढों को रखा और उनकी शाश्वत प्रतिमा की तरह उत्तम गन्ध, धप और पष्पो से निरन्तर पजन करने लगे। भगवान सुमतिनाथ के निर्वाण के पश्चात् ९० हजार कोटि सागर के व्यतीत होने पर भगवान पद्मप्रभ का निर्वाण हुआ । तीर्थकर चरित्र के मूल स्त्रोत तीर्थकारों के जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्राचीनतम ग्रन्थ जैनागम है । भ. पदमप्रभ के विषय में आगमों में अत्यल्प मात्रा में जानकारी मिलती है । वर्तमान में उपलब्ध जैनागम अंग, उपान, छेद, मूल एवं प्रकीर्णक इन पांच विभागों में विभक्त है । अंगसूत्र आचारांग, सूत्रकृताङ्ग ऋषिभासित जैसे प्राचीन आगमों में भ. पद्मप्रभ का कहीं भी नामोल्लेख नही हुआ है । स्थानाङ्ग सूत्र (४११) के पांचवे स्थान में पद्मप्रभ भ. के पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में होने का एवं चतुर्थ अंग समवाय सूत्र (१०३) में उनकी उँचाई ढाईसौ धनुष की बताई है । समवायांग के १५७ वें सूत्र में जो २४ तीर्थंकर विषयक संग्रहणी गाथा है उनमें उनके विषयक निम उल्लेख मिलते है"भ. पद्मप्रभ छठे तीर्थंकर थे । उनके पिता का नाम धर एवं माता का नाम सुसीमा था। उनके पूर्वभव का नाम धर्ममित्र था । उन्होंने विजया नामकी शिबिका में बैठकर कोशाम्बी नगरी के बाहर सहस्त्राम्र उद्यान में एक हजार पुरुषों के साथ षष्ठ तप करके दीक्षा ग्रहण की थी। दूसरे दिन सोमदेव के घर भगवान ने क्षीरान्न से पारणा किया । इनके प्रथम शिष्य सुव्रत एवं प्रथम शिष्या रति थी । अपने शरीरसे बारहगुना उँचे छत्राभवृक्ष के नीचे चित्रा नक्षत्र के योग में उन्होंने केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त किया। पांचवे अङग सत्र भर वती में एवं शेष आगमों में भ. पद्मप्रभ विषयक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती । समवायांग सुत्र १५७ में भगवान पदमप्रभ के केवल तीन भवों का नाममात्रका उल्लेख है । आगम ग्रन्थों पर लिखी गई नियुक्तियों भाष्य चूर्णी एवं टीका में भी भ. पदमप्रभ विषयक उल्लेख अत्यल्प ही मिलते हैं ।आ. भद्रबाहु द्वारा निर्मित आवश्यक नियुक्ति में एवं उन पर आ. हरिभद्रसूरि एवं आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीकाओं में एवं प्रवचनसारोद्धारमें सभी तीर्थंकरों के साथ भ. पदमप्रभ विषयक निम्र विवरण दिया है। वह इस प्रकार है - १ भगवान प्रदमप्रभ के नामकी सार्थकता (१०९५) २ भगवान पद्मप्रभ का वर्ण- लाल ३ भगवान पद्मप्रभ की उंचाई- २५०. धनुष ४ जन्मस्थल- कौशाम्बी 2010_04 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ माता- सुसीमा ६ पिता- धर ७ देव भव नवमग्रैवेयक ८ जन्मतिथि- कार्तिकवदी १२ ९ जिनान्तर- ९० हजार कोटि सागर १० ज्ञानोप्तत्ति तिथि- चैत्र सुदी १५ ११ निष्क्रमण- तिथि चैत्र वदी ८ १२ दो उपवास के साथ केवलज्ञान १३ छद्मस्थकाल- छह मास १४ श्रमण- तीन लाख तीस हजार १५ श्रमणिया- चार लाख २० हजार १६ गणधर- १०७ १७ श्रमणपर्याय- १६ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १८ कुमारत्व- ७॥ लाख पूर्व १९ राज्यकाल- २१॥ लाख पूर्व १६ पूर्वांग २० सर्वायु- ३० लाख पूर्व २१ सिद्धिस्थल- सम्मेत शिखर २३ - एक हजार श्रमणों के साथ निर्वाण इसके अतिरिक्त आवश्यकसूत्र में चतुर्विंशति स्तव में भगवान पद्मप्रभ का नामोल्लेख है । तीत्थोगालि प्रकीर्णक में भ. पद्मप्रभ के अन्य नाम पउमाभ और सुप्रभ भी मिलते हैं (तित्थो. ४४६,४६१) आगमेतरसाहित्य में भगवान पदमप्रभ विषयक सामग्री प्रचुरमात्रा में मिलती है । दसवी सदी से ले कर १८ वीं सदी तक में भ. पद्मप्रभ पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत और प्राकृत भाषा में चरितग्रन्थ लिखे हैं । १ चउप्पन्नमहापुरिसचरियं (कर्ता शीलांकाचार्य र. सं. ९२५) २ कहावली - (कर्ता भद्रेश्वरसूरि र. सं १२वी सदी) ३ चतुर्विंशतिजिनेन्द्रसंक्षिप्त' चरितानि (कर्ता अमरचन्द्रसूरि र. ईसवीसन १२३८ से पूर्व) ४ त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र (र. सं. १२१६-१२२८ कर्ता क.स. हेमचन्द्राचार्य) २३ 2010_04 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ लघुत्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र (र. सं. १७०९ कर्ता मेघविजय उपाध्याय ) स्वयं ग्रन्थकर्ता आ.देवसूरि ने भी अपने समय में कई पद्मप्रभचरित्र होने का उल्लेख किया है । तीर्थकर विषयक मान्यताओं में दिगम्बर परम्परा के दो प्राचीन मुख्य ग्रन्थ आधारभूत माने जाते हैं । एक तिलोयपण्णत्ति और दूसरा जिनसेनाचार्यकृत महापुराण । महापुराण के पश्चात् अनेक दिगम्बराचार्यो ने तीर्थकर चरित्र लिखे हैं किन्तु सब का आधारभूत ग्रन्थ महापुराण ही रहा है । उत्तरपुराण में भगवान पद्मप्रभ विषयक वर्णन इस प्रकार मिलता है। ___ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश है । उसके सुसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे । संसार की असारता को देख उन्होंने अपने पुत्र सुमित्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर पिहिताश्रव नाम के ज्ञानी मुनि से दीक्षा ग्रहण की । संयम की साधना करते हुए उन्होंने तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त में समाधि पूर्वक मरकर वे अत्यन्त रमणीय ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रतिकर विमान में अहमेन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । वहां इकतीस सागर की लम्बी आयु भोग कर जम्बूद्वीप की कोशाम्बी नगरी के राजा इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण की रानी सुसीमा के उदर में वे अवतरित हुए । रानी ने १६ स्वप्र देखे । कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन त्वष्टयोग में कमल की कलिका के समान कान्तिवाले पुत्र रूप में जन्मे । उनका नाम पद्मप्रभ रखा । इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव किया । सुमतिनाथ भगवानकी तीर्थपरम्परा के नब्बे हजारकरोड सागर के बीतने पर भगवान पद्मप्रभ ने जन्म लिया । भगवान युवा हुए । उनकी तीस लाख पूर्व की आयु थी । दोसौ पचास धनुष उंचा शरीर था। उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने पिता से राज्य प्राप्त किया । जब उनकी आयु सोलहपूर्वाङ्गकम एक लाख पूर्व की रह गई तब भगवान ने निवृति नामक पालकी पर सवार हो कर मनोहर नाम के वन में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्रके योग में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । दूसरे दिन भगवान ने वर्धमान नगर में सोम राजा के घर आहार ग्रहण किया । छह माह तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद चैत्र शुक्ला पौर्णमासी के दिन मध्याह्न में चित्रा नक्षत्र के योग में केवलज्ञान प्राप्त किया । केवलज्ञान के पश्चात् भगवान पृथ्वी पर विचरकर अनेकों का उद्धार किया । उनके संघ में एक सौ दस गणधर, दो हजार तीन सौ पूर्वधर, दो लाख उनहत्तर हजार उपाध्याय, दसहजार अवधिज्ञानी, बारह हजार केवलज्ञानी, सोलह हजार आठसौ वैक्रीयलब्धिधारी, दस हजार तीनसौ मनःपर्ययज्ञानी, नौ हजार छहसौ वादि, इस प्रकार सब मिलाकर तीनलाख तीस हजार मुनियों की सम्पदा थी । रात्रिषेणा आदि चार लाख बीस हजार आर्यिकाएँ तथा तीन लाख श्रावक एवं पांच लाख श्राविकाएँ थी। अपना निर्वाण समीप जानकर प्रभु एक हजार मुनियों के साथ सम्मेत शिखर पर पहुंचे । वहां फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन चित्रा नक्षत्र के योग में सम्पूर्ण कर्मो का नाश कर भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया । ग्रन्थकार परिचय : सैकडों वर्षों से अनेकानेक विद्वानों ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में विशाल साहित्य की रचना कर दोनों भाषाओं का गौरव बढाया है । इस गौरवकी अभिवृद्धिमें आचार्य देवसूरि का भी मूर्धन्य स्थान है । इन्होंने प्राकृत २४ 2010_04 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा में पद्मप्रभचरित्र की रचना कर अपनी साहित्यिक सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है । इस महाकवि के जन्मस्थान, माता-पिता और उनके जीवन पर प्रकाश डालनेवाली अन्य कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती । किन्तु इन्होंने ग्रन्थके अन्त में जो प्रशस्ति है उसमें अपनी गुरुपरम्परा के साथ अपना भी अल्प परिचय दिया हे वह इस प्रकार है प्राचीन कोटीक गणकी उच्च नागर विद्याधर शाखा से जालिहरगच्छ और कासग्रह गच्छ दोनों एक साथ निकले । प्रस्तुत आ. देवसूरि जालिहर गच्छ के बालचन्द्र के शिष्य गुणभद्र शिष्य सर्वानन्द (जिन्होंने पार्श्वनाथ चरित्र की रचना की थी ) के शिष्य धर्मघोष सूरि के शिष्य थे। इन्हों ने देवेन्द्रसूरि से तर्क और हरिभद्रसूरि से सिद्धान्तों का गहन अध्ययन किया था । अपनी गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान से इन्होंने संवत १२५४ में भीमदेव के राज्यकाल में मार्गशीर्ष दसमी के दिन रेवती नक्षत्र के योग में वढवाण नगर में पज्जुण्ण श्रेष्ठी की वसति में रहकर श्रमणोपासक विद्दयलक्खण की प्रार्थना से इस चरित की रचना की। इसके अतिरिक्त इन्हों ने अपने ज्ञानप्रदाता आ. हरिभद्रसूरि का भी जीवन चरित्र लिखा था । प्रस्तावना के प्रारम्भ में उल्लिखित प्रतियों के आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन सम्पादन किया गया है। संशोधन में एवं प्रेस के कारण तथा प्रमादवश कुछ क्षतियाँ रह गई है। विद्वानों से प्रार्थना है कि ऐसी क्षतियों की सूचना देने की कृपा करें जिन का उपयोग यथावसर अवश्य ही किया जायगा । रूपेन्द्रकुमार पगारिया 2010_04 २५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनक्रमणिका प्रस्तावना प्रतिपरिचय. संशोधन.. ग्रन्थपरिचय................... कथावस्तु............ तीर्थकर चरित्र के मूलस्त्रोत.... ग्रन्थकार परिचय...... psy w9 M& प्रथम प्रस्ताव - ग्रन्थारम्भ मंगलाचरण जिनवाणी रूप सरस्वती की वन्दना......... संघ और गणधर वन्दना................... पूर्वाचार्यों का स्मरण............ दुर्जन-सज्जन वर्णन.. श्री पदमप्रभ स्वामि के तीन भवों के नाम... .......... प्रथम भव अपराजितराजा ससीमा नगरी का वर्णन.... राजा अपराजित का वर्णन...................... वसन्तऋतु का वर्णन................... उद्यानपाल द्वारा वसन्त के आगमन की सूचना... वन क्रीडा के लिए राजा अपराजित का उद्यान में आगमन.................... उद्यान में विराजित अरविंद नामके सर्वज्ञ आचार्य का दर्शन.................... आचार्य अरविंद का अपराजित राजा को धर्मोपदेश...................... धर्म की महिमा के साथ धर्म के चार प्रकार दान, शील, तप और.. भावना का मुनिवर द्वारा विवेचन प्रथम दान धर्म पर हंसपाल की कथा... द्वितीय शील धर्म पर मृगालेखा चरित्र ..................... तृतीय तप धर्म पर रोहिणी कथा ......................... चतुर्थ भावना धर्म पर सुरसुन्दरकुमार कथा ............... 2010_04 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मोपदेश के बाद अपराजित राजा द्वारा आचार्य से अपनी दीक्षा का कारण पूछना और अन्तरंग कथा द्वारा आचार्य का अपनी आत्मकथा द्वारा दीक्षा का कारण बतलाना ... ...... १३६ राजा अपराजित द्वारा धर्मेपिदेश से प्रभावित होकर उत्तम आचार धर्म के पालन की प्रतिज्ञा १६४ पिहिताश्रव मुनि के पास अपराजित राजा का दीक्षाग्रहण,.......... ...... १६४ तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन करने वाले कतिपय स्थानों की आराधना, .............. ....... १६४ अन्तिम समय में पंच परमेष्ठि मंत्र की आराधना के साथ समाधि पूर्वक मृत्यु.... .................... १६४ द्वितीय देव भव ३१ सागर की आयुवाले उपरिम उपरिम ग्रैवेयक में महर्धिक देव रूप से उत्पत्ति. १६४ १६७ १६८ द्वितीय प्रस्ताव - तृतीय भव प्रद्मप्रभस्वामी के रूप में जन्मकोशाम्बी नगरी का वर्णन ......... राजा धर का वर्णन ............ महारानी सुसीमा का वर्णन ..................... ससीमा रानी का १४ स्वप्न दर्शन.. रानी का राजा को स्वप्र कथन .. स्वप्न पाठकों को बुलाना और उनसे स्वपों का फल सुनना, प्रीतिदान पूर्वक स्वप्न पाठकों की बिदाई ........ भ. पद्मप्रम का चवण कल्याणक ........... भ. पद्मप्रम का जन्म कल्याणक .............. दिशाकुमारी कृत जन्म महिमा इन्द्रादि देवो का जन्मोत्सव के लिए मेरु पर्वत पर गमन. राजा धर द्वारा भ० पद्मप्रभ का जन्मोत्सव और नाम करण ............ भ. पद्मप्रभ का विवाह, पुत्रोप्तत्ति, तथा राज्यारोहण ...................... भगवान प्रदमप्रम का महानिष्क्रमण .......... भ. प्रद्मप्रम का केवलज्ञान, तीर्थस्थापन और प्रथम धर्म देशना .................. प्रथम धर्प देशना में निर्मल चारित्र पर हरिवाहण राजकुमार की कथा................... १६९ १७० १७१ १७३ १७४ १७६ १७७ १८१ तृतीय प्रस्ताव - सम्यक्त्व पर प्रज्ञाकरमंत्रिपुत्र की कथा .... श्रावक के बारह व्रत का कथन २२२ २३३ 2010_04 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ २४२ २६२ २८४ ३४६ पत्य प्रस्ताव......................................................... ३८८ जीवदया पर संग्रामशूर कथा.................... सत्यव्रत पर ललितांगकुमार कथा ......... परविभवपरिहार पर वज्रबाहु कथा........... परदारविरमणव्रत पर अनन्तकीर्तिकुमार कथा...... परिग्रह परिमाण व्रत पर रत्नसार कथा. चतुर्थ प्रस्ताव................... दिसि परिमाण व्रत पर शंखकुमार कथा ................... भोगोपभोग परिमाण व्रत पर महापद्मकुमार कथा..... अनर्थदण्ड व्रत पर वाचालकहा .. सामइकव्रत पर चन्द्रलेखा की कथा.. देसावगासिक व्रत पर वसन्तकुमार कथा ...... पौषधवत पर करुचन्द्र कथा........ अतिथि सविभाग व्रत पर धनसेन कथा ...... जिनपूजन पर सिंहराजपुत्र कथा ........................... देवों द्वारा भगवान का निर्वाणोत्सव....... ग्रन्थकार प्रशस्ति.......... ग्रन्थलेखक प्रशस्ति..... ४०३ ४१८ ................. ४२५ ४४७ ४६३ ४७० ४८७ ४९३ ४९६ ४९९ २८ 2010_04 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जालिहरगच्छीय सिरिदेवसूरिविरइयं) सिरिपमध्यहसामिचारिय मंगलमंगलमाइ-जिणेसर-भुय-दंड-लुलंत-कुंतला दिंतु ।। जियमोह-हरिय-सामल-मिलंत-चमर व्व विलसंता ॥९॥ निच्चं निच्चल-चित्ता, जं पत्ता सह निवासपउमेण । लंछण-छलेण पउमा, पउमंकं नमह तं देवं ॥२॥ सो जयउ संतिनाहो, अप्पडिचक्केहिं दोहि चक्केहिं । जस्स नव-कुंडलेहिं व, महि-महिला गव्विरी भुवणे ॥३॥ जयउ नव-मेह-सामलतणुणो नेमिस्स दित्ति-पब्भारो । आजम्मदद्ध-वम्मह-धूम-समूह व्व विलसंतो ॥४।। नव-हत्थ-काय-महि-भय-हरणं कुवलय-फुरंत-वरवन्नं । गय-रयममोहनामं, नमामि देवं दुहा पासं ॥५॥ मोत्तूण पुरं पुरिसा जस्स सुसिद्धंत-सिद्धमतेण । पविसंति सिवपुरवरे, तं वीरं नमह जोइंदं ॥६॥ अवसेसजिणिंदाण वि, सुर-असुर-नरिंद-चंदभालेसु चूलामणि व्व कम-नह-किरणा विजयंतु दिप्पंता ॥७॥ उवसग्ग-वग्ग-तक्करनिव्वासण-चंड-डिंडिम-समाणा । जयउ जिणवयण-निग्गय-जोयण-निहारिणी वाणी ॥८॥ भरहाइसव्वखित्तेसु, जस्स पसाएण निच्चमभविंसु । होहिंति हुंति तित्थंकरा वि विजियाय सो संघो ॥९॥ अट्ठावय-वर-पव्वय-सिहरगयं तह य भमण-परिमुक्कं ॥ अहिणव-रविमिव सिरसा, गोयम-गणहारिणं नमिमो ॥१०॥ जायं मह मणगहणं, सवियासं जेसिमसममाहप्पा । गुरुणो जयंतु ते मह, हिययवसंता वसंत व्व ॥११॥ 2010_04 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जेण विहियाउ दस - दिसि कलिमल - संहरण-सर- सरिच्छाओ । दसवरनिज्जुत्तीओ, तस्स नमो भद्दबाहुस्स ॥१२॥ जण -‍ -मण-वणमंकुरियं, झ त्ति सुहासारणीए वाणी । जेसिं निच्चं तेसिं भद्दं हरिभद्दसूरीणं ॥१३॥ जस्स गभीरिमजित्तो नज्जवि जलही चएइ खारतं । तं विविहगंथकारयमहिवंदे हेमचंदपहुं ॥ १४ ॥ रयणायर व्व कइणो, अत्रे वि जयंति जेसि रयणोहं । गिहिय सुवण्णयारा, घडंति नव-नवमलंकारं ॥१५॥ सगुणं विनिग्गुणं वा, अन्नं सव्वं सया पयासंता । अप्पं अपयासंता सुयणा नंदंतु नयणसमा ॥१६॥ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अहवा को नाम नाममित्तं पि ताण सुयणाण गिहिए ? जेसिं । विवरीय सेहराणं फुरंति दोसा वि गुणरूवा ॥१७॥ जे नव्व-कव्व-दोसं नेव पयंपंति जाणमाणा वि । तेसि महावेरीणं, अलं पसंसाण सुयणाणं ॥ १८॥ सयमेव दोसगाही तह मह निंदाइदुगुणिउच्छाहो पर्याडिस्सइ मह दोसं तत्तो निंदामि खलु पिणं ॥ १९ ॥ अलमेव विच्छुयाणं, मुहमेव अहीण तह य मंदस्स । दिट्ठि च्चिय पिसुणाणं, सव्वं सव्वस्स भयजणयं ॥ २० ॥ मंतेण व चुत्रेण व विच्छुयपमुहाण हवइ पडियारो । दुज्जणजणपडियारे, बंभा वि धुवं निरारंभो ॥२९॥ खंडीकओ वि पज्जालिओ वि चुन्नीकओ वि चुन्नु व्व जीहापलाइओ विहु जणेइ दाहं अहो ! पिसुणो ॥२२॥ दो खंडिओ वि निक्कीलिओ वि भूमीए तह निहित्तो वि । निद्दल धन्ननिवहं, भमिरो पिसुणो घरट्टु व्व ॥२३॥ गुणलवमवि संपाविय, तिक्खा तुच्छा पहीणचित्ता य 2010_04 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सूइ व्व पिसुणजीहा, गुणमयमवि विधए सहसा ॥२४॥ कइया वि कत्थ कहमवि, मुहत्तमित्तं पि उदयपत्तो वि । केउ व्व अहो ! पिसुणो भयावहो भुवणलोयाणं ॥२५॥ सक्कारसहस्सेहिं वि लवमवि पिसुणो न किज्जए सुयणो । अमयमयअंकपालीगओ वि कलुसो च्चिय कलंको ॥२६॥ विहि-विलसियाण खलभासियाण तह महिलकूड-चरियाणं । मणवंछियाण पारं वनइ जइ कह वि सव्वत्रू ॥२७॥ एवं कयत्थिएणं, अहवा अब्भत्थिएण पिसुणेण जो अस्थि मज्झ कव्वे, सो दोसो तो कहेयव्वो ॥२८॥ जिणनाह-नमण-संभव-मंगल-संहरिय-विग्घ-पब्भारो । सिरिपउमप्पह-चरियं, कय-अच्छरियं भणिस्सामि ॥२९॥ जइ वि जोइसराण वि, जिणिंद-चरियम्मि नत्थि सामत्थं । तह वि बला वि पयट्टइ, मं जिणपयपंकए भत्ती ॥३०॥ जह केसिमुत्तमाणं, संते वि जिणिंद-बिंब-निउरंबे ।। अवरवर-बिंब-कारणवावारो निप्फलो नेय ॥३१॥ तह पउमप्पह-पहुणो, संते वि हु अवर-चरिय-संदोहे । नहि निप्फलो ममा वि हु इमम्मि चरियम्मि वावारो ॥३२॥ रिसहेसरस्स तेरस, बारस संतिस्स नव य नेमिस्स । दस चेव पासपहुणो, सत्तावीसं च वीरस्स ॥३३॥ अवसेसजिणिंदाणं, कहिया समयम्मि तिन्नि तिन्नि भवा । इय पउमप्पहचरियं भवतियसहियं कहिस्सामि ॥३४॥ सुरगिरिकलियाकलिओ, नहयल-कज्जलकवालसंजुत्तो दिवु व्व जंबूदीवो इहत्थि लवणोयजलतिल्लो ॥३५॥ नहयलतमाल-तरुणो, आवालं पिव असेसमेहाणं ।। अक्खयभंडारं पिव, लवणो उयही तओ बाहिं ॥३६॥ बाहिं तस्स य धाइयसंडं उदंडविविह-वण-संडं । 2010_04 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नग-नगर-सरि-सरोवर - वासजुनं अत्थि वरदीवं ॥३७॥ तस्सेव मज्झयारे महाविदेहं ति अत्थि वरदीवं । बहुविजएहिं सणाहं, चक्कं पिव चक्कपाणिस्स ॥३८॥ जत्थ य अठ्ठावीसं, उक्कोसा हुंति चक्कि - हलि - हरिणो । बत्तीसं जिणनाहा सव्वे चउरो जहनेणं ॥ ३९ ॥ दुप्पुत्तो विव मेरू, तं कुणइ दुहा य तायविहवं व । पुव्वविदेहं तत्तो, अवरविदेहं च तं जायं ॥४०॥ तत्थ य पुव्वविदेहे, खंडमिवाखंडलस्स नयरीए । अत्थि सया फलवच्छं, वच्छं नामेण वरविजयं ॥४१॥ तत्थत्थि हत्थि - घंटा - टंकार- रणंत-गयण - सीमंता । पुर- गुण - गण - निस्सीमा पुरी सुसीमा विगयसीमा ॥ ४२ ॥ कोडीसरभवणोब्भियकोडिपडागाहिं सा पुरी ने विहियावरपुरविजया, उद्धभुया नच्चए निच्चं ॥४३॥ ससिकंतमणि-विणिम्मियपासायपरंपरा वि रयणी ॥ अमयमयसारणीहिं सिंचइ गिरकाणणे जत्थ ॥४४॥ मरगय- रयण - विणिम्मिय - तोरण- मित्तेण पउलिदाराणि । फालिह - मणिसालाए, जत्थ जणो मुणए कहकह वि ॥ ४५ ॥ जत्थ य दाणाइविविहसंकलबद्धं कलिऊण नियसुयं लच्छिं उम्माहिउ व्व पत्तो अगाहपरिहाछलेणुयही ॥४६॥ उम्मत्तकामिणीसुं, मारो दंडो विहारसिहरेसु । कलहो गयसालासुं, न उणो तव्वासिलो सुं ॥४७॥ बहुधनयजुया अलयं, बहुपुरिसुत्तमजुया य दारवई । बहु जिए हु जुया अमरावई पि मने हसइ एसा ॥४८॥ ती पुरीए समिद्धरिद्धिं निद्धारिऊण धरणियलं । दारियरसायलतलं, मन्ने भोगावई पत्ता ॥ ४९ ॥ नायववसायसहिओ, मयरहिओ पुव्वराय अब्भहिओ । जित्तं पराजिओ वि हु, राया अपराजिओ तत्थ ॥५०॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जस्सारिनारिसीमंतबहलसिंदूररेणु-हरणम्मि । उव्वहइ समीरत्तं अइथिरथोरो वि भुयदंडो ॥५१॥ कुव्वंति गंध-बंधुर-सिंधुर-घंटाण जस्स टंकारा । पसरंता भयभिंभलदिसिगहणपरे दिसाकरिणो ॥५२॥ न सहइ एसो दोसं मह उण गेहे तिमिंगिलगिलतं । इय संकिउ व्व जलही जस्स भया कंपए निच्चं ॥५३॥ भुवनभवणंतराले, अरिनारिगलंतनित्तनीरेहिं । जस्स पयावपईवो, जलेइ रिउ-सलह-खय-कालो ॥५४॥ चलियम्मि जम्मि सिना, धूली वि हु सूरमंडलं सयलं पडिहयतेयप्पसरं करेइ किं वन्निमो तस्स ? ॥५५॥ भूवाल-भाल-तिलयावलीहिं चिंचइयचरणतामरसो । निरवज्जं नियरज्जं, परिपालंतो गमइ कालं ॥५६॥ अंगुलिमुद्दावज्जियसहावसुउमारपाणिकमलेहिं । वारविलयाहिं सणियं संवाहिज्जंतकमकमलो ॥५७॥ अत्थाण सुहासीणो, चिट्ठइ अवराजिओ निवो जाव । ता मागहेण पढियं समरारंभाभिहाणेण ॥५८||जुयलं एसो किंस्य-कन्नियार-कलिया कोसुभरत्तंबरो । साणंदं कलकंठिकंठ कुहरागिज्जंतगेयज्झुणी । आरूढो मलयानिलं मयगलं रोलंबरोलाउलं । रम्मारामसिरि विवाहिउमणो पत्तो वसंतो वरो ॥५९॥ विजयाय तुज्झ नरवर ! वसंतसमयस्स हवउ आरंभो । परिवड्ढिसारंभो तिहुयणविजयम्मि मयणस्स ॥६०॥ दुइएण बंदिविंदारएण नरनाहहिययउल्लासं । जणयंतेणं भणियं, विजयारंभाभिहाणेण ॥६१॥ इण्डिं माणिणिमाणसेलदलणे निर्देभदंभोलिणो । हेमंतप्पसरंतकित्तिकयलीदुइंतदंताबलो ॥ 2010_04 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं कक्कोली-लवली-लवंग-तगरीनिप्पट्टनट्टावया । ते वायंति समीरणा विरहिणी निद्दक्खिणा दक्खिणा ॥६२॥ जयमवि समीरवीरा वसे कुणंता अणंगआणाए । तुह सुह-निवहुल्लासं, कुणंतु महुसमय-मह-महिया ॥६३॥ तेसिं वसंतवण्णणतक्खणसंजायपुलय-पब्भारो । वियरइ स-चमक्कारो, राया वि हु विहवसंभारं ॥६४॥ उज्जाणपालएण वि वसंतपालेण नमिय विनत्तं । अवइनो महुसमओ, समओ पहु ! तुज्झ कीलाए ॥६५॥ फुल्लिय-वल्ली-मल्ली-हल्लीसय-निवहमज्झयारम्मि । अलिउल-रवेहिं गायइ, महुसमओ तुज्झ गुणनिवहं ॥६६॥ दाऊण पारितोसियदाणं राया वसंतपालस्स । चलिओ काणणलच्छिं पिच्छिउकामो सपरिवारो ॥६७॥ तंबक्क-बुक्क-ढक्का-काहल-कंसालगहिरसद्देहिं ।। थरहरियसायरजलो, सायरबंदियणथुव्वंतो ॥६८||जुयलं ॥ जंपाण-जाण-वाहण-सुक्खासण-नर-विमाण-रह-निवहे । सिज्जावालय-सिंधुर-वहिल्ल-वरवाहलंघणिया ॥६९।। आरुहिय सह पियाहिं, बंधुर-सिंगार-भासुर-सरीरो । सामंत-मंति-पमुहो, सह रना वच्चए लोओ ॥७॥ सीमंतिणी समूहा, कडक्खविक्खेवअमय लहरीहिं । काणणतिलयं तिलयं मंजरियं झ त्ति कुव्वंति ॥७१।। मुहं. कमलनिग्गएणं, करिति वारुणिरसेण तरुणीओ । उल्लसियफुल्लनिवहं, महुयरमालाउलं बउलं ॥७२।। विरहियदुमसमवायं, करेइ अंकरनियरदंतुरियं । कमणीयकामिणीयणगओ सुहा महुरगेयरवो ॥७३॥ रमणीय-रमणि-निवहा, कुणंति रणझुणिरमंजुमंजीरा । उल्लसियपल्लविल्लिं, कंकिल्लिं पायघाएहिं ॥७॥ 2010_04 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं कुरुवयतरुनिकुरंब, करति घणसिहिण-विब्भमा सहसा । परिरंभियसारंभं अंकुरियं जायपुलयं व ॥५॥ इय एवंविहवइयरफुल्लियवणराइराइयं रम्मं । आरामं संपत्तो, इंदिदिरसुंदरं राया ॥७६।। जलकेलि-कुसुम-निचयावचायपमुहाहिं विविहलीलाहिं ।' संतेउरपरिवारो आरामे रमइ सो तत्थ ॥७७॥ अलिउलकुवलय-कज्जल-तमाल-तमसामलाओ गयणाओ । अवयरमाणं कुंडल-किरीडवरहारदिप्पंतं ॥७८॥ चउदंत-दंति-कंधर-मारूढं सुरसमूहपरियरियं । करविलसिरसयधारं, पुरंदरं पिच्छए राया ॥७९॥ विप्फारियनियनित्तो,सहस्सनित्तं निइत्तु नरनाहो । चिंतइ इमस्स रूवं, अभिरूवं तिहुयणे सयले ॥८०॥ मन्ने धनो अहयं, काणणगमणं तहेव मह सहलं । नियदित्तिविजियअक्को, सक्को सयमेव जं दिट्ठो ॥८१॥ हरिपरिपेसियसिंधुरनाहेणं पिच्छिरम्मि नरनाहो । विहियं पयाहिणातिगमा रामासनसेलस्स ॥८२।। ओयरियसिंधुराओ, बंधुररोमंचअंचियसरीरो । गिरिसिहरकाणणत्थं, मुणिनाहं नमइ सुरनाहो ॥८३॥ हरि-हरिणगमेसाई, ताडंता दुंदुहीओ कुसुमाणि । वरिता वरमुणिणो केवलिमहिमं पकुव्वंति ॥८४॥ वियसियनित्तो तत्तो, सह नयरिजणेण उदयसेलं व । उदयाभिमुहरवी विव, तं नगमारुहइ नरनाहो ॥८५॥ कणयमयपंकयगयं, पच्चक्खं-मुक्ख-सुक्ख-निवहं च । रागाइदमणदक्खं अरिंदमं नाम मुणिनाहं ॥८६॥ पिच्छइ तओ नमसइ सो राया राय-रंकसमचित्तं । रूवेण उवसमेण य, जियमारं चिंतए तत्तो ॥८७॥ 2010_04 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मन्ने कलंकमलिणं अप्पाणं चिंतिऊण हरिणको । एसो तवं पवनो, कलंकपंकावहारत्थं ॥८८।। कन्नाभिगमणदूसणहरणत्थं वा तवेइ किं तवणो ?! अहवा एस जयंतो, तवइ तवं सावपब्भट्ठो ॥८९।। किं तवइ एस मारो, कुमारविजयाय निच्चमुज्जुत्तो । नामं पि हु निविउं, कामस्स इमो कुमारो वा ॥९०॥ सुर-असुरखयरकिन्नर-नरिदवंदेहिं सायरं मुणिणो । वंदिज्जंते जं तं, तवस्स महिमाए महमहियं ॥९१॥ सग्गापवग्गनवपुरपविसिरनरविसरमंगलुग्गारा । दुहसेलकुलिसधारा, धम्मकहा पत्थुया मुणिणा ॥९२॥ इह दुलहो नरजम्मो, दुलहा सुकुलुब्भवाय सामग्गी । दुलहो जिणिंद-धम्मो पमायचाओ तहा दुलहो ॥१३॥ संपत्तं सामग्गिं जो हारइ विसमविसयविसगिद्धो । सो मानस-सरसलिलं, मुंचइ मायण्हिया कज्जे ॥१४॥ विसयामिसलवगिद्धो सिवसम्मकरं पि चयइ जो धम्म । गंधव्वनयरकज्जे, सो धुवममरावई चयइ ॥१५॥ वज्जित्तु तो पमायं विसयसुहासंगरंगमुज्झित्ता । कयसम्मे जिणधम्मे, सम्म उज्जमह आजम्मं ॥१६॥ जोयणसहस्ससोलससलिलसिहासेहरो वि जलरासी । जं न विरिल्लइ वसुहं, तं जाणसु धम्ममाहप्पं ॥१७॥ हाल-हरि-नरिंद-चंदा, असुरिंद-खयर-नागिंदा । . सव्वे वि जिणवरिंदा हवंति धम्मप्पसाएणं ॥९८॥ किं पयडह पयसेवं नरिंद-गोविंद-खंद-इंदाणं ? || इक्कं करेह धम्म, हवंति जं ते वि धम्मेणं ॥१९॥ सो वि हु चउप्पयारो, चउगइ-भव-तिक्ख-दुक्खसंहारो । भणिओ जिणेहिं दाणं, सीलं तव-भावणा चेव ॥१०॥ 2010_04 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसपालकहा दाणाउ वरं सीलं, सीलाउ तवो तवाउ तह भावो । पवरो तत्तो इमिणा, कमेण एयाणि भणियाणि ॥१०१।। विसयपसत्तमणाणं, चंचलचित्ताण चत्तसत्ताणं । अट्टज्झाणपराणं, गिहीण दाणं परं धम्मे ॥१०२।। गरुयगिरि-सिहर-विलसिर-हारिविहारग्ग-धयचलं कमलं । कलिऊण पत्तदाणं, दायव्वं सिवसुहत्थीहिं ॥१०३।। खीरसमुद्दमुविंद, विमुद्दमरविंदमहह ! नरविंदं । कमसो कमलाणज्जा, परिवज्जंती न लज्जेइ ॥१०४॥ सिव-सोक्खघाइणो, दुक्खदाइणो वेरकारिणो तह य । एए वि हु जइ अत्था, हुंति अणत्था कहं अन्ने ॥१०५॥ तुच्छाए विहियमुच्छाए, वसणवलाए पवणचवलाए । इक्कं चिय कमलाए, सुपत्तदाणं फलं मुणसु ॥१०६॥ संसार-जलहि-जाणं, दाणं वियरंति जे सुपत्ताणं । नर-सुर-सिव-सुह-निवहं, लहति ते हंसपालु व्व ॥१०७॥ दाणधम्मे हंसपालकहा पुरिसुत्तमकमलवणा, कोडिपडायालिविलसिरतरंगा । गंगासरिया सरिसा, नयरी वाणारसी नामा ॥१०८॥ जत्थ य आयास-सच्छ-फालिह-मंदिर-सिहरंतराल-मारूढा । पिच्छयजणेहिं नहयलठियाउ विलयाउ नज्जति ॥१०९॥ दित्तारिवारवारणपंचाणणसरीसभीमवावारो । जियमयरद्धयरूवो, राया मयरद्धओ तत्थ ॥११०॥ कयमुच्छा अइतुच्छा, चवला एस त्ति दोसहरणत्थं । जस्स करवालधारावयं चिरं चरइ जयलच्छी ॥१११।। बहुकोडिरयणनाहो, संहारियदुहियसयलजणदाहो । तत्थत्थि सत्थवाहो, नामेणं कुसुमसारे। त्ति ॥११२॥ ___ 2010_04 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मत्ताहिएण जणनयणहारिणा निरुवमाणरुवेण । अभिभूओ कुसुमसरो, तेण धुवं कुसुमसारेण ॥११३॥ तस्स य सयंपभाए, पियाए नवनलिणगब्भसमगोरो । भुवणजणच्छिमयंको, मयंकनामो सुओ जाओ ॥११४॥ सो अट्ठमम्मि वरिसे, नाणनिहाणस्स अइपसिद्धस्स । अज्झावयस्स पिउणा, उवणीओ गुरुविभूईए ॥११५॥ इत्तो य तत्थ नयरे, धणेहिं धणयं पि अभिभवंतस्स । अत्थि धणंजयधणिणो, धूया पउमावई नाम ॥ ११६॥ समवयरूवाइगुणा, मयंककुमरेण सा नियपिउहिं । तस्सेव कलागुरुणो, समप्पिया तम्मि चेव दिणे ॥११७॥ बालाण वि मुद्धाण वि, समवयरूवाण इब्भजायाण । वड्ढइ कमसो तेसिं कलाकलावेण सह नेहो ॥ ११८ ॥ अवरुप्परपरिवाडिं दिंति पयंपंति तह सवीसंभं । खज्जं पिज्जं भोज्जं, कुणंति मिलियाणि अन्रोनं ॥ ११९ ॥ समयंतरिम्मि नियगिहपत्ताए तीए पेसिओ पिउणा । तत्थासीइकवड्डयमाणपणो खज्जकज्जम्मि ॥१२०॥ तिस्सा वीसंभेणं, मयंककुमरेण तं गहेऊण । विवणिपहे गंतूणं, विसाहियं तेण वरखज्जं ॥१२१॥ एगागिणा वि तस्स य, अब्भवहारो कओ कुमारेण । सव्वत्थ वि वीसंभो, जं तं निद्धाण निद्धत्तं ॥१२२॥ पत्ताइ पुणो तीए, कहियमसेस पि तेण कुमेरण । सा आह कुमर ! तुमए, न कयं कज्जं इमं भव्वं ॥ १२३ ॥ जे उज्जमंति जह तह, सम्ममविन्राय कज्जपज्जंता । सिरिपउमप्पहसामिचरियं सहियय हियए पहासं कुणंति ते नूणमाजम्मं ॥ १२४ ॥ एएहिं पणकवड्डेहिं, नूनमप्पस्स मणिमयाभरणं । अकरिंसु तहय वत्थे, जइ होज्जा मज्झ हत्थम्मि ॥ १२५ ॥ 2010_04 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा तुमए पुण एमेव य, सेवयजणजीवियं व एस पणो । लुद्धेण य मुद्धेण य, निरत्थयं हंत ! हारविओ ॥१२६॥ इय नेहस्स असरिसं अस्सुयपुव्वं असंभविज्जं च । सोउं तिस्सा वयणं, मणम्मि अइदूमिओ कुमरो ॥१२७॥ पइदियहं तव्वयणं, चिंतंतो गमइ केच्चिरं कालं । गरुया सकज्जसिद्धिं, कुणंति मोणं समल्लीणा ॥१२८॥ कित्तियमित्ते काले, वक्कंते तीइ तं नियं भणियं । पम्हुह्र सयलं पि हु, कत्तो बालाण संभरणं ? ॥१२९॥ अहवा उच्चावचाणि अइनिठ्ठाणि मसिणाणि निययभणियाणि । गहिला य नेहला वि य, कित्तिय मित्ताणि सुमरंतु ? ॥१३०॥ अहिगयकलाकलावाणि ताणि कलिऊण निययजणयाए । अप्पेइ उवज्झाओ, तेहिं वि संपूइओ एसो ॥१३१॥ तव्वयणं सुमरित्ता, मयंककुमरेण निययजणएहिं । मग्गाविऊण एसा, विहिणा वीवाहिया तत्तो ॥१३२॥ आबालकालबंधुरपडिबंधाबद्धनिद्धमणवित्ती । तीए धणाइ धणियं, सच्छंदं विलसए एसो ॥१३३॥ समयंतरम्मि पच्छिमजामे सो जामिणीए जग्गंतो । चिंतइ इमीए अहयं, पावाए दूमिओ तइया ॥१३४।। परिहवदवग्गिदद्धस्स, जस्स दियहा गर्मिति एमेव । तस्स रसायलमूले, वच्चंतु गुणा तहा जायं ॥१३५॥ एगत्तो विरहदुहं, दूसहपरिहवदुहं च अव्रत्तो । हा ! दुहसंकडवडिओ मयंककुमरो कहं जियउ ? ॥१३६॥ अहवा तरुणो तरुणो मूले, लब्भइ इत्थी इमीए को विरहो ? आजम्मसल्लतुल्लं, परिहवदुक्खं तु गरुयाणं ॥१३७॥ 2010_04 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इत्तो य तस्स मित्तो, दिव्ववसा तम्मि चेव दिवसम्मि । सागरदत्तो कारइ, पवहणसामग्गियं सव्वं ॥१३८॥ नाउं वइयरमेयं, मयंककुमारो वि निययजणएहिं । आयरपुव्वं भणिओ, पूरावइ विविहवहणाणि ॥१३९।। गंतूण वासभवणं, तक्खणजलभारभरियगलतारो । गलिरच्छिजुओ, पयडियछउमो पउमावई भणइ ॥१४०॥ पाणेसरि ! सरिनाहं, अहं तरिस्सामि ताय-पायाणं । आएसेण तए इह ठायव्वं विरहरहियाए ॥१४१ ॥ सुविणे वि मा विचिंतसु, जह मह नाहो रमिस्सए रमणिं । अवरं पि मज्झ चित्तं, आजम्मं तुज्झ आयत्तं ॥१४२॥ मह देहो सुनो च्चिय, वच्चउ दीवंतराणि विविहाणि । जीयं पुण तत्थेव य जत्थ तुमं वससि ससिवयणि ! ॥१४३।। सच्चं विय तव्वयणं, मन्नती विरहदुक्खसंतत्ता । सा आह नाह ! अहयं, सह तुमए आगमिस्सामि ॥१४४।। जीयं वा मरणं वा, धणक्खओ वा दुरंतवसणं वा । भवउ व जं वा तं वा सह तुमए आगमिस्सामि ॥१४५|| आगच्छसु त्ति भणियं हच्छं, सामग्गियं समग्गं पि । काऊणं सो चलिओ पउमावइमित्तसंजुत्तो ॥१४६।। जत्तामुहुत्तसमए, मयंककुमरस्स मंगलनिमित्तं । भाले चंदणतिलयं, सयमेव सयंपभा कुणइ ॥१४७॥ पत्तो य नीरतीरे, महल्लकल्लोलमिलियगयणयलं । पिच्छइ अदिट्ठपारं, महाअगाहं नईनाहं ॥१४८॥ सो सत्थवाहजत्तासमए जलवाहगहिरसंरावो । सरिनाहो मंगल्लयतूरारावं व निम्मवइ ॥१४९।। रंगततरंगावलिभुयाहिं परिरंभइ व्व संलावं । कुणइ व्व हंस-सारस-रहंग-सारंग-रसिएहिं ॥१५०॥ 2010_04 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसपालकहा तह सुह-सउणपयासयसमुहागयदहियपिंडसारिच्छे । हिंडिर-पंड-पिंडे, दिसिदिसि वित्थारए एसो ॥१५१॥ अविलक्खिय परवारं, कुवलयदलसामसलिलसंभार । पारावारं पिच्छिय सत्थाहो चिंतए चित्ते ॥१५२॥ दो वि तमालदलाभा दो, वि हु विसकक्कमीणमयरजुया । दो वि विसाला मिलिया, सहति नह-जलहिणो सरिसा ॥१५३।। उवरि कज्जलसामलगयणमहो पिच्छिऊण जलरासिं । नज्जइ नहस्स जलही, पडिबिंबमिमस्स वा गयणं ॥१५४|| सो आरूढो सहसा, पिल्लावइ पवहणाणि सव्वाणि । घण-पवन-नयण-माणस-विहिगाहिवविजयिवेगेण ॥१५५॥ पंजरमुक्को पारेवउ व्व बाणो व्व धणुहपरिमुक्को । पवहणनिवहो वच्चइ, मयंकमणपाडिसिद्धीए ॥१५६॥ दीवंतराणि सेलंतराणि वेलाउलाणि विविहाणि । मुंचेइ वहणनिवहो, पडिवनं दुज्जणजणु व्व ॥१५७।। दुग्गं पि जलहिसलिलं, धीरो वसणंतराणि वहणाणि । लंघित्ता समएणं, रक्खसदीवम्मि पत्ताणि ॥१५८।। वहणाणि नंगरित्ता इंधण-जल-जवसगहणकज्जम्मि । सव्वो वि किलिकिलंतो, वहणजणो झ त्ति उत्तरइ ॥१५९॥ पउमावई पयंपइ, मणहरवणराइराइयं रम्मं ।। अच्छरियसयाइनं दंसस मह नाह ! दीवमिणं ॥१६०॥ वियसियमुहसयवत्तो, कुवलयदलदीहरच्छि-पत्ताए । पउमावईए सहिउ, उत्तरइ इमो पवहणाओ ॥१६१॥ गिरि-सर-सरिया-काणण-पयासणा वाउलो सयं चेव । तिस्सा विदिन्नबाहो, सत्थाहो भमइ दीवम्मि ॥१६२।। एगत्थ तिलय-ताली-तमाल-वंजुल-पियालिपरिकलियं । कयली-लवली-मालइ-नव-मालइ-बउलसंच्छन्नं ॥१६३।। 2010_04 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सिरिपउमप्पहसामिचरिय पुनाग-नागवल्ली-लवंग-नारंग-पूग-संजुत्तं । जंबीर-अंब-जंबू-कयंब-निकुरंब-रमणिज्जं ॥१६४|| मिउअनिल-चलिर-तरु-सिर-विगलि-रस-वियास-कुसुम-नियरेहिं । देसंतरियजणाणं, सिग्धं अग्धं व जच्छंतं ॥१६५॥ पिच्छइ रम्मारामं, सह तीए पियाए सो परिसंतो । दुहभरहरम्मि कयलीहरम्मि तत्थेव वीसंतो ॥१६६॥ नियपवहणाउ तत्थ य आणाविय विवहवंजणसणाहं । भुंजइ मणुनमन्नं, परिवारपियाहिं संजुत्तो ॥१६७।। निब्बिंटीकयपंकयमयसयणिज्जं करित्तु रमणिज्जं । सह तीए पिययमाए, तं रयणिं वसइ तत्थेव ॥१६८॥ सो सुमरिय तव्वयणो, पण्णमेगं अंचलम्मि बंधित्ता । निद्दामुद्दियनयणं, तं सामरिसो परिच्चयइ ॥१६९॥ निभिच्चभिच्चवग्गं, अवि दूरासनसुत्तमह एसो । जग्गावइ संभंतो, जंपतो रक्ख रक्ख त्ति ॥१७०॥ रक्खसदीवी एसो, तत्तो मह रक्खसेण पाणपिया । खद्धा ममावि पावो, गिलणमणो हा ! समावडइ ॥१७१॥ परिवारो वि विउद्धो, मुद्धो किं किं ? ति जंपिरो सहसा । तस्सेव मग्गलग्गो, वहणं पइ वच्चए सिग्धं ॥१७२।। गंतूण पवहणजणं, जाणावइ पवहणाणि सव्वाणि । सो पिल्लावइ जइ वा संकियहिययाण कह थिरया ? ॥१७३॥ कयकिच्चं मनंतो दुट्ठप्पा नियमणम्मि नयणेहिं । अविरलगलिरजलेहि, तारसरं पलवए एसो ॥१७४।। हा चंदवयणि ! हा हरणिनयणि ! हा कुंदकलियसमरयणि ! । हा अमियवयणि ! हा रमणिरयणि ! तं कत्थ दिट्ठव्वा ? ||१७५॥ अइ छुहदुक्खंधेणं निसायेरणं न तेण रंभोरू ! । दिट्ठासि विणासिंतो, नबह एयारिसं रूवं ॥१७६॥ .. 2010_04 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसपालकहा इच्चाइविलवमाणो, धीराविओ धीरसारवयणेहिं । मित्तेहिं तओ वच्चइ, निच्चिंतो सिंहलाभिमुहो ॥१७७|| इत्तो य सुहं सुत्ता, तुसार-सिसिरेहिं निययपत्तेहिं । वीइज्जती कयलीतरूहिं रयणिं गमइ एसा ॥१७८॥ कलहंस-कुरर-सारस-रहंग-कोलाहलेहिं बहलेहिं । निदाए समं रयणी, खयं गया तीए मुद्धाए ॥१७९।। उम्मीलीयनयणा सा, न पाणनाहं न यावि परिवार । केवलमप्पाणं चिय, पसयच्छी पेच्छए तइया ॥१८०॥ वज्जनिवायसमाणं, वइयरमेयं वियाणिउं बाला । मुच्छानिमीलियच्छी, अचेयणत्तं पुणो पत्ता ॥१८१ ।। अइसिसिरमंदमारुयतुसारफरिसेण पत्तचेयण्णा । विलवेइ तारतारं, पिच्छंती तरलतारच्छी ॥१८॥ हा निक्कलंक ! हा रणनिसंक ! सुरसिंधुपुलिणसरिसंक ! हा हा मयंक ! कुलनहससंक ! तं कत्थ दट्ठव्वो ? ॥१८३।। मं मुत्तूणं अणाहं, भत्तं रत्तं सया विणयजुत्तं । काउमरण्णसरनं, कत्थ गओ नाह ! साहेसु ? ॥१८४॥ कुलदेवयाए वणदेवयाए आयासदेवयाए वा । नूणं सोहग्गनिही, मह नाहो संपयं हरिओ ॥१८५॥ सुबारबनिवासे-बंधुवियोगो पियस्स विरहो य । हा विहि ! हयास ! तुमए, समकालं चेव मह दिनो ॥१८६॥ इय तारतारविलवणपडिसद्दसमाउलं दिसाचक्कं । सह तीए रूयंतीए, मिलियं रूयइ व्व सहिविंदं ॥१८७॥ इय विविहं विलवित्ता, पियपयसंचारमग्गसंलग्गा । गंतुं जलनिहितीरे, वहणाणि नियच्छए बाला ॥१८८॥ सा ताणि अपिच्छंती, जंपइ सरिनाह ! कहसु मह नाहं । निल्लज्ज ! किं न याणसि, गज्जतो हरिय मह दइयं ? ॥१८९।। ___ 2010_04 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं निप्फट्ट ! संकिओ इव, कंपसि अप्पेसि किं न मह नाहं । रंगततरंगावलिभुयाहिं किं वा निवारेसि ? ॥१९०॥ एवं विलाववाउलवयणा बाला पलोयवए सहसा । चेलंचलम्मि सपुलयदेहा गंठिं सउक्कंठा ॥१९१॥ सा उन्निद्दकुसेसयदलचलनयणा विमुद्दए गठिं ।। पिच्छेइ पणं लिहियं, पत्तं तह वायए एवं ॥१९२॥ एएहिं पणकवड्डेहिं, निययजुग्गाणि रयणमइयाणि । आहरणाणि करिज्जसु, वियक्खणे ! सरियनियवयणं ॥१९३॥ तो हरिस-विसायाउलचित्ता चिंतेइ हंत ! पिच्छेसु । . एत्तिय दिणाणि वयणं, इमेण कह धारियं हियए ? ॥१९४॥ देहं हिययं वाणी तिन्नि वि अइनिठुराणि पुरिसाणं ।। हयविहिणा विहियाइं न याणिमो केहिं वि दलेहि ॥१९५॥ अहवा पढम नराण हिययं, दलेहिं अइनिठुरेहिं निम्मवियं । तत्तो अवसेसेहिं, कुलिस पि हु निम्मियं मन्ने ॥१९६।। तं नवपेम्मं रम्म, सा लीला ताणि छेयभणियाणि । पायडिय निठुरेणं, कहमिह मुक्का अहं इक्का ? ||१९७|| पढमं रायं पच्छा महंततावं रवि व्व कुव्वंता ।। दूरेण वंदणिज्जा न दंसणिज्जा धुवं पुरिसा ॥१९८॥ जइ कहवि मज्झ माणं , पारद्धं पिच्छिउं तए दुट्ठ ! । ता जइ वसिमे कत्थ वि, मुच्चंतो तो भवे लढें ॥१९९॥ किं सोइएण अहवा ? नियपियभणियं च नियय भणियं च । कज्ज चेव पमाणं, जइ दिव्वं होज्ज अणुकूलं ॥२०॥ तो उत्तरिज्जखंडं, गिण्हित्ता नियय जाणणनिमित्तं । तरुसिहरम्मि पडायं, वंसग्गे बंधए एसा ॥२०१॥ सिरिरिसहनाहपिडिमं, अप्पडिमं निम्मवित्त लिप्पमयं । वियसियनवकमलेहिं, तिसंज्झमह पूयए बाला ॥२०२॥ 2010_04 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसपालकहा बारस वि भावणाओ, भावविसुद्धा जिणिंद-चरियाणि । कम्मविवागं विविहं, निय चित्ते चिंतए निच्चं ॥२०३॥ इत्तो य सत्थवाहो, परमो दीवंतरेसु गंतूणं । पत्तो तत्थ नियच्छइ, पवणहयं तं ज्झयं झ त्ति ॥२०४॥ वहणाउ समुत्तिण्णो विम्हिओ सायरस्स तीरम्मि । लक्खणराइविराइयमेसो पयपद्धई नियइ ॥२०५॥ तं चेव पसंसंतो, गच्छंतो तयणुसारओ पत्तो । रयणगिरिगुहादारे, तं हरणच्छिं नियच्छेइ ॥२०६॥ पूयंति जिणपडिमं, पडिवालिय जाव ताव जिणपूयं । पुच्छइ मयच्छि ! कत्तो पत्ता ? किं वा कुलं तुज्झ ? ॥२०७॥ नाहं विरुद्धकारी, कयाविहे जामि ! कुणसु वीसंभं । धारेसु मज्झ विसए, बंधुमिव बंधुरं बुद्धिं ॥२०८॥ तत्तो कयवीसंभा,जंपइ हे भाय ! सत्थवाहेण । नियनाहेणं मयंकाभिहेणं चलिया इहं पत्ता ॥२०९॥ भग्गम्मि वहणनिवहे, अहयं फलिहेण एत्थ दीवम्मि । पत्ता ता जइ सच्चं, भाया ता नेसु वसिमम्मि ॥२१०॥ आम ति तेण भणिए, चलिया सह तेण दुद्ध-मुद्धच्छी । निययपणं गोवित्ता वच्चइ निच्चं पि निच्चिंता ॥२११॥ इत्तो य सत्थवाहो, तिस्सा पिच्छित्तु अच्छिविच्छोहो । चिंतइ विचलिय चित्तो, अहह अहो ! रूवसव्वस्सं ॥२१२॥ लच्छी व रई अहवा, सुरी व असुरी व किनरी एसा । नूणं न मणुस्सीणं, एवं रूवं भवे एवं ॥२१३॥ मन्ने सो च्चिय मयणो, जयं जयंतो वि जेण जस्स इमा । अभिरूवरूवरेहा, लग्गइ कंठे सउक्कंठा ॥२१४॥ इय चिंतिय सो जंपइ, संपइ मह मुद्धि ! माणसं लुद्धं । जइ वि निवारसि मारसि, ता नूणमखुट्टए काले ॥२१५॥ 2010_04 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सा कन्नदिनहत्था, जाव विहत्या न किं पि जंपेइ । बेडाहिदेवयाए, पयडाए पयपियं ताव ॥२१६।।। कयछउम ! पउम ! रे रे ! जामिं भणिऊण एरिसं पावं । जपंतस्स न फुटुं, तड त्ति जइ कह वि तुह हिययं ॥२१७॥ फुट्टिस्सामि अहं पुण, पावं सोउं पि अक्खमा एयं । जंपति तं पि पावा, पावं उचियं न जं सोउं ॥२१८॥ इय तव्वयणाणंतरमेरंडफलं व ताव संतत्तं । सह पउमवियप्पेणं, तड त्ति फुटुं तओ वहणं ॥२१९॥ संपत्तफलहखंडा, पयंडकल्लोलपिल्लिया बाला ।। परियडइ जलहिमज्झे, संसारिजिउ व्व संसारे ॥२२०॥ तीए वि देवयाए जलनिहिपडिया वि सा न उद्धरिया । तियसेहि वि पडियारो, न होइ धुवभाविकम्माणं ॥२२१॥ एगत्थ फलहखंडं, दट्टुं रोसारुणेण जलकरिणा । उल्लालियं समंता, सुदूरगयणंगणं पत्तं ॥२२२॥ सा फलहखंडलग्गा, रेहइ गयणगणम्मि उप्पइया । तेणेव सरीरेणं, नज्जइ सग्गम्मि संचलिया ॥२२३॥ निवडंत च्चिय विज्जाहरेण एगेण दिव्वजोगेण । सह तेण फलहएणं, गहिउं मुक्का विमाणम्मि ॥२२४।। सो आह खयरनाहो, अहयं करभोरु ! तारओ नाम । रम्मनयरस्स सामी, रहनेउरचक्कवालस्स ॥२२५।। मनसु ममं भयंत, पसीय पसयच्छि ! मावमन्नेसुं । खयरीणमंकपाली, लालियचरणा कुणसु रज्जं ॥२२६॥ तव्वयणसवणनिब्भरसंजायजर व्व वज्जरइ एसा । विज्जाहरकुलफंसण ! कुलं कलंकेसि किं निययं ? ॥२२७॥ जसतरुदहणकुकूलं कूलं वेयरणिनिरयसरियाए । बहुदुक्खरूक्खमूलं, पररमणी रमणमुझेसु ॥२२८॥ 2010_04 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसपालकहा अवकित्तिनडीरंगभंग, निययस्स गरुयवंसस्स । परदारसंगरंग, अंगं पावस्स परिहरसु ॥२२९॥ खयरेसरो पयंपइ, अहयं तुह जलहिवसणहरणाओ । पाणेहि वि उवयारी, जाओ सयवत्तपत्तच्छि ! ॥२३०॥ ता तं पि मज्झ वयणं, मन्निय पाणेहिं कुणसु उवयारं । अवगन्नियस्स तुमए, मरणं सरणं धुवं मज्झ ॥२३१ ।। सा आह हे वियक्खण ! एरिसमसमंजसं पयंपंतो । को जाणइ उवयारी अवयारी वा तुमं मज्झ ? ॥२३२॥ उद्धरिय सायराओ, खिवसि अगाहम्मि भवसमुद्दम्मि । मह सीलं भंतो, अहह अहो ! तंसि उवयारी ? ॥२३३॥ सच्चं चिय उवयारिणमहयं मन्नेमि मज्झ जह पाणा । परिरक्खिया तहेव य जइ रक्खसि संपयं सीलं ॥२३४॥ अह मनसि रायंधो, कयग्घसिरसेहरं ममं तत्तो । तत्थेव जलहिमज्झे, खिविसु तुम होसु सकयत्थो ॥२३५।। वरमिह समुद्दपडणं, जलणपवेसो व सत्थघाओ वा । आजम्मनिक्कलंक, न सीलरयणं नियं भग्गं ॥२३६॥ इय तव्वयणसुहारसपसंतसंतावपावपब्भारो । सो आह जुत्तमुत्तं सुंदरि ! तुमए इमं सव्वं ॥२३७॥ दुग्गइगमपमुहाओ, दोससमूहाओ वारिओ तुमए । ता कहसु किंपि कज्जं समीहियं जेण साहेमि ॥२३८।। सा सव्वं नियवइयरमामूलं कहिय जंपए तत्तो । तह कुणसु सुद्धसीलं, निव्वाहं नेमि जह अहयं ॥२३९।। अंजणमदिस्सकरणं, परविज्जाछेयणिं तहा विज्जं । रूवपरवित्तिकारयगुलियं अप्पित्तु सो तिस्सा ॥२४०॥ आराम-सरिसरोवरसमूहरम्मम्मि सुंसुमारपुरे । तं मुत्तूणं खयरो, सयं नियं ठाणमणुपत्तो ॥२ ४१ ।। 2010_04 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सिरिपउमप्पहसामिचरियं तीए गुलियाए एसा, नररूवं निम्भवित्तु अभिरूवं । पविसइ पुरस्स मझे, गच्छइ वुड्ढाए गेहम्मि ॥२४२ ।। पवसिय सुयाइ तीए, सुउ त्ति पडिवज्जिया अदिट्ठा वि । दिट्ठा वि अदिट्ठा वि य, मिलंति धणियं सपुत्राणं ॥२४३॥ नामं जणाण मज्झे पयडइ अप्पस्स साहसंको त्ति । विम्हावइ रूवेणं, कलाहिं सयलं पुरीलोयं ॥२४४।। वुड्ढाए पणस्सद्धं, अप्पित्ता आणवेइ सिहिपिंछे । हिंगुल-गुलियापमुहं वनं अनेण अद्धेणं ॥२४५॥ बरिहिणिपिच्छवएहिं, बहुविहविच्छित्ति भत्तिसंजुत्तं । निम्मवइ तालविंटं, कित्तियदिवसेहिमइरम्मं ॥२४६।। एगत्थ रायवाडी, हय-गय-पाइक्कचक्कसकिन्ना । तह विहियं नामंकं, एवं नरवम्मनरवइणो ॥२४७।। अवरत्थ सपायारं, पासायपरंपराहिं रमणिज्जं । रइयं विहारसहियं, तं सयलं सुंसुमारपुरं ॥२४८।। भणिया वुड्ढा गच्छसु, रायपहे तालविंटवरमेयं । पंचहि सएहिं सोलस अहिएहिं विक्किणिज्जासु ॥२४९॥ तं गिण्हिय रायपहे, सा गंतुं पुरजणाण दंसेइ । निच्चं पि जणो पिच्छइ, चयइ महाचं ति सव्वो वि ॥२५०॥ पुरजणपरंपराए, रनो कनेसु निवडिया वत्ता । तेण वि सकोउएणं, आणविय निरक्खियं सम्मं ॥२५१ ।। त नवविनाणं तह, नियनामं पिच्छिऊण तुट्टेणं । दुगुणं मुल्लं तिस्सा, दवावियं तेण नरवइणा ॥२५२॥ दाणेसराण विहवेसराण, दक्खाण तुट्ठचित्ताण । गरुयाण पत्तकालं, नत्थि अदेयं जए किं चि ॥२५३॥ कस्सेयं विव्राणं रना पुट्ठा पयंपए वुड्ढा । मह देव ! देवकुमराकारस्स सुयस्स कोसल्लं ॥२५४।। 2010_04 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा उल्लसियकोउहल्लेण, राइणा आहवित्तु सयमेव । अन्नं पि किं पि जाणसि, एवं सो पुच्छिओ वयइ ॥ २५५ ॥ रमणीणं चउसट्ठिं, कलाबहत्तरं च पुरिसाणं । सम्मं जाणेमि जए, तं नत्थि न जं वियाणामि ॥ २५६ ॥ भणियं नराहिवइणा, मज्झ सुया संति अयल - विजयाइ । सयलं कलाकलावं, ते सव्वे जाणविज्जासु ॥ २५७॥ तो तेण छंद - लक्खण-तक्क- धणुव्वेय-नव्वकव्वाणि । दंडाउहछत्तीसं, सव्वे अज्झाविया कुमरा ॥२५८॥ थेवेहिं वि दिवसेहिं, जाणविया तेण तह इमे कुमरा । वाएण सुरगुरुं पि हु, जिणिति तह एक्कहेलाए ॥ २५९ ॥ राया विम्हियचित्तो, जंपर पिच्छित्तु कुमरकोसल्लं । हो साहसंक ! साहसु, किं दिज्जइ तुज्झ मणइट्ठे ? ॥२६० ॥ सो आह हे नरेसर ! देसु महं सुकमंडवीमुद्दं । गामेण व देसेण व, रज्जेण वि नत्थि मे कज्जं ॥२६१ ॥ ना तह त्ति विहिए, सो मुद्दं पाविऊण सिच्छाए । करणायारं सव्वं, करेइ रत्ना अणुनाओ ॥ २६२ ॥ जंप य मज्झ करणे, दाणं दायव्वमद्धपरिमाणं । न उणो कयाणगेसुं, असच्चकहणं कहेयव्वं ॥ २६३ ॥ जो पुण असच्चकरणं, कहिज्ज पावस्स तस्स कायव्वो । सिच्छाए मए दंडो, इय एसा मज्झ छेवाडी ॥ २६४॥ समयंतरम्मि स्नो, अत्थाणसहागयस्स पुरलोओ । विन्नवइ समागंतुं, नरिंद ! दंसेसु जणठाणं ॥२६५॥ एसा पुरी असेसा, केण वि तह तक्केरण परिमुट्ठा । जह मणि - सुवण - सुण्णा, धणिजणभवणावली जाया ॥ २६६ ॥ सह परियणेण सामिय ! जागरमाणेहिं सावहाणेहिं । दीसइ न को वि पुरिसो, निसाए नयरम्मि भममाणो ॥ २६७॥ 2010_04 २१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं नवरं पभायसमए, तंसं-चउरंसमाययं वढें । तह पउमदलायारं, दीसइ खत्तं खयं तेणं ॥२६८॥ अह नरवइणा उब्भड-भिउडी-भंगुर-करालभालेण । आहविय कोट्टवालो, भणिओ किं रक्खसे न पुरं ? ॥२६९।। सो आह नाह ! नाहं, चोरं पिच्छामि पिच्छमाणो वि । जइ रुट्ठोसि तओ पह ! अनं आरक्खियं कुणसु ॥२७०॥ अत्थाणसहालोयं, सव्वं वीसज्जिऊण नरनाहो । अंतेउरम्मि पत्तो, विविहोवाएहिं चिंतेइ ॥२७१ ।। साहससज्ज कज्जं, नाऊणं तमाए घणतमतमाए । तो खग्गवग्गहत्थो, हत्थं निग्गच्छए राया ॥२७२।। सयमेव सुनदेउलसुनागाराइविविहठाणेसु । पडिपाडयमवणिंदो, पडच्चरं पिच्छए निहुओ ॥२७३॥ भमिऊणं सव्वत्थ वि, सो पत्तो जाव निययपासाए । ता निसुणइ सव्वत्तो, पाहरिए पोक्करेमाणे ॥२७४॥ हे आरक्खयपुरिसा ! पुरिससहस्सेहिं रक्खिया गाढं । चोरेण अज्ज मुसिया, नरेसकोसा असेसा वि ॥२७५।। तं सोऊणं चिंतइ, अमंदमंदक्खपूरीओ राया । हणणाय जस्स चलिओ, अहयं हा ! तेण किं विहियं ॥२७६।। तत्तो विसन्नचित्तो, जाणूवरिविहियनिययसिरकमलो । जा चिट्ठइ आगंतुं, सचिवेणं ताव विव्रत्तो ॥२७७॥ कि कणसि चित्तखेदं, सामिय ! पिच्छेस् मज्झ सामत्थं । दिणपंचगेण चोरो, धुवं मए संगहेयव्वो ॥२७८॥ ता काऊण पसायं, मुंच विसायं करेसु दिणकिच्चं । निच्चं निच्चिंतमणा, सचिवेहिं हवंति रायाणो ॥२७९।। एसा इ तप्पइना, पुरीए सव्वत्थ झ नि वित्थरिया । जह मंती-मंतेहिं गिण्हस्सइ चोरम 2010_04 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा अह अवसोयणि-तालुग्घाडणि विज्जाए मंतिगेहं सो । परिमुसइ पारिमोसियपावियलीहो निसीहम्मि ॥२८१ ॥ सचिवस्स चोरचिंता, संताणगयस्स निययपरिसेहिं । कहियं तुह भंडारा, परिमुसिया अज्ज नीसेसा ॥२८२ ।। एवं गेरुय-तावस-तिदंड-कावालिया य जोइसिया । विहिय पइना तेणं, विडंबिया हरिय सव्वस्सं ॥२८३॥ अह रायपायपासं, पत्ता वीसंभघाइणी निच्चं । जंपेइ सिंभली धुवमहं, मुणिस्सामि पहु ! चोरं ॥२८४॥ नामेण मयरदाढा, गाढावट्ठभसंजुया एसा । पत्ता नियम्मि भवणे, विविहोवाए वि चिंतेइ ॥२८५॥ सो तक्करो निसाए पत्तो तिस्सा दुवारदेसम्मि । काऊण अंगभोगं, सारं सज्जित्तू सिंगारं ॥२८६॥ पढम चिय सो पिच्छइ, दुवारदेसम्मि दासियं खुज्जं । तो मुट्ठिपहारेणं, सज्जं सज्जो कुणइ खुजं ॥२८७॥ सा सिंभलीए गंतुं, साहइ पिच्छेसु मज्झ तणुलच्छिं । केणा वि सुपुरिसेणं, विहिया एयारिसी अहयं ॥२८८॥ सो कत्थ कत्थ ? चिट्ठइ, पुरिसो त्ति पयंपिरी तओ अक्का । पत्ता तस्स सयासे, दासीए तीए सह सहसा ॥२८९॥ सा कुट्टिणी पयंपइ, हत्थं हे वच्छ ! कुणसु मं तरुणिं । जं मग्गसि सिच्छाए, दव्वं तं देमि तुह सव्वं ॥२९०॥ सो आह तुज्झ दव्वं, सव्वं साहीणमंब ! मह चेव । किं पुण तं चिय कज्ज, तुमए जमहं पयंपेमि ॥२९१॥ निबिडं कवाडसंपुडमाबंधित्ता गिहस्स मज्झम्मि । ठाउं ओसहिमेयं, नियवयणे पक्खिविज्जासु ॥२९२॥ जाए पभायसमए, तरुणतरट्टी हवेसि तं अक्के । अक्करस वि रूवेणं, निएण थंभेसि तयणु रहं ॥२९३॥ 2010_04 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तत्तो कयवीसंभा तह त्ति सव्वं पि सिंभली कुणइ । मुसिऊणं तग्गेहं, तत्तो निग्गच्छए धुत्तो ॥२९४।। जामिणिविरामसमए, सिंभलीधूया गिहस्स मज्झम्मि । निसुणेइ भुंकमाणिं खरस्सरेणं खरं घोरं ॥२९५॥ भीया मंदिरदारं, दाराविय पिच्छउं च खरिरूवं । विलवइ तिस्सा धूया हा ! हय विहिणा हया अहयं ॥२९६॥ अइविसम-कज्जकोडिपयडियमहिमाए तुज्झ बुद्धीए । हा जणणि ! जणणि । जायं, अवसाणं केरिसं इण्डिं ? ॥२९७॥ दिवसंतरम्मि रनो, अणण्णलायण्णपुत्रचंगंगा । कन्ना हिरव्ररेहा, अवहरिया तेण तेणेण ॥२९८॥ कन्नावहारपरिभवगुरुदुहपब्भारभारिओ दूरं ।। राया वियारगोयरपत्तो, पडहं दवावेइ ॥२९९।। जो को वि मज्झ कन्नं, चोरं मुणिऊण आणए धीरो । तस्सा हं तं कन्नं, देमि जहिच्छे तहा लच्छिं ॥३०॥ अह साहसंककुमरो, सहसा भमिरं छिवित्तुं तं पडहं । पत्तो रायसयासे, जंपइ चोरं गहिस्सामि ॥३०१ ।। आणेमि तुज्झ दुहियं, सुहियं नयरं करेमि नीसेसं । तह कवडपडुपडच्चरचारं वारेमि निब्भंतं ॥३०२।। इय विहियगुरुपइनो, रन्नो सयहत्थबीडयं लखें । पत्तो निययावासं, परिवार वारए एवं ॥३०३॥ अन्न न जग्गेयव्वं, जागरमाणेहिं नेय ससियव्वं । ताला न बंधियव्वा, उवेहणिज्जो धुवं चोरो ॥३०४।। अदिस्सीकरणं जणमाहप्पापिच्छणिज्जरूवधरो । चिट्ठइ सयं सरंतो, परविज्जा छेयणिं विज्जं ॥३०५॥ इत्तो य तप्पइण्णं, सोऊणमणप्पदप्पदुप्पिच्छो । बहुतमतमाए पत्तो, पडच्चरो तस्स भवणम्मि ३०६॥ 2010_04 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा २५ सो अवसोयणिदाण, करित्तु पविसई भवणमज्झम्मि । पिच्छइ विहडियतालं, दारं भंडारभवणस्स ॥३०७॥ . हरिसियचित्तो तत्तो, सज्जणजणमणरहस्स मिव पिसुणो । तब्भवणसारसारं, गहिडं निग्गच्छए हत्थं ॥३०८॥ लोहागरिसणमणिणो, लोहं पिव साहसंककुमरो सो । तस्सेव मग्गलग्गो, निग्गच्छइ खग्गवग्गकरो ॥३०९॥ ते दो वि धीरवीरा, कमसो नयरस्स बाहिरुद्देसं । गरुगिरिविवरं पत्ता जममुहविवरं व पच्चक्खं ॥३१०॥ सव्वं दव्वं चोरो मुत्तूणनिकामकामरायंधो । रायदुहियाए पासे, गंतूण इमं पयंपेइ ॥३११॥ अज्ज वि न मज्झ वयणं, करेसि करभोरु ! रुयसि किं निच्चं ? मयनयणि ! मयं जाणसु, मं धुवमवगणियं तुमए ॥३१२॥ मणिमयनवधवलहरं, इमं इमे कणयरयणमणिकोसा । एसो दासो अहयं, सव्वं तुह चेव आयत्तं ॥३१३।। अबलाए बलक्कारो, न कीरए तक्करो वि तेणाहं । पडुपयडचाडुवयणं, भणेमि रंभोरु ! पुणरुत्तं ॥३१४|| सा आह अहोवयणा, रे रे निल्लज्ज ! मुक्कमज्जाय ! रे! कुमारियमारिय मं परदारिय हवसु सुहिओ ॥३१५॥ जीवंती पुण नाहं, अहमाहम ! होमि वल्लहा तुज्झ । अज्जेवपावपडिहिसि, इमेण पावेण निभंतं ॥३१६॥ इय तग्गिराइरुट्ठो, नहयलनीलं करालकरवालं । आयड्ढिय मुद्धाए वहाय उद्धाइओ तेणो ॥३१७॥ अंजणमावज्जित्ता तं हक्कइ साहसंककुमरो वि । रे रे कुमारिमारय ! मरेसि पावेसि पावफलं ॥३१८॥ अनोत्र दिट्ठिमीलणतक्खणसंजायमच्छरच्छन्ना । अच्छरियकर धीरा, करंति दारुणरणं दो वि ॥३१९।। अह साहसंकनिब्भरखग्गपहारेण आहयं तस्स । खग्गं भग्गं तक्करचित्तेणं चेव सह सहसा ॥३२०॥ 2010_04 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सो भग्गखग्गदंडो, गिण्हंतो गरुयमुग्गरं तेणं । पघाणं पाडिय, बद्धो निबिडेहिं बंधेहिं ॥३२१ ॥ संठविय तं कुमारि, दारं बंधिन्तु तस्स विवरस्स । सो रायपायपासे, पभायसमयम्मि संपत्तो ॥३२२॥ तो आह महीनाहं, हिरन्नरेहं निएस नियकन्नं । नियनिय गहणनिमित्तं, पुरजणजाणवणिं कुणसु ॥ ३२३॥ इय तग्गिरं निसामिय, पसमिय परिहवदुहो महीनाहो । तेण समं संपत्तो, तक्करपायालभवणम्मि ॥३२४|| नायरजणाण राया, निय निय दव्वं दवावए सव्वं । गरुया परस्स विहवे, गुरुए वि हवंति निरविक्खा ॥ ३२५॥ रमणीसु पत्तरेहा, हिरनरेहा बला वि तस्सेव । सिरिपउमप्पहसामिचरियं कन्ना दिन्ना रना, चयंति गुरुया न पडिवन्नं ॥३२६॥ सो नियमणम्मि मन्नइ, गुलियासंच्छन्नरमणिरुवस्स । कन्ना मज्झ वि दिज्जइ, अच्छरियं पिच्छ अच्छरियं ॥ ३२७॥ दोह वि नराण दुह वि रमणीण कयावि हवइ वीवाहो तं नत्थि जं न दीसइ, अच्छीहिं इमाहिं जुन्नाहिं ॥३२८॥ उम्मुक्कबंधणाओ, तो राया तक्कराओ तं अक्कं । पुणरवि रमणीरूवं, कारइ उल्लसियकारुण्णो ॥ ३२९॥ अवसोवणिपमुहाओ, गिण्हिय विज्जाउ तस्स पासाओ । रायावियारचउरो, जीवंतं मुंचए चोरं ॥३३०॥ इत्थंरम्मि सिंहलदीवे, विविहं समज्जिउं विहवं । दिव्ववसेण मयंको, संपत्तो सुंसुमारपुरे ॥३३१॥ वहणाणि नंगरित्ता, थालं भरिऊण विविहवत्थूणं । सो साहसंकपासे, पत्तो दाणस्स दाणत्थं ॥ ३३२॥ उवलक्खिऊण सहसा, जंपर अह साहसंककुमरो वि । हे सत्थवाह ! साहसु, किं किं तुह अत्थि वहणेसु ? ||३३३|| 2010_04 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा २७ निययकयाणगसंखा, लिहाविया तेण सत्थवाहेण । सव्वस्स साहसंको, दाणद्धं मुंचए तस्स ॥३३४॥ पुच्छइ य तुज्झ वहणे, अहियं नहि अत्थि किंचि मह कहसु । इण्डिं अहिए कहिए, निद्दोसो दोसवं पच्छा ॥३३५॥ सो आह नत्थि किंचि वि, अहियं कहियाउ मज्झ वहणेसु । तुह पायपुरो सच्चं, निच्चं चिय नाह ! कहियव्वं ॥३३६॥ उन्भडभिउडीभासुरभालो जंपेइ दट्ठअहरुट्ठो । अह रुट्ठो रे ! पिच्छह, पिच्छह एयस्स वहणाई ॥३३७॥ सुंकद्धे मुक्के वि हु, एस दुरप्पा न जंपए सच्चं । संपइ पयंडदंडं, करेमि एयस्स पावस्स ॥३३८।। नारायपाणिनायर-नर-परियरिओ तओ सयं चेव । वहणाणि तस्स गंतुं, पिच्छइ गुरुदप्पदुप्पिच्छो ॥३३९।। मंजिट्ठा ठाणाई, फाडावइ सह इमस्स हियएण । सह तस्स जीविएणं, तुलाए आरोवए सव्वं ॥३४०॥ देहम्मि तस्स अंकणमिव अंकं तोलियाण वत्थूणं । कारइ तओ नियच्छइ दुगुणं कहियाउ सव्वं पि ॥३४१ ।। मज्झ वि करणायारं, अरे दुरायार ! तं विलुपेसि । इय भणिय तेण पहओ, सो पाणहिया पहारेणं ॥३४२॥ गहिऊणं सव्वस्सं, तेणं बंधाविऊण तेणु व्व । नीओ निययावासं, नीइपहं पायडतेण ॥३४३॥ अइनिबिडनिगडजडिओ, लंबा कंबाइघायसंघायं । सो सहइ ससंकेणं, दिज्जंतं साहसंकेण ॥३४४॥ उसिणं सलिलं सिसिरं च भोयणं सो लहेइ संझाए । निद्दा सुहं न पावइ, लच्छिं पिव पुनपरिहीणो ॥३४५॥ अह सत्थवाहदुहभरभारियपरिवारनरसमहेहिं । विनत्तो नरनाहो, तमाह आहविय नियमंतिं ॥३४६।। 2010_04 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं देसंतरियनराणं, मारण-भोयणनिवारणाइदुहं । किं देसि ? अप्पसिद्धी, एसा देसंतरे गमिही ॥३४७॥ सो आह सावराहं, नाहं मुंचेमि नाह ! कह वि इमं । तह वि हु पहुवयणाओ, विमुक्कबंधो कुणइ सेवं ॥३४८॥ एवं ति महीवइणा, भणिए सो साहसंककुमरस्स । निच्चं निब्बंधेणं, विमुक्कबंधो कुणइ सेवं ॥३४९।। सह किंकरेहिं भुंजइ, जुंजइ आइट्ठ सव्व किच्चाणि । चिट्ठइ दुवारदेसे, निच्चं निम्भिच्चभिच्चु व्व ॥३५०॥ अह साहसंकसम्मुहमवलोयंतो विचिंतए एसो । किं पउमावइ भाया ? अहवा पउमावई चेव ? ॥३५१ ।। धुवमेस जमलजाओ, तिस्सा अह वेगबिंटखुडिओ व । अहवा सा चेव इमा, गुलिया मंताण संछन्ना ॥३५२॥ चिरकालनिबिडसेवा, पसनवयणं वियाणिउं मंतिं । विनवइ नाह ! मुंचसु, मिलेमि निय जणणि-जणयाण ॥३५३॥ हसिऊण सो पयंपइ, नाहं मुंचेमि जीवमाणं तं । मह पासे चेव ठिओ, जं जाणसि तं कुणिज्जासु ॥३५४।। सो आह सत्थवाहो, सामिय ! मा कुणसु दीहरं रोसं । केणावि पयारेणं, मुंच पसायं करेऊणं ॥३५५।। तो आह साहसंको, जइ चरणतलेसु घयपलं मज्झ । आवट्टयसि तओ हं, मुएमि नन्नह जुगते वि ॥३५६।। आम ति तेण भणिए, भवणोवरिभूमियाइ सो मंती । सज्जोभिमाणपूरणसज्जो सिज्ज समल्लियइ ॥३५७।। सिसिरजलपुत्रपालयहत्थो, सुत्तस्स सत्थवाहो से । पक्खालइ पायतले, उप्पलकोमलकरयलेहिं ॥३५८।। नासासुहयरघयपलपुत्रं कच्चोलमप्पणो पासे । मुत्तुं मंद मंदं, पयजुयलं तप्पए तस्स ॥३५९॥ । पहरे वि वइक्कंते, पारं न वि देइ घयपलं कह वि । 2010_04 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा तह वि हु निय ववसायं न चयइ सो सचिवभयभीओ || ३६०॥ तं निव्विन्नं नाउं घोरं घोरायए तओ मंती । उप्पाडिय कच्चोलं, रंको विव झत्ति सो पियइ ॥ ३६१ ॥ रे रे पाविट्ठ ! घयं, अहमाहम ! पियसि मज्झ पुरओ वि । इय जंपिय तेण हओ, सो निठुरपायघाएण ॥३६२॥ कहसु किं तुज्झ कीरए ? तेणुतो एवमाह सो विलिओ । तुह हत्था मह पुट्ठी, जं जाणसि तं कुणिज्जासु ॥३६३॥ बाहाए सत्थवाहं, धरिऊण निवेसिऊण पल्लंके । रमणी होउं जंपइ, सा तुह नाहस्स पाणपिया ॥ ३६४ ॥ अभिमाणवहणसायर ! सायरमज्झे तए अहं खित्ता । धिट्ठाए मए तं पि हु, पिययम ! दुहसायरे खित्तो ॥ ३६५॥ नियपिययमा सामिय ! कुणसु पसायं खमेसु सव्वं पि । को वा पहूण रोसो, निय भिच्चे सावराहे वि ॥ ३६६ ॥ कन्ना हिरन्नरेहा, हिरन - मणि-पमुहवत्थु - वित्थारो । खयरदिन्ना विज्जा, एवं सव्वं तुहायत्तं ॥ ३६७॥ तव्वइयरं वियाणिय, पमोयवियसंतनित्तसयवत्तो । जंपइ नियंकपालीकयपाणिपिओ अह मयंको ॥ ३६८ ॥ अइ उद्धुरस्स अइनिठुरस्स मह विहियगरुयदोस्स । भामिणि ! गइंदगामिणी कित्तियमित्तं तए विहियं ? ॥ ३६९॥ भग्गो मडप्फरो तह, अभग्गसिरसेहरस्स मह तुमए । जेण सयवत्तनेत्ता, चत्ता एगागिणी दइया ॥ ३७० ॥ मन्त्रे धन्नो अहयं, सोहग्गसिरोमणीण मह रेहा । आजम्मसुद्धसीला, गयहीला जस्स तं दइया ॥३७१ ॥ राया वि वइयरमिणं, वियाणिउं तत्थ झत्ति संपत्तो । चिंतइ अहो ! इमाए, चरियं अच्छरियसंजणयं ॥ ३७२ ॥ नायं ववसायं वा, परक्कमं साहसं च विन्नाणं कित्तियमित्तमिमाए, अबलाए वयं पसंसेमो ? ॥ ३७३ ॥ 2010_04 २९ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सिरिपउमप्पहसामिचरियं चक्खुद्दोसभएणं, इमाउ अबलाउ हंत ! भन्नति । तत्तेण इमाहितो, मने बलवं धुवं नन्नो ॥३७४॥ पउमावई पयंपइ, नरेसरो कहसु मज्झ दुहियाए । भत्तारविरहियाए, को नाम गई हवउ इण्हिं ? ||३७५।। सा हे नरेसर ! परिणीया जा मए मयंकेण । सा परिणीया जम्हा, हिययत्थो चेव मह नाहो ॥३७६।। नियदेहवननिज्जियहिरव्ररेहा हिरव्ररेहा वि ।। हवउ मह नाह दइया, न विरुद्धं किं पि नरनाह ! ॥३७७॥ तत्तो हिरनरेहा, दिना तस्सेव तीइ वयणेण । तिस्सा अन्नं पि पयं, रना दिन सयं चेव ॥३७८।। कित्तियमित्ते समए समइक्कंतम्मि तम्मि रोहियए । नियजणयविओगेणं, तत्तो विनवइ नरनाहं ॥३७९॥ मह विरहदुसहदुहभरनिब्भरभरियाण जणणि-जणयाण । हे सामि ! जामि मेलणकज्जे जइ होइ आएसो ॥३८०॥ तस्सायरं वियाणिय, दुहसायरकारणं पि तग्गमणं । आइसइ निवो जइ वा, वसंति पहिएहिं न हि देसा ॥३८१ ।। सत्थाहसहससहिओ, असंखसामंतमित्तसंजुत्तो । चलिओ नियपाणपिया, जुयलजुओ नियपुराभिमुहो ॥३८२॥ कल्लोललोल-हय-गयवरिओ सिरधरियधवलवरछत्तो । पविसइ पुरम्मि पुरजणमणनयणमहुसवायंतो ॥३८३ ।। पत्तो नियपासायं, पणमइ नियमाय-पाय-पायाणं । अंकम्मि तेहिं धरिओ, पहरिसजलपुवनयणेहिं ॥३८४॥ सो समुवज्जियविहवो, परोवयारं करेइ निरविक्खं । कारइ पडिमालक्खं, चउव्विहं पूयए संघं ॥३८५॥ अह आरामे अत्तारामो रामा-रमाइपरिहारी । निक्कारणमुवयारी सूरि मइसायरो पत्तो ॥३८६।। हिययत्थविमलकेवलजलनिहिडिंडीरपंडुपिंडेव । 2010_04 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा तस्स वरदंतदित्ती पिडं पिव सहइ मुहवत्थं ॥३८७।। मयरद्धयनरनाहो, दुद्धरतवखवियपावपन्भारं ।। कहिय जिनागमसारं, नमिउं चलिओ मुणिवरिदं ॥३८८॥ विनाय तयागमणो, बंधुररोमंचदंतुरसरीरो । सो नियपियाहिं सहिओ, वच्चइ मुणिनाहनमणत्थं ॥३८९॥ पणमित्तु निविट्ठाणं, मयंकपमुहाण महुरसंरावो । संसारासारत्तं, कहेइ गुणसायरो सूरी ॥३९०॥ कज्जम्मि जस्स किज्जइ, आजम्मं विविहपावसंभारो । सो चेव अहो ! देहो, वत्तं न कहेइ विहतो २९१ ।। सत्तुत्तरसयमम्मे, अठुत्तरवाहिसयसमाइन्ने सट्ठिसयसंधिबंधे, को पडिबंधो सरिरम्मि ॥३९२।। तह हंति देहमज्झे, सिराउ (सहरणिनामधिज्जाओ । नाभिपभवाउ सीसं, संपत्ताउ सयं सढें ॥३९३॥ ताण सिराणमवग्गहविघायभावम्मि होइ जह सखं । झ त्ति उवग्गह-घाया, सुय-चक्खू-घाण-जीहाणं ॥३९४|| तह अन्नं सट्ठसयं, इमम्मि देहम्मि नाभिपभवाणं । पायतलमुवगयाणं, पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥३९५॥ ताणमणुग्गहभावे, जंघाण बलं हवेइ अइविउलं । उवघाए अंधत्तं, हवइ सिरोवेयणा तह य ॥३९६।। तह नाहिप्पभवाओ सट्ठिसयं होइ गुदपविट्ठाओ । वाऊमुत्त-पुरीसं, पवत्तए उग्गहे तेसिं ॥३९७॥ उवघाए पुण अरिसा, पंडुररोगा य वेगघाओ य । तह अन्नं सट्ठसय, सिराण तिरियंगयाणं च ॥३९८॥ अविघाए बाहुबलं, कुच्छीवियणा य ताण घायम्मि । पणवीसं पित्तधरा, पणवीसं सिंभधरणीओ ॥३९९॥ दससक्कधरा एवं, सिराउ परिसस्स हंति सत्त सया । इत्थीण तीस हीणा, य वीस हीणा य संढस्स ॥४००॥ 2010_04 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सत्तसय सिराजाले, जाले विव अणिमिसस्स पडियस्स । पुरिसस्स दुक्खगेहे देहे को नाम पडीबंधो ? ||४०१ ॥ पित्ताइदोसकोसे, तत्तो देहम्मि चयह पडिबंधं । निब्बंधेणं धम्मं, करेह जइ महह सिवसोक्खं ॥ ४०२ ॥ भणियं च निवडंतदंतमुदयंतपलियमुट्ठेतवाहपब्भारं । अंग पि ताव निययं, वेरग्गकरं किमवरेहिं ? ||४०३ || कप्पद्दुमं तणेण व काणकवड्डेण कामधेनुं व । चिंतामणिमुवलेण व, किणिज्जदेहेण धम्म- धणं ? ॥४०४ ॥ विनवइ अह मयंको, भयवं ! जम्मंतरम्मि' निम्मवियं । किमसंपन्नं पुन्नं, सा वाया जं सिरी जाया ॥४०५॥ अह आह मुणी तुमए, दाणं दाऊण खंडिओ भावो । जम्मंतरम्मि निसुणसु, तो नियजम्मं कहिज्जत' ॥४०६॥ मयंकस्स पुव्वजम्मवण्णणं दिसि दिसि रम्मारामो, - गिरि- सर - सरियाहिं निच्चमभिरामो । गामो पूरियकामो, इहत्थि धनउरवरनामो ॥ ४०७॥ खत्तियवंसुप्पन्नो, गंभीरिमगरिममहिमसंपन्नो । तत्थासि हंसपालो, दालिदुमस्स आवालो ॥४०८॥ अहवा । जे जे गरुया जे जे वियक्खणा जाण फुरइ माहप्पं । संसग्गं तेहि समं, दारिद्दं कुणइ सुयणो व्व ॥४०९॥ उक्तं च । - परीक्ष्य सत्कुलं विद्यां शीलं शौर्य सुरूपताम् । विधिर्ददाति निपुणं, कन्यामिव दरिद्रताम् ॥ ४१० ॥ १. किं कियं सुकयदुकियं । अह भणइ सूरिराओ अह भणइ सूरिराओ निसुणस तो नियजम्मं कहियंतं ॥ पा० ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसपालकहा ३ ३ परिवज्जिय परपीला, वरसीला निच्चचत्तपरहीला ।। परिहरिय नम्मलीला, भज्जा लीलावई तस्स ॥४११॥ सो अन्नया य विहवज्जणाय देसतरम्मि वच्चेइ । अहवा धणस्स कज्जे, किज्जइ किं किं न लुद्धेहिं ? ॥४१२॥ गामंतराणि नगरंतराणि देसंतराणि विविहाणि । हिंडंतो वि न पावइ, लच्छिं तुच्छं पि निब्भग्गो ॥४१३॥ वलिओ तेणेव मुहेण झ त्ति पिच्छेइ सन्निवेसम्मि । एगत्थ बिल्लतरुणो, वडवायं धरणितललग्गं ॥४१४|| बिल्लपलासेसु धुवं, दव्वं ति विणिच्छिऊण निय चित्ते । वडवायं उम्मलइ, हत्थं सो हरिसपडिहत्थो ॥४१५॥ सो हेमटंकमिक्कं, तत्थ निरिक्खित्त चिंतइ विसण्णो । मेहे अमोहधारे, अहियं न वि लहइ बप्पीहो ॥४१६॥ पत्तो नियमावासं, सव्वं साहेइ निययभज्जाए । सा आह नाह ! अहियं, लिहियाउ न लब्भए कहवि ॥४१७॥ मा कुणसु सामि ! खेयं, सेयं तं चेव पत्तकालं जं । निच्चं निच्चतमणो, करेस सव्वाणि किच्चाणि ॥४१८॥ नियपियगिराए तत्तो, गंतं वीहीए तेण टंकेण । आणेइ कलमसालिं, दुद्धं घय-सक्करासहियं ॥४१९॥ छहियस्स दूरदेसंतराउ पत्तस्स निययनाहस्स ।। परमनं निम्माविय, सघयं परिवेसियं तीए ॥४२०॥ अह तस्स गिहे पत्तो, जयदत्तो नाम कामपरिचत्तो । मासोपवासकारी, महामणी मणिय परमत्थो ॥४२१॥ तस्सागमणमणब्भ, वरिसं पि व हरिसनिब्भरो एसो । मनतो उप्पाडइ, भाणं परमन्नसंपण्णं ॥४२२॥ तत्तो मुणिंदपत्ते, भवजलनिहिं जाणवत्तसारिच्छे । घय-सक्कराइसहियं, परमनं तेण पक्खित्तं ॥४२३॥ 2010_04 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अणुगंतूण मुणिंद, चलिओ तनो विचिंतए चित्ते । मन्ने धन्नो अहयं, जस्स घरेसो मुणी पत्तो ॥ ४२४|| अइ दालिद्द-दवानलजालाकलिओ वि दुक्खबहुलो वि । एएणं चिय पुन्नेण, मज्झ जम्मो लहइ लीहं ॥४२५॥ लीलावई वि नियपियदाणं दवण माणसे हिट्ठा । सविसेससुद्धभावा, मणम्मि एवं विचिंतेइ ॥ ४२६॥ चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्नि वि एयाणि जस्स मिलियाणि । दूरेण तस्स विहवो, रज्जं सग्गोऽपवग्गो वा ॥४२७॥ एवं दुहवि तेसिं, मुहुत्तमित्तं पवड्ढए भावो । पच्छा पच्छायावो, दिव्ववसा ताण संजाओ ||४२८|| चिंतंति य । सिरिपउमप्पहसामिचरियं नियघरसव्वस्सेणं, परमन्नं साहियं जमम्हेहिं । मूढेहिं तं पि दाऊण वंचिओ इंदियग्गामो ॥ ४२९॥ अहवा न सुठुविचिंतियमेयं गुरुदिन्नासेसवत्थूहिं । परमन्नं उव्वरियं, भुंजिस्सामो वयं इहिं ॥ ४३०॥ आरंभिय तद्दियहं विहवो गेहम्मि ताण संजाओ । अहवा विहियं पुन्नं, संपुन फलइ इह चेव ॥४३१॥ संजाय पच्चयाणि य, सुणंति निच्चं गिहीण वरधम्मं । बारस वयाणि सम्मं, सम्मत्तजुयाणि गिण्हंति ॥ ४३२ ॥ नाणीण चरित्तीण य, दाणं दाऊण सुद्धहिययाणि । दोन्नि वि ते मरिऊणं सोहम्मे सुरवरा जाया ॥४३३॥ सो हंसपालतियसो, चइऊण मयंकतं समुप्पन्न लीलावर तियसो पुण, एसा पउमावई जाया ॥४३४॥ भावविसुद्धं मुणिणो, मणुन्नपरमन्नदाणपारणयं । जं कारवियं तत्तो, जाया एयारिसी लच्छी ॥४३५॥ जं पुण विसद्धभावो, मणम्मि मणयं पि खंडिओ तइया । पावेण तेण पच्छा, अप्पडिक्कंतेण तुम्हाणं ॥ ४३६॥ 2010_04 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयकलहाचारय ७॥ आजम्मनेहलाण वि, सरलाण वि वयणमित्तदोसेणं । एसो दुहसयसहिओ, संजाओ दूसहो विरहो ॥४३७॥ दाऊण पत्तदाणं, भवणं कारविय जिणवरिंदाणं । संपन्नसहत्थीहिं, पच्छायावो न कायव्वो ॥४३८॥ इय गुरुगिराए सम्म, राया मयरद्धओ मयंको य । पउमावइ पमुहा वि य, गिहत्थधम्मं पवज्जंति ॥४३९।। अइयारपंकरहियं, मयंकपमुहा करित्तु गिहिधम्मं । अच्चयकप्पे जाया, कमसो सिद्धिं गमिस्संति ॥४४०।। इति दानधर्मे हंसपालकथानकम् ॥ सीलधम्मे मयंकलेहाचरियं । तिलएण व विहिएणं गुणगणतिलएण जेण सिद्धि-वहू । जायइ वसम्मि तं चिय सीलं सीलंतु किं बहुणा ? ॥४४१ ॥ उवहसियकप्पपायवलीलं संहरियसयलभवपीलं । अवहरियसयलहीलं, सीलं सीलंतु किं बहुणा ? ||४४२॥ विसयसुहविरइविलियातिलयं सोहागपमुहगुणनिलयं । कयसयलदोसविलयं, सीलं सीलंतु किं बहुणा ? ॥४४३।। जणमारओ वि कलिकारओ वि सावज्जजोगनिरओ वि । जं नारओ वि मक्खं लहेइ तं सीलमाहप्पं ॥४४४॥ नीसेसखीणकम्मा, मक्खगया अणहवंति जं सोक्खं । सीलं सीलंताणं, तं चिय इह होइ विरयाणं ॥४४५।। न वि विसयमीलणदुहं, ईसा न य नेहविरहसंतावो । अप्पारामरईए, रमंति निच्चं विरत्ता वि ॥४४६।। बहिरंगअंतरंगा, हरि-करिपमहा य राग-दोसा य । पभवंति तस्स नेव य जस्स सया सीलसबाहो ॥४४७॥ १. वि सिज्झइ तं खल सीलस्स माहप्पं । पा. 2010_04 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हरिणंककिरणधवला - कित्ती - साहगसंपया इहई । परलोए सिवसोक्खं, हवंति सीलप्पसाएण ॥४४८॥ गुणसंपयाओ चुक्का, चुक्का कित्तीउ तह य मुक्खाओ । सीलाउ कहवि चुक्का, तो चुक्का सव्वसोक्खाणं ॥४४९॥ नियजीवियं व तम्हा, सीलं रक्खिज्ज अइपयत्तेण । अहवा कयावि विसमे, जीयं पि चएज्ज न हु सीलं ॥ ४५० ॥ भेएण व दंडेण व, उवयारेणा वि सीलमकलंकं । न चयंति सत्त- जुत्ता, मयंकलेह व्व दढधम्मा ॥४५१ ॥ गयणग्गलग्गमंदिरसिरडज्झिर - अगरु - धूम - निवहेण । कलुसियससंकबिंबा, उज्जेणी नाम वरनयरी ॥४५२ ॥ नियकित्तिलहरीनिम्मियसग्गंगण - चारु- सत्थियपयारो । तं नयरिं परिपालइ, अवंतिसेणो महीनाहो ॥४५३ ॥ नियविहवनिवहनासियतिहुयणजणरुंदरुद्दस्सदालिहो । मणिय - जिण - धम्मसारो, धणसारो तत्थ सत्थाहो ||४५४ ॥ नियरूवहसियरंभा, दीणाऽणाहाइदाणसंरंभा । सिरिपउमप्पहसामिचरियं पावेसु निरारंभा, रंभा नामेण से भज्जा ॥४५५|| सोहग्गेणं गोरिं, रूवेण रई च भारई चेव । नियबुद्धीए जयंती, मयंकलेहा सुया तेसिं ॥ ४५६॥ जिणधम्मरम्मरंगो, तच्चित्ते अट्ठि - मज्ज -पज्जतं । सव्वंगं परिणमिओ, रंगु व्व जवाइकुसुमम्मि ॥४५७॥ निय - जणय - विहिय जिणमणिभवणे आराममज्झविलसंते । गहियट्ठ-भय-पूया, जिणनमणत्थं इमा पत्ता ||४५८ ॥ अह सागरदत्तसुओ, समाणवय - वेस - मित्त-संजुत्तो । सागरचंदो पत्तो, तत्थेव य चारुतानो ॥ ४५९॥ इत्थंतरम्मि एसा, पूयं काऊण तित्थ - नाहस्स । रुभियमण-तणु-वाया, काउस्सग्गे ठिया तत्थ ॥४६०॥ 2010_04 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं सा सागरचंदेणं, दिट्ठा सव्वंगदिव्वनेवच्छा । ससि-सूर-सरिस-मणिमय-झलज्झलायंतताडंका ॥४६१ ।। अहह । इमा अप्पडिमा, सरपडिमा का वि चिंतिउं एवं । सा सागरचंदेणं, नमिया पाएसु पडिऊणं ॥४६२ ।। हसियं सहत्थयालं, तत्तो मित्तेहिं तस्स सव्वेहिं । सो आह हसह किं खल ? नमणिज्जा देवया सव्वा ॥४६३॥ मित्ता बिंति न एसा, सर-पडिमा किंतु लडह-सव्वंगा । धणसार-सिट्ठि-धूया, मयंकलेह त्ति सुपसिद्धा ॥४६४॥ जल-निहि-जल-महण-दुहं, महुमहणो नो सहिज्ज लच्छिकए । होज्जा पव्वुप्पन्ना, जइ एसा चंग-सव्वंगा ॥४६५॥ जइ एसा न वि दिट्ठा, अपारसंसारमारवपहम्मि । अमय-सरिया सरिच्छा, मूढ ! तए कहस किं दिटुं ? ||४६६।। अह सो चिंतइ निप्फलमेयं मह जोव्वणं च जीयं च । जिय सुरतरुणी तरुणी, जइ एसा हवइ न वि दइया ॥४६७॥ अह पत्तस्स सगेहं, इमस्स उद्दाम-काम-जरियस्स । सासा वयणे जाया, अरुई अनम्मि सव्वम्मि ॥४६८॥ आही वा वाही वा, तुह देहं दहइ कहसु को ? वच्छ ! इय जणएहिं पुट्ठो, न किं पि पडिजंपिओ एसो ॥४६९।। मित्तमुह-मुणियतत्तो, सिट्ठिसंठावए नियं पुत्तं ।। चयसु विसायपिसायं, होही तुह चेव सा तरुणी ॥४७०॥ पत्तो य तत्थ नयरे, सायरदत्तेण आसि कारवियं । विलसिरसिहरसहस्सं, मणिभवणं उसहनाहस्स ॥४७१॥ जिण-बिंबाण दसाहियमहामहे तयणु दसमदिवसम्मि । सायरदत्तेण इमो, धणसारो तत्थ आहविओ ॥४७२।। अभयप्पयाण-बहुधणवियरणजिणसंघभत्तिपमुहेहिं । वित्ते दसाहियमहे, सायरगेहम्मि ते पत्ता ॥४७३।। 2010_04 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पत्थावो त्ति वियाणियसायरसंकेइएहिं गणएहिं । भणियं ससि-सूराण व, जोगो तुम्हाण अइरम्मो ॥४७४॥ ता अज्ज पव्व-दियहो, समहत्तं अज्ज! अज्जवरलग्गं । तो कुणह अम्ह वयणाउ, संबंधं किमवि मणइ8 ॥४७५॥ सायरदत्तेण तओ, नियसुयवीवाहणत्थमुल्लविया । कण्णा मयंकलेहा, रवनतारुण्णलायण्णा ॥४७६।। धनसारो वि हु दटुं सागरचंदस्स असरि रुवं । तज्जणएण य भणिओ, नियधूयं देइ तस्सेव ॥४७७॥ नेमित्तियसंदिढे, लग्गदिणे ताण सत्थवाहाणं । दोण्हवि घरम्मि किज्जइ, सव्वा वीवाहसामग्गी ॥४७८॥ आसन्ने लग्ग-दिणे, वनयगेहम्मि ताणि खित्ताणि । तत्तो सागरचंदो, नियमित्तं भणइ धणमित्तं ॥४७९॥ तइया जिणिंदभवणे, हसिएण मए विभाविया नेव । सा सम्मंता संपइ, तं दंससु कोउयं मज्झ ॥४८०।। मित्तो जंपइ वण्णयभंग काऊण कह तुम वयसि? सो आह हवउ जं वा, तं वा सा चेव दट्ठव्वा ॥४८१॥ संरभं सो नाउं, निसाए ससि-किरण-निहय-तिमिराए। ते चलिया सा बाला, जत्थच्छइ वण्णए खित्ता ॥४८२॥ सिद्धत्थसिद्धपत्ताउ पाविउं अंधयारवरपडयं ।। गाधरिऊण वयंता, दिसंति न ते सुरेहिं पि ॥४८३॥ तइया भांकलेहा, सहिहिं सा चित्त-पत्तलेहाहिं ।। परियरिया संलावं, कुणमाणा चिट्ठए हिट्ठा ॥४८४॥ अह आह चित्तलेहा, पियसहि! धनासि तरुणीरमणीस सायरचंदो भत्ता, लद्धो जीए जियजयंतो ॥४८५॥ अणुरत्तो अभिरूवो, कलासु कुसलो समानवयजुत्तो । धनवंतो दानपरो, हवइ वरो पुनपुनेहिं ॥४८६॥ 2010_04 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं अह भणइ पत्तलेहा, सच्चं चिय मुद्धि ! चित्तलेहासि । चित्तं मुत्तुं अन्नं, न किमवि जाणेसि वरवत्थु ॥४८७॥ मह पियसहीए जोग्गो, अणंगदेवो रवन-लायन्नो । गहियंगो व्व अणंगो, धणयसओ विस्सओ भवणे ॥४८८॥ तत्तो जंपइ अवरा, नामेणं मुद्धि ! पत्तलेहासि । पत्तपरिक्खं लवमवि,न मणसि सिक्खेस मह पासे ॥४८९।। को नाम कामसरीसं, अणंगदेवं न मनए किंतु । पुट्ठो पुरा मए च्चिय,वरकज्जे संवरो नाणी ॥४९०॥ कहियं तेण इमं चिय, अणंगदेवो मयंकलेहाए । न वि उचिओ जं एसो, वीसं वरिसाणि परमाऊ ॥४८१॥ अवरा भणइ न किं पि हु , जाणसि मरिहेसि जाणणनिमित्तं । थोवं पि मद्धि ! अमयं, सहावहं न उण विसभारो ॥४९२॥ सा उण मयंकलेहा, अमंदमंदक्ख-पूरिया बाला । वावारइ न निवारइ, ताणं इक्कं पि विवयंतिं ॥४९३॥ अह सो सागरचंदो, सोउं सव्वंपि ताण संलावं । कुद्धो असिमायड्ढिीय, ताण वहत्थं चलइ सहसा ॥४९४॥ तं धरिय करे जंपइ, धणमित्तो एस रोस-अवयासो । को नाम ? नेव वामा, वामा वि हु अरिहए मारं ॥४९५॥ बाला मयंकलेहा,लज्जासज्जा न किंपि जंपेइ। तो एसा निद्दोसा, अरिहेइ न वहं जगते वि ॥४९६॥ एसा वि चित्तलेहा, सही सहीए भणेइ जं किंचि । वीसत्था किह सत्थाघायं अरिहेइ? मह कहस ॥४९७|| इय भणिय निययगेहे नीओ मित्तेण तेण सो कमरो । वीवाहविहिविरत्तो चिट्ठइ गुरू दुक्खसंतत्तो ॥४९८॥ तुच्छा न विरज्जंते,दोससमुहं पि पिच्छमाणा वि । दोसलवं पि नियच्छिय झ त्ति विरज्जंति सप्पुरिसा ' ॥४९९।। 2010_04 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मित्तेण विरुद्धेणं सजणयपडिवन्नभंगभीएणं । वीवाहमहो तइया, सागरचंदेण न निसिद्धो ॥ ५०० ॥ गणयगणियम्मि लग्गे, दोहि वि वेवाहिएहिं विहिपुव्वं । अच्छरियकरो ताणं, वीवाह - महूसवो विहिओ ॥५०१ ॥ वित्ते दसाहियमहे, सायरचंदेण सायरं तिस्सा | सपसायं पासाओ, दिनो मुद्राए अइम्मो ||५०२ ॥ न कुणइ न सुणइ कहमवि वत्तं पि कहंतरेण पत्तं पि । सायरचंदो तिस्सा, वायहओ सक्कराइ व्व ॥ ५०३॥ दिट्ठीए न तं पिच्छइ, समीवपत्तं पि सतणुपुट्ठि व । तह नियदुच्चरियं पिव, पयडइ नामं पि नो तिस्सा ||५०४ || सा दुद्ध - मुद्धडमुही, पियचत्ता - विरह - दुक्ख - संतत्ता । स कयावराहलेसं, गवेसयंती गमइ दियहे ॥५०५॥ वामकर-कमलकोमलतलमिलियविरहपंडुरकवोला । नियपियसहिआसासणभासं पि हु नेव सुव्वंती ॥५०६ ॥ हिययत्थ-विरहहुयवहजाला विज्झावणाय अनवरयं बाहप्पबाहपूरं पूरंती नित्तजुयलेणं ॥ ५०७ ॥ जाणुजुयलंतराले, विणिवेसियमउलिपंकया निच्चं । सव्वं सहाए पुरओ, पवेसमग्गं व मग्गंती ॥५०८ ॥ परिचत्तपाण- भोयण - विलेवणा मज्झ तुच्छतरदेहा । पायं मरणोवायं, चिंतंती चिट्ठए मुद्धा ||५०९ ॥ उक्तं न सिरिपउमप्पहसामिचरियं जस्स कएण किसोयरि मोत्तूण तणं व जंति परएसं । जइ सो वि पिओ विमुहो, महिलाण हयं तओ जीयं ॥ ५१० ॥ निप्पंकयाणि सरसीजलाणि निक्कंदलाणि रन्नाणि । अवहरियसयलपल्लवलवाणि किंकिल्लि - गहणाणि ॥ ४११ ॥ तव्विरहसमण-कारणमीलणवावारवाउलो निच्चं । निम्मवs तीए सयगुणदुत्थावत्थो सहीसत्थो ॥५१२॥ जुयलं 2010_04 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं अरई अरुई सासा, रणरणओ अंतरंगपरिवारो ॥ अवरो उण परिवारो, मारो खारो व से जाओ ॥५१३॥ चंदणरसउच्चोडणकरेण विरहेण तीए दद्धाए । कहकह वि एक्कवीसं, वासा मुद्धाए वइकंता ॥५१४॥ राया अवंतिसेणो, लाडमहीनाहउवरिकडएण ।। चलिओ चलंतमयगल-गलंतमय-समियधूलिभरो ॥५१५॥ तइया इमेण रना, सायरदत्तो वि सायरं भणिओ । पट्ठवस मए सद्धिं, सायरचंदं नियं तणयं ॥५१६॥ को नाम सामपमुहं, नीइचउक्कं मुणेइ तं मुत्तुं ? । अहवा वि संधि-विग्गहपमहा सम्मं गुणा छच्च ॥५१७॥ पूरिज्ज व मह कडए, को वा कप्पूर-लवण-पज्जतं । सायरचंदं मुत्तुं बहुविहववरवत्थुवित्थारं ॥५१८॥ तस्सायरं वियाणिय, सायरदत्तो अणिच्छमाणो वि । जंपइ वच्चह तज्झे, सो एही विहिय सामग्गिं ॥५१९॥ एवं ति भणिय रन्ना, सहत्थ बीडयपयाणपुव्वं सो । विसज्जिओ स-गेहं, पत्तो आइसइ नियतणयं ॥५२०॥ सो जणय-वयणसमणंतरमेव समग्गकडयसामग्गिं । कारइ दहदियेहेहि, हक्कारइ सयल-मित्तगणं ॥५२१॥ विहियम्मि करह-सेरिह-हरि-वसह-कयाणगाइसंवाहे । सुमुहुत्ते से जणणी, भाले तिलयं कुणइ पउमा ॥५२२।। पत्थाणमंगलेसुं सायरचंदस्स किज्जमाणेसु । रेहावसेसदेहा, मयंकलेहा विचिंतेइ ॥५२३।। महिनाहसमाएसा, मह नाहो अज्ज वच्चिही कडए । पच्छा परम्महं पि हु, पिच्छिस्सं नेव नियदइयं ॥५२४॥ जम्मंतरकयदुक्कयमहिमाए परम्महो जइ. वि नाहो । सुविणंतरे वि तह वि हु, एसो च्चिय पिययमो मज्झ ॥५२५॥ 2010_04 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तत्तो जत्तासमए, अणालवंतो वि पिच्छिओ उचिओ । देसंतरपत्ताणं, को जाणइ केरिसं होही ? ॥५२६॥ इय चिंतिय निय चिंतयमत्थं कहिऊण चित्तलेहाए । सहिया सहीए तीए सायरचंदंतियं पत्ता ॥२७॥ निच्चं वज्जियकज्जलउज्जलनयणा विसद्धवरदसणा । हरिचंदणपंकाविलवसणा विगलंत-मणि-वलया ॥५२८॥ मोत्तियमित्ताभरणा, रम व्व तक्कालमहणउप्पण्णा । तवखीणा गोरी विव, गंग व्व जगतपरिहीणा ॥५२९॥ चित्ता निच्चलचित्ता, थंभावटुंभधरियनियदेहा । रयणमयसालभंजियसोहं सहसा सहति व्व ॥५३०॥ सूसंताहरपत्ता, समीवपत्ता वि कहमवि चिरेण । कज्जंतरसज्जेणं, सायरचंदेण सा दिट्ठा ॥५३१ ।। नियपरियणवावारणसंभासणवाउलो वि तं दटुं । मुहथंभणिविज्जं पिव सहसा मोणं समल्लीणो ॥५३२॥ नियपियकमकमलेसुं, पडिऊण पयंपए तओ मुद्धा । किं कज्जं नियभज्जं विलवंतमुवेहसे सुहय! ॥५३३॥ भवसयसंचियदुक्कयहयाए मह नाह ! तुह मणे को वि । दोसो वसिओ तेणं, भत्तं रत्तं पि मं चयसि ॥५३४।। बहुएसु वि वरिसेसुं, गएसु संकप्पियस्स दोसस्स । न कया तए परीक्खा, पिच्छ मह पाव-परिणामं ॥५३५॥ एगत्थ वसंता वि हु, तह गणगणसयणऊससंता वि । दिट्ठीइ वि न वि अहयं, तमए संभासिया कह वि ॥५३६॥ इह पुण जत्ता समए, तमए संभासणाइ सविसेसं । दासाण वि निम्मवियं, एक्का मुक्का अहं पावा ॥५३७॥ खेमेण तह वि वच्चस, मग्गा तह हंत सिवकरा सव्वे । आगच्छसु पुण हच्छं, पुणरवि मह हवसु दिठिपहे ॥५३८॥ 2010_04 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं इय तं जपतिं चिय, अवगन्निय नमिय जणणि-जणयाणि । चलिओ समित्तजुत्तो, अवरं कडयं व पयडंतो ॥५३९॥ दइयावमाणतक्खणसयगुणविरहग्गिजलियसव्वंगा ।। जलभिना भित्ती विव, गंतुं सयणम्मि सा पडिया ॥५४०॥ हच्छं परिमुच्छंती, हत्थं चिय चेयणं पि पावंती । दिव्वं उवालभंती, तं दिणमइवाहए मुद्धा ॥५४१ ।। सो उण सागरचंदो विसज्जिऊणं सहागयं लोयं । सरिपरिसरम्मि परियरसहिओ आवासिओ गंतं ॥५४२॥ इत्थंतरम्मि विरहिणिदुहदववीसामणत्थमिव तरणी । संहरिय किरणजालो, पत्तो दीवंतरं सहसा ॥५४३॥ आयासवासभवणे, जामिणिनवकामिणीए विज्झविओ । दीवु व्व दिवसनाहो, पियससिनवसंगसमयम्मि ॥५४४॥ निदाणनेत्तपत्ता, नलिणिवहू परिमिलाण मुहकमला अंतो निलीणमयररवेहिं रुवइ व्व रविविरहे ॥५४५॥ कूरेण निययसमयं, पाविय सव्वत्थ अंधयारेण । अंधारियाए खित्तं, भुवणमसेसं पि पडिहाइ ॥५४६॥ पत्तो विरहिणिमणवणदव व्व तह कमलकालपास व्व । माणिणिमाणघणाय सचंबयउवलोवमो चंदो ॥५४७॥ जद्दरमयचंदोदयसमकिरणभरम्मि भुवणभवणस्स । परिसक्किरम्मि चंदे, सायरचंदो ठिओ सिज्जं ॥५४८॥ वारं वारं करुणं, तारं तारं च तेण पलवंती । निसुया नियरवरोवियमच्छ-कुला किन्नरी एगा ||५४९।। अह खग्गवग्गहत्थो, अविहत्थो जममहे वि पविसंतो । अणसदं गच्छंतो, पत्तो पत्तलनिगंजम्मि ॥५५०॥ तत्थ य तत्थ मयच्छी मणि-रयणभरणकिरणदिप्पंता । दिप्पंतविरहनवदवगाढकढिज्जंतसव्वंगा ॥५५१॥ 2010_04 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सव्वंगेसु निवेसियमुणालनवनालकमलसंघाया । घायच्छेयं पत्ता, कमसो वम्महकयंताणं ॥५५२॥ वारं वारं मुच्छं, गच्छंती झत्ति झत्ति चेयंती । पुणरुत्तं च दहंती, सासझलक्काहिं तरुनिवहं ॥ ५५३ ॥ सिसिराणिलसंगेण वि, सयगुणपज्जलियविरहदुहलणा । कलकलहंसरवेहि वि, तक्खणसंजायसवणजरा ॥५५४ ॥ हारं निच्छोडती झड त्ति गुरुदीहजीह - भारं व । निच्छियमरणारंभा, जियरंभा तेण सा दिट्ठा ॥ ५५५ ॥ दट्ठूण इमं सायरचंदो, पभणे सायरं मुद्धि ! । किं कज्जं परितम्मसि, दीससि मरणम्मि सारंभा ? ॥५५६ ॥ सा आह सुहय ! सो इह, नत्थि च्चिय भुवणमज्झयाम्म । दुहिएहिं निव्वरिज्जइ, जस्स पुरो निययदुहनिवहो ॥ ५५७ ॥ किं पुण तह तणुदसणसंभाविय - नियय - कज्ज - पब्भा । साहेमि मज्झ किन्नरदेवो हारप्पहो दइओ ॥ ५५८ ॥ अहयं पुण हारावलिनामा, पाणप्पिया पिया तस्स । गच्छंताणं गयणे, जाओ कलहो इमो अम्हं ॥ ५५९ ॥ सो आह अज्ज भामिणि ! इमम्मि कयलीहरम्मि रमियव्वं । भणियं मए सुरालयसिरम्मि पिय ! अज्ज रमियव्वं ॥ ५६० ॥ एवं विवयंताणं, सो रुट्ठो अवरित गयणाओ । इह चेव कयलिहरए परम् हो हविय पासुत्तो ॥५६१ ॥ तो मज्झ निसारंभ, आरंभिय विविहपत्थणसएहिं । दो जामाऽवक्कंता, तह वि हु न वि मनए एसो ॥ ५६२ ॥ दलइ व जलइ व चलइ व, हिययं मह सुहय ! तस्स विरहेणं । तो मनावसु मह पियमनह अहयं मरिस्सामि ॥५६३ ॥ गंतूण तत्थ कुमरो, सहिययहिययंगमाहिं वाणीहिं । 'अवहरिय रोसलेसं, करेइ हारप्पहं सहसा ॥५६४ ॥ 2010_04 सिरिषउमप्पहसामिचरियं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं अह सो तियसो जंपइ, इमाइ दुक्खेण दुक्खिओ अहियं । मं मनावसि न मणसि, मयंकलेहाए दहनिवहं ॥५६५॥ भग्गु च्चिय अम्ह इमो, कलहो जह तह वि जेण तेणावि । जे अनोनं विरह, निमेसमित्तं पि न सहामो ॥५६६॥ वरिसाणि इक्कवीस, भत्ता रत्ता य जा तए चत्ता । सा विरहजलियदेहा, मयंकलेहा कहं होही ? ||५६७।। इय जंपिय नियदइयं, हत्थं उच्छंगसंगयं काउं । पिच्छंतम्मि कुमारे, उप्पइओ नहयले सहसा ॥५६८॥ अह किजरीए दासी, पयडा होऊण तं भणइ कुमरं । मज्झ महेणं तं पइ, जंपइ मह सामिणी एयं ॥५६९॥ तुह कयपडिकयमहयं, काउं नवरमम्हि निच्चदुल्ललिया । तह वि हु एवं ओसहिजुयलं गिण्हेसु अवियप्पं ॥५७०॥ एक्काए विहियकमतललेवो गच्छिहिसि गयणमग्गेणं । अवराए विहिय तिलओ, करेसि मणवंछियं एवं ॥५७१॥ इय भणिय नियत्ताए, तीए गिण्हित्तु ओसहीजुयलं । सो मंडलग्गमंडियहत्थो पत्तो नियं सिज्जं ॥५७२॥ सरिउं किन्नरचरियं, चिंतइ चित्तम्मि ते धुवं धना । जे सलिलमज्झरेहासमकोवा दिट्ठदोसा वि ॥५७३।। वज्जमयमाणसेणं, अदिट्ठदोसा वि दीहरोसेणं । जेण मए सा चत्ता, रेहा मह तस्स अहमेस ॥५७४॥ इय चिंतिय नियचिंतियमत्थं साहेइ निययमित्तस्स । सो आह साहु सपरिस ! साहु तए चिंतियं चित्ते ॥५७५।। इत्तिय दिणाणि एसा, निद्दोसा जं तए वि परिचत्ता ।। अज्ज ! वि न मरइ तं खलु, मन्ने तुह पुनमाहप्पं ॥५७६॥ न मरइ जाव वराई, जुज्जइ आसासिउं इमा ताव । अज्ज तए परिचत्ता, पाणेहिं चइस्सए नूनं ॥५७७॥ 2010_04 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अह ते निच्छियगमणा, तीए च्चिय ओसहीहिं पयलेवं । काऊण समप्पइया, दुज्जणमनसामलं गयणं ॥५७८।। खणमित्तेणं मित्ता, मयंकलेहाइ दो वि ते पत्ता । सारयमयंकधवलं, धवलहरं भुवणमणहरणं ॥५७९॥ घणनीसासझलक्कियमणिमयवरसालभंजिया निवहा । उण्हण्हबाहजलभरनिवायसयगणियहिययसंतावा ॥५८०॥ निद्दयकरनिच्छोडणमणिमयभज्जतकंकणसमूहा । हिययत्थ-विरहनवदवतडयडफुटुंतहारसंभारा ॥५८१ ।। चलचलचलंतगत्ता, छिन्नं घरकोलियाए पुच्छं वा । छमछमछमंतदेहा, हरिचंदणसुरहिसरसपंकेण ॥५८२।। कुव्वंती उव्वत्तणसयाणि, सफरि व्व थोवसलिलम्मि । मुम्मरपत्तचयं पिव, कुणमाणा कमलपत्तसयणिज्जं ॥५८३॥ तह आसासिज्जंती, वारं वारं च चित्तलेहाए । दिट्ठा मयंकलेहा, सायरचंदेण तत्थ भवणम्मि ॥५८४॥ पञ्चभिगीतिभिः कुलकम् तव्वयणेणं तत्तो, धणमित्तो विसइ भवणमज्झम्मि । दट्टण इमं भयवसकंपियदेहा इमा जाया ॥५८५।। जंपइ मयंकलेहा, को सि कओ कहसु केण कज्जेण ? । सायरचंदपियाए, लीलाभवणम्मि पत्तो सि ॥५८६॥ अहवा नाओसि धवं, को वि ह परदारलालासो तं सि । सहसा मज्झ गिराए, हयास ! एसा हया बुद्धी ॥५८७॥ इह न हि सायरचंद, मुत्तुं अन्नस्स वासवस्सा वि । वासो तत्तो सिग्घं, वच्चसु जीएण जइ कज्जं ॥५८८॥ सहि ! तं पि चित्तलेहे ! एयं किमुवेहसे दुरायारं ? । बाहाए धरिय किं न हि, निव्वाससि मज्झ भवणाओ ॥५८९।। 2010_04 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं अह जपइ धणामत्ता, पसाय पसयाच्छ ! तज्झ नाहस्स । धनमित्तो मित्तो हं, किं मं निव्वाससे मुद्धि ! ॥५९०॥ निव्वासेसु जलद्दापंकयपमुहाणि असुहकारीणि । संपइ सायरचंदो, पत्तो सरिऊण नियदइयं ॥५९१ ।। कमलमुहि ! हरिणनयणे ! नज्जइ अरुणोदएण जह सूरो । धनमित्तेणं जाणसु, सायरचंदं तहा पत्तं ॥५९२।। सा आह मह पियं न वि, मनावसि मं तुम पि पहसेसि । धणमित्त ! अमित्तो विव, को हासो दिव्वहसियाए ॥५९३।। संकंततद्दहो विव, गलंतनित्तो इमाइ भवणम्मि । पविसइ सागरचंदो, तिस्सा मणजलहिछणचंदो ॥५९४॥ तमणब्भअमयवुट्ठी सरिसं दिट्ठी महसवाया तं । दर्छ लज्जासज्जा, सहसा एसा समठूइ ॥५९६।। अलमलमइसंरंभं, काउं खिन्नासि मज्झ दोसेणं । मन्ने धनो अहयं, जं जीवंती तुमं दिट्ठा ॥५९७|| इय जपतो तिस्सा, करकमलं नियकरेण गिण्हंतो । नवमिव वीवाहविहि, पयासयंतो गओ सिज्जं ॥५९८॥ मा भणसु इमं कहमवि, अहयं तुह नाह ! अंकदासि व्व । इय भणिरा अइनिब्भरमेसा परिरंभिया तेणं ॥५९९॥ एज्जासु तुमं सिग्धं अहयं वच्चामि सत्थसत्थत्थं । इय जंपतो गयणं, धणमित्तो झ त्ति उप्पइओ ॥६००॥ तह विरहदीहरासं, निसास जागरणघणकिलेसेणं ।। सुढियम्मि जामि सामिय ! इय भणिरा जाए तीइ सही ॥६०१॥ चिरकालमीलियाणं, समवयरूवाण गाढपिम्माणं । जीहाए अविसयं चिय, सुरयसुहं ताण संवत्तं ॥६०२॥ जाए पभायसमए, सायरचंदेण सा इमं भणिया । हच्छं आगच्छिस्सं, पाणेसरि ! मुंच में इहिं ॥६०३।। 2010_04 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अवह अवंतिसेणो, सायरदत्तो वि इत्थ चिरकालं ।। कलिऊण ठियं पच्छा, मं सच्छंदं भणिस्संति ॥६०४॥ सा आह हिययवल्लह ! चिराउ पत्तोसि जासि इह सिग्धं । तह चेव इमं कज्जं, छज्जइ छेयस्स नऽनेसि ॥६०५॥ सिच्छाइ तह वि वच्चसु, तुह वारणकारणम्मि का अहयं ? । मं कुसुमबाणबाणा, पुणरविपरिवारइस्संति ॥६०६॥ किंतु अहं अज्जेव य, रजस्सला समयविहिय नववसणा । जइ कहवि हवइ गब्भो, तो हं कह होमि तुह विरहे ? ॥६०७॥ पउमा गयछउमा वि हु, तो मं निव्वासिही धुवं पच्छा । किं न सुयं नाह ! तए, सासूण वहूर्हि सह वेरं ॥६०८॥ सो आह भीरु ! मुद्दारयणं गिण्हेसु मह अहिण्णाणं । अप्पसु निययं हार, मह मणकयसोक्खसंभारं ॥६०९॥ इय जंपिय नियमप्पिय, मुद्दारयणं इमीइ तह हारं । गिण्हिय तं आसासिय , परिरंभिय सो गओ सत्थे ॥६१०॥ इत्तो य चविय तइया, देवनिवासाउ दिव्वजोएणं । उयरम्मि तीए उत्तमसरजीवो को वि अवयरिओ ॥६११॥ अह सह वड्ढइ गब्भो मयंकलेहाए अजसपंकेणं । दलूण इमं पउमा, कुविया तं पइ पयंपेइ ॥६१२॥ मह कलकलंककारिणि । वेरिणि ! नियजणयगोत्तकित्तीणं । संहारिणि ! किं दीसइ, अदंसणिज्ज इमं तुज्झ ? ||६१३।। सा आह तुज्झ पुत्तो, पत्तो इह आसि मित्तसंजुत्तो । मक्कं मद्दारयणं, इह तेणं निय महिनाणं ॥६१४॥ गहिओ य मज्झ हारो, उवलक्खसु नियसुयस्स रयणमिणं । तयण मह चंड-दंडं, जं जाणसि तं करिज्जास ॥६१५॥ हसिऊण सा पयंपइ पंसुलि ! जाणेसि बह वियारे वि । मुद्दानयणपयारो, खद्धा वग्घेहिं किं अन्ने ? ||६१६॥ 2010_04 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं जो मह पत्तो तीमियगत्तो उव्वाइ तुज्झ नामेण । कह कहसु नियकरेणं, सो तुह अप्पिस्सए मुदं ? ॥६१७॥ न मुणइ वाससहस्से, चिंतंतो सुरगुरु वि जं कज्जं । तं कज्जं हा सहासा, सहसा इत्थी समप्पेइ ॥६१८।। ता जाहि जाहि सिग्धं, एरिस कुबहूण सासुया नाहं । तह ठाणदाणकज्जे, स च्चिय रंभा ससंरंभा ॥१९॥ इय जंपिय पउमाए, परिवायनिवारणाणि पुणरुत्तं । अवगन्निय सहिसहिया, गिहाउ निव्वासिया एसा ॥६२०॥ दइया विहियं कज्ज, सायरदत्तस्स अणुमयं चेव । अह नरवेसच्छन्ना, के वि नरा हंति नारीओ ॥६२१ ।। रंभा धणसाराणं, पेसियदासिं कहावियं तीए । एसा परिक्खिऊणं, धरियव्वा निययगेहम्मि ॥६२२॥ सा उण मयंकलेहा, पत्ता नियजणयभवणदारम्मि । धणसारपरियणेणं, पडिसिद्धा पुव्वभणिएणं ॥६२३॥ तं आगयं वियाणिय, धणंजओ नाम नंदणो तस्स । धनसारं पइ जंपइ, तुम पि मा चयसु नियधूयं ॥६२४॥ कडयाउ ताय ! सागरचंदो जा एइ तज्झ जामाऊ । छत्रा वा पयडा वा, ताव इमा धारिउं उचिया ॥२५॥ अइ दुहियं नियहियं, पउमावयणेण किं तुम मुयसि ? जणएण तए चत्ता, फुट्टियहियया धुवं मरिही ॥२६॥ सासू परिभूयाणं, धूयाणं ठाणमित्थ पिउगेहं । ता कुरु करुणं मा मा, निव्वाससु जेण जणओसि ॥६२७॥ इय भणिओ विसुएणं, धणसारो मुसियकज्जगयसारो । दुभिक्खे रंकं पिव, गिहाउ निव्वासए धूयं ॥६२८॥ जणयावमाणसयगुणदुक्खा मज्झं दिणम्मि सा बाला । अविरलगलंतनित्ता, सम्ममविनायपुरमग्गा ॥६२९॥ 2010_04 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · सिरिपउमप्पहसामिचरियं हीलिज्जंती दुज्जणजणेहि, सुयणहिं गरुयदुक्खेहिं ।। सोइज्जंती आसासिज्जंती नयरनारीहिं ॥६३०॥ मह गेहि च्चिय चिट्ठसु, मा वच्चसु देवि ! अवरनयरम्मि । ठाणे ठाणे एवं, जवइजणेहिं भणिज्जती ॥६३१॥ सायरचंदस्स पहं, पच्छंती सायरं सही सहिया । दुहिएसु पत्तरेहा, मयंकलेहा पुरं चयइ ॥६३२॥ सरिपरिसरम्मि पत्ता, तत्ता खरकिरण-किरणजालाहिं । वीसंता खणमित्तं, काणणलच्छि व्व तरुमूले ॥६३३॥ मंदायमाणकिरणे, खरकिरणे फुरियदइयरणरणया । पणरवि वच्चइ परओ, पियपहमवलंबिउं बाला ॥६३४॥ पुनरवि मंदं मंदं कुणमाणा दब्भविद्धकमकमला । दिंती कंकमतिलयं, धराए पयरूहिरबिंदहि ॥६३५॥ निज्झरणे निज्झरणे, वारं वारं जलं निपीयंती । अविरामं वीसामं, साले साले पकुव्वंती ॥६३६॥ समरिय समरिय नियपइसंलावं झत्ति झत्ति विलवंती । कित्तियदिणेहिं बाला, सुबारम्मि संपत्ता ॥६३७॥ नियदइयविप्पउत्ता, चत्ता सव्वेहिं निययबंधूहिं । पत्ता भीममरनं, तारसरं विलवए तत्तो ॥६३८॥ सुहवल्लिकंद ! हा सत्तिखंद ! हा हिययजलहिछणचंद! । अन्नायमंदसायरचंद ! तुम कत्थ दिट्ठव्वो ? ॥६३९॥ अइदीहदंसिणा वि हु, भणिएण मए वि जं न जणयाणं । नियमागमणं सिटुं निसाइ तीए तए नाह ! ॥६४०॥ केवलपावमयाए, दुत्थियजणनिवहपत्तरेहाए । पावस्स तं वियाणसु, मयंकलेहाए विप्फुरियं ॥६४१ ।। हा काणणदेवीओ ! हे ! जलदेवीओ । गयणदेवीओ । मह उवरि कयपसाया, दुत्थं मह कहह नाहस्स ॥६४२ ।। 2010_04 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरिय हा अंब ! तए पउमे ! माणुसमित्तं पि निययपुत्तस्स । पासे पेसिय किं न हि, दिट्ठो महवयणपज्जंतो ? ॥६४३।। हा ताय ! ताय ! रक्खियनियजायाचाय ! मज्झ पावेण । भणिओ वि नियसुएणं, वज्जाउ वि निठुरो जाओ ॥६४४॥ हा जणणि जणणि ! धूया दुहदलणि ! इमाए निययधूयाए । कज्जे तुम पि जाया, सिसुमारिमणाउ अहिंययरा ॥६४५।। हा भाय ! मज्झ हिययं, जं न वि सहसा सहस्स खंडेहिं । फुट्टइ तं तह बयणासासणमित्तस्स माहप्पं ॥६४६॥ हा विहि ! हयास ! विहिया, आजम्मं तित्तियाण दुक्खाए । तुमए निहाणमहयं, न जित्तिया जलहिकल्लोला ॥६४७॥ इय तीए रुयंतीए, रुयंति जलचारिणो जलस्संतो । गयणचरा गयणयले, थलम्मि थलचारिणो दहिया ॥६४८।। नियपुरिसमुहवियाणिय, तत्तो तत्थेव झत्ति संपत्तो । सत्थाहचित्तगुत्तो, तदुहदुहिओ इमं भणइ ॥६४९।। किं रुयसि भीरु ! तारं, कस्स व सुहयस्स कहसु दइयासि ? हे जामि ! जामि ! तुमए, सह तत्थ तमं भणसि जत्थ ॥६५०॥ तत्तो मणम्मि मणयं कयवीसंभा कहित्त नियचरियं । सा भणइ नेस बंधव ! अवंतिसेणस्स मं कडए ॥६५१॥ आमं ति भणिय तीए, सह सत्थे जाइ सत्थवाहो सो । कणइ पयाणे जामिं , तं कलदेविं व मनंतो ॥६५२॥ सा चित्तगुत्तपरियणविचित्तभत्तीहिं निययचित्तम्मि । जा चिट्ठइ सुहियमणा, ता जं जायं तयं सुणसु ॥६५३॥ सत्थाउ चित्तलेहा, इंधणजलकसमपउमकज्जेहिं । कहमवि दूरेण गया, दिट्ठा भिल्लेहिं हरिया य ॥६५४|| तत्तो पिच्छंतेणं, सव्वत्थ वि तेण सत्थवाहेण । कहमवि न वि सा दिट्ठा, जह धुवतारा दिणारंभे ॥६५५॥ 2010_04 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पुणरवि अहिणवदुक्खा, मयंकले सहीए विरहम्मि । तह विलवइ जह सत्थो हवइ विहत्थो असेसो वि ॥६५६॥ दुहनिवहअंसहारिणि ! पियसहि ! तुमए वि दिव्वजोगेणं । हा पावपूरपिहिया, मयंकलेहा परिच्चत्ता ॥६५७॥ वसणगणलवणसायरपडिया सव्वेहिं चेव सयणेहिं । सविसेसमहं दुहिया, विहिया पियसहि ! तुम मुत्तुं ॥६५८॥ नियदुहनिवहं संपइ, साहिस्सं कस्स ? को ममं दुहियं । संठाविही ? मए सह, सहिस्सए कहस को दुक्खं ? ॥६५९॥ एवं तं विलवंति, संठाविय कित्तिएहिं दिवसेहिं । सत्थाहो संपत्तो, नंदणपुरपरिसरुद्देसे ॥६६०॥ लाडाहिवसत्तुंजयरनो मित्तेण विजयराएण ।। सत्थो लुटिय गहिओ, मालवदेसाउ पत्तो त्ति ॥६६१।। भयवसकंपिरदेहा, मयंकलेहा पलायणं काउं । एगागिणि निलुक्का, आरामासनदेवउले ॥६६२॥ जाए निसीहसमए, सीहनिनाएहिं जायसंतासा । कह कह वि अइदुहेणं, सुयं पसूया फुरियतेयं ॥६६३।। तं नियकलनहचंदं, चंदो दटुं व उदयमारूढो । अहवा सुपरिसजम्मे, के के उदयं न संपत्ता ? ॥६६४|| चंदस्स चंदिमाए, जायं दतृण हरिसिया एसा । सुहियाण वि दुहियाण वि, सुपुत्तजम्मो कुणइ हरिसं ॥६६५॥ उच्छंगसंगयं तं, बालं काऊण विलवए मुद्धा ।। हे वच्छ ! तज्झ जम्मे, किमहं काहामि गयपण्णा ? ॥६६६॥ जइ हुज्झ अज्ज जणओ, इह तुह तत्तो करिज्ज निरवज्जं । ऊसवनिवहं तं जो, हरेइ हिययं सुराणं पि ॥६६७|| तं देव देवकुमरायार ! इमाए मयंकलेहाए । निब्भग्गसेहराए, हा कहमयरम्मि अवयरिओ ? ॥६६८॥ 2010_04 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं इच्चाइ विलवमाणा, सकरुणहिययाए हविय पयडाए । वणदेवीए सहसा, एसा आसासिया एवं ॥६६९॥ मा रुयसु सुनरने, रुन्नेण न होइ किं पि पज्जंतो । पुव्वकयदुक्कयाणं, सव्वं भव्वं धुवं होही ||६७० ॥ रिद्धी वा हाणी वा, गरुयाणं न उण हीण - दीणाणं । महिमा उवरागों वा, ससि - सूराणं न ताराणं ॥६७१॥ उक्तं च अक्षिपक्ष्म कदा लुप्तं, छिद्यन्तेऽथ शिरोरुहाः । वर्द्धमानात्मनामेव प्रसंगिन्यो विपत्तयः ॥६७२ ॥ इय आसासिय देवी, सट्ठाणं जाइ जामिणी तत्तो । विरहहयकामिणी विव, कमसो झीणा तया जाया || ६७३ || अंचलनिबद्धमुद्दारयणेणं वेढिऊण वत्थेणं । तं बालं सुकुमालं, मुत्तूणं भवणकोणम्मि ॥६७४॥ आसन्नपउमसरवरतीरे, विलसंतविविह वा नीरे पत्ता पंकयनेत्ता, नियतणुपक्खालणा कज्जे ॥ ६७५ ।। पच्छा आमिसगंधायड्ढिय अइछुहियसारमेण । तिस्सा पुत्तो गहिओ, अहह ! अहो ! दिव्वपरिणामो ॥६७६॥ आसन्ननई तीरे, आयमणपरस्स दिव्वजोएण । वेसमणस्स पुरो से, पडिओ तद्दतजत्ताओ ||६७७।। छेएण तेण सुणयं हक्किय गहिओ निरक्खिओ सम्मं । दिट्ठेण नियपियाए निंदूए समप्पिओ बालो ||६७८॥ एसा धणवइनामं, दिव्ववसा तम्मि चेव दिवसम्मि । पसवइ सुयं परासुं, पेसियदासिं च तं चयई ॥६७९ ॥ ठाणम्मि तस्स ठाविय, तं नवलद्धं कुमारमभिरामं । वद्भावणयं जणमणकयअच्छरियं कयंतेहिं ॥ ६८० ॥ वित्तम्मि बारसाहे, सुरिंददत्तो त्ति कुणइ विहिपुव्वं । 2010_04 ५३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अभिरामं से नाम, वेसमणो धनवइजत्तो ॥६८१।। वेसमणसमाणो सो, वेसमणो तद्दिणाउ संजाओ । सा धनवई वि जाया, थिरजोणी तस्स माहप्पा ॥६८२॥ जाया से दोन्नि सया, कमसो धणदेव-धणयनामाणो । वम्महलीलासेलं, सो पत्तो चारु तारुन्नं ॥६८३॥ परिणाविओ य पिउणा, सुरिंददत्तो बहूण बत्तीसं । तियसाण वि महणिज्जं, विसयसहं भंजए ताहिं ॥६८४॥ इत्तो य - पक्खालिय नियदेह, मयंकलेहा सराउ संपत्ता । हरिसतरुआलवालं, न नियइ बालं तहिं भवणे ॥६८५॥ झ त्ति धसक्किय चित्ता, चउदिसि अवलोइऊण तं बालं । कलिस-सय-हय-तणू विव, हच्छं मच्छाविया तत्तो ॥६८६॥ सिसिर-समीरण-संगमसंपाविय चेयणा तहा तारं । विलवइ तह थंभगया, रुयंति पंचालियाओ वि ॥६८७॥ हा वच्छ ! मच्छपंकय-सिरिवच्छप्पमुहलक्खणनिवास ! नियवनविजियचंपय । किं पयमिहिं कहस पत्तो ? ॥६८८॥ हा कह गयपुण्णा हं, इह तं मुत्तूण देवया दइयं । अनत्थ गया तइया, हयासविहिणा हया पावा ॥६८९।। पियविरहसयलबंधवअवमाणणपियसही विओएहिं । रे दिव्व ! नेव तट्ठो, सयविरहदहं पि जं देसि ॥६९०॥ रे हिय्य ! तुज्झ पणया, अंजलिबंधो कओ य तुह एसो । पज्जलिरजलणखित्तं, तड त्ति फट्टेस लवणं व ॥६९१॥ इय तारं विलवंती, सा बाल व्व वल्लहाए ललियाए । निसया तह धीरविया, नीया नियगोकुलगिहम्मि ॥६९२॥ दुहियं पि तीइ हिययं, मणयं सुहियं कमेण निम्मवियं । ललियाए ललियवाणी, निक्कित्तिमपेम्मरम्माए ॥६९३॥ 2010_04 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं तत्थ सह निवसंती, गोकलगणसामिणा वसंतेण । खामा वि ह . अभिरामा, जियसुररामा इमा दिट्ठा ॥६९४।। अज्झुववनो तिस्सा, ललियापमुहेण कुणइ चाडूणि । सा निक्कलंकसीला, न सहइ परपरिसनामं पि ॥६९५॥ ललियाए तओ एसो, भणिओ किं कुणसि सामि ! एयाए ? पज्जा खल गिहपत्ता, अवरा वि सई विसेसेण ॥६९६॥ तत्तो सहं पसत्ता, निसीहसमयम्मि तेण सयमेव । हरिया कत्थ वियारो, परदारपसत्तचित्ताणं ? ॥६९७॥ मह गेहठिया निच्छियमेसा, होही कमेण मज्झ वसा । इय चितंतो एसो, अइवाहइ कह वि तं रयणिं ॥६९८॥ जामिणिविरामसमए, वासियवमणेण जमगिहं पत्तो । सहसा अणत्थसत्थं, लहति पावा किमच्छरियं ? ॥६९९।। सारयमयंकधवला, मयंकलेहाए झ त्ति वित्थरिया । कित्तीकलंकमक्कं, सीलं किं किं न साहेइ ? ॥७००॥ सक्कारं काऊणं, वसंतपरियणजणेहिं सा मुक्का । धम्मनिरयाणं वसणं, न होइ न चिरं हवइ जइ वा ॥७०१॥ नियगोकुलमुद्दिसिउं, गच्छंती मग्गओ परिभट्ठा । निग्गोहसालहिट्ठा, वीसंता रनमज्झम्मि ॥७०२।। कम्मसरूवनिरूवणपरायणा तत्थ दिव्वजोगेणं । मयरंदतावसेणं, दिट्ठा कारुण्णपुन्नेणं ॥७०३।। संपुच्छिय वुत्तत्तं, नीया निययम्मि आसमे तेण । कहिया नियकुलवइणो, पडिवत्रा तेण पुत्ति त्ति ॥७० ४।। मंदिरगामासने, मक्का नेऊण तावसगणेण । तत्तो संझा समए, पविसंती गाममज्झम्मि ॥७०५॥ तग्गामसामिसुंदरनरेहिं गहिया य भद्दकालीए । चंडीए आययणे मुक्का बंदाण मज्झम्मि ॥७०६॥ 2010_04 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दस पुरिसा दसनारी, तीइ पुरो सुंदरेण हणणिज्जा । ओवाइएण भणिया, अहिणवसुयजम्मसमयम्मि ॥७०७॥ चंडीभवणे मिलियबंदे, सव्वे वि सुंदरो भणइ । कुलधम्मो अम्ह इमो, जीवियदाणं पमुत्तूणं ॥७०८।। एक्कं किज्जइ कज्जं, वहणिज्जाणं तओ पयंपेह । इठं किंचि वि कज्जं, बंदिगणो चिंतए तत्तो ॥७०९।। कुलधम्मे कुलिससयं, निवडउ एयस्स जम्मि जीवाणं । कंपिरतणण जीयं, हरिऊणं दिज्जए अवरं ॥७१०॥ जो नियजीवियकज्जे, चएइ अमरीवईए रज्जं पि । कह तव्विघायपावो, फिट्टइ अवरेहिं दाणेहिं ॥७११॥ भणियं च - मेरुगिरिकणयदाणं, धन्नाणं देउ कोडिरासीओ । एक्कं वहेइ जीवा, न छुट्टए तेण दाणेण ॥७१२॥ एवं विचिंतयंतो भणिज्जमाणा वि तेण पुणरुत्तं । . बंदिगणो भीयमणो न किं पि पडिजंपिओ तस्स ॥७१३॥ जंपइ मयंकलेहा, अहयं पत्थेमि भाय ! कज्जमिमं । पढमं चिय मं मारसु, पुरओ चंडीइ एयाए ॥७१४॥ सो आह को विसेसो, मरणे पत्थावपव्वओ विहिए ? । सा आह मए पढम, मारिज्जंते न पिच्छिस्सं ॥१५॥ अच्छीहिं पिच्छिउं पि हु, सोउं सवणेहिं अक्खमा अहयं जीवल्दं तो पढम मरेमि जइ तो भवे भव्वं ॥७१६॥ सुंदरबुद्धी सुंदरनामा तत्तो पयंपए जामि ! । तं गच्छ मए मुक्का, जीसे एयारिसा बद्धी ॥७१७॥ सा आह भाय ! नाहं, एक्का गच्छामि कह व जीवंती । पच्छा मारिज्जंते, मुत्तं सव्वे इमे बंदे ॥७१८॥ 2010_04 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं ५७ मं इक्कं चिय निहणसु, वरमिह मुंचेसु सव्ववंदाणि । मह तणुणा उवयारो, जइ हवइ न किं मए पत्तं ? ॥७१९॥ सोऊण तीए वयणं, सिरं धुणंतो विचिंतए एसो । अहह ! उवयारबद्धी, इमाइ महणिज्जचरियाए ॥२२०॥ परपाणपरित्ताणं, करंति गरुया निएहिं पाणेहिं । एमेव हहा मूढा, हणंति अम्हारिसा जीवे ॥७२१॥ इच्चाइ चिंतिऊणं, पसंसिऊणं मयंकलेहं तं । मुंचइ सह बंदेहि, पालइ पच्छाइ जीवदयं ॥७२२॥ बंदेहिं पहिठेहिं, सा ऊण कुलदेवय व्व संथविया । तिस्सा गिराए तत्तो, बंदे सव्वा गया सपरं ॥७२३॥ परओ गच्छंती सा, ललंतजीहेण छुहियसीहेण । दिट्ठा तोइ वहत्थं, तत्तो उद्धाइओ एसो ॥७२४॥ वियडविडंबियवयणं, गंजा पंजोवमाणनयणं तं । दुटुं मयंकलेहा, कंपियदेहा विचिंतेइ ॥७२४॥ का हुज्झ गई इण्हिं, हु नायं अत्थिसीलमाहप्पं । इय चिंतिय सीहं पड़, जंपइ उद्दामसद्देण ॥७२५॥ जय निय पई विमुत्तुं, अवरो मणसा वि पत्थिओ कहवि । तो सीह ! ममं कवलसु, अवह चिट्ठेसु नियठाणे ॥७२६॥ इय तग्गिराए सहसा, कोलाहिं कोलि व्व सो सीहो ॥ चिट्ठइ सा निरवाया, वच्चइ पुरओ अरजम्मि ॥७२७॥ गिरि-सरि-सरवर-काणणसहस्समइवाहिऊण निसिसमए । पत्ता निग्गोहतले, पिच्छइ सा रक्खसिं भीमं ॥७२८॥ तम-सम-सामल-देहा, फुरंततारा जणाण भयजणया । तिस्सा परिगिलणत्थं, सा पसरइ कालरत्ति व्व ॥७२९॥ अकलंकसीलरेहा, मयंकलेहा पयंपए तत्तो ।। जइ मह सायरचंदो, इक्को भत्ता इह भवम्मि ॥७३०॥ 2010_04 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मह विजियकप्पपायवचिंतामणिकामधेणुमहिमाए । सीलमहिमाए रक्खसि ! निहयासा हवसु तो सहसा ॥७३१ ।। निम्महियकम्ममम्मो, जइ जिणधम्मो जयम्मि विप्फुरइ । पाविट्टि ! धिट्ठि ! रक्खसि ! सहसा तो हवस निहयासा ॥७३२॥ हालाहललहरी विव, अविरलविलसंतअमयलहरीहिं । तिस्सा चारुगिराहिं, उवसंता रक्खसी तत्तो ॥७३३॥ सा सीलपरिवारा नग्गोहतलम्मि वसइ तत्थेव । परओ पभायसमए, वच्चइ अवगणियतणखेया ॥७३४॥ सिद्धत्थपुरं नयरं, पत्ता आराममज्झभवणम्मि । सुहसुत्ता सच्चविया, वेसाए कामसेणाए ॥७३५॥ उप्पाडिय नियगेहं, नीया भणिया य कणस वेसत्तं । तत्तं गिण्हसु सुंदरि ! असारसंसारवत्थूणं ॥७३६। सा आह मए सीलं, सीलेयव्वं सया वि अकलंकं । कलसीलसेलवज्जं, कह वि ह न करेमि वेसत्तं ॥७३७॥ रुट्ठाए तीए एसा, भरिया जंजीर-संकलाईहिं । वक्कंते तम्मि दिणे, दिव्ववसा सा मया वेसा ॥७३८॥ अक्काहिं इमा अबला, बला वि तिस्सा पयम्मि अहिसित्ता । पावा न नियत्तते, पावफलं जाणमाणा वि ॥७३९॥ कणयद्धएण रन्नो, मयंकलेहाए असरिसरूवं ।। अक्कामहेण सोउं, पट्ठविओ तत्थ पडिहारो ॥७४०।। नऽन्ना गइ त्ति चिंतिय, चलिया ‘सहसा सहासणारूढा । मग्गम्मि हवइ बाला, गहिला महिलासिरो रयणं ॥७४१ ।। जीहाएऽपमाणेणं, जंपइ दारेइ चारुवत्थाणि ।। मयनाहिं पिव पंकं, लायइ चंगे वि निय अंगे ॥७४२॥ पणरवि गिहम्मि नीया, अत्ताए तद्दहेण अत्ताए । लउडेहिं हणइ सीसे, पत्ताणं मत्तवाईणं ॥७४३।। 2010_04 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं आइट्ठो नरवइणा, नियनयरारक्खिओ कणयबाहू । नीसेससत्तिजुत्तो, सुपसिद्धो मंतवाईसु ॥७४४॥ जालामालिणीदेविं, कुमारिदेहम्मि सो वि एगंते । अवयारिय परिपुच्छइ, तिस्सा दोसस्स पज्जतं ॥७४५।। कन्नामहेण देवी, जंपइ हे वच्छ ! नत्थि एयाए । अन्नो वि को वि दोसो, सुरकयदोसाण का वत्ता ? ॥७४६।। इत्थीसु पत्तरेहा, मयंकरेहा इमा पसिद्धस्स । सायरचंदस्स पिया, दिव्ववसा इत्थ संपत्ता ॥७४७॥ नियसीलरक्खणत्थं, गहिला जाया नियम्मि गेहम्मि । तुमए ठावेयव्वा, दट्ठव्वा गोत्तदेवि व्व ॥७४८।। आएसो त्ति भणित्ता, देविं वीसज्जिऊण नरनाहं । पडिबोहिय तं सगिहे, आणइ लच्छिं व पच्चक्खं ॥७४९।। सरविहियपाडिहेरा, पए पए पयडसीलमाहप्पा । निच्चं अच्चिज्जंती, जणेहिं सा चिट्ठए तत्थ ॥७५०॥ चिंतइ चित्ते भत्ता, चिट्ठइ अवत्थ अहयमनत्थ । अवत्थ सा सही वि हु, कत्थवि अनत्थ हा पुत्तो ! ॥७५१।। सवणेहिं जन्न सव्वइ, अणहूयं तं पि इह मए दक्खं । मीलिय अच्छिं तह वि हु, सहियव्वो कम्मपरिणामो ॥७५२॥ सो उण सरिददत्तो, ववहारं कणइ अज्जए विहवं । जणयस्स जीवियाओ, निच्चं चिय वल्लहो जाओ ॥७५३।। गुणगणमिमस्स पुलइय, तुच्छमई धणवई विचिंतेइ । एयम्मि जीवमाणे, तिणतुल्ला हं न मह पुत्ता ॥७५४।। मारेमि त्ति विचिंतिय, सविसं निम्मवइ मोयगं एगं । अवरे इ दन्नि कारइ, विसरहिए मोयगे पावा ॥७५५॥ तत्तो पेसिय दासिं, तिण्ह वि पुत्ताण कोससालाए । चिट्ठताणं पासे, ताणं तो देइ सा कमसो ॥७५६॥ 2010_04 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं लहुएहिं छुहिएहिं, सहसा नियमोयगा तहिं असिया । ठावइ सुरिददत्तो, वावडचित्तो तमेगते ॥७५७॥ कित्तियमित्ते काले, वक्ते पुण वि ताण छुहियाणं । सो अप्पइ नियमोयगमसिओ सो तेहिं दोहिं पि ॥७५८।। गुरुगरललहरिगहिया, चइया पाणेहिं दो वि ते कमरा । धणवइमणं वियाणइ, वेसमणो कज्जगइ सज्जो ॥७५९॥ जंपइ सुरिददत्तं, गच्छसु हे वच्छ ! तामलित्तीए । जणणीए साइणीए, पुत्ताण कओ कुसलवत्ता ? ॥७६०॥ कहिऊण सव्ववइयरमामूलं अप्पिऊण तं मुदं । काउं सत्थनिवेसं, पट्ठविओ तामलित्तीए ॥७६१॥ सो जणय-जणणिजाणणचिंताए चलंतसल्लतुल्लाए । दुत्थियचित्तो, सायरचंदं सव्वत्थ पुच्छेइ ॥७६२।। कमसो नयरे नयरे, गामे गामम्मि निययजणयस्स । नामं परिपुच्छंतो, संपत्तो तामलित्तिए ॥७६३॥ तत्थ बहुविहवमज्जइ, वच्चइ निच्चं पि रिसहभवणम्मि । आरोहइ चक्केसरिदेविं, विविहोवयारेहिं ॥७६४॥ अट्ठमभत्तऽवसाणे, पयडा होऊण जंपए देवी । सायरचंदो जणओ, मयंकलेहा उ तह जणणी ॥७६५॥ सिद्धत्थपुरे नयरे, मिलिही पियमेलयम्मि आरामे । एयं तु अहिनाणं, तुह जणणीए तुमं दटुं ॥७६६॥ छीरं पयर्ड होही, सायरचंदं च पिच्छिउं लोया ।। भणिहिंति एस जणओ, सरिददत्तस्स निब्भंतं ॥७६७॥ एत्तो ठाणाउ गओ, मिलिहिसि मासेण जणणि-जणयाणं । तो मुंच वच्छ ! सोयं, इय जंपिय सा गया देवी ॥७६८।। तत्तो सुरिंदत्तो, पहिट्ठचित्तो नमित्तु सिरिरिसहं । सिद्धत्थपुराभिमुहो, चलिओ बहुमित्तसंजुत्तो ॥७६९॥ 2010_04 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं ६१ अह सो सायरचंदो, वच्चइ सत्थम्मि मिलइ मित्तस्स । गच्छइ थोवदिणेहिं, अवंतिसेणस्स कडयम्मि ॥७७०॥ सत्तुंजयनरनाहे, अवंतिसेणेण राइणा गहिए । दइया सुमरणसरणो, तरुणजणो वलइ कडयाओ ॥७७१ ।। पारेवउ व्व पंजरमक्को, सो राइणा अमक्को वि । समरिय मयंकलेह, सायरचंदो वलइ सहसा ॥७७२।। पत्तो नियम्मि नयरे, अप्पिय अज्जिय धणाणि जणयस्स । वच्चइ मयंकलेहा, धवलहरं विरहजज्जरिओ ॥७७३॥ वयणं व नयणचत्तं, गयणं व मयंकमंडलविमक्कं । पिच्छइ मयंकलेहा, रहियं भवणं विगयसोहं ॥७७४|| चिंतइ संकियचित्तो, नियजणयगिहम्मि किं गया एसा ? किं वा हयासविहिणो, विलसियमवरं इमं किंचि ॥७७५॥ गंतुं जणणिं पुच्छइ, मह माणसहरिसकंदकंदलणे । सजलजलवाहसोहा, मयंकलेहा कहिं जणणिं ? ॥७७६॥ सोऊण इमं एसा, भीया मणसा वि धरियधिट्ठत्तं । जंपइ पउमा गिण्हसु, तिस्सा नाम पि मा वच्छ ! ॥७७७|| कयकुलकलंकपका, तुमम्मि संपत्थियम्मि सा पच्छा । जाया पगब्भगब्भा, मए वि निव्वासिया तत्तो ॥७७८॥ सयधारनिवायं पिव, तं वायं सो मणित्त महिवीढे । पक्खी व छिनपक्खो, पडिओ मुच्छा परिग्गहिओ ॥७७९।। हा हा हय त्ति भणिरो, परिवारो सिसिरचंदणरसेण । उत्तालतालविंटानिलेण तं कुणइ गयमच्छं ॥७८०॥ तत्तो एसो विलवइ, वारं वारं च तारतारं च । हे रमणिपत्तलेहे ! मयंकलेहे ! कहस कत्था ? ॥७८१॥ भणिएण वि जं तुमए, नियमागमणं न चेव जणयाणं । कहियं तं मह दहिही, हिययं हा देवि ! आमरणं ॥७८२ ।। 2010_04 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . W सिरिपउमप्पहसामिचरियं तुह मह दोसेणं चिय, आजम्मं दूसह दुहं जायं । . इत्थीण हा कुभत्ता, सत्तुसहस्सं विसेसेइ ॥७८३॥ मह मई पि नियच्छिय, कह सा निव्वासिया तए जणणि ! सच्चं चिय मह जणणी, जडस्स एयाण बुद्धीए ॥७८४॥ तइया आगंतूणं, विहिया समए विसेसओ दुहिया । रुट्ठो वा तुट्ठो वा, पाणेसरि मारए कुपहू ॥७८५॥ चत्तं पिएण निव्वासियं च सासूहि जणणि-जणएहिं । मक्कं तं मह दइयं, हे वणदेवीओ ! रक्खेह ॥७८६॥ तम्मि रुयंते पउमा, सायरदत्तो तहेव धणसारो । रंभा अवरो वि जणो, विलवइ विनायवत्तंतो ॥७८७|| गब्भभरालसदेहाविमुक्कगेहा पियम्मि दढनेहा ।। हा हा मयंकलेहा ! सुण्णे रण्णे कहं होही ॥७८८॥ पुणरुत्तं विलवंतो, एसो धणमित्तमित्तसंजुत्तो । पुरलोयं पि ससोयं, करेइ सयणाण किं भणिमो ॥७८९।। भवभावणाहिं गरुयणगिराहिं संधीरणाहिं जणयाणं । मणयं पि तस्स मंदो, न वि जातो सोयसंभारो ॥७९०॥ तत्थ य मयंकलेहा, भुत्तेसं भुवणकाणणपुरेसं । ठाउं मुहुत्तमित्तं, अचयंतो चयइ सव्वाणि ॥७९१ ।। जाव न मयंकलेहा, दिट्ठा वरिसाण सयसहस्से वि । ताव न आगच्छिस्सं, इय नियचित्ते कयपइनो ॥७९२॥ मित्तस्स वि अकहित्ता, गिण्हिय बाणासणं सतूणीरं । निग्गच्छइ नयराओ, अहह ! दुरंतो अहो नेहो ॥७९३॥ पइपहियं पुच्छंतो, पइकंदरमंदिरं च पिच्छंतो । पइतरुतलं रुयंतो, पइपरमंतो विसंतो य ॥७९४॥ पइपुलिणं पुलयतो, पइपद्धइमसमतरुणिरमणीणं । हेडंबं वणसंडं, पत्तो गलिरच्छिसयवत्तो ॥७९५॥ 2010_04 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं दठूण हरिणिपमुहे, जंपइ हे हरिणि ! हारिणिं लच्छिं ! मह दइया दिट्ठीए, हरिऊण करेसि वणवासं ? ॥७९६॥ तिस्सा महकमलसिरि हरिउं रे कमल ! वससि जलदग्गे । रे बरिहिण ! चिहरभरं, हरिय पवनो सि सत्तिधरं ॥७९७॥ करपल्लवाण लच्छिं, रे हरियअसोयधुवमसोओ सि । हे हंसिगई तिस्सा, हरिऊण माणसे जासि ॥७९८॥ रे रे मयंक ! चोरिय, मयंकलेहाए विरहगहियाए । निम्मलकवोललच्छिं, चरेसि दुग्गम्मि नहमग्गे ॥७९९॥ हे बिंबअहरलच्छिं अवहरिय सरेसि वाडिपरिवाडिं । तो अप्पह मह दइयं, अन्नह कुविओ जमु व्व अहं ॥८००॥ कामपिसल्लगहिल्लं, हेडंबो रक्खसो इमं नाउं । कोऊहलेण जंपइ, तं पइ होऊण पच्चक्खो ॥८०१॥ हरिणहरिणकपमुहे किं पुच्छसि ? पुच्छ मूढ ! मं इक्कं । सा तह दइया गिलिया, एत्थ मए तत्थ हरिणच्छी ॥८०२।। सोऊण इमं एसो, दइंत-कयंत-दंत-जंत-समं । आयड्ढियतरवारिं वेरि पइ पसरए सहसा ॥८०३।। रत्तिं चरो वि उग्गं, कड्ढइ खग्गं अभग्गउच्छाहं । दो वि ह कणंति समरं, वीरा अमरीण मणहरणं ॥८०४।। भग्गेसु खग्गेसुं, तेणं उम्मूलिऊण तरुमेगं । निहओ सिरम्मि सहसा, दुगुणो सो रक्खसो जाओ ॥८०५॥ तं पुण निहयं पणरवि, दगणं पिच्छत्त सायरं तत्तो । . सायरचंदो चित्ते, सुमरइ परमिट्ठि वरमंतं ॥८०६॥ पालेयं पिव विलयं, रविकरतावेण तेण मंतेण । पत्तो अदंसणतं, निसायरो निहयउच्छाहो ॥८०७॥ तेण वि गच्छंतेणं, पुरओ सरि-सिहरिसरवराईसु । पिच्छंतेण वि न पिया, दिट्ठा बहुणा वि कालेण ॥८०८॥ 2010_04 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं निपच्चा समणेणं, विरहहुयासाउ बाहिरहुयासं । सिसिरं मनतेणं, तेणं पज्जालिओ जलणो ८०९॥ चढिऊण सिहरिसिहरे, तारसरेणं पयंपए एसो ।। निसणंत लोकपाला ! तह नह-वण-सलिलदेवीओ ॥८१०॥ आजम्मं निद्दोसा, दइया दुहसायरे मए ठविया । न य तीए सुसीलाए, सीलियमिक्कं पि हा वयणं ॥८११॥ नवरं मह दोसेणं, सुण्णारण्णेसु भमइ सा बाला । जीवइ मया व संपइ, इत्तिय मित्तं पि न मुणेमि ॥८१२॥ दोससयसहसमलिणो, जलणे पविसामि संपयं अहयं । तुज्झेहिं तीए पुरओ, वत्तव्वा एरिसी वत्ता ॥८१३॥ . तुह भत्ता तुह विरहे, वज्जानलनिवहदुसहसंतावे । तुह सुद्धिमपारंतो, एत्थ वणे पविसिओ जलणे ॥८१४।। इय जंपिय झंपावइ, जाव इमो पावयस्स मज्झम्मि । ता तत्थ सिद्धपुत्तो, एगो तं वारए सुजसो ॥८१५।। मा कुणसु अप्पघायं, उप्पाडिय केवलं वरं नाणं । सह दइयाए तुमए, निव्वाणपुरम्मि गंतव्वं ॥८१६॥ सिद्धत्थपुरे नयरे, सुरिंददत्तेण निययपुत्तेण । मिलिही सा तह दइया, एयं त इहं अहित्राणं ॥८१७॥ अज्जेव चित्तलेहा, नीहरिया भग्गभिल्लपल्लीए । मिलिही सहीउ तीए, सिद्धत्थपरम्मि वच्चेस ॥८१८॥ अणुजाणसु मं जेणं, वयामि नंदीसरम्मि दीवम्मि । सासयजिणनमणत्थं, इय जंपिय सो समप्पइओ ॥८१९॥ अह सो चिंतइ धनो, अहयं चिय जस्स जीवमाणस्स । मिलिही मयंकलेहा, सिद्धिवहू तह य पज्जते ॥८२०॥ चत्तमरणाहिलासो, पुरओ जा जाइ कित्तियं भूमिं । ता सुणइ रुयंतीए, तारसरं दुहियमहिलाए ॥८२१॥.. 2010_04 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंक लेहाचरियं हा दिव्व ! सा मह सही, चत्ता दइएण जणणि-जणएहिं । निव्वासिया सगब्भा, मए वि मुक्का कहं होही ? ॥८२२ ॥ हा देवि ! दुहियलेहे ! मयंकलेहे न मज्झ नियदुक्खं । तह संतावइ जह तं तावसि एक्का मए मुक्का ॥८२३॥ एवं च अहं मण्णे, किं चि वि एयाए दुक्कयं घोरं । विहियं मए उवेहियमियतुल्लं दुक्खमम्हाणं ॥८२४॥ तं सुणियचित्तलेहं, सायरचंदो पहिट्ठमुहकमलो । तं आसासइ पुच्छइ, मयंकलेहाए तह सुद्धिं ॥८२५॥ जणमणसायरचंदं, सायरचंदं नित्तु सा भाइ । तुह मिलणत्थं देवी, सह वच्चइ चित्तगुणं ॥ ८२६॥ सत्थाओ पब्भट्ठा गहिया अहयं तु सबरपुरिसेहिं । घणलोहेणं धरिया, भिल्लेहिं पल्लिमज्झम्मि ॥८२७|| अह सा पल्लीवल्ली समूलमुम्मलिया असेसा वि । सिरिविजयगइंदेणं, नट्ठा हं तुम्ह मिलिया य ॥८२८॥ निय वइयरं असेसं, सायरचंदा कहित्तु सह तीए । पत्तो ऊसुयचित्तो, सिद्धत्थपुरस्स आसणे ॥ ८२९ ।। सो उण सुर्रिददत्तो, पियमेलयकाणणस्स मज्झम्मि । रिसहजिणनाहभवणे, अचिंतचिंतामणिसमाणे ||८३०|| कमसो पत्तो चिट्ठा, आराहिंतो जिणिंदपयपमं । निय अत्थसाहणत्थं, करेइ अट्ठाहिया महिमं ॥ ८३१ ॥ वंछाइरित्तवित्तं तम्मि महे तेण तत्थ तवकलियं । जीवि - धाणि तणमवि, गरुयाणं धम्मकम्मम्मि ||८३२॥ तेण विहिज्जमाणं, महामहं मुणियसव्वपुरलोओ । सा वि हु मयंकलेहा, सकोउहल्ला तहिं पत्ता ||८३३ ॥ जिणपयपंकयनमणं, काउं वियसंतनित्तसयवत्ता । पिच्छइ सुरिंददत्तं विजियजयंतं सरुवेण ॥ ८३४।। 2010_04 ६५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं किं एस अंतरप्पा ? पत्तो वा ? मज्झ जीवियं अहवा ? | एवं चितंतीए, खीरमुरुरुहेसु से जायं ॥८३५।। जइ मे मणं पमाणं, मह अंगरूहो इमो धुवं तत्तो । इय चितंती एसा, अणिमिसनयणा तया जाया ॥८३६॥ चिंतइ सो वि किमेसा, मह जणणी देवया समक्खाया ? एत्थंतरम्मि पत्तो, सुजसो नंदीसरे गंतं ॥८३७॥ जंपइ सुरिंददत्तं, चिट्ठसि किं वच्छ ! संसयावडिओ ? रिसहेसरप्पसाया, पत्ता इह सा तहं जणणी ॥८३८॥ मणवंछियत्थमीलणकरेण रिसहेण मंडियं भवणे । पत्तं पसिद्धिमेयं, वणं पि पियमेलणं वच्छ ! ॥८३९॥ भद्दे मयंकलेहे ! तुह पुत्तो एस जो तया मुक्को । तुमए जक्खाययणे, इह पत्तो तुज्झ पुनेहिं ॥८४० ।। तत्तो सुरिंददत्तो, गंतुं सहस त्ति नमइ नियजणणिं । हरिसवसगलिरजलभरपक्खालियचारुकमकमलं ॥८४१ ।। काऊण इमो सहसा,. मयंकलेहाए अंकपालीए । पुट्ठो सव्वं वइयरमामूलं साहए निययं ॥८४२ ।। सुच्चा इमं पयंपइ, एसा कलकंठिसारसी अहयं । हा वच्छ ! जीए पुत्तो, पवड्ढिओ निच्चमण्णत्थ ॥८४३॥ हे धणवइ ! जुवईसु, रेहा तुह चेव जीए उच्छंगे । बालत्तणम्मि सायरचंदसओ वढिओ एसो ॥८४४|| इत्थंतरम्मि जंपइ निब्भररोमंचबंधुरो सुजसो । वद्धाविज्जसि परमूसवेण अवरेण हे वच्छ ! ॥८४५॥ एगागी पिच्छंतो, पट्टणकाणणसएस नियदइयं । पत्तो सायरचंदो, इमस्स नयरस्स आसने ॥८४६।। सोऊण इमं सहसा, तुट्टिर कंचुय-सुसंधि-संदोहा । अइपयडपलयदेहा, मयंकलेहा तहा जाया ॥८४७॥ 2010_04 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरियं ६७ हे सुजस ! कहसु पत्तो, सायरचंदो कहिं ? ति जंपंतो । सहसा सुरिंददत्तो, समुट्ठिओ तीए संजुत्तो ।।८४८।। सुजसो मयंकलेहा, सुरिंददत्तो जणो य पुरवासी । पत्तं सायरचंदं, सोऊणं सम्मुहा चलिया ॥८४९।। सुजसो नहेण गंतुं, सायरचंदस्स साहए एयं । तुज्झ सुओ तुह दइया, समिति तुह सम्मुहा सुहय ! ॥८५०॥ सव्वाण ताण तइया, पियमेलणकाणणस्स पज्जते । दुहनिवहसेलकुलिस, अन्नोन्नं दंसणं जायं ॥८५१॥ महिमिलियमउलिकमलो, सुरिंददत्तो नियस्स जणयस्स । पयपंकयं नमसइ, मन्नइ तं चेव जम्मदिणं ॥८५२॥ उप्पाडियपरिरंभिय, मूले उवविसियपूगसाहिस्स । सायरचंदो पत्तं, उच्छंगे सायरं कुणइ ॥८५३॥ जमुण व्व सुरनईए, पहरिसपीयूसपूरभरियाए । वेगेणचित्तलेहा, मयंकलेहाण परिरद्धा ॥८५४।। चित्ते अचिंतणिज्जं, महाकइगिराए गोयरं नेयं । तं तेसि सह जायं, जं जइ जाणंति ते चेव ॥८५५॥ सोऊण चित्तलेहामहेण दइयस्स वइयरं सव्वं । पियपयलुलंतदेहा, मयंकलेहा चिरं रुयइ ॥८५६॥ हा नाह ! नाह ! कज्जे, मज्झ अहवाइ खित्तुमनलम्मि भवणमणोहरतरुवणमप्पा कहवससिओ तमए ? ||८५७॥ तह दूसहम्मि विरहे, जलणपवेसाइ नाह ! मह उचियं । नारीसहस्स वल्लह, दूरं चिय अणचियं तज्झ ॥८५८॥ हे सुजस ! तुज्झ सुजसो, आचंदं भमइ भवणवलयम्मि सायरदत्तस्स कलं, उद्धरियं जेण नीसेसं ॥८५९।। एवं जपंती सा, सायरचंदेण धरियबाहाए । निय अंगवामदेसे, निवेसिया पियसही सहिया ॥८६०॥ 2010_04 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो आह मज्झ विरहे, जेत्तिपपित्तं तए दुहं सहियं । तुह विरहे तस्स मए, तिलतुसमित्तं पि नहि सहियं ॥८६१ ॥ सयधारसयनिवायाहियदुहनिवहेहिं जं न पत्तासि ।। अच्चाहियं इमं मह, सुकयाणं देवि ! महमहियं ॥८६२॥ मन्ने धनो अहयं, सुरिंददत्तेण जं सुपुत्तेण । सहिया सचित्तलेहा, मयंकलेहा मए दिट्ठा ॥८६३।। कणयद्धयनरनाहो, तहेव आरक्खिओ कणयबाहू । सोउं सायरचंदं, पत्तं तत्थेव संपत्ता ॥८६४॥ मत्तगयंदारूढो, सागरचंदो परम्मि नरवइणा । कयविविहहट्टसोहे, पवेसिओ सय-पियासहिओ ॥८६५।। नियजामिसामिसमहियगोरव्वेणं निवेण सो तत्थ । पिच्छिज्जंतो चिट्ठइ, इक्कं मासं निमेसं व ॥८६६॥ तं जणणि-जणय-दसणसमूहयं मुणिय कहवि नरनाहो । सामंतनिवहसमयं, पेसइ उज्जेणिनयरीए ॥८६७॥ सजसमहेण वियाणिय, तं पत्तमवंतिसेणनरनाहो । पच्चोणीए वच्चइ, सायरदत्तेण संजुत्तो ॥८६९।। एक्कं सपिओ पत्तो, अवरं विहवंतरं समारूढो । इय तस्स तेहिं विहियं, पुरप्पवेसाइगोरव्वं ॥८७०॥ पत्तो पुलइज्जतो, सविम्हियं पुरनिवासिलोएहिं । नियसुयपियाए सहिओ, सायरचंदो सगेहम्मि ॥८७१ ॥ सो को वि तया जाओ, पउमापमुहाण हरिसपब्भारो । जं वन्निउं न सक्को, सक्को वि समासहस्सेहिं ॥८७२॥ ससुराइनमियपत्ता, मयंकलेहा नियम्मि पासाए । कमसो सायरचंदो, सहागयजणं विसज्जेइ ॥८७३ ।। तेण ससुएण विहियं नायागयविविहविहवनिवहेण । जिणभवणकरणरहवरजत्ता दीणाइदाणाई ॥८७४।। 2010_04 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ मयंकलेहाचरियं पत्तं वणम्मि निसमिय, केवलनाणं जुगंधरं नाम । तन्त्रमणत्थं नियसय-पियाहिं सहिओ इमो चलिओ ॥८७५॥ अह नमियनिविट्ठाणं, नरवरपमुहाण सव्वलोयाणं । भवभावणासरूवं, परूवए केवली तत्थ ॥८७६॥ नियकम्महयाजीवा, सधणा अधणा जडा य विउसा य । सूहव-दूहवरुवा, हवंति पुज्जा अपुज्जा य ॥८७७॥ मिच्छत्तमविरई खल, हंति पमाया तहेव जोगा य । अट्ठण्ह वि पयडीणं, एए सामनहेऊओ ॥८७८।। नाणस्स विग्घकारी, पडिणीओ निण्हवो निसेवंतो । कालाई अइयारे, नाणावरणं निबंधेइ ॥८७९।। एए च्चिय तह दोसे, नयणेयरदसणाइ नव भेए । जो दंसणे निसेवइ, सो बंधइ दंसणावरणं ॥८८०॥ वय-विनय दाण-खंती-दयारओ तह य उज्जओ जोगे । बंधइ सायं कम्म, विवरीओ बंधए इयरं ॥८८१।। जिण-सिद्ध-संघ-चेइय-गुरू-सुयंधर-साहु-पमुहपडिणीओ । दंसणमोहं बंधइ, अणंत-भव-भवण-दढमूलं ॥८८२।। दव्वाररागदोसा, तिव्वकसायाइ दुरंतमोहो य । दुविहं चरित्तमोहं, बंधेइ चरित्तगुणघाई ॥८८३॥ आरंभससंरंभो, मंसासीकयपरिग्गहग्गाहो । जीवविघाई बंधइ, निरियाउं रुद्दपरिणामो ॥८८४|| माइल्लो य ससल्लो, सढसीलो धम्ममग्गकयनासो । उमग्गदेसओ तह, बंधइ तिरियाउमट्टमणो ॥८८५॥ संजम-सीलविहूणो, पयणुकसाई सया वि दाणरओ । मणयाउयं निबंधइ, मज्झिमगणनिवहसंजत्तो ॥८८६॥ अणुव्वय-महव्वयधरो, बालतवस्सी अकामनिज्जरओ । सम्मत्तमित्तधारी, देवाऊ बंधए जीवो ॥८८७॥ 2010_04 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मायावी-गारविओ, वंको मण-वयण-काय-किरियासु । असुहं नामं बंधइ, सुहनामं तस्स विवरीओ ॥८८८|| पायं निरहंकारो, सिद्धंतरुई जिणिंदगुरुभत्तो । बंधइ उच्चं गोयं, विवरीओ बंधए नीयं ॥८८९।। पंचासवप्पसत्तो, जिणदेसिय धम्मकम्मविग्घकरो । बंधेइ अंतरायं, मणइच्छियवत्थुविग्घकरं ॥८९०॥ पच्छइ मयंकलेहा, सामिय ! जम्मंतरम्मि किं विहियं ? । जेण इमा मह जाया, दुसहा दुक्खाण पत्थारी ॥८९१॥ भयवं जंपइ नयरे, सीहपरे कणयरयणमयभवणे । गुरुदप्पविजियसप्पो, विप्पो परिवसइ कंदप्पो ॥८९२॥ बहुविज्जासंपन्रो, रायसुएणं अणंगनामेण । निच्चं माणिज्जंतो, तणमिव सो मनए भवणं ॥८९३॥ इत्तो य तत्थ नयरे, सयकित्तीनामघोरतवकारी । पाणामदिक्खधारी, लोयपसिद्धो वसइ भिक्खू ॥८९४॥ अह पउमदेवतणया, कमला ललियंगसिट्ठि तणएणं ।. नवपिम्मरत्तचित्ता, अकहियवत्ता गया तइया ॥८९५।। निस्संबंधविहारी, अकहियवत्तं जणाण सयकित्ती । दिव्ववसा तम्मि दिणे, वच्चइ आसनगामम्मि ॥८९६॥ सह केण वि सा कमला, गय त्ति वत्ता पुरम्मि वित्थरिया । कंदप्पो भणइ गओ, सयकित्ती धवमिमं गहिउं ॥८९७॥ जण दमा एयं चिय, सस्सूसंती सया वि दीसंती । दोण्ह वि एयाण तओ, निस्संसयमेरिसं जायं ॥८९८॥ तव्वयणेणं सव्वो, सयकित्ती निच्चमेव हीलंतो । सव्वेस धम्मेसं, विरत्तचित्तो जणो जाओ ॥८९९॥ अनदिणे तम्मि पुरे, पत्तो सयमेव तह वि सयकित्ती । गंतुं सह लोएणं, तेणं सो कुट्टिओ गाढं ॥९००॥ 2010_04 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंकलेहाचरिय ७१ उवसंतमणो जट्ठी मट्ठीघाए सहेइ सो सव्वे । सत्तम दिणम्मि जीहा, कहिया कंदप्पविप्पस्स ॥९०१ ।। मरिऊण सारमेओ, जाओ कम्मेण तेण सो तत्थ । पणरवि जिब्भा कहिया, मरिउं वेसा तओ जाया ॥९०२।। तत्थ य नंदणधणिसयसंसग्गेणं जिणिंदधम्मम्मि । निच्चलचित्ता जाया, जीवाण गई अहो ! विविहा ॥९०३॥ सा जत्थ जत्थ तरुणी, वित्थारइ तं सवलियनित्ताणी । निवडेइ तत्थ तत्थ य, अइविसमा विसमसरधाडी ॥९०४।। अनदिणे सरतीरे, सा विलसंती मरालवरमिहुणं । पिच्छइ तत्तो छेया, सकोउगा गिण्हए हंसं ॥९०५॥ कंकमपिंजरदेहं, एयं काऊण मंचए सा वि । मिलिओ वि न हंसीए, रहंगभत्तीए विनाओ ॥९०६॥ तो करुणमारसंती, मच्छंती विरहजलियसव्वंगा । घडियाउ एक्कवीस, चिट्ठइ सा तत्थ सरतीरे ॥९०७।। गेहं गच्छंतीए, तीए वेसाइ पुण वि छेयाए । सकरुणमणाए हंसो, विहिओ हरिणंकसमवनो ॥९०८॥ मिलिया पुणरवि हंसी, निएण दइएण रमइ सच्छंदं । गणियाण सिरोरयणं, सा पत्ता मंदिरं निययं ॥९०९॥ मरिउं समाहिणा, सा मायादोसेण पढमकप्पम्मि । सक्कस्स पट्टदेवी, जाया देवीसिरोरयणं ॥९१०॥ विजया मयंकलेहा, जाया सीलम्मि पत्तजयरेहा । सो उण अणंगकमरो, बहमन्निय तस्स तं पावं ॥९११॥ भमिऊण भवे जाया एत्थ सही तुज्झ चित्तलेहा सा ॥ जं दूसिओ तया सो तेण कलंको तुहं जाओ ॥९१२॥ निहओ जं च तया सो जाया तह तेण दक्ख-पत्थारी । जाया बहुमयपावा, समदुक्खा चित्तलेहा य ॥९१३॥ 2010_04 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं घडियाउ एक्कवीसं हंसी दुक्खम्मि ठाविया जं च। वरिसाण इक्कवीसं, विरहदुहं तुज्झ तं जायं ॥९१४॥ जो जं करेइ कम्मं, विविहविवाएहिं तस्स कम्मस्स । सो परिणामवसेणं, लहइ फलं भवसहस्सेसुं ॥९१५॥ अणहवियकम्मजणियं, विविहविवायं हणेह नियकम्मे । पालेह दुविहधम्म, कयसिवसम्मं पयत्तेण ॥९१६॥ तत्तो सायरचंदो, मयंकलेहा य गहियगिहिधम्मं । तह नरवरपमहजणो, नमिय मणिं जाइ नियठाणे । ।९१७॥ पालिय गिहत्थधम्मं, सायरचंदो पिया य सा तस्स । पडिवज्जियपव्वज्ज, कमसो पत्ता पयं परमं ॥९१८॥ वसणगण-संकडे वि हु मयंकलेहाए सीलियं सीलं । जह तह सिलेयव्वं, अवरेहिं सया सुहत्थीहिं ॥९१९॥ तपोपरिमहासतीरोहिणीकथा उच्यतेपरमपयनयरपछियनराणमसमाणमंगलं पढमं । कयनवनवसहनिवहं, भवदुहहरणं तवं कज्जा ॥९२०॥ उपनकेवला वि हु, जिणा वि नियमेण जेण पज्जते । साहिति सिद्धिलच्छिं, तं चिय नमिमो तवं निच्चं ॥९२१॥ चक्के वि समुप्पण्णे, चक्की वरदाममागहप्पमुहे । संसाहइ सुरनिवहे, जेणं चिय तं तवं चरिमो ॥९२२॥ हरिणेगमेसिपमहा, तवेण सिझंति झ त्ति सरनिवहा । तवसासम्मि सहसा, हवंति विज्जाउ विविहाउ ॥९२३।। बलदेव-वासुदेवा,सुरिंदअसुरिंदनरवरिंदा वि । जीवा हवंति जं तं, तवस्स महिमाए महमहियं ॥९२४॥ सयलं पि लोयमेयं, अलोयमज्झम्मि जे खमा खिविउं । विही-विहियतवेणं ते, अतलबला हंति तित्थयरा ॥९२५॥ तवमंगलेण बारसविहो वि सिद्धतसिंधवित्थारो । अवगाहिज्जइ भवजलनिहिणो पाविज्जए पारं ॥९२६॥ 2010_04 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा ७३ वेरग्गउग्गविलसिरदुव्वारसमीरणेण पज्जलिओ । तवनवदावो सहसा, दहेइ भवकाणणं सयलं ॥९२७॥ इहलोय-परिलोइयकज्जं तं नत्थि तिहुयणे सयले । न वि सिज्झइ जं तवसा, सहसा हियइच्छियं सव्वं ॥९२८।। दुव्वारमारवारणदारणपंचाणणेक्कवावारो । उस्सिंखलमणवानरनिबिडायऽऽयससंकलाबंधो ॥९२९॥ चलकरणहरिणवाहो, भवसंभवक्खदावजलवाहो । जयउ तवो मोहमहामहल्लमल्लस्स पडिमल्लो ॥९३०॥ पुट्ठाणं बध्दाणं, सव्वेसिं होइ तह निहित्ताणं ।। कम्माण खओ सहसा, तवसा उ निकाइयाणं पि ॥९३१ ।। को नाम कामधेणं, चिंतामणि-कप्पपायवे अहवा । पसुपत्थरजडरूवे, अभिरूवे भणइ तवपुरओ ॥९३२।। सुर-नर-राय-समिध्दी, सव्वोसहि-पमुह-विविह-वरलद्धी । समयवियारण-बुद्धी, तवतरुकुसुमोग्गमो एसो ॥९३३॥ सासयसक्ख-निहाणं, अणंतवरनाण-दसणपहाणा । परिहवियसव्वसिद्धी सिद्धी परमं फलं तस्स ॥९३४॥ रे हियय! इमं सम्मं, साहेमि महेसु कहविमा सोक्खं । अह जइ सक्खसमीहा, तवेस निच्चं तवं तत्तो ॥९३५।। पाविय नरवरजम्म,सम्मं न चरेइ जो तवो कम्मं । रयणमयदीवपत्तो, गिण्हइ गुंजाण सो पुंजं ॥९३६।। मह भालतले तिलया, तेसिं कमरेण कणगणा हंत । तवतरवारी करेहिं, निम्महियं जेहिं मोहबलं ॥९३७॥ दासाण वि दासोहं, जणाण निच्चं पि ताण भिच्चो हं। तवसत्तिपत्तलीहा, मणिसीहा जत्थ निवसति ॥९३८।। काऊण तवविसेसं, मूढो जो महइ पूय-सक्कारं । सो सरिसवमित्तेणं, तुच्छमइ हारए मेरुं ॥९३९।। 2010_04 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जो चयइ चक्करिद्धिं, तवइ तवं उत्तमेस से रेहा । अहमेस तस्स रेहा, विसयसह महइ जो तवसा ॥९४०॥ उक्तं चपरां कोटिं समारूढौ, द्वावेव स्तुति-निन्दयोः । योऽत्यजत्,तपसे चक्रं, यस्तपो विषयाशया ॥९४१ ।। बज्झ-तवाउ पहाणं, अब्भंतरमेव कम्पनिम्महणे । तत्थ वि एगच्छत्तं, रज्ज झाणेण संपत्तं ॥९४२ ।। जे के वि भवसमई, तरंति तित्रा य जे तरिस्संति । ते सव्वे जाणिज्जस, झाणं जाणं समारूढा ॥९४३॥ आजम्मकूरकम्मा, संहारिय सुरहि-नारि निवहा वि । पज्जंते वि चरित्ता, घोरतवं झ त्ति सिज्झंति ॥९४४॥ जिण-गणहरआइण्णं बारसभिन्नं गुणोहसंकिन्न । निच्चं पि रोहिणी विव, कुणस तवं सिध्दिमिच्छंतो ॥९४५।। रोहिणीकहा - दाणपरायणलोया, झाणपरायणमुणिंदसंदोहा । निच्चमहूसवमहुरा, महरानयरी, इह भरहे ।।९४६॥ महिवालमउलिमाणिक्कनिवहसंकंतचरणतामरसो । अरिसिरिहरणिक्करसो, नरसीहो तत्थ नरनाहो ॥९४७॥ नियरिध्दिविजियधणओ, धणओ नामेण सव्वजणपणओ । मणिआरसिदितिलओ, निवसइ नीसेसगणनिलओ ॥९४८॥ दोहग्गदद्धरेहा, कलहकरासु पि पत्तजयरेहा । पच्चक्खा चामंडा, भज्जा से रोहिणी नाम ॥९४९॥ सोहग्गसिरोमणिणा परिणीया तेण विविहकनाओ । सह ताहिं कुणइ कलह, एसा संजायविद्देसा ॥९५०॥ कहमवि धणओ जइ तं, वारइ तत्तो इमा पयंपेइ । तुमए अहयं निद्दय! कुसुमिणमिव नेव सरियव्वा ॥९५१ ।। 2010_04 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा ७५ उव्वेइएण तेणं, सुत्ता. रयणीए गुरुयपेडाए । खिविऊणं जमुणाए पवाहिया निययपुरिसेहिं ॥९५२॥ जामिणि-विराम-समए, महल्ल-कल्लोल-पिल्लिया एसा । मंजूसा संलग्गा, विजयत्थलगामतित्थम्मि ॥९५३।। अह गामसामिएणं, दळं कहकहवि नित्रया तीरे। उत्तारिय नियगेहं, नीया सिद्धत्थनामेण ॥९५४॥ उग्घाडंतो पिच्छइ, मज्झे विकरालकालतणमित्थिं । पणमेइ थणेइ तत्तो, भीओ चामंडबद्धीए ॥९५५॥ तं थव्वंतं वारिय, जंपइ सा भाय ! नेव चामुंडा । किं पण रोहिणी नामा, धणिणो धणयस्स भज्जा हं ॥९५६॥ जइ सच्चं मह भाया, तो मं पट्ठवस पण वि महराए । सह जेण सवत्तीहिं, करेमि कलहं ससत्तीए ॥९५७॥ अह आह गामसामी, जामि! निसामेसु मह फुडं वयणं । कलहेस सकम्मेहिं,किं होही अन्नकलहेण ? ॥९५८॥ न वि का. वि कज्जसिद्धी, परम्मि विविएहिं रोस-तोसेहिं । रुससु तूससु निच्चं, जम्मंतरनिम्मिए कम्मे ॥९५९।। रूसंति परजणेसं, जम्मंतरअकयसकयसंभारा । कयसुकयाण नराणं, भुवणमिणं सरणमल्लीणं ॥९६०॥ इत्तो यअभियत्थि सेवणिज्जो,विसालबोही लसंतवरकरुणो । अत्तारामो दंदुहिगहीरसंरावछउमेणं ॥ ९६१ ।। आरामपाडिसिद्धिं, पयडतो भवणभूसणो नाम । गामस्स समासने, आरामे केवली पत्तो ॥९६२॥ जुयलं सो रोहिणिपमुहाणं,नमिय निसबाण महुरवाणीए । जयनिक्कारणबंधू, बंधुरमिणमाह उवएसं ॥९६३ ।। सोहागं तरुणी-मणाण हरणं तारं तहतेउरं । पासाया नयणप्पसायजणया लच्छी मणोवंछिया ॥ ६०॥ 2010_04 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ दुर्द्दता करिणो चला य हरिणो देसा मणोहारिणो । चिन्नेणं तवसा हवंति कमसो सिद्धी वि संपज्जए ॥९६५ ॥ जो गिद्धो तिव्वतवं, न कुणइ कप्पूर-चंदणवणेहिं । एरंडपायवाणं, करेइ सो वाडिपरिवाडिं ॥९६६॥ ता भद्दे ! दुहरोहिणि ! रोहिणि ! साहेमि तुझ परमत्थं । जइ महसि कह वि भद्दं तत्तो तिव्वं तवं चरसु ॥९६७॥ विन्नवइ सा वि सामिय करुणायर ! कहसु मज्झ तव भेया तत्तो भयवं साहइ, तिस्सा सुपसिद्धतवनिवहं ॥९६८॥ इंदियजयनाम तवो कसायविजओ य जोगसुद्धी य । सोहग्गकप्परुक्खो तव नामा हुति एमाई ॥ ९६९॥ सोहग्गकप्परुक्खो, सव्वतवा चेव सव्व संपत्ती । सव्वे इंदियविजया, सव्वे वि हु सच्चवरनामा ॥ ९७० ॥ किं पुण भवियजणाणं, भावो उल्लसइ विविहनामेहिं । इय तवविसेसनामा, निम्मविया सव्वदसीहिं ॥९७१ ।। इंदियजयनामतवे, पंचलयाओ लयाइपत्तेयं । पुरिमड्ढिक्कासण- निव्विगइय अंबिलवासा ॥ ९७२ ॥ पढमं इक्कासणगं निव्विगयं अंबिलं च उववासो । इय एगलया एवं कसायविजयम्मि चउलइया ॥ ९७३ ॥ निव्विगयंबिलखमणा, कायव्वा तिहिं लयाहि पत्तेयं । नवदिणमाणो एसो, हवइ तवो जोगसद्धि त्ति ॥९७४॥ नाणे दंसण - चरणे, पत्तेयं तिन्नि तिन्नि उववासो । तेसिं पूयणपुव्वं, तवम्मि नाणानामम्मि ॥ ९७५ ॥ उववासएगभोयण, इगसित्थं तह य इक्कठाणं च । इग दत्ति निव्वियंबिलमट्ठयकवलं च निद्दिट्ठे ॥९७६॥ एसा एगा लइया, अट्ठइ लइयाहिं दिवसचउसट्ठी । तवमट्ठकम्मसूडणमिणमिह कुज्जा कणयपरसुं ॥ ९७७॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा ওও एक्कं पडिवइ दोन्नि य,बिइया एमेव पनरखमणाणि । कुज्जास पनरसीए, एस तवो सव्व संपत्ती ॥९७८॥ रोहिणिरिक्खे खमणं, कुज्जा पुज्जं च वासुपुज्जस्स इय होइ रोहिणितवो, सत्त य वरिसाणि मासा य ॥९७९॥ मोणेणं एक्कारस, कुज्जा एक्कारसीउ खमणेहिं । सयदेवि-तवो एसो, सयदेवी पूयणापव्वं ॥९८०॥ निम्मलपक्खे खमणा, कायव्वा अट्ठ अंबिलंतरिया । सव्वंगसुंदरतवे, जिणपूयण-खंति नियमजुया ॥९८१ ।। निरुजसिहो विय एवं, नवरं तं कणस बहलपक्खम्मि । ओसहपमहेहिं तहा, एत्थ गिलाणम्मि पडियरस ॥९८२।। एक्कासणगंतरिया, बत्तीसं अंबिला य कायव्वा । इह परमभूसणतवे, वसणदाणं जिणाणं च ॥९८३।। आयइजणगतवम्मि वि बत्तीसं अंबिलाणि एमेव । अणिगूहियबलविरिओ,हवेसु इह धम्मकिरियासु ॥९८४॥ एक्कासणगंतरिया, चित्ते मासम्मि कुणसु उपवासा । सोहग्गकप्परुक्खे, सव्वरसं पारणं कज्जं ॥९८५।। उज्जमणदिणे जिणपयपुरओ वरकणयतंदुलाईहिं । कायव्वो कप्पतरू, दाणं साहूण दायव्वं ॥९८६॥ भद्दवयसक्कपक्खे, सत्तमिपमहासुमायरतवम्मि । सत्तसु तिहिसु एकासणगा जिणजणणि-पूयजुया ॥९८७।। समवसरणपमहा वि य, अन्ने वि तवा हवंति नायव्वा । सुपसिध्द त्ति न ते उण, परूविया एत्थ गंथम्मि ॥९८८॥ कलसो जिणग्गठविओ, अक्खयमुट्ठीइ पुज्जए जाव । जो तत्थ सत्तिसरसो, तवो तमक्खयनिहिं बिंति ॥९८९॥ जह निम्मलम्मि पक्खे एक्केक्क कलाइवड्ढए चंदो । तह पडिवइमारंभिय, कवला वड्ढंति पइदियहं ॥९९०॥ 2010_04 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सिरिपउमप्पहसामिचरिय एक्को पडिवइकवलो, एवं पन्नरस पुन्निमासीए । सामलपक्खम्मि पुणो, हायंति कला जहा ससिणो।।९९१ ।। तह पडिवयाइ पनरस कवला एक्को अमावसी दियहे । जवमज्झं चंदायणमेयं इगमासपरिमाणं ॥९९२।।। वोच्छामि वज्जमझं, सामलपक्खम्मि पडिवइतिहिए पनरस कवला एवं, अमावसाए हवइ इक्को ॥९९३।। निम्मलपक्खे इक्को, पडिवइ पन्नरस पन्निमासीए । इय वज्जमज्झचंदायणमेयं मासपरिमाणं ॥९९४॥ नाणाइवढिकज्जे, कज्जा नाणस्स पंचमिं विहिणा । पंचमिया वि य दुविहा, हवइ जहना य उक्किट्ठा ॥९९५॥ पढमाइ पंचमासा ,पंच य वरिसाणि हृति बीयाए । अन्ने जहन्नमेयं,वयंति बीयं तु जाजीवं ॥९९६॥ पुत्थयपूयापुव्वं इमाउ वहिऊण समयविहिएण । विहिणा उज्जमणविहिं, विहिणा जह सत्ति-भत्तीहिं ॥९९७।। मग्गसिर-माह-फग्गण-वइसाहे तह य जिट्ठआसाढे । सियपक्खपंचमीए, परिसो नारी व गिण्हिज्जा ॥९९८॥ जेणं तवसा दिक्खा, नाणं सिद्धी य तित्थनाहाणं । निक्खमणपमुहनामो, सो य तवो होइ नायव्वो ॥९९९॥ अंबिलमेगं खमणं, दोन्नि य आयंबिलाणि अह खमणं एवं खमणंतरिया, जाव सयं अंबिला नेया ॥१०००। आयामवद्धमाणं, तवमेयं इत्थ खमणसयमेगं । आयामाणसहस्सा, पंच य पत्रास अब्भहिया ॥१००१॥ एयम्मि तवच्चरणे, चउदसवरिसाणि तिन्नि मासा य । वीसं दिणाणि एयं, दिणमाणं सव्वसंखाए ॥१००२॥ लहसीहनिकीलियतवे, इग-दग-इक्कं तिगं च दो चउरो । तिग-पण-चउरो छक्कं, पंच य सत्तेव छच्चट्ठा ॥१००३।। 2010_04 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा ७९ सत्तय-नवगं अट्ठ य, नवगं सत्तेव अट्ठ छच्चेव । सत्त-पण-छक्क-चउरो, पण-तिग-चउरो द्गं तिन्नि ॥१००४॥ इग-दुग-एगं खमणा, चउपन्नसयं मुणिज्ज खमणाणं । पारणया तित्तीसं इय लयमाणा लया चउरो ॥१००५।। विगइजयं निव्वीय, निल्लेवं तह य हवइ आयाम । एवं कमेण कुज्जा, पारणया इत्थ लइयासु ॥१००६।। अडवीसाहिय दोन्नि य, वासा इह हवइ दिवसपरिमाणं । कम्मकरिदारणसहं, लहसीहनिकीलियं एयं ॥१००७॥ तह गरुसीहनिकीलिय-तवम्मि समयाणसारओ नेयं । कणगावलि-रयणावलि-मुत्तावलि-सव्वभद्दाइ ॥१००८॥ गुरु(ण) रयणवच्छरो वि य, विहियतवा दुक्खदावजलवाहा । अन्ने वि समयभणिया, नायव्वा इत्थ सयमेव ॥१००९॥ सोऊण इमं एसा, पडिवज्जइ केवलिस्स पासम्मि । उज्जुत्ता पुव्वुत्तं, सम्मं सव्वंपि तवनिवहं ॥१०१०॥ केवलिपन्नत्तेणं, विहिणा उव्वहइ आणपव्वीए । वेरग्गवासियमणा, सव्वतवे निच्चमुज्जुत्ता ॥१०११॥ तिस्सा उज्जमणविहि, सिद्धत्थो कणइ वइयबहअत्थो । अहवा तवोनिहीणं, देवावि कुणंति साहिज्जं ॥१०१२।। मणि-रयण-कणय-धण-कणवत्थप्पमुहाइवत्थुवित्थारा । उज्जमणेसुं तिस्साववकलिया तेण गुणनिहिणा ॥१०१३॥ तिस्सा तवनिवहं तं, विहसियवयणो पसंसए एसो । अणुमोयणाए तत्तो, आवज्जइ पुन्नपब्भारं ॥१०१३॥ जह जह कुणइ तवं सा, दढपइन्ना अणन्नसामन्नं । सरमिव गिम्हे तह तह, सूसइ से पावपत्थारी ॥१०१४।। दीसइ न चेव तिस्सा, देहे रस-मस-सोणियप्पमह। अइपयडा पुण कित्ती, न माइ से तिहुयणे सयले ॥१०१५॥ 2010_04 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरिय चिंतइ चित्ते धन्ना, पिययमधणएण जमुणसरियाए । . पक्खविय धुवं भवगुरुसरियं उत्तारिया अहयं ॥१०१६॥ तइया सिद्धत्थेणं कालिंदीए न केवलं अहयं । संसारघोरसायरमज्झाउ वि कड्ढिया नूनं ॥१०१७॥ ईसाणकप्पतियसो, मणिचूडो नियपियाए चवियाए । विरहदुहमसहमाणो, तं जाणइ अवहिनाणेण ॥१०१८॥ वरहार-कणयकुंडल-किरीड-केउरकणयदिप्पंतो । अच्छरियकरं रूवं, काऊणं भवणमनहरणं ॥१०१९।। गंतूण तीइ पासे, निसीहसमयम्मि सायरं भणइ ।। भद्दे ! तह तवसा हं, मणिचूडसरो इह पत्तो ॥१०२०॥ मणिगणकयनिम्माणे, विलससि निच्चं पि मणहरविमाणे. । अहयं पि सपरिवारो, हवेमि आणाकरो तुज्झ ॥१०२१॥ किं पुण इमं भणिज्जस, जइ मह तवसो वि अत्थिफलमतलं । मणिचूलं नाम सुरं, भत्तारं तो लहिज्जमहं ॥१०२२।। अहमवि दइया रहिओ तमं पि नियपिययमेण परिचत्ता अम्हाण तओ दोण्ह वि ईण्डिं जोगो हवइ जोग्गो ॥१०२३॥ सा आह सहय ! बहविहदरंत-भव-नाडएण नडिया हं । भग्गा विसयसुहाणं, लग्गा निव्वाणमग्गम्मि ॥१०२४|| को नाम पामरो वि हु, अमरपहत्तेण महइ रंकत्तं । को निक्कलंकतवसा, विसविसमं महइ विसयसुहं ॥१०२५।। सोऊण इमं तेणं,पहरिसपब्भारपूरियमणेणं । भणियं तं चिय धन्ना, तज्झ विवेयं वयं नमिमो ॥१०२६॥ सट्ठाणगए तियसे, साहिय सिद्धत्थसयलवुत्तंता । सा अणसणेण मरिउं अच्चयकप्पे सरो जाओ ॥१०२७॥ सिद्धत्थो वि दुवालसभेयं, परिवालिऊण गिहिधम्मं । तबंसणतिसिओ वि व, तत्थेव सुरो समुप्पनो ॥१०२८॥ 2010_04 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा इत्तो यजिणभवण-सिहर-विलसिरहरितासियहरिणलंछणकुरंगा । सिरिविजियचमरचंचा, चंपा नामेण अत्थि परी ॥१०२९।। मित्तोदयप्पयासियहरिसो अखंडमंडलो निच्चं । नामेण पुरिसचंदो, अहिणवचंदो निवो तत्थ ॥१०३०॥ सव्वंगसंदरीए, नवरं नामेण दंसणेणावि । दइयाए तस्स रन्नो, उयरे सिद्धत्थसुरजीवो ॥१०३१॥ चविऊण समप्पनो, रना पत्तस्स तस्स मणहरणं । कारियवध्दावणयं, नाम कयं समरसिह त्ति ॥१०३२।। पाविज्जइ परपारं, पारावारस्स अहव गयणस्स । तस्स गुणजलहिपारं सक्को वि न साहिउं सक्को ॥१०३३।। मायंदमंजुमंजरी-पराय-पिंजरिय-गयण-वित्थारो । पत्तो फुल्लियमल्लीवल्लीनिवहो सुरहिसमओ ॥१०३४॥ .. पत्ते वि ह महसमए, समइक्कंते वि बालभावम्मि । न वि समरसीहकमरो, विलसइ नयरे वि विलसंतो ॥१०३५॥ आहविय महीवइणा, देवी सहिएण सो इमं भणिओ । हे वच्छ । किं न विलससि ? विहवफलं इत्तियं चेव ॥१०३६।। उक्तं चयदि भवति धनेन धनी, क्षितितलनिहितेन भोगरहितेन । तस्माद् वयमपि धनिनः तिष्ठति नः कांचनो मेरुः ॥१०३८।। सो आह मज्झ इच्छा, पुज्जइ तुच्छाइ नेव लच्छीए । न वि हवइ कह वि तित्ती, करिणो जलचलयमित्तेण ॥१०३७।। नाऊण तस्स चित्तं, तत्तो आहविय राइणा भणिया । भंडारियनरनिवहा, दिज्जह जं मग्गए कमरो ॥१०३८।। अह समरसीहकुमरो, सहस्स संखाण निययमित्ताण । अप्पइ अप्पसमाणं, वरवत्थाऽऽभरणसंभारं ॥१०३९॥ 2010_04 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दाविय परम्मि पडह, सह चलियनराण मग्गियं विहवं । स-परवियारणरहिय, सच्छंदं वियरए कमरो ॥१०४०॥ सह तेहिं गंधसिंधरबंधरतरकंधरे समारूढो ।। धारासारारामे, पत्तो विलसेइ सच्छंदं ॥१०४१ ।। गंतूण मयणभवणे, तेणं नड-भट्ट-दीणदाणेहिं । कणयमयटंकयाणं, ववकलिया तिन्नी कोडीओ ॥१०४२ ।। भंडारिएहिं कहिए, वत्तंते राइणा सओ भणिओ । उत्ताणसिरोमणिणा, रे पावय! ते किमारद्धं ? ॥१०४४।। तित्तीसं कोडीओ, समग्गदेसम्मि एगवरिसेण। उप्पज्जंति वए पण, बत्तीसं जंति मह रज्जे ॥१०४५।। एगा टंकयकोडी, हवइ निहाणम्मि तं पुणो मूढ ! । अइमित्तेण वएणं, कोसमसेसं पि निट्ठवसि ॥१०४६।। कोसम्मि खयं पत्ते, कह वि हु पडियम्मि घोरभिक्खे । पत्ते वा परचक्के, धणं विणा कहसु किं कज्जं ? ॥१०४७।। सो जंपइ हे रायं, पायं कयसकयपरिससमयम्मि । पडिही नहि दुब्भिक्खं, परस्स चक्कं पि नाऽऽगमीही।।१०४८॥ राया रुट्ठो जंपइ, देसमसेसं पि मज्झ मुत्तूण । नियपुत्राणि पमाणसु, सिच्छाए धणं पयच्छेसु ॥१०४९॥ आएस त्ति भणित्ता, कुमरो करवालमित्तपरिवारो । नमिऊण जणणिपाए, निगच्छए झ त्ति नयराओ ॥१०५०॥ उक्तं चराज्यं वा वनवासो वा, धनं वा निधनं तथा । जानाहि जनकाधीनं, सर्व सत्पत्रचेष्टितम् ॥१०५२॥ सो कमसो गच्छंतो, पत्तो सेलम्मि वरविसालम्मि । तत्थ नियच्छइ धनियं, धममाणं धाउवाइगणं ॥१०५२ ।। सो जंपइ इह तारा, निवडइ संपइ अमोहवसुधारा । 2010_04 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा तव्वयणेण पलाणो रसस्स पडिबंधओ तियसो ॥ १०५२॥ उक्तं च सख्या बुद्धया न यत् साध्यं, सहसा साहसेन च । तत् स्याद् वचनमात्रेण, कार्य पुण्यवतां ध्रुवम् ॥१०५३॥ पडिया सुवन्नरासी, ते वि हु नाऊण कुमरमाहप्पं । जंपंति तुज्झ दव्वं, सव्वमिणं गिण्ह ता एयं ॥ १०५४ || कमरो उदारचित्तो, वियरइ सव्वं पि धाउवाईणं । जंपइ य समरसीहं, रायं सोऊण एज्जाह ॥१०५५ ॥ सो पुरओ गच्छंतो, पत्तो गामम्मि चणयनामम्मि । तुंदिलजक्खदुवारे, सुत्तो सहयारमूलम्मि ॥१०५६ ॥ महिमाए तस्स सहसा,सहयारो मंजुमंजरिसणाहो । जाओ परहुय - कलयलवायालो थंभियच्छाओ ॥ १०५७॥ तलिसुत्तह पुण्णग्गलह, रुक्खवि छाह करंति । पुत्रविहुणह सज्जणवि, झत्ति परम्मुहं हुंति ॥ १०५८।। दियहम्मि तम्मि जक्खं, पूइउकामो निकामबहुमाणो । पुनोवाईयनिवहो, गामजणो तत्थ संपत्तो ॥ १०५९ ।। चिंतइ जक्खो नूणं, एसो महिमा इमस्स कुमरस्स । अह नहि मह विहिओ, महूसओ कहवि केणा वि ॥१०६० ॥ अवगयनिद्दामुद्द, तत्थेव य कोउगेण उवविट्ठे । कुमरं निसाए जंपइ, जक्खो होऊण पच्चक्खो ॥१०६१ ॥ साहसिय ! सागयं तुह, तुज्झागमणेण अज्ज सत्थो । तह पुन्नचुन्नमहिमा वसीकओ निच्चभिच्चो हं ॥ १०६३॥ किंच - सो चेव ताव अहमो, जो खलु देहि त्ति जंप कवि । जो पुण नहि त्ति जंपइ, तओ वि अहमाहमो एसो ||१०६४ || तत्तो अहं तुमं पइ, किं पि हु पत्थेमि जइ तुमं भसि । कुमरो जंपइ साहस, तुह कज्जं इह मए कज्जं ॥१०६५ ॥ 2010_04 ८३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं । सो आह मज्झ भवणे, नीसाए निच्चं पि जोइणी-चक्कं । इक्कं घित्तूण नरं, समेइ खाएइ तं हणिउं ॥१०६६॥ नाहं त तन्निवारणसक्को रंक व्व तेण हे धीर ! परिहवदुक्खे, इमं रुदं तुंदं महं जायं ॥१०६७।। निग्गहसु जोइणीओ, पुरिसं रक्खेसु कुणसु मं सुहियं । कुमरो आह मए च्चिय, सव्वं भव्वं विहेयव्वं ॥१०६८॥ अह डमडमंतडामरडमरुयडक्कारविहियसंखोहं । कय जयजणसम्मोहं, जोइणिचक्कं तहिं पत्तं ॥१०६९॥ कोणतरिए कुमरे, जोइणिगणसामिणीए संजमिओ । पुरिसो भणिओ सुमरसु, मरणे पत्तम्मि इट्ठसुरं ॥१०७०।। सो आह किं सरेहिं, सरिएहिं वि उवलनिव्विसेसेहिं । एक्को च्चिय मह सरणं, जम्मंतरनिम्मिओ धम्मो ॥१०७१।। वेयाल-भूयरक्खस-साईणि-जोइणि-भूयंगकरि-हरिणो । धम्मेण हंति विमहा, गहा य साणग्गहा सव्वे ॥१०७२॥ इच्चाइ जंपयंतस्स, तस्स जा देइ जोइणी घायं । ता तत्थ हवइ पयडो, कमरो करकलियकरवालो ॥१०७३।। हे जोगतत्तनासिणि! नरसंहारिणि! इमो सपरिवार । उवसंहरामि तमयं, वणं व दावानलो जलिओ ॥१०७४॥ वयणेण तस्स ताओ, अंचलघाएण मच्छियाउ व्व । उड्डीणा तेण करे, सा जोइणीसामिणी धरिया ॥१०७५।। भणिया य तेण मरिहिसि, पावसि पावाण अज्ज पज्जतं । सा भणइ ममं सपरिस ! मंच करिस्सामि जं भणसि ॥१०७६ सो भणइ हणेयव्वो, तमए कइया वि नेव नरविसरो । आमं ति भणंतीए, तीए वायं करावेइ ॥१०७७।। तं मंचइ जक्खं पइ, जंपइ किं तं सि संपयं सहिओ । जक्खो जंपइ तुमए, भुवणं पि हुं सुत्थियं विहियं ॥१०७८॥ 2010_04 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा पुच्छइ कुमरो परिसं, कह तं पत्तो इमाए पावाए ? | किं नाम तुज्झ नामं? को जणओ कत्थ वत्थव्वो ? ॥१०७९।। सो भणइ अहं नयरे पउमिणिसंडम्मि वम्महो नाम । मयणस्सरूवनिज्जियमयणस्स सुओ कलाकुसलो ॥१०८०॥ मज्झ निमित्तं वरिया, जणएण पियंगमंजरी कन्ना ।। कंचणमयकंचणपरनिवासिवरुणस्स वरतणया ॥१०८१॥ नियसयणनिवहसहिओ, मयणो गरुयाए जस्स जत्ताए । कंचणपुरं पुरं पइ, तोसियमग्गणगणो चलिओ ॥१०८२॥ कंचणपरम्मि पत्तो, वरुणेण समप्पियम्मि पासाए । आवासिओ तहिं चिय, अहमवि चिट्ठामि हिट्ठमणो ॥१०८३॥ अह अहिमकरो वारुणिपरिणयणत्थं च अत्थगिरिसिहरे । संपत्तो अरुणकरो, कयकुंकुमअंगराउ व्व ॥१०८४॥ ताणं वीवाहमहे, दिया निसव्वति तारसंरावा । संझारायमिसेणं, नज्जइ पज्जालियो जलणो ॥१०८५॥ तिल-जवनिवहं तत्थ य सतिमिरतारयछलेण दियनाहो । हुणइ तहा कइरविणी, गायइ रोलंबरोलमिसा ॥१०८६।। तत्तो जामिणिकामिणिमुहसोहे विहियकुमयपडिबोहे ॥ तिमिरभरचरड-लूडणदुध्दरफारक्कचक्कम्मि १०८७।। घणसारसारचंदणविलित्तअभिसारियाण अंगेसु । निम्मलमुत्तियनिम्मियआभरणसमाणकिरणभरे ॥१०८८।। कयभुवणमणाणंदे, चंदे घणचंदिमाए हिययम्मि । कयउल्लासो मणिमयपासायमहं समारूढो ॥१०८९।। अमयमयकिरणलहरीनिब्भरसिप्पंतसयलसव्वंगे । निद्दामुद्दासोक्खं, मुहुत्तमित्तेण पत्तो हं ॥१०९०॥ जग्गेमि जाव ताव य अप्प पिच्छामि झ त्ति संतत्थो । किलिकिलिरजोइणीगणपरियरियं एत्थ भवणम्मि ॥१०९१ ।। 2010_04 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरिय कंचणपुरम्मि नयरे, विहिया वीवाहसयलसामग्गी । विज्जइ तत्तो हा ! कह, तत्थ मए कुमर ! गंतव्वं ? १०९२॥ तहदुहिओ कुमरो, जक्खं जंपेइ नरमिमं सहसा । आरोवियनियखंधे, मंचस सयणाण मज्झम्मि ॥१०९३।। जक्खो कुमरगिराए, खंधे तं ठविय रुंदतंदो वि । मंचइ खणमित्तेणं, नेउं कंचणपरे नयरे ॥१०९४॥ संहरिय सयलसोयं, परिणयणमिमस्स तत्थ संजायं । जक्खो कमरसयासे, पत्तो कमरेण तो भणिओ ॥१०९५॥ एज्जा समरियमित्तो, देसंतरदसणाय अहयं त । गच्छिस्सं जखेण आमं ति विसज्जिओ भणिउं ॥१०९६।। सो पर-गामसमूह, सचमक्कारं निएहिं चरिएहिं । कुव्वंतो संपत्तो, नयरे सिरिमंदिरे कमसो ॥१०९७।। मरगयमणिमयमंदिरकिरणेसं जत्थ लालसायंतो ।। दुव्वाभमेण हरिणो, धुवं मयंक कयत्थेइ ॥१०९८॥ तत्थ महाबलनामा, विसालसामलदियंतपट्टेस । लिहियपसत्थिसमूहो तारयछउमेण महिनाहो ॥१०९९॥ चलियम्मि जम्मि अरिणो, केसरिणो संभमंपि अगणंता । बहु सावयसंकिण्णे, वसंति रन्ने पिया हुज्जा ॥११००॥ सोलसवन्नसवण्णं कसि-दिन्नं तडिवसेण लीलाए । नियवन्नेण जयंती, तस्स जयंती पिया भज्जा ॥११०१॥ सा ऐहिणीए जीवो अच्चयकप्पाउ चविय नियसमए अवसिठ्ठपव्वपनो, अवयन्नो तीए उयरम्मि ॥११०२।। तिस्सा जम्मे केण वि, सुरेण रयणाण निम्मियावुट्ठी । तो तीए रयणमंजरि नाम निम्मावियं रत्ना ॥११०३॥ सा सव्वचंगअंगा, हत्थं हत्थाओ अंकमकाउ । संचरमाणा कमसो, वड्ढइ अवरोहछाय व्व ॥११०४।। ___ 2010_04 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा ८७ अहिगयकलाकलावा, पत्ता लायण्णलहरिमणहरणं । नवजोव्वणावयारं, विहियवियारं सुराणं पि ॥११०५॥ विहियारंभस्स इमा, वम्महवीरस्स भवनविजयाय । लायन्नसलिलपुण्णं, चलिरं दुग्गं व पडिहाइ ॥११०६॥ तिस्सा नवमुहपंकयलच्छिं पिच्छित्तु पंकएहिं पि । पंके अप्पा खित्तो ससी नहे भमइ संतत्थो ॥११०७।। तं दठूणं तरुणा, सुराण ओवाइयाई वियरंति । तिव्वतवं तरुणीओ, कुणंति विविहेस तित्थेस ॥११०८॥ हरिहिययअंधयारे, लक्का लच्छी उमा य तह मन्ने । हर अद्धंगपविट्ठा, जीसे समसिसिया भीया ॥११०९॥ निम्मलकवोलदप्पणसंकेता जीइ रयणताडंका ।। लायण्णामयणहरए, सहति खत्त व्व ससि-सूरा ॥१११०॥ पाउससमए एसा, पिच्छिय सरियाए गरुयमंजूसं । पूरेण निज्जमाणिं, जाईसरणं समणुपत्ता ॥११११।। तो पव्वभवब्भासा, भणिज्जमाणा वि जणणि-जणएहिं । परिसं विसं व मनइ, अवमन्नइ तस्स चित्तं पि ॥१११२।। छेएण तेण रत्ना, पुरस्स ईसाणकोणदेसम्मि । निम्माविय मणिभवणं, एसा मक्का तहिं कन्ना ॥१११३॥ सा नारी परिवारा, कहमवि मणिभवणसिहरमारूढा । पिच्छेइ समरसीहं, पविसंतं नयरमज्झम्मि ॥१११४॥ मन्नइ मणम्मि एसा, इमस्स नरसेहरस्स अमयमया । का वि नवा तणलच्छी, गई वि अवरा नवा का वि ॥१११५।। मन्ने नरो न एसो, किं पण अम्हारिसाण सहीयाण । उवरिमिणं पारक्कं, हयविहिणा इत्थ पट्ठवियं ॥१११६॥ जम्मसयरम्मपिम्मो, तत्तो मह को वि बंधवो एसो । इय चितंती एसा, तेण वि कुमरेण सच्चविया ॥१११७॥ 2010_04 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो चिंतइ का एसा, ? दलेहि केहिं व निम्मिया केण ? । विहिणा पडिछंदेणं, केण व काए व सिक्खाए ? ॥१११८।। मन्ने नियरूवेणं, जियाउ एयाए तियसतरुणीओ । निवसंति सग्गदग्गे रसायले अच्छराओ वि ॥१११९॥ सीमंतिणी समूहा, ते धन्ना जे इमीए परिवारे । आमरणं परिसत्तणकलंकिया अम्हारिसा धिद्धी ॥११२०॥ इय चिंतिराणि दोन्नि ,वि नलिणीनालोवमेहिं सरलेहिं नयनेहिं दूरे वि हु, पियंति पिम्मामयं ताणि ॥११२१ ।। खणमित्तेण कुमरो, वच्चइ नयरस्स मज्झयारम्मि ॥ अह रयणमंजरीए चित्तं परिमुणियपिम्ममयं ॥११२२ ।। धाई पेसइ दासिं, कुमारवुत्तंतजाणणनिमित्तं । । कमरो उण परमज्झे, संपत्तो सन्न-देवउले ॥११२३॥ अह मत्तवारणोवरि, उवविसियमणम्मि चितिउं किंचि । गहिऊण खडिखंडं, लिहइ सिलोग इमं खंभे ॥११२४|| अनीहमानोऽपि बलाददेशज्ञोऽपि मानवः । स्वकर्मवातैरुत्पाट्य, नीयते यत्र तत्फलं ॥११२५॥ अद्धम्मि सिलोगस्स य, लिहियम्मि कुमारपाणिकमलाओ कहमवि खडिया पडिया, गया य दरम्मि सहस त्ति ॥११२६॥ सो तत्थ रसंतरिओ, अप्पं परिवारमज्झयारम्मि । कलयंतो कुणइ करं, पउणं तम्मग्गणा कज्जे ॥११२७।। खानिविट्ठातइया, कुमारपडिपुन्नपुत्रमाहप्पा । उत्तरिउं पत्तलिया, तस्स करे अप्पए खडियं ॥११२८॥ लिहिए पुनसिलोगे,गंतु तं वइयरं असेसं सा । स चमक्कारा कत्रा, पच्चक्खं कहइ धाईए ॥११२९॥ अह रयणमंजरी सा, जंपइ हे अंब ! भवणमणहरणं । जम्मंतरसयसंचियसुकयाणं पिच्छ माहप्पं ॥११३०॥ 2010_04 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा कयसकयाणं पत्थरघडिया पंचालिया वि आएसं । साहति अउनाणं, परम्महा अंकदासा वि ॥११३१॥ लिहिएण सिलोगेणं, एयं तक्केमि निच्छियं को वि । एसो नरिंदपुत्तो, सुदूरदेसंतरा पत्तो ॥११३२॥ आसन्ना रज्जसिरी, इमस्स फलमसरिसं इमं चेव। अवह कह परिवारे, इमस्स पंचालिया हंति ? ॥११३३॥ धाई जंपइ सामिणि ! कयसुकयसिरोमणी धुवं एसो । पत्तो च्चिय तमए वि ह निरिक्खिओ साहिलासाए ॥ ११३४।। रज्जसिरी पण तं चिय इमस्स कुमरस्स हवसि जं दइया । रज्जे वि फलमिणं चिय जं तरुणिसिरोमणी रमणी ॥११३५।। उक्तं चराज्ये सारं वसुधा वसुधायां पुरं पुरे सौधम् । सौधे तल्पं तल्पे, वरांगनानंगसर्वस्वम् ॥११३६॥ अह आलाणक्खंभं, उम्मूलइ सरलनलिणिनालं व । समरभयंकरहत्थी, दुद्धरमयसलिलदुद्धरिसो ॥११३७॥ सविसाय निसाईहिं, धारिओ पडियारकरणविमुहेहिं । पडिकारेहिं तिस्सा, सो पत्तो भवणपासम्मि ॥११३८।। कुचकुंभेणं मंथरगईए, तं मुणिय निययपडिवक्खं । सामरिसो वि व तिस्सा, भवणं वि हु पाडिउं लग्गो ॥११३९।। आयड्ढइ दढथंभे पयंडसुंडाइदंतमुसलेहिं । घोरासणिसरिसेहिं पाडइ वरभित्ति संघायं ॥११४०॥ राया पायारठिओ विहत्थ चित्तो पयंपए तत्तो । जो एयं मह कन्नं रक्खइ कन्नाए भवणं च ॥११४१ ।। वरगाम-देस-पट्टण-कन्नाए सुहाणि तस्स वियरामि । अह समरसीहकुमरो सोऊण इमं तहिं पत्तो ॥११४२।। पच्छासणस्स ठाणे, ताडइ तं घोरमट्ठियाएण । जह जह सहसा हत्थी, सो वि विहत्थो तया जाओ ॥११४३॥ 2010_04 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं रोसारुणम्मि सहसा, परिचलिए मत्तकुंजरे तम्मि । गयसिक्खाविहिदक्खो, सो तत्थ रमावए हत्थिं ॥११४४॥ दढमम्मघायविगलियमयसलिलं पिच्छिऊण तं हत्थिं । कयदंतोवरिचरणो, आरूढो तस्स खंधम्मि ॥११४५॥ सो गहिय अंकसो तं, निरकंसं पि ह निबंधए खंभे । धीराण य वीराण य, नत्थी असझं जए किंचिं ॥११४६।। एस असंभवचरिओ, नरचंदनरिंदसंभवो धीरो । समरेस पत्तलीहो, जयउ कमारो समरसीहो ॥११४७॥ इय मागहेण पढियं, केण वि उवलक्खिऊण तं कुमरं । नियगुणगणेहिं गरुया, हवंति पयडा किमच्छरियं ? ॥११४८॥ कुणइ महाबलराया, गोरव्वमिमस्स नायवत्तंतो । सव्वत्थ वि गोरव्वा, निएहिं चरिएहिं सप्पुरिसा ॥११ ४९।। रना कन्ना भणिया, पाणपहू ! गयवराउ रक्खंतो । सयमेव परा एसो, जाओ संपइ तमं कणस ॥११५०॥ पन्नेहिं पत्ति ! भत्ता, लब्भइ एसो त्ति सा वि काऊणं । तइया मोणं गाहं, पेसइ दासीए कमरस्स ॥११५१॥ मणिओ मणुस्स सारो, अणुहूयं दारुणं तहा दुक्खं । जीवो जीवियकामो, को जाणतो विसं खाइ? ॥११५२॥ सो नियमईए केण वि, नरेण जम्मंतरम्मि संतवियं । तं जायजाइसरणं, मणिय सिलोगं विसज्जेइ ॥११५३।। सत्वानां चरितं चित्रं, विचित्रा कर्मणां गतिः । नारी-पुरुष-तोयानां, श्रूयते चान्तरं महत् ॥११५५।। सा वाइऊण सहसा, सिलोयमेयं नियम्मि चित्तम्मि । तं चिय मनइ कुमरं, छेयं परिहरियविद्देसा ॥११५४॥ धाईमुहेण राया, सम्मं मुणिऊण निययधूयाए । परिणयणमणं हिट्ठो, गणएहिं गणावए लग्गं ॥११५५॥ 2010_04 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा समवय-रूव धराणं, अहिणववरपिम्मरम्मचित्ताणं । ताणं करेइ विहिणा, वीवाहमहं महीनाहो ॥११५६।। वित्ते दसाहियमहे, विचित्तपासायसिहरमारूढो । तियसाण वि मणहरणं, विलसइ सह तीए रमणीए ॥११५७॥ वरिसदुगे वक्कंते, दिणावसाणम्मि भवणसिहरम्मि । सा दासिनिवहवरिया, दिट्ठा खयरेण एगेण ॥११५८।। सो नियमणम्मि मनइ, धनो सो चेव भवणवलयम्मि । तरुणेस तस्स रेहा, जस्स इमा लग्गए कंठे ॥११५९॥ मन्ने विहिणा विधिणा, घडियं एयाए वरिसकोडीए । एक्कं पि चंगमंगं, अवह कहमेरिसं रूवं? ॥११६०॥ इय चिंतिय तं तरुणिं, दासीपमहाण मज्झयारे वि । अवहरइ झ त्ति खयरो, गणंति न ह किंचि कामंधा ॥११६१ ॥ झ त्ति महल्लसमूहा, महल्लसद्देण तारपक्कार । कव्वंति धाह नरवर! कुमार! हा! हीरए देवी ॥११६२॥ को वि ह एस दरप्पा, अवियप्पं नियकलत्तमिव देविं । मन्नतो हरिऊणं, तरियं तरियं इमो जाइ ॥११६३॥ अत्थाणसहासीणो, महाबलो समरसीहकमरो य । पुक्कारं सुणिऊणं, संभंता तत्थ संपत्ता ॥११६४॥ रायाइजणं सव्वं, संठविऊणं पयंपए कमरो । रे विज्जाहर! तुमए दिट्ठो भूगोयरो अहयं ? ॥११६५॥ जइ जासि सायरते, जइ वा वच्चेसि सग्गमग्गंते । पायालतले जइ वा, तह वि ह एसो अहं पत्तो ॥११६६॥ तत्तो तेणं सरिओ, जक्खो तत्थेव आगओ अह सो । तं रुंदतंदजक्खं, आरुढो तस्स वयणेणं ॥११६७।। पिच्छंताण जणाणं, सकोउगाणं पयंपए कमरो । हे जक्खराय ! वच्चसु, तत्थ तुम जत्थ सा मुद्धा ॥११६८॥ 2010_04 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अवहिबलेणं सव्वं, मणिऊण नहम्मि उप्पइत्तूणं । सो मलयसिहरिसिहरं, निमेसमित्तेण संपत्तो ॥११६९।। पिच्छइ खेयरमेगं, कमरो कयलिहरस्स मज्झम्मि । नियरूवविजियमारं, देवी पुरओ पयंपतं ॥११७०॥ रंभोरु! रुयसि किं खलु ? खयरं मं मुणसु सेहरं नाम । सवियड्ढसिरोरयणं वेयड्ढे जयपुरीनाहं ॥११७१ ।। वरखयररमणिसिरमणिनिघिट्ठचरणा चरेसि सच्छंदं । रम्मारामसएसं, मं मन्निय वल्लहं दुलहं ॥११७२॥ सा आह खेयरो वा, सरो व असरो व किन्नरो अहवा । नलकूबरो व महतं, परिहरणिज्जो ससीलाए ॥११७३।। तिस्सा गिराइ एसो, पयडिय रोसो करालकरवालं । आयड्ढिऊण जंपइ, मं मन्नस सरस इटुं वा ॥११७४॥ इत्थंतरम्मि कुमरो, पयडो होऊण खेयरं भणइ । निग्घिणसेहर ! सेहर! रे रे! मारेसि किं रमणिं? ॥११७५॥ अज्जेव दुईतेणं, इमेण पावेण पडसि रे पाव! । इय जंपिरेण तेणं सह, समरं कुणइ सो खयरो ॥११७६॥ दो वि हु कुणंति समरं, घोरं ते तरवरंततरवारी । तह जह गयणम्मि दहा, जाओ सूरो वि सत्तासो ॥११७७॥ कुमरेण भग्गखग्गो, खयरो परिहरिय निययकरवालो । मट्ठीए हओ सीसे, तह जह नट्ठो गहिय जीवं ॥११७८॥ जक्खेणं निम्मविए, रयणविमाणम्मि सो समारूढो । पत्तो दइया जत्तो, हरिसिय लोयं नियं नयरं ॥११७९।। कुमरस्स अणनाए, जक्खो पत्तो नियम्मि ठाणम्मि । अन्नम्मि, दिणे कुमरे, अत्थाण सहासमासीणे ॥११८०॥ पत्तं एग विमाणं, मणिरयणसमूहविहियनिम्माणं । उम्मुहनरविसरेणं, पिच्छिज्जतं सुदिप्पंतं ॥११८१॥ 2010_04 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा नीहरिय विमाणाओ, सुरेण एगेण केसरिकिसोरं । आरूढेणं कमरो, नमिओ नमिरुत्तमंगेण ॥११८२।। सीहासणे निवेसिय, तं तियसं सायरं समरसीहो । पुच्छेइ किं निमित्तं, कहेसु पत्तोसि मह पासे ? ॥११८३ ।। सो आह कुमर । भरहेवासे एत्थेव अत्थि अत्थीहिं । चत्तं जहत्थनामं, सयदुवारं पुरं रम्मं ॥११८४।। नयरम्मि तम्मि, चंचलअसंखवाहो वि मक्कजणवाहो । नामेण भुवननाहो, महिनाहो परिहसमबाहो ॥११८५॥ एसो पुत्तनिमित्तं, आराहतो सुराण संदोहं । कालक्कमेण पत्तो, पंचत्तं पत्तपरिचत्तो . १८६।। वहणं व निप्पडाय, रज्जं दोलायए असेस पि । सव्वे वि गोत्तजाया, परिमिलिया खत्तिया तत्तो ॥११८७।। घोरं कुणंति समरं, सव्वे तत्थेव रज्जकज्जेणं । अह मंती मंतंता, कणंति एवं परिच्छेयं ॥११८८॥ तुम्हाणमणुनाए, इत्थं पुरे दारवासिणिं देविं । आराहेमो निच्चं, सच्चं भवियव्वयं नाम ।।११८९।। जो तीए सयलतिहयणजणनिवहअलंघणिज्जमहिमाए । पयडाए आइट्ठो, रज्जे सो चेव कायव्वो ॥११९०॥ आमं, ति तेहिं भणिए, मंती सव्वे वि विहियवरपूया । कयविविहतवविसेसा, सरंति भवियव्वयं देविं ॥११९१ ॥ सा सत्तमम्मि दियहे, पयडा देवी पयंपए उचिओ । एएसिमउन्नाणं, मज्झे न वि को वि रज्जस्स ॥११९२ ।। सिरिमंदिरम्मि नयरे, निवसंतो समरसीहवरकमरो ।। कयसकयसिरोरयणं, उचिओ एयस्स रज्जस्स ॥११९३।। किं भणह कहं एसो, निवतनओ आगमिस्सए एत्थ ? । एसो पेसिय किंकरमहयं तं आणइस्सामि ॥११९४॥ 2010_04 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ इय जंपिय देवीए, अहयं निय किंकरो समाइट्ठो । अमयंबराभिहाणो, केसरिजाणो इहं पत्तो ॥ ११९५॥ ता कुमर ! सयदुवारं नयरं विलसंतसोयसंभारं । आगंतूणमणाहं, कुणसु सणाहं तुमं तत्थ ॥ ११९६॥ अह कुमरो नियससुरं, मोयाविय रयणमंजरी सहिओ । तं किरणमंजरीगणमणहरणविमाणमारुढो ॥११९७॥ पत्तो सयद्दुवारे, पइदारलसंततोरणसणाहे । सयमेव भयवई से, सम्मुहा भवियव्वया हवइ ॥११९८ || सो तीए तियसतरुणीगणेहिं रोमंचचंग अंगेहिं । गिज्जंत धवलमंगलनिवहो रज्जम्मि अहिसित्तो ॥ ११९९ ॥ सव्वे खत्तियपुत्ता, नमंति मनंति तं चिय नरिदं । भवियव्वयाहिभव्वा, सव्वं भव्वं धुवं कुणइ ॥ १२०० ॥ देवी सपरिवारा, कुमराणुनाइजाइनियठाणे । सो उण नियपुन्नेहिं, निरवज्जं पालए रज्जं ॥ १२०१ ॥ दुर्द्दते सामंते, दमेइ ठावेइ विविहदेसेस नियमित्ते निब्भिच्चे, भिच्चे सो धरइ निय पासे ||१२०२ ॥ सरिऊण जणयवयणं, महंतसामंतनियरपरियरिओ । नरचंदनरिंदोवरि, उत्तमलग्गम्मि संचलिओ ॥ १२०३॥ चलियम्मि तम्मि निबिडं, धूलीपडलं नहम्मि त्रियं । सुरसरियं पि हु सहसा, करेइ भूचारि - सरिसरिसं ॥ १२०४ || काउं सीससहस्सं, सेसेण धरा धरिज्जमाणाव । सकुलाचला वि जाया, चलाचला तम्मि चलियम्मि ॥१२०५॥ वरुणस्स व अरुणस्स व, हरिणो धरणस्स वा उवरिमेसो । चलिओ त्ति विचिंतता, समंतओ तस्स सामंता ॥१२०६ ॥ तंब्बक-बुक्क-ढक्काकाहलकोलाहलं इमं इंतं । तस्स जणयस्स पढमं, कहंति पवरा चरा पच्छा ||१२०७॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा देव! तुहो वरिमेसो, सयद्दुवारस्स अहिणओ राया । आगच्छइ तो हच्छं, जं जाणसि तं कुणिज्जा ॥ १२०८ ॥ सहमंतीहिं मतं, काऊणमिमो वि सम्मुहो चलिओ । वीरा समरारंभे, मरणे वि परम्मुहा नेय ॥ १२०९॥ दुह वि जणय - सुयाणं, कमेण सिन्नाणि ताणि मिलियाणि । दारुणरणाय सरसा, उत्ताला कंसतालु व्व ॥१२१०॥ ते दो वि जुद्धवीरा, विणिवारिय इयरलोयसंहारं । कुव्वंति रहारूढा, समरारंभ ससंरंभा ॥ १२११ ।। कोदंडदंडताडणटंकाररवेण निययपासम्म । जयलच्छीमाहवंता, वीरा वरिसंति सरविसरं ॥ १२१२ ॥ गयपुत्राण नराण व, मणोरहा रहियचक्कवट्टीहिं । अन्नोनं तेहि सरा, अद्धपहे चेव निच्छिन्ना ॥ १२१३ ॥ वियरंता सरविसरं, दुगुणं दुगुणं च दो वि तव्वेलं । पिच्छिय सुरेहिं दिट्ठा, अहिणव अहिमनुसारिच्छा ॥१२१४ ॥ निरविक्खं नरचंदो, अयाणमाणो हणेइ नियतणयं । साविक्खं निय जणयं, जाणतो पहणए कुमरो ॥१२१५ ॥ नरचंदनरिंदस् य, जहत्थनामेण समरसीहेण । को दंडचंडदंडो, विक्खंडिओ खरखुरप्पेण ॥१२१६ ॥ जं जं राया तइया, गिण्हइ बाणासणं च सामरो । तं तं कुमरो खंडइ, पयंडबाणेहिं जा वीसं ॥ १२१७॥ खणमित्तेणं तेणं, च्छिन्नं छत्तं पडाइया छिन्ना । छिन्नो य रहो संगरमणोहरो तस्स नरवइणो ॥१२१८॥ चिंतइ चित्ते राया, (अह ) अहयमिमेण परियरवि । उल्लूरिय नवपल्लवलवो व्व रुक्खो कओ सहसा ॥१२१९॥ अह समरसीहमुक्को, बाणो वरअक्खरेहिं चिंचइओ । पडिओ निवपयपुरओ, वायइ रायं इमं गहिउं ॥१२२० ॥ 2010_04 ९५ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं हे ताय ! तुहाएसा, नीहरिओ पुनपत्तवररज्जो । सोलस समाहिपत्तो, तह तात ! नमइ समरसीहो ॥१२२१ ।। नाऊण इमं राया, जाओ सहसा सहस्सगणदेहो । अइउद्दामसरेणं, जंपइ हे वच्छ ! हच्छमागच्छ ॥१२२२॥ सह अमरिसेण धणहं मत्तूण महीललंतसव्वंगो । विणयम्मि पत्तलीहो, अह आगच्छइ समरसीहो ॥१२२३।। सयमेव तओ गंतं, राया उप्पाडिऊण नियतनयं । तह परिरंभइ दुक्खं, चिरविरहभवं जहा भग्गं ॥१२२४।। काऊण तमच्छंगे, परियणउवणीयमासणं राया । कलिऊणं पणरुत्तं, सीसं अग्घायए तस्स ॥१२२५।। अहिणवलग्गं धूलिं, राया चेलंचलेण सयमेव । अवणेइ तह सिणाणं, देइ व आणंदसलिलेहिं ॥१२२६।। रना पट्ठो कुमरो, साहइ सव्वं पि वइयरं निययं ।। गरुया जणयाइनें, सयमेव कणंति सव्वं पि ॥१२२७॥ अह रयणमंजरी सा, आगंतं नमइ रायपायाण । रना भणियं वच्छे! सासू सरिसा हविज्जास ॥१२२८॥ ते एगबंधबंधुरसिंधुरवरकंधरं समारूढा । सामंतसहससहिया, विसंति चंपाए नयरीए ॥१२२९।। सिरधरियमेहडंबरछत्ता, नयरीए तीए पविसंता । अमरावइ नयरीए, जयंतसक्क व्व नजंति ॥१२३०॥ नयरी जणो पयंपइ, वरविक्कमविनयपुनवंतेसु । परिसेस पत्तलीहो, चिराउ दिट्ठो समरसीहो ॥१२३१ ।। धनं तं चिय नयरं, जत्थ इमो भमइ रायवाडीए । सा चेव पया धन्ना पयमिव जं पालए एसो ॥१२३२ ।। जेणेव सरोसेणं, पुराउ निव्वासिओ पुरा रना । तेणेव सतोसेणं, आणिज्जइ अहह! पुनानि ॥१२३३।। 2010_04 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा इच्चाइलोयवाय, सोऊण निवो विसेसओ तुट्ठो । जणयाउ सओ अहिओ, जणेइ महिमं ख जणयस्स ॥१२३४॥ ते दो वि जणय-तणया, विभिन्नधवलहरसिहरमारूढा । चिरमणुहवंति सुक्खं, दुहलेसकलंकपरिमुक्कं ॥१२३५।। समयंतरम्मि रज्ज, दाऊण तस्स कमरस्स । सरगरुगरुपयमूले, पडिवनं चारुचारित्तं ॥१२३६॥ अह समरसीहराया, सयमेवसयदवारनयरम्मि । आगंतूण पयाणं, चिरविरहभवं हरइ दुक्खं ॥१२३७।। सो भरहखित्तखंडे, तिन्नि वि साहेय विक्कमसणाहो नाय-ववसाय-साहसपराण पुरिसाण किमसझं ? ॥१२३८॥ जिणभवणेहिं पहवीमग्गा रह-तित्थविविहजत्ताहिं । विहवेण मग्गणगिहा, पडिपुत्रा तेण निम्मविया ॥१२३९॥ अह समरसीहरायं, सोऊणं धाउवाइणो सव्वे । सो वि ह वम्महनामो, संपत्तो तस्स पासम्मि ॥१२४०।। सो तइया ते सव्वे पूरइदाणेण सद्धणा कुणइ । इयरो वि उद्धरिज्जइ परियणसयणाण किं भणिमो ? ॥१२४१॥ तह तेण सव्वदेसे, पयाणसत्थं विणिम्मियं रना । जह भरह-सगरपमहा, विम्हरिया सव्वलोयाणं ॥१२४२॥ सो वाससहस्साइं, कित्तियमित्ताणि निययपनेहिं । रिद्धि-समिद्धं रज्जं, परिपालइ नियपिया जुत्तो ॥१२४३।। नयरे सयदुवारे, अब्रदिणे मत्तमहुयरारामे ।। केवलनाणी पत्तो, निव्वाणधरो त्ति सुपसिद्धो ॥१२४४॥ राया वनपालेणं, विनत्तो पारितोसियं तस्स । दाऊण रयणमंजरी सहिओ, चलिओ गुरुं नमिउं ॥१२४५।। पच्चक्खं मक्खं पि व, तं मणिनाहं नियम्मि चित्तम्मि । सो मनंतो राया, पणमइ उवविसइ महिवीढे ॥१२४६ ।। _ 2010_04 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मुणिनाहो नरनाहं, उदारनरसेहर वियाणित्ता । अपडिचक्कं पुरओ, चक्कसिरि वनए तस्स ॥१२४७।। सोलस जक्खसहस्सा, वावत्तरि पट्टणाण सहसाणि । चुलसीइ रहाईणं, छन्नवई गामकोडीणं ॥१२ ४८।। बत्तीसं मउडद्धयरायसहस्सा तहेव चउसट्ठी । अंतेउरीण सहस्सा, परिवारे हुंति चक्किस्स ॥१२४९।। इच्चाइवयं तं, मुणिनाहं झ त्ति भत्तिसंजुत्तो । सो पच्छइ कहमेयं, पाविज्जइ चक्कवट्टित्तं ? ||१२५०॥ जंपइ भयवं एसा, लब्भइ तवसा नरिंद! वररिद्धी । तह हुति इत्थ भुवणे, विमाणवरवासिणो देवा ॥१२५१॥ जे मेरुं पि हु गेरुयपिंडं पिव चंडदंडघाएण । चुन्निय खिवंति सहसा, दिसोदिसिं एक्कफुक्काए ॥१२५२ ।। चुलुएण सायरं पि हु, पिबंति उत्थिल्लयंति महिवीढं । दिस्सअदिस्सा अणुणो, लहणो गुरुणो य जायंति ॥१२५३ ।। रूवाणि असंखाई, कुणंति वरअच्छराहिं परियरिया । सुहसायरावगाढा, गर्मिति सायरसमं कालं ॥१२५४॥ देवाण वि कह रिद्धी लब्भइ? कहस त्ति पच्छिए रना । भणियं मुणिणा तवसा, देवाण वि लब्भए रिद्धी ॥१२५५॥ तह नरवर ! देवाण वि, पहुणो इंदाइ हवंति अहिययरा । जेहिं कुलिसेण निहया, सुरा वि मच्छंति छम्मासा ॥१२५६॥ बत्तीस-अट्ठवीसाइलक्खसंखाण वरविमाणाण । अहिवइणो वररज्जं, कुणंति सुरकोडिपरियरिया ॥१२५७॥ इंदाण वि कह रिद्धी लब्भइ ? कहसु त्ति पुच्छिए रत्ना । साहइ सामी तवसा, हवंति सहसा सुरिंदा वि ॥१२५८॥ तह नरवर ! इंदाण वि, महणिज्जा अट्ठकम्मनिम्महणा । हयअट्ठारसदोसा, चउव्वीसाइसयसंपुना ॥१२५९।। 2010_04 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीकहा पणतीसाइसयगिरो, अट्ठमहापाडिहेरकयसोहा । तिहुयणअणन्नपहुणो, तित्थयरा हुंति भवणम्मि ॥१२६०॥ तित्थयराण वि रिद्धी लब्भइ ? कह नाह ! कहसु इय पुट्ठे । भासइ भयवं एसा, वि हवइ तवसा सुचिणं ॥१२६१॥ तह दिक्खापारंभे, तित्थयराणं तिलोयपुज्जाणं । नमणिज्जा निस्सेसिय कम्मंसा देहपरिमुक्का ॥१२६२॥ इगतीसगुणसमेया, सव्व पइट्ठाय पगरिसं पत्ता । तहणंतचउक्कजुया, हवंति सिद्धा जयपसिद्धा ॥१२६३॥ सिद्धत्तं पि नरेसर ! लब्भइ चित्रेण घोरतरतवसा । तो कुणह तवं तिव्वं, हियकामा - सत्ति भत्तीहिं ॥१२६४॥ भणइ निवो तिव्वतवं भवंतरे सामि ! किं मए विहियं ? | रोहिणि- सिद्धत्थाणं, साहइ तत्तो भवं भयवं ॥१२६५॥ सिद्धत्थो मरिऊणं, जाओसि नरिंद ! समरसीहो तं । सा रोहिणी वि जाया, तुह जाया रयणमंजरिया ॥१२६६॥ तइया इ रोहिणीए, तवं कयं बहुमयं च जं तुम । उज्जमणेहिं तत्तो, जायं सरिसं फलं तुम्हं ॥१२६७॥ तह नरवर ! संसारे, भाया मरिऊण हवइ भत्तारो । भइणी जायइ जाया, तणओ वि भवंतरे जणओ || १२६८|| सोऊण इमं जाई, सरिऊणं रयणमंजरी जायं । तणयं विजयं रज्जे, अहिसिंचइ सो महीनाहो ॥१२६९ ॥ मुणिणो तस्स समीवे, सो राया रयणमंजरी सहिओ । पडिवज्जियपवज्जं, पियाइ जुत्तो सिवं पत्तो ॥ १२७०॥ रोहिणि-सिद्धत्थेहिं, विहियं जह बहुमयं च तिव्वतवं । तह कुणह तवो निच्चं, बहुमन्नह अत्तहियकामा ॥१२७१ ॥ भणियं दाणं सीलं तवो य इहिं तु भावणा वं । साहेमि सदिट्ठतं, धम्मं भवभमणसंहरणं ॥ १२७२ ।। ॥ इति तपसि रोहिणीकथा समाप्ता ॥ 2010_04 • ९९ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सिरिपउमप्पहसामिचरियं भावणा धम्मे सुरसुंदरकुमरकहा - सुद्धेण केवलेण वि, भावेण लहंति सासयं सुक्खं । भावविमक्कं सयलं, अफलं दाणाइयं भणियं ॥१२७४॥ अवकसिपायवो विव, अफलो सव्वो वि धम्मवावारो । भावविमुक्को तत्तो, विसुद्धभावं सया कुज्जा ॥१२७५।। सुरमंदिरमप्पडिम, अप्पडिमं पि हु निरत्थयं चेव । एवं सव्वा किरिया, निरत्थया भावपरिमक्का ॥१२७६॥ वयणं व नयणरहियं, नयणं व कणीणियाए परिमुक्कं । कसमं व गंधरहियं, जीवविमक्कं सरीरं व ॥१२७७।। रयणं व दित्तिरहियं, गयणं व मयंक-मंडलविमक्कं । मित्तं व असब्भावं, नयरं व जणेहि परिहीणं ॥१२७८।। सद्दो व अत्थरहिओ, परिसो विव विहवनिवहपरिहीणो । राया व नायरहिओ, रह व्व चक्केण परिमुक्को ॥१२७९ ।। पक्खी व पक्खरहिओ, आरामो विव तरूहिं परिचत्तो । समणुव्व खमा रहिओ, तरु व्व मूलेहि परिहीणो ॥१२८०॥ भज्ज व्व पिम्ममुक्का, लवणविमुक्क व्व रसवई चेव । वीणा विव गयतुंबा, अनायगा तह य सिन्न व्व ॥१२८१ ।। वेस व्व कलारहिया, सरसी विव सलिलनिवहपरिहीणा । सव्वा वि धम्मकिरिया, न रेहए भावपरिहीणा ॥१२८२।। (सप्ताभिः कुलकम्) अवि य - जो जेण धम्मकम्मं, भावेण करेइ दाण-सीलाई ।। सो तारिसफलनिवहं, लहइ पमाणं तओ भावो ॥१२८३।। उक्तं च - भावशुद्धिर्मनुष्यस्य विज्ञेया सर्ववस्तुषु ।। अन्यथाऽऽलिङ्ग्यते कान्ता, भावेन दहिताऽन्यथा ॥१२८४॥ दाणाइधम्मरहिया, के वि ह कलिऊण केवलं नाणं । 2010_04 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा वरभावणाइसिद्धा, सुरसुंदररायकुमर व्व ॥१२८५।। सुरसुंदरराय कहा - इत्थेव पढम दीवे, जंबद्दीवम्मि आइमो जलही । पायाल-कलससहिओ, लवणवरो सायरो अत्थि ॥१२८६।। लवणोयनीरतीरे, केसर-कणियार-करुणरेहतं । हिंताल-साल-ताली-तमाल-तिलयालिपरिकलियं ॥१२८७॥ अंकल्ल-विल्लि-मल्ली-सल्लइ-किंकिल्लिपल्लवाइन । मायंद-कंद-मंदारगहिरमयरंदवासियदियंतं ॥१२८८।। पुनाग-नागवल्ली-लवंग-नारंग-रंगिया-भोगं । पणधणसयविच्छिन्नं वेलावणमत्थि सपसिद्धं ॥१२८९।। पवणंदोलिर-साहासंदोहमिसेण असरिसं सोहं । कलिउं जस्स जडा वि ह, तरुणो वि सिरं धणंति व्व ॥१२९०॥ अइउच्चतरुसिरेसुं, सहइ सवियासकुसुमरिछोली ।। आयासगमणसंता, वीसंता रिक्खपंति व्व ॥१२९१॥ वणसंडमज्झयारे, दलपडलंतरियतरणिकरपसरो । सालो विसालसालो, महामहल्लो वडो आसि ॥१२९२।। उड्ढं साहाहिं अहोमलेहिं समं सया विवढंतो । सग्ग-रसायलमाणं, गहिउमणो जो उ पडिहाइ ॥१२९३॥ एसाऽचलाचलत्तं, धरिज्जधरणीकयाइखयकाले । इय वडवाइमिसेणं, बंधे वित्थारए तीसे ॥१२९४।। जस्स सिरम्मि पभाए, पढम चिय अरुणकिरणनिउरंबो । रेहइ तरूस मज्झे, रविविहिओ पट्टबंध व्व ॥१२९५॥ कारंडव-कादंबग-रहंग-सारंग-कुरर-कीराणं । कोलाहलच्छलेणं, पहियजणं वाहरंत व्व ॥१२९६॥ तं चिरकालपरूढं, जरदं कलिऊण जायवीसंभा । कयनिबिडनीडबंधा, वसंति विहगा तहिं चेव ॥१२९७|| अजुनदिनकोमलमुणालनालेहिं निम्मियाहारं । 2010_04 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सिरिपउमप्पहसामिचरिय निरुवमसिणेहसारं, सारस-मिहुणं वसइ तत्थ ॥१२९८।। जुण्हा-ससीण नह-अंगुलीण तह देहवयवाणं । जीव-भवियव्वयाणं, उवमाणं लहइ तनेहो ॥१२९९॥ समगं नहम्मि समगं, महिम्मि समगं नइम्मि सच्छंदं । रममाणाण य ताणं, वक्कंता कइवि कालकला ॥१३००।। अह अन्नया इ दइया पियस्स परओ नियाए भासाए । गब्भभरनिब्भरालसदेहा जंपेइ सुवियारं ॥१३०१ ।। पिययम ! पच्चासन्नो, समओ पसवस्स वट्टए मज्झ । बढ्दोसकोससालं, एयं पिच्छामि वडसालं ॥१३०२॥ अस्सहिं - बहदहिया इव अधणस्स पासि दीसंति वंसजालीओ । अनयनिरयस्स आवइमाला इव दावमालाओ ॥१३०३।। जइ कह. वि दिव्वजोगा, वंसो वंसेहिं घंसिओ अग्गी । जायइ तो मह सरणं, मरणं चिय बालसहियाए ॥१३०४॥ मत्तूण इमं तम्हा, जलनिहिजलसंठियम्मि वडसाले । एगागिम्मि विसाले, निविडं नीडं करिज्जासु ॥१३०५॥ निरवायम्मि पएसे, सया वि इह सहम-दीह-दंसीहि । आवासो कायव्वो, विसेसओ जायजाएहिं ॥१३०६॥ अह सारसो वि तं पइ, जंपइ उल्लुंठनिठुरं एयं । अइकायरा सि अइपंडिया सि अइभूरिभविसनिउणासि । मायासि जमेयं, रुक्खं संताणसंगयनिययं । इह तुह अहिययरा वि हु, पुव्विं बहुया पसूयाओ ॥१३०७॥ लोगपसिद्धी एसा, सहिज्जं पंचहि जणेहिं सह दुक्खं । वसियाणि पुणो इहयं, बहूण पक्खीण लक्खाणि ॥१३०८।। अविय जइ कह वि दिव्वजोगा, जायइ जायाण को वि हु अवाओ । ता रक्खेमि अहं चिय, मरेमि अहवा न संदेहो ॥१३०९।। 2010_04 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ सुरसुंदररायकहा अह भाविरसंतावं समिउं व विमुक्कनित्तनीराए ॥१३१०॥ भणियंतीए सुपुरिस ! सरिज्ज एयं नियं वयणं ॥१३११॥ इय विहियववत्थाए, कालपसूयाणि तीए जायाणि । पिउवंछियाणि विहिचिंतयाणि समगं पवड्ढंति ॥१३१२।। इत्थंतरम्मि सहसा, अवरुप्परवंसघंसनिप्फनो । विहियबहुतडक्कारो, दावो पज्जलिउमारद्धो ॥१३१३॥ पढमं धूमसमूहो, अंधीकयकाणणो समच्छलिओ । गमणमणाण दवेणं, दिसिहणणत्थं व संदिट्ठो ॥१३१४॥ जालामालाउ तओ, दवस्स दीसंति नहयलच्छंगे । पाणिगणहरणसज्जा, जमविहिया जीह-निवह व्व ॥१३१५॥ जस्स पसाएण जयं, जीवइ सयलं पि सो वि दवसहिओ ॥ मारणहेऊ वाऊ, अहो ! कुसंसग्गमाहप्पं ॥१३१६॥ धगधगधगति खयरा, तडयड तट्टति वंसवणसंडा । सिमिसिमिसिमंति सिंसिवि-वणाणि जलिए दवे तम्मि ॥१३१७।। अइउच्चसक्कसिंबलिसिरेस जलिओ दवाणलो सहइ । किं किं रस्स मए, दद्धमदद्धं ति पिच्छंतो ॥१३१८॥ तं पिच्छिय सारसिया पभणइ हा हा ! हयम्हि जायाणि । किह कायव्वाणि मए ? संपइ पिय ! उज्जमिज्जासु ॥१३९९।। इय विलवणसमसमयं दावो वड-विडवि-सिहरमारूढो । पल्लवलवाण जलियं पुंजं निडम्मि मुंचंतो ॥१३२०॥ मा रुयस भीरु । तमयं, रक्खेमि अहं नियाणि जायाणि इय सो आसासंतो, संपत्तो सारसो तत्थ ॥१३२१॥ दढनेह-मोहियमणा, वल्लहसहिया वि सारसी तत्तो । पत्ता आसनाए, सरसिजसाराइ सरसीए ॥१३२२।। तत्तो दन्नि वि ससलिलमणालनालेहिं नलिणपत्तेहिं । छायंति नियं नीडं, अवच्चसंतावहरणट्ठा ॥१३२३॥ आणतयाण ताणं, जइ वि हु डझंति पक्खपिंछाणि । 2010_04 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तिलतुसतिभागमित्तं पि तह वि न वि तुट्टए नेहो ॥१३२४।। मुहगहियनलिणनाला, आगच्छइ पुण वि सारसी जाव । ताव दवानलजालावलीहिं विडवी वि संवलिओ ॥१३२५।। तं पिच्छिउं वराई दूसह-दुह-भार-भारियसरीरा ।। पडिया तड त्ति नीडे अहह ! अहो ! नेहमाहप्पं ॥१३२६॥ पउमिणिदलेहिं नीडं, पिहिऊणं पक्खसंपुडं उवरि । वित्थारिऊण थक्का, दावानलताव समणत्थं ॥१३२७॥ सूसंतनलिणपत्ते, बाहपवाहेहिं सा वि सिंचंति । बाले तडप्फडते दळु परिचिंतिउं लग्गा ॥१३२८॥ पिच्छ तया भणिएण वि, न कयं नीडं जडेण जलरुक्खे । एयं दत्थावत्थं, कुबुद्धिणा पाविया तेण ॥१३२९॥ मुत्तूण निय पइन्नं, भारं पिव भारवाहगो गंतुं । अनाइ सारसीए, घडिही घरवाससंबंधं ॥१३३०।। मह पुण मरणगयाइ, वि बालयसहियाइदिट्ठिमेलावो । अइनिट्ठरेण न कओ, तेणं पज्जंतकाले वि ॥१३३१॥ हा विहि हयास ! निठुर ! कीस तए एरिसी कया मेरा । कुल-सील-सालिणी वि हु, नारी परिसाण दासि त्ति ? ॥१३३२॥ हे दिव्व ! तुज्झ पणया, कुपुरिसदासित्तदूसियं महिलं । मा मं करेसु. पुणरवि, एस मए अंजली बध्दो ॥१३३३ ।। जइ कह वि दिव्वजोगा, पणरवि मम हज्ज कामिणी जम्मो । न पुगे विडंबणत्थं, नराण अप्पं समप्पिस्सं ॥१३३४॥ एवं चिंतंतीए, तीए विद्देसवासियमणाए । निय नीडमागओ वि हु, न जाणिओ सारसो कह वि ॥१३३५॥ तहाहि - दढनेहमोहियमई, नलिणीनालाइइमो सो वि घेत्तूणं । जा पत्तो ता तेणं, तहट्ठिया सारसी दिट्ठा ॥१३३६॥ चिंतइ मणम्मि सो वि हु, पिच्छह तच्छाइ मह कबुद्धीए । 2010_04 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १०५ अइदीहदंसिणी वि हु, दइया दुक्खे इहं ठविया ॥१३३७।। न तहा दहेइ दहणो, न तहा निहणेइ वइरिओ कुद्धो । । न तहा विसं पि तावइ, जइ विचलंता नरं बद्धी ॥१३३८॥ हा हियय ! किं न फुट्टसि, संपइ निल्लज्ज ! मुक्कमज्जाय ! दहें दइया मरणं, सयं कयं बालमरणं च ? ॥१३३९॥ चिंतंत च्चिय एवं, जलंतजालावलीण मज्झम्मि । पक्खी तड त्ति पडिओ, लक्खीकाउं नियं नीडं ॥१३४०॥ दइया देहस्सुवरि मुत्तूणं सरसनलिणनालाई । वित्थारिय पक्खजओ थक्को नियमरणनिरवेक्खो ॥१३ ४१ ।। इत्तो य तत्थ सिहिगलकज्जलनीलेण नहयलपहेण ताणं पुनवसेणं, विज्जाहरमिहुणगं पत्तं ॥१३ ४२ ।। वररयणनियरनिम्मिय विमाणमज्झम्मि सहनिविट्ठाए विज्जाहरीए तं तह दटुं कारुण्णपनाए ॥१३ ४३।। भणिओ नहयरनाहो, पिच्छस पक्खीण निब्भरं नेहं । एवंविहो सिनेहो, कयाइ न सओ कहाहिं पि ॥१३४४॥ निब्भरसिनेहविहुरं, रक्खसु ता णाह ! मिहुणगं एयं । उवयारकज्जसज्जा, विज्जासत्ती हवउ सहला ॥१३४५॥ इय पाणपियावयणं, निसामिय नियधणहसज्जजीवाए । ताणं जीवणकज्जे, वारुणबाणो कओ तेण ॥१३४६।। मक्कम्मि तम्मि सहसा, सिहिगल-गवला-ऽलि कुवलयच्छाया अहिगहिरं गज्जंता, वारिधारा तत्थ उत्थरिया ॥१३४७॥ धाराधरेहिं धारानियर, सव्वत्थ वरिसमाणेहिं । पियवयणेहिं व विरहो, विज्झविओ सो वि दावग्गी ॥१३४८।। होऊण तओ हिट्ठा, तं दिलै कंठदेसगयपाणं । दवदद्धसलिलसित्ताणि पक्खपिछाणि धूणतं ॥१३४९॥ खयरो भणइ समत्थो, पाणत्ताणं न संपयं काउं । जीवियदाणा अहियं, देमि नमुक्कारमेएसि ॥१३५०॥ 2010_04 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इह सुलहमरणकारणभवम्मि दल्लह ख जीवियं ताव । जीवाण जीवियाओ, समाहिमरणं पुणो दुलहं ॥१३५१॥ सुलहं चक्कहरत्तं सुलहं देवत्तमहव-इंदत्तं । सव्वं पि इमं सुलहं, समाहिमरणं पुणो दुलहं ॥१३५२॥ ता दाहिणसवणेसं, सारसमिणस्स तस्स खयरेण । दिनो सुनमुक्कारो, खयरीए वामसवणेसु ॥१३५३॥ बहिरंगमंतरंगं, तावं पावं कमेण निहणंतो । परमेट्ठिनमोक्कारो, आकंठं छुटिओ तेहिं ॥१३५४।। मरुमंडलम्मि गोरुयनियरो, चिरकालपावियं सलिलं । घंटइ जहा सइण्हो, तह तं गिण्हइ नमोक्कारं ॥१३५५॥ परिपूरियं समंता, पंचनमक्कारनीरपूरेहिं । तेहिं नियहिययसरं, घडिनालसमेहिं सवणेहिं ॥१३५६।। मरिउं सारसमिहुणं, तस्स पभावेण भिन्नभिन्नम्मि । रायकुले उप्पन्न, कुमरी-कुमरत्तभावेण ॥१३५७॥ विज्जाहरमिहणं पण, मरणं कलिऊण तस्स मिहणस्स । करुणारसरसियमणं, संपत्तं निययठाणम्मि ॥१३५८|| जत्थ पुरे जायाई, जस्स य रायस्स मंदिरे ताणि । जं किर नामं तेसिं, तं सव्वं साहिमो इण्हिं ॥१३५९॥ जंबद्दीवे दीवे इहेव, वासम्मि भरहनामम्मि । पढवी विलया तिलयं सरितिलयं नाम वरनयरं ॥१३६०॥ चंदमणिघडियसोवाणसोहिया भवणदीहिया जत्थ ।। रित्तजलाउ वि दिवसे, पनजला हंति रयणीए ॥१३६१ ।। नयविक्कमोवसाहियमहिवलओ तिलयसुंदरो राया । तं परिपालइ नयरं, नयरंजियदसदिसाचक्को ॥१३६२॥ जस्स य पयावदाओ, दहेइ परकित्तिकाणणं सयलं । नियकित्तिवल्लिमूलं, चित्तं निच्चं पवड्ढेइ ॥१३६३॥ तस्स य पिययममाणसमाणससरवासराय हंसि व्व । 2010_04 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १०७ सयलावरोहतिलया, देवी तिलयावली नाम ॥१३६४॥ सह तीए विसयसह, अणहवमाणस्स नरवरिंदस्स । नयणनिमीलणमित्तं, व कइ वि वासा वइक्कंता ॥१३६५॥ सो सारसस्स जीवो, उयरे तिलयावलीए देवीए । अवइनो कयपत्रो, विविहोवाइयसहस्सेहिं ॥१३६६॥ जाए पसत्थलग्गे, उच्चे परमोच्चठाणमणपत्ते । पाएणं गहचक्के, सा देवी पसवए पत्तं ॥१३६७॥ निम्मवइ विहियदाणं, राया किज्जंत सव्वसम्माणं । उग्घुट्ठ अभयदाणं, वद्धावणयं सुहावणयं ॥१३६८।। विहिएसु ऊसवेसु, सुमुहुत्ते सुरसमाणरूवस्स । सुरसुंदरु त्ति नामं, तस्स कयं जणणि-जणएहि ॥१३६९।। रिखण-पयप्पयाणे, मम्मणभणिए य केसअवणयणे । तह अन्नपासणाइसु, जम्मसमाणा महाविहिया ॥१३७०॥ उवयारो विव उत्तमनरम्मि, धम्म व्व मणयजम्मम्मि । परिवड्ढंतो कमसो, संजाओ अट्ठवारिसिओ ॥१३७१ ।। राया कलाकलावं, सयलं पि कलागुरुस्स अप्पित्ता । आयरपव्वं कमरं, अज्झावइ थेवदिवसेहिं ॥१३७२॥ तो गहियसव्वविज्जो, अणंगलीलानिवासमणुपत्तो । जोव्वणसमयं कमरो, विसेसरमणिज्जसव्वंगो ॥१३७३॥ मइनइसहस्स · सिंधू, बंधू अइविसमकज्जमग्गम्मि । पन्नोदउ व्व जीवस्स तस्स मइसायरो मित्तं ॥१३७४।। गणपक्खवायवसओ, परिचयवसओ य तस्स कमरस्स बंधू मित्तं मंती जाओ, सो चेव सव्वत्थ ॥१३७५।। सहियस्स तेण सरि-सर-आरामाईसु कोलमाणस्स । दोगद्गदेवस्स व, कालो परिगलइ कुमरस्स ॥१३७६॥ अन्नदिणे दिणनाहं, अत्थमयंतं पलोइडं राया । चिंतइ चित्ते सहसा, उग्गं संवेगमावतो ॥१३७७॥ 2010_04 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पिच्छह आइच्चस्स वि, सासयरिद्धी न चेव संजाया । एतियकालमिमो वि हु, उदयऽत्थमणेहि परिणडिओ ॥१३७८॥ अहवा - जलनिहिजलदोणीए, सूरो अत्थमयसमयसंपत्तो । जीवाणमाउमिणणी, घडियामुक्क व्व पडिहाइ ॥१३७९॥ ता जिन्नरज्जूबंधणसमेण रज्जेण मज्झ पज्जतं । जावऽज्ज वि थिरमाउं, सिद्धिसुहं साहिमो ताव ॥१३८०॥ इच्चाइचिंतिऊणं, लहयम्मि वि तम्मि चेव कमरम्म । विणिवेसियरज्जभरो, सकज्जकरणुज्जओ जाओ ॥१३८१ ।। सुरसुंदरकुमरो वि हु, नियमित्तनिविट्ठरज्जपब्भारो । धम्म-त्थ-कामवग्गं, आवहमाणो गमइ कालं ॥१३८२।। समयंतरम्मि जामिणिविरामसमयम्मि दिव्वजोगेणं । देव-गरु-पायपंकयकयसरणो सत्थदेहो य ॥१३८३॥ चिंताविवत्तचित्तो, समीरसिंभाइखोभपरिमुक्को । निद्दामुद्दियनयणो, सुमिणमिणं पिच्छए राया ॥१३८४॥ तथाहि - सो जाणइ संपत्तो, चंदउरदिसाइवणसंडमंडिउद्देसं । चउपासविविहमणिमयअसंखसोवाणमणहरणं ॥१३८५।। चक्कायचक्क-कलकलछलेण आहवियपहियजणनिवहं । कल्लोलमिलियगयणं, पउमसरं पिच्छए रम्मं ॥१३८६॥ जं चदसदिसिबहूण कीला विलाससरसि व्व पुहइविलयाए । तिलयं व गयणलच्छी, फालिहआयसभवणं व ॥१३८७।। तम्मि य सरम्मि जलनिहिसमाणवित्थारपरिगए सहसा । सिरिरामसिन्नविहियं, सेउं पि न पिच्छए पज्जं ॥१३८८॥ पज्जाबंधस्संते असंखमणिउवलसंचयाबद्धं । अइदढपीढं तस्से (व) मज्झ मज्झासियं नियइ ॥१३८९।। 2010_04 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १०९ पीढस्स उवरि सिसिरं, अंतो सोवाणमालियाकलियं । रयणसिलासयघडियं, दिप्पंतं दसदिसाचक्कं ॥१३९०।। अइसयउच्चत्तेणं, उल्लासितं व मज्झिमं गयणं । पिच्छइ कमेण सुमिणे, अइथोरथिरं महाखंभं ॥१३९१ ।। खंभस्स उवरि सासयपरिभमणपयासविहियवीसामं । मायंडमंडलं पिव उज्जोइयनहयलाभोयं ॥१३९२ ।। पवणचलसवणसहयरकणंतकिकिणिकलावकलिएहिं । विलंसतवेजयंतीसएहिं उग्घुट्ठ जयसदं ॥१३९३।। नीलिंदनील-मरगय-मसारगल्लाइरयणखंभेहिं । दूराउ पिच्छणिज्ज, मणिभवणं सो समारूढो ॥१३९४।। आरूढेण य सहसा, निज्जियरंभाइरूवसव्वस्सा ।। करकलियवेणुदंडा, अमुल्लपल्लंकसुनिसण्णा ॥१३९५॥ नियअच्छिपिच्छिएहिं, दीहर-तरलेहिं गयणमग्गम्मि । खीरोयजलहिलहरी पवाहमहिमं पसाहती ॥१३९६।। अवि य - वियसियकमलसरोवरलच्छी समसीसियाए गयणम्मि । वरइंदीवरकलियं कुणमाणा निययनयणेहिं ॥१३९७।। दरनिच्छोल्लियचंपयवन्ना कन्ना पवनतारुण्णा । भूसणमवि भूसंती, पलोइया संदरी तेण ॥१३९८।। सुमिणे वि सो विचिंतइ, अहह अहो ! रूवसंपया पवरा । . अहह अहो ! लायण्णं, अहह अहो ! जोव्वणारंभो ॥१३९९।। अच्छच्छ-फलिह-मरगयसभित्तिसंकंतचंगसव्वंगा । एगाणिणी वि बाला, सहइ सहीविंदपरियरिया ॥१४००।। मन्ने विहिणा विहिया, माणसमित्तेण सुंदरी एसा । नूणं न होज्ज खरकरफंसे एयारिसं रूवं ॥१४०१ ।। विज्जाहरेण केणइ, सुरेण असुरेण अहव मयणेण । ईसालुएण बाला, एसा मुक्का इहं दुग्गे ॥१४०२ ।। ___ 2010_04 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० साणुणयसवीसंभं, सप्पणयं तेण कोमलगिराहिं । संभासिय परिणीया, गंधव्वविवाहविहिपुव्वं ॥ १४०३ ॥ जइ वसणं जइ मरणं, जइ सुविणं जइ वि रोग - सोगाई । तह वि रसंतरघाई, को वि अहो ! कामसंरंभो ॥१४०४ || छेएण नेव दुण्हं, तइएण कयावि कहवि होयव्वं । इय चिंतिउं व निद्दा, अवसरिया तस्स पासाओ || १४०५ ॥ जा जग्गइ ता पिच्छइ, न तं सरं नेय मणिमयं भवणं । न य तं कन्नारयणं, अमयरसासारसुहजणयं ॥ १ ४०६ ।। केवलमप्पाणं चिय, निएइ निययम्मि वासभवम् । पासट्ठिय-उद्घट्ठिय नियंगरक्खेहिं परियरियं ॥१४०७॥ चित्ते चिंतइ एसो, कत्थवि सा हत्थिमंथरगईवि । हत्थे तालियाणं, दाऊण गया हहा ! तरुणी ॥ १४० ८ ॥ तं मणिभवणं रम्मं, छाया खेड्डोवमं अहो ! जायं । गंधव्वविवाहविही, जाओ गंधव्वनयरसमो ॥। १४०९ ॥ मन्त्रे सा मह हियए, साहियजोग व्व झत्ति सुपविट्ठा । अहवा मह संलावा, लुक्का सह सिद्धलज्जाए ॥१४१० ॥ सह मह मणेण मने, घडिया उक्कीरियव्व सा तरुणी । निक्कुट्टिय व्व अहवा, तम्मयभावं अहव पत्ता ॥१४११ ॥ रज्जं बंधणरज्जू, देहं दहणो धणं पि निघणं व । मारो विव परिवारो, तीए विणा मज्झ पडिहाइ ॥ १४१२ ॥ जीए निसाए दिट्ठा, जीए पिच्छिस्समहव ते दो सहला गणेमि सेसो, पलालसरिसो इमो जम्मो ॥१४१३ ॥ जो कोऽवि कन्नयं तं पुणरवि दावेइ एक्कवेलं पि । वेलं आजम्मंतं, वहेमि सुयणस्स तस्साहं ॥१ ४१४ ॥ तं मुणिय गरुयचिंता जरजज्जरियं व अवरदीवम्मि । ओसहिगवेसणमणो, संपत्तो ओसहीनाहो ॥१४१५ ॥ पडुपडह-भेरि-झल्लरि-सुधीर - गंभीर - तूर - आरावो ! 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १११ उच्छलिओ निवचिंतापिसाइया तासकारि व्व ॥१४१६॥ मह समए नरवइणा सा दिट्ठा तेण मह समीवम्मि ॥ मग्गिस्सइ त्ति एसो कलिउं व पलाइया रयणी ॥१४१७।। सूरेणं चिय सूरो, वसणगओ नूनमुद्धरेयव्वो । इय तिमिरभरं सहसा, निहणंतो उग्गओ सूरो ॥१४१८॥ पडिबोहियाई तेण य, जलजाई वि न उण एस नरनाहो । उत्तमभवो वि अहवा, कत्तो कामीण पडिबोहो? ॥१४१९।। दंतवणकरगपालगहत्था चेडी वि तयणुअणुपत्ता । पिच्छइ नाहं चिंताजालगयं उतनाहं व ॥१४२०।। इत्थंतरम्मि पंजरकीरो, वज्जरइ रायमुद्दिसिउं । जयदेव ! निवइमणिमयकिरीडकोडीनिघट्ठ चरणजग ! ।।१४२१ ।। तह देव ! पयाओ विव दिवसकरो एस उदयमणुपत्तो । लुक्काकोसियनिवहा, काणणकुहरेसु अरिणु व्व ॥१४२२ ।। देव ! दवारे चिट्ठति मंति-सामंत-तंतपाला य । परिहरचित्ते चिंतं अवहारसु दंतवणसमयं ॥१४२३॥ पत्ता वि कन्नपउलिं, विव्रत्ती तस्सिमा कयाणं व । न वि पविसे विविहत्थे बलाहिए माणसे रण्णो ॥१४२ ४।। किं कारणमत्थाणे, अज्ज वि नाऽऽगच्छए महीनाहो? इय चितंतो पत्तो, मंती मइसायरो तत्थ ॥१४२५॥ जाणूवरिविणिवेसिय सिरकमलं पिच्छए महीनाहं । मन्नावितं व पए, गच्छह तिस्सा समीवम्मि ॥१४२६।। विन्नत्तो वि समीवे, तेणं होऊण मंतिणा राया । चेयइ न किं पि चिंता अविरलविसलहरिभरिउ व्व ॥१४२७॥ उन्नामिय निववयणं परओ होऊण तेण सो भणिओ । देव! इमो तह मित्तो, पणिवायं कणइ पिच्छेस ॥१४२८॥ तो रना विनायं, जं तरणी तरुणभावमणुपत्तो । एसा नियडे चेडी, चिट्ठइ कीरो · य मंती य ॥१४२९।। 2010_04 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सिरिपउमप्पहसामिचरिय तं पइ जंपइ कित्तियमित्ता तुह मित्त । इत्थ पत्तस्स । जाया वेला ? किं वा, पओयणं कहसु आगमणे ? ॥१४३०॥ सो पभणइ न ह सामिय ! मह आगमणो पओयणं किं पि । तुह उण एरिस झाणे, पओयणं किं ति साहेसु ? ॥१४३१ ।। किं केण तज्झ कहियं, सरेण असरेण खेयरेणावि । जह अमुगदिणे नरवर ! धणं च निधणं च पाविहिसि ? ॥१४३२ ।। किं वा नियजयजत्तं, चिंतसि इंदम्मि अहव नागिंदे ! जं देव ! पहइवइणो, तह आणा कारिणो सव्वे ॥१४३३॥ किं वा उवएसेणं, कस्स वि कारेसि किं पि सुरभवणं ? । देवी व अच्छरा वा, चित्तम्मि चमक्कए का वि ? ॥१४३ ४।। जो मंती देवाणं, जो वा असुराण जो व चक्कीणं । इत्तियमित्ता चिंता, तस्स वि न सया न वा दिट्ठा ॥१४३५।। ता जइ मह कहणिज्ज, कज्जं तो कहस अहव उठेस । जेणं चिट्ठइ बाहिं, तह दंसणऊसओ लोओ ॥१४३६।। इय वत्तो मित्तेणं, सव्वं साहेइ सुमिणवत्ततं । सो परियणपज्जंतं, जइ वा लज्जा न कामीणं ॥१४३७।। सुमिणमिणं कहिऊणं, नियमणसव्वस्स निव्विसेसस्स । मित्तस्स पुरो पुणरवि, पढइ फुडत्थं इमं गाहं ॥१४३८।। जो कोइ कन्नयं तं, पणरवि दावेइ एक्कवेलं पि । वेलं आजम्मंतं वहेमि सयणस्स तस्साहं ॥१४३९।। उल्लवइ तओ मित्तो, तं चिय बद्धो वि देव ! अइमद्धो । सुमिणयअणुसारेणं, पयाणयं देसि जो एवं ॥१४४०।। साहीणे अणुरत्ते, के वि हु अंतेउरम्मि सप्परिसा । तत्तं मणिय विरत्ता, तं पण सुमिणे वि अणुरत्तो ॥१४४१ ।। समिणसमाणं दिळं, धणधण्णाई विवेयवंतेहिं । सुमिणं पि तमं सच्चं, मनसि जं तं महच्छरियं ॥१४४२ ।। राया जंपइ अहमवि, एयं झाएमि वत्थुपरमत्थं । 2010_04 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा ११३ तं चिय झायइ तरुणिं, तह वि दप्पा इमो अप्पा ॥१४४३॥ तह उवएसो एसो संपइ, खयखारखेवसारिच्छो । अप्पा वि ह विम्हरिओ, दूरे मह अवरवावारा ॥१४४४॥ इय कामग्गहगहियं, रायं आसासिऊण मित्तेण । अच्चाहियभीएणं, तेण पइना इमा विहिया ॥१४४५॥ छम्मासम्भंतरओ, अत्थि य नत्थि त्ति समिणपज्जंतं । न मणेमि सामि ! जइ तो पविसेमि जलियम्मि जलणम्मि ॥१४४६।। ता भव निच्चिंतो तं चिंतस देवच्चणाइकिच्चाणि । इच्चाइ जंपिऊणं, ते पत्ता दो वि अत्थाणे ॥१४४७।। वीसज्जिय अत्थाणं, पत्तो चिंतेइ मंदिरे मंती । हंत ! मए किह एसा, तरियव्वा दत्तरा संधा ? ॥१४४८।। राया ताव दुहत्तो, तद्दुहदुहिओ अहं पि कयसंधो । वत्तामित्तं पि पणो, न सयं चंदउरपरपमहं ॥१४४९।। हुं नायं मणहरणं, सत्तागारं कराविउं सहसा ।। जाणिस्सं दुरागयपहियमहाओ इमं सद्धिं ॥१४५०॥ इय चिंतियमंतिसुओ रम्मं निम्मवइ सत्तवरसालं । कम्मयरा कम्मयरी, निरोविया तत्थ अइचउरा ॥१४५१॥ पच्चक्खं पहियाणं, संलत्तं तेण उच्चसद्देण । जोयणसयाउ जो इह अहिणवपहिओ समागमिही ॥१४५२।। भोयणविहाण-वसणप्पयाणसम्माणपव्वमिह तस्स । दायव्वं टंकाणं, दसगं अम्हेहि निब्भतं ॥१४५३ ।। तल्लोहेण य पहिया लोहागरिसेण लोहमिव झ त्ति । आयड्ढिया समंता एंति तहिं सत्तसालाए ॥१४५४|| भोत्तूण विविहमंडय मरक्किया मोयगाइवरभोज्जं । गच्छंति मंति पासे, गिम्हति य वत्थटंकाई ॥१४५५॥ पहियमुहकुहरघंटाजीहा, अइलोहलालिया पहया । वज्जती नरवइणो, वित्थारइ कित्तिटंकारं ॥१४५६।। 2010_04 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं किंतु न को वि हु पत्तो, चंदपुराओ न यावि तनाम । निसयं जइ वा दलहं, नाम पि ह इट्ठवत्थस्स ॥१४५७॥ पच्छंतो वि ह मंती, अविणयसीस व्व सत्थपरमत्थं । न लहइ जइया सुद्धिं, सुमिण य दिट्ठस्स नयरस्स ॥१४५८।। तो ठाणविउणियाए, जोयणविद्धीए टंकनिवहं पि । वद्धारंतो दुइए मासम्मि इमं पयंपेइ ॥१४५९।। दो जोयणस्सयाओ जो एही तस्स वीसटंकाणि । देमि त्ति अहव मंदा गयाऽऽनारंभनिव्वहणे ॥१४६०॥ एवं चत्तालीसं, तइए मासम्मि देइ पहियाणं । जोयणसयतियगाओ, आगयमित्ताण सो मंती ॥१४६१ ॥ एवं चउत्थ-पंचममासेस वि तेण वियरमाणेण । कुट्टिणिमणवित्ती विव, लद्धा नो कह वि तस्सद्धी ॥१४६२॥ छट्ठट्ठमतवनिरओ, छठे मासम्मि दगणियं दितो । जा चिट्ठइ सो मंती, तत्तो दूराओ देसाओ ॥१४६३॥ बाहिं पि ह अप्पाणं, पयडंतो पावपडलसंछन्नं । धूलीधूसरगत्तो, रयभरपिंजरियचिहुरचओ ॥१४६४॥ नियमंस-सोणियाई, नळं दळूण चम्म-अट्ठीणि । बंधंतो विव सनिबिडपयडसिराजालबंधेहिं ॥१४६५।। देहाऽऽऊरणउव्वरिय छुह-तिसाईहिं मुत्तिमंतीहिं । लंबंतलंबचीवरचीरियमालाहिं पिहियंगो ॥१४६६।। अइदीह-पह-विलंघण-समवससंजायसेयदुप्पिच्छो। अद्धाणलंघणक्खमदीहरजंघालंघणजंघो ॥१४६७।। सा कत्थ सत्तसाला? सो वा मंती वि कत्थ? पइपरिसं । इय पुच्छंतो पत्तो, एगो पावासओ तत्थ ॥१४६८॥ कयपायसद्धिपव्वं, मणनपक्कन्न-वंजणसणाहं । भोत्तुं मंतिसयासे, पत्तो टंकाण गहणत्थं ॥१४६९।। माऊरछत्तअंतरियतरणितावेण तेण सचिवेण । 2010_04 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा ११५ आगच्छंतो दिट्ठो, उवरिमभूमी निसनेण ॥१४७०॥ ससरीरं दारिदं, अहव इमो दुक्खलक्खभंडारो ।। तेणेव भयादंडा, कसिणा दीसंति सप्प व्व ॥१४७१ ।। इय चिंतिय सचिवेणं, कत्तो देसंतराउ पत्तो सि ? । वत्थव्वो वा कत्थइ? इय पुट्ठो जंपए एसो ॥१४७२।। जोयणपंचसयाओ परओ चंदपरपट्टणं अत्थि । तस्साऽऽसन्ने गामे, वसेमि आजम्मदालिद्दी ॥१४७३।। सामि! निसामियमेयं, जह मंती दूरदेसियनराणं । निक्कंदइ दालिदं, वणहत्थी वणनिगंजं व ॥१४७४।। तत्तो मत्तं सयणे, पत्तो एत्थ त्ति मंतिणा भणियं । हं सिद्धो सो अत्थो, जस्सऽत्थं वित्थरो एसो ॥१४७५॥ उठेहि एहि पंथिय ! गच्छामो रायपायपासम्मि । आसत्तवेणिजणियं, धणियं अवणेमि तुह दुत्थं ॥१४७६।। इय जपतो मंती, पत्तो रायस्स अंतियं तत्तो । विनवइ देव! एसो, पत्तो चंदउरनयराओ ॥१४७७॥ राया पुच्छइ पंथिय! अच्छेरं किंचि विज्जए तत्थ? भणइ इमो तं नयरं, अच्छरियमयं असेसंपि ॥१४७८।। तह वि हु कहेमि सामिय! सुणेसु नयरस्स उत्तरासाए । पउमसरमज्झ खंभे, मणिभवणं तत्थ अइरम्मं ॥१४७९॥ . उवहसियगोरिरूवा, नियधूया विहियपरिसविद्देसा । लीलाकुमारिकता, रना मुक्का तहिं भवणे ॥१४८०॥ राया भणेइ पुणरवि, इणमेव भणेहि जेण तुह जीहा । बहहा असेसकल्लाणभाइणी किज्जए एण्हिं ॥१४८१ ।। निय जायाओ अहिओ, पहिओ नरनाह! मंतिनाहेहिं । दिट्ठो अहवा गरूया, सिद्धे कज्जम्मि नवि विमहा ॥१४८२॥ रयणमयपाउयाओ, निवस्स सीहासणे निवेसेउं । सामंततंतवाला, अन्ने सचिवा य तो भणिया ॥१४८३ ।। 2010_04 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विज्जं साहिस्सामो, अम्हे पायाल - सग्गमज्झत्था । तुब्भेहिं पाउयाओ, आराहंतेहिं ठायव्वं ॥ १४८४। इच्चाइ सिक्खवेडं पुरओ काऊण पंथियं तं च । विहियवरबंभवेसा, सारं गहिऊण बहुदव्वं ॥ १४८५ ।। अक्खंडपयाणेहिं, मग्गे वच्चति चत्तवीसामा । दूराउ परिहरंता, परिचियगामं नरं नयरं ॥ १४८६॥ आहारं विसभारं, जलपाणं पाणहरणसारिच्छं । निदं पि वज्जघायं, मुणंति वच्चंतया मग्गे ॥ १४८७॥ गच्छंता य कमेणं, पत्ता एगं महाडविं भीमं । सरवर-गुरुगिरि-काणण - सिंधुसहस्सेहिं दुप्पिच्छं ॥१४८८॥ जाय केरिसी एला- लवंग-लवली-चंदण - कप्पूर - अगुरुगहणेहिं । सुरहियविव णिस्सेणी, सोहं कत्थ वि कुणंतेहिं ॥१४८९ ॥ नारंग - बीज-‍ - पूरय - जंबू - जंबीर- करुणकुंजेहिं । फलनिवहनामिएहिं, फलविवणि पायडंतेहिं ॥१४९० ॥ सरहसमइंददारियगइंद- दंतेहिंदंतहट्टसिरिं । सिरिपउमप्पहसामिचरियं कुडय - बहेडय - हरडइपमुहेहिं गंधहट्टसिरिं ॥ १४९१ ।। करिकुंभगलियनित्तलमोत्तियमणिखंडउवलखंडेहिं । सोवन्नियहट्टसिरिं, समंतओ पायडंतेहिं ॥१४९२ ॥ सरवन्निसमूहेहिं, दीहरवंसेहिं धणुहहट्टसिरिं । पयडतेहि विरायइ, सा अडवी नयरिसारिच्छा ॥१४९३ ॥ तिस्सा य मज्झयारे, विसालगिरिसिहरसंठियं रम्मं । दूराउ तेहिं दिट्ठ, मणिभवणं उसहनाहस्स ॥ १.४९४ ।। नमिऊण जिणं तत्थ य, वीसंतारण्णभमणपरिसंता । भव्वा इव जिणभवणे, भमिऊण चिरं भवारणं ||१४९५ ॥ अमचं पइ जंपिउं पयट्टो राया मन्त्रे संसाररणे, वयमिह भमिउं सेलमेयं विवेयं । 2010_04 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा ११७ पत्ता पत्तो जिणिंदाभिहियहियमहाधम्मरम्मं विहारं ॥ तत्तो नाभेयदेवो, भवणजणमणारामवीसामभूमी, पच्चक्खो कप्परुक्खो, सयलसहनिही मोक्खसक्खं व दिट्ठो ॥१४९७॥ ता मित्त ! अम्ह अत्थो, सिद्धो न वि अत्थइ को वि संदेहो । गरुयाण मणोवित्ती, संदेहपए पमाणं ति ॥१४९८॥ तह जिणरूवनिरूवणसमए मह जायरोमअंकूरा । इट्ठफलकरणकारणमंकरनियर व्व नजति ॥१४९९।। वीसंताणं ताण य झड त्ति तत्तो समागयानिद्दा । ववसायवज्जियाण वि, जह लच्छी पुनवंताणं ॥१५००॥ इत्थंतरम्मि एगो, निय तरुणिं कुसुमगहणकज्जम्मि । वावारिऊण पत्तो, खयरो जिणनाहनमणत्थं ॥१५०१॥ पविसंतेणं तेण य, दिट्ठो सहस त्ति रायवरकुमरो । . निद्दामुद्दियनयणो, पच्चक्खो कामदेवु व्व ॥१५०२॥ चिंतइ चित्ते खयरो, धुवमेसा जइ वि मह विवाहत्थं । संपत्ता वरकण्णा, तह वि इमं पिच्छिउं कुमरं ॥१५०३।। मं मुत्तूण इमं चिय, परिणेही तो इमा इहं जाव । नागच्छइ ताव इमं, लच्छी रूवं करिस्सामि ॥१५०४।। इय चिंतिऊण तेणं, कन्ने रायस्स मूलिया बद्धा । तीए इत्थी जाओ, नडो व्व भूमिंतरं पत्तो ॥१५०५।। पच्छा पिच्छइ पत्ता, सा कना अहिणवं तयं तरुणिं । कयचित्तचमक्कारा, निय दइया संकिरी सहसा ॥१५०६॥ पणमियरिसहजिणंद, गहिऊणं पाणवल्लहं निययं । निग्गच्छइ अहह अहो । कामीणं संकियं चित्तं ॥१५०७॥ अह जग्गियम्मि तेहि वि, मंती उवहसइ देव ! किं एयं ? किं झायसि जं तरुणिं स च्चिय तुमयं इहं जाओ ? ॥१५०८॥ इय तेण हसंतेणं, कन्ने निवइस्स मूलिया दिट्ठा । जा छोडइ तं सज्जो, पुव्वं व इमो नरो जाओ ॥१५०९।। 2010_04 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं संगहिय मूलियं तो, पुणरवि वच्चंति चत्तवीसामा । अच्छेरयसयकलियं, तो पेच्छंता महीवलयं ॥१५०८।। अनदिणे नियमसुमिणोवलद्धनयरस्स उत्तरासाए । तं चिय महामहल्लं, पउमसरं ते समणपत्ता ॥१५०९॥ धरियायवत्तनिवहं, अहिणवसविया सपुंडरीएहिं । बीइज्जमाणमणिसं, चमरेहिं व रायहंसेहिं ॥१५१०॥ कयजद्दरपावरणं, दिसि-दिसि-विलसंतफेणपडलेहिं । अणवरयं गिज्जंतं, मंजलगंजंतभमरेहिं ॥१५११॥ सहरिसभमंतकरि-हरि-नराइसंदोहपरिगयं तत्थ । राया रायसरिच्छं, सरोवरं पिच्छए कमसो ॥१५१२॥ जा किर अईयकाले, वरलक्खपक्खाण अइगया जोण्हा । सा तत्थ पिंडिय च्चिय, दीसइ निम्मलजलमिसेणं ॥१५१३॥ जलपाणत्थसमागयथलभवहत्थीहिं जलचरकरीणं । संडालसंडिमहत्तं, तत्थ सयं पिच्छए राया ॥१५१४॥ नीरभरणत्थमागयमहिसकुंडंबेहिं जलतुरंगाणं । तुंडातुंडिमुहत्तं, कोऊहलतरलिओ नियइ ॥१५१५।। रेहइ इमस्स ससिकरपंडुरडिंडीर-पिंड-रिछोली । लीलाकुमारी कना, परिमुक्ककडक्खलहरि व्व ॥१५१६।। पउमसरमज्झयारे जलनिहिसंकाए मंथणमणेहिं । पक्खित्तं तियसेहिं मंदरमिव नियइ मणिखभं ॥१५१७॥ उनमियगलनालो, निडालतलघडियवामहत्थतलो । जह जह पिच्छइ भवणं, परिस्समो समइ तह तह से ॥१५१८।। मनइ मणम्मि एसो, इमस्स चंदपुरसरवराइस्स । वुत्तं तस्स धुवं मह, हिययमिणं मूलछेवाडी ॥१५१९॥ किह एसा दट्ठव्वा ? किहाऽऽलविज्जा ? कहं व परिणेया ? इय तम्मि चिंतयंते, संपत्ता तावसी एगा ॥१५२०॥ 2010_04 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा ११९ जा य केरिसी - गेरुयरागसनाहं, कलयंती पवरचीवराण जुगं । हिययंतरप्पवेस, अलहतं मत्तमिव रागं ॥१५२१॥ दीहरजडाकलावं, जराए महिमाए पंडुरच्छायं । सिरसा समव्वहंती, धम्मपडायासमूहं व ॥१५२२।। घणसारसारचंदणमणिमयकच्चोलवग्गहत्थाहिं । तंबोलकुसुमवावडकराहिं दासीहिं परियरिया ॥१५२३ ।। नाणावंजणसहियं, मणहरणं भूजपट्टपक्खित्तं । असणं गिण्हतेहिं, संजत्ता किंकरगणेहिं ॥१५२४॥ पिच्छंताणं ताणं, सरवरमज्झम्मि तीए पज्जाए । खंभस्स तले गंतं, विणिवारइ किंकरीवग्गं ॥१५२५॥ एगागिणी सयं पुण, संचारिय कुसुम-चंदणाईयं । सोवाणमालियाए, तं मणिभवणं समारुहइ ॥१५२६॥ कित्तियमित्तं वेलं, पडिवालिय पण वि तावसी वलिया । गच्छंतीए तीए, तो मंतीमग्गमणलग्गो ॥१५२७॥ नामं ठाणं च तओ तीए परिजाणिऊण मंतिवरो । गिण्हइ मंदिरमेगं, भाडयमल्लेण मणहरणं ॥१५२८॥ कच्चोल-थाल-परियल-तूलीपमुहं च दासिपमुहं च । सव्वं पगुणं कारइ, रायसरीरस्स रक्खट्ठा ।१५२९।। सयमेव तावसीए, गंतं मढियाए पव्वदिट्ठाए । परिचारं कुणइ सया, अणवसरिसाए भत्तीए ॥१५३०॥ तथाहि कइया गेरुयरत्तं, चीवरजयलं पयत्थए पवरं । विविहेहिं भोयणेहिं, पारणयं कारए कइया ॥१५३१॥ इच्चाइकुणंतेणं, तह सा आवज्जिया सयं तेण । जह पत्तनिव्विसेसं, पिच्छइ सव्वत्थ सा मंतिं ॥१५३२॥ 2010_04 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सिरिपउमप्पहसामिचरियं संसारविरत्ताण वि, जइ दाणं कुणइ वित्तसंगहणं । ता इयरपरिसगहणे, किं भन्नउ दाणमाहप्पं ? ॥१५३३ ।। भणियं च - अत्था अणत्थमूलं, किं ते भण्णंति विबुहवग्गेहिं । जाण पसाएण निद्देसवत्तिणो हुंति मुणिणो वि ॥१५३४|| अह तं तवस्सिणी सा, पुच्छइ किं मज्झ एरिसी भत्ती । निच्चं किज्जइ ? संपइ, नियकज्जं कहस मह इण्हिं ॥१५३५।। उल्लवइ इमो भयवइ ! तुज्झ पसाएण वछियं कज्ज । इहलोए परलोए, सिज्झिस्सइ नत्थि संदेहो ॥१५३६॥ जइ पण निब्बंधो ते, तो हं पच्छेमि अंब! किं कज्जं । निच्चं चिय मणिभवणे, वच्चसि पप्फाइगहिऊणं ॥१५३७॥ अइ! एयपि अयाणय! न याणसे एवमल्लवेऊणं ।। कन्ना वृत्तंतं सा, तं पइ जपेउमारद्धा ॥१५३८।। इह चंदपुरे नयरे, राया पहुसत्तिपमुहसत्तीहिं । ससिखंडमंडणसमो, नामेणं चंदचूडो त्ति ॥१५३९॥ एसो पणो विसेसो, भवाउ निवइस्स जं सिरि राया । निवसइ तस्स इमस्स उ, लुलंति पाएसु रायाणो ॥१५४०।। तस्स उण पट्टदेवी, विज्जइ चंदावलि त्ति विक्खाया । गणरायरायहाणी, हाणी सयलाण दोसाणं ॥१५४१ ।। ताणं बहुपुत्ताणं, उवरि कत्रा अननलावण्णा ।। लीलारुमारि नामा, उपना पुत्रगुणअमोहा ॥१५४२।। सा कन्ना पियराणं, पव्वज्जियपावपरिणइवसेण । जोव्वणपारंभे वि ह, परिसे विदेसिणी जाया ॥१५४३ ।। अह राया कललंछणभीओ निम्मवइ मणिमयं भवणं । सामच्छिऊण हियए, मं माउच्छं कुमारीए ॥१५४४॥ हक्कारइ विविणाओ, तो हं इत्थेव झ त्ति संपत्ता । 2010_04 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १२१ भणिया रन्ना भयवइ! मह कन्ना रयणभवणम्मि ॥१५४५।। चिट्ठिस्सइ तुमए उण, निच्चं चिय देवपूयणाईयं । कारेयव्वा एसा, एसा अब्भत्थणा अम्ह ॥१५४६॥ तप्पभिइ वच्छ! एसा, अच्छइ इत्थेव रयणभवणम्मि । भोयणपमहं सव्वं, कारिजंती मए निच्चं ॥१५४७॥ परिसं विसं व मन्नइ, अवगन्नइ चित्तलिहियनररूवं । सिंगाररसस्स कहं, पिच्छइ अंगारवुढिं व ॥१५४८॥ समिणे वि ह नररूवं, दटुं बीहेइ कालसप्पं व । नरनामेण वि तासइ, उरगी विव गरुडसद्देण ॥१५४९॥ जह कन्ना अन्नाओ, जोव्वणसमयम्मि पवरवरकज्जे । पूयंति देवयाओ, वरचायत्थं तहा एसा ॥१५५०॥ तं सोउं मंतिसुओ, पभणइ भयवइ! कहं इमा कना । दट्ठव्वा अम्हेहिं ? सा वि हसंती तओ भणइ ॥१५५१ ।। तद्दिणजायं पि नरं, जा न वि पिच्छेइ सा कहं वच्छ ! तब्भेहिं दट्ठव्वा ? उब्भडजोव्वणसणाहेहिं ॥१५५२ ।। जइ पण इत्थीरूवो, होहिसी तो तं पि तज्झ दंसेमि । इय सणिय भणइ मंती, हं सिद्धो वंछिओ अत्थो ॥१५५३।। तो गतु नरनाह, वद्धावइ देव! वछिया सिद्धी । संजाया अम्हाणं, जत्ता जाया धुवं सहला ॥१५५४॥ किं मित्त ! भयवई सा, तुट्ठा तह झ त्ति ? जंपिए रना । सव्वं साहइ मंती, तस्स परो तावसीवयणं ॥१५५५।। रना सह गंतूणं, तवस्सिणि भणइ सायरो मंती । मह सामी एस तहिं, गच्छिस्सइ नारिरूवेण ॥१५५६।। भयवइ! एयस्स कए, विहिया आराहणा मए सव्वा । सा जंपइ एसो वि ह, मह पत्तो तो हवउ इत्थी १५५७|| तो तावसिवयणाओ, हरिसभरुब्भिनरोमंचो । 2010_04 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ राया इत्थी जाओ, कन्ननिबद्धाए मूलीए ॥१५५८ ।। कोऊहल-तरलमणा, समप्पिउं सा वि तावसीवेसं । सिरिधरियजडा मउडं, तवस्सिणिं कारए रायं ॥ १५५९ ॥ अप्पाणं दट्ठूणं, सो चिंतइ हंत ! तव्विओगम्मि | एस च्चिय मह उचिओ, वेसो बहुदुक्खलक्खहरो ॥१५६०॥ अन्नदिणे सा कित्तिमतवस्सिणीए करम्मि अप्पेउं । वरकुसुम-पत्र पडलं, गच्छइ कन्ना समीवम्मि ॥ १५६० ॥ सा बाला तं पुच्छइ, भयवइ ! एसा नवल्लिया अज्ज । दीसइ तुज्झ विनेया, इमाए नामाइ तो कहसु ॥ १५६२॥ सा भाइ भाय! धूया, मह एसा एत्थ वणनिवासाओ । अवसेरीए पत्ता, निक्कित्तिमनामिया सुयणु ! ॥१५६३॥ लीलाकुमारी कन्नं, दट्ठूणं कूडतावसिं तं च । चिंतइ तवस्सिणी सा, किमेग बिंटाउ खुडियाणि ? ॥ १५६४॥ किं वेगनाल - मूलुब्भवाणि एयाणि? अहव एएसिं । विहिणो घडणे जाया, अन्नोनं रूव-छेवाडी ? ॥१५६५ ॥ विसरिसदेसभवाण वि, पिच्छह एयाण सरिसतणुलच्छिं । जइ घडइ हंत ! जोगो, ता हीरइ किं नु हय विहिणो ? ॥१५६६॥ चिंतंतीए तीए, निकित्तिमनामिया तओ झति । सिरिपउमप्पहसामिचरियं देवच्चणाइसव्वं, संपाडइ पयडकोसल्ला ॥१५६७॥ तीसे कलाकलावं, कलिऊणं मणइ कन्नया तत्तो भयवइ ! एयं निच्चं, आणिज्जसु अप्पणा सद्धिं ॥ १५६८॥ आमं ति जंपिऊणं, पत्ता सा तावसी नियं ठाणं । एवं दियहे दियहे, तीए सह वच्चए एसा ॥ १५६९ ॥ वीणाइविणोएहिं तह विहिया हरियहिययसव्वस्सा । जह तीए विणा सव्वं, सा कन्ना मन्त्रए सुन्नं ॥१५७० ॥ समयंतरम्मि रण्णो, उवरोहवसेण तावसी थविरा । 2010_04 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १२३ नियआसमम्मि थक्का, राया एगो गओ तत्थ ॥१५७१ ॥ देवच्चणाइकज्जे, कयम्मि सा कूडतावसी भणइ । रूससि जइ न वि संदरी, एयं पच्छेमि तो अहयं ॥१५७२॥ नाहं भणेमि कहमवि, चउगइभवभमणकारणं पढमं । मनसु तुमं विवाहं, विहियविवाहं सया चेव ॥१५७३।। जंपेमि इमं किं पण, नरेहिं किं तज्झ कहस अवरद्धं? ॥ अवहरियं तुह किं वा, विहियं वा विप्पियं तुज्झ? ॥१५७४।। जं मनसि विस-सरिसे, पुरिसे पुरिसाण तहय चित्ते वि । कूणियनासावंसा, थुत्थुकारं पयच्छेसि ? ॥१५७५॥ नेहो व उवेहा वा, दीसइ गरुयाण सव्ववत्थूसु । तो मनेमि नरेसुं, विद्देसे कारणं तुज्झ ॥१५७६॥ जइ नेव अकहणिज्जं, तो मह साहेस निययसब्भावं । नेहस्स एस महिमा, जं खलु सब्भावनिज्झरणं ॥१५७७।। इय तीए जंपिराए, विगलिरनयणंसुसलिलपब्भारा । सा समरियनियचरिया, गग्गयगलकंदला जाया ॥१५७८।। आमज्जिय नियनयणे, कहमवि जंपेइ · रायवरकन्ना ।। भयवइ ! परस्स निंदं, करेमि नाहं जगते वि ॥१५७९।। साहेमि किंतु तत्तं, पुरिसा कुलिसाउ निठुरा चित्ते । अमयाउ वि वायाए, महुरा दूरेण चइयव्वा ॥१५८०॥ कित्तियमित्तं भणिमो, तह परओ परिससंतियं चरियं? तह वि ह अणहवसिद्धं, वीसत्था किं पि साहेमि ॥१५८१ ।। पुव्विं सहीहिं सहिया, पत्ता उज्जाणदंसणनिमित्तं । लीलाहिं विचित्ताहिं, कोलंति जाव चिट्ठामि ॥१५८२॥ ताव मए सच्चविओ, आसन्ने पव्वयम्मि पज्जलिओ । दावहुयासो जालामालासयसहसदुप्पिच्छो ॥१५८३।। दुपय-चउपय-अपए, अट्ठप्पाए य विडविणो तह य । 2010_04 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं संहरमाणो समयं, नज्जइ जमजिट्ठबंधु व्व ॥१५८४।। कारुपनहियया, तो हं चिंतेमि एरिसो दावो । अइभीमो भीयाए, मए वि दिट्ठो कहिं आसि ॥१५८५।। ऊहापोहं तत्तो, कुणमाणी पुव्वजम्मअणुभूयं । सव्वं सरेमि पुव्वं, जह आसी सारसी अहयं ॥१५८६॥ तथाहि - लवणोयहिपज्जते, वेलावणसंडमत्थिविच्छिन्नं । तत्थ य सारसमिहणं, वडसाले चिट्ठए सहयं ॥१५८७।। अह सारसीए भणिओ, पायडगब्भाए सायरं दइओ ।। चयसु इमं वडरुक्खं, कडक्खियं दुक्खलक्खेहिं ॥१५८७।। अह सारसो वि तं पइ, जंपइ उल्लंठनिठुरं एयं ।। अइकायरासि अइपंडिआसि अइभूरिभविसनिउणासि । जइ कह वि दिव्वजोगा, जायइ जायाण को वि ह अवाओ । ता रक्खेमि अहं चिय, मरेमि अहवा न संदेहो ॥१५९०॥ अह मज्झ पसूयाए, वणदावो गिम्हवासरे जलिओ । वित्थारिय पक्खजया, थक्का अहमेव नीडम्मि ॥१५९१ ।। सो सारसो वि पावो, दावं दठूण जीवियं निययं । गहिऊण गओ कत्थ वि, अहव नरा एरिसा सव्वे ॥१५९३।। तो हं चिंतेमि इमं, नरम्मि एमेव महिलिया नूणं । नेहरहियम्मि नेहं, पयडइ निबिडं महामूढा ॥१५९४॥ एत्थंतरम्मि केण वि, दिनो कन्नाण सुहयरो अहियं । परमिट्ठिपरममंतो, मए वि हरिसेण सो निसुओ ॥१५९५।। तस्सेव पभावेणं, जाया रायस्स कन्नया अहयं । संजायजाइसरणा, परिसे विद्देसिणी जाया ॥१५९६।। सुणिउ भवतरुत्त, नियवयण कूडतावसी तत्तो । मच्छानिमीलियच्छी, धस त्ति धरणीयले पडिया ॥१५९७॥ 2010_04 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १२५ तो तालविंटवायप्पयाणपमहेहिं रायवरकन्ना । काउं सचेयणं तं, पुच्छइ मच्छाइ को हेऊ? ॥१५९८॥ सा वि भवंतरसरणं, · अवलविउं भणइ तुज्झ वसणमिणं । सोउं सक्खहियया, सहसा मुच्छाविया अहयं ॥१५९९॥ गंतुं मंतिसयासे, सहावरूवो कहेइ नियचरियं । सो पभणइ सुठुकयं, नियचरियं जं न से कहियं ॥१६००॥ पिच्छस मह सामत्थं, तं तह करिहामि जेण सा कन्ना । थोवदिणाणं मज्झे, वरिही सयमेव देव! तमं ॥१६०१ ।। इय भणियमंतिपुत्तो, साहिन्नाणं सवित्थरं तेणं । सारस-सारसिचरियं, रासयबंधेण कारेइ ॥१६०२॥ अज्झावयाण पासे, गंतं तरुणीहिं महरसद्देण । अज्झावइ परमज्झे, दव्वं दाऊण अइबयं ॥१६०३॥ अइबयदव्वलोहा, सरसं चरियं ति नव्व कव्वं ति । सव्वो पढेइ लोओ, पए पए तं पसंसंतो ॥१६०४।। मढ-देउल-भवणंतो, तं तिग-चच्चर-चउक्क-रच्छासुं। सव्वत्थपढिज्जं तं, चरियं अइकरुणरसभरियं ॥१६०५॥ तीए वि तावसीए, निसुयं तब्भवणगमणमग्गम्मि । दासिजणं पट्ठविउं, निसुणइ चरियं सयं एसा ॥१६०६।। तो उस्सूरे पत्ता, भणिया कन्नाए कीस अंब! तए । देवच्चणाइकालो, गलिओ न वियाणिओ अज्ज? ॥१६०७॥ तो तावसीए चरियं, कित्तियमित्तं नियाए पन्नाए । करुणारसेण गीयं, तीए परो झ त्ति मणहरणं ॥१६०८॥ अइ भयवइ! चरियमिणं, आणस मह नद्धसल्लनिट्ठवणं । जाणस तह उप्पत्तिं, केण इमं निम्मियं रम्मं? ॥१६०९॥ इय आणत्ताए सा तवस्सिणी हरिसनिब्भरसरीरा । अज्झावयाण अंते, पुच्छइ चरियस्स उप्पत्तिं ॥१६१०॥ 2010_04 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पुट्ठेहिं मंतिपुत्तो, समप्पिओ तेहिं सा तयं भइ । मह कहसु वच्छ! तत्तं पुच्छावइ रायवरकन्ना ॥१६११॥ कहिऊण तेण सव्वं, सिक्खविया सा कहेसु कन्नाए । सिरितिलयनयरनाहो, राया सुरसुंदरी नाम ॥१६१२ ।। तेण इमं नियचरियं, जाई सरिऊण निम्मियं सम्मं । केण वि कज्जवसेणं, पट्ठवियं विविहदेसेसु ॥१६१३॥ सुरसुंदरआएसा, लंखा तं फलिहि-लिहियपरमत्थं । गायंति निद्दिसंता, एत्थ पुरे चच्चराईसु ॥ १६१४।। इच्चाइ जंपिऊणं, अप्पसु फलिहं इमं च छेवाडिं । जइ होइ अत्थिणी सा, तो संकेयं करिज्जासु ॥१६१५ ॥ तो सा गंतुं तीसे, कहिउं अप्पेइ चित्त-फलिहाई । कना साहित्राणं, निएइ नियचरियमामूलं ॥१६१६ ॥ जह सारसेण अप्पा, बहुयं निंदियनियम्मि नीडम्म । खित्तो जलंतजलणे, जह सो निसुओ नमुक्कारो ॥१६१७|| इय पज्जंतं सव्वं, सजम्मदियहाउ तं नियं चरियं । पिच्छंती विद्देसं, मिल्लइ निम्मोयमिव भुयगी ॥१६१८ ॥ चिंतइ चित्ते एसा, अहह! निय पाणवल्लहो तइया । तह मरमाणो वि मए, न याणिओ कूड - हिययाए ॥१६१९ ॥ नूणं तुच्छप्पयई, नारी तह कूड - कवडसंघडिया । तेणेव अप्पसरिसं, तइया मन्त्रेमि तं दइयं ॥१६२० ॥ सुव्वइ सत्थे इत्थी, पच्छा गच्छेइ निययभत्तारं । सिरिपउमप्पहसामिचरियं पुण एयं विवरीयं, विहियं तह तेण मरिऊण ॥१६२१ ॥ तो मह जाणणकज्जे, देस देसाउ पेसए पुरिसे । तं पुण निंदेमि अहं, मह तस्स य पिच्छह विसेसं ॥१६२२॥ सा एवं चिंतंती, तक्खणघणसेयसलिलमउअंगी । विद्धा विसमसरेणं, सरेहिं चिरलद्धलक्खेहिं ॥१६२३ ॥ 2010_04 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा १२७ जंपइ य सा निरंतरगलंतघोरंससित्तमहिवलया । इणमेव मज्झ चरियं, भयवइ! इह नत्थि संदेहो ॥१६२४॥ सो सुरसुंदरराया, एही जइ नेव थोवकालेणं । मरणं चिय मह होही, सरणं अन्नं न पिच्छामो ॥१६२५॥ तीए दत्थावत्थं पिच्छंती भणइ तावसी तत्तो । मा रुयस भीरु! रायं नियसत्तीए समाणेमि ॥१६२६॥ सग्गाउ सग्गरायं, चंदिमलोयाउ तह य चंदं पि । आणेमि ससत्तीए, पायाला नागरायं पि ॥१६२७।। इत्थंतरम्मि तरणी, अंतरिओ अत्थसिहरिसिहराओ । मंतपयासणसमयावयासदाणं करितु व्व ॥१६२८।। मंडलपूयोवगरणमेलणछउमेण तावसी तत्तो । गंतुं रायसयासे, साहइ सव्वं पि वत्तंतं ॥१६२९॥ तो विहियचेडिरूवं, नेउं सोवाणमालियामग्गे । मिल्लइ कयसिंगारं, रायं उवरि सयं जाइ ॥१६३०॥ लीलाकुमारी कन्ना, सयमेवाऽऽलिहइ मंडलमखंडं । मयनाहिरसेणं तो, सयमुत्तरसाहया जाया ॥१६३१॥ तो विहियधारणा सा झाणं काऊण भयवई मंतं । पणमइ हाँ हाँ हाँ हुः आगच्छ आगच्छ स्वाहा ॥१६३२॥ एवं झायंतीए, तीए जंभायमाणमहकहरो । विहियविविहंगभंगो, संपत्तो मंडले राया ॥१६३३॥ किं चित्तविन्भमो मह, किंमिंदजालं व मंत-तंतो वा । अहवा पुणरवि सुमिणं, तं चिय दिट्ट् ति सो भणइ ॥१६३४।। सा भयवई पयंपइ, वच्छे! सो एस आणिओ दूरा । तज्झ भवंतरदइओ, खामस नियविहियमवराहं ॥१६३५॥ रायंकुमरी दटुं, लज्जा हरिसा इहावसयकलिया । तं सोक्खं संपत्ता, जं जइ जाणेइ सा चेव ॥१६३६।। 2010_04 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं रायं जंपइ कन्ना, सामिय! सच्चेव पंडियं मन्ना ।। तज्झ भवंतरदइया, तमं पि विदेसिओ जीए ॥१६३७॥ नेयं तुह नाह! पुरं चंदउरं किंतु मज्झ जणयस्स । इह भयवईए तं पण, आणीओ मज्झ कज्जेण ॥१६३८।। राया जंपइ माणिणि! अईवनिद्धासि जेण परमत्थं । नाऊण महं तक्खणमाणीओ मंतसत्तीए ॥१६३९।। एवं जंपताणं, ताण रवी उदयसेलमारूढो । अइरम्मसमाजोगं, तेसिं सच्चविउ कामो व्व ॥१६४०।। तो भयवई वि गंतु, विनवए चंदचूडनरनाहं । वद्धाविज्जसि कन्ना, जम्मंतरदइयलाहेण ॥१६४१ ।। चंदावलीए सहिओ, अमंदमाणंदबिंदुसंदोहं । उव्वहमाणो राया, पत्तो तं चेव मणिभवणं ॥१६४२॥ दठूण तस्स रूवं, हरिसभरुब्भिनरम्म-रोमंचो । मंचाहिमंचसंचयपव्वं पविसेइ तं नयरं ॥१६४३ ।। ववकलियदव्वसारं, निम्मियनीसेसलोयसक्कारं । कयचित्तचमक्कार, ताणं कारवइ वीवाहं ॥१६४४।। विहियदसाहियऊसवमेयं, कुमरीए सहिए सह राया । सामंतनिवहजुत्तं, नियमित्तजुयं विसज्जेइ ॥१६४५।। नियपुरमागच्छंतो, तित्थं तत्थेव रिसहनाहस्स । दग्गइपहनासणयं, वंदइ दमसायरं सूरिं ॥१६४६॥ मोहंधयारहरणी, सिवपरपत्ताणमंगलविरावा ।। निद्भूयराग-दोसा, मुणिणा सद्देसणा विहिया ॥१६४७।। नाउं नाणनिहाणं, पच्छइ संदेहदहणमह राया । मह मणिभवणनिसना, केणेसा दंसिया सुमिणे? ॥१६४८।। नाणवियाणिय तत्तो, मुणीसरो भणइ तेण खयरेणं । नियविज्जा पन्नत्ती, पुट्ठा मह कहस तं कत्थ ? ॥१६४९।। 2010_04 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा . १२९ सारसमिहुणं जायं?, साहइ सा तुम्ह नाम-ठाणाणि । तो खेयरेणं भणिया, दंसस कुमरस्स तं कनं ॥१६५०॥ तो पन्नत्ती विज्जा, दंसइ मणिभवणसंगयं कनं ।। इत्थंतरम्मि तित्थं, पमायओ लंघियं तेण ॥१६५१॥ तो विज्जा पन्भट्ठो, नहयरनाहस्स तस्स तो जोगो । तुम्हाण न संजाओ, इय कहिउं पण गुरू भणइ ॥१६५२॥ परमेट्ठि-परममंतो, थोवं निसुओ वि बहुफलो जाओ । ता तं चिय वरमंतं, निच्चं सुमरेह भत्तीए ॥१६५३॥ सम्मत्तमहामूलो, वयसालो मुक्ख-सुक्खफल-कलिओ । गिहि-धम्म-कप्प-रुक्खो, मणिपासे तेहिं पडिवन्नो ॥१६५४॥ पत्ताणि नियं नयरं, निरंतर अणुहवंति मणइटें । दक्खेहिं असंभिन्नं, सोक्खं बयाणि वासाणि ॥१६५५॥ सम्मं गिहत्थ-धम्म, कणंति तित्थंकराण कारिति । मणिमयभवणसमूह, अप्पडिमा तह य पडिमाओ ॥१६५६॥ लीलाकुमारिदेवी, पासयसारेहिं अन्नदियहम्मि । कीलइ रन्ना अहवा, जूयमिणं मिहणमणहरणं ॥१६५७।। पुणरुत्तं पुणरुत्तं, देवीए पराजियम्मि नरनाहे । अकलियदहाण तेसिं, जूयं जायं चिरंकालं ॥१६५७॥ चिरकालनिसण्णाए, वायनिरोहेण झ त्ति देवीए । उयरे सूलं जायं, दुहावहं लोहमूलं व ॥१६५९॥ सिज्जागयाए तीए, अपरित्ताणाइ विज्जनिवहेहिं । पाणा परिनिक्खंता, सह दीहरसासदंडेण ॥१६६०॥ विज्जेहिं बहिं सज्जो, नीहरियं तह सहीहिं पुक्करियं । दासिहिं निययहिययं, ताडियमप्फालियं सीसं ॥१६६१ ।। चित्ते अचिंतणिज्जं, विभावणिज्जं न भावणपरेहिं । कलिऊण तीए मरणं, विलवइ सोयाउरो राया ॥१६६२॥ ८ 2010_04 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सिरिपउमप्पहसामिचरियं हा तरुणि रमणि सिरमणि! जापिणि रमणायमाणवरवयणि! हा सामिणि! गयगामि णि! गयासि तं कत्थ ? मह कहसु ॥१६६३।। हा देवि! तुज्झ विरहे, तड त्ति फुट्टेइ जं न मह हिययं । मन्नेमि तेण अज्ज वि, दुहनिवहो अत्थि सहणिज्जो ॥१६६४॥ सो सारसस्स जम्मो, इमाउ जम्माउ नूण सकयत्थो । जत्थ तह देवि मरणे, अणमरणं मज्झ संजायं ॥१६६५॥ मंतीहि तओ राया, भणिओ भवभावनिवहपरमत्थं । जाणतो वि नरेसर! इयरो विव कुणसि किं सोयं? ॥१६६६।। जूयारोसि नरेसर! तो चिंतस कलंकितवरायस्स । अविरामं चिय जूयं, एयं कहियं कइंदेहिं ॥१६६७॥ यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको, यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र नैकोऽपि चान्ते इत्थं चेमौ रजनि-दिवसौ दोलयन् द्वाविवाक्षौ । काल: काल्या भुवनफलके क्रीडति प्राणिसारैः ॥१६६९।। परिहरस तओ सोयं, परास कज्जाणि कणस देवीए । गरुयाण मणो वसणे, विसेसओ धरइ धीरत्तं ॥१६७०॥ । कामनिकामगहिल्लो, नरनाहो भणइ रे महामूढा ! पलवह किमालजालं, रुट्ठा नण अस्थि मह दइया ॥१६७१ ॥ मनावेमि सयं चिय, जित्तं सव्वं पि देमि देवीए । पाडेमि इमो सहसा, अमंगलं तम्ह गेहम्मि ॥१६७२।। इय जंपिय उठ्ठित्ता, देवी पासम्मि भणइ गंतूण । जंपसु देवि! मनोरहमरीण पूरेसु मा इण्हिं ॥१६७३।। सा न वि जंपइ जइया, तइया सो कड्ढिऊण वरछुरियं । चिट्ठइ भुवणदुवारे, रक्खंतो अंगरक्खु व्व ॥१६७४॥ जाए निसाइ समए, घणविलवणपरिसमेण कलिऊण मुच्छियपायं रायं, सचिवा कड्ढति तीए तणुं ॥१६७५॥ 2010_04 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा पंचालिया य मुक्का, पवंचनिऊणेहिं देविठाणम्मि । देवीदेहो काणणतीरे, सचिवेहिं परिमुक्को ॥१६७६।। वायस-कंकाईणं, निवारणत्थं सया वि उवउत्ता । देवीदेहसमीवे, मक्का तह तेहिं पाइक्का ॥१६७७।। राया उण निच्चं पि हु, आगंतूणं पियाइपासम्मि । पडु-चाडु पयडणपरो, अतिवाहइ दुन्नि दियहाणि ॥१६७८।। सम्मं विभावयंतो, पिच्छइ पंचालियं इमं तत्थ । जाणइ मंतिपवंचं, रुट्ठो आहवइ ते सव्वे ॥१६७९॥ आगंतुणं सचिवा, वयंति सा काणणम्मि तह दइया । सयमेव गया मोत्तुं, इत्थ इमं नियपडिच्छंदं ॥१६८०॥ मणयं मणम्मि राया, मंतिगिराहिं वहेइ आसासं । सोक्खासणमारूढो, तह चलइ पियाए मिलणत्थं ॥१६८१ ।। एसो को वि ह दगंधो, सच्चविओ तेण गच्छमाणेणं । नासारंधं जेणं, सयरंधं हवइ फुट्टित्ता ॥१६८२॥ पिच्छइ तहा निसने, सवस्स सो नाइदूरदेसम्मि । सत्तपडचेलछाइय, नासारंधे सपाइक्के ॥१६८३।। सवसविहे सचिवेहिं, नीओ पुच्छेइ किं इमं राया । सचिवा कहति दइया, तज्झ मया एरिसी जाया ॥१६८४।। सलवलिरकिमिसमूह, रणंतभमडंतमच्छिया निवहं । दुग्गंधलहरिवासियसमग्गगयणंगणाभोयं ॥१६८५॥ वारिज्जंतसमागयमंडलघणमंडलेहिं परियरियं ।। पहिएहिं पिहियनासं, दराउ वि परिहरिज्जंतं ॥१६८६॥ तह उवरि भमिरवायस-कंकावलि-गिद्धनिवहसछन्नं । . फिक्कारफारफेरवलक्खेहिं कडक्खियं तह य ॥१६८७।। दूरपसारियवयणं, सो राया बहलसूणसव्वंगं । पिच्छइ दइयादेहं, बीभच्छरसं व पच्चक्खं ॥१६८८।। 2010_04 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं झ त्ति विरत्तो चिंतइ, हा! करण्याए कारणे अप्पा । सुचिरं विलवंतेणं, वेलविओ इत्तियं कालं? ॥१६८९॥ जेसिं कज्जे किज्जइ, पावं वंचिज्जए जयं सयलं । नारीण ताण देहं, पज्जते केरिसं? नियह ॥१६९०॥ तरुणाण जम्मि पडिया, कडक्ख-विक्खेव-बहल-रिंछोली तस्सेव उवरिमिण्हिं, गिद्धा दीसंति भमडंता ॥१६९१ ।। जं अंतो तं बाहिं, इमाइ देहम्मि होज्ज जइ पढमं । सयमेवगहियदंडा, तो सा रक्खंतिया गिद्धे ॥१६९२।। पंकयकेसरगोरि, नारिं वनंति हा! महामूढा । असूइ-मल-मत्तघडियं, भत्थडियमिणं न याणंति ॥१६९३॥ ते च्चिय विवेयवंता, धना ते चेव जे सयं चेव । भालयलसेयजललवमिव रमणिं चइय निक्खंता ॥१६९४॥ अम्हारिसाउ तच्छा, रमणी-देहं पि कहिय-सडियं पि अज्ज वि चइडं न खमा, अहह अहो! मोहमाहप्पं ॥१६९५।। रमणीयणवेलविया, जे इह हारति सिद्धिसोक्खाणि । ते विक्किणंति लक्खं, एक्काए चेव गंजाए ॥१६९६।। सीमंतिणीण नवरं, देहो सव्वेसि चेव मणयाणं । आई-मज्झऽवसाणे, असुइ च्चिय सव्वहा नेओ ॥१६९७॥ असुइमल-मत्तखंघ, वाहिपबंधं लसंतदुग्गंधं । विहडंतसंधिबंधं, कह पडिबंधं कणउ देहं? ॥१६९८॥ परिमलमिलंतमयरमाला, पणवनकुसुमवरमाला । खणमित्तेण विणस्सइ, जइ पत्ता देहसंबंधं ॥१६९९॥ देहु व्व रूव-जोव्वण-जीविय-धण-सयलवत्थुवित्थारा । गंधव्वपरायारा, खणेण दिट्ठा विणट्ठा य ॥१७००॥ संझाकालसमागयदेसियकुडिवसियपंथियगणो व्व । जणणी-जणयाइजणो, दिसोदिसि वच्चए सहसा ॥१७०१॥ 2010_04 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा अनित्य भावना - जललवचवले जीए, विज्जलिया चंचलम्मि पेम्मम्मि । अथिरम्मि जए सयले, पिच्छ थिरा पावपारंभा ॥१७०२॥ असरणभावना - जइ जंति मच्चुगोयरमसुरिंद-सुरिंद-जिणवरिंदा वि । तो नत्थि भवारने, मन्ने अन्नेसिमिहसरणं ॥१७०३।। सरणं नहि संसारे, जाया भाया व जणणि-जणया वा । धण-सयण-परियणा वा, इक्कं मोत्तूण जिणधम्मं ॥१७०४॥ जह छहिय-दहिय-उवरय-गयाणि परिसोइयाणि डिंभाणि । तह सोयस अप्पाणं, निरयदुहे जीव! निवडतं ॥१७०५।। (भवभावणा) - तिरिया तह नेरइया, नरा य तियसा य दुक्खिया सुहिया भवनाडयम्मि जीवा, अणंतसो हुंति कम्मवसा ॥१७०६॥ (एकत्वभावना) जायइ एक्को एक्को, मरेइ एक्को भवंतरे जाइ । अणहवइ पाव-पत्रे, इक्को जीवस्स नहि बिइओ ॥१७०७।। विभयंति विहवमज्जियमायाससएहिं, जह सयणा । तह जइ दुक्ख पि तओ मन्ने सयणाण सयणत्वं ॥१७०८॥ अन्यत्व भावना - जीव विमुक्को देहो, अचेयणो चेयणो पुणो जीवो । इय जीव-सरीराणं, तत्तेणं मणस अनत्तं ॥१७०९॥ (अशुचित्वभावणा) पइदिण सिणाण-भोयण-तंबोल-विलेवणेहिं जो नेय ।। तिल तुस मित्तं पि सुई, तम्मि सुइत्तं कहं देहे ? ॥१७१०॥ आश्रव भावना - हिंसा मुसा य परधणअवहरणं अवरमणिरमणं च । मिच्छत्ताईणि तहा, आसवदाराणि कम्मस्स ॥१७११।। या का की का 2010_04 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जह नावा सयरंधा, जलेहिं भरिया निमज्जए सलिले । आसवदारेहिं तहा, भवनवे मज्जए जीवो ॥१७१२॥ (संवरभावणा) . पिहिएसं रंधेसं, पविसइ नावाइ नेव जह सलिलं । तह आसवसंवरणे, पावजलं जीव-नावाए ॥१७१३।। जं जं आसवदारं, जेणं जेणं निरंभए सहसा । वरसंवरेण तं तं, जोएज्जा तत्थ उवउत्तो ॥१७१४। कोहं खमाए माणं, मद्दवभावेण अज्जवेणं च । मायं. लोभं निच्चं, संतोसेणं निलंभिज्जा ॥१७१५॥ सम्मं सम्मत्तेणं मिच्छत्तं अविरई च विरइए । उज्जमपमुहेहिं तहा पमायपमुहे निरंभिज्जा ॥१७१६।। (निर्जराभावणा) चिरसंचियकम्माणं, निज्जरणेणं च निज्जरा भणिया । सा उण जिणेहिं कहिया, दुहा सकामा अकामा य ॥१७१६।। संजमरयाण पढमा, अवरा अवराण चेव जीवाणं । जं कम्माणमुवाया, संओवपागो फलाणं व ॥१७१७।। सज्झइ तवसा जीवो, सज्झइ कणयं पि दहणदाहेण । कयगेण जलं सुज्झइ, सुज्झइ खारेण वरवत्थं ॥१७१८॥ धर्मभावना सयगेव इमो धम्मो, जिणेहिं कहिओ जणाण हियकारी । भवज दितारणखमो, तो इह वज्जिज्ज संदेहं ॥१७१९॥ खंतीपमहो दसहा, जइ-धम्मो जीवघाय-चायाई । बारसहा गिहिधम्मो, कुज्जा दविहं पि हियकामो ॥१७२०॥ लोउज्जोयनिमित्तं, सासयकालं भमंति जं गयणे । ससि-सूरा तं जाणस, अवियप्पं धम्ममाहप्पं ॥१७२१॥ जिनैः स्वयमाख्यातो धर्म : 2010_04 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदररायकहा लोकभावना पंचत्थिकायमईओ, असंखदीवोदहीहिं परिकलिओ । ... लोगो जिणेहिं कहिओ, चउदसउड्ढायओ रज्जू ॥१७२२॥ बालग्गकोडिमित्तं, ठाणं तं नत्थि तिहुयणे जत्थ । जीवहिं जम्म-मरणा, अनंतखत्तो न संपत्ता ॥१७२३॥ बोधिदुर्लभभावणा जइ इत्तिय जम्मेसुं, लद्धा बोही हविज्ज संसुद्धा । ता इत्तिय भवभमणं, न होज्ज कइया वि जीवाणं ॥१७२ ४।। लब्भइ संखहरत्तं, चक्कहरत्तं कयावि इंदत्तं । कयघणकम्मविसोही, जिणमयबोही पुणो दुलहा ॥१७२५॥ इय भवभमणविणासणभावणनिवहं विभावयंतस्स । तस्स सवस्स समीवे ठियस्स तइया नरिंदस्स ॥१७२६॥ खीणे घाइचउक्के, पयडियनीसेसदव्व-पज्जायं । लोयालोयपयासं, केवलनाणं समप्पनं ॥१७२७॥ अह आसनसुरेहिं, सवमवणित्त सायरे खित्तं । भणिओ राया गिण्हस, जइलिंग जेण पणमामो ॥१७२८।। काऊण पंचमट्ठियलोयं गिण्हित्त समणजणलिंग । सवियासहेमपंकयमासीणो साहए धम्मं ॥१७२९।। पत्थावे सचिवेहिं, पढें मणिनाह! सा तया मरिउं । लीलाकमारी देवी, उववना कत्थ? साहेस् ॥१७३०॥ सो मुणिनाहो जंपइ, एसा मरिऊण पढमकप्पम्मि । जाओ तियसो भासरदेहो वररिद्धिसंपन्नो ॥१७३१॥ तत्तो चविउं नयरे, नंदणनामम्मि हविय निवतणओ । नामेण जयमयंको, लहिस्सए सासयं सुक्खं ॥१७३२।। सुरसुंदरनिवरज्जे, सचिवेहिं तस्स नंदणो तइया ।। लीलाकुमारिजाओ, अहिसित्तो सुरकुमारो त्ति ॥१७३३ ।। 2010_04 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सुरसुंदरमुणिनाहो, भवसंभवभावनिवहपरमत्थं । पयडियजणाण पत्तो, सासयसुक्खं लहुं मुक्खं ॥१७३४॥ सुरसुंदरनरवइणा, विसुद्धमणभावणा जहा विहिया । अवरे वि मुक्खसुक्खं, समीहयंता तहा. कुणह ॥ १७३५।। इति भावनायां सुरसुन्दरराजकुमार कथा एवं गाथा ग्रन्थ १७३५ छ । अन्तरंगकथा इति दानादिकमुत्तमधर्म मुनिना निरूपितं श्रुत्वा । राजादिजनः सर्वस्तमेव जग्राह विधिपूर्वम् ॥१॥ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अथ धर्मेदेशनापर्यन्तप्रस्तावे सादरमपराजितमहाराजस्तं महामुनिमप्राक्षीत् “परमेश्वर ! केन वैराग्यहेतुना नवे वयसि सुराऽसुर-नर- तरुणीमणोहारिणि शरीरमहसि तत्र भवद्धि र्भवद्भिर्गङ्गाप्रतिस्त्रोतोगमनसमानं, वालुकाकणगणचर्वणायमानं श्रामाण्यमग्राहि? “अथान्तरंङ्गारातिविततिदमनदक्षः श्रीमानरिन्दमो महामुनिरवादीत्“महाराज ! न खलु मम वैराग्यनिबन्धनमद्यतनेनैव दिवसेन श्रोतुं शक्यम्, ततो निश्चिन्तचेता दिनान्तरे समागच्छ, येन स्ववैराग्यहेतुस्वरूपं निरूपयामि भवतः पुरस्तात् ।' अथ राजा 'गुर्वादेशः प्रमाणम् इत्यभिधाय पुरान्तः प्रविश्य द्वितीयैकदिनारम्भे समायातस्तथैव महामुनिं पप्रच्छ । भगवानवादीत् - "पृथ्वीनाथ ! मम वैराग्यनिबन्धनं तत्, यन्न केवलं मम तवान्येषामपि श्रूयमाणं वैराग्यायजायत एव । तथाहि अस्ति समस्तान्तरङ्गनगराणामादिममनादिमूलप्रतिष्ठमसंव्यवहारं नाम नगरम् । यत्रात्यन्तनिग्डिस्नेहमोहिता इव साधारणशरीरनिवेशिनोऽनादिवनस्पतिनामानोऽनन्ताः पुरुषाः प्रतिवसन्ति स्म । तत्र कर्मपरिणाममहाराजप्रसादपत्तलाभुज्यमाने महानगरे तीव्रमोहोदयो नाम मण्डलेश्वरः । तस्य मन्त्री मन्त्र प्रपञ्चचतुरोऽत्यन्ताबोधो नाम । ताभ्यां च मण्डलेश्वर - महत्तमाभ्यां कर्मपरिणाम नरेन्द्रादेशतस्ते लोकाः सकलकालं सुप्ता इव मूर्च्छिता इव मृता इव विशिष्टचेष्टाशून्यतया निगोदाभिधानेष्वपवरकेषु प्रक्षिप्य धार्यन्ते स्म, अतएव तनगरमसंव्यवहारमितिगीयते । 2010_04 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा अथाऽऽस्थानमण्डपगतं महामण्डलेश्वरं तन्नियोगनामा दूतः समागत्य प्रणामपूर्वं विज्ञपयां चक्रे । अस्ति विदितैव भवतां समस्त सुराऽसुर - नरविसरनिर्मितनिरतिशयितरतिर्मनुजगति नीम नगरी यस्यामुच्चैस्तरत्वविनिवारितचन्द्र - सूर्यादिप्रचारो वलयाकारः पुष्करोदपारावाररूपपरिखापरिगतः श्रीमन्मानुषोत्तरनगः प्राकारः । यस्यां च सर्वस्वर्ण निर्मितान्यभ्रङ्कषशिखरनिकरमनोहराणि शाश्वप्रतिमासनाथानि मेरुपञ्चकरूपाणि चैत्यानि । यस्यां च विविधवस्तुविस्तारसम्पूर्णोऽपरिमेयजनाकीर्णः सुप्रसिद्धो महाविदेहक्षेत्रनिवहरुपो विपणिमार्गवर्गः । यस्यांचभर तै रावत हैमवतादय - स्त्रिदशाधिष्ठितविविधप्रासादपरम्परारमणीयाः पाटकाः । यस्यां च जगतीरूपवप्रमण्डिते सागराकार - परिखापरिष्कृते जम्बूद्वीप धातकीखण्डे द्वे एवान्तरपुरे । किञ्च - चक्रवर्ति जिनेन्द्रादिशलाकापुरुषाः सदा । त्रिषष्टिरपि जायन्ते, यस्यामेव महापुरि ॥१॥ अनुत्तरसुरैर्यनात् प्रार्थ्यते मुक्तिमिच्छुभिः । तस्याः सहस्नजिह्योऽपि, जिहनः सम्पूर्ण वर्णने ॥२॥ तस्यां मनुजगति महानगर्यां निजप्रतापपावकाक्रान्तसकलसुराऽसुरेन्द्रः 'कर्मपरिणाम' नामा नरेन्द्रः । स्त्रीत्वं श्रीमल्लिनाथे चरमजिनपतेर्गर्भभावेऽपहारम् । मुक्तिं श्रीनाभिपत्न्या भरतनरपतेः केवलज्ञानलक्ष्मीम् ॥ श्रुत्वा सिद्धान्तसिद्धानितिविविधमहाश्चर्यकारी प्रबन्धान् । मन्ये कर्मेव शक्तं त्रिजगति सकले निग्रहानुग्रहेषु ॥ १ ॥ १३७ तस्य कर्मपरिणाम नरेन्द्रस्य नियतियदृच्छादिसकल श्रुद्धान्ततिलकायमाना कालपरिणतिर्नाम देवी । ततो निष्कृत्रिमप्रेमरमणीयौ जायापती सुर-नर-नारक तिर्यग - सुभग- दुर्भग-सुस्वर - दुः स्वर - सुरूप - कुरूपातिरूपैर्विविधवेषैः संसाररंगे संसारिसत्वनिवहं नाट्यन्तौ सकलकालं नाट्यरसास्वादलालसौ तस्थिवांसौ । 2010_04 अन्यदा युवराजेन महामोहनाम्रा शक्तिव्यवसाय - विक्रम - साहसादिगुण सम्पूर्णोऽयमिति कृत्वा ताभ्यामेव देवी - नृपाभ्यां तत्र सर्वत्र राज्ये प्रमाणी कृतेन समागत्य - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सादरं स राजा विज्ञप्यते स्म । देव ! न किमपि नाटकाक्षिप्तचेता श्चेतयते भवान् । पश्य विवेकगिरिदुर्गादुत्तीर्यचारित्रनृपतेर्युवराजेन सन्तोषनाम्ना सम्यग्दर्शन सचिवपरिगृहीतेनास्मनगरी निवासिनः कौटुम्बिका नीताः सङ्ख्यातीताः शिवपुरी नाम नगरी । हे राजन् ! त्वयि नाट्यनिक्षिप्तचेतसि निरवधाने लब्धप्रस्तावाभ्यां ताभ्यां युवराजसचिवाभ्यामहमपि सांयुगीनो निर्जितः । अथेदं श्रुत्वा कोपाटोपविसङ्कटललाटतटघटितभरिभ्रूकराल: कर्मपरिणाम महीपालस्तारस्वरं व्याजहार - “भो भो सैनिकाः ! ताडयत प्रकटितमद्विजयारम्भा प्रयाणभम्भाम, समन्तादाहूयत समस्तदिगन्तसामन्तान, उत्तेजय भल्ल-वावल्ल-तीरी नाराचप्रमुखान् हेति निवहान, येन सह विवेक दुर्गेण समं सन्तोषयुवराजेन सार्द्ध च तेनैव महामन्त्रिणा तं चारित्रधर्म' नामानं राजानं दृष्टपारे पारावारे प्रक्षिप्य निष्कण्टकं निजराज्यं करोमीति ।" ___ अत्रान्तरे मिथ्यादर्शननामा मन्त्री प्राह – “देव ! कोऽयं कोपातिरेकस्तस्मिन् कीटे ? विश्राणय आदेशं महामोहस्यैव युवराजस्य, प्रस्थापय तेन सह मां पञ्चाङ्ग मन्त्रप्रयोगचतुरं महामन्त्रिणम्, येन तं दुरात्मानं सन्तोषहतकं जीवग्राहं गृहित्वा देवपादपदमान्ते प्रक्षिपावः । अस्मिन्नवसरे लोकस्थिति म महाराजभगिनी सकलत्रिभुवनगतचिरकालप्ररूढस्थितिविदुराव्याहरत् – “देव! युक्तमुक्तं महामंत्रिणा, प्रेषणीयावेतावेव युवराज-महामन्त्रिणौ सन्तोषनिग्रहाय, तथा प्रेषय तन्नियोगनामानं दूतमसंव्यवहारपरे, आनय तस्मानगरात् तावतः कौटम्बिकान् सन्तोषेण यावन्तो गृहीता इति । ततो मोहराजेन मनागपशान्तकोपेन स्वहस्तदत्तबीटकदानपूर्वक विसृष्टौ तौ महासैन्यसम्भारेण गत्वा कानिचित् प्रयाणकान्यावासितौ चित्तवृत्ति महाटव्यामतुच्छोच्छलल्लोलकल्लोलकृतकौतूहलायाः प्रमत्तता महानद्यास्तीरे अहं पनरत्रभवतां पार्वे कौटम्बिकानयनाय प्रेषितोस्मीति । तच्छ्वा तीव्रमोहोदयेनोक्तम्“भद्र ! देवपादानां पुरतो विज्ञप्यं भवता, युष्माभिर्वास्तव्यस्तोकत्व चिन्तामनागपि न चेतसि विधानीया । संत्येव युष्मत् प्रसादतोऽनन्तानन्ताः पुरेऽत्र कुलपुत्रकाः, येषां मध्ये एकनिगोदस्याप्यनन्तभागएवानन्तकालेनापि निर्वृत्तिं प्राप्तः"- इति वदता तेन तन्नियोग हस्ते गृहीत्वा सिंहासनादुत्थाय दर्शितास्तस्य तेषां गोलकानाम सङ्ख्याताः 2010_04 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतरंगकथा प्रासादाः प्रकटिताः । एकैकस्मिन्नपि प्रासादे असंङ्ख्याता एव निगोदनामानोऽपवरकाः प्रख्यापिताः । एकैकत्राप्य प्रवरके अनन्ता एव समकालोच्छ्वसन-निःश्वसनजीवन-मरणादिधर्माणः कौटुम्बिकाः । इत्थं प्रदर्श्य हस्ततालिका प्रदानपूर्वकं तन्नियोग' प्रति प्रत्युक्तं तीव्रमोहोदयेन “भद्र ! दृष्टं भवता नगरप्रमाणम् ?" हन्त ! हताशस्य सन्तोषस्य केयमाशा पिशाची ? यदहं मनुजगति' नगरी क्रमे णाकृष्याकृष्य कुलपत्रकान् पविरललोकां करिष्यामि, एतास कौटम्बिककटम्बकोटिष्वनन्तास विद्यमानास कथङ्कारं सा नगरी निर्जना जनिष्यते ? पश्येयत्यपि गते काले एकस्य निगोदस्यानन्ततम एव भोगो निर्वत्तिं गत इत्यादि कथयित्वा गौरवपूर्वकं तन्नियोगः म्नान-भोजन-विलेपनानि कारितः । अथवासरस्य पश्चिमयामसमये मन्त्रसभायामपविश्य तीव्रमोहोदयोऽत्यन्ताबोधमवादीत्-"महामात्य ! कथय के नाम कौटुम्बिकास्तत्र प्रेषितव्याः ? किं पटहोद्धोषणापूर्वकमेतेषां गमनाभिलाषविशेष परस्कृत्य किं वा राज्ञआज्ञा प्रमाणीकृत्य किमथवा यदृच्छा परस्कृत्य ते तत्र समादेष्टव्याः ? ।। सचिव : प्राह - पृथ्वीनाथ ! प्रथमविकल्पकल्पनं तावदयुक्तं, ते हि पटह मुखेन सादरं मुच्यमाना अपि न मुञचन्ति चिरतरकालप्ररूढसाधारणशरीरस्नेहम्, नावगच्छन्ति लवमपि मनुजगति नगरी व्यवहारम्, तत् कथं तेषां गमनाभिलाषो भविष्यति ? उत्तरविकल्पद्वयं तु न्यायमार्गबाह्यत्वादनवकाशमेव, तस्मात् साम्प्रतमेतदेव साम्प्रतम्- अस्ति तेषां सर्वेषामप्येकाऽप्यनेकरूपास्त्रीरूपाऽपि त्रिभवनगतपुरूषविधीयमान परुषकारगिरीन्द्रनिर्दलनकलिशधाराभवितव्यता नाम प्रिया । सा हि भगवती सर्वकार्येषु बद्धशाटिका परिकरः पुरुषो वर्तते । तस्या:पुरस्ताच्छक्रोऽपि ङ्कायते, चक्रवर्त्यपि तृणायते, हरिरपि प्रबलपवनान्दोलितार्कतरलतूलायते अपि च - अमुल्यग्रे सुमेरुः सपदिबलवता धार्यतेऽसौ समन्ता । दादित्यो नित्ययात्रां विदधदभिनभः स्तभ्यते वा कथञ्चित् । आरङ्कादा च शक्रात् स्वंयमभिलषितं भव्यता कार्यजातम् । कर्वाणा सौनिकेन त्रिजगतिसकले कार्यते वार्यते वा । योऽप्यस्मत् स्वामी कर्मपरिणाममहाराजो वा सोऽप्येनां द्रष्ट्वै चारित्रधर्मनृपति 2010_04 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सिरिपउमप्पहसामिचरियं सन्तोषादिभिः सह सन्धि-विग्रहयानासनाश्रयद्वैधी भावान् न यथा समयं समारभते स्म । किं बहुना ? द्विविधेऽप्यन्तरङ्गसैन्यबहिरङ्गलोके च यत् किमपि निष्पत्स्यते निष्पन्नं वा तत्र सर्वत्र भवितव्यतैव मुख्यया वृत्या प्रयोजिका, अन्ये पुनस्तदभिप्रायमेवानुसमर्थयितारः । उक्तं च - तादृक् सम्पद्यते बुद्धि-गतिः कर्मापि तादृशम् । सहायास्तादृशा ज्ञेया, यादृशी भवितव्यता ॥१॥ ततः सैषा समाहूय प्रष्टव्या, ये तस्या गमनयोग्याः प्रतिभासन्ते (ते) प्रस्थापयितु मुचिताः । तीव्रमोहोदयः प्राह-साधु महामात्य ! साधु, एवमेवैतत्, काकोऽत्र परिवारपुरुषेषु ? प्रविश्य तत् स्वभावो नाम प्रतीहार : देव एषोऽस्मि, समादिश्यतां कार्यम् । भद्र ! गत्वा समाह्वय सकलास्मत् कुलपुत्रकपरमकलत्रं भवितव्यताम् । सोऽपि 'आदेशः प्रमाणम्' इत्यभिधाय निश्क्रान्तः मुहूर्तमात्रानन्तरं भवितव्यतया सह प्रविवेश । न खल्वेषा सामान्यास्त्रीति कृत्वा ताभ्यां राजमहत्तमाभ्यां ललाटतट घटितकरकमलमुकुलुभ्यामुपविष्टाभ्यामेव कृतं दृष्टमात्रायास्तस्याः प्रणमनम्, उपविष्टा महत्यासने । अथ तीव्रमहोदयादेशेन कथयितमारब्धो महामात्यः___ “अस्ति साम्प्रतं समायातो मनुजगतिनगर्याः सुगृहीतनामधेयश्रीमत्कर्मपरिणाम वसन्धराधिपतेर्दूतस्तन्नियोगनामा, स च कुलपत्रवर्गान्-इत्योक्ते स्मितं कृत्वा 'भवितव्यता प्रत्यवोचत्-"महामात्य! सत्यमत्यन्ताबोधोऽसि, किमिदं हरिणाङ्कस्य पुरस्तादङ्कस्थितहरिणस्वरूपनिरूपणम् ? पारावारस्य पुरः शिखरस्थितकल्लोललोलभावा वेदनम्?कापुरहूतपुरतःसकलस्वर्गिवर्गशक्तिव्यक्तिर्वा?विदितथास्य सर्वज्ञस्याग्रतः संसारासारत्वप्रख्यापनंवा ? ___ जानाम्येव स्वयमेवाहमेवं विधानतीताऽनागतकालकलाकलापवर्तिनोऽनन्तानन्तानपि वृत्तान्तान्काकथा वार्तमानिक वृत्तान्तानाम् ? प्रेषितानि हि पुराऽप्यनन्तवारान् मया कौटम्बिककटम्बानि । अथ संजायमाना मन्दमन्दाक्षः सविलक्षः सचिवः प्रत्यवाच 2010_04 . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा “भद्रे ! इदमित्थमेव यथा त्वमात्य, मूढा वयम्, क्षम्यतामसाकमेकोऽपराधः, कथयत कांस्कान् कुलपत्रका स्तत्र प्रेषयिष्यसि ? । सा बभाषे - एकस्तावन् मदीयः प्राणनाथः प्रेषयितुमुचितः संसारी जीवो नाम? अन्यानपि तज्जातीयान् प्रेषयिष्यामि - इत्यभिधायोत्थाय गत्वा तत्राऽऽवासे संसारिजीवमन्यकुलपुत्रकैः सह सर्वकार्येषु स्वतन्त्रा चालितवती । कारितश्च निवासं ससंव्यवहारपरान्तर्वर्तिनि साधारणवनस्पति नाम्नि पाटकेऽनन्तं कालं यावत् । भ्रमितश्च तत्र तया ताभ्यां च तीव्रमोहोदयाऽत्यन्ताबोधाभ्यां चतुर्दशसु योनिलक्षेषु । अवतारितश्च ग्रहण-मोचनादिषु लोकव्यवहारेषु । ततस्तस्मादाकृष्य स तया प्रत्येकवनस्पतिनाम्नि पाटके निवासयाञ्चक्रे । तत्र तेन तस्याः प्रसादतो दशस योनिलक्षेषु, समुत्पत्तिर्लेभे । ततस्तया प्रेरितेन तेन क्षिति-जल-ज्वलनपवनकायेषु चतर्षु । पाटकेष प्रत्येकं सप्त सप्त योनिलक्षाणि बम्भ्रम्यमाणेन सङ्ख्यातीतं कालं यावन्निवासश्चक्रे । तेभ्योऽपि तया निष्क्राम्य विकलाक्षपाटकेष त्रिष कृमि-शङ्खजलौकः पूतरादिरूपेण कुन्थु-पिपीलिकादिभावेन भ्रमर-पतङ्ग-मक्षिकाद्याकारेण च सउत्पादयाम्बभूवे ।तत्रासौ त्रिष्वपि पाटकेषु प्रत्येकं द्वयोर्द्वयोर्यानिलक्षयो र्जननिमचकलन् । ततः पञ्चक्षपाटके उक्षाऽक्ष-भल्ल-रक्षु हर्यक्षादिरूपैश्चत्वारियोनिलक्षाणि लक्षी चकार । ततो मीन-भुजङ्गमविहङ्गमादिभवैरन्तरितां संसारिजीवः । सप्तसु सप्तस नरकपाट के ष दु:सहदु :खनिवहं सहमानः सम्भूतिमूरीचकार, सततोत्पद्यमानश्चत्वारियोनिलक्षाणि लक्षयामास । ततः किरात-शक-यवनतुरष्कादिरूपेण मनुष्यपाटकेषु विविधेषु समुत्पद्यमानश्चतुर्दश योनिलक्षाणि गोचरी चकार । तस्मादपि त्रिदशपाटकेषु चत्वारियोनिलक्षाणि कक्षी कुर्वन् नर-तिर्यग्भवान्तरितामुत्पत्तिमुररी चक्रे । एवं चतुरशीतिलक्षसङ्ख्यं भवभ्रमणं कारयित्वा भवितव्यतया निजप्रेयस्या पुनरपि स साधारणवनस्पतिपाटके नीतः, ततोऽपि प्रत्येकवनस्पत्यादिषु । एवमनन्तवारस्तावन्तं पूर्वोक्तभवभ्रमणविस्तारं निजप्रेयसीप्रसादतः संसारिजन्तरासादयामास। अश्रान्तानन्तभवभ्रान्तिं तत्र संसारचक्रे कुर्वता तेन तावन्तः सलिलसम्भारा अपीयन्त यावन्तो, न सलिलपल्वलाऽन्धसिन्धष । आहारस्तावानभ्यवहारितो न यावन्तः समेरु-नील-निषधद्वीपादयोऽपि तावन्ति शरीराण्यत्यजन्त यावन्तामनन्ततमभागे 2010_04 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं नापि भुवनत्रयं पूर्यन्ते । मुमुचिरे नर-दन्ताबलादिभवेषु दन्तास्तावन्तो यावत् प्रमाणा न कैलाश-गज-दन्त-गन्धमादन-प्रालेय-शैलाद(योऽ)पि । अन्यान्य जननी क्रोडेष परिक्रीडमानेन क्षीरं तावन्निपीतं न यावन्नीरं क्षीरनीराकरेऽपि । नारकजन्मसुतप्तं त्रप तावन्निपीतं न यावदम्भः शीता-शीतोदनदी निवहेऽपि । द्वादश वार्षिकदुर्भिक्षेषु भिक्ष्यमाणेन रङ्कजन्मन्यपरापररङ्कनिकरैः सह कलहायमानेन स्वशिरांसि तावन्ति स्फोटयाश्चक्रिरे यावन्तः समरे कपर्दाः । राजजन्मस वैरिवारेण सह युद्धं विदधानेनाभिमानमात्रसावधानेन समर्थप्रत्यर्थिछिन्नानि तावन्ति शिरांसि तत्यंजिरे यावन्ति जम्बूद्वीपे तारकचक्राणि । ततो निरन्तरभव भ्रान्त्याश्रान्तमिव खिन्नमिव निर्विन्नमिव कण्ठगतजीवितमिव निरुच्छ्वासमिव मृतमिव दीनवदनं निमीलितनयनं विच्छायकायमपरित्राणमनाथं निजप्राणनाथमवलोक्य मनागुत्पन्नानुक्रोशा सा समा श्वासयन्ती तं सधीरमभिव्याहरन् । आर्यपत्र ! किमित्यनार्यवत् स्तोकेनापि क्लेशलेशेन खेदं निजमनस्यवधारयसि? स्फुरन्मन्यना शतमन्युना शतधारशते शिरसि पातितेऽपि धैर्यध्वंसो न भवत्येव धीरपुरुषाणाम्, भविष्यति चास्मिन् जन्मनि जन्मकोटिभिरपिदुष्प्रापस्य कल्याणवल्लीविततालवालस्य निर्भाग्यनरविसरैरनन्तकाले नाप्यनाकलनीयस्य स्वर्गाऽपवर्गादिसुखसन्दोहमूलबीजस्य वस्तुविशेषस्य सम्प्राप्तिः ततो भवता न स्वस्वान्तनिशान्ते विषादः प्रवेशयितव्य-इत्याद्यभिधाय जठरेऽ नड्वाह्याः प्रसह्य तमवातीतरत् । जातः क्रमाददभ्रशरदभ्रविभ्रमां तन्वानो भारसम्भारसमर्थः नियोजितश्च शकटपञ्चशतीनायकेन कामदेवनाना सार्थाधिपेन धुरन्धरधुरासु सः । तस्य द्वारमासेवमानः प्राकृतजनेन प्रेर्यमाणोऽन्य धुरन्धरदुदरं महान्तं भारं बिभराञ्चक्रे सैकतिक कूलङ्कषाकूलेष दरधिरोहस्थला रोहणेष पङिकलपथिष स धौरेयः । क्षणमात्रादेकोऽप्यनेकानि शकटान्याकर्षन् बलीवर्दाऽभिधानं बिभराम्बभूव । कालवशतः सोऽपि वृद्धो क्षतामशिश्रियत् । कुतोऽपि कूलङ्कषाकूलादनांस्याकर्षन् पारे निम्नगं गतः त्रुटितान्त्रसन्दोहः पृथिव्यामपतत्। ___ अथ कामदेवसार्थाधिपतिममायं जेष्ठसोदर्यसदृशो धुरन्धरो यद्यपि नीरुक् स्यात् इति चिन्तयित्वा बहुशोचित्वा दिनचतुष्टयं स्थित्वा जनचतुष्टयं सह 2010_04 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १४३ धननिचयेन तत्र मुक्त्वा स्वयं देशान्तरमगमत् । तैः सार्थपतिपुरुषैः प्रयन्नतस्तस्मिन् परिपाल्यमाने मासचतुष्टयेन देशान्तरं विधाय स सार्थनाथः प्रत्यावर्तत । दृष्टा च तं निरन्तरगलन्नयनं प्रम्लानवदनं पुच्छपतितं दुःसहदुःखावस्थास्थितं निजधूर्खहं सगद्गद-जलभरितगलकन्दल: शोकमस्तोकं चकार । कण्ठगतजीविते च तस्मिन् सार्थमध्यस्थिताभ्यां कारूण्यपूर्णमानसाभ्यां मुनिभ्यां कर्णाभ्यर्णमुपेत्य पञ्च परमेष्ठिपरममन्त्रः समच्चारयाञ्चक्रे । अथ भवितव्यता प्राह - प्राणनाथ ! स्मरसि भवतः पुरस्तादहं कथयामि, त्वमत्र भवे किमपि दुर्लभतरं पदार्थान्तरमवाप्स्यसि, स एवायं परममन्त्रः । पदार्थान्तरं मन्तव्यः ततो भवसम्भवदःखदावपावकघन घनाघनसमालमेनं गृण्हातु भवान् इति । तयोक्ते स धुरन्धरः सादरं पञ्चपरमेष्ठि परममन्त्रमश्रौषीत् । पञ्चत्वमापनस्तत् प्रभावतो बहिरङ्गनगरेषुकञ्चनमयविहारागारप्राकारे काञ्चनपरनाम्नि महानगरे वैरसिंहमहाराजस्य नन्दा देव्याश्च वदनकंजरो नाम कामसमानरूप सुतः समजनिष्ट । तस्य तस्मिन् भवे सहजातौ सहवदितौ सहपांशक्रीडितौ पण्योदय-धूमध्वजनामानौ विश्वासपात्रं मित्रे समजनिषाताम् । स महोपाध्यायं साक्षिण कृत्वा द्वासप्तति सङ्ख्यं कलाकलापमाकलयामास । तं गुणग्रामाभिराममूर्तिमालोक्य पृथिवीपतिना समयज्ञो नाम नैमित्तिकः प्रपच्छे-हे निमित्तज्ञ ! ममायमजरुहो हस्तन्यस्तरेखापद्धतिमिव धनुर्वेद-गजशिक्षादिका कलानां द्वासप्ततिमप्यबोधि, तत् कथय किमयं राज्यभारधरणयोग्यो वा न वा? इति । सम्यक्परिभाव्य राजानं प्रति प्रत्युवाच - पीयूषमिव विषेण शशाङ्ककमिवकलङ्केन धननिवहमिवकार्पण्येन गुणग्राममिवानौचित्येनाऽस्य सकलमपि कलाकलाप पापमित्रवैश्वानरसंसर्गेण नितरां पण्योदयभूषितमपि दूषितं मन्ये, नासावनेन पापमित्रेणाविष्टो महापिशाचाविष्ट इव मातरपितरावुपलक्षयति, नापि गुरूपदेशं तृणायापि मन्यते, न च कलाकलापं वत्सर सहस्त्राधीतमपि लवमपि सस्मार । तच्छृत्वा महीनाथः प्रम्लानमखकमलो विच्छायकायः सद्यो विषन्नमाणसो बभूव । तं तथा अवलोक्य समयज्ञः प्राह-देव ! मास्म विषीद, भविष्यत्येवानेन पापमित्रेण सह तवाङ्गरुहस्य संसर्गोच्छेदः । राजा प्राह- कदा? । सप्राह- श्रृण सावधानेन चेतसा । अस्ति चित्तसौन्दर्यनाम नगरम्, तत्र शुभपरिणामो नाम राजा, तस्य ___ 2010_04 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं निष्प्रकम्पता कुक्षीसरसीराजहंसी क्षान्तिर्नाम कन्यका, यां रमणीयरमणीचूलामणिमालोक्य महामुनयोऽपि स्पृहयाञ्चक्रुः यस्याः संसर्गतो भिक्षाचरोऽपि सकलसुरासुर-नरेन्द्ररारा धयाञ्चक्रे, यस्या गणग्राममभिराममपवर्णयितुं परः सहनैरपि वत्सरैः सहस्त्रजिह्वोपि जिह्म एव, तां यदा भवदीयपुत्रः परिणेष्यति तदा सा बालिका स्वगुणैरेनमावर्त्य पापमित्रसंसर्गाद् विरहयिष्यति । __ अथ हर्षातिरेकान् महाराजः प्रोवाच-हं हो महामात्य ! गच्छत शुभपरिणाममहीनाथसमीपम, याचत तां कन्याम् । समयज्ञः प्राह - देव ! मात्वरिष्ठाः नह्यसौ भवदीयवशिष्टानां विषयो येन तत् समीपगमनमनुमन्यामहे, द्विविधा हि नगरराज-राज्ञी-पत्र-मित्र-कलत्रादयः पदार्थाः - बहिरंगा अन्तरङ्गा श्च, बहिरङ्गा भवतामप्यनुभवसिद्धाः, अन्तरङ्गा असंव्यवहारनगरकर्मपरिणामराजादयो गुरुपदेशगम्याः, तदयं राजा अन्तरङ्गपदार्थे वत्तते । ततो यदा कर्मपरिणामो राजाऽस्य कुमाररस्यान्तरङ्गजनकस्तां याचयिष्यति' तदा तया सह विवाहो भविष्यति, अस्ति चास्य भवितव्यता नामान्तरङ्गप्रिया, सा यदाऽस्याऽऽदेशं दास्यति तया नवोढया च सह न कलहायिष्यते तदा परिणयनं भावि इत्यादि वृत्तान्तं कथितपूर्वी समयज्ञो वस्त्रदानादिसम्मानं कृत्वा तेन वैरसिंहेन राज्ञा विसृष्टः । ___वर्दनकुञ्जरकुमारस्तु हितमप्यभिहितो वैश्वानराविष्टो मुष्टामुष्टि केशाकेशि दण्डादण्डि चकार । तस्य वचनेऽन्यथा समर्थ्यमाने प्रबलश्वासपवनपूरितनासारन्ध्र धमनीभ्यां ध्यापयित्वा चक्षर्गोलौकोपाटोपवहिना लोहगोला विवाऽत्यन्तमरुणौ विधत्ते स्म । अथास्तोकलोकानेकोऽपद्रवकारिणः कालसेन पल्लीपतेर्विग्रहाय प्रयाणभेरी भाङ्कारपूर्वकं चलितं महाराजवैरसिंह विज्ञाय सोऽयमहङ्कारमहागिरिस्तमनुज्ञाप्य स्वयं प्रजिगघाय । पल्लिं गत्वा दुर्दरसमरारम्भपूर्वकं पण्योदयप्रसादात् तं जीवग्राह गृहित्वा व्यावृत्तो राजानं नमश्चकार । तथा तस्मिन् प्रचण्डदण्डपूर्वकं मुक्ते स कुमारस्तद्दिनादारभ्य 'ममायं सर्वोऽपि वैश्वानरमित्रप्रसादः' यदहं विक्रान्तेष रेखा प्राप्तो जगति विख्यातः' इति धिया तस्य सविशेष गौरवं चकार, अनेकाश्च कन्यकाः स्वयंवरायाताः पुण्योदयवशतो राजादेशतश्च सहर्षमुपायं स्त । 2010_04 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतरगकथा १४५ अन्यदा ताभ्यां निजमित्राभ्यां सह स्वदेह नाम काननमगात् । स तत्र तदुच्चय नाम्नि वाल्मीके स्थितं पाशहस्तं मरणार्थमभ्युद्यतं पुरुषमेकमद्राक्षीत् स तस्य पश्यतो द्वय॑मूर्धाभिधानशाखायां पाशमुद्बध्य सहसाऽऽत्मानं मुमोच । मा साहसम्' इति जल्पता तेन तस्य पाशश्चिच्छिदे । स धरणीतललुलितः कथं कथमपि मूच्र्छा विहाय 'महाभाग ! किमर्थं मम पाशच्छिन्नो भवता ? इति वदन् पुनः पाशं ग्रहीतुमिच्छति । कुमारस्तमप्राक्षीत्-भद्र ! कथय किमर्थं भवता स्वात्मघातपातकमाद्रियते ? । ___स प्राह - श्रुणु यदि भवतः कौतुकातिरेकः, आसीन् मम शरीरसर्वस्वमिव जीवितव्यमिव भवजन्तुर्नाम मित्रम्, स प्रतिदिनं मामुपलालयति पृच्छति च - भद्र ! स्पर्शन ! यत् तुभ्यं रोचते तदेवमया विधेयम्, अन्यदा सुसमय नामा पुरुषेण विप्रतारितो विषकन्दलमिव करालधारालकरवालमिव मामदर्शत् । शनैः शनैः तस्य ससमयवचनैर्मम प्रतिकूलमपि कचोत्पाटन-भूमिशयनातपसेवनादिकं निर्मिमीते स्म । मया चिन्तितम् - त्यक्तस्तावदहमनेन सहृदा तथापि आमरणान्तविश्रान्तप्रणयानि सतां चेतांसि भवन्ति' इति विमृश्य स्थितोऽहं तमेवानुवर्तमानस्तटस्थ इव । कालान्तरे सर्वथा मामपरित्यजन्तं विचिन्त्य कृतघ्र इव परावर्तित इव न मया तव प्रयोजनम्, परिहरस्व मत्समीपम्' इत्यादि सपरुषमभिदधानो मद्गोचरायां निर्वृति नगर्यां गतवान् । अतोऽहं स्वमित्रविरहितोऽशरण इव निर्गतिक इव सर्वथा धन्यास्ते क्षणमात्रमपि ये मित्रविरहे न जीवन्ति इति धिया मरणमप्यङ्गीकरोमि स्म, मञ्च मां येन मित्रविरहदुःखान्तं करोमीति । अथ कुमारस्तद्वचनैरावर्जितचित्तः समुल्ललाप - भद्र स्पर्शन ! न कृतं तेन युक्तं यद् भवानपि निष्कृत्रिमप्रेमरम्यो वयस्यस्तज्यते, तदहमेव साम्प्रतं तस्मादप्यधिको भवतः प्रियसह्यद् भविष्यामि इति वदत एव योगशक्त्या स्पर्शनस्तस्य देहे प्रविवेश । तस्य तेन सह मैत्री भृशमभिनन्दिता वैश्वानरेण निन्दिता पुण्योदयेन । निजमन्दिरमायातस्तु कुमारस्तं सततं सुरतमृदुमनोज्ञतूलिकावालिका स्पर्शादिना पुनस्तरां सादरम्पलालयाम्बभूव । गलिते च गणरात्रे कश्चिद् दूरदेशान्तरायातो दूतः पृथिवीपतिं विज्ञपयामास । देव ! कलिङ्गाधिपतेर्विक्रमसेन महाराजस्य कन्यका १० 2010_04 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं कुमारगुणगणमुपवर्ण्यमानं श्रुत्वा जातागुरागा जनकादेशतः स्वयंवरा समायास्यति यदि यूयं ममादेशं वितरिष्यत । अथ तत्रोपविष्ट: कमारस्तं पप्रच्छ- महाभाग! कियतिदूरे स कलिङ्गो देशः ? स प्राह - कुमार ! यौष्माकीणनगराद् विंशं शतं योजनानाम् । कमारेणोक्तं -- नहि नहि । तेनोक्तम् - हीनमधिकं वा कमार एव कथयितु । स प्राह-मूर्ख ! एकानविंशं शतं योजनानां स देशो वर्तत्ते, न पुनः परिपूर्णम् । अपरःप्राह- अहं साम्प्रतमेव तस्माद् देशात् समायातस्ततो मया सम्यगुक्तमास्ते, भवतः पुनरविज्ञात स्वरूपत्वेन भ्रान्तिरेव । अथ वैश्वानरस्यैव कनीयसा सोदरेण महाशैलनामा कमारमित्रेण कर्णाभ्यर्णमपेत्य प्रोचे-कुमार ! यदि तवाप्य यमस्थानसमर्थनगर्वपर्वतो दुरात्मा सभायां अज्ञानं प्रकाशयामास तर्हि किं जीवीतव्येन ? किं वा अनेन परिरक्षितेन ? किं वा तया परिणीतयाऽपि कन्यया ? मान एव महतां माननीयः तद्गृहाण मदीयां विपाकशक्तिम्, करु निरुत्तरमेनम् - इत्याद्यभिधायावतारिता तस्य देहे तेन स्वकीया विपाकशक्तिः । ततः कुमारः पृष्ठमुष्ट्या हत इव गाढमुरःस्थलमग्रतो विधाय ललाटतटघटितां भ्रवं कृत्वा साक्षेपमवाच - धिक् मूर्ख ! ममापि किञ्चितदविज्ञातमास्ते ? अहं हि सर्वज्ञमप्यज्ञं मन्ये, बृहस्पतिमपि पल्लीपतिं चेतसा चिन्तयामि, तदरेकद्वद ! मया त्वया च निजनिजैकपुरुषप्रेरणेन भूमिमानं कार्यम्, यस्य वाक्यमसत्यं भविष्यति तस्य जिह्वा कृकाटिकया कर्षणीयेति ! इतरः प्राह - “कुमार ! पूर्वपरुषैराघाटघटितशिलाविन्यासपूर्वकं योजनानामस्मिन् पी थमानं विहितमास्ते ततस्ताभिरेवशिलाभिर्मानं निरीक्षणीयम्, किमन्येन नवीनभूमिमानेन ?'' अत्रान्तरे वैश्वानरः कर्णाभ्यर्णमुपेत्य कुमारमावभाषे, अद्यापि कथङ्कारमेनं दुराचारमुपेक्षसे ? गृहाण मदीयां शक्तिम्, दर्शयास्य पाप्मनो निजवचनान्यथात्वसमर्थनफलम् । ततः कुमारः प्रज्वलित इव नितान्तमारक्तनेत्र स्फुरदोष्टपुटं दन्तयन्त्रेण त्रोटयन् दोधूयमानवचनविन्यासस्तरवारिप्रत्याकारं कृत्वा केनाप्यशक्यप्रतीकारस्तद्वधार्थमास्थानमंडपादुत्तस्थौ । अत्रान्तरे वत्स ! किमिदं किमिदं इति ब्रुवाणः स्थितो दूतान्तराले स्वयमेव समुत्थाय वैरसिंहनामा नरेन्द्रः । कुमारस्तु तेन पापमित्रेण प्रोत्साहितो जन्मान्ध इव मत्त इव सहनगुणबलसंयुत इव 'तात ! परस्ताद् भव, भवन्तमप्यन्यथा न सहिष्यते मामक एष निस्त्रिंशः' इति 2010_04 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १४७ ब्रवाणे यदा राजा दूरे न भवति तदा वैश्वानररूप एव सम्पन्न एकैनैव निस्त्रिंश प्रहारेण तौ दूत-राजानौ चण्डचण्डालादप्यधिककर्मा निजघान । अथ तदसम्भाव्यं कुमारकर्मावलोक्य सकलमास्थानं चुक्षोभ । समजनिष्टसकलेऽपि तत्र नगरे महान् कोलाहलः । तं च तुमुलमाकर्ण्य कुमारजननी नन्दादेवी - वत्स ! किमिदं भवता म्लेच्छरप्य भाषणीयमश्रोतव्यमचिन्तनीयं कर्मसमाचरितम्? निवर्तस्व, करवालं प्रत्याकारे निक्षिपस्व, कुरुष्व जननी जल्पितमिति जल्पन्ती कुमारपार्श्वमगमत् । ___ अथ वैश्वानरेणाभिहितः कुमारः । पश्य मदीयां शक्तिं यदेकेनैव निस्त्रिंश प्रहारेण द्वावपि दूत-राजानावुपसंहृतौ भवता; एतामपि पातकिनी विब्रुवाणां मास्म तितिक्षेथाः, या किल भवन्तमपि तेजस्विचकवर्तिनं पापकर्माणमभिधत्ते । इत्यात्रद्यभिदधता तेन पापमित्रेण पनस्तरामाविष्टो मत्कलकन्तलकलापः प्रत्यक्षमहापिशाचस्तस्या अपि नलिनीनाललीलायितेनैव निस्त्रिंशेन शिरो लुलाव । अथानिलसहितमिवदावानलं तमसाध्यमालोक्य सम्भूय सर्वेऽपि सामन्तादयो राजलोका यष्टि-मुष्टि-लेष्टु-लगुड-पाष्णिप्रमुखैस्तं कुट्टयित्वा जर्जरप्रायं कृत्वा बबन्धुर्महता प्रबन्धेनारारट्यमानं मुखे धूली प्रक्षिप्य महान्धकारे कस्मिंश्चिदपवरके कथं कथमपि कपाटसम्पुटं पिधाय धारयामासुः । अथ सहस्रदीधितावस्तमुपेयुषि अस्तोकशोकान्धकारग्रस्ते च सर्वस्मिन्नपि पुरी लोके कृते च दूतराजराज्ञीनामौद्ध्व देहिके कर्मणि विलप्य विलप्य विश्रान्ते च सकल शद्धान्ते प्राप्ते च निशीथसमये स दुरात्मा तेनैव पापमित्रेणं सह पर्यालोच्य बन्धप्रबन्धं त्रोटयित्वा कपाटसम्पुटं शनैरुद्घाट्य पुरलोकं प्रतिज्वलित इव प्रतिगृहं प्रतिपाटकं वहिं प्रक्षिप्य कृतकृत्य इव बाणासण-तूणाहस्तो नगरान्निरगच्छत् । गच्छंश्च कियता कालेन कुशस्थलनामानं ग्रामं सम्प्राप्तः। तत् परिसर एव तृषार्तो जलपानार्थमेकमगा धमतुच्छजलसम्भारपूर्ण पद्मसरः समगच्छत । तत्र नवयौवनमनोहरां स्वेच्छया सरः पयसि सानमातन्वती चण्डालपत्नी ददर्श ।। अत्रान्तरे स्पर्शननामा तस्य प्रियसहृत् तं प्रति सादरमवादीत् - कुमार ! भवता परममित्रेण मम विषयी कृतानि सर्वासामपि राजन्य-ब्राह्मणादिवर्णोभ्दवानां सीमन्तिनीना मङ्गस्पर्शनानि, एतस्यास्तु न जाने कीदृशामङ्गं भविष्यति ? तद् 2010_04 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं " यदि स्वप्रतिज्ञां स्मरसि तदा साम्प्रतं ममेतस्या अपि स्पर्श विषयी कुरुष्व । इत्थं तेन प्रेरितः स सरोम्भसि प्रविश्य ग्रहगृहीत इव मत्तइवान्ध इव तया सह किञ्चिदालापमात्रं विधाय स्पर्शसुखलालसः परिरम्भमारभते स्म । साऽपि तथैव तेन स्पर्शनेन प्रोत्साहिता तमभिरामं विग्रहमालोक्य जातकौतुका गाढमाश्लिषत् । अथदैववश तस्तस्याः कुरङ्गकाभिधानायाः कुरङ्गो नाम म्लेच्छाधिपतिर्निज प्रेयसीं सरः प्राप्तां विज्ञाय जलकेलये हस्तन्यस्तकार्मुकभल्लीकः सरः सलिलमगच्छत् । तं तथाऽवलोक्य सञ्जात कोपातिरेकः कार्मुकमारोप्य भल्लीं सन्धाय साक्षेपमेनमाह्मस्त अरे ! पाप ! मामकीनां प्राणप्रियामभिरममाणो ध्रुवंकीनाशनिशान्तगमनमभिलषसि - इति विब्रुवाणेन तेन सह स राजपुत्रो निजपापमित्राभ्यां वैश्वानरमहाशैलाभ्यामुत्साहितो दुर्द्धरं समरमकार्षीत् । तावन्योन्यभल्लीघातनिहतौ सरस्तीरे प्राणैर्झगिति तत्यजाते। तैः पापमित्रै स्त्रिभिरपि तौ षष्ठनरकपृथिव्यां निन्याते । तत्र गुरुमुदगरगदादिप्रहरणैः परस्परं प्रहरन्तौ क्षेत्रस्वभावसमुत्थशीतवेदनात नित्यमत्यवावहतां द्वाविंशति सागरमानमायुः । ततोऽप्युद्धर्तितः स संसारिजीवः पापमित्रसमन्वितो मत्स्य - सर्पसिंह श्येनादिभवान्तरे कृत्वा दुःसहदुःखनिवहमनुभवनेकैकस्यां नरकपृथिव्यां द्विद्विरभ्राम्यत 1 अथ निर्जीर्णप्रायेषु पूर्वापार्जितपापेषु समुत्पन्नो बहिरङ्गनगर्यां बाणारस्यां घनरथमहीनाथपट्टदेव्याः प्रभावत्याः कुक्षौ कुक्षिरोहणभूमिरत्नायमानो महापद्मो नाम कुमारः । तस्य तदा रागकेसरिसुतः सागरक नाम अन्तरङ्गमित्रमजनिष्ट स साक्षिणमुपाध्यायं कृत्वा कलाकलापं निखिलमग्रहीत् । इतश्च शुभोदयमहाराजपुत्रो निजचारुता गर्भसम्भूतः सर्वगुणसम्पूर्णस्तस्य कुमारस्य मित्रमभूद् विचक्षणो नाम । तेन विचक्षणेन विमलमान सपुराधिपतेः कल्मषक्षयनृपस्य दुहिता सुन्दरतागर्भसम्भूता बुद्धिर्नाम कन्यका स्वयंवरायाता जनकादेशतो महोत्सवपूर्वकं परिणिन्ये । सा शतपत्रनेत्रानिजप्रेयसिनितान्तमनुरक्ता तस्यैव पार्श्वे चिरं तस्थौ । अथ रणरणकेन गृहीतः कल्मषक्षयनृपतिविमर्शनामानं स्वपुत्रं निजदुहितृवार्ता प्रच्छनाय प्राहिणोत् । सोऽपि विचक्षणसमीप एव जामि स्नेहमोहितः प्रभूतकालं तस्थौ । कालक्रमेण बुध्दे: प्रकर्षो नाम सर्वलक्षणः सुतः संजज्ञे । अथ महापद्मविचक्षणौ वदनकोटरं नाम काननं कदाचिद् गतवन्तौ । अन्तः १४८ - 2010_04 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा प्रविशन्तौ सरलतरलसर्वाङ्गं नवतारुण्यपण्यगात्रां कन्यामेका ददृशतः । तां दष्टवा जडप्रकृतिर्महापद्मो नितान्तं हर्षमुद्वहमानो विचक्षणेण तत्ववेदिना बाहुना धृत्वा स्थानान्तरं निन्ये । अथ तस्याश्चेटी तौ गच्छन्तावलोक्य पूत्कारमुच्चैस्तराञ्चक्रे - हा ! हतास्मि हा ! हतास्मि, म्रियते मदीया स्वामिनी निर्नाथा शरणरहितेति । तच्छ्रुत्वा महापद्मः सर्वं सत्यमेतदिति मन्वानः प्रत्यावर्तत । तदनुरोधाद्विचक्षणोऽपि । तयोर्दर्शनमात्रेणैव चैतन्यमवाप्य सा कुमारयोरासनमदापयत् । ताभ्यां उपविष्टाभ्यां तस्याः स्वरूपं पृष्टा चेटी प्रोवाच - हे नाथ ! यस्य गेहस्था, ममेयं स्वामिनी स्वयम् । स एवासारसंसारफलं प्राप्रोति तत्वतः ॥१॥ या गृहिताभिधानेयं, रसना भुविविश्रुता । अहं तु लोलता नाम, तस्या दासी प्रकीर्तिता ॥२॥ इत्यादि कथिते प्रमदितचित्तो महापद्मकमारस्तां स चेटिकां स्वगृहे निनाय । विचक्षणोऽपि जाननपि तत्वं मित्रोपरोधात् तां वदनकोटरगतामेव मानयामास । स्वगृहप्राप्तश्च शुभोदयायराज्ञे तस्याः प्राप्ति विज्ञापयामास । अथ राजा विमर्श - बुद्धिप्रकर्षादिकं कुटुम्बं मीलयित्वा विचक्षणं प्रत्याह - नारी सर्वाऽपि हे वत्स ! प्रकृत्या वायुचञ्चला । करण्डीकेव कौटिल्यकैतवादिफणा भृताम् ॥१॥ ऐन्द्रजालिकविद्यैव, दृष्टिबन्धविधायिनी । दुर्गाह्या सर्वथा चेयमादर्शगतमूर्तिवत् ॥२॥ सत्य-शौच-विवेकादि, यद्भुक्तं चारुभोजनम् ।। भुज्यमाना झटित्येषा, तत् क्षुद्रा वामयत्पलम् ॥३॥ यस्मात् वत्स ! कुल-शीलादिकमन्यस्या अपि परीक्षणीयम् । विशेषतः पुनरस्या रसनायाः । स प्राह - तात ! एवमस्तु, कः पुनरस्या मूलशुद्धिगवेषको भविष्यति ? । वत्स ! तव श्वश्वर्यो विमर्श एवात्र कर्मणि प्रगल्भते । ततो विमर्शेनोक्तम्- ममादेशः प्रमाणम्, परं मया कियता कालेन निर्वर्तनीयम् । 2010_04 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सिरिपउमप्पहसामिचरिय विचक्षणः प्राह- एकेन संवत्सरेण । विमर्शः प्राह-तर्हि बहिरङ्गान्तरनगरेषु सर्वत्र तस्या मूलसद्धिं गृहीत्वा समागमिष्यामि । एवमस्त' इति वदता विचक्षणेन विमर्शः प्रेषयांचने । अथ प्रकर्षः प्राह - तात मामेन सहाहमपि गमिष्यामि, अहं हि विमर्श विना क्षणमपि स्थातुं न शक्नोमि । तस्याऽऽग्रहं विज्ञाय सोऽपि विचक्षणेन सहैव प्रेषितः । अथ तौ भागिनेय -मातुलौ चम्पा-श्रावस्ती-विनीताराजगृहादिषु बहिरङ्गनगरेषु सर्वेषु षण्मासावधि भ्रान्त्वा तस्याः शुद्धिमलभमानौ प्रविष्टावन्तरङ्गनगरेष । गतौ क्रमेण राजसचित्तं नाम नगरम् । तच्छून्यप्रायमालोक्य मिथ्याभिमाननामानं सेल्लहस्तं प्रपच्छतुः । महाभाग ! केन हेतुना शून्यमिदमालोक्यते ? स प्राह - द्वीपजातौ युवाम् । यत् एतदपि पर्यनुयुञ्जीयाथाम् । तावाहतुः - महात्मन्। पथिकावावां, तद् भवता न कोपः कार्यः । तर्हि श्रोतव्यं भवद्भ्याम् __ अस्ति अस्य नगरस्य सगृहीत नामधेयो लीलानिर्जितसकलसराधिपतिः पतिर्देवो रागकेसरी नाम । स कदाचिन्निजममात्यं विषयाभिलाषमवादीत् - महामात्य ! तथा कुरु यथा जगदेतन् ममैवाज्ञा शिरसि धारयति, स्वामिनमन्यं पनर्न चेतसा चिन्तयति । मन्त्री प्राह - स्वामिन् ! एतदेव कतिपय दिनमध्ये विधेयम्, अत्रार्थे देवेन न चेतसि चिन्ता विधानीया - इत्यभिधाय राजसमक्षमेव निजापत्यानि निजप्रबलपवनान्दोलितकल्लोललोलानि पञ्च स्पर्शन - रसन - घ्राण - चक्षुः श्रोत्राणि समादिशति स्म । निर्जितानि तानि जितं जगत् तैः स्तोक दिवसैः परं साम्प्रतमेतत् कस्यचिन् मुखेन श्रुतं राजमहत्तमाभ्याम्, यदुततानि यष्मदीयमानुषाणि पराभूय दुरात्मना सन्तोषेण नीताः केचन पुरुषा मुक्तिमहानगरीम् । ततो राजा क्रोधाध्मात चेताः प्रयाणभेरी भाङ्कारपूर्वकं यावद् चलत् तावद् विषयव्यासङ्ग नामा दूतेन समागत्य विज्ञपयाञ्चक्रे – देव ! कर्मपरिणाम राजा देशतः सन्तोषनिग्रहाय महतासैन्यसम्भारेण देवो महामोहराजश्चलितो वर्तते, तद्भवभ्दिः तत्र कटके स्वयं समागन्तव्यमिति । राजा चिन्तितवान्- वयमग्रेऽपि सामग्र्या चलिताः । ततो मोहराजादेशोऽपि तादृश एव, तदिदं जातं उन्माथिता च बाला मयूरेणाऽपि लपितम् इति । ततो रागकेसरी विषयाभिलाषादिपरिवारसहितः प्रस्थितो विजययात्रायाम् अतः इदं नगरं शून्यमिति । 2010_04 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १५१ विमर्शः प्राह - तर्हि तत् कटकं साम्प्रतं कत्र वर्तते ? 'मिथ्याभिमानेन' चिन्तितम्- नूनं हेरिकावेतौ अतएव समूला सर्वां शुद्धिं पृच्छतः । ततः प्रोक्तम्साम्प्रतं देवः ससैन्यस्तामसचित्ते नगरे श्रूयते । अथ तथा आपृच्छ्य तौ भोजनादि तत्र कृत्वा पनरग्रे प्रतस्थाते । गच्छंश्च विमर्श : प्रकर्ष प्रत्याह - वत्स ! लब्धा कियती तावद् रसनाया' मूलशुद्धिः । परिपूर्णा पुनविर्षयाभिलाषं दृष्ट्वा ज्ञास्यामः । क्रमेण प्राप्तौ तामसचित्ते । तत्र ताभ्यां प्रवेश कर्वाणाभ्यां तत्रैव प्रविशन् दृष्टो दैन्याऽक्रन्दरोदनादि' कतिपयपुरुषपरिवारितो धूमसमूहसमानदेहः शोकनामा प्रतिजागरुकः पाडीरिकः । स पृष्टस्ताभ्याम् - "भद्र ! कोऽत्र राजा ? तेनाभिहितम् महामोहनृपतेस्तनयो रागकेसरिणोऽनुजः सुगृहीतनामधेयो द्वेषगजेन्द्रो नाम, सोऽपि सन्तोषस्योपरि सबलवाहनश्चलितो वर्तते, साम्प्रतं पुनस्तत्, कटकं 'चित्तवृत्ति महाटव्या प्रमत्तता नद्यास्तीरे सर्वमप्यायासितमास्ते, दुरात्मनः सन्तोषस्यात्र नगरे घाटी पातितां । श्रुत्वा स्वयं देवेनाहं पुनरत्र विशुद्धिकरणाय प्रेरितोऽस्मि। अथ तौ तदपि परं सकलमपि निरीक्ष्य प्राप्तौ क्रमेण चित्तवृत्ति महाटव्यां । दृष्टा तत्र ताभ्यां निद्रादिपयःपूरदुष्प्रेक्षा अपर पारावारगामिनी प्रमत्तता' नाम महावाहिनी । अवलोकितं तस्याः पलिने समावासितं कृतमहाकलकलं हेति निवहदूरालोकं सङ्ख्यातीतसुभटकोटिसङ्कीर्ण मोहराजस्य सैन्यम् । निरूपितस्तत्र नभोभागमवरुन्धानः त्रिलोकीलोकसन्त्रा समादधानो दूरादेव विलोक्यमानश्चित्तविक्षेपो नाम महामण्डपः । प्रत्यक्षीकृतस्तेन महामंडलेश्वरनिकरपरिवारितस्तृष्णा वेदिकास्थितविपर्ययाभिधानसिंहासनाध्यासीनो महाभैरवीमविद्या नाम गात्रयष्टिं दधानः, कदाग्रहनिवहरूपकचनिचयनिर्मितं कूर्च महर्महुः परामृशन्, रजस्तमोरूपाभ्यां नयनाभ्यां जगत्त्रयमपि कटाक्षयन्, तमालतमस्तोमश्यामच्छायकायो, ममेत्यध्यवसायात्मा, निर्जितसकलसुराअसुरेन्द्रः श्रीमन्महामोहनरेन्द्रः । तं दृष्ट्वा विमर्शप्रकर्षावपि क्षभिताविव दूरे तस्थिवांसौ, न पनरन्तरास्थानमण्डपमविक्षाताम् । प्रकर्षः प्राह - माम ! मम कथय प्रत्येकमेतेषां महामोहमण्डलेश्वराणां स्वरूपम् । अथ विमर्शोऽपि विमृश्य प्राह - आयुष्मन् ! इयं तावन्मोहराजस्य वामपार्वे निषण्णा कुट्टिनी समानस्थूलतरशरीरा महामूढता नाम पट्टदेवी । अयं . पुनरस्य राज्ञः सर्वव्यापाराधिकारी निकटस्थित एवमिथ्याभिनिवेशसिंहासणासीनो 2010_04 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं निःशेषदर्शन-पाखण्ड-मतमतान्तराणामादिस्रष्टा विहितविवादवातूलसकलव्रतिव्रातः सप्ताङ्गराज्यभारसम्भारोद्धारसमर्थः फरवक्रनयनाभ्यां सकलमपि राज्यन्यचक्रं निरीक्षमानः सर्वत्रास्खलित-बुद्धिव्यवसायसम्पनो महामन्त्री मिथ्यादर्शनो नाम । एष पनर्दक्षिणपार्श्वस्थितः प्रणयाभिधानसिंहासनाध्यासीनो जगत्त्रयमिव जेतं विहितकामम्नेहदृष्टिरागरूपत्रयो राजसचित्तपुराधिपतिर्मूढतापतिर्निजवर्ण निर्जित पद्मपद्मरागो रागकेसरी नाम । अस्य कुमारस्तु मुनिमानसानामपि विहितक्षोभो लोभस्तथा मायाभिधाना दुहिता बहिरंगनगरेषु जगज्जयाय सर्वात्मना गतवन्तावितिमन्यामहे, अतस्तावा न द्रश्यते । एष पनर्दष्टामिसन्धानाभिधानसिंहासन मासीनो वामपार्वेऽनतिदूरस्थितो लीलानिर्दालितसफललोकसुखसन्दोहस्ताम सपुराधिपतिरविवेकता प्रतिवलद्दावपावकवर्णो 'द्वेषगजेन्द्रो नाम । अस्य कुमारौ वैश्वानरशैलराजनामानौ बहिरङ्नगरेषु जगदनर्थे पातयितुं जग्मिवांसाविति मन्यामहे । अयं पनर्मोहराजस्यपृष्ठरक्षइवपृष्ठदेशस्थितःसंकल्परूपसिंहासनस्थितस्त्रीनपुंसकवेदत्रयरूपत्रयव्याप्तजगत्त्रयलोकश्चेतः स्वरूपपुराधिपतिः प्रीतिरतिपतिविडम्बितहरिहरहिरण्यगर्भादिसुरसंहतिर्मकरध्वजो नाम । असौ पुना रागकेसरीसिंहासनसमीपस्थो मनोज्ञस्पर्शलालसो हारिरसास्वादलम्पटः सुरभिगन्धा घ्राणदत्तचित्तोऽभिरूपरूपनिरूपणैकरसिकः कान्तगीतसमाकर्णन दत्तकर्णोऽति रमणीयां आकृतिर्व्यसनाभिधानमहासिंहासनस्थचञ्चलतरकतिपयमानुषपरिवारितो मन्त्री विषयाभिलाषो नाम; स एवायं रसनाया अपि जनकः । एतेनैव दुरात्मना जगदन्धङ् करणानिकरणानि पंच मानषाणि विश्वत्रयजयाय प्रेषितानि । एतेऽप्यत्र हास्याऽरतिभय-जुगुप्सादयः संज्वलनादयो मोहराजस्याभ्यन्तरा एव परिवारे मन्तव्याः । ये पुनरेते ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायवैद्याऽऽयर्नाम-गोत्राभिधानाः सप्त स्वपि (स्व)परिवारसहिता भिन्नभिन्नकटकानि प्रकट्यन्तो नातिदूरे दृश्यन्ते तेऽप्यस्यैव महाराजस्य कटकप्रविष्टा महासामन्तेश्वरा मन्तव्याः । तत् वत्स ! निवर्त्यतामस्मात् स्थानात्, गम्यतां विचक्षणसमीपे, कथ्यतां यथादृष्टं मोहराजकटकम्, निवेद्यतां रसनाया उत्पत्तिः, माऽत्र चिरं तिष्ठतोरावयोरपि कश्चिदनों भूयात्, वत्सरोऽपि साम्प्रतं पूर्णप्रायो वत्तर्ते- इत्याद्यालोच्य प्रत्यावर्तितौ । 2010_04 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १५३ गत्वा विचज्ञणायाऽमुं, वृत्तान्तं तौ शशंसत । युक्तिपूर्वं कृती सोऽपि, रसनायामवर्तत ॥१॥ सत्यवाचि नियुङ्क्तेता, लाम्पट्याच्च निषेधति । स्वप्रतिज्ञा परित्यागत्रस्ततां न विमुञ्चति ॥२॥ रसना शुद्धिमावेद्य, कृतिना भणितोऽपि हि । महापद्मकुमारोऽपि, मूढस्तत्वं न बुद्धते ॥३॥ मद्यपानपलास्वाद प्रमखैालयन्त्रयम् । असारघोरसंसारे, सारं तामेव मन्यते ॥४॥ राज्ञादत्तैः पुरा देशैर्बहुभिर्न च तृप्यति । रागकेसरिपुत्रस्य, लोभस्य वशगः सदा ॥५॥ चिन्तयत्येष दृष्टात्मा, महालोभवशंवदः । नूनं न मह्यं राजाऽयं, जीवन् राज्यं प्रदास्यति ॥६॥ कथङ्कारं च पापात्मा, घात्योऽसौ नृपतिर्मया । अथ तस्स विवेशाङ्गे माया लोभकनीयसी ॥७॥ सा तमाह किमत्रापि, कार्ये मूढवदीक्षसे ? | हंता ! नाट्यचाटूनि, भक्तिं ख्यापयराजनि ॥८॥ ततो मम प्रभावेण, विस्त्रब्धे कुरु वांछितम् । न विना हन्त ! विश्वस्तं, वंचितं कोऽपि शक्यते ॥९॥ सैष इत्थं तया प्रोक्तः क्रमात् कृत्वा च कैतवम् । राजानं तन्मय चक्रे, छद्मना को न वंच्यते ? ॥१०॥ लब्ध्वाऽवकाशमायाते, वशीकृत्य स राजकम् ॥ धृत्वा विक्षेपराजानं, पितरं दारुपंजरे ॥११॥ कृत्वा राज्यं निजायत्तं, हृष्टश्चेतस्य चिन्तयत् । अहो ! प्रभावो मायायाः अहो ! लोभः सुखाकरः ॥१२॥ लब्ध्वाऽवकाशं लोभेन, रहस्येषोऽभ्यधीयत । त्वत्तो राज्य ग्रहीतारस्तवेव तव सूनवः ॥१३॥ 2010_04 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पत्राणां जातमात्राणां, अङ्गोपाङ्गान्यतो ध्रुवम् । छिन्द्धि राज्यं तवैवेदं, भावि शाश्वतिकं ततः ॥१४॥ सर्वमेतत् तथा चक्रे, सैष लोभहतः कुधीः । नितान्तं वार्यमाणोऽपि, प्रियाभिः सचिवैस्तथा ॥१५॥ दीर्धदर्शी ततो मन्त्री, तैतलि म शद्धधीः । चक्रे गृहीत सङ्केता, पट्टदेवी मनोरमाम् ॥१६॥ राज्ञां मन्त्रिप्रियायां च, प्रसूतायां सहैव हि । संचार्य स्वसुतां मन्त्री, रक्षति स्म नृपाङ्गजाम् ॥१७॥ राजा प्रेक्ष्य सुता जाता मक्षताङ्गाममुञ्चत । नास्ति वैरं निजापत्ये यदि स्वार्थो न हीयते ॥१८॥ पद्म इत्यभिधां तस्य, चक्रे मंत्री शुभे दिने । वर्धमानः क्रमेणैष, जग्राह सकलाः कलाः ॥१९॥ पुत्रं मनोहराकारं तं विलोक्य मनोरमा । अनाप्य स्वगृहे छत्रमुपलालयतिस्म सा ॥२०॥ कथंञ्चित्तेन सा पृष्टा, सर्वं सत्यमचीकथत् । स्नेहतः प्रकटो जज्ञे, स्वभावो नात्र कौतुकम् ॥२१॥ अथ मेघरथोऽन्येधुर्भङ्क्त्वा तद्दारुपंजरम् । दधावे पत्रघाताय गदामादाय, दृष्टधीः ॥२२॥ पितापुत्रौ राज्यलुब्धावन्योन्याघाततो हतौ ।। नारकत्वेन जज्ञाते, पञ्चम्यां नारकावनौ ॥२३॥ पिता-पत्रेण पत्रोऽपि, पित्रामार्येत सत्वरम् ।। येन लोभेन तं पापमित्रं नात्यजतः सुखम् ॥२४॥ उद्धृतः स ततो भीमभवचक्रे क्वचित् कुधीः घ्राणेन क्वचिदक्षिभ्यां, श्रोत्राभ्यां च विडम्बितः ॥२५॥ अथ संसारजीवोऽसौ, भवं भ्रान्त्वा समन्ततः । धन्यस्य कन्यका जज्ञे, विशालाया महापुरि ॥२६॥ 2010_04 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा एषा लक्ष्मीवती नाम, नवयौवनहारिणी । नवोढैव दरन्तेन, कर्मणा विधवाऽभवत् ॥२७॥ अथ कलंकं ततः शीलं, शीलयन्ती विवेकिनी । जैनसिद्धान्तसम्बद्धं, ग्रन्थलक्ष पपाठ सा ॥२८॥ तस्या श्चेतसि सिद्धान्तः परिणेमे यया यथा । तथा तथा पलायन्ते, क्रोधलोभादिशत्रवः ॥२९॥ सम्यक्त्वे मेरुचूलेव, निश्चला दमितेन्द्रिया सिद्धान्तश्रवणोयुक्ता, सोत्साहा धर्मकर्मणि ॥३०॥ तथास्थिते च यद्येषा, पंचतामिययात् तदा । निर्वृत्तिं नगरी यायाद् विमानेऽनुत्तरेऽपि वा ॥३१॥ अथ विज्ञपयामासे, तत्स्वरूपं समन्ततः । भूभजे मोहराजाय, मिथ्यादर्शनमन्त्रिणा ॥३२॥ देव ! संसारजीवोऽयमस्मान् निर्जित्य लीलया सन्तोषादीन् पुरस्कृत्य, यातामुक्तिं महापुरी ॥३३॥ श्रुत्वेदं मोहराजोऽथ निजं राजन्यकं प्रति । कूर्चपर्यन्तमामृष्य, बभाषे स्फुरिताधरः ॥३४॥ अस्ति कश्चिन्मदीयेषु, धीरवीरेषु साम्प्रतम् । कर्यादेनं स्वशक्त्या यो, ममाज्ञाकारिणं सदा ॥३५॥ तेनैवमुक्ता मौनेन, तस्थू रागादयस्तदा । को हि कार्येऽति दुःसाध्ये सन्ध्यां सन्धातुमिच्छति ॥३६॥ अथ तारस्वरं श्रुत्वा, महामोहमहीपतेः । प्रमत्तता महानद्या, लीलाजितजगज्जना ॥३७॥ राज-स्त्री-देश-भक्तानां, चर्या चतुर्भिराननैः । व्यातन्वाना समुत्तस्थौ, वितथा नाम योगिनी ॥३८॥ मोहराजं नमस्कृत्य, योगिनी सा मनस्विनी । प्रोवाच नित्यवाचालससंरम्भप्रगल्भवाक् ॥३९॥ ___ 2010_04 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आक्षेपो मोहराजेन्द्र ! कार्ये कोऽयमियत्यपि ? निर्विचारं ममादेशं, देहि धेहि मुदं हृदि ॥४०॥ नाजीगणमहं तस्याः, वराक्या गणनामपि । मुनयोऽपि निपात्यन्ते, मया हि भवसागरे ॥ ४१ ॥ मोहराजस्ततः प्राह, साधु साधु सुयोगिनी । त्वया योगिन्या ! विख्याता, योगीन्द्रा वयमप्यमी ॥४२॥ गच्छ तत्र कुरुष्वाऽऽश्रु, सर्वं कार्यं यथोचितम् । तेनेत्युक्ता क्षणेनैव तस्या देहं विवेश सा ॥४३॥ लक्ष्मीवती तयाऽऽविष्टा, श्रुतचिन्तां विहाय सा । जगाम तत्र साक्षेपा प्रचुरां यत्र चस्तरि ॥४८॥ करोति स्वयमप्येषा तप्तर्नित्यमनर्थकम् । नरेन्द्रकोश - सामन्त- मन्त्रि - सिन्धुरवाजिनां ॥४५॥ नानारसवती भेदानन्यगेहेषु संस्कृतान् । स्तौति निन्दति वा कार्यं, विना सा चर्भटी प्रिया ॥ ४६ ॥ रम्यौऽसौ गुर्जरो देशो न रम्या मालवादयः । निर्घृणा हन्त पंचाला, इति चर्चा चकार सा ॥४७॥ चोल - पंचाल - कर्णाट-लाड - गौडादिदेशजाः । वर्ण-वेषादिभिः कार्यं, विना चर्चयति स्त्रियः ॥४८॥ कात्यायन्याऽन्यया सार्द्धमूर्ध्वस्था चत्वरादिषु । विस्तारयति सा वार्ता साक्षेपं हस्तकैश्चिरम् ॥४९॥ उद्घट्टयति मर्माणि, परिवादैक तत्परा । परमन्दिरचर्चाभिः, सा दिनान्यत्यवीवहत् ॥५०॥ मा कार्षी जिन गेहस्था, विकथास्त्वं विवेकिनि ! । इत्युक्ता प्रत्यवादीत् सा, नन्विदं प्रियमेलकम् ॥५१॥ विकथाभिधयारौद्रयोगिन्या सा वशीकृता । पूर्वाधीतं श्रुताम्बोधिं क्रमात् सर्वं व्यसस्मरत् ॥५२॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १५७ अन्यदा विश्वसेनस्या सम्भाव्यां पृथिवीपतेः । अविभाव्यैव दुर्बुद्धिर्वार्ता चक्रे विरोधिनीम् ॥५३॥ तत्र सर्वत्र तां दैवाज्जनो वार्तामपप्रथत् । राजा विज्ञाय तत् सर्वं, मूलशुद्धिमचीकरत् ॥५४॥ पारम्पर्येण सा वार्ता, तस्यां विश्रान्तिमासदत् । कोपातिरेकतः सद्यो, भूपतिस्तामजूहवत् ॥५५॥ विशाम्पत्या ततः पृष्टा, सा न किञिचदेवोचत । अयं क्रुद्धस्ततोऽमुष्याः, श्रवणौष्ठमलीलवत् ॥५६॥ महीपालोऽतिवाचालां, तां परान्निरकासयत् । सम्पदं विपदं सूते, वाणी हारिण्य हारिणी ॥५७|| अटाट्यमानाऽटव्यां सा निशिदष्टा महाहिना । जज्ञे ऋद्धाविशांपत्यौ, चतर्थ्यां नारको भवि ॥५८॥ सैष संसारिजीवोऽथ, क्रमाद् राजपुरे पुरे । राजसिंहस्य राज्ञोऽभूनन्दनो नरसुन्दरः ॥५९। कलामधीत्य तारुण्ये, नवे क्षेमंकराद् गरोः । श्रुत्वा धर्म विरक्तात्मा, परिव्रज्यां प्रपत्रवान् ॥६०॥ चतुर्दशापि पूर्वाणि, भूतग्रामां श्चतुर्दश ।। अध्यैष्ट पालयामास, सोऽन्तेवासि शिरोमणिः ॥६१ ॥ तस्मै गरुः प्रसन्नात्मा, क्रमादाचार्यकं ददौ । सोऽप्याचाररतः सम्यगाचार्यश्रियमौजढत् ॥६२॥ लोकोपकारनिरते, तस्मिन् ज्ञान-क्रियारते । जितवादीन्द्रसंघाते, यज्जातं कथयामि तत् ॥६३॥ विवेकगिरिदुर्गस्थो, दानादिचतुराननः । उच्चैश्चित्तसमाधान, महामण्डपमाश्रितः ॥६४।। जीववीर्यासनासीनो, दर्शनादेवदेहिनाम् । प्रत्यूहव्यूहसंहर्ता, कर्ता स्वर्गादिसम्पदाम् ॥६५॥ 2010_04 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चारित्रधर्मभूपालो, विरत्या प्रिययान्वितः यतिगृहस्थधर्माभ्यां, कमाराभ्यां समन्वितः ॥६६॥ सम्यग्दर्शनसंज्ञेन, महामात्येन संयतः । बोधसचिव-सन्तोषसेनान्या परिवारितः ॥६७।। विदित्वा समयं स्वीयं मन्त्रयित्वा निजैः सह । उत्ततार ततो दुर्गाद्, योद्धं मोहमहीभुजा ॥६८॥ रथाः शौर्यादयस्तस्य, प्रश्रयाद्या महागजाः हया बुद्धि पटुत्वाद्याः, दाक्षिण्याद्याः पदातयः ॥६९॥ तं समायान्तमालोक्य, मोहराजोऽपि सत्वरम् । रथैः क्रौर्यादिभिर्युक्तो, ममत्वाद्यैर्महागजैः ॥७०॥ लौल्यादिभिस्तुरंगैश्च, दुष्टत्वादिपदातिभिः । अन्यैरपि कुमाराद्यैर्बुढौके रणकाम्यया ॥७१ ।। छिन्नबाण-धनश्छत्रा भिन्नमण्डितमस्तकाः । घातिता मारिता नष्टाः, बहवस्तत्रसैनिकाः ॥७२॥ अथ तद् रणमालोक्य, दुष्प्रेक्षं घुसदामपि ।। वैराग्यं हयमारूढो, गृहीत्वा शक्तिमुद्धरम् ॥७३॥ सहैव सप्तदशभिः, कुमारैर्विश्वजित्वरैः यतिधर्माग्रणीवीरः, उत्तस्थौ संयमस्ततः ॥७४।। तेन वीरेण धीरेण, सर्वशक्त्या प्रहण्वता । सरोवद् गजराजेन, मोहसैन्यं विलोडितम् ॥७५॥ क्वमोहः स क्व मोहोऽस्ति ? ब्रवंस्तारमिति क्षणात् । मोहराजान्तिकं प्राप, समन्तात् प्रहरव्रयम् ॥७६॥ अथसंसारिजीवस्य, दयिता भवितव्यता । . मोहराजेन्द्र मैक्षिष्ट, सुधामधुरयादृशा ॥७७।। अनुकूलामिमां ज्ञात्वा, स सहस्त्रगुणोऽभवत् । प्रहारैर्जर्जरं कृत्वा, ततः संयममग्रहीत् ॥७८॥ 2010_04 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १५९ चारित्रनृपतेः सैन्यं, तत् पलाय्य समन्ततः । विवेकगिरिदुर्गान्तः, प्रविवेश भयातुरम् ॥७९॥ राजा मन्त्रिणमाहूय, पप्रच्छ वद साम्प्रतम् । अयं वीरः कथङ्कार, मोचनीयो रिपोर्ग्रहात् ? ॥८॥ स प्राह देव ! संसारिजीवोऽस्माकं ध्रुवं प्रभः । विक्रीयते पनः सोऽपि, भवितव्यतयाऽनया ॥८१ ।। मा विषीद ततः स्वामिन् ! कालपर्यायतो यदा । भविष्यत्यनकूला सा, तदाभव्यं भविष्यति ॥८२ ।। इतश्च मोहराजेन, गृहीते संयमे तदा । तस्य संसारिजीवस्य, यज्जातं तद् ब्रवीम्यहम् ॥८३॥ संयम-ध्यान-मौनेष, श्लथोऽत्यन्तमभूदयम् । आवश्यकादिनो चक्रे, लोकतप्तिपरायणः ॥८४।। अहं विद्वानहं मान्यो, नान्यो मत्तः कविः क्वचित् । आदेयवचनश्चाहमिति चिन्तां चकार सः ॥८५।। अहो ! महन्मम ज्ञानं, महद् भाग्यमहो । मम । अहो ! शिष्या महान्तो मे, ममैनश्वर्यमहो ! महत् ॥८६॥ वस्त्र-पात्रादिवस्तूना, मम लब्धिर्महत्यहो ! । यद्वा प्रसिद्धमेतद्धि, सर्वं हि महतां महत् ॥८७॥ अरसं विरसं रूक्ष, न भङ्क्ते रसगौरवात् । मधुर-स्निग्धभोज्यानि, गृध्रुरर्थयतेऽन्वहम् ॥८८॥ सातगौरवतो देहं, परिमार्टि निरन्तरम् । इयेषु दुःखविद्वेषी, मनोज्ञशयनाऽऽसने ॥८९।। न सूत्रपौरुषी चक्रे, न चक्रे चार्थपौरषीम् । चक्रवालसमाचारं, नाऽऽचचार यथाविधिः ॥९०॥ उपविष्टेष शिष्येष, व्याख्यानाय स मूढधीः । सिंहासनात् समुत्थाय, निद्रां चक्रे निराकुलः ॥९१ ।। 2010_04 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सिरिपउमप्पहसामिचरियं प्रत्युप्रेक्षादियोगांश्च न काले कुरुते कुधीः । पृथ्वीकायादिसत्वानामनपेक्षश्च रक्षणे ॥१२॥ जजागार न सन्ध्यास, देशनास न तत्परः । क्रियासु न स तात्पर्यो, वाचनासु न सोद्यमः ॥१३॥ गुप्तिभिर्न स गुप्तात्मा, समित्यां समितो न च । द्विचत्वारिंशता दोषैर्दुष्टं तत्याज नाशनम् ॥९४|| निःसम्बन्धविहारं न, न कषायजयं व्यधात् । दमनं नेन्द्रियाणां च, स प्रमादेन मेदुरः ॥१५॥ अन्याचार्यैरपास्याः किमनर्थाः किं रसादिषु ? इत्युक्त्वा वृषभैर्गाढं, समैधि कोपतः कधी ॥१६॥ इत्थं स्थितो विमूढात्मा, स प्रमादवशंवदः ।। विदाकरोति नैवाहं, यन्निमग्रोऽस्मि सर्वथा ॥९७॥ एवं प्रमाद्यतस्तस्य, क्रियां श्लथयतः क्रमात् । चतुर्दशापि पूर्वाणि, विस्मृतानि समन्ततः ॥९८॥ सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रच्युतो मृत्वा च स क्रमात् । एकेन्द्रियेषु संजज्ञे, प्रियया प्रेरितस्तया ॥१९॥ अपारे घोरसंसारे, ससार स निरन्तरम् ।। नितान्तं सखदःखानि सहमानो भवे भवे ॥१०॥ वृत्तान्ताः पूर्वमाख्याताः वृषभादिभवोद्भवाः । प्रायेण बहुधाऽनेनानभूता भवजन्तुना ॥१०१॥ तस्य संसारिजीवस्य, चरितेन चमत्कृतः । अपराजितभूपालस्ततः प्राह महामुनिम् ॥१०२।। नाथ ! संसारिजीवोऽसौ, साम्प्रतं वर्तते कथम् ? . क्व वा ? केनाप्युपायेन तस्य भव्यमभूत् क्वचित् ? ॥१०३॥ स मुनिः प्राह विज्ञेयः, स एवाहं त्वयाऽनघ ! । यः परस्तव सद्धर्म, देशयनस्मि साम्प्रतम् ॥१०४॥ 2010_04 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १६१ महीपालस्ततः प्राह, विस्मयस्मेरलोचनः । कथं नाथ ! त्वया लब्धं, ज्ञानं कथय केवलम् ? ॥१०५॥ मनिः प्राह महीनाथ !, भवं भ्रान्त्वा क्रमादयम् । भवजन्तुः समुत्पन्नः, पुरे गगनवल्लभे ॥१०६॥ भानो विद्या धरेन्द्रस्य सर्वलक्षणलक्षितः ।। सुनुररिन्दमो नाम्ना, भानुमत्युदरोद्भवः ॥१०७।। सह विद्याभिरभ्यस्य, स दक्षः सकलाः कलाः । महाविदेहसत्क्षेत्रे, कदाचित् कौतुकी ययौ ॥१०८।। स तत्र तीर्थनाथस्य, शुश्राव श्रोत्रहारिणीम् । भद्रङ्करस्य पादान्ते, भवजन्तकथाप्रथाम् ॥१०९॥ आपृच्छ्याऽऽपृच्छ्य विज्ञाय, सर्वे चरितमात्मनः । जातिं स्मृत्वा विरक्तोऽसौ, तस्यान्ते व्रतमग्रहीत् ॥११०॥ प्रेयस्या प्रेयर्माणोऽसौ, भवितव्य तया तया । चरित्रधर्मभूपालं, पुरस्कृत्य ससैन्यकम् ॥१११।। सर्वं मोहमहीनाथसैन्यं हत्वा समन्ततः । संयम मोचयित्वा च, ज्ञानं लेभे स केवलम् ॥११२।। इत्थं प्राप्तं महाराजन् ! ज्ञान केवलसंज्ञकम् । भवोऽसंव्यवहारादिवैराग्याय ममाभवत् ॥११३।। प्रायो मदीयमेवेदं, चरितं सर्वदैहिनाम् । ततोऽन्तरङ्गशत्रूणां, जयाय यततां भवान् ॥११४॥ अथ पप्रच्छ राजेन्द्रः, किं भव्यो भगवत्रहम् ? । कदा वा मम शक्तिः, स्यादन्तरङ्गारिनिग्रहे ॥११५॥ उवाच केवलज्ञानी, भव्य एवाऽसि हे नृप ! । भवादस्मात् तृतीयेऽस्मिन्, भवान् भावी जिनेश्वरः ॥११६।। श्रीमान् पद्मप्रभो नाम, जम्बूद्वीपस्य भारते । इत्याद्युक्त्वा मुनीन्द्रोऽसौ, विजहार वसुंधराम् ॥११७॥ 2010_04 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सिरिपउमप्पहसामिचरिय अपराजितराजेन्द्रो, मुनीन्द्रस्य गिरा तया ।। चमत्कृतः समं लोकैः, प्रविवेश निजां पुरीम् ॥११८॥ बाह्यान्तरङ्गशत्रूणां, जयं कुर्वन् निरन्तरम् । ऋद्धं राज्यमयं चक्रे वर्षलक्षाण्यनेकशः ॥११९।। इत्यरङ्गकथा समाप्ता (गा. ४१५) समयंतरम्मि राया, चरिमे जामम्मि सो तिजामाए । चिंतइ चित्ते धन्ना, ति च्चिय मनेमि सप्परिसा ॥१॥ भवतत्तं मुणिऊणं, झ त्ति विरत्ता कमेण निव्वाणं । साहति हंत ! नाणं, तं चिय जं किज्जए किरिया ॥२॥ जावऽज्ज वि मह देहो विज्जइ चरणस्स साहणसमत्थो । ता परलोयहियत्थे, सम्मं महं उज्जमिस्सामि ॥३॥ तत्तो पभाय-समए, पत्तो जत्तो जइहिं आरामे । पिहियासवाभिहाणो सूरी छत्तीस गुणकलिओ ॥४॥ वणपालमुहवियाणिय मुणिनाहागमणतक्खणपहट्ठो । मुणिनाहपणामत्थं, सो वच्चइ गरुयरिद्धीए ॥५॥ पंचविहाभिगमेणं, चइऊणं पंचरायकउहाई । पंचंगपणामेणं नरनाहो नमइ मुणिनाहं ॥६॥ अपराजियपमुहाणं, नमिय निविट्ठाण महुरवाणीए । सो पिहियासवसूरी, एवं तत्तं परूवेइ ॥७॥ इहलोए परलोए, समीहमाणेहि सक्खसंदोहं । कायव्वा भव्वेहिं विरई संगाण सव्वाणं ॥८॥ उक्तं च - यत् सर्वविषयकाङ्क्षोद्भवं सुखं प्राप्यते सरागेण । तदनन्तकोटिगणितं, मुधैव लभते विगतरागः ॥९॥ सोऊण इमं राया, विसयविरायं मणम्मि कलयंतो । गंतूण नियं तणयं, रज्जे अहिसिंचए सहसा ॥१०॥ अहिणवनिवस्स सिक्खं, वियरइ अट्ठाहिया महामहिमं । 2010_04 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरंगकथा १६३ कारइ पूयइ संघ, चउव्विहं भत्तिसंजुत्तो ॥११॥ उज्जाणं गंतूणं, पिहियासवसूरिपाणिकमलेण । सिद्धंतसिद्धविहिणा, सो राया गिण्हए दिक्खं ॥१२॥ निच्चं स पच्छाभिमुहो, विहगो विव पंजराउ परिमुक्को । बाणु व्व धणुहमुक्को, सो गच्छइ सूरिणा सद्धिं ॥१३॥ गहिऊण दुविहसिक्खं, उवंगसहियाणि निच्चमुज्जुत्तो । एक्कारस अंगाई, अहिज्जए सूरिपासम्मि ॥१४॥ समयंतरम्मि पुच्छइ, भयवं ! साहेसु कित्तिया ठाणा । तित्थयरत्तनिमित्तं ? तत्तो सूरी पयंपेइ ॥१५॥ . तित्थयरत्तनिमित्तं, वीसं ठाणा जिणेहिं पन्नत्ता । तेसिं सरूवमिण्डिं संखेवेण सुणसु वोच्छं ॥१६॥ वच्छल्लं कव्वंतो, अरिहंताणं तिलोयपज्जाणं । पढमं ठाणं जीवो, फासेइ तित्थयरनामस्स ॥१७॥ तह सिद्धाणं कणंतो, बीयं ठाणं त फासए जीवो । तइयं संघस्स तहा, पवयणमवि अवरनामस्स ॥१८॥ धम्मोवएसयाणं, चउत्थठाणं, गुरूण वच्छल्ले । थेराणं वच्छल्ले, ठाणं फासेइ पंचमए ॥१९॥ जम्मेण सट्ठिवरिसा, सएण समवायधारया थेरा । दिक्खाए वीसवरिसा, तिविहा थेरा इमे भणिया ॥२०॥ सत्तत्थोभयबहसयधराण वच्छल्लयम्मि तह छठें । सत्तमट्ठाणं भणियं, वच्छल्लेणं तवस्सीणं ॥२१॥ वण्णप्पयडणपूया भत्ती चाओ अवनवायस्स । आसायणपरिहारो, अरिहंताईण वच्छल्लं ॥२२॥ अणवरयं तह नाणोवओगकारिस्स अट्ठमं ठाणं । अइयारमक्कदंसणधरस्स नवमं विणिद्दिढें ॥२३॥ अइयाररहियविणयं, पउंजमाणस्स दसममिह भणियं । सुद्धावस्सयपालणपरस्स इक्कारसं ठाणं ॥२४।। 2010_04 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अइयारपंकवज्जियसीलव्वयपालणम्मि निच्चं पि । उज्जुत्तस्स मुणीहिं, बारसमं ठाणमक्खायं ॥२५॥ खणलवपमुहे कालो, धम्मं झाणं झियायमाणस्स । संवेगभावियस्स य, तेरसम ठाणमक्खाय ॥२६॥ छठ्ठट्ठमाइबहुतवरयस्स ठाणं तहेव चउदसमं । समणगणसंविभायं, सया कणंतस्स पनरसमं ॥२७॥ दसविहवेयावच्चं, गरु-थेर-गिलाण-सेहपमहाणं । कव्वंतस्स सया वि ह, परूवियं सोलसं ठाणं ॥२८॥ तह गरु पमहाणं चिय, किरिया दारेण सव्वकालं पि । कुव्वंतस्स समाहि, सत्तरसं ठाणमद्दिठं ॥२९॥ अपव्वनाणगहणे, रयस्स अट्ठारसं विणिद्दिढें । बारस अंगम्मि सए, भत्ती जत्तस्स इगणवीसइमं ॥३०॥ कुव्वंतस्स य भणियं, पभावणं पवयणम्मि वीसइमं । इय वीसहिठाणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३१॥ इय सोऊण महप्पा, कित्तियमित्तेहिं वीस मज्झाउ । ठाणेहिं इमो बंधइ, रायरिसी तित्थकरनामं ॥३२॥ घोरतवं तविऊणं, काले पत्तम्मि अणसणं काउं । चउसरणसमल्लीणो, खामंतो चउविहं संघं ॥३३॥ दिठेसु अदिठेसु वि, चउगइजाएसु सव्वजीवेसु ।। परिहरियराग-दोसो, चउक्कसाए विवज्जतो ॥३४॥ विगहा चउक्कमक्को, चउरो य महाव्वयाणि पालितो । मरणाउ अबीहतो, सुमरंतो पंचपरमिठिं ॥३५॥ अपराजियनरनाहो, उवरिम उवरिमगनाम गेवेज्जे । इगतीस सागराऊ, मरिऊण सरो समप्पनो ॥३६॥ जालिहरगच्छनहयलमयंकसिरिदेवसूरिरइयम्मि । सिरिपउमप्पहचरिए, सम्मत्तो पढम पत्थावो ॥३७॥ (सर्वगाथा २१८७) 2010_04 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ भवो १६५ बीओ पत्थावोपउमप्पहजिणिंदस्स बीइय-तइय-भवो तित्थंकर-सिद्धाणं, सूरि-उवज्झाय-सव्वसाहूणं । परमिट्ठीणं नमिमो, मंगल-निलयाण पंचण्हं ॥१॥ भणिओ पढमो जम्मो, जय-पहु-पउमप्पहस्स देवस्स । इण्हिं दुइयं तइयं, कहेमि जम्मं निसामेह ॥२॥ अहमिंदा तत्थ सरा, इंदो न ह को वि तेस कप्पेस । उववन्ना तत्थ सुरा, कस्स वि न कुणंति पेसत्तं ॥३॥ महरिसि-तवमाहप्पा, जम्मंतर-निबिड-नेहओ अहवा । जिण-कल्लाण-महे वा, न ह ते इह इंति कइया वि ॥४॥ ते तत्थ निच्चसहिया, विवज्जिया रोय-सोय-पमहेहिं । मणि-सयण-समल्लीणा, गयं पि कालं न याणंति ॥५॥ भव-जलहि-मज्जणाय-सबेडाणं कूड-कवड-पेडाणं । नव-नव-भय-भीयाणं, मुसाइ-बहु-दोस-कोसाणं ॥६॥ घोरंधयार-नारय-मग्ग-अनिव्वाण-हत्थ-दीवाणं । गहिलाण मणहराणं, न तत्थ नाम पि महिलाणं ॥७॥ कामाउराहि निच्चं, तहविह-कप्पोववन्न-देवीहिं ।। ते खल अणंत-सोक्खा रागाइविवज्जिया पायं ॥८॥ उक्तं च - जं च काम-सुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं । वीयराय-सुहस्सेयं, अणंतभागं न अग्घइ ॥९॥ जं लहइ वीयरागो, सुक्खं तं मुणइसु च्चिय न अनो। नहि गड्डा-सूयरओ, जाणइ सुरलोइयं सुक्खं ॥१०॥ अपराजिय-निव-जीवो, उववव्रो तत्थ नियय-पुत्रेहिं । दुह-लेस-मुक्क-सुक्खं, अणुहवमाणो गमइ कालं ॥११॥ ॥ समत्तो दुइय भवो ॥ 2010_04 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पउमप्पहजिणिंदस्स तइय भवो - जंबद्दीवे दीवे, भारहवासम्मि वच्छदेसस्स । मंडणमखंड-सोहा, कोसंबी नाम वरनयरी ॥१२॥ धणिगण-कणय-विणम्मिय, नव-नव-भवणाण जत्थ निम्माणे। कंचण-गहण-भएणं, मन्ने मेरू ठिओ दूरे ॥१३॥ रयण-विणिम्मिय-मंदिर-निम्माणे जत्थ विविह-रयणाणं । अवहारभया जलही, पायाले खिवइ रयणाणं ॥१४॥ अब्भंलिह-जिणमन्दिर-अप्फलिय-रहस्स जत्थ दिनमणिणो । आमल-सारय-छउमेण, चक्कं पडियं व पडिहाइ ॥१५॥ तत्थप्फालण-समए, तत्थो कत्थ वि गओ त्ति मन्नेमि । एगो तरओ तेणं, सो सत्तासो तया जाओ ॥१६॥ एक्को परीए दोसो, गणगणमइयाइ तीय जं तत्थ । मायंग-संग-वसणी, मेइणि-रमणी सयं राया ॥१७॥ बिइओ वि तीए दोसो, नाणाविह-वत्थ-निवह-भरियाए । निउणं निरिक्खओ वि ह, कत्थ वि अत्थी न दीसेइ ॥१८।। तइओ वि तीए दोसो, कालागुरु-धूव-धूम-रिछोली । सविचित्त-चित्तभित्तिं, अइकसिणं कुणइ जं कसिणं ॥१९॥ अत्थि चउत्थो दोसो, दिणम्मि रविकंत-रयण-जलणेहिं । दुस्संचारा मग्गा, निसाए ससिकंत-सलिलेहिं ॥२०॥ तत्थ य नमंत-सामंत-मउड-माणिक्क-मसिण-पय-वीढो । भूयंदड-मित्त-लीलाउंदरियधरो धरो राया ॥२१॥ निच्चं चिय इक्को वि हु, असंख-जण-माणसेस निवसंतो । जस्स जयरायहंसो, अमंथरो भमइ भवणेसु ॥२२॥ जस्स य पयाव-दावो, अरिनिवह-अकित्ति-धूमसंचलिओ । सव्वत्तो पसरंतो, न य वनमंकूरियं कुणइ ॥२३॥ जलिरे पयाव-जलणे, वेइसरिसेसु कित्ति-खंभेसु । 2010_04 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णणं जेण धरेण वरेणं, धराए विहिओ सुवीवाहो ॥२४॥ धुवमेसो जयकंटय-निवहं निक्कंदइ त्ति परिभीया । बब्बूला इव तरुसं, अहिरूढा कंटया मन्ने ॥२५॥ अणवरय-दाण-निरयं, कलिय इमं मिलिय-परिभव-भएण । एरावण-धणएहिं, दूरे देसंतरं विहियं ॥२६॥ खारे जलहि-जले वा, अहवा हरि-हियय-अंधयारम्मि । किविण-घरे वा लच्छी, दाण-भया जस्स निवसेइ ॥२७॥ सवियास-कमलकेसर-वना निस्सीमगणगणाइण्णा । सीलवइ-जवइ-सीमा, तस्स ससीमा पिया भज्जा ॥२८॥ सीमंतिनि-रयणेणं, इमेण विजय त्ति जीए मुद्धाए। सोण-नह-निवह-छउमा-मणिणो चरणेस संलग्गा ॥२९॥ कामिय-तित्थं वच्चंति जति रनेस तरुणि-रमणीओ। तिस्सा सोहग्गकए,तवंति तित्थेस विविहेस ॥३०॥ जस्सा रवव्रवनं, समीहयं तं सया सुवनं पि । जलणम्मि विसइ घाए, सहइ तलग्गे समारुहइ ॥३१॥ दिठ्ठा सव्व-पयत्था, न समाए याए तियणे रमणी । इय जंपिउं व जिस्सा, नयणा सवणतियं पत्ता ॥३२॥ सोहग्गमय व्व सुहामय व्व लायण्ण-लहरिमइय व्व । सा सुहमय व्व मुद्धा, नज्जइ घण-पुन-घडिय व्वा ॥३३॥ वियसंत-नित्त-कुसुमा, भयसाहा अहर-किसलय-सणाहा । मणवंछिय-सिद्धि-जया, नज्जइ पच्चक्ख-कप्पलया ॥३४॥ चवला लच्छी चंडी, गिरि-तणया-रोहिणी विसनगई । कोसिय-दइया य सई, उवमाणं देमि किं तस्स ॥३५॥ तं कहमवि निम्माविय विही वि हरिसेण वव्रणज्जत्तो । जीहा जुगंतकोडी-सएहिं, सक्कइ न सक्कइ वा ? ॥३६॥ तिहयणवर-सीमंतिणि, सीमंत-समाए तीए सह रण्णो । 2010_04 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अकलियगमणागमणा, केवइया जंति कालकला ॥३७॥ आउक्खयम्मि चविओ, उवरिम-उवरिमग-नाम-गेविज्जा । चविओ तं पि विमाणं, जयसहकरणा य चइऊण ।।३८॥ माहस्स किण्ह-छठ्ठी, दिणम्मि चित्ताए संगए चंदे । अपराजिय-निव-जीवो, तिस्सा उयरम्मि अवयरिओ ॥३९॥ नेरइयाण वि सोक्खं, जायं तइया इमम्मि चवियम्मि । चवणं पि सपरिसाणं, सहावहं भयणलोयाणं ।।४०॥ सुरसरि-पुलिण-विसाले,वित्थारिय-हारिमउय-पट्टउए । रमणिज्जे सयणिज्जे, पंकय-नित्ता सुहं सुत्ता ॥४१॥ जामिणि-विरामसमए, पित्तानिलसिंभ-खोभ-परिमुक्का । पत्ता विनिद्द-मुई, ईसीसिं जागरिति व्व ॥४२ ।। वयणेण उयरदेसे, पविसंते सा कमेण कमलमही । एए चउदस-समिणे, पसयच्छी पिच्छए तइया ॥४३ तथाहि - गलगज्जि-विजियमेहं, अविरल-विगलंत-मयजलासारं । चउदंतजुयं सेयं, गयगमणा नियइ गयरायं ॥४४॥ सारय-मयंक-धवलं, महंत-खधं लसंत-सुविसालं । निय-गइ-निज्जिय-वसहा,वसहं सा नियइ निनयंतं ॥४५॥ जिंभायमाण-वयणं, गंभीर-णिणाय-तासियगइंदं । केसरि-किसोरमज्झा, तरुणं सा नियइ केसरिणं ॥४६॥ नव-पंकयमासीणं, गएहिं कर-कलिय-ललिय-कलसेहिं । कमलं अहिसिप्पंति, पिच्छइ निय-रूव-जिय-कमला ॥४७॥ पसरंत-सुरहि-गंधं, कउक्ख-परिहविय-कुसुम-नव-दामा । वर-कुसुम-दाम-जयलं, पिच्छइ मिलियालि-मण-हरणं ॥४८॥ पिच्छइ अखंड-मंडलमसरिस-कर-पसर-धवलिय-दियंतं । छण-हरिण-लंछण-मुही, हरिणकं निहय-तम-पसरं ॥४९।। 2010_04 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णणं पयडिय-समग्ग-मग्गं, मणि-कंडल-विजिय-कमलिणी-नाहा । उल्लासिय-कमल-वणं, अवलोयइ कमलिणी-नाहं ॥५०॥ विविह-पडाया-लडह, रणत-विलसंत-किंकिणि-समूहं । पिय-जणय-गत्त-मंदिर-झय-सरिसा सा झयं नियइ ॥५१॥ सवियास-कसम-माला-मालिय-मय-सरहि--चंदण-रसेण । टिविडिक्कियं नियच्छइ,कलसं घण-पुण्ण-कलस-समा ॥५२॥ संहरिय-पहिय-दाह,रहंग-सारंग-निवह-वायाल । लायण्णलहरि-सरवर-सरिसा सा नियइ पउमसरं ।।५३।। भंगुर-तरंगमाला-मालिय-निसेसनहयलाभोगं । लवणिम-गण-गंभीरिम-जिय-जलही-जल-निहिं नियइ ॥५४॥ निय-देह-दित्तिलहरी-जिय-रयण-विमाण-दित्ति-पब्भारा । सा नियइ मणि-विमाणं, पडाय-मालाउलं रम्मं ॥५५॥ पसरंत-दित्ति-लहरी-संहारिय-सयल-तिमिर-पब्भार । सोण-नह-निवह-निज्जिर-रयणा रयणच्चयं नियइ ॥५६॥ निय-चंग-अंग-दित्ती निज्जिय-सिहि-निवह-दित्ति-पब्भारा । धूम-समूह-विवज्जियमेसा,सुमिणे सिहिं नियइ ॥५७।। अह कत्थ वि गंतूणं, वियारमेयाण रम्म-सुविणाण । पुच्छेमि त्ति इमाए पढमं निद्दा गया सहसा ॥५८।। झ त्ति विबद्धा मद्धा, पहरिस-पीयूस-पूरिय-सरीरा । गच्छइ पियस्स भवणे,मणिमय-रण-झणिर-मंजिरा ॥५९।। निद्दा-मुद्दिय-नयणं, निवं वियाणित्तु मुद्दियानिवहं । उत्तारिय संवाहइ, पिय-पय-जयलं सहत्थेहि ॥६०॥ अवगय-निद्दा-मुद्दो, राया पलइयत्त पलइय-सरीरं । देविं जंपइ संपइ, किं इह पत्तासि ? करभोरु ! ॥६१॥ सा आह नाह ! दिट्ठा, अज्ज मए वरकरिंद-वसहाई । चउदस-रम्मा सुमिणा, पुच्छेमि वियारमेएसिं ॥६२॥ 2010_04 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सिरिपउमप्पहसामिचरिय परिभाविय नरनाहो, जंपइ रंभोरु ! निच्छियं तुज्झ । संसार-जलहि-दीवो, जगप्पईवो सुओ होही ॥६३॥ एवं ति भणेऊणं, गंतूण नियम्मि वास-भवणम्मि । सुकहाइ विणोएहिं,चिट्ठइ सा तीए रयणीए ॥६४।। चलियसणा सरिंदा, नाउं नाणेण चवण-कल्लाणं । सिरि-पउमप्पह-पहणो, देवी भवणम्मि संपत्ता ॥६५॥ ति-पयाहिणा-पुरस्सरमिंदा, पणमंति देवि-पय-जुयलं । थुव्वंति सुहासारणि-सरिसाए महुरवाणीए ॥६६॥ नर-विसर-सिरोरयणं, जं उयरे धारिओ जिणो तुमए । पुत्तवईसु सुसीमा, तेण जहत्था तुम हवसि ॥६७॥ तियण-पईव-धारिणि, तिहुयण-जण-दुक्ख-हारिणि ! नमो ते । तित्थयर-रयण-धारिणि ! तज्झ नमो पण वि तज्झ नमो ॥६८॥ एमाइ संथवित्ता जिणिंद-जणणिं च नमिय सुरवइणो । नंदिसरम्मि गंतं, कणंति अट्ठाहिया महिमं ।।६९॥ उदयम्मि दिवसनाहे, नरनाहो उवविसत्तु अत्थाणे । आहवइ उवज्झाए, सुविणाण विसारए धणियं ॥७०॥ नरनाहनिरा हविया, निवोवणीयम्मि आसणे ते वि । उवविट्ठा नरवइणो, कुसमफलाईहिं उवयरिया ॥७१॥ पुट्ठा रत्ना दिट्ठा, मज्झ ससीमाए पट्ट-देवीए । चउदस-समिणा तेसिं, मज्झ वियारं फुडं कहह ॥७२॥ जंपति तेवि सत्थे, सुविणा बावत्तरी विणिदिट्ठा । तीसं तेसु विरुद्धा, सुपसत्था तह बयालीसं ॥७३ ।। तत्थ वि चउदस समिणे, जिण-जणणी-चक्कवट्टिजणणीए । हरि-जणणी सत्त तहा, हलि-जणणी पिच्छए चउरे ॥७४॥ अवसेसउत्तमाणं, जणणी इक्कं निएइ वर-सुमिणं । ता देव ! तुज्झ पुत्तो, होही देवाहिदेवो त्ति ॥७५॥ 2010_04 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं १७१ एयं पि तुह कहेमो, नरकुंजर ! कुंजरेण दिट्टेणं । उम्मूलिस्सइ सो तह जाओ भव-काणणं सयलं ॥७६।। वसहेणं धम्मधुराधोरेओ राय! वसह-दिट्टेणं । नर-सीह-मोह-सिंधुर-सीहो, सोहेण दिट्टेण ॥७७॥ नव-नव नवाभिसेए, दुल्ललिय-सरालयम्मि सो होही । जम्माभिसेय-महिमा-महिओ अभिसेय-सुमिणेण ॥७८॥ अमिलाण-कुसुम-दामोवमाण-जस-पसर-दाम-जुयलेण । सो दविहं वरधम्म, पयडिस्सइ भवियलोयाणं ॥७९॥ दिह्रण मयंकेणं, नियकुल-नहयल-मयंकसो होही । कुवलयवियासकारी, सुहावहा भुवणनयणाणं ॥८०॥ अरिकुल-कोसिय-दिणयर-दिणयर-सुविणेण सो धुवं होही । पयडियसमग्ग-मग्गो, मोह-महातिमिर-निद्दलणो ॥८१ ।। अवहरिय-सत्त-सिना, झय-निवह-झएण देव ! दिढेणं । विलसिर-झय-सारिच्छो, सो होही भवण-भवणम्मि ॥८२।। अरि-निवह-कंभ-दासत्त-दाण-दल्ललिय-कंभ-समिणेण । सिव-नयर-पट्ठियाणं, मंगल-कलसोवमो होही ॥८३॥ दुत्थिय-पंथिय-सरवर सो दाही पउम-सरवरे दिढे । भव-पह-पहिय-जणाणं, दुह-हरणो पउमसर-सरिसो ॥८४॥ गुणगण-सायर-सायर-सिविणेण गभीरिमाए सो होही । लायण्णेण य सायर-सरिसो,गुण-रयण-परिकलिओ ॥८५॥ अवयरिओ य विमाणी, कयसत्त-समूह सो विमाणाओ। देवीए सुसीमाए, विमाण-सुमिणाणुसोरण ॥८६॥ हरिय-रिउ-रयण-संचय-रयणच्चय-दंसणेण सो होही । नाणाईण निहाण, पहाण-रयणाण सासइयं ।।८७॥ तह देव ! पयावानल-निज्जिय-सिहि-निवह-कम्मवणसंडं । दहिही खेणण एसो, सिहिम्मि दिट्ठम्मि चउदसमे ॥८८॥ ___ 2010_04 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जम्मवण्णण ता देव ! चिरं नंदसु, लहेसु मणवंछियं ति जंपित्ता । गच्छंति उवज्झाया, रना सम्माणिया सव्वे ॥८९।। राया उण देवीए, कहेइ सव्वं पि तेहिमक्खायं । हिट्ठा धरेइ गभं, सा जह रयणं रयण-गब्भा ॥९०॥ हिय-मिय-उचियं अन्नं, भुंजइ अन्नं चएइ पडिकूलं । दिढे वि अदिढे वि हु, पत्ते जणणी मणो महरं ॥११॥ चउदंत-दंति-तक्खण-करवत्तिय-दंत-मंडल-कवोला । जाया पंडर-देहा, देवी गब्भाणभावेण ॥१२॥ वियसिय-नव-पंके-रुह-सयणिज्जे दोहलो सुसीमाए । देवीए तया जाओ, उत्तम-गब्भस्स माहप्पा ।।९३॥ सयमेव देवयाहिं, पमोय-वियसंत-चित्त-नित्ताहिं । वियसिय-पंकय-सयणं, काउं सो पूरिओ तिस्सा ॥९४।। रक्खा-मंगल-निद्दा-कलंसुत्तारयणपमहमंगिल्ले । किज्जते नव-मासा, वोलीणा साहिया तिस्सा ॥९५।। कत्तिय-बहुले बारसि तिहीए चित्ताए संगए चंदे । परमुच्चेसु केसु वि, उच्चेसु केसु वि गहेसु ॥९६।। सा अद्धरत्त-समए, सूर पुव्व व्व निहयतम-पसर । निस्सीमं नर-रयणं, सुयं सुसीमा पसूय त्ति ॥९७॥ जायम्मि विजयनाहे, तइया तेलक्क-मंगल-पईवे । अचला वि निब्भरेणं हरिसेण धरा समल्लसिया ॥९८॥ तह अहिणव-दिणनाहे, संजाए तम्मि सुरवरसएसुं । सेविया सा कइरविणी संजाया कमलिणी तह य ॥९९॥ नेरइयाण वि सुक्खं, तइया जायं पहुम्मि जायम्मि । सुपुरिस-जम्मो जयदुह-मम्मं निक्कंदए जइ वा ॥१००॥ नीसेस भवणगरुणो, जसेण अहमहमिगाइपसरतो । भवणत्तयम्मि तइया, उज्जोओ झ त्ति वित्थरिओ ॥१०१॥ 2010_04 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णण १७३ अह दिसिकुमारिचलियासणाउ, पसरियमऊहमणि-भूसणाउ। अहलोय-निवासिणिचंग-देह,संपत्त-अट्ठवर-भत्तिगेह ॥१०२।। जंपति य सामिणि ! मा करेसु संभमु मणम्मि, पहरिसु धरेसु । तह सामिणि ! पत्तह जम्मकालि, संपत्त अम्हि गण-गण-विसालि ॥१०३।। जंपेवि एम संवट्टवाउ कव्वंति भत्तिब्भर-जत्त-ताउ । जोयण-पमाण सोहंतखित्तु, कयवर-तिणेहिं कव्वंति चत्त ॥१०४।। अह उड्ढ-लोयवर-दिसिकुमारि-संपत्त-अट्ठ-नेवच्छधारि । कव्वंति सरहिजलवट्ठि तत्थ, मंचंति कसमपरिमल-पसत्थ ॥१०५॥ अह पुव्वरुयगवरदिसिकुमारि संपत्त-अट्ठ-आयंस-धारि । दंसेविणु दप्पणु भत्तिजुत्त जपति देवि ! नंदसु सपुत्त ! ॥१०६॥ अह दाहिण-रुयगह अट्ठ-पत्त, पहरिस-लसंत-वर-नित्त-पत्त । मणिरयणसारभिंगार ताउ गिण्हंति हरिस वियसंति जाउ ॥१०७॥ तह पच्छिमगरुयगह अट्ठ देवि,वरतालविंट करयलि करेवि । अह उत्तररुयगह पत्त अट्ठ, जिणजम्म मणिवि नियमणि पहट्ठ ॥१०८॥ कलयंति ताउ वरचामराणि, दसदिसिफुरंतमणिभासुराणि । ता विदिसि रुयगवरदिसिकुमारि, चत्तारि पत्त अच्छरियकारि ॥१०९।। कलयंति य करयलि मणिपईव, जपति नाह!जय जगपईव! । चत्तारि मज्झ रुयगाउ देवि, संपत्त भत्ति नियमणि धरेवि ॥११०॥ जिणनाहिनाल कप्पंति ताउ, वियरइ खिवंति वियसिअ मणाउ । मंचंति तत्थ मणिमालिगाई, बंधंति पीढ़ हरियालियाई ॥१११॥ जिणजम्मण-मंदिर-दाहिणाइ, पव्वादिसाइ तह उत्तराइ । कयलीहरमणहर तो कुणंति, जिणजणणि गहेविणु तत्थ जंति ॥११२।। मणहरणपढमकयलीहरम्मि, दाहिणदिसाए परिनिम्मियम्मि । सिंहासणि सिहरि ससीमदेवि, अब्भंग पत्तसहियह करेवि ॥११३॥ वच्चंति पव्वकयलीहरम्मि, न्हायम्मि तत्थ सीहासणम्मि । वरभूसण-वत्थिहिं भूसयंति, तो उत्तरकयलिगिहम्मि जंति ॥११४॥ 2010_04 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं गोसीसु तत्थ चंदणु दहंति, पुट्टलियबंध-रक्खं कुणंति ।। जिणकन्नमलि तो कट्टयंति, रयणोवलदसदिसि फरियकंति ।।११५॥ पहुकन्नमूलि जंपति ताउ, भयवं ! भवाहि पव्वय समाउ । जिणजम्म-भवणि जणणि धारि, वच्चंति सयल तो दिसिकमारि ॥११६॥ सट्ठाणि दो वि तत्थ य मयंति, अप्पाण तयण सिवपहि धरति । नियनिय दिसासु ठायंतियाउ, गायति जणणि जिणचरिताउ ॥११७॥ इय पउमप्पहनाहह दीहरवाहह, विहिउ कम्म कुमरिहिं पवरु । इत्थंतरि सक्कह नयसुरचक्कह, आसणु कंपिउ दित्ति धरु ॥११८।। तं पकंपंतु पिच्छित्तु तियसेसरो, अवहिनाणेण जाणेइ तयसुरवरो । अज्ज कोसंबी नयरीए जाओ जीणो, भुवणलोयाणमाणंदनिम्मावणो ॥११९॥ झ त्ति परिहरियवररयणसीहासणो, पयइ सत्तट्ठ सो जाइमणिभूसणो । सक्कत्थएण जिणनाहपयपंकयं, थणइ मन्नेइ सकयत्थमप्पाणयं ॥१२०॥ तेण आइठ्ठ सयमेव हरिणाणणो झ त्ति भत्तीए पहकज्ज संसाहणो । लहिवि आएस सहस त्ति नियसामिणो, घंट ताडेइ जिणजम्मविहिकामिणो ॥१२१।। तीए घंटाए तत्थेव वज्जतिए, घोर-निग्घोसभरभरियगयणंतिए । बत्तीसलक्खघंटाण टंकारया, झ त्ति पसरति कयमच्छवित्थारिया ॥१२२॥ किं किमेयंति चिंतेइ जा सरगणो, ताव जंपेइ सो सत्त निट्ठावणो। चलह सक्केण जिणजम्मवरमज्जणे, हरिय संसारसरिनाहजिणमज्जणे।।१२३॥ ते वि जंपंति हे सामि ! संपत्तया, अम्हि अग्गम्मि तह वयणतूरंतया। जंपेवि एम सरमिलियवरवाहणा, झ त्ति वच्चंति पहकज्जनिव्वाहणा ॥१२४|| पालय नियभिच्चिण अइनिन्भिच्चिण जोयणलक्ख विमाणवरु । कारिय संपत्तउ भत्तितूरंतउ, दाहिणरइकरिवज्जधरु ॥१२५॥ संखेविय तण सो नियविमाण, संचल्लिड सुरपरियण समाण । कोसंबिनयरि जिणजम्मठाणि, सहस च्चिय पत्तउ कलिसपाणि ॥१२६॥ अवसोवणि जिणजणणीइ देइ पडिबिंब ठविवि जिण करि धरेवि । कय पंचरूवु तियसनाहु, एक्केण धरइ तेलुक्कनाहु ॥१२७।। 2010_04 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णणं १७५ अवरेण धरइ मणहरण छत्तु, नज्जइ मयंकुसेवत्थु पत्तु । रूवेहिं दोहि वरचामराणि, सुरसरिपवाहलच्छीहराणि ॥१२८॥ उव्वहइ कुलिसरामचिएण, रूवेण सुराहिवउ पंचमेण । सो सामि विणोयणि उज्जमंतु, वच्चेइ कुलिसु उल्लालयंतु ॥१२९॥ कयभत्तिपयारिणसुरपरिवारिण, कंचणमयसुरगिरिसिहरी । अइपंडुसिलायलि जिणवरु करयलि, करिवि झ त्ति संपत्तु हरि ॥१३०॥ मणिमयसीहासणि दसदिसिभासणि विसइ सक्क परमेसरह । पउमप्पहनाहह अमयपवाहह, निहियदिठ्ठि मुहि जिणवरह ॥१३१ ।। अह अच्चयपमहसराहिवेहिं, जिणजम्म मणिय चलियासणेहिं । संपत्त तेवि वियसंतनित्त, जिणजम्मणविहि कयनिविडचित्त ॥१३२॥ तेसट्ठिइंदा पउमप्पहस्स, कुव्वंति भत्ति हयवम्महस्स । ढालंति के वि वरचामराणि, खीरोयलहरीसमणोहराणि ।।१३३॥ गायंति के वि जिणगुणविसाल, पउमप्पह-पय-पंकयमराल । नच्चंति जेम घणसमयमोर, जिणनाहवयणहिमकरचकोर ॥१३४॥ के वि ह पढंति मागहसमाण, वरचरियजिणिंदह अप्पमाण । कुव्वंति के वि गलगज्जिरावु, वायंति वीण मणि धरिवि भावु ॥१३५॥ तेसट्ठिहिं इंदहिं निय सुरविंदहि, भत्ति एम पयडिय पवर । अच्चयसुरनाहिण भत्तिसणाहिण, भणिय तयण किंकरनियर ॥१३६॥ लहिवि आएस सामिस्स, ते किंकरा कलस-मणहरण कव्वंति ते उद्धरा। सहसमठ्ठत्तरं कलस-कंचणमया, मणिमया तित्तिया तहय रुप्पयमया ॥१३७॥ रुप्प-रयणामया रुप्प-सोवण्णिया, रयण-सोवण्णिया तेहिं णिम्माविया । तहय वररयण-वरकणय-रुप्पमया, तित्तिया चेव पण तह य मट्टियमया ॥१३८॥ सहस्स अट्ठेव अहियाइ चउसट्ठिए, ते विउव्वंति निय चित्तसंतुट्ठिए । भिंगार-आयंस-पप्फचंगेरिया, एत्तिया थालपमहाय निम्माविया ||१३९॥ कुंभसंखाइरयणाइ परिनिम्मिविया, निययसामिस्स सव्वे वि संढोइया । झत्ति गच्छंति खीरोवरसायरे, कलसपूरिति सलिलेहिं अलसेयरे ॥१४०॥ 2010_04 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चुल्लहिमवंत-हिमवंतसेलुब्भवा, वक्खारगिरिपमुहसिहरि सिहरुब्भवा । खित्तकलसेस कप्पूरवरचंदणा, वरअगरुपमहअन्ने वि मणनंदणा ॥१४१ ।। उच्छाहु धरेविणु ते वि गहेविणु, अवरह तित्थह सलिलभरु । कलस भरेविण करयलि लेविण, झत्ति पत्त सरगिरि सिहरु ॥१४२॥ अह पारिजायमंजरित्रणाह, नियगंधसवासियगंधवाह । मंदारजाइ-केयइविसाल, परिमलमिलंतरोलंबमाल ॥१४३॥ मचकंद-कंदमयरंदसार, कंकेल्लि फल्लविय इल्लफार । घणसार अगरुगुरुगंधसार, वरधूविणं, धूविय अइसुतार ।।१४४।। पउमप्पह जयपहुजम्मकालि, तूरारवभरियनहतरालि । अच्चुयसुरराइण पंचवण्णवरकुसुमवुट्ठि निम्मिय रवन ॥१४५॥ नच्चंत तियसकामिणिगणेस, गिज्जंतमंजमंगलसएस । ते कलसपलोट्टिय नाह देहि, अप्पाणु ठविउ निव्वाणगेहि ॥१४६॥ बासट्ठिहिं इंदिहिं कय आणदिहिं पउम्मप्पह जिणवरु ण्हविउ । बहुपयडियपाडिहिं नियपरिवारिहिं पावपंकु दूरेण ठिउ ॥१४७॥ ईसाणसुराहिउ पंचरूवु, अह कुणइ तत्थ अइसयसरूव । तस्सेव अंकि मिल्हेवि नाह सोहम्म-सामि-पुरपरिह-बाहु ॥१४८।। वरवसह कुणइ चउदिसि रवन्न, फालिहमणिमय अइधवलवण्ण । केलासु सेलु चउहा विहत्तु जिणजम्मकालि नं तत्थ पत्तु ॥१४९।। उत्तुंगह सिंगह वारिधार, उच्छलिय मिलिय गयणयलितार । तो इक्क कालि जिणअंगिताउ, निवडति विहिय कोऊहलाउ ॥१५०॥ सो नाहु वारिधाराहिं भाइ, निज्झरण मणोहरु निसढ नाइ । उवसंहरित्तु रूवाणि ताणि, जिणतणु लुहेइ तो कुलिसपाणि ॥१५१ ।। वरअंगराउ पउमप्पहस्स, सो कणइ रत्त-पउमप्पहस्स । परिहावइ वत्थिर्हि तस्स अंगु, आभरणगणिण भूसेइ चंगु ॥१५२।। निम्मवइ तयण नव-पारिजाय-कसमेहिं पूयह हय-अंतराय । आलिहइ अट्ठमंगलवरेहिं, जिणपुरउ कणयमयतंदुलेहिं ॥१५३।। 2010_04 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णण १७७ मणिरयणनियर-निम्मिउ विसालु, उज्जोइय सयलदियंतरालु । आरत्तिउ अरइ विवज्जियस्स, उत्तारइ तिहुयण-नायगस्स ॥१५४।। अह तियस-निवह-समयम्मि तम्मि, वायंति तूरह रसिय-मणम्मि । पड-पडह-भेरी-झल्लरि विराउ पसरइ नहम्मि संहरिय पाउ ॥१५५॥ कंसाल-ताल-काहल-निनाउ, सम्मइ गहीरु जण-जाणिय राउ । मद्दल-मउंद-वर-संख-सद्द पसरति हरिय-भव-दुह-विमद्द ॥१५६॥ नच्चंति हिट्ठ-सुरतरुणि-सत्थ, गायंति जिणह गुणगणपसत्थ । सयमेव जिणिंदह तियसनाह सचरिय पढंति कयउद्धवाह ॥१५७॥ तं उत्तारिवि हुहु संहारिवि सक्कत्थउ परमेसरह ।। अग्गइ निविसेविणु सक्कु पढेविण कुणइ थवणु परमेसरह ॥१५८॥ सिरिपउमप्पहपहु तहु पाया पणयाण हुतु सपसाया । परिहरिया विव लग्गा जेसि तले कमलसंघाया ॥१५९।। तं पउमप्पहसामिय वियसिय नवरत्तकमलसमवनो । बाहिं पि हु लक्खिज्जसि, सिद्धि-परंधीए रत्तो व्व ॥१६०॥ तुह सामि हेम-कंदल-समाण-वर-देह-दंति-छउमेण । अलहंत व्व पवेसं, बाहिं राओ परिब्भमइ ॥१६१॥ सो जायसि जेण कंकमसमदेहपहाए जम्म-मह-दियहे । दसदिसिबहूण विहिया, कंकमसीमंतया रम्मा ॥१६२॥ जयलच्छीनिवासेहि, तह कम-कमलेहिं माणसं मज्झ । सवियासेहिं सया वि हु, मंडिज्जउ नाह ! किं बहुणा ?।।१६३॥ तुह चरियं पि निसामिय, सामिय मह जायरोम-अंकूरा । सित्ता नयण-जलेणं, फलंति सग्गापवग्गे वि ॥१६४।। नून भव्वो अहयं तह मह हियएत्थि बोहि-वर-बीयं । अन्नह कह तइ दिठे फडियं रोमंकरा जाया ॥१६५॥ मह सामि!सालचित्तं दिणे दिणे कुणउ तुज्झ गुण-सरणं । परमेसर! तह पाया, भवे भवे हंति मे सरणं ॥१६६॥ 2010_04 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं एवं थोऊण जिणं सक्को निम्मविय पंचवररूवो । काऊण जिणं अंके कोसंबी सम्मुहो चलिओ ॥१६७॥ वच्चंति झ त्ति इंदा अन्ने नंदीसरम्मि दीवम्मि । रूएहिं मुक्कदेसा हरंति न मणो मनुन्ना वि ॥१६८।। जिणजम्मभवणमज्झे सक्को गंतूण हरिय पडिबिंबं । पउमप्पहजिणनाहं मुंचइ जणणीइ पासम्मि ॥१६९।। दिव्वं दुकूल-जुयलं, कुंडल-जुयलं च भुवणमणहरणं । उस्सीसयम्मि पहुणो, मुंचइ अविमुक्कभत्तिभरो ॥१७०॥ दिट्ठिविणोयणकज्जे, विचित्तरयणेहिं हारि-हारेहिं । संजुत्तं कणयमयं, चंदोदयमज्झयारम्मि ॥१७१॥ सिरिदामगंडमेगं, ठविउं अवसोयणिं च देवीए । संहरइ तियसनाहो, कइरविणीए ससंको व्व ॥१७२॥ आणवइ धणयमेसो, हिरण्ण-वर-रयण-कणय-कोडीणं । बत्तीसं पत्तेयं अविलंबं एत्थ वरिसेस ॥१७३।। नंदासण-बत्तीसं तहेव भद्दासणाण बत्तीसं । आभरण-वत्थपमुहं, अन्नं सव्वं पि मणहरणं ॥१७४।। संसारियसोक्खाणं कारणमसमाणमल्लपरिकलियं । सिरिपउमप्पहपहुणो इमम्मि भवणम्मि मुंचेसु ॥१७५।। सक्कस्स समाएसा वेसमणो जंभगेहिं देवेहिं ।। सव्वं तिहत्ति कारइ जइ पहु-भत्तीइ के मंदो ॥१७॥ सक्को किंकरनियरं जंपइ घोसेह सुरनिकाएसु । चउसु वि सव्व समक्खं एयं उद्दाम-सद्देण ॥१७७॥ जिणजणणीए जिणस्स व जो पडिकूलं वि चिंतिही तस्स । सीसं अज्जयमंजरि दिळंता फुट्टिही सयहा ॥१७८॥ किंकरनियरा सव्वं तह त्ति गंतूण झ त्ति घोसति । को खल लंघइ पहुणो, पयंड-दंडस्स इह वयणं ॥१७९॥ 2010_04 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णणं १७९ संकामियतो सक्को, पहणो अंगठ्ठयम्मि वरममयं । नंदीसरम्मि गंतुं, करेमि अट्ठाहिया महिमं ॥१८०॥ चउसट्ठी सरनाहा, सरगण-परिवारिया स-रिद्धीए । काऊणं अट्ठाहिय-महिमं वच्चंति नियट्ठाणे ॥१८१ ।। जामिणि-विरामसमए, निई परिहरिय दासि-संदोहो । तं दिव्वगंधवासियदियंतमवलोइउं भवणं ।।१८२।। धरनरनाहसमीवे, गंतुं अहमहमिगाए अन्नोन्नं । जंपति जयसु सामिय ! परमब्भुदएण वड्ढेसु ॥१८३॥ देवी देव ! पसूया, इमाइ रयणीए भवणकयहरिसं । तणयं नियदित्तीए, उज्जोइय दसदिसाचक्कं ॥१८४।। सोऊण इमं राया, बंधर-रोमंचदंतरसरीरो । नवमेहजलसमाहय-कयंब-कुसुमोवमो जाओ ।।१८५॥ मउडं वज्जिय सव्वं, नियंगसिंगारमन्नमवि दाउं । वद्धावइ लोयाणं, अंकं निक्कंदए राया ॥१८६॥ बद्धावयणे रन्ना, दिनो हरिसेण तित्तिओ विहवो । जो हवइ वयंताण वि, तेसिं जा सत्तसंताणा ॥१८७॥ कोसंबीए परीए वद्धावणयं करेइ नरनाहो । । नीसेस-लोयलोषण-कयहरिसं अमय-वुट्ठिं व ॥१८८॥ अविय - विविह पविसंतनच्चंतवर पाउलं, हारि-तुटुंत बहुहार-मुत्ताउलं, घुसिण-घण-पिंड-परिभरिय सीमंतयं,दिनजण-निवह-बहु-पुगवर-पत्तयं ॥१८९॥ पइ-भवण-दार-बझंत-तोरणं उदय-अत्थवण-वर-समय-विम्हारणं, आहविज्जंत दूरस्थ नियसज्जणं झ त्ति मुच्चंत अइदुहियकाराजणं ॥१९०॥ विहव-संतुट्ठ-वर-वंदि-विंदारयं, हारिहीरंत-सिरि-धरिय-वर-चीरयं, दाणकज्जेण विहडंतभंडारयं, तत्थ अवयरणसुर-चित्त-वद्धारयं ॥१९१॥ वद्धावणयं राया करेइ तह तीए नियय-नयरीए । 2010_04 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सिरिपउमप्पहसामिचरियं अमरावइनयरि-पहु, तिनाय नवि मनए जह सा ॥१९२।। जयनाहे संजाए, जाओ हरिसो निवस्स सो को वि । तं जइ जाणइ सो च्चिय, अहवा पउमप्पहो नाहो ॥१९३॥ अह बारसम्मि दियहे, पणरवि मेलित्त सयण-जणनिवहं । वत्थाभरण-विलेपण-सक्कारं तेसिं काऊण ॥१९४॥ धरनरनाहो जंपइ, इमम्मि कुमरम्मि उयरमवयरिए । मज्झ सुसीमादेवी, दोहलमेयारिसं धरइ ।।१९५॥ वियसिय-पंकय-सयणे, अहं सुविस्सामि संपयं रम्मे । इय मह पत्तो एसो, हवेउ पउमप्पहो नाम ॥१९६॥ अह वड्ढइ जयनाहो, नियरवपरिहवियसजल-जलवाहो । हरिसंचारियमणहर-अंगठ्ठ-गएण अमएण ॥१९७॥ अंकण-कीलण-मंडण-सिणाणपमुहाहिं पंच धाईहिं । लालियंतो वड्ढइ समइहिं समण-धम्मो व्व ।।१९८॥ मलयाचलम्मि चंदणतरु व्व नंदणवणम्मि पारूढो । हरियंदणु व्व वठ्ठइ कमेण सो तत्थ जयनाहो ॥१९९।। सारिणि-सलिल-सरिच्छो, बहुजणउच्छंग-आलवालेस । संचरमाणो सामी, उल्लासइ हरिसतरुनियरं ॥२०॥ सो जत्थ जत्थ सामी, परिसक्कइ धरनराहिव-गिहम्मि । वियसंति तत्थ तत्थ य, संचारिमरत्त-पउमाणि ॥२०१॥ तिहि नाणेहिं समग्गो, असुर-सर-खयर-किन्नर-नरेहिं । कीलाहि विचित्ताहिं, सो कीलइ बालकालम्मि ॥२०२॥ के वि हुं असुरकुमारा, धरंति-वहु-पायघायपरितिसिया । पयपुरओ विलुठंता, कंदुग-रूवं सयं चेव ॥२०३॥ जय-गुरु-कर-पंकेरुह-तिसिया तियसा हवंति ते के वि । कंदुग-ताडण-जट्ठी-रूवा, पहु कीलणावसरे ॥२०४॥ जयपहुणा आरोहण-लुद्धा, के वि हु हवंति वरतुरया । 2010_04 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवण्णणं १८१ जह तह सया वि उत्तमसंसग्गो चेव कायव्वो ॥२०५।। पत्तो कमेण सामी, रवन-लावन-लहरि-सरि-सरिसं । उद्दामकाम-सिंधर-विरुवणं चारु-तारुण्णं ॥२०६॥ कासवगत्तो भयवं चित्ता रिक्खो य कन्नरासी य । अड्ढाइज्जसयाई, धणुणि देहेण तह उच्चो ।।२०७।। काणणसिरि व्व महुणो, आणणलच्छी व नव्व-कव्वेण । तारुण्णेण रवण्णा, सविसेसं नाहदेहसिरी ॥२०८।। तथाहिकंचणकवाड-संपड-पिहलं, वच्छत्थलं तओ जायं । नज्जइ रज्जसिरिए, रमणिज्जं विउलसयणिज्जं ।।२०९॥ उदंड-बाहुदंडा, पहुस्स रेहति दीहरा दो वि । जिणलच्छि-रायलच्छी, करिणी आलाणखंभ व्व ॥२१०॥ चरणेस रत्तकोमल-कमल-सरिच्छेस जस्स नह-निवहा । रेहति तरणि-किरणा, थवक्किया अंगलिदलेस ॥२११॥ रेहइ से सिरिवच्छो, वच्छयले जम्म-समयसंसिद्धो । सुह-निवह-निहि-सरिच्छे, मुद्दामुदं पयासंतो ॥२१२॥ कुरुविंदहेमकंदलकुंकुमवनो सहेइ जयनाहो । नव नव लच्छिसमागमसमए निच्चंगराउ व्व ॥२१३।। दठुमसंभविरूवं, तं अभिरूवं समग्गभवणेसु । सुरकामिणि-निवहो वि हु, हवंति कामाउरा सहसा ॥२१४॥ जीहाण सहस्सेहि,जगंतकोडीहिं तस्स पच्चंगं । लच्छिं निव्वळेउं सक्कइ सक्को न सक्कइ वा ॥२१५॥ भोगसुहेसु समत्थं धरनरनाहो मुणित्तु जयनाहं । कारइ पाणिग्गहणं जियसर-तरुणीहिं तरुणीहि ॥२१६॥ सामी वि भोगकम्म, सम्मं नाऊणमप्पणो तइया । मोणं करेइ गरुया, सव्वं कुव्वंति समयम्मि ॥२१७।। 2010_04 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं संपज्जंतसमीहियसमग्गभोगंगवत्थुवित्थारो । दुलहं सुरासुराण वि भोग-सुहं भुंजए नाहो ।।२१८॥ नव-नव-सह-संदोहं, अणुहवमाणस्स तस्स वोलीणा । पहणो कुमारवासे, पव्वाणद्धढमालक्खा ॥२१९॥ पउमप्पहस्स पहुणो, समवयवेसापहाण कुलजाया । मित्ता अभिन्नचित्ता, दससय संखा तया जाया ।।२२०।। सह तेहिं भुवणनाहो, रम्मारामेसु सिहरि-सिहेरसु । सरसि-रुह-कलिय-सरवरएस विलसेइ सच्छंदं ॥२२१ ।। गहगणरिक्खगणेहिं जामिणी नाह व्व जूहनाहो व्व । करि-कलह-सहस्सेहिं, परियरिओ तेहिं सो भाइ ॥२२२॥ जयगुरुपसायसुहिया, मित्ता मनंति निययचित्तम्मि । एसो पहू पमाणं, जयनाहो सव्व कज्जेस ॥२२३॥ रूवविणिज्जियमारं, पिच्छिय नियसत्ति निज्जियकुमारं । पउमप्पहं कुमार, रज्जधराधरणधोरेयं ॥२२४॥ धरनरनाहो चिंतइ, रज्जं एयस्स निययतणयस्स । दाउं किं नियमत्थं, नज्ज वि साहेमि मोहंधो ॥२२५।। जो गिद्धो सिद्धि-सहं, मूढो परिहरिय-सेवए विसए । सो अमयं चइऊणं तिसिओ हालाहलं पियइ ॥२२६॥ आमिसगिद्धो गिद्धो परमन्नं चइय गसइ सव-मंसं । जह तह लुद्धो चइडं, पसमसुहं सेवए विसए ॥२२७।। भणियं च - जह कागणीए हेडं कोडिं रयणाण हारए कोइ । तह तुच्छ विसयगिद्धा, जीवा हारति सिद्धिसुहं ॥२८/ इच्चाइ चिंतइत्ता रज्ज पउमप्पहस्स दाऊणं ।। अप्पहियं काऊणं, पत्तो ईसाणकप्पम्मि ॥२२९।। सिरि पउमप्पहपहुणो, जणणी जिण-धम्म-कम्म-उज्जुत्तो । ___ 2010_04 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवण्णणं १८३ निस्सीमसह-निवासं, सा वि ससीमा सिवं पत्ता ॥२३०॥ पउमप्पह-नरनाहो, करेइ रज्जं अवज्जपरिचत्तं । . जत्तेण रक्खइ जिणं, अक्खर-मुदं लिवि-करो व्व ॥२३१॥ मालाकारो मालं, अहिणव-निप्पन्न-गंध-छेवाडिं । जत्तेण केइ रक्खइ, जह तह नाहो नियपयाओ ॥२३२।। भनइ जडं जलं चिय, चीरं वसणं असी य नित्तिंसो । चक्कं अरित्ति दुहिया, दुहिय च्चिय जस्स रज्जम्मि ॥२३३॥ आगंतु आगंतु, सयमेव मिलंति तस्स रायाणो । नीयत्तं पयर्डता, सरिप्पवाह व्व सरिवइणो ।।२३४॥ निच्चं अखंड-मंडलमसन्नगमणं पयावपरिकलियं । तं पिच्छिय कलुसत्तं, कलंक-छउमा वहइ चंदो ॥२३५॥ निरवज्ज-रज्जभारं उव्वहमाणं निइत्त तं मन्ने ।। लज्जा सज्ज व्व गया, दसोदिसिं सयलदिसिनाहा ॥२३६।। वडवामहवासीणं, सया भयं चेव असरनिवहाणं । तियसाण वि इक्क दसा, नत्थि च्चिय सग्गवासीणं ॥२३७।। वरुणपरीए पसिद्धो, जड-संसग्गो तिमिगिलगिलतं । निरवजं पुण रज्जं, धराए पउमप्पहे नाहे ॥२३८॥ मनति य तं लोया, ववसायमयं व धम्ममइयं वा । उदयमय ममय मइय, सोक्खमय नायमइयं वा ॥२३९।। इय दोसलेसमुक्कं, रज्जं नाहस्स पालयंतस्स । एक्का कालकला विव, बहु वि कालो वइक्कतो ॥२४०।। तथाहि - इगवीसपव्वलक्खा , अहिया अद्धेण तहय अन्नेहिं । सोलस पुव्वंगेहिं, इत्तिय कालं कुणइ रज्जं ॥२४१ ॥ इत्थंतरम्मि चिंतइ, पिच्छह जीवाण विसयनिब्बंधं । जंते विससारिच्छे वियाणमाणा वि सेवंति ॥२४२॥ अवि य - 2010_04 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ विसकरवाल-दवाणल-‍ 5- पमुहा इह चेव दुक्खदायारो । विसया सेविज्जंता दुहावहा जम्मकोडीसु ॥२४३॥ अइदित्ता य अदित्ता, दो वि ह जं दाहकारिणो धणियं । संसारंगाराणं, तेण विसेसं न मन्त्रेमि ॥ २४४ ॥ निरयपुढवीसु सत्तसु पंचसु तिरियाण तह य जाई । विसयपसत्ता सत्ता अणंतखुत्ता समुप्पण्णा ॥२४५॥ चउदसरज्जुपमाणे इमम्मि लोगम्मि विसयलवगिद्धा । चुलसीइ जोणिलक्खे, जायंति मरंति पुणरुत्तं ॥ २४६ ॥ विसयमणाणमणंता, पोग्गल - परियट्टया वइक्कंता । तत्तो अनंतगुणिया, जीवाण वइक्कमिस्संति ॥२४७॥ अहवा रज्जिज्ज व कामेसुं परिणाम - निकाम - दारुणेसुं पि । जइ होज्ज इमं जीयं सा सइयं कह वि जीवाणं ॥ २४८ ॥ जीयम्मि गिम्हमज्झं, दिणमणि-मणि-तवियसउणि - गलचवले | नव-तरुणि- नित्त - पज्जंत- चंचले चारुतारुणे ॥ २४९ ॥ तुंगगिरि-सिहर-विलसिर - विहार - धय - सोयरम्मि विवमि । गयकन्ना तालचंचल - विलास-महिमम्मि पिम्मंमि ॥ २५० ॥ विसविसमं विसयाणं घोर विवागं वियाणमाणा वि । रज्जंति तेसु पुरिसा विवेयवंता महच्छरियं ॥ २५१ ॥ विसया विवाय-बहुला सव्वं काराय दुग्गइ - गईणं । एत्तियकालं भुत्ता, जुत्ता चत्तं ध्रुवं इहिं ॥ २५२ ॥ अह लोगंतियतियसा, आसणकंपेण झत्ति मुणिऊणं । पउमप्पह-जिणदिक्खासमयं सारस्सयाईया ॥२५३॥ आगंतूणं सहसा, नमिऊणं विनवंति जयनाहं । संसारजलहि-तित्थं, तित्थं भयवं ! पवत्तेसु ॥ २५४॥ सयमेव ति-जयनाहो उज्जुत्तो चेव तेहिं विनत्तो । 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मदेसणा उदयं खलु दिणमणिणो कहंति विहगा न कुव्वंति ॥२५५॥ लोयंतियतियसेसुं सट्ठाणगएसु भुवणलोयाणं । दाणं वियरिकामं णित्त परमप्पहं नाहं ॥ २५६ ॥ सक्केण समाइट्ठो वेसमणो जंभगेहि तियसेहिं । पूरावइ पहुनयरिं धणकण - मणि - कणय - नियरेहिं ॥ २५७॥ नट्ठा वि य भट्ठा वि य मएहि किविणेहि जे परिचत्ता । ते निहिणो उवणीया दाणारंभम्मि जयगुरुणो ॥ २५८॥ जिंभिय उवणीएहिं नियकोसगएहिं तह य जयनाहो । कारइ धणेहि गोपुर-गोमुहठाणेसु उक्कुरुडे ॥२५९॥ आइसइ निए पुरिसे जो जं मग्गेइ तस्स तं तत्थं । वियरह पमाणमिह खलु मग्गण - माणसं चेय ॥ २६०॥ घोसिज्जइ वरवरिया, चउक्क - चच्चर - तिगाइठाणे । मणिरयणकंचणाई मग्गह जं मग्गियं देमो ॥२६१ ॥ नियपाणिपंकएणं निययनिओगीहिं तह य भुवणपहु 1 हरि-करी-दण-कंचण - भूसण - रयणाइयं देइ ॥२६२॥ एगम्म दिने एगा हिरण्णकोडी य अट्ठलक्खा य । उदयाउ ताव दाणं, दिज्जइ मज्झं दिणं जाव ॥ २६३ ॥ संवच्छरम्मि दिण्णा, कोडिसया तिन्निवरहिरण्णस्स । अट्ठासीई कोडी, असीइ लक्खाहिया चेव || २६४|| कणस्स इमा संखा सेसमसंखं ति बिंति वरमुणिणो । अहवा जहन्नमाणं कणयस्स वि एयमुद्दिट्ठे ॥२६५॥ जयति पढमधम्मो त्ति पवरमेयं ति सव्व चाए वि। माहि कारणेहिं सामी दाणं पयट्टेइ || २६६॥ जंगम-कप्पतरु विव भुवणस्स वि वंछियाणि वियरंतो । दारिदं ति जणाणं, नामं पि हु नासए नाही || २६७॥ इत्थंतरम्मि आसणकंपेण वियाणिऊण सुरनाहा । 2010_04 १८५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चरणपडिवत्तिसमयं, चउसट्ठी तत्थ संपत्ता ।।२६८।। सव्वेहि वि इंदेहि, जम्मसिणाणं च मज्जणं विहियं । जिणकल्लाणमहा, खल हंति असेसा वि अविसेसा ॥२६९॥ वरवत्थुलहियदेहो, अमुल्लदोगुल्लवत्थपरिहाणो । परिमलबहल-विलेवण-विलित्तगत्तो भुवणनाहो ॥२७०।। वरहार-मउड-कंडल-पमहाभरणेहिं भूसियसरीरो । नवपारिजायमंजरि-सनाह-चिहुरो कओ हरिणा ॥२७१ ।। अह पउमप्पह-पहुणो नवरं निसेस भुवणलोयाणं । सक्केण निव्वुइकरा सिविया निव्वुइकरा विहिया ॥२७२॥ वरपउमराय-मरगय-मणिकिरणझलज्झलाहितं सिंबियं । निम्मलनित्ता वि जणा सम्मं न वि भासिउं सक्का ।।२७३ ।। सिवियाए मज्झयारे, सीहासणमसमरयणनिम्मवियं । ठवियं सपायवीढं, सरवइणा परिससीहस्स ॥२७४।। सक्केण दिनबाहू, परूढपुलएण सो समारूढो । संसारजलहितारणवहणं पिव तं वरं सिबियं ॥२७५॥ सीहासणे निसनं, वीयंति विचित्तरयणदंडेहिं । सक्केसाण-सुरिंदा, पहुजसधवलेहिं चमरेहिं ॥२७६।। कोसंबी जाव पुरी, सुराण असुराण जाव आवासा । कह कहवि संचरिज्जइ, तियसेहिं इंतजंतेहिं ॥२७७॥ पुव्वं नरविसरेहिं, सा उक्खित्ता परूढपुलएहिं । पच्छा असुरसुरिंदा वहति तं बहुविहाभरणा ॥२७८॥ अहमहमिगाइनिम्मियज्झलज्झलायंतमणिमयाभरणा । वरकिंकर व्व हरिणो वहति सिबियं सरोमंच ॥२७९।। सीमंतिणी समहा सराण असराण किन्नरनराणं । गायति धवलमंगलसएहिं पउमप्पहं नाहं ।।२८०।। तियसेहिं विविहमणिमयविमाणमालाहिं नहयलच्छंगे । 2010_04 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्खागहण १८७ हम्मियमालाहिं कया अवरा कोसंबिनयरि व्व ॥२८१ ।। सुर-असुर-खयरनिवहा, संखा रहिया नहेण भूमीए । नरविसरा संचलिया, चलिए पउमप्पहे नाहे ॥२८२॥ पडुपयड-पाड-पडहा, असंखसंखा य मंजुलमउंदा । उत्ताल-कंसताला, भंकाररवाय भेरिओ ॥२८३।। अवरे वि बक्क-ढक्कापमहा भूमीइ नरसमूहेहिं । अहमहमिगाए गयणे सुरेहिं संताडिया तत्तो ॥२८४।। मणहारि अंगहारेस, चारुचारीस विहियरिंभा । रंभा सामिस्स पुरो, ललियं नटं पयट्टेइ ॥२८५॥ अवरे वि तुंबराई, वीणापमुहाणि तत्थ वायति । गायति सामिगणगणमसमं हा हा इया तइया ॥२८६॥ बंदीहिं पढिज्जतो, पिच्छिज्जतो य नयरनारीहिं । अविहव-कल-तरुणीहिं, गिज्जतो मंगल-सएहिं ॥२८७॥ परियरिओ सो कमसो सहस्सवररायपत्तमित्तेहिं । जयनाहो संपत्तो सहसंबवणम्मि उज्जाणे ॥२८८॥ तं च केरिसं - मिउसुरहि-पवण-चंचल-साहा-विग़लंत-फुल्ल-फुल्लेहिं । जयनाह-चरणपुरओ मुंचइ कुसुमंजलिं सहसा ॥२८९।। नच्चइ व चवलसाहा-भयाहिं हसइ व्व हसिय-कसमेहिं । सोउं जिणिंद-चरियं सिहरेहिं सिरे धणेइ व्व ॥२९०॥ अंतेउरं व सिवियं चइत्तु उज्जाण मज्झ देसम्मि। गंतं आभरणाणं संभारं चयइ भारं व ॥२९१ ।। कुंतलकलावमसमं उप्पाडइ पयडसाहसो नाहो । चेलंचलेण सक्को पडिच्छए चिहुरपब्भारं ॥२९२॥ सक्केण रुयगमरगयमऊहकालिंदिलहरिसारिच्छा । विनविय जिणं नीया केसा खीरोय जलहिम्मि ।।२९३॥ 2010_04 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चरणपडिवत्तिसमयं सक्को नाऊण हत्थ-सनाए । तं तुराण विरावं बहलं तमलं च वारेइ ॥२९४॥ कत्तियमासे तेरसि तिहीए किण्हाए चित्तनक्खत्ते । छट्टेणं अवरण्हे पउमंको पच्छिमवयम्मि ॥२९५।। सिद्धाणं नमक्कारं काऊणं भणइ भवणपच्चक्खं । सव्वं पि अकरणिज्ज सावज्जं मज्झ आजम्मं ॥२९६।। मणहारिलक्खमुल्लं दिव्वं दूसं जिणस्स खंधम्मि । सक्को चरण-धंराए सव्वं(च्चं)कारं व निक्खिवइ ॥२९७॥ मणपज्जववरनाणं विसुद्धलेसस्स माणसे पहुणो । पयर्ड जायं तइया सरयमिव कमलं निउरंबं ॥२९८।। ते वि हु सहस्स मित्ता पहुणो मित्ता विरत्तवरचित्ता । जयगरुमणगच्छंता हत्थं दिक्खं पवज्जति ॥२९९॥ सक्कोवणीयउवगरणधारया असुरसुरनरिंदेहिं । भणिया धण्णा तज्झे जे पहमगं समल्लीणा ॥३०॥ जिणनाहं वंदित्ता कोसंबिपरीए जंति जायाई । नंदीसरम्मि इंदा वयंति अट्ठाहियाकज्जे ॥३०१ ।। पउमप्पह-जिणनाहो, पलंबबाहो इमम्मि उज्जाणे । चिट्ठइ काउंसग्गे, अचलो उवसग्गवग्गेवि ॥३०२॥ काउसग्गदिएहिं अहिणवसमणेहिं तेहिं संजत्तो । हिमवंत-पमह-कलगिरि-परियरिओ सहइ मेरु व्व ॥३०३।। आणाविचय-अवाए विचाय- संठाण-विचयभेएहिं । धम्मज्झाणे चउरो, झायइ सो तीए रयणीए ॥३०४।। अह उदयधरणिधरसिरकसंभसेहरसमाणमहिमम्मि । अहिमकरे विलसंते, विहरइ सह तेहिं जयनाहो ॥३०५॥ गत्तीहिं तीहिं गत्तो, समिओ समिईहिं पंचहिं सामी । सह तेहिं बंभथलयं अहिणवसमणेहिं संपत्तो ।।३०६॥ 2010_04 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्खागहणं मझं दिणम्मि सामी, पारणकज्जेण तस्स मज्झम्मि । पविसंतो संपत्तो, गिहदारे सोमदेवस्स ॥३०७॥ मणहर-विसालथाले इमस्स परिवेसियं तया आसि । घय-सक्कारारवन्नं परमन्त्रमणवसामन्नं ।।३०८।। तमकप्पियकप्पतरूं अचिंतचिंतामणिं भवननाहं । भवजलहि-जाणवत्तं, दुवारपत्तं इमो नियई ॥३०९॥ आविहरग्गनहग्गं तक्खणपारूढ-पलय-पब्भारो । सहस त्ति इमो थालं, उप्पाडिय सम्मूहो पत्तो ॥३१०॥ दव्वं खित्तं कालं भावं परिभाविऊण जिणनाहो । अह धरइ पाणिपत्तं भवजलनिहिजाणवत्तं च ॥३११॥ हरिसवियसंत-नित्तो, परमन्नं खिवइ सामिहत्थम्मि । सो परमपयसहाणं, सच्चंकार व पच्चक्खं ॥३१२।। छउमत्थेहिं अदिळं, अन्नं पाणं च तत्थ भुवणगुरू । अब्भवहरित्त विहरइ, अनत्थ विमुक्कसंबंधो ॥३१३॥ अह नहयलम्मि सहसा, सुरेहिं घुटुं अहो अहो दाणं । कयसिवसक्ख-निहाण, जाणं संसारजलहिम्मि ॥३१४॥ दायारसेहरेसं रेहा एयस्स भवणवलयम्मि । पउमप्पह-जिणनाहो, पारणयं कारिओ जेणं ॥३१५॥ दाणेण रंजियमणा, तियसा गेहम्मि सोमदेवस्स । अद्धतेरसकोडी, वसहारं झ त्ति वरिसंति ॥३१६।। तह दंहिपमहाणं, सरेण संताडियाण संरावो । वित्थरिओ गयणयले, दायारजस व्व पच्चक्खो ॥३१७॥ चेलक्खेवं काउं, तियसा गंतूण तस्स पासम्मि । उवबूहति तमं चिय, धनो इह तियणे सयले ॥३१८।। इह खलु दुहं पत्तं, तत्थ वि पत्तेसु दुल्लहो अरिहा । अइदुल्लहु च्चिय,तत्थ वि तित्थयरो पढमभिक्खत्थी ॥३१९।। 2010_04 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० नीसेस दुक्खकारणवारणमसमाणपारणं तुमए । पहुणा कारितेणं, वसीकया मुक्खलच्छी वि ॥३२०॥ इय जंपिय तियसेसुं, गएसु विहवेणतेण सव्वेण । पहुपयपवित्तठाणे, पीढं निम्मावए एसो ॥ ३२१ ॥ तेहि वि नवसमणेहिं केहिं वि गंतूण कस्स वि गिम्मि । तत्थेव बंभथलए, पारणयं निम्मियं विहिणा ॥ ३२२ ॥ नियदंसणेण दिंतो, जणाणमाणंद - अमयवुट्ठिं व । जयनाहो मगहाइस आयरियदेसेसु विहरिंसु ॥ ३२३ ॥ गुरुगिरिसिहरसएसुं ससलिलकूलं कसाणकुलेसुं । दुसह सहेइ सीयं, काउसग्गे ठिओ नाहो || ३२४ ॥ नवनलिणिपत्तकोमलमंगं चंगं पि सिद्धिसुहकामी । सामी अणविक्खतो बावीस - परीसहे सहइ || ३२५ || रयणी जाणुणा जं दिणसमए भाणुणा य संज्झासु । दो वि किसाणा तह नीयं सीयं दरिद्देहिं ॥ ३२६॥ उक्तं च रात्रौ जानुदिवा भानुः कृशानुः संध्ययोर्द्वयोः । लोके नीतमितिशीतं जानुभानुकृशानुभिः ॥३२७॥ तं सीयं दुहवियं, कम्मसमूहं सया वि जगनाहो । कंपाविंतो वि सहइ, लब्भइ कट्ठेहिं खलु इट्ठे ॥३२८॥ जम्मि वसंते पत्ते, तरु वि सहस त्ति हुंति सवियारा । तत्थ विवियाररहिओ, तिव्वतवं तवइ जयनाहो ॥ ३२९ ॥ परपुट्ठलट्ठकलयलतक्खणसंहरियमाणिणीमाणे । सिंगाररहस्स मए, महुसमए पगरिसं पत्ते ||३३० ॥ जह पहिया नियदइया, मिलणत्थं इंति नियगिहं तह सो । केवलसिरिमिलणत्थं, विहरित नियत्तिउं भयवं ॥३३१ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्खागहणं १९१ सहसंबवणुज्जाणे, दिक्खा ठाणे पुणो वि संपत्तो । निग्गोहसाहिमूले, पडिवन्नो धम्मवरझाणं ॥३३२॥ निट्ठविय कम्ममम्मं, वियरियसासयअनंतसिवसम्मं । छउमत्थतवोकम्मं, छम्मासा तत्थ संजायं ॥३३३॥ केवलनाणसमागमसमयं, नाऊण भवणनाहस्स । कसमसरोसरविसरं, निययं वरिसेइ महसमए ॥३३४॥ फुल्लम्मि मल्लिनिवहे, तरुनियरे पल्लवेहिं दंतरिए । तरु-तरुण-मंजरि-पिंजरिए गयण-वित्थारे ॥३३५॥ मदकलकलकंठीणं, बहले कोलाहलम्मि विलसंते । अइवद्धमाणिणीहिं, माणे सहस त्ति मुच्चंते ॥३३६।। जयनाहो मयरद्धयसरविसरं वारिऊण कवएण । धम्मज्झाणमएणं, सक्कज्झाणं समारूढो ॥३३७॥ चित्तस्स पुण्णिमाए, छट्टेण तवेण चित्तनक्खत्ते । संकंतम्मि ससंके, घाइचउक्कम्मि खीणम्मि ॥३३८॥ पढमाणि सुक्कझाणाणि, दुन्नि झाऊण भुवननाहस्स । तइयं अप्पत्तस्स य, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३३९॥ जाओ जयम्मि सयले, उज्जोओ नारयाण तह सोक्खं । पउमप्पहस्स पहुणो, उप्पन्ने केवले नाणे ॥३४०॥ चलियासणा सरिंदा, चउसट्ठी झत्ती तत्थ संपत्ता । वियरति समवसरणं, सरणं दहियाण लोयाणं ॥३४१ ॥ तथाहि - जोयणपमाण-खित्तं, वाउकमारेहि सोहियं सम्मं । मेहकमारेहिं कया, तत्थ य गंधंबु-वर-वट्ठी ।।३ ४२।। माणिक्क-कणयवरमणिगणेहिं बंधंति विंतराखित्तं । तावइयं सेउं पि व, अगाहभवजलहि-तरणत्थं ॥३४३।। 2010_04 | Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं ते चेव पंचवनं, कुसुमसमूहं मिलंत-भमरउलं । तत्थ अहोमुहविंट, खिवंति नियसुकयबीयं च ।।३४४।। मणि-माणिक्कगणेहिं, दिसीमह-नव-पत्तवल्लरि-सरिच्छा। चउसु दिसासु किंकिणि-रणंत-वरतोरणा विहिया ॥३४५।। तेहिं चिय तियसेहिं, तेसुं वरतोरणं-सुनिम्मविया । धयछत्तसालहजियमगरमहा भवणमणहरणा ॥३४६।। हिट्ठा य तोरणाणं, विहियावरअट्ठमंगला तेहिं । निहयट्ठकम्मरिउणो, अट्ठदिसाहिं व पट्टविया ॥३४७॥ अह उवरिम-पायारं, मणिमय-कविसीस-मालिया रम्मं । वेमाणिय-सुरनाहा, रयणमयं तत्थ कुव्वंति ॥३४८॥ कव्वंति रयणनिम्मिय-कविसीसयमालियाहि-मणहरणं । जोयसिय-तियसनाहा, कणयमयं मज्झिमं वप्पं ॥३४९।। पायारं पुण तइयं, कंचणकविसीसएहिं रमणिज्ज । कुव्वंति भवणवइणो, रुप्पमयं अप्पडिच्छंदं ॥३५०॥ पडिपायारं चउरो, गोउरदाराणि तेहिं विहियाणि । वर-अगरु-धूव-घडिया-मणितोरण-निवह-सहियाणि ॥३५१॥ तिन्नि वि ते पायारा, पयंडदोसत्तयाउ जयगुरुणो । भवणत्तयरक्खत्थं, अभग्गदग्गाणि रेहति ॥३५२।। वीसामकए देवच्छंदं, तह बीयवप्पमज्झम्मि ।। पइदारं वावीओ, कंचणकमलाउ कुव्वंति ॥३५३।। पायारतियस्संतो, चेइयरुक्खो जणाण कयसक्खो । वंतरसरहिं विहिओ, सहस्स तिय-धणह-उच्चत्तो ॥३५४।। चेइय-रुक्खस्स अहो, मणिमयपीढं कुणंति ते चेव । तस्सोवरिं च छंदयमप्पडिछंदं विउव्वंति ॥३५५।। तम्मज्झे रयणमय, पुव्वाभिमुहं सपायवीढं च ।। सीहासणमइरम्मं, कुणंति ते दुरियनिम्महणं ॥३५६॥ 2010_04 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण १९३ तिजयपत्तपयासणपयडं सायरससंककरधवलं । सीहासणस्स उवरिं, कर्णति तित्थत्तत्तयं रम्मं ॥३५७।। जक्खेहिं दोहिं तत्थ य, दोस वि पासेस रम्मचमराणि । धरियाणि चरणलच्छी, कडक्खलहरी सरिच्छाणि ॥३५८॥ समवसरणस्स दारे, कंचणमयकमलसंठियं पहणो । कव्वंति धम्मचक्कं, उज्जोइय दस-दिसा-चक्कं ॥३५९॥ अन्नं पि तत्थ किच्चं, सव्वं कव्वंति वंतरा तियसा । एस विही नायव्वो, साहरणसमवसरणम्मि ॥३६०॥ सक्केणं विव्रत्तो, तत्तो सुरकोडिनिवहपरियरिओ। पउमप्पहो जिणिंदो, चलिओ सीहासणाभिमुहो ॥३६१ ।। विहियाणी नवसुरेहि, सहस्स पत्ताणि कणयकमलाणि । जिणचलणा दोस तहिं, चरति मग्गम्मि पुण सत्ता ॥३६२॥ सरचारिय-नवपंकय-चरणो तत्थ पव्वदारेण । पविसिय चेइयतरुणो, पयाहिणं कुणइ जिननाहो ॥३६३॥ तित्थपणामं काउं, पुव्वाभिमुहो वरासणे विसइ । कुव्वंति तिसु दिसासुं, पडिबिंबं विंतरा पहुणो ॥३६४।। सव्व सुरा वि समत्था, नहि जिण-अंगठ्ठबिंब-करणे वि । कुव्वंति वंतरा जंतं, पहु-महिमाए मह-महियं ।।३६५।। पहणो सिरस्स पच्छा, पयडं भामंडलं तया जायं । गयणम्मि दंदही तह सुरेहिं संताडिओ तत्तो ॥३६६॥ एस च्चिय तिजयपहू, नन्न त्ति पयासिउं व सक्केणं । उब्भीकओ व्व हत्थो, रेहइ इंदज्झओ पहुणो ॥३६७॥ पवसिय पुव्वदारे, सिरिसुमइजिणस्स तित्थिया मुणिणो । काउं पयाहिणतियं, विसंति अग्गे य कोणम्मि ॥३६८।। वेमाणियदेवीओ, उद्धा चिट्ठति तेसि पच्छाय । ठायति ताण पच्छा, जइणीओ सुमइतित्थभवा ॥३६९॥ 2010_04 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सिरिपउमप्पहसामिचरिय तह दक्खिणदारेणं, पविसिय जम्मावरम्मि कोणम्मि । चिट्ठति भवण-जोइस-वंतरदेवीओ विहिपव्वं ॥३७०॥ अह पच्छिमदारेणं, विहिणा तेणेव पविसिउं कमसो । निवसंति भवण-जोइस-वंतरतियसा य वायव्वे ॥३७१ ॥ अह उत्तरदारेणं, पविसिय देवा नरा य नारीओ । तणेव पव्वविहिणा, ईसाणदिसाए ठायति ॥३७२।। तत्थ महिड्ढियमितं, नमंति वच्चंति ठियमवि नमंता । पव्वकयविरोहाण वि तेसिं न वेरं न वा पीडा ॥३७३।। सासइयं पि हु वेर, चइत्त तिरिया य बीयवप्पस्स । मज्झे तइयस्संतो, चिट्ठति य वाहणा सव्वे ॥३७४॥ तिण्हं पायाराणं, बाहिं दीसंति कारणवसेण । निगच्छंतविसंता, के वि ह तिरिया नरा अमरा ॥३७५॥ पउमप्पहजिणनाहं, सक्को नमिऊण हरिसपडिहत्थो । संथुणइ अमयसारणि-सरिसाए महुरवाणीए ॥३७६।। तथाहि - जय पउमप्पह सामिय ! नामिय मोहाइसत्तुसमवाय ! जयसिद्धिसुसीमंतणि सीमंतनमंत कप्पदुम ॥३७७।। तुह पहु ! असोयरुक्खो, लोयमसोयं करेइ कयसुक्खो । पावियसामि तुमयं, चल-दल-छउमेण नच्चंतो ॥३७८॥ जयउ अहोमुहविंटा, जाणुपमाणा सुरेहिं परिमुक्का । तुह नाह ! कुसुमवुट्ठी, दिट्ठीणं अमयवुठ्ठि व्व ॥३७९॥ समकालविविहजणमणअसंखसंदेहहारिणी वाणी। अमयसिरिलहरिसरिसा, विजयउ संहरिय विसयतिसा ॥३८०।। अक्खेवमक्कसिवबहकडक्खविखेवलहरिसारिच्छं । तुह जयउ अमरचालियचामरजुयलं महाधवलं ॥३८१ ॥ तह परीससीह ! सीहासणमसमं जयउ कम्मनिम्महणं । 2010_04 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसणा १९५ वररयणदित्तिलहरी संहारियतिमिरपब्भारं ॥३८२॥ चंडंतरारिखंडणपयंडभामंडलं जयइ तुज्झ । जय नाह ! विजियसारय-सहस्सकर-मंडलं रम्मं ॥३८३।। सुरकरताडिज्जतो, निज्जियजलवाहतारसंरावो । तुह जसबंधुर-सिंधुर-पडहो वि व दुंदुही जयउ ॥३८४॥ सारयमयंक-धवलं तिजइक्कपहस्स तुज्झ जिणनाह ! छत्तत्तयं पहत्तं, पयासयं तं सया जयउ ॥३८५।। दुट्ठट्ठकम्मसमुदयनिट्ठावणसाहयाणि जयपहुणो । निच्चं हरंत दरियं, अट्ठमहापाडिहेराणी ॥३८६।। एवं थोऊण जिणं, सक्को ठाणम्मि विसइ निययम्मि । विसयविसहरण जय पवयणामयपाणपरितिसिओ ॥३८७॥ अह बारसपरिसासं, जोयणनीहारिणीए वाणीए । सिरि पउमप्पहनाहो, कयसिवसम्मं कहइ धम्मं ॥३८८॥ इह नरभवाइदुलहं, लहिऊणं सव्व-धम्मसामग्गिं । कुणइ पमायं जो असि-घायं सो देइ अप्पस्स ॥३८९।। तरवारि-वेरि-केसरि-दावानल-गरल-वाल-वेयाला । न तहा कणंति कविया, सेविज्जतो जह पमाओ ॥३९०॥ जो खल पमायसेवी, चउदसपव्वी वि वीयरागो वि । सो भमडइ संसारे, असार-अइ-विरस-ववहारे ॥३९१ ।। भणियं च - चउदसपव्वी आहारगा वि मणनाण-वीयरागा वि । हुति पमायपरवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥३९२॥ इहलोए परलोए, तिक्खं दुक्खं हवेइ जीवाणं । जं तस्स मूलकारणमेसपमाओ समक्खाओ ॥३९३।। लोए वि जो पमाई, न किंचि तुच्छं पि कुणइ सो कज्जं । सज्जो उज्जमसज्जो, समीहियं साहए सव्वं ॥३९४॥ . 2010_04 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं हारइ पमायवसओ, जो पत्तं धम्मसव्वसामग्गिं । निद्दामद्दियनयणो,सो हारइ नव निहाणाणि ॥३९५।। कयविविहदुहविवाओ, सो वि पमाओ हवेइ पंचविहो । मज्जं विसय-कसाया, निद्दा विगहाइ पंचमी भणिया ॥३९६॥ धम्म-हिम-तरणि-तावं विवेय-वण-दहण-जलियनव-दावं । परिहरह हारदूरं, पमायपूरं च पच्चक्खं ॥३९७।। विसया विससारिच्छा, विसया महलित्तखग्गधार व्व । विसया जलियदवानलतल्ला सत्तूवमा विसया ॥३९८॥ वज्जेयव्वा चउगइसंसारनिवासपडिभुवो कूरा । कोहाइचउकसाया, नव नव बहु तिक्खदुक्खाया ॥३९९॥ मण-भवणमज्झयारे खवित्त नाणाइ-रयण-संदोहं । मोह-निवेणं विहिया मुद्दा निद्दा हणेयव्वा ॥४००॥ चउदिसि पसरियदद्धर-मोहमहासेनवेजयंतीओ । सव्वं पि जयंतीओ, चउरो परिहरसु विकहाओ ॥४०१ ॥ इक्किक्को वि पमाओ, सपसाओ सव्वया वि दहदाणे । पंच वि जस्स इमे खल, निरंकसा तस्स किं भणिमो ॥४०२॥ परीहरिय तो पमायं, सम्मं धम्मं करेह उज्जत्ता । इच्छंता सिवसम्म, कम्मविघायं समीहंता ॥४०३।। सोऊण धम्मो पढम,समणाणं धम्मवासियमणाणं । वाउज्जामो चउगइ, भवजल-निहितरण-निज्जामो ॥४० ४।। पढवि-जल-पमहनवविहजीववह-विवज्जणं जिणिंदेहिं । पढमवयं पव्रत्तं, तिविहं तिविहेण आजम्मं ॥४०५॥ सव्वालियच्चाओ, बीयं तइयं अदत्तपरिहारो । इत्थी-धण-कण-कंचण-गिहाइचाओ चउत्थवयं ॥४०६॥ एक्कमणो एक्कं पि य दिवसं जो कुणइ समणवरधम्म । सो लहइ मुक्ख-सोक्खं विमाणवासीण सुक्खं च ॥४०७॥ 2010_04 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा १९७ जीविय पज्जंते वि हु जो जइधम्मं करेइ थिर चित्तो । हरिवाहणकुमरो वि व सो कुणइ भवस्स पज्जत ॥४०८॥ निम्मलचरित्तोवरि, हरिवाहणरायकुमारकहा - विविहभयंगनिवासा, अणंतभोगोपभोगरमणिज्जा । भोगावईए सरिसा, नयरि भोगावई अत्थि ॥४०९।। बंधर-जिणिंदमंदिर-सिर-विलसिर-दंड-मंडिउद्देसा । नियसोहाइ समज्झिय, जयहत्था रेहए एसा ॥४१०॥ मणिवास-भवणजालययनिग्गयघणअगरु-धूमपडलानि । पिच्छियघणब्भमेणं, जत्थ य नच्चंति सिहि-निवहा ॥४११॥ तं परिपालइ राया, दुद्दम-रिउ-उदप्प-सप्प-परिकंदो । नामेण इंददत्तो,सुरिंदसमसत्तिसंपन्नो ॥४१२॥ तस्स य मणिप्पभाए,देवीए सयलगणगणनिवासो । नय-मग्गदत्तचित्तो, कमरो हरिवाहणो नाम ||४१३॥ इत्तो य इत्थ नयरे मंदिरतिलयस्स सुत्तहारस्स । सयलकलापत्तटट्ठो पुत्तो नरवाहणो नाम ॥४१४॥ वससारसिद्रुितणओ, धणंजओ तह य अस्थि गणकलिओ । ते तिन्नि वि आजम्मं, वहति मित्तत्तणं कुमरा ॥४१५॥ विहवोवज्जणरहिया, तिन्नि वि परिहरियसयलघरकज्जा । विलसति जहिच्छाए, निय निय जणयप्पसाएण ॥४१६॥ अह अनया य रना, कमरो अइनिट्ठरं इमं भणिओ। दंडाउह छत्तिसं, किं धनवेयं च सिढिलेसि ? ॥४१७॥ जइ तुज्झ मए कज्जं, मा मिलिहिसि तो नियाणमित्तेणं । । जइ मिलिसि मज्झ देसं, तो मत्तं पिय ससलिलंपि ।।४१८।। एवमवरे वि दुन्ने वि, निय निय जणएहिं निठुरं भणिया । उज्जाणे गंतूणं, मंतंति परुप्परं एवं ॥४१९॥ जइ जणयाणं आणा, पमाणमिह तो परुप्परं विरहो । 2010_04 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सिरिपउमप्पहसामिचरिय इहरा विदेसगमणं, विसमं संकडमिणं पत्तं ॥४२०।। वरमिहजणयच्चाओ, वरमिह मरणं वरं च धणहाणी । वरमिह विदेसगमणं, मा विरहो निययमित्तेहिं ॥४२१ ।। इय निच्छिऊण तिन्नि वि, अवगन्निय जणणि-जणय-पडिबंधा । चलिया कमसो पत्ता, एगमरनं महाभीमं ।।४२२।। वच्चंति जाव तत्थ य, कंतारे तरलता हरिणउले । पिच्छंति ताव एगं, मत्तगइंदं समहमितं ॥४२३॥ सरलियसंडादंडो, पसरइ सो जाव सम्महं तेसिं । ता वणिय-वद्धइसया, भीया सहसा दुवे नट्ठा ।।४२४।। हरिवाहणकुमरो पुण, हक्कंतो धीरतारसंरावो । चलिओ गइंदसिक्खा-दक्खो सहसा तओभिमहं ।।४२५।। वणकंजरेण सद्धिं, तस्स य नरकुंजरस्स संजाया । कीला महत्तमित्तं, अच्छेरयकारया धणियं ।।४२६।। तं वत्थनिम्मियं पिव, लिप्पमयं पि व विहित वणहत्थिं । नियमित्ताणं कुमरो, गवसणत्थं पुणो चलिओ ॥४२७॥ गिरिसिहरे तरुमूले, सरीयातीरे निकुंजमज्झम्मि । सो पिच्छइ नियमित्ते, नट्ठनिहाणं व सव्वत्तो ॥४२८॥ तारं करेइ सदं, तरलं पिच्छेई मम्मरारावं । अवहियहियओ निसणइ, मनइ रनं पि मित्तमयं ॥४२९॥ पिच्छइ परिब्भमंतो, महल्ल-कल्लोलमिलियगयणयलं । कलहंस-बहल-कलयल-कयहरिसं सरवरं पुरओ ॥४३०॥ सो परिसमसमणत्थं, मित्तदुहत्तो वि पियइ सरसलिलं । पालिसिरत्थमहीरुह-फलेहिं तह कुणइ आहारं ॥४३१ ।। उवविसिय पालिमूले,सो चिंतइ पिच्छ केरिसं जायं । जाण कए सव्वं पि हु चत्तं, मित्ता वि ते वि गया ॥४३२॥ 2010_04 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा १९९ पइदियह संभवाणं, जोग-विजोगाण विरसववहारे । संसारे को संखं, मुणेइ अहवा परुवेइ ॥४३३॥ तत्तो हवेउ वसणं, पियजणविरहो व जीवियच्चाओ। भवओ जं वा तं वा, धीरेहिं धीरिमा कज्जा ॥४३४।। इय अप्पं संठविओ, तस्सेव सरस्स उत्तरंदिसाए । अभिरामे आरामे, सो गच्छइ कोउहल्लेण ॥४३५॥ तम्मज्झे पविसंतो, पिच्छइ पुक्खरिणि-मंडियद्वारं । पासायं मणिमइयं,खेमंकरजक्खरायस्स ॥४३६॥ इत्थंतरम्मि मित्तो, कमरं नियमित्तविरहिउं नाउं । जोगं काउमसत्तो,मन्ने खित्तंतरं पत्तो ॥४३७॥ जाए जामिणि-समए,सो परिस्संतो अवायरक्खट्ठा । कुमरो पिहियद्वारो, सत्तो जक्खस्स भवणम्मि ॥४३८॥ तत्तो रणंतनेउररणज्झणारावमिलियकलहंसा । अच्छरसा अच्छेरयनेवच्छा तत्थ संपत्ता ॥४३९।। भवणस्स मंडवतले, विचित्तकरणंगहाररमणिज्जं । वीणाइसरसणाहं, तो ताहिं पयट्टियं नढें ॥४४०॥ तत्तो परिसंताओ, तत्थेव विरिल्लिऊण वत्थाणि । अनाई परिहरित्ता, ताओ वच्चंति पुक्खरिणिं ॥४४१ ।। सच्छंदं सच्छजले, अच्छरसाओ कुणंति जा ण्हाणं । ता कुमरो उग्घाडियदारो, गिण्हेइ वत्थाणि ॥४४२॥ मज्झे पक्खिविऊणं, निब्भयहियओ पुणो वि दाराणि । बंधइ साहसियाणं, नेव असज्झं जए किंचि ।।४४३॥ सच्छंद-जलकेलिं, काउं पत्ताओ मंडवे ताओ। वत्थे अनियंतीओ, भमंति सव्वत्थ भवणम्मि ||४४४॥ पिहियवारं भवणं, दळूणं वाहरंति सव्वाओ । रे माणुस्स य दारं, उग्घाडस महसि जइ जीयं ॥४४५॥ 2010_04 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सिरिपउमप्पहसामिचरियं अम्हाणं वत्थनिवहं, जइ अप्पसि नेय तो वयं कुविया । भवणं पि जलहिमज्झे, उप्पाडित्ता खिविस्सामो ॥४४६।। पडिउत्तरमकरितो, एक्का जंपेइ मा इमं कणस । एसो न दंडसज्झो, उत्तमपुरिसो जओ के वि ॥४४७॥ तो सव्वाओ मिलिया,भणंति हे वच्छ ! जेण केणावि । गहियाइं निवसणाई, कहेसु तं अहव अप्पेसु ॥४४८।। गरुयमुवयारमम्हे, करिहामो तुज्झ मा विलंबेसु । अब्भत्थणमियरस्स वि करणिज्जं किं पण सुजणाण ? ॥४४९।। तो ताण सामवयणं, निसामिउं सो वि जायदक्खिनो । जंपइ किं तुब्भेहिं, भलावियाई सवत्थाई ॥४५०॥ सेयाविलाणि जस्स य पवणस्स समप्पियाणि वत्थाणि । तब्भेहिं तस्स पासे, तो ताणि गवेसणिज्जाणि ॥४५१॥ अहवा महाबलो सो, उप्पाडिय ताणि तुम्ह भवणम्मि । अग्गे पत्तो होही, ता वच्चह निययभवणम्मि ॥४५२॥ तो तस्स साहसेणं, उत्तिविसेसेण रंजियमणाओ । जंपति ताओ सुपुरिसतुट्ठाओ वरसु किं पि वरं ।।४५३।। सो उग्घाडियदारो, जंपइ परमेसरीउ वत्थाणि । गिण्हह नियाइं तह, मह अवराहं खमह सव्वं पि ॥४५४।। गिण्हित्ता नियवत्थे, अच्छरसाओ भणंति रे वच्छ ! तं होसि रायपुत्तो, इमेण चरिएण निब्भंतं ॥४५५|| तो कुमर!खग्ग-रयणं, गिण्हस तह दिव्वकंचयं एयं । इमिणा करवालेणं, होसि अजेओ जए सयले ॥४५६॥ तह दिव्व-कंचयमिणं, अप्पस निययाए पट्टदेवीए । अम्ह वयणेण रज्जं, लहेसि तह थेवदिवसेहिं ॥४५७॥ इय भणिय ताणि दन्नि, वि अप्पेऊणं वयंति सट्ठाणे । तो कुमरपयावो विव, वित्थरिओ तरणिकरपसरो ॥४५८॥ 2010_04 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २०१ तो खग्गमित्तमित्तो, समत्तचित्तो वि गरुयवट्ठभं । नियए मणम्मि काउं, पहाणसउणेहिं संचलिओ ॥४५९॥ वच्चंतो य कमेणं मणिमयपायारवलइयं रम्मं । पिच्छेइ नयरमेगं, वंतरनयरं व पच्चक्खं ॥४६०॥ पविसंतो तम्मज्झे, निएइ पासायहट्टपंतीओ। विविहबहुवत्थुवित्थरजुत्ताओ किंतु सुनाओ ॥४६१ ।। उल्लसियकोउहल्लो, कमेण जा जाइ रायभवणस्स । सो सत्तमभूमीए, ता पिच्छइ कत्रयं एगं ॥४६२॥ लायण्णलहरिसरयं, अभग्गसोहग्ग-अक्खयनिहिं व। तं तारुण्णरवनं, नियत्तु सो विम्हिओ जाओ ॥४६३ ।। सो चिंतइ धुवमेसा, गणगणपण्णा रवण्णरमणीणं । निम्माणकए विहिणा, रक्खिज्जइ मूलछेवाडी ॥४६४॥ तीए वि कत्रयाए, कवोलतलमिलियपाणिकमलाए । दिट्ठो रूवविणिज्जिय, मारकुमारो इमो कुमरो ॥४६५।। अब्भुट्ठिय सा सहसा,ससज्झसा तं नियम्मि नरसीहं । सीहासणे निवेसइ, न हि गरुया विनयपरिहाणि ॥४६६॥ आपच्छइ सच्छंद,कमरो रंभोरु किं करगच्छि ! । नियपायघायघाइयअसोय सो एससो आसि ॥४६७॥ सा साहइ कुमर ! अहं, सावत्थिपुराहिवस्स विजयस्स । दुहिया अणंगलेहा, कमसो पत्ता य तारुण्णं ॥४६८॥ नियभवणजालयंतरसुहोवविट्ठा जयंतखयरेण । दिट्ठा निरुवमरूवावहरियहियएण अवहरिया ॥४६९॥ हरिऊण एत्थ पत्तो, विज्जासत्तिए झत्ति सो खयरो । मह मणविणोयकज्जे, निम्मावइरम्मपुरमेयं ॥४७०॥ पभणइ य तमं संदरि !, परिणित्ताहं इहेव नयरम्मि । भोगंगनिवहसज्जं, रज्जं करिहामि निब्भंतं ॥४७१ ॥ ___ 2010_04 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इय भणिय गओ खयरो, विवाहसामग्गिमिलणनिमित्तं । अज्जं वा कल्लं वा, एहि परिणयणकज्जम्मि ॥४७२॥ मह पुण मुणिणा कहियं, भत्ता हरिवाहणो तुहं होही । मुणिवयणविसंवाया, तओ ससोया अहं जाया ।।४७३॥ हसिरो जंपइ कुमरो, पसीय पसयच्छि ! तम्मि खयरम्मि । तह वामे ! हरिवाहणकमरो, नामस्स वि न जोग्गो ॥४७४।। नियरूवविजियरंभे !, तम्मि कुरूवम्मि चयसु संरंभं । जाणिज्जस हरिवाहणकमरं, हरिवाहणं चेव ॥४७५॥ अइवरवियारसारे, सारं साहेमि तुज्झ वि जयंतं । निय अंगे चंगिमाए, वरसु जयंतं जयतं पि।।४७६॥ सा सविसाया चिंतइ, इमाए मत्तीए हा कहं एसो । पयडइ परस्स निंद,कह दहणं मयइ हरिणको ॥४७७॥ जइ वा मए विणिच्छियमेसो हरिवाहणो धुवं कुमरो । न हु अप्पं सुप्पुरिसा, थुणंति अहवा पयासंति ॥४७८।। सुयणाण को वि मग्गो, न चोज्जं परगणे पयासंता । अप्पाणमपयडंता, हवंति भवणम्मि महणिज्जा ॥४७९॥ इय चिंतिय सा जंपइ,नूनं हरिवाहणोसि तं सहय !।। जाणामि अकहियं चिय, तुमयं नियमणपमाणेण ।।४८०।। इत्तो य दिसिगएहिं नित्तंभिय निययकण्णतालेहिं । समकालं सच्चंतो उल्लसिओ तूरसंरावो ||४८१ ॥ सो तरलतार-नित्ता, जंपइओ सरसु कुमर !मा मरस । दबंतरिओ कयंतो, सो संपत्तो इह जयंतो ॥४८२।। तव्वयण-तुल्ल-कालं, पत्तो से खयरो वि तं कुमरं । जंपइ रे कोसि तुम, किह पत्तो इत्थ नयरम्मि ? ॥४८३॥ कुमरो वि आह खेयरनाह ! अहं इंददत्त-नरवइणो । हरिवाहणु त्ति पुत्तो, दिव्ववसा इत्थ संपत्तो ।।४८४।। 2010_04 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २०३ इय तव्वयणं सोउं, उब्भड-भिउडी-कराल-भालयलो । करवाल-कलिय-हत्थो लग्गो कमरस्स समरम्मि ॥४८५।। तो खेयर-नर-वीरा करंति समरं सुराण मणहरणं । कमरेण भग्ग-खग्गो, संजमिओ तयण सो खयरो ॥४८६॥ सो निज्जिओ पयंपइ तमए हे वीर ! धीर-चरिएहिं । रूवेण मणो मह तह अणंगलेहाए अवहरियं ॥४८७।। ता विवाहस एयं करेस रज्ज इमम्मि नयरम्मि । इय जंपिय वेयड्ढे कमराणनाए सो जाइ ॥४८८॥ कुमरो वि नवोढाए अणंगलेहाए कंचयं दिव्वं । अप्पित्त तत्थ नयरे निरवज्ज पालए रज्जं ।।४८९।। तह वसियं तं नयरं, ताणं संपन-पन-माहप्पा । अलया वि अलिय-कित्ती कित्तिज्जइ तस्स जह परओ ॥४९०॥ अभिरामे आरामे, सरियातीरेस सेलसिहरेस । सच्छंदं सह तीए, विलसइ हरिवाहणो राया ।।४९१ ।। तत्थऽत्थि पुरासण्णे, महल्ल-कल्लोल-मिलियगयणयला । रेवासरीया सर-बह-सेवा मणहरणतीरं ता ॥४९२॥ जलदारिय-तड-पयडिय-धणसमुदयकय-कयत्थजणनिवहा । कत्थ वि एसा सरिया, पडिहाइ सामि सारिच्छा ॥४९३।। नियडतडरूढपायवसमूलनिम्मूलणेक्क वावारा । कत्थ वि अंतो कलसा दज्जणसामि व्व पडिहाइ ॥४९४।। कलहंसकामिणिणं कलकोलाहलमिसेण अणवरयं । जलदेवयाण एसा महुरालावं व निम्मवइ ।।४९५॥ चक्कायमिहुणसिहिणालहरी-लायन-पन्न चंगंगा । वियसिय-कवलय-नित्ता सा रेहइ तरुणि-रमणि व्व ॥४९६।। राया तिस्सा तीरे उभओ पासंतमिलिय वा नीरे । सुद्धंत-निवह-सहिओ, जलकेलिं कुणइ सिच्छाए ।।४९७।। 2010_04 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं करकलियसिंगियाहिं अणप्परायाहिवारविलयाहिं । सो राया सिप्पंतो बंधुररोमंकुरे वहइ ॥४९८॥ सो वि पडिसिंचणत्थं, सिंगियहत्थो सहेइ मयण व्व । परिहरिय कसमबाणो, कयवारुण-बाण-संधाणो ।।४९९।। जल-केलि-पसत्ताणं, मिहणाणं अंगरायकलसजला ।। रेवा वि सहइ तइया, निवम्मि नवरायरत्त व्व ॥५००॥ सा वि हु अणंगलेहा, निब्भरनेहा पिएण जलकेलिं । बहुनम्म-रम्म-पिम्मा, निम्मावइ नम्मया-सलिले ॥५०१ ।। तत्तो तामियवच्छो, पत्तो तीरम्मि सो वि नरनाहो । अंतेउरिहिं सहिओ, करिणीहिं जूहनाहो व्व ॥५०२।। मुत्तूणगलिर-बिंदु ससोयमिववत्थ-जुयलयं पुव्वं । परिहइ उज्जल-महिगय-हरिसं पिव नव्व-वत्थ-जयं ॥५०३।। सो वि ह अणंगलेहा, निब्भरनेहा पिएण जलकेलिं । काऊण नित्रयाए, तीरे पत्ता सही सहिया ॥५० ४।। निब्भर-सलिल-भरेणं सव्वाण वि तीमियाणि वत्थाणि । मुत्तूण नीरतीरे, गिण्हइ अवराणि वत्थाणि ॥५०५॥ इत्तो य सुहम-कोमल-अमल्ल-दोगल्ल-निम्मियं रम्मं । सोणमणि-किरण-लहरी-कब्बरियं सलिलपडिहत्थं ॥५०६॥ दिव्वं कंचुय-रयणं, अणंगलेहाए दिव्व-जोगेण । नव-जंगल-भंतीए, हत्थं मच्छेण परिगलियं ।।५०७॥ तो झ त्ति सत्ति-तोमर-कराल-करवाल-दित्त-कुंताई । गहिऊण रायसुहडा पहाविया मच्छ-मग्गेण ॥५०८॥ ताण सहडाण तारय-निवहाणं तह य पिच्छराणं पि । सो मच्छो तम्मि जले, सहस त्ति अदंसणं पत्तो ॥५०९॥ नाउं वइयरमेयं, अणंगलेहा वि चिंतए चित्ते । नूनममंगलमेयं, कंचुयहरणं महं होही ॥५१०॥ 2010_04 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २०५ अवह कह सरतीरे,विमुक्कमित्तो वि कंचुओ तेण । मच्छेणं परिगिलिओ, रायाइजणाण पच्चक्खं ॥५११॥ इच्चाइ चिंतयंती, अणेयवरउत्तिजुत्ति-भंगीहिं । आसासियनरवइणा, नियम्मि भवनम्मि सा नीया ॥५१२॥ जिण-पूयं कारावइ वियरावइ दाण-मणह पत्तेस । पूयावइ वरसंघ, दावइ जीवाणमभयं सा ।।५१३।। परमिट्ठि-परममंतं, निच्चल-चित्ता सया वि झायंती । सिद्धंतसिद्धतत्तं, सा भावंती गमइ दियहे ॥५१४॥ एत्तो य दूरदेसम्मि, अस्थि विनायडं ति वरनयरं । पासाय-साल-सर-गिरि-रम्मारामेहिं रमणिज्जं ॥५१५॥ नरकंजरु त्ति अरिवण-उम्मूलणकंजरे तहिं राया । नय-सहिओ मय-रहिओ, लोयहिओ गुणगणब्भहिओ ॥५१६॥ तंबक्क-बक्क-ढक्का-निनाय-संभार-भरियनह-विवरो । संचलियो बलकलिओ, सो राया रायवाडीए ॥५१७॥ सेयायवत्त-समुदय-सिक्किरि-विसरेहिं नहयल-सरम्मि । सिय-पंकेरुह-कवलय-काणण-लच्छी पयच्छतो ॥५१८।। भड-चड़यड-परियरिओ, अणेय-सामंत-मंतिसंजत्तो । विमले सरिया-सलिले, जल-केलिं कुणइ सच्छंदं ॥५१९॥ पत्तो परम्मि पारे, कीला-सिहरस्स सिहरदेसम्मि । परिसम-समण-निमित्तं, उवविठ्ठो मणिनिलावीढे ॥५२०॥ अह तारय-चक्कवई, तारयनाहु व्व तारओ नाम । हरिस-वियसंत-नित्तो, संपत्तो राय-पासम्मि ॥५२१॥ करकलियंजलिबंधो, निवई विनवइ देव! रेवाए । नीरम्मि अज्ज मच्छो, अच्छ-देहो मए गहिओ ॥५२२॥ उदरम्मि तस्स दारुण-सत्थेण विदारयम्मि तो सहसा । दिठं कंचुय-रयणं, अमुल्ल-मणि-रयणपरिजडियं ॥५२३॥ 2010_04 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जल-देवयाए वण-देवयाए पायाल-कन्नयाए वा । जल-केलि-पसत्ताए, मन्ने मच्छेण गिलियमिमं ॥५२४॥ तो सयल-रयण-सामियं कंचय-रयणं इमं पि गिण्हेस । इय भणिय कंचुयं सो मुंचइ नरनाहउच्छंगे ॥५२५॥ तं तरुणिमणहरस्सं व कुसुमसररायगुटुरं अहवा । रायमयं पिव दळं राया रायाउरो जाओ ॥५२६॥ सो चिंतइ सा तरुणी-निज्जिय-सुर-तरुणि-रूव-सव्वस्सा । केरिसरूवा होही, जीइ इमो कंचुओ दिव्वो ॥५२७॥ केण उवाएण इमा, नायव्वा केण वा वि गहियव्वा । इय चितंतो पत्तो, राया निययम्मि पासाए ॥५२८।। अहिभारो विव हारो, अंगारसमो य अंगसिंगारो । मारो विव परिवारो, खारो विव वेससंभारो ॥५२९॥ मरणं पिव वर-भवणं, दाहो विव परियणाण संलावो । रायमय-रस वि रनो वि रायरूवं जयं जायं ।।५३०।। सो आह नियमति जीएणं मज्झ तुज्झ जइ कज्जं । तो कहवि दिव्वकंचुअ-सामिणि रमणिं मुणिज्जासु ॥५३१ ।। तो मंती नेमित्तिय-जाणग-जोसि य सिद्धपुत्ताई । . पुच्छितो वि न पावइ सुद्धि लच्छिं व गयपुत्रो ।।५३२॥ तत्तो रायदुहत्तो सत्तहिं दिवसेहिं वित्त-चाएण । रज्जाहिदेवयं सो आराहइ भत्ति-संजुत्तो ।।५३३॥ ललियकरकलियकमला कमलमुही हेमकमलमासीणा । पयडा होउं लच्छी जंपइ हे वच्छ ! वरसु वरं ॥५३४।। सो आह रज्जसामिणि ! कंचय-रयणस्स सामिणिं तरुणिं' आणित्तु मज्झ पहुणो अप्पसु बहुणा किमनेण ॥५३५॥ सा जंपइ तं कज्जं कज्ज सहलं हवेइ जं कह वि । निप्फलकज्जारंभो पच्छातावं पयच्छेइ ॥५३६॥ 2010_04 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २०७ अवितिमिरभरं मिहरो पयडइ भुवणस्स मज्झयारम्मि । अविचलइ मेरुचूला न सीललीला चलइ तिस्सा ।।५३७॥ तुह नाह असग्गाहो जइ तत्तो आणिऊण तं रमणिं । अप्पिस्समहं पच्छा वच्छ ! तए नेव सरियव्वा ॥५३८॥ इय जंपिय सा सहसा पत्ता नयरम्मि खयरनिम्मविए । पिच्छइ अणंगलेह जिणिंद-पय-पूयणुज्जुत्तं ॥५३९।। तो हरिय इमं देवी मुंचइ नरकुंजरस्स भवणम्मि । आपुच्छिऊणं मंतिं वच्चइ निययम्मि ठाणम्मि ॥५४०॥ तं आगयं वियाणिय राया जंपेइ रायमय चित्तो । पसयच्छि ! कय-पसाया सामिणि ! मह सम्मुहं नियसु ॥५४१ ।। विनायडपुरसामी अहयं नरकुंजरो मए देवि ! आणावियासि कंचुयं दंसणं संजाय राएण ॥५४२॥ सा चिंतइ तं एयं अमंगलउवट्ठियं धुवं मज्झ । अहवा सीलवईणं अमंगलं नत्थि मरणे वि ॥५४३॥ इय चिंतिय सा जंपइ नरवर ! नेरइयपमुहदुहमूलं । लोयाववायवायं मुंचसु परदार-संबंधं ॥५४४।। सग्गं पायालतले, पायालं जइ वि जाइ सग्गम्मि । होइ थलं जइ जलही तह वि न भंजेमि नियसीलं ॥५४५।। तत्तो राया चिंतइ परिचयरहियस्स संपयं वयणं । एसा न मज्झ करिही करिही कालंतरेणं तु ॥५४६।। इय चिंतिय पइदियहं दासीहिं सयं च विविहचाडूणि । पयडंतो दुक्खेणं दियहे निव्वाहए कइवि ॥५४७।। सा उण अणंगलेहा निम्मलसीलम्मि पत्त-जयरेहा । पिय-विरहतत्तदेहा चिट्ठइ मोणं समल्लीणा ॥५४८।। सा दुसहविरहदुहवसअविरलविगलंतनित्तजलधारा । धारा जंतविनिम्मियपुत्तलिया करणिमुव्वहइ ॥५४९।। 2010_04 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं विरहविनोयनिमित्तं नियपाणिसरोरुहेण चित्तपडे । आलहिय नियं दइयं हरिणच्छी पिच्छइ निच्चं ॥५५०॥ चित्तालिहियं दइयं पिच्छंती विरहदुक्खतत्तं च । मने तं पि हु बाला सिंचइ नित्ताण नीरेहिं ।।५५१ ।। एत्तो य दुन्निमित्ता हरिवाहणराइणो अरनम्मि । मयगलभयसंतत्ता संपत्ता विंझ-सेलम्मि ॥५५२।। नियमित्तपरिच्चत्ता संतत्ता ते वि तत्थ भमडंता । पिच्छंति पुरिसमेगं वंसकुडुंगस्स मज्झम्मि ॥५५३।। उड्ढपयमहोवयणं, कुणमाणं धूम-पाणमणवरयं । अक्खावली कलियकर, पसाहयं तं महाविज्जं ॥५५४॥ तो नरपयसंचारं, नाऊणं मंत-जाव-पज्जंतं । काऊणं सो सहसा विणिग्गओ वंसजालीओ ॥५५५।। सो आह कओ तुब्भे, किं कज्जं एत्थ पव्वए पत्ता । किं वा नामं तुज्झं, को जणओ अहव किं गुत्तं ? ॥५५६॥ जपति ते वि हे वीर ! कुणसि किं अम्ह नाम पमुहेहिं । इह अम्हे दिव्ववसा, तुह उत्तर-साहया पत्ता ।।५५७॥ सो आह सुठुजोगो, निक्कारणवच्छलेहिं तुब्भेहिं । संजाओ ता संपइ, सव्वं भव्वं विहेयव्वं ।।५५८। विहिया य पुव्व-सेवा, तिलोयविज्जाइपरम-विज्जाए । संपइ सहाय सहिओ, उत्तसेवं करिस्सामि ॥५५९॥ इय भणिय साहसधणे, ते उत्तरसाहए करेऊणं । तेण खयरेण विहिणा, कमसो सा साहिया विज्जा ॥५६०॥ विज्जाए समत्ताए, संलत्तं तेण खयरनाहेण । निक्कारण-बंधुणं, करेमि किं संपयं तुम्ह ॥५६१॥ जइ वि हु निरीह-चित्ता, किमवि जंपेह नेव मग्गेह । तह वि हु मह उवरोहो, धरियव्वो निययचित्तम्मि ।।५६२॥ 2010_04 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २०९ रूव-परिवित्ति-विज्जं, अद्दिस्सीकरणमंजणं पवरं । परबल-मोहणि-विज्जं, विमाणनिम्मावणिं विज्जं ॥५६३॥ दाऊण ताण खयरो, गंतूण गयणवल्लहे नयरे ।। निज्जिय विपक्ख-लक्खो, निरवज्जं पालए रज्जं ॥५६४॥ ते दुन्नि वि वरमित्ता गामागर-नगरमंडियं वसुहं । पिच्छंता संपत्ता कमेण विनायडे नयरे ॥५६५।। नियसत्तीइ पुरीजणमवसेसमवहरियनिययसब्भावं । अविकलकलाकलावा कुणंति ते तत्थ विलसंता ॥५६६॥ निसुयं तेहि वि एवं कंचुय-रयणस्स सामिणी रमणी । रमणीय-सीलरूवाइहत्थि आणाविया रना ।।५६७।। अनोनं मंतित्ता ते मित्ता अंजणेण नयणाणि । अंजित्ता सुद्धते, संपत्ता तीइ पासम्मि ॥५६८॥ हरिवाहण-नामंकिय-निरूवम-रूवं तहिं निरूवंती । अभिरुव-रूवरेहा, निरूविया तेहि सा बाला ॥५६९॥ उल्लसिय कोउहल्लेहि, तेहिं सहसा विचित्तचित्तपडो । ने य पहाओ तिस्सा हरिओ आसायबंधो व्व ।।५७०॥ हरियम्मि तम्मि सहसा अविरल-विगलंत-नित्त-नीरेहिं । सित्ताहरप्पवाला सा बाला विलवए करुणं ।।५७१ ॥ हा विहि हयास ! किं तुह अवरद्धं किं च तुह मए हरियं । जं चित्ते लिहियस्स वि दइयस्स न दंसणं देसि ॥५७२।। हा हत्थे गहिओ वि हु चित्ते लिहिओ वि नाह ! गच्छेसि । जइ पुण मह हिययाओ, गच्छसि जाणेमि तो दक्खं ॥५७३॥ चिंतंति ते वि मित्ता, नूनं हरिवाहणस्स रूवमिणं । होही जइ वा तत्तं एवं चिय पुच्छिमो तरुणिं ॥५७४॥ तो पयडा होऊणं चित्तपडं अप्पिऊण पिच्छंति । कस्स सुओ तुह दइओ, कइया तं तेण परिणीया ॥५७५।। 2010_04 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० मारूयसु भीरू अम्हे नीयाए सत्तीए झत्ति दइएन । तुह जोगं करिहामो जइ साहसि अम्ह परमत्थं ॥५७६ ॥ तो जंपइ भोगावइनयरीनाहस्स इंददत्तस्स । हरिवाहण त्ति पुत्तो मह नाहो परिहसमबाहो ||५७७ ॥ नियमित्तजुयलजुत्तेण विहियदेसंतरेण तेणाहं । खयरपुरे पवरपुरे विजयजयंतेण परिणीया ॥ ५७८ ।। तत्तो समित्तवृत्तं तस्सवणसंजायपुलयपब्भारा । पायडिय - विणयसारा नमंति ते तीए कमकमलं ॥ ५७९ ॥ जंपंति हे महासइ ! भाउज्जायासि संपयं अम्हं । ते दो वि वयं मित्ता सह, जेहिं तुहप्पिओ चलिओ ॥ ५८० ॥ मा संपयं विसायं करेसु अप्पं च मुणसु पियपासे । नियदेवराणमवरं पि कज्जमाइससु जं कज्जं ॥ ५८१ ॥ करिमो देवविमाणं माणं सत्तूण घाइमो सहसा । सहसा समीहियत्थं पसाहिमो भुवणपच्चक्खं ॥ ५८२ ॥ मह पिययमस्स मित्ता इम त्ति अइमत्तहरिसपडिहत्था । सा जंप हे वच्छा, वंछियमत्थं कुणह हत्थं ॥ ५८३ ॥ पमित्तु ते वि तिस्सा पयपंकयमकयचित्तविक्खेवा | सेवा कज्जे सज्जा संपत्ता रायपासम्म || ५८४ || सा आह महीनाहो कत्तो देसंतराउ संपत्ता । नाणं विनाणं वा किमत्थि तुम्हं कयच्छरियं ॥ ५८५ ॥ जंपति ते वि रविणो रहमद्धपहे वि थंभिमो भुवणं । आजम्मवसे करिमो पयासिमो कऱगयं ससिणं ॥ ५८६ ॥ हर अद्धंगागोरि लच्छिं सरिवच्छवच्छमज्झाओ । आम किं बहुणा तं नत्थि जए न जं करिमो ॥ ५८७ || नरकुंजरनरनाहो जंपइ संपइ करेह हे वीरा ! । आजम्मं मज्झ वसे तं कंचुयसामिणिं रमणिं ॥ ५८८ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २११ ते बिंति हे. नरेसर ! चिंता तुमए न तीए कायव्वा । इह अत्थे अम्हेहिं पयट्टियव्वं सयं चेव ॥५८९।। एवं चुण्णं गिण्हसु इमेण तिलयं करेसु भालयले । सोहग्गसिरो रयणं हवेसि जेणं खणद्धेण ॥५९०॥ सो परदारियतिलओ कयतिलओ तेण दिव्वचत्रेण । गच्छइ तिस्सा पासे सहसा सिंगारतारंगो ॥५९१ ।। एत्तो य तेहि एसा अंजणजोगेण अंजियखेहिं । सुद्धंते गंतुणं कय संकेया कया आसि ॥५९२॥ तत्तो इमा पयंपइ अज्ज महीनाह ! पवरतित्थम्मि । अट्ठावयम्मि सेले वंदिय देवे जिमिस्समहं ॥५९३॥ तमकालवुट्ठिसरिसिं तिस्सावयणं निसामिउं राया । हरिसस्स विसायस्स वि समकालं गोयरे पत्तो ।।५९४॥ चिंतइ य धुवं एसा तिलयपभावेण अज्ज अणुकूला । कह पुण इमीए वयणं अज्ज पमाणं विहेयव्वं ॥५९५।। इय चिंतिय नरवइणा ताणं आहविय साहियं कज्जं । ते जंपति नरेसर ! एत्तियमित्ता किमिह चिंता ॥५९६॥ अज्जं वा कल्लं वा जइया राया पयंपए तइया । अट्ठावयम्मि सेले सा नेयव्वा न संदेहो ॥५९७।। किं पुण कज्जं एसा संपइ अट्ठावयम्मि वच्चेइ । अहवा नायं एसा तिलयपभावा वसे जाया ॥५९८॥ सेलम्मि तम्मि सामिय, आरामा संति निच्चमभिरामा । तो तुमए सह एसा, सिच्छाए रमिस्सए तत्थ ॥५९९।। सो कामग्गह-गहिओ, तह त्ति सव्वं मणम्मि चितंतो । जंपइ दिव्वविमाणं, अज्जेव करेह जइ सक्का ॥६००॥ तव्वयणतुल्लसमयं, रयणमयं सालभंजिया कलियं । तेहिं पडाया लडह, हारिविमाणं विणिम्मवियं ॥६०१।। 2010_04 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनिलचलद्धय-किंकिणि - रवेण उज्झित्तु दंड - भुइदंडं । मन्त्रे इमं निवार, अकज्जसज्जं महीनाहं ॥ ६०२॥ तं नरवइआएसा, निम्मलसीलाए तीए उवणीयं । नज्जइ सीलावज्जियमणेहिं तियसेहिं पट्ठवियं ॥६०३॥ ते जंपति नरेसर ! पवर विमाणम्मि झत्ति आरुहसु । सह निययपिययमाए, गच्छसु अट्ठावए सेले ||६०४॥ तो आह महीनाहो वरोरु ! आरुहसु इह विमाणम्मि | . नियनियम- पालणत्थं, गच्छसु हत्थं तहिं तित्थे ॥ ६०५॥ सा सहसा आरूढा, तम्मि विमाणम्मि तेहिं मित्तेहिं । पुव्वारूढेहिं तओ, तोरवियं तं वरविमाणं || ६०६॥ गच्छंता ते एवं वयंति हरिवाहणस्स नरवइणो । दइया तम्मि तेहिं संपइ गिहिज्जए एसा ||६०७ || जइ कवि अत्थि सत्ती, पहरह मा भणह जं न कहियंति । एए अम्हे पयडा, अवट्ठिया नहयलुच्छंगे ||६०८॥ रोसावेसपरव्वस चित्तो तत्तो पयंपए राया । गिuse गिण्हह मारह, मारह रे ! रे ! इमे धुत्ते ॥ ६०९ ॥ एएहिं अहो अहयं, एवं च वयणेहिं वंचिओ दूरं । एयाण पवंचाणं, पज्जंतं संपयं कुह ॥ ६१० ॥ अह तेसिं निवं-भडाण य, कमेण आयासमहियलट्ठियाणं । कायरहियया कंपण-कारणदारुणरणो जाओ ।। ६१.१ ।। विज्जासत्तीइ इमे, रायबलं निज्जिऊण तं देविं । रनो कन्राजुयलं, तहेव गिहित्तु वच्चति ॥ ६१२ ॥ अह रयणपुरारामे, अवयरमाणा विमाण मज्झाओ । पिच्छंति नयरलोयं, ससोयमुज्झिय सवावारं ॥ ६१३॥ वारविलयाविलावं, होमं विप्पायमंतिणो मंतं । संतिं पुरोहियगणा, कुणंति वुड्ढाय जिण - पूयं ॥६१४ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २१३ तनयरवासिननर-गण-मुहेण जाणंति ते इमं तत्थ । रनो अणंगलेहाऽवहारदुहतत्त-गत्तस्स ॥६१५।। सव्वो वि परिवारो, जिणिंद-खंधाइ-पूर्वणा पवरो । चिट्ठइ दुहिओ अहवा, जह राया तह पया इंति ॥६१६॥ कयसिद्धपुत्तरूवो, सिद्धिसुओ रायपाय-पासम्मि । गंतुं जंपइ नरवर !, संपइ मुंचसु विरहदुहं ॥६१७॥ वेरिपराजयसत्ती, सत्ती आयासगामिणि अस्थि । मह आकरिसणसत्ती, जं पभणसि तं करिस्सामि ॥६१८॥ उल्लसियमणो राया, जंपइ अस्थि कावि तुह सत्ती । देविं अणंगलेह, आणसु इह संपयं तत्तो ॥६१९॥ नरवरवयणाणंतरमेसो काऊण गरुयनीरगि । विहियथिरासणबंधो, हुकारं कुणइ अइतारं ॥६२०॥ कयसंकेया देवा, मुहुत्तमित्तेण नहयलपहम्मि । झत्ति विमाणारूढा, नरनाहसहाए संपत्ता ॥६२१॥ नियपाणपिया दंसणसुहारसासारसित्तसव्वंगो। उक्कंटइओ राया, कोहंडिफलस्स विंटं व्व ॥६२२॥ विहडिय पुण घडियाणं अणन्नचित्ताण ताण जं सोक्खं । . जायंतं जइ ताई मुणंति अहवा वि केवलिणो ॥६२३॥ सो आह सिद्ध-पुत्तो पुणरवि नरनाह । भणसु मणइट्ठ । किंचिवि तं पि हु काउं होसि कयत्थो अहं जेण ॥६२४॥ नियमित्ते सुमरित्ता राया जंपेइ मज्झ जइ मित्तो । आणेसि तओ तं चिय मन्ने तिहुयणजणब्भहियं ॥६२५॥ सो जंपइ हे लोए हंहो निवमित्त ! मज्झ वयणेणं । आगच्छसुं जं राया चिट्ठइ तुह विरहसंतत्तो ॥६२६॥ अंजियनयणो पुव्वं पत्तो सोऊण तस्सिमं वयणं । सो सुत्तहारपुत्तो निवमित्तो पायडो जाओ ॥६२७॥ 2010_04 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ संहरियसिद्धपुत्तरुवो अवरो वि विहिय नियो । जाओ नरवरमाणसकुमुयवयणानंदचंदसमो ||६२८।। मन्नइ मणम्मि राया अहो महं चेव दिव्वमणुकूलं । जं एक्कवासरे च्चिय दइया मित्ता य परिमिलिया ||६२९|| गरुओ विपुरिसयारो हवेइ विहलो विहिम्मि पडिकूले । अणुकूले तम्मि पुणो अचिंतिया होइ फलसिद्धी ॥६३० ॥ देवी अणंगलेहा नरनाहो तहय दो वि वरमित्ता । अनोन्नं वृत्तंतं कहंति सव्वे वि सव्वं पि ॥ ६३१ ॥ राया रंजियचित्तो, कन्ना जुयलेण मित्तजुयलस्स । कारइ पाणिग्गहणं, जोग्गो जुग्गाण संजोगो ||६३२॥ समयंतरम्मि देसतराणि दाऊण निययमित्ताण | निरवज्जं रज्जं सुहं, तत्थ सुहं भुंजए राया ||६३३ ॥ हरिवाहणजणएणं, जाणियतत्तेण इंददत्तेण । आहविय नियंरज्जं दत्तं पुत्तस्स सयमेव ॥ ६३४|| उद्दाम-महुर-संद्दस्स, अज्जसमुद्दस्स पायमूलम्मि । पडिवज्जिय पव्वज्जं, सो महिनाहो सिवं पत्तो ||६३५ ॥ हरिवाहणराया उण, अज्जसमुद्दस्स चेव पयमूले । दइयामित्तेहिं समं, गिहत्थधम्मं पवज्जेइ ||६३६॥ रहजत्ततित्थजत्ता, कारइ अट्ठाहिया महामहिमं । बिंबाणि पट्ठावर, मारि जीवाण वारेइ ॥ ६३७॥ वरिसाण सहस्सेसुं, गएसु नयरम्मि तत्थ संपत्तो । सुरखेयरपरियरिओ, पुरंदरो केवली भयवं ॥ ६३८ ॥ हरिवाहणनरनाहो, नियदंसणहरियदुरियपब्भारं । सपरिवारो गंतु, मुणिनाहं नमइ भत्ती || ६३९ ॥ उचियट्ठाणणिविट्ठे, नरनाहे भूय - भावि - भावाणं । जाणतो परमत्थं, एवं भयवं कहइ तत्तं ॥ ६४० ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २१५ देहं गेहं रयणा सयणा रामा हवंति आरामा । अभिरामा जइ जीवं जीवाणं हवइ सासइयं ॥६४१।। अनिल-हय-नलिणिनवचलदलग्गसंलग्गसलिलवचवले । जीवम्मि कह पयत्था,हरंतु हिययं मनुनावि ॥६४२॥ अयि कहवि संघडिज्जइ संखो जलही वि पिज्जए सलिलो । लवमवि व तुट्टमाउं सक्को सक्को वि संधेउं ॥६४३॥ विसयामिसलवगिद्धा तुच्छा पिच्छंति सासयं सव्वं । न मुणंति पवणचालियघणसरिसं चंचलं जीयं ॥६४४।। करवत्तियाए पविसिरनिग्गच्छिरसासलहरिपुवाए । दारिज्जमाणमाउयदारूं मूढा न पिच्छंति ॥६४५॥ तो अक्कतूलतरले निज्जयकल्लोललोलभावम्मि । जीयम्मि काउमुचियं बुहाण जणदेसिओ धम्मो ॥६४६॥ हरिवाहणनरनाहो अह पुच्छइ नाह ! कहसु मह जीयं । कित्तियमित्तं सेसं केवनाणी भणइ तत्तो ॥६४७॥ नवजामपमाणं चिय सेसं संपइ नरिंद ! तुह जीयं । सोऊण इमं चिंतइ राया मरणाउ बीहंतो ॥६४८॥ हा कह बहूवरिससया सयावि सुहलालसेण निग्गमिया । संपइ पत्ते मरणे सरणं कं जामि गयपुत्रो ॥६४९॥ इच्चाइ चिंतयंतो मुणिणा सो तेण पभणिओ राया । अज्ज वि न किंचि नटुं खेयं परिहरसु नरनाह ! ॥६५०॥ जइ बीहसि मरणाओ सासयसुक्खं महेसि जइ मुक्खं । पडिवज्जसु पव्वज्ज तत्तो जिणदेसियं सम्मं ॥६५१॥ अंतो मुत्तमित्तं विहिणा विहिया करेइ पव्वज्जा । दुक्खाणं पज्जंतं चिरकालकयाइ किं भणिमो ॥६५२॥ भणियं चजिणभवणबिंबकारणरहजत्तापमुहसव्वधम्माओ । 2010_04 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पव्वज्जा खलु गरुया, वज्जिय सावज्ज-वावारा ॥६५३॥ कंचणमणिसोवाणं,थंभसहस्सूसियं सुवण्णतलं । जो कारेइ जिणहरं, तओ वि तव-संजमो अहिओ ॥६५४|| सव्वरयणामएहिं, विभूसियं जिणवरेहिं महिवलियं । जो कारेइ समग्गं, तओ वि चरणं महड्ढिययं ॥६५५॥ चेइय-कुल-गण-संघे, आयरियाणं च पवयणसुएण । सव्वेसु वि तेण कयं, तव-संजममुज्जमंतेण ॥६५६।। इय केवलिवयणेणं, मणम्मि आसासिओ महीनाहो । रज्जम्मि विमलवाहणतणयं अहिसिंचए निययं ॥६५७॥ नियसहि अणरेहा, सहिओ गिण्हइ तस्स पयमूले । राया दिक्खं कज्जो, न विलंबो धम्म-कज्जेसु ॥६५८॥ मुणिणा दिना दिक्खा, नियनिय ठाणम्मि जाइ पुरलोओ । हरिवाहणरायरिसी, तत्तो एवं विचिंतेइ ॥६५९।। अज्जं वा कल्लं वा जुगंतरे वा अवस्स मरियव्वं । कयसुकयसमूहाणं किं नाम भयंतओ मरणे ॥६६०॥ अहयं चिय इय धनो जस्स महं विसयपंकपडियस्स । उद्धरणकए पत्तो पूरंदरो केवली भयवं ॥६६१।। इय चिंतिय सो भावइ भावणनिवहं अणिच्चया पमुहं । चरियाणि जिणिंदाणं तहेव धीराण पुरिसाण ॥६६२॥ अह तस्स समुप्पण्णा दुव्विसहा सीसवेयणा घोरा । अकय चिगिच्छो तत्तो तत्तं एवं विचिंतेइ ॥६६३।। रज्जं पालंतेणं बहूणि पावाणि जीवविहियणि । तुमए तत्तो सम्म सहेसु सव्वाणि दुक्खाणि ।।६६४॥ उक्तं चपुनरपि सहनीयो दूःखपातस्तवायं नहि भवति विनाशः कर्मणां संचितानां । 2010_04 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवाहणनिवकहा २१७ इति सह गणयित्वा यद्यदा याति सम्यक सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ॥६६५।। एवं विभावयतो सुव्वंतो केवलिस्स उवएसं । मरिउं समाहिणा सो जाओ सव्वट्ठसिद्धम्मि ॥६६६॥ चविओ महाविदेहे सासयसुक्खं लहिस्सए मुक्खं । लहिही अणंगरेहा पमुहा सग्गं च मुक्खं च ॥६६७॥ हरिवाहणराया वि व जीवा पावंति समणधम्मेण सग्गं तहापवग्गं तत्तो एयं कुणह सम्मं ॥६६८॥ केसाय किलेसा विय जीए पसाहण मूलपज्जतं । उम्मलिज्जति दढं तं चिय सिक्खं तु जिणदिक्खं ॥६६९।। इति यतिधर्मे हरिवाहनराजकुमार कथा ।। गा० ।। २८५१ इय पहुवयणविणिग्गयदेसणमणहं सुणित्तु गिण्हति । सुव्वयपमुहा दिक्खं, नरा य नारी य रइपमूहा ॥६७०।। असमत्था जइ धम्मे, बारसभेयं गिहीण वरधम्मं । समत्तमित्तमवरे, भद्दगभावं तहा अने ॥६७१ ।। सत्तुत्तरसयसंखासुव्वयपमुहा य बीयबुद्धीओ । उप्पत्तिपमुहतत्ते, पाविय तिन्ने वि सामिस्स ॥६७२।। बारसवरअंगाई, कुणंति अंतोमुत्तमित्तेण । उज्जमपराणकज्जे, को हि विलंबो समत्थाण ॥६७३।। सीहासणाओ उठ्ठिय, सामी वियरेइ सव्वमणुओगं । सक्कोवणीयगंधे, खिवमाणो तेसि सिर-कमले ॥६७४॥ गणमवि तइया तेसुं, अणुजाणइ विहि-विसारओ भयवं । तत्तो खिवंति उवरिं, नर-अमरा तेसि वरगंधे ॥६७५॥ सीहासणोवविठ्ठो सिक्खं तेसिं पयच्छए नाहो । उज्जमह सयं धम्मे, उज्जममन्ने वि कारेह ॥६७६।। जयह पमायपिसायं, हणह विसायं च धम्म-किरियासु । 2010_04 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तुम्हाण उज्जमेणं, सीसा वि हु उज्जमिस्संति ॥६७८॥ भणियं चजो उत्तमेहिं मग्गो, पहओ सो दुक्करो न सेसाणं । आयरियम्मि जयंते, तयणुचरा किहणु सीएज्जा ॥६७९॥ इत्थंतरम्मि पविसइ पुव्वदारेण मंगलसएहिं । कोसंबिपुरी रना, विणिम्मिओ सुरहिगंधजुओ ॥६८०॥ दुब्बलिनारीखंडिय बलजुयछुडियाण तह अखंडाणं । वरकलमतंदुलाणं, आढयमाणो बली तत्थ ॥६८१ ।। तस्स मयं चिय विरमइ सामी वरधम्मदेसणाहिंतो । एत्थंतरम्मि तइया समप्पए पोरिसी पढमा ॥६८२ ।। कारिय पयाहिणो सो पहुणो पुरओ खिविज्जए उड्ढे । गिण्हति तस्स तियसा अद्धद्धं अचडियं चेव ॥६८३।। अद्धद्धं अहिवइणो सेसं सेसा जणा वि गिण्हति । छम्मासे न हि रोया हवंति नासंति पुव्विल्ला ॥६८४।। सीहासणाओ उठ्ठिय उत्तरदारेण निग्गओ तत्तो । गतुं देवच्छंदे वीसामं कुणइ जयनाहो ॥६८५॥ अह रना उवणीए रम्मे सीहासणम्मि उवविट्ठो । बिइयाए पोरिसीए परूवए सुव्वओ धम्मं ॥६८६॥ खेओवसमो गुणगणकहणं सीसाण उभयसंखाओ । गणनाहदेसणाए हुंति गुणा एवमाईया ॥६८७॥ अह विरए गणनाहे नरा य तियसा य नमिय जगनाहं । पहुगुणगणं सरंता वच्चंति नियं नियं ठाणं ॥६८८॥ पउमप्पहस्स तित्थे नीलंगो हरिणवाहणो कुसुमो । दाहिणकरजुयलेणं, फलं च अभयं च पयडतो ॥६८९॥ वामकरेहिं दोहिं धरमाणो नउलमक्खसुत्तं च ।। निच्चं चिय सन्निहओ सासणदेवो समुप्पनो ॥६९०॥ 2010_04 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणवण्णण २१९ तित्थम्मि तस्स पहुणो सामंगी अच्चुय त्ति सुपसिद्धा । दाहिणकरजुयलेणं वरं च बाणं च पयडती ॥६९१ ।। धणुहं अभयं दोहिं पयासयंती य वामहत्थेहिं । नरवाहणाइ तइया सासणदेवी समुप्पना ॥६९२।। समयंतरम्मि सामी सासणवरदेवदेविकयमहिमो । सुरकोडी परियरिओ संजुत्तो समणवंदेहिं ॥६९३॥ चउरंगमोहबलं चउविहधम्मेण झ त्ति निहणंतो । भवियारविंदभाणू विहारमन्नत्थ सो कुणइ ॥६९४।। अभिरूवं वरगंधं अंगं मलसेयरोयपरिमुक्कं ।। नवपंकेरुहपरिमलसरिसा सासा जिणिंदाणं ॥६९५।। रुहिरामिसाणि तिहुयणपहूण गोखीरलहरिसरिसाणि । छउमत्थाण अदिस्सा तहेव आहारनीहारा ॥६९६।। आजम्मभवा चउरो इमे जिणिंदाण अइसया भणिया । जोयणमित्तेखित्ते चिट्ठति नरामराण कोडीओ ॥६९७॥ सव्वजणसरिसभासा जोयणनीहारहारिणी वाणी । सिरपच्छा भामंडलमभिभविय सहस्स करबिंबं ॥६९८॥ तह साहिगस्स जोयणसयस्स मज्झे न वेर-दुब्भिक्खे । परचक्कसचक्कभयं मारी ईई अवुट्ठीय ॥६९९।। अइवुट्ठीय इमे खलु इक्कारस संखकम्मखयजणिया । गयणम्मि धम्मचक्कं, चमरा छत्तत्तयं चेव ॥७००॥ सीहासणमिंदझओ पयविनासम्मि कणयकमलाणि । पायारतियं चउमुहदेहत्तं भुवणमणहरणं ॥७०१ ।। चेइयरुक्खो रम्मो अहोमुहा कंटया तहा सव्वे । तरुअवणइय दुंदुहिरावो पवणो य अनुकूलो ॥७०२।। सउणा पयाहिणा तह सुगंधिजलकुसुमविविहवुट्ठी य । नह-मंसु-केस-रोमा, अवड्ढया तह जहन्त्रेणं ॥७०३।। 2010_04 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सिरिपउमप्पहसामिचरियं चउविह सुराण कोडी, परिवारे सद्द-रूव-गंधाइ । अणुकूल च्चिय विसयावसंतपमुहाउदू चेव ॥७०४।। इय इगुत्तीस संखा सुरजणिया मेलिया य चउतीसा । चउतीस अइसय जुओ विहरइ पउमप्पहो तइया ॥७०५॥ मगहा रायगिहाइसु मालव-उज्जेणि-अंग-चंपासु । देसपुरेसुं सामी पडिबोहइ भवियजणनिवहं ॥७०६॥ विहिया विहारलीला तेण सयं जत्थ पुरिससीहेण । मोहाइ सिंधुरेहिं सहस त्ति पलाइयं तत्थ ॥७०७।। . तेण वयणामएणं संहारिय-विसय-वासणा-तण्हं । बहवे सुहिया विहिया दुविहं दाऊणं वर-धम्मं ॥७०८॥ देसेसं विहरंतो विविहेसु अणेयसव्वसत्ताणं । दिक्खं पयच्छमाणो गिहीण धम्म विहरंतो ॥७०९॥ कमसो सुरट्ठठदेसे सामी सत्तुंजयम्मि सेलम्मि । पत्तो मुणिगणजुत्तो गह-गण-रिक्खेहिं चंदु व्व ॥७१०॥ सो सिहरी पढमं पि हु पेसइ परिवारमज्झयारम्मि । नियमभिंतरमनिलं मिउ-सुरहिं अभिमुहं पहुणो ॥७११॥ सो सत्तुंजयसेलासु निवडंत निज्झरसयाणं । गंभीरविरावेहिं दुंदुहिघोसं च निम्मवइ ॥७१२।। सिहरत्थपढमजिणपहुमंदिरविलसंतवेजयंतीहिं । पउमप्पहजिणदंसणहिट्ठो नच्चइ व सो सिहरी ॥७१३॥ पंचण्ह जिणवराणं समइक्कंताण समवसरणेहिं । सिहराइं पवित्ताई जस्स न किं सो महातित्थं ॥७१४॥ तित्थाण पवरतित्थं जो किर पढमेण तित्थनाहेण । सिरिउभसेणं पुरओ परूविओ भरहखित्तम्मि ॥७१५।। जिणअंतरेसु के वि हु कयावि भवभावभावणापवरा । संजायजाइसरणा उप्पाडिय केवलंनाणं ॥७१६।। 2010_04 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मदेसणा २२१ तित्थाभावेण सयं अकहिय जिनधम्मतत्तसंदोहा । गिहिणो चेव सिवसुहसंपत्ता जत्थ सेलम्मि ॥७१७॥ सिरिसत्तुंजयसेले तत्थसुरिंदेहिं भुवणनाहस्स । पउमप्पहस्स रइयं अच्छरियकरं समवसरणं ॥७१८।। नाऊण तत्थ पत्तं जयप्पहुमहमिगाए संपत्तो । बारसहिं जोयणेहिं, सुरट्ठदेसुब्भवो लोओ ॥७१९।। पउमप्पेहण पहुणा विसित्तु सीहासणम्मि निम्मविया । पायडियसत्ततत्ता परूवणा सव्वसत्तहिया ॥७२०॥ जालिहरगच्छनहयलमयंकसिरिदेवसूरिरइयम्मि । सिरिपउमप्पहचरिए सम्मत्तो दुइय पत्थाओ ।।७२१॥ इति श्री पद्मप्रभचरित्रे द्वितीयः प्रस्तावः ॥ एवं गा. २९०२ ॥ तइय पत्थावो विजयंतु पउमलंछण पहुणो कमकमलनहमणिमऊहा । पयडंता पणयाणं, सिवसहरज्जाभिसेयं व ॥१॥ परमं जणोवयारं, गणहारी सुव्वओ वियाणित्ता । तत्थेव समवसरणे, पुच्छइ पउमप्पहं नाहं ॥२॥ जयनाह ! समणधम्मे, असमत्थाणं कहेसु जिणधम्मं । समत्तजुयं बारस भेयं (देय) दिळेंतसंजुत्तं ॥३॥ अह बारस परिसासु बारस भेयं गिहीण वरधम्मं । सम्मत्तमूलमेयं, सामी कहिउं समारद्धो ॥४॥ तहाहिजिणधम्माणं मूलं सुभीमसंसारसिंधुपरकूलं । सिवसोक्खरुक्खमूलं समत्तं होउ किं बहुणा ॥५॥ मोहंधयारदीवो दीवो संसार-सायरे जेसिं । संमत्तपरीणामो करकमले ताण सिवसुक्खं ॥६॥ अरिहा भयवं देवा, गुरुणो समसत्तुमित्तपरिणामा । 2010_04 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ साहू महव्वयधरा, खमा गुणेणं खमा तुल्ला ॥७॥ जं जह जिणेहि भणियं तं तह सव्वं पमाणमिहवयणं । इय संमत्तं तत्तं, पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥८॥ जीवेहिं एगछत्तं रज्जं निरवज्जमहव देवत्तं । पत्तं अनंतसो विहु समत्तं नेव संपत्तं ॥ ९ ॥ जेहि वि मुहुत्तमित्तं सम्मत्तं कह वि फासियं ताण । आसायणबहुलाण वि परियदृद्धं भवो होही ॥१० ॥ अवि अविरइपरिणामा विसुद्धसम्मत्तमित्तमाहप्पा । तित्थंकरावि के वि हु हवंति किं वन्निमो अन्नं ॥ ११ ॥ भवभमणमूलकारणमणंतसिवसुहनिवारणं घोरं । मिच्छत्तं तित्थयरा परिहरणिज्जं परूवंति ॥ १२ ॥ हुणणं पिंडपयाणं सोमग्गहणाइलोयकिच्चाई | वज्जे कुलिंगसंगं लोइयतित्थे तहागमणं ॥ १३ ॥ अब्भासवसेणं चिय पायं जीवाण होइ पडिवत्ती । एएण कारणेणं हुणणाइ चयंति जत्तेण ॥१४॥ इहलोयपरलोइयसुहाण सव्वाणमाइमनिमित्तं । सम्मत्तं निरवज्जं गिण्हह छंडेह मिच्छत्तं ॥ १५ ॥ सम्मत्तं पालितो निच्चलचित्तो इहेव जम्मम्मि । पावइ रज्जं पुरिसो पन्नायरमंति - पुत्तो व्व ॥ १६ ॥ पण्णायरमंतिपुत्तकहा ताहि - कंचणमयपायारा, मणहरमणिरयण-निम्मियागारा । अत्थि पसत्थविहारा, सावत्थी नाम वरनयरी ॥ १७ ॥ अरिनारिपत्तवल्लरिसमूह - धाराल - परसु - सारिच्छो । राया महिंदपालो, तत्थ पुरे पालए रज्जं ॥ १८ ॥ तस्स य गइंदगमणा मिगनयणा-छण- ससंकसमवयणा । 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणार मंतिपुत्तकहा मयणंदोलणभवणा देवी रयणावली नाम ॥ १९ ॥ ताणं कालकमेणं पुत्तो नीसेसदोसकुलभवणं । जाओ कूरो सीहो, सीहो नयहत्थि संहरेण ॥२०॥ इत्तोय बुद्धिसायरमंतिसुओ तस्सबालकालाओ । पारुति मित्तो गुणमणिरोहणगिरि अत्थि ॥२१॥ दिव्ववसाफणिमणिणो पीयूसविसाणि हरिणहरिणंका । जह मिलिया तह दुन्नि वि विरुद्धसीला वि ते मिलिया ॥२२॥ पत्तो य मंतितो निसीहसमयम्मि कह वि जा निद्दं । परिहरइ ताव पिच्छइ उज्जाणे मणिमउज्जोयं ॥ २३ ॥ कोऊहलतरलमणो जा गच्छइ तत्थ ता नियच्छेइ । तद्दियहजायनिम्मलवरकेवलनाण - संपन्नं ॥ २४ ॥ नामेण अमियतेयं महामुणिं हेमकमलसुनिसनं । वियसियमुहकमलेहिं सुरअसुरेहिं महिज्जतं ||२५|| (जुयलं ) सो विहु पणामपुव्वं उवविट्ठो तत्थ उचियदेसम्म । भयवं पि कहइ तत्तं निरुवममहुराए वाणीए ॥ २६॥ तहाहि संसारे नीरपूरे तरणभरसहं चारुचम्मं चरितं । संमत्तं आयवत्तं चउविहकडयावासिणो भव्व लोया ।। तेसिं मोहंधयारं कलिय जयगुरू चक्कवट्टी जिणिंदो । नाणं लोयप्पयासं मणिरयणनिभं ठावए तत्थ सम्मं ॥२७॥ नाणं पि मोहतिमिरं, हरेइ सम्मत्तसंजयं चेव । मिच्छत्त- मोहदोसा, तं पि हु वन्नंति अप्पाणं ॥२८॥ लवणायरम्मि पडियं जह वरवत्युं उवेइ लवणत्तं । मिच्छत्तमज्झ पडियं तह नाणं हवइ मिच्छत्तं ॥ २९ ॥ तो छिंदह मिच्छत्तं, धरेह सम्मत्तसुद्धपरिणामं । मह जिणाभिहियं तत्तं जइ महह सिवसोक्खं ॥३०॥ 2010_04 २२३ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सिरिपउमप्पहसामिचरिय परपासंडिपसंसा तेहिं सह संथवो य विचिकिच्छा । संका कंखा य इमे, अइयारे चइसु सम्मत्ते ।।३१।। सोऊण तस्स वयणं, मंतिसुओ केवलिस्स पासम्मि । पंच अइयारमुक्कं, सम्मत्तं गिण्हए सम्मं ॥३२॥ इत्तो य रायपुत्तो, नवजुव्वणनिविडणतिमिरपसरेणं । उवहयविवेयनयणो, अपहेसु पयट्टए निच्चं ॥३३॥ वसणाइसत्त सेवइ दुग्गइपत्थाण मंगलाणि व्व ।। जं जं पिच्छइ नयरे, रम्मं अवहरइ तं सव्वं ॥३४॥ सो मित्तवयणमंकुसमवगणियमयगलु व्व नयरम्मि । नरवइआणाखभं, उम्मूलिय भमइ सच्छंदं ॥३५॥ दुव्विलसिएण तस्स य महायणो दिव्वविलसिएणं व । पुण्णरहिउ व्व सव्वो, निच्च उव्वेइओ तइया ॥३६॥ समवायं काऊणं पवरजणो नरवरिंदपासम्मि । गंतुं विनविउमणो, चिट्ठइ मोणं समल्लीणो ॥३७॥ तो रना संलत्तं किं चिट्ठह संपयं पि भीय व्व ? । विनवह निययकज्जं नत्थिच्छलं इत्थ तुम्हाणं ॥३८॥ तेसिं एगो तत्तो, जंपइ नरनाह ! तुज्झ पुत्तेणं । नियकुलकित्तीए समं नयरी सव्वा वि उद्दविया ॥३९।। जइ तुज्झ जहत्थं चिय साहिज्जइ तो हविज्ज सो कुमरो । अम्ह विरुद्धो अन्नह, मयलिज्जइ सामि ! तुह वंसो ॥४०॥ तव्वयणमुणियतत्तो, राया वज्जरइ भणह मा एवं ।। जो जणविरुद्धकारी, सो सत्तू मज्झ न हु पुत्तो ॥४१ ।। । नियदेहसमुप्पन, लूयवियारं च विविहदुहहेउं । निच्चं विरुद्धकारि, पुत्तं पि चयंति सप्पुरिसा ॥४२॥ इय जंपिरो नरिदो, पउरसमक्खं कुमारमाहविउं । आइसइ मज्झ देसे, पाविट्ठ ! तए न ठायव्वं ॥४३॥ . 2010_04 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणायरमंतिपुत्तकहा मह पुत्तो होऊणं कुणसि अक्खवत्ताणि एत्थ नयरम्मि । लज्जा मज्जाया वा अणज्जसव्वा तए चत्ता ॥४४॥ सो कुलिसघायसरिसं वयणं सोऊण नरवरिंदस्स । अत्थाणमंडवाओ निग्गंतुं जाइ मित्तगि || ४५ ॥ सो पुरपरिहरणमणो साहइ सयलंपि रायआएसं । मित्त जंपइ अहमवि सह तुमए आगमिस्सामि ||४६ || मित्ताणममित्ताण वि नज्जइ विहुरे जहट्ठियं तत्तं । सत्थावत्थे समए धणीण मित्तं जयं सयलं ॥४७॥ मित्तत्तं सलहिज्जइ लोहागरिसणमणिम्मि लोहस्स । जं तस्स मग्गलग्गं परिभमइ सहावओ एयं ॥ ४८ ॥ इय जंपिरेण सद्धिं चलिओ पनायरेण सह कुमरो । मुत्तूण निययदेसं गच्छ देसतरं दूरं ॥ ४९ ॥ गच्छंतेण य मित्तो भणिओ कुमरेण कहसु मह रम्मं । किं पि कहं जेण सुहं गमिज्जए एत्थ पंथम्म ॥ ५० ॥ कलहंता भक्खता भयसंतत्था कहाणए लग्गा । पियदंसणऊससिया खिप्पं वच्चंति मग्गंम्मि ॥ ५१ ॥ सविसेसदत्तचित्तं कुमरं कलिऊण जंपए मित्तो | सव्वाणवि परमत्थं कहाणधम्मं वियाणेसु ॥५२॥ तित्थंकरचरियाणं चउदसपुव्वाण अंगुवगाणं । धम्मु च्चिय परमत्थो तह पावविवज्जणं चेव ॥५३॥ जं देहलग्गपको मरणायंके वि ववगयासंको । रंको वि हवइ राया तं जाणसु धम्ममाहप्पं ॥ ५४ ॥ रूवसिणो विरुवा धणिणो धणवज्जिया य नीरोगा । जं रोगजुया तं पि हु धम्माहम्माण माहप्पं ॥ ५५॥ किं बहुणा चिंतामणि - कप्पदुम-काम-घेणु अब्भहियं । धम्मं मन्नस पावं, अवमनस निरयगइगमणं ॥ ५६ ॥ 2010_04 २२५ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इय तग्गिराय सहसा घयसित्तो पावओ व्व सो जलिओ । जंपइ धुत्तकएणं धिद्धी नडिओसि धम्मेण ॥५७॥ घिप्पइ रिउघाएणं समुद्दपज्जंतमेइणी रज्जं ।। पावो य सत्तघाओ ता रज्ज हवई पावाओ ॥५८॥ विसयसुहं अइरम्मं संपज्जइ विविहजीवघाएणं । पावो य जीवघाओ तो निंदसि मूढ ! किं पावं ॥५९॥ इह ताव धम्मियाणं भिक्खा भुजं धराए सयणिज्जं । परलोए धम्मेणं न याणिमो ताण किं होही ?॥६०॥ एवं विवयंताणं मित्ताण वि ताण मच्छरो जाओ । ते चेव बुद्धिमंता चयंति मित्तेण सह कलहं ॥६१॥ उक्तं चयदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं त्रीणि तत्र न कारयेत् । विवादमर्थसंरंभं, परोक्षे दारदर्शनम् ॥६२॥ ते पत्ता विवयंता गुणगामविवज्जियम्मि गामम्मि । पुच्छंति य उवविठं परिसाए गामकुंढजणं ॥६३॥ तो वयइ रायपुत्तो, जइ मह वयणेण तं न बुज्झेसि । ता पुच्छ इमं लोयं, धम्माहम्माण माहप्पं ॥६४॥ तत्तो कय-समवाया, तेसिं साहति नियविसंवायं । धम्मो य अहम्मो वा, को पवरो इत्थ भवणम्मि ॥६५॥ तो पावसहावेणं अहवा कुमरस्स पक्खवाएणं । जंपति पावमेवय पसंसिमो कह वि नो धम्मं ॥६६॥ वाणिज्जय-पसुपालण-किसीवलत्ताइ-विविहपावेहिं । जइ होइ पवरदव्वं, न तहा धम्मेण थोवं पि ॥६७॥ हरिसियहियओ तत्तो, वच्चइ गामंतरम्मि सो कुमरो । पुणरवि जंपइ मित्तं, किं मह वयणं पमाणं ति ॥८॥ सो आह कुमर ! कहमवि अहयं कुंढाण पावबुद्धीणं । . 2010_04 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णायरमंतिपुत्तकहा धम्मविरुद्धे वयणे लवमिव न करेमि वीसा ॥६९॥ सुणसु कहाणयमेगं कत्थ वि गामम्मि को वि पाविट्ठो । अह वुड्ढकामकुंढो निवसइ दुट्ठाण दिट्ठतो ॥७०॥ सो गामबहिप से पत्तलनग्गोह - रुक्खमूलम्मि । उच्चारं कुणइ सया विरुद्धसीलो महापावो ॥ ७१ ॥ जंगलगिद्धा गिद्धा आहिंडियविविहं पिउवणुद्दे । निच्चं वसति तत्थ य निसाइनग्गोहसिहरम्मि ॥७२॥ उव्वेइया य सव्वे आगच्छंतेण तत्थ कुंढेणं । निग्गोहसिरे एगो गिद्धो चिट्ठइ तहिं लुक्को ॥७३॥ तत्थागयस्स तस्स य पक्खनिहायं करितु अइभीमं । गिद्ध कोवसमिद्धो उच्चारं कुणइ सीसम्मि ॥७४॥ तं अनिमित्तं चित्ते, चिंतंतो मंदिरम्मि गच्छंतो । गहिओ महाजरेणं, जमदूणं वसो कुंढो ॥ ७५ ॥ कलिऊण मरणसमयं, नियपुत्ते भणइ मज्झ जइ सव्वं । भत्तिपरामहदेहं, मयस्स तो घोरगरलेण ॥७६॥ उवलिंपिऊण तत्तो, मुंचिज्जह वडतरुस्स मूलम्मि । इह भणिय मओ पावो, पुत्तेहिं वि तं तहा विहियं ॥७७॥ मिलिया निसाइगिद्धा भक्खता तं च वुड्ढगिद्धेण । भणिया करेह मा मा मए वि एयम्मि वीसासं ॥७८॥ तह विहु लुद्धा गिद्धा समकालं तस्स देहसंलग्गा । निय पाणेहिं वि चत्ता पढियं केणावि तं दठ्ठे ॥७९॥ उक्तं च न विश्वसे ग्रामकूटस्य जीवितोऽपि मृतस्य वा । एक गृध्रापराधेन सर्वे गृध्राः निपातिताः ॥८०॥ तो गामकुंढवयणे, अहयं न करेमि कह वि वीसासं । 2010_04 २२७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इयं जंपंता पत्ता, पुणरवि गामंतरं एगं ॥८१॥ तत्थ य पहाणबंभणमेगं पुच्छंति नियविसंवायं । . सो आह भुवणमझे, धम्मु च्चिय सयलसुहहेऊ ॥८२॥ एस गिही समणो वा मिच्छो चउवेयपारगो अहवा । इह जम्मे वि विसेसा, विविहा दीसंति धम्मेणं ॥८३॥ अवहीरिय तव्वयणो, गच्छंतो पुण वि जंपए कुमरो । धम्माहम्मेसु फुडं, मह साहसु कमवि दिलृतं ॥८४॥ रुद्रुण तेण भणियं, अप्पं चिय मुणसु पयडदिळेंतं । जं पावपरो रना पुराओ निव्वासिओ सहसा ॥८५॥ सो जंपइ जइ अहयं, पावपरो अणुहवेमि पावफलं । ता धम्मिओ वि तं पि हु सहेसि रे कीस दक्खाणि ? ॥८६॥ दइओ वि आह अहयं, दुहिओ तुह पावमित्तसंसग्गा । घणसारं पि विणिस्सइ, खित्तं गुलियाइकुंडम्मि ॥८७।। इय तग्गिराइ कुद्धो, को बंधो मच्चु जीह समवन्नं । आयड्ढिय निय छुरियं, पाडइ पुहवीइ तं पावो ॥८८।। उवविसइ कंठदेसे, जंपइ मन्नेसु मज्झ भणियमिणं । अन्नह इहेव सीसं लणेमि तह नलिणनालं व ॥८९॥ मंति सुओ निय नियमं सुमरिय जंपेइ पलयकाले वि । नाहं धम्मसरूवं, विरूद्धरुवं परूवेमि ॥१०॥ रज्जं रोरत्तं वा हवेउ मरणं व जीवियं अहवा । छिज्जंते वि हु सीसे धम्मं न करेमि अपमाणं ॥९१ ।। अंधो अरनमज्ञ सहिओ दक्खाणि विविहरूवाणि । इय चिंतिय सो पावो तन्नयणे हणिय गच्छेइ ॥१२॥ इयरो वि पुव्वदिठं सउंत कोलाहलेण अणुमिणियं । गच्छइ निग्गोहतलं बंधइ अच्छीसु तह पढें ॥१३॥ परिभावइ सो हियए नूनं बहिरंगनयणघाए वि । 2010_04 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णायरमंतिपुत्तकहा २२९ सम्मदंसणचक्खू तेण वि मह नेव अवहरियं ॥१४॥ जइ मह दंसणनयणं उव्वरियं मंसखंड-नयणेहिं । ता पत्थरेहिं चिंतारयणं संरक्खियं मन्ने ॥१५॥ इत्तो य रायपुत्तं अदिस्सवयणं वियाणिउं मित्तो। तद्दसणचायत्थं मन्ने खित्तंतरे पत्तो ॥९६॥ कलविंकबहलकलयलरवेण कलिऊण सो निसा समयं । ठविऊण निययहियए देवं संथुणइ महुरसरो ॥९७॥ जय दुरियदवानलसलिलवाह ! जय वयणविजियसुरसरिपवाह ! । दुहसायरपडियालंबवाह ।. जय रायविवज्जियरिसहनाह ॥९८॥ अह तत्थरणिरमणिमयनेउरकलसद्दमिलियकलहंसा । हंसीगइंदगमणा सुरतरूणिसमूहपरियरिया ॥९९।। आसन्नसरसरोरुहनिवहं गहिऊण नहयलुच्छंगे । गच्छंती वणदेवी, तस्स सरं सुणिय संपत्ता ॥१०॥ निय अवहि मुणिय तत्ता, जंपइ हे वच्छ ! तुज्झ महुरसरं । सोउं सकरुणहियया, इह पत्ता सुणसु मह वयणं ॥१०१ ।। जइ मह पडिमं काउं, पूयसि निच्चं पि भत्तिसंजुत्तो । तो तुज्झ नयणजुयलं, संपइ जच्छेमि संतुट्ठा ॥१०२॥ सो आह मज्झ देवो, सुरिंद-असुरिदविहियपयसेवो । अरिहा नमंसणिज्जो, पूएयव्वो य झायव्वो ॥१०३॥ अह रुट्ठा वणदेवी, जपइ पाविट्ठ ! रायपुत्तेण । हरियं लोयणजुयलं, हरेमि तुह संपयं सीसं ॥१०४॥ किं नवि मनसि वयणं उवयारपराय मज्झ देवीए । सिद्धंते वि सुराणं अभियोगो कह वि न निसिद्धो ॥१०५॥ सो आह चक्खुजुयलं गच्छउ सीसं पि पडिउ महिवढे । जीयं पि जाउ नाहं निय सम्मत्तं विमुंचेमि ॥१०६॥ अह सा जंपइ सुपुरिस ! निच्चलचित्तेण तुज्झ संतुट्ठा । 2010_04 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ओसहिवलयं एयं, अमोहवयणेण मह गिण्ह ॥ १०७ || एयस्स पिंडदाणा सत्थोवहया विरोहनिया वि । आजम्ममंधला वि हु पुणन वा जायए दिट्ठी ॥ १०८ ॥ ओसहिमाहप्पेणं तह तुह अन्नो वि को वि उवयारा । होहि त्ति जंपिऊणं तिरोहिया झत्ति वणदेवी ॥१०९ ॥ नियदंसणसंपुडेणं निम्मलनयणो तहिं जाओ ॥ ११० ॥ उव्वरियमोसहिं तं घित्तुं मग्गमि वच्च तत्तो । पत्तो य हत्थणाउरगोउरदारम्मि सो कमसो ॥ १११ ॥ तत्थ पडहमुहेणं सुणेइ आघोसणं जहा रनो । जम्मंधा सुयाए जो को वि हु सुद्धजाइ जुओ ॥ ११२ ॥ उग्घाडइ नयणजुयं राया तं चैव कन्नयं तस्स । दाउण अद्धरज्जं पसायपुव्वं पयच्छेइ ॥११३॥ सो पडहो भमडंतो चउक्क-तिय- चच्चराइठाणेसु । बहुहि विदिवसेहिं पुव्वं केणा वि न हु छित्तो ॥ ११४ ॥ पत्रायरमंतिसुओ तद्दिणपत्तो वि छिवइ तं पडहं । नीओ य रायपासे रायाइट्ठेहि पुरिसेहिं ॥ ११५ ॥ विन्नवइ सो विसामि इय तुह कन्नं सज्जनयणसंपन्नं । सज्जं करेमि जइ मह उप्पायिसि पच्चयं कमवि ॥ ११६ ॥ वुड्ढेणममच्चेणं एगेणं तस्स सवणमूलम्मि । सणियं भणियं राया सो मयरद्धओ नाम ॥११७॥ निरवच्चो निच्चं पि हु पुव्विं पूएइ विविहसुरनिवहं । यच्छइ सुपत्तदाणं गच्छइ वेयालभूमीसु ॥११८॥ कालक्मेण रनो जम्मंधा पवररूपरूवसंपन्ना । कंचणमाला नामा कन्ना एगा समुप्पन्ना ॥ ११९ ॥ तो सुपुरिस नरवणो इमाए धूयाए पाणभूयाए । उग्घाडिऊण नयणे लहेसि मणवंछियं सव्वं ॥ १२० ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णायरमंतिपुत्तकहा तत्तो हिट्ठचित्तो मंतिसुओ मंडलाइवित्थारं । काऊण दिणतिगेणं नयणाणि करेइ सज्जाणि ॥ १२१ ॥ विम्हियाहियओ राया सुयाए संतत्थहरिणनयनाए । पन्नायरेण कारइ वीवाहमहूसवं रम्मं ॥ १२२ ॥ सो लद्धअद्धरज्जो कंचणमालाए विसयसोक्खाणि । अणुहव रयणनिम्मिय पासायसिरिं समारूढो ॥१२३॥ मंतीण दिन सिक्खो जीयं मयरद्धओ वि कालेणं । परिहरइ तओ पच्छा मंतीहिं इमो कओ राया ॥ १२४ ॥ सो तत्थ नियं नाम नयनाणं दुत्ति कहिय लोयाणं । निरवज्जं रज्जं सुहं भुंजइ नरविंद - परियरिओ ॥१२५॥ सो देइ विविहदेसे, संतरियाण रायपुत्ताणं । कारइ वरसम्माणं, संभासं कुणइ सयमेव ॥ १२६ ॥ इत्तो य मित्तनयणे, पहारदाणं करितु सो पावो । पाविट्ठपढमलीहो, सीहोपरि हिंडए वसुहं ॥ १२७॥ जो सेवइ सो राया मरेइ अहवा हवेइ गयरज्जो । देसम्म जत्थ वच्चइ दुब्भिक्खं जायए तत्थ ॥१२८॥ देहम्मि तस्स लग्गा पामा सुमिणे वि नेव वररामा । केण य हयस्स कहमवि मुहम्मि बोलो न तंबोलो ॥१२९ ॥ कडिकप्पडावसेसो सिरम्मि चुप्पडविवज्जिओ निच्चं । सोऊण रायकित्तिं संपत्तो गजपुरे तत्थ ॥१३०॥ दूराउ पावपूरं पच्चक्खं आहिवाहिसंदोहं । पडिहारभूमिपत्तं नियमित्तं पिच्छए राया ॥ १३१ ॥ तं तह दठ्ठे जाओ सोगग्गयसलिलपुन्नगलनालो । मित्सु अमित्तेसु वि गरुयाण मणो अहो महुरं ॥ १३२ ॥ तं दिट्ठमित्त-मित्तं राया पेसित्तु पेससमूहं । कारइ सिणाणमहं परिहावइ दिव्वनेवत्थं ॥ १३३ ॥ 2010_04 २३१ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं नरनाहपसाएणं मणिनिम्मियभवणसिहरमारूढो । वारविलयाहि सद्धिं सच्छंदं विलसए एसो ॥१३४॥ अह अनया य रना एसो संभासिऊण एगंते । भणिओ ममं वियाणसि सुपुरिस ! परिचयविसेसेण ॥१३५॥ सो आह नाह ! तुमयं नाहं चिय केवलो वियाणेमि । किंतु हरिणकनिम्मलकित्तिभरं जाणए सव्वो ॥१३६॥ परिचयविसेसपिसणे परमत्थं नेव कहवि बुज्झेमि । गरुयाण महवचित्तं को नाम वियाणए तुच्छो ? ॥१३७॥ नयणाणंदो राया जंपइ हे मित्त ! एत्थ जम्मे वि । धम्मो य अहम्मो वा मणवंछिय दायगो कहसु ॥१३८॥ सो सुमरिय नियकम्मो संकिय हियओ वि चिंतए चित्ते । नूणं सो मह वेरी मारिस्सइ संपयं एसो ॥१३९॥ पुणरवि रवा भणिओ मा हु वियप्पं करेसु हे मित्त ! । तुह पडिबोहनिमित्तं सुमरणमेयं मए विहियं ॥१४०॥ अज्जवि न किंपि नठं धम्म पडिवज्ज सुद्धचित्तेण । इयलोय-पारलोइय-सुहाणि जइ महसि सव्वाणि ॥१४१ ।। एसो राया एसं मनइ आयारसंवरं तइया । काऊण नियय भुवणे गच्छइ वीसज्जिओ रना ॥१४२।। अलिउल-कज्जल-कुवलय-सिहिगलसमतिमिर-निब्भर-निसाए । देसंतरम्मि एसो वच्चइ नियकम्मसंतत्थो ॥१४३॥ भुवणं पि अप्पसरिसं पायं पिच्छंति तुच्छबुद्धीओ । संखं पि पीयवनं कामलनयणो नियच्छेइ ॥१४४॥ सर-गिरि-काणण-देसंतरेसु विविहेसु निययपुरिसेहिं । सव्वत्थ गवेसावइ राया सोयाउरो मित्तं ॥१४५॥ नियमित्तमपिच्छंतो पच्छा निच्छइ य वत्थुपरमत्थो । कारइ अमारिघोसं, निम्मावइ बिंबलक्खाणि ॥१४६॥ 2010_04 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णायरमंतिपुत्तकहा २३३ रहजत्ता चिय विविहा उज्जुत्तो कारवेइ नियनयरे । सम्मं गिहत्थधम्मं, परिपालइ सयलमेयं पि ॥१४७।। अंते समाहिमरणं, आराहिय पंचमम्मि कप्पम्मि । उप्पनो सो तियसो, तओ चुओ पाविही मुक्खं ॥१४८॥ पन्नायरेण सम्म सम्मत्तं पालियं जहा सुद्धं । तह चेव पालियव्वं अन्नेहि वि मुक्खकंखीहिं ॥१४९॥ इति सम्यक्त्वे प्रज्ञाकरमंत्रिपुत्रकथानकं समाप्तं ॥ तह सिवसुक्खं सम्मं, समीहमाणेहिं जाणियव्वाणि । गिहिणो वयाणि बारस इमाणि तह पालिणिज्जाणि ॥१५०॥ पाणीवह-मुसावाए-अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव । दिसि-भोग-दंड-समइय-देसे तह पोसह-विभागे ॥१५१॥ तत्थ विजह पव्वयाण मेरू, सयंभुरमणो य सयलजलहीणं । तह जीवदयाधम्मो, पवरो धम्माण सव्वाणं ॥१५२॥ खणमित्तमुक्खकज्जे, जीवे निहणंति जे महामुढा । हरिचंदणवणसंडं दहति ते छारकज्जम्मि ॥१५३।। जो जीवदयारहिओ, मूढो अन्नं करेइ इहधम्मं । आरूहइ छिनकनं, सो खर-मेरावणं मुत्तं ॥१५४।। जो अप्पसमं भुवणं, मन्नइ संपुनपुनकारुण्णो । मन्निज्जइ परमप्पा सो पुरिसो तिहुवणेणावि ॥१५५।। जो पुण अमारिघोसं, कारइ राया नियम्मि देसम्मि । निय जसकरिणो पुरओ पडहं सो भामए भुवणे ।।१५६॥ धणदाणेणं कित्ती सा कित्ती मग्गणाण मज्झम्मि ।। जा अभयदाण-कित्ती सा कित्ती तियणे सयले ॥१५७।। जो जलहिबिंदुमाणं, जाणइ गयणम्मि रिक्खपरिमाणं । सो अभयदानपुत्रं, संपुत्रं वन्नए कह वि ॥१५८।। 2010_04 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तम्हा जीवदयाए सिवसुहकंखीहिं उज्जमो कज्जो । इह अत्थे आहरणं कुमरो संगामसूरु त्ति ॥१५९॥ जीवदया उवरी-संगामसूरकहाणयंजंबुद्दीवे दीवे भारहवासम्मि पउमिणी संडं । नामेणं वरनयरं, निज्जियसुरनयरवरसोहं ॥१६०॥ मणिभवणकिरणनिहिए, निसा विभागम्मि जस्स सरसीसु । चक्काइमिहुणचक्कं, न सहइ कइया वि विरहदुहं ॥१६१ ।। तम्मि नयरम्मि राया, नियजसकप्पूरछुरियदिसिचक्को । निरवज्ज रज्जसुहं, भुंजइ सिरिसूरसेणु त्ति ॥१६२॥ संगामसूरनामो, तस्स नरिंदस्स आसि अंगरुहो । मिगकुलअकालमच्चु, दिळंतो सूरकूराणं ॥१६३॥ आहेडय निरएणं संगहिया विस्सकट्ठणो तेण । अइबलिणो दुद्धरिसा सिंधुतुरक्काइदेसभवा ॥१६४॥ . सो भणिओ नरवइणा विविहेहिं सामभेयवयणेहिं । को वच्छ ! तुच्छ कज्जे जीवे निहणेइ निद्दोसो ॥१६५॥ जंतुखयं तुह हत्था अविहत्था भीयजीव-घायम्मि । तुमए सरणं खत्तियपुत्त त्ति निकितिया कित्ती ॥१६६॥ उवएसमवगणितो रना रुठेण सो महापावो ।। नयराओ झत्ति बाहिं विहिओ तह निययहिययाओ ॥१६७॥ निसिपच्छिमम्मि जामे सिज्जं मुत्तूण सुहडपरियरिओ। सो सुणए चित्तूणं, वच्चइ निच्चं अरनम्मि ॥१६८॥ सो पुरिससारमेओ, अनदिणे सारमेयसंघायं । मुत्तुं गिहम्मि वच्चइ, कज्जवसा अन्नगामम्मि ॥१६९।। संगामसूरमंदिरआसन्नगिहम्मि अवहिसंपन्ना । सिरिसीलंधरगुरुणो सुयकेवलिणो तहिं पत्तो ॥१७०॥ परमं तत्तुवयारं नियवयणेणं वियाणिउं गुरुणो । 2010_04 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगामसूरकहा २३५ वक्खाणंति पढंति य एयं सिद्धंतपरमत्थं ॥१७१ ।। तथाहि जे अइया जे य पडुप्पना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो सव्वे ते एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पनविंति एवं परुविंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हिंसेयव्वा न परिघेत्तव्वा न अज्जावेयव्वा एस खलु धम्मे निए सासए समिच्चलोयं खित्तनेहि पवेइयं ।' (आचा० ४,१) तहाकिं ताए पढियाए पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्तियं न नायं परस्स पीडा न कायव्वा ।।१७२।। तहा-. महारंभयाए महापरिग्गयाए कुणिमाहारेणं पंचेंदियवहेणं जीवा, नेरइएसु उववज्जंति त्ति ॥१७३।। दढलोहसंकलाहिं, संकलियाविस्स कट्ठणो ते वि तं सिद्धंत-रहस्सं, मुणंति नित्तंभियस्स मणा ॥१७४।। चितंति सारमेया हाहा अम्हेहि मोहमूढेहिं । परकज्जकए अप्पा निरए पावासु ओविहिओ ॥१७५॥ निच्चंपि सुणताणं सुणयाणं ताण माणसं धणियं । वज्जेइ जीवघायं, गुरुप्पसाया न किं हवइ ? ॥१७६॥ अवरदिवसम्मि कुमरो, आगयमित्तो वि सारमेयकुलं । घित्तूण जाइ अडविं आहेडयवसणसंतत्तो ।।१७७।। उद्दिसिय हरिणजुहं तो मुक्का तेण सारमेयं ते । पयमित्तं पि हु ताहे न दिति गुरुवयण-संकलिया ॥१७८। निच्चलनिरुद्धवयणा, टंकिय घडिय व्व चित्तलिहिय व्व कुमरेण पिल्लिया वि हु हरिणउले नेव गच्छंति ॥१७९॥ आपुट्ठो घरपुरिसो किं नवि विसरंति अज्ज मह सुणया सो भणइ देव ! नेव य विसेसहेउं वियाणेमि ॥१८०॥ 2010_04 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं एयं तु अहं मन्ने, आसनगिहम्मि अमियनिसंदं । गुरुणो पढंति धम्मं, जीवदयालक्खणं सम्मं ॥१८१॥ सोऊण इमं कुमरो सहसा संवेगवेगहयमोहो । चिंतइ अहो अणप्पं, गुरुवएसाण माहप्पं ॥१८२॥ हा हा अहयं पावो, नियकुलमज्जाय वज्जिओणज्जो। जाओ रसायलमूले, एयं पुरिसत्तणं मज्झ ॥१८३।। नूनं विवेयवंता, एए गुरुवयणगहियपरमत्था । न वि हुंति सारमेया, किंतु अहं सारमेउ त्ति ॥१८४॥ इच्चाइ चिंतिऊणं, संकलबंधाउ मिल्लिउं भणइ । जइ तुज्झे पडिबुद्धा, वच्चह सूरिपासम्मि ॥१८५॥ सव्वे वि सारमेया चलिया पत्ता य सूरिपयमूले । कमरो वि कोउगेणं परिवारजुओ तहिं पत्तो ॥१८६॥ सम्म सम्मत्ताईधम्मं साहिति सूरिणो तस्स । सो वि पयंपइ भयवं, तुमए सह सारमेयाए ॥१८७॥ एयाण मोहसंकलबंधं तह लोहसंकलाबंधं । छिंदित्तु धम्ममग्गो पयासिओ सयलसुहजणओ ॥१८८।। तुह पुरुओ मह सम्म सम्मत्तं होउ तह य निद्दोस । न हणेमि सयं जीवं थूलं संकप्पियं सव्वं ॥१८९।। अइभारसमारोवण-वह-बंधण-भत्त-पाणवुच्छेया । तह चेव छविच्छेओ अइयारा पंच पढमवए ॥१९०॥ इअ अइयारविमुक्कं सह पढमवएण गहिय संमत्तं । कयकिच्चं पिव अप्पं मनंतो सो गओ सगिहं ॥१९१ ।। सव्वे वि सारमेया बंधणमुक्का कुमारपासाए । तेरिच्छ-जाइ-उचियं नियमं कुव्वंति चिटुंता ॥१९२॥ राया विम्हिय-हियओ, विरयं नाऊण जीवघायाओ । जुवरायपए कुमरं ठावइ सम्माणणापुव्वं ॥१९३ ।। 2010_04 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगामसूरकहा २३७ मुणि-मुह-पंकयनिग्गय-वाणी-मयरंद-पाण-दुल्ललिओ । सो पत्त साहुवाओ, गिहिधम्म पालए सम्मं ॥१९४॥ अह अनया य पत्तो, जलनिहि-ववहारगहियबहुदव्वो । नामेण मित्तसारो, कुमारमित्तो तहिं नयरे ॥१९५॥ सो राय-पाय-दरिसण-पुव्वं पत्ता कुमारपासाए । पणओ पसायपुव्वं निवेसिओ निवसमीवम्मि ॥१९६॥ पुट्ठो कहापसंगे जलनिहिदीवेसु किं पि अच्छेरं । दिठं सुयं व तुमए अच्छेरजुओ जओ जलही ॥१९७|| विनवइ सो वि सामिय ! निसामियं जं जणेइ रणरणयं । तं तुज्झ कोउहल्लं, कहेमि निसुणेसु एगमणो ॥१९८॥ गयणयणमिलिय-कल्लोलमज्झवियसंतमच्छदुप्पिच्छो । लच्छीकडक्खसच्छहलसंतडिंडीरपरिल्लो ॥१९९॥ हरिहियए सरि-अहरारूणविद्दुमवल्लिगुंफिया लोओ । जलही-अदिट्ठपारो, दिट्ठो संसार-सारिच्छो ॥२००॥ लंघति तं पि वहणाणि मज्झ पुण्णोह पिल्लियाणि व्वे । तडमुक्कविविहदीवतराणि पत्ताणि दरम्मि ॥२०१।। अह अभंलिहसिहरो एगो सिहरी पलोइडं तत्थ । पुण महण कए खित्तो तियसेहिं मंदरगिरि व्व ॥२०२॥ सिहरस्स तस्स सिहरे साहासयरुद्धनहयलविहाओ । अंतरियतरणिताओ कप्पतरू पिच्छिओ एगो ॥२०३॥ सालासु तस्स दोलिरमणिमयपल्लंकअंकमारूढा । पंकयकेसरगोरी जियरंभारूवसव्वस्सा ॥२०४॥ नियदेहदित्तिलहरीकयदिसिसिंदूरपूरसीमंता । सीमंतिणीसु तिलया तिलयचउद्दसय-आभारणा ॥२०५॥ आभारणमऊहेहिं दिसिदिसि विलसंतएहि रेहती । रेहंतपत्तजुव्वणविहिया रत्तियवयार व्व ॥२०६॥ ___ 2010_04 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दिट्ठा, अदिट्ठपुव्वावरवीणं कलियललियघाएहिं । वायंती गायंती कलकंठी कंठसमकंठा ।।२०७॥ जावम्हाणं वहणं पत्तं तिस्सा समीवदेसम्मि । ताव सहस त्ति वुड्डा तेण समं कप्परुक्खेण ॥२०८।। तो हं हियसव्वसो ववगयजीउ व्व जाव चिट्ठामि । ता किं करेहिं भणिओ किं सामिय ! कुणसि मणखेयं ॥२०९।। एसा दिव्वा तरूणी दिव्वं गाएइ सव्वया गेयं । दठ्ठण मणुयलोयं इह लुक्कइ विहिय लज्ज व्व ॥२१०॥ दीवतरम्मि गंतुं इह पत्तो कुमर ! किंतु सव्वत्थ । हिडतेण वि न मए, एरिसमच्चुब्भुयं दिलृ ।।२११॥ सोऊण इमं कुमरो कोऊहलतरलमाणसो धणियं ।। पण पुराविय वहणे चलिओ नियमित्तसंजुत्तो ॥२१२।। पडिसिद्धो वि हु रना कन्ना दंसणसमूसुओ कमुरो । न नियत्तो पत्तो उण जलनिहिमज्झम्मि दिवसेहिं ॥२१३॥ समयंतरम्मि दिट्ठा सिरिया सिरिवच्छलंछणेणं च ।। सा निययजणयभवणे पत्ता लच्छि व्व पच्चक्खा ॥२१४॥ सा दठ्ठण कुमारं मारं रूवंतरेण पत्तं व । पिच्छंती सवियारं आयड्ढंति व्व निब्बुड्डा ॥२१५॥ जय तियसरमणिकुलभवणलवणजलरासि नासिय दरिद्द ! । सुत्थियदेवाहिट्ठिय दुत्थियसाहार देसु पियं ॥२१६॥ इय जंपिरो कुमारो वारिज्जतो निययमित्तेण । करकलिय निसियखग्गो, बुड्ढो तप्पिट्ठओ सहसा ॥२१७॥ खणमित्तेण य हिट्ठा पिच्छइ चउपासभिन्नकल्लोलं । जलंकतमणिविणिम्मियमेगं पासायमइरम्मं ॥२१८।। उवरिमतलम्मि पडिओ सो चिंतइ उत्तमस्स चित्तं व । जडसंगेण न भिन्नं तम्मज्झ ठियं पि भवणमिणं ॥२१९॥ 2010_04 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगामसूरकहा - २३९ जत्तो जत्तो भवणस्स किरणलहरीओ लहलहायति । तत्तो तत्तो सयलं नासइ तिमिरेण सह सहसा ।।२२०॥ उवरितला अवयरिओ पिच्छइ तं चेव रयणपल्लंक । सुत्तं च तत्थ कनं आसिर-चरणंत-पावरियं ॥२२१॥ उच्छारिय पावरणं, तुसार-नियरं व कमलिणी-नाहो । कमलं च कमलिणी एसो पिच्छइ तीए मुहकमलं ॥२२२।। सा वि करफंसपाविय अउव्वसुहसज्झसा समुढेइ । सपुलयकचोलमूला तरंगतरलच्छिविच्छोहा ।।२२३ ।। साहसिय सुहय ! सागयमेवसंलाववाउलाबाला । सीहासणे निवेसिय पुच्छइ नामं च ठाणं च ॥२२४॥ सो आह अहं पुत्तो निवस्स सिरिसूरसेण नामस्स । संगामसूरनामो तुह दंसणलालसो पत्तो ॥२२५।। सा सहरिसा पयंपइ रहनेउरचक्कवालसामिस्स । दुहिया पसायसुहिया अहयं सिरिकणयवेगस्स ।।२२६॥ मणिमंजरि नामा मह वरवरकज्जम्मि राइणा पुट्ठो । नेमित्तिओ पयंपइ एसा जलहिम्मि कयभवणा ॥२२७॥ पव्वयसिहरे निच्चं वीणं वाएउ एयमणुकूलो । संगामसुरकुमरो झंपं दाऊण परिणेही ॥२२८।। तव्वयणेणं वीणं वायंतीए दिणाणि बहुयाणि । अइवाहियाणि इहइ संपइ कुमरो पमाणं ति ॥२२९।। अब्रुननेहभरनिब्भराण माला व वित्थरो ताण । जाव पयट्टइ ताव य जं संजायं तयं सुणसु ॥२३०॥ करकलियमंडलग्गो करालभालो तमालसमवण्णो । जीवंतकोलउंदिरमालालंकरियवच्छयलो ॥२३१ ।। छुहियस्स मज्झ भक्खं वंछसि वीवाहिउं इमं कन्नं । साहसमित्तसहाओ मरिहसि रे ! अज्ज निभंतं ॥२३२ ।। 2010_04 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० इय जंपिरो दुरप्पा तं बालं लुलुयतारतरलच्छिं । पावो पावपएसा संलग्गो रक्खसो गिलिउं ॥२३३॥ कुमरेण वि नियखग्गं उग्गामिय जाव आहओ गाढं । ता तस्स देहलग्गं खग्गं दो खंडयं जायं ॥२३४॥ कुमरो वि महाबाहु झत्ति निजुद्धेण जुज्झए जाव । ता तेण वि वालेउं सहसा बाहाउ सो बद्धो || २३५|| हा सवियासियदंतुरदंतो जंपेइ रक्खसो एसो । भो कुमार ! तुझ कनं मुएसि जइ देसि मह अनं ॥२३६॥ तुह सुहसुहिया संखा रहिया नयरम्मि संति दासीओ । तासिं दासिं घोरं एगं मह देसु छुहियस्स ॥ २३७॥ तह मह पडिमं काउं पूयसु निच्चं पि तोऽहमप्पिस्सं । तुह दइयं तह कज्जे सुमरियमित्तो समेइस्सं ॥ २३८॥ तं पइ जंप कुमरो नाहं जिणनाहपूयणं मुत्तुं । अवरसुरपूयणाई करेमि नियपाणचाए वि ॥२३९॥ तह निरयगमणमूलं, न करेमि न कारवेमि जीववहं । तुज्झ न वि जुत्तमेयं, भो रक्खस ! जाणमाणस्स ॥ २४० ॥ इत्थंतरम्मि कन्ना, रक्खसमाया वि जंपए एवं । सिरिपउमप्पहसामिचरियं हा नाह ! हा नाह ! रक्खसु रक्खसगहियं नियं दयं ॥ २४९ ॥ विरह-हुयासण-जालामालाहिंतो कुमार ! तुमए हं । जह रक्खिया तहेव य रक्खसु रक्खसमुहाहिंतो ॥ २४२ ॥ इय विलवंति रक्खो, ससंकबिंबं व सजलजलवाहो । तं गिलइ जाव कंठं पुण भणइ कुमारमुद्दिसिउं ॥ २४३ ॥ भो मूढ ! तुज्झ तत्तं एत्तिय मित्ते गएवि साहेमि । जइ मह न देसि दासिं तो एगं छगलियं देसु ॥ २४४॥ जइ पुण न मज्झ वयणं, करिहिसि तो हं गिलित्तु तुह दइयं । पच्छा तुमं गिलिस्सं मा भणिहिसि जं न कहियंति ॥ २४५ ॥ 2010_04 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगामसूरकहा २४१ कुमरो जंपइ रक्खस ! निय नियम नेव पलयकालो वि । भंजेमि किं लवावसि पुणरुत्तं बद्धचोरं व ॥२४६।। सो रक्खो पच्चक्खो देवो होऊण दिव्वमणिमउडो । भो साहु साहु ! सुपुरिस ! इय भणिरो हरइ सुरमायं ॥२४७।। निय नियमपरिच्चायं पाणच्चाए वि जे न कुव्वंति । साहसियसेहराणं ताण नमो धीर-पुरिसाणं ॥२४८॥ नयरं सयणा रज्जं चत्तं जीयं पि जीए कज्जम्मि । कज्जे वि तीए तुमए न हु नियमो खंडिओ कुमर ! ॥२४९॥ अवरे वि दिति झंप सुरा सीमंतिणीण कज्जम्मि । धम्मम्मि निच्चला पुण तुह सरिसा कुमर ! इह विरला ॥२५०॥ सक्को वि सुहम्माए तुज्झ गुणं थुणइ निययनियमाओ । संगामसूरकुमरं सुरा वि चालेउमसमत्था ॥२५१॥ हरिवयणमसह माणो अहमिह पत्तो य पवहणारूढं । जलहिम्मि तुमं दटुं, एयं चिंतेमि नियचित्ते ॥२५२।। जइया एसो कुमरो मयरद्धयबाणगोयरं गमिही । तइया मए परिक्खा कायव्वा सव्वसत्तीए ॥२५३।। पुरिसो तरुणी कज्जे कज्जमकज्जं च नेय चिंतेइ । इय तुह विवाहकाले, रक्खसरूवो अहं पत्तो ॥२५४॥ विवियपरिक्खो अहयं तुह तुट्ठो वरसु किंपि वरकज्जं । कुमरो जंपइ संपइ सुरवर ! कज्जं न मे अत्थि ॥२५५॥ गंधव्वविवाहेणं सुरेण वीवाहियाणि ते दुन्नि । आपुच्छियं च कुमरं सयं नियं ठाणमणुपत्तो ।।२५६॥ अह कुमरो मणिमंजरिसहिओ जलंकतमणिमए भवणे । कित्तिय दिणाणि चिट्ठइ पुज्जंता सेसभोगंगो ॥२५७॥ पनत्तिविज्जाए जाणावइ सा वि कुमरआगमणं । निय जणयं सो तत्तो संपत्तो मणिमए भवणे ॥२५८॥ 2010_04 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं बहुपरिवारजुएणं नेउं नयरम्मि पउमिणीसंडे । महया विच्छड्डेणं खयरेण पवेसिओ कुमरो ।।२५९।। राया वि सूरसेणो कुमरं रज्जम्मि ठावए तत्तो । पडिवज्जिय पव्वज्जं सकज्जकरणुज्जओ जाओ ॥२६०।। संगामसूरराया रज्जं पालेइ नीइमग्गेणं । कारइ अमारिघोसं निम्मावइ बिंबलक्खाणि ।।२६१॥ सम्मं गिहत्थधम्मं परिवालिय पंचमम्मि कप्पम्मि । उववनो चविओ पुण पाविस्सइ सासयं ठाणं ॥२६२॥ संगामसूररना संकडवडिएण पालिओ नियमो । जह तह पालियव्वो अवरेहिं मक्खकंखीहिं ॥२६३।। इति प्राणातिपातप्रथमव्रते जीवदयायां संग्रामसूरकथा ।गा. ३२६७॥ सच्चवये ललितंगकुमरकहासिद्धंतभणियतत्तं जाणिय सग्गापवग्गसुक्खत्थी । निच्चं सच्चं वयणं वएज्ज वयणिज्जया भीओ ॥२६४।। जस्स मुहे निच्चं चिय सव्वा निवसेइ भगवई वाणी । तस्स मुहं चिय कमलं कमलं पुण पंकनीसंदो ॥२६५॥ अलिएसु वि सच्चेसु वि लग्गइ मग्गेसु जस्स अणवरयं । तस्स वयणम्मि लोलाडमरुयलालाइयं वहइ ॥२६६॥ गंभीर-धीर-परिमिय-हियं च ललियं च पुव्वसंकलियं । भासं भासंति सया, जे पुरिसा ताण पणओ हं ॥२६७॥ तालउडं गरलाणं, जह बहु वाहीण खित्तओ वाही । दोसाणमसेसाणं तह अचिगिच्छो मुसादोसो ॥२६८|| लाउयबीयं एक्कं, नासइ भारं गुडस्स जह सहसा । तह गुणगणं विसालं, असच्चवयणं विणासेइ ॥२६९॥ वायसपयमिक्कं पि हु, सामुद्दियलक्खणाण लक्खं पि । अपमाणं कुणइ जहा, तह अलियं गुणगणं सयलं ॥२७०॥ 2010_04 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा जह निम्मलजलपंतिं मिलिओ इक्को वि नासए मच्छो । तह बहुगुणसमवायं मिच्छादोसो विणासेइ || २७१ ।। पढमं गुणाण पवरं वित्राणं तम्मि वयणविनासो । वयणे सच्चा भासा तीए वि सिद्धंतभणियाणि ॥ २७२ ॥ अत्रेण वि अलिएणं दुग्गइगमणं जिणेहि पन्नत्तं । तो किह कुणंतु विउसा असुद्धसिद्धंतदेसणयं ॥ २७३॥ निच्च पि सच्चवाई चे पुरिसा ताण सच्चमाहप्पा | उगच्छइ आइच्चो मेरं जलही न मुंचेइ ॥ २७४॥ दीणसरा हीणसरा मुक्खा मूया अगिज्झ वयणा य । दुग्गंधमुहापुरिसा हवंति अलियप्पभावेण ॥ २७५॥ दुदुहि हिरघोसो कयजणतोसा सुगंधिनी सासा । तिहुयणसम्मयभासा परिसा सच्चप्पसाएण ॥ २७६ ॥ गोकन्नावणिविसयं नासवहारं च कूडसक्खिज्जं । वज्जिज्ज पंचभेयं अलियं ललियंगराय व्व ॥ २७७॥ रयणविहारवन्नं मणिमयपायारकिरणहयतिमिरं । · इह अत्थि पुरसमत्थं रयणाउर नाम वरनयरं ॥२७८॥ चंदोवल निम्मविया रेहइ कविसीसमालिया जत्थ । पुरसिरियलोयणत्थं ससिविहिया रूवकोडि व्व ॥२७९॥ तं परिपालइ नयरं तिहुयणजंघालकित्ति पब्भारो । भुयधरियं धरणिभारो ललियंगो नाम नरनाहो ॥ २८० ॥ दुहियजण जाणणत्थं पुरम्मि करवालमित्तपरिवारो । सीहु व्व निसीहेसुं साहसिओ सो सया भमइ ॥ २८१॥ तस्संतेउरसारो निज्जिय रइरूवसव्व सव्वस्सा | लीलावई सुरयणं देवी लीलावई नाम ||२८२ ।। सा सिंगारनिमित्तं देवी दिवसम्मि जामसेसम्म । दासि - परिवारवरिया, जालगवक्खे समुवविट्ठा ॥ २८३ ॥ 2010_04 २४३ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं भोगंगसाहणाई साहितं गंधकारियावग्गं । सम्माणंती सुसिणिद्धदिट्ठिदाणप्पसाएण ॥२८४॥ अग्घायंती कोमलकरकलियं गंधबंधुरं कमलं ।। हिट्ठा मग्गाभिमुहं खिवमाणी अंतरादिठिं ॥२८५।। जा चिट्ठइ ता तीसे सहस च्चिय दिट्ठिगोयरे पडिया । मज्झिम वयदेसीया रमणी रमणीय रूवधरा ॥२८६॥ उइंडदंडलट्ठी लउडयहत्थेहिं किंकरगणेहिं । अइदीणा निज्जती वाहसमुहेहिं हरिणी व्व ॥२८७।। आ पावे अम्हेहिं बहुयं तुह दइयमंदिरे निसुयं । तं कस्स घरे दिव्वं सव्वं चिय खिवसु पक्खित्तं ॥२८८॥ पाविट्ठि ! तुम मुच्चसि जइ अप्पसि नियनिहाणठाणाणि । अनह गुत्तिहरि च्चिय कुहिया मरिहेसि निब्भंतं ।।२८९।। इय पंचउलनरेहिं कन्ने होऊण पत्रविज्जती । वाहजलाविलनयणा सम्मं मग्गं अपिच्छंती ॥२९०॥ तं तह दट्टुं देवी चिंतइ चित्तम्मि का इमा रमणी । कुट्ठारधरणगेसुं, खिप्पइ केणावराहेण ॥२९१॥ अहहा मरइ वराई, पडिया पावाण विसयमेएसिं । छुह-दुह-करालियाणं, सीह-किसोराण सुरहि व्व ॥२९२॥ इय भावपरवसाए, करुणारस-सिढिल-सयल-देहाए । देवीए करयलाउ, कमलं तिस्सा सिरे पडियं ॥२९३॥ तीए वि उद्धमुहीए, पडियाए दुरंत-वसण-जलहिम्मि । नियड-तडभूमि-सरिसा, दिट्ठा लीलावई देवी ॥२९४॥ अनुन्न-दिट्ठि-मिलणे, दासिं संपेहिऊण देवीए । सा वलिया दीणमणा, आणविया नियय पासम्मि ॥२९५॥ दासिमुहेण किंकरपुरिसा, पुच्छाविया य देवीए । रे रे किं कज्जमिमासु, होइ या पाविया दुक्खं ॥२९६।। 2010_04 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा तेहिं भणियं च देवी, पुरओ वित्तिय इमं करह । अज्ज इमीए भत्ता, निस्संताणो विविन्नति ॥ २९७॥ तस्स य दव्वं सव्वं, पि धुत्तचरियाए धिट्ठ - हिययाए । भुयवलि व्व इमीए दिसोदिसं कहवि पक्खित्तं ॥२९८॥ सिरि करणिय आएसा एसा कुट्ठारमज्झयारम्मि । पक्खिवणिज्जा संपइ देवी वयणं पमाणं ति ॥ २९९ ॥ मारूयसु तुमं अबले ! बलमहयं चेव तुज्झ इय बहुलं । आसासिय देवीए विनत्तिं सा वि कारविया ॥ ३००॥ तहाहि देवि ! इहेव य नयरे सिट्ठी निवसइ विसिट्ठजणतिलओ । धण- वित्थारविणिज्जिय धणओ नामेण धमित्तो ||३०१ ॥ तस् य पाणपिया हं धणस्सिरी नवरि कीविणलच्छि व्व । भावरहिय व्व किरिया, उच्छुलट्ठि व्व फलरहिया ॥ ३०२ ॥ पिययमपसायसुहिया सारं सज्जेमि अंगसिंगारं । किमिलाउहला तुज्झे इय समयवियाउरी निंदे ॥ ३०३॥ पुत्तत्थे न हु कइया कलिमलपक्खालिणी मए विहिया तित्थंकराण पूया न पत्तदाणं मए दिनं ||३०४ || तिव्वं तवो न चिन्नं न या वि आराहिया सकुलदेवी । जाणग जोइसिया विहु न य पुट्ठा पुत्तकज्जम्मि ||३०५॥ एमेव लडह - लायन - गव्व-वाएण लहलहंतीए । डिमासु-सुरालय - धय- सरिसाए गओ कालो ||३०६ ॥ अह अवरवासरे मह पइणो सिर- वेयणा समुब्भूया । ती नट्ठा निद्दा ववगय- पुन्नस्स लच्छि व्व ॥३०७॥ झत्ति सक्कियहियओ सुयरहिओ चिंतए यधमत् । को मह जिणबिंबाणं सया वि पुज्जं विणिम्मविही ॥ ३०८ ॥ मह माया मह भइणी मह दइया रायलोय लुप्पंती । 2010_04 २४५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सिरिपउमप्पहसामिचरिय को रक्खिस्सई इण्हिं नियकुलकेउं विणा पुत्तं ॥३०९।। चउरगं पि चिगिच्छं पडिच्छमाणो वि विज्जवयणेहिं । रागे पगरिसपत्ते पत्तो एसो वि पंचत्तं ॥३१०॥ धणमित्तस्स य माया तह भइणी झ त्ति भइणिजायाणि । नठाणि जीवनासं नरवइनरघायभीयाणि ॥३११॥ अहयं हियसव्वस्सा ववगयजीव व्व मुच्छिया जाव । चिट्ठामि ताव सयणा पंचउलनरेहिं सह पत्ता ॥३१२॥ तेहिं वि हिरण्णकोडीउ सत्तसंखाउ तहय अनं पि । सयणासणवसणाई कीलिय पज्जंतयं लिहियं ॥३१३॥ मुच्छा मिलियच्छि पुरा मं पिच्छिय ते वयंति सच्छंदं । रे रे पुच्छह एयं गिहिवइ भज्ज निहाणाणि ॥३१४॥ इत्थंतरम्मि दुसहदुहकोडिकडक्खिया महा पावा । दिव्वोवहया अहयं सचेयणा तक्खणा जाया ॥३१५॥ भणिया तेहिं निहाणे कहेसु दंसेसु नियय पइ जणणिं । तुमए च्चिय नियलोओ सहसा अपवाहिओ सव्वो ॥३१६।। पडिउत्तरमकरिती जमभडसरिसेहिं तेहिं पुरिसेहिं । मंतिस्स समाएसा एत्थ पएसे समाणीया ॥३१७|| किं चपईमरणं धणनासो तणयाभावो सुदीहरं जीयं । एएहिं असंतुट्ठो धिट्ठविही देउ धरणं पि ॥३१८॥ इच्चाइ सप्पवंचं पवंचिउं सा वि देवि पयपुरओ । हा नाह नाह ! भणिरी विलवई उच्चेहिं सद्देहिं ॥३१९॥ सोऊण इमं देवी चिंतइ अहहा निवाण निक्किवया । जे इत्थं निव्वीराधणे वि लोहं पकुव्वंति ॥३२०॥ सुकं दाणी दंडो, भोगो भागो करो य तह विट्ठी । एएहिं असंतुट्ठा, अहो निवालिंति तीए धणं ॥३२१॥ 2010_04 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा नरनाह-कित्ति-काणण-तक्खण-भंजण-पभंजणायंति । निव्वीरामुहसंभवदीहरउण्हुण्हनीसासा ॥३२२॥ रनो पयाव-जलणं, पवड्ढमाणं पि झ त्ति विज्झवइ । निव्वीरा नयणोदयधारा धाराहरसरिच्छा ॥३२३॥ रनो दक्खिनदया, पमुक्खगुणलक्खलक्खणं सम्म । निव्वीरानित्तजलं, चित्तासलिलं व निद्दहइ ॥३२४॥ जइया राया आयं, पिच्छइ वरिसस्स जाणए तइया । एत्तियमित्तावरिसे, मया अपुत्ता धणं च इमं ॥३२५॥ झाणेण इमेणं चिय, निस्संताणं परं समीहंता । पाएण भूमिनाहा, निस्संताणा वि वज्जति ॥३२६॥ एएणं चिय पावेण सत्थपरमत्थवेइणो य विबुहा । वज्रति इमं रज्जं पज्जंते निरयहेउ त्ति ॥३२७॥ इत्तो य तत्थ सव्वं जणसमवायं विसज्जिउं राया । संपत्तो विनत्तो सप्पणयं पट्टदेवीए ॥३२८।। मुलाउ च्चिय सामिय चइउं उचियं अपुत्तिया विभवं । अह भणिहसि बहु आय एयं मुत्तुं न सक्केमि ॥३२९।। तह वि इमा धणसहिया धणस्सिरी मज्झ भइणि अब्भहिया । निव्वीरा धीरविउं मिल्लेयव्वा पसाएण ॥३३०॥ राया वि देवि-वयणं पडिवज्जिय धणसिरि समाइसइ । निच्चिंता नियपइणो करेसु परलोयकज्जाणि ॥३३१ ।। तह दव्वं तुह सव्वं मुक्कंति नराहिवस्स आएसा । सा गंतुं निय पइणो करेइ परलोयकज्जाणि ॥३३२।। अह लीलावई देवी अद्धनिवुड्डम्मि सुरबिंबम्मि । जिणबिंबं पूइत्ता सज्जित्ता सारसिंगारं ॥३३३॥ निय पासाए सुरसरिपुलिनविसाले अमुल्लपल्लंके । जा चिट्ठइ ता तीसे चित्तम्मि चमक्कियं एयं ॥३३४॥ 2010_04 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पिच्छह अइविच्छिण्णं पत्ताणत्थं धणस्सिरी एसा । नियवंसवंसमुत्तियमणिसारिच्छं विणा पुत्तं ॥३३५॥ मा जीवउ घडियं पि हु घडंत अइतिक्खदुक्खपत्थारी । नारी नियकुलनहयलससंकसरिसं विणा पुत्तं ॥३३६॥ अहमवि धणसिरिसरिसा जइ न जइस्सं कहिं पि पुत्तत्थे । ता किं करेमि किंवा पुच्छेमि उवायमणवायं ॥३३७॥ एवं वियप्पमालाजले पडियाए तीए देवीए । चउजामा वि तिजामा जामसहस्सोवमा जाया ॥३३८॥ अह राया संपत्तो काउं उच्छंगसंगयं देविं । तं उवलालइ सुंदरि ! इत्तियमित्ता किमिह चिंता ॥३३९॥ किं असिवं तुह देहे गेहे वा तुज्झ अहव परिवारो । अवसो अहवा अहयं दिळं वा कुसुमिणं किं चि ॥३४०॥ अविरलगलंतनित्ता देवी जंपेइ न मह किंपि दुहं । एत्तियमित्तं दुमइ जं सुय-रहिया अहं नाह ! ॥३४१ ।। इय नीसाणसिला वि हु पाहणकप्पा वि मं सुहावेइ । जीए पुत्तपसिद्धी संपत्ता लोयमज्झम्मि ॥३४२ ॥ भन्नइ रना अइसाहु साहु ! जं पुत्तकज्जउज्जुत्ता । जाया सचिंतहियया सच्चं मह होसि दयइ त्ति ॥३४३।। इत्तियमित्तकालं चिंता मह आसि केवलस्सेव । संपइ तुज्झ वि चिंता संजाया तो इमं लट्ठं ॥३४४॥ तो उठेसु लहुं चिय करेसु भोयण-सिणाणपमुहाणि संपइ तहा जइस्सं वंछिय सिद्धी जहा हवइ ॥३४५।। इच्चाइ जंपिऊणं राया अत्थाणमंडवे पत्तो । देवी वि भुवणगुरुणो जिणस्स पुएइ पयकमलं ॥३४६॥ जाए पओससमए राया लीलावईय संजुत्तो । निवसियसियनेवच्छो महग्घमणिमुत्तियाहरणो ॥३४७॥ 2010_04 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा २४९ घणसारसारचंदणकालागुरु-कुसुमपडलहत्थेहिं । वरगंधतिल्लजालियदीवियहत्थेहिं पुरिसेहिं ॥३४८॥ परियरिओ संपत्तो नियकारिय रायलच्छिभवणम्मि । तीसे ण्हवण-विलेवण-पूयणपुव्वं थुणइ एवं ॥३४९॥ लहुया वि हुति गुरुणो जडा य विबुहा पसायओ जीसे । ते भुवणसिद्धकम्मणसरिसं सरिमो सिरि देविं ॥३५०॥ जइया सुतुठुहियया होउं मह देसि नंदणं तइया । भोयण-तंबोल-विहिं देवी सहिओ विहिस्सामि ॥३५१ ॥ इय निच्छयं पयंपिय राया नवदब्भसंथरे थक्को । मन्नतो वि व अप्पं मुक्कं कुससंथरे अं सुयं ॥३५२॥ अह दिणतिगपज्जते रहंगमिहुणाण दिणयरासंकं । जणयंती मणिनिम्मियविमाणउज्जोयनिवहेण ॥३५३।। कमलासणमासीणा पंकेरुहकलियललियभुयदंडा । मयगलजुयलेण तहा कलसकरेणं ण्हविज्जती ॥३५४।। जणपिच्छणिज्जरूवा होउं लच्छी भणेइ सच्छंदं । वरसु वरं निवपुंगव ! तुट्ठा तुह निच्छएणाह ॥३५५।। ललियंगनिवो तत्तो जंपइ तं देवि ! देसु मह तणयं । अह रायलच्छिदेवी सप्परिहासं भणइ एवं ॥३५६॥ जह रयणाण निहाणा मज्झ वसे संति भुवणमज्झत्था । तह जइ पुत्तनिहाणा हवंति तो देमि तुह पुत्तं ॥३५७|| इच्चाइ सपरिहासं जंपित्ता रायलच्छिदेवीए । पुत्तुप्पत्तिनिमित्तं, दिब्रो मुत्तामओ हारो ॥३५८॥ राया वि देविसहिओ, हरसियहियओ करित्तु पारणयं । देवी कंठे हार काउं, अणुहवइ विसयसुहं ॥३५९॥ उत्तमसुरभवणाओ, उत्तमजीवो चवित्तु आउ-खया । लीलावइ देवीए तइया कुच्छिम्मि अवइनो ।।३६०॥ 2010_04 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सिरिपउमप्पहसामिचरियं रयणं रोहणभूमि व्व पुनपब्भारमुत्तमतणु व्व । तद्दिणमारंभेउं सा गब्भं धारिउं लग्गा ॥३६१ ।। अह सुमुहुत्ते पुत्तो दिप्पंतो तम्मि सूइया भवणं । उप्पनो तक्कालं, ऊसिसिया भयवई पुहवी ॥३६२॥ सासावुरियवयणा, दोहिं पयोरेहिं खलियपयपसरा । रायं पियंगुलइया, वद्धावइ पुत्तजम्मेण ॥३६३॥ दाऊण परितोसियदाणं, तीए महूसवं काउं । चित्तंगओ त्ति नाम, दिनं रना कुमारस्स ॥३६४॥ बालत्तमइक्कतो, विज्जानिहिणो गुरुस्स पासम्मि । गिण्हइ कलाकलावं, जोव्वणसमएण सो कमसो ॥३६५।। समयंतरम्मि जाए, निसीहसमयम्मि सो महीनाहो । बाहु धरियग्गखग्गो, ललियंगो निग्गओ भवणा ॥३६६।। तम्मि पुरम्मि भमंतो, उच्चाणुच्चाइ विविहठाणेसु । राया सहायरहिओ, संसारिजीउ व्व संसारे ॥३६७॥ भवियव्वया निओगा, मणिमय-जिण-भवण-दार-देसम्मि । काउसग्गं मिलियं, पच्चक्खं मुक्खमग्गं व ॥३६८।। भत्तिब्भरनिब्भरेणं, वीणा-वायणपरेण असुरेणं । गाइज्जमाणचरियं, अमियगई नियइमुणिनाहं ॥३६९॥ __ (तिसृभिः विशेषकम्) काउं पयाहिणा तिगमा चिहुर नहंतरस्स रोमंचो । तं पणमिय मुणिनाहं, उवविट्ठो असुरपासम्मि ॥३७०॥ झाणं विसज्जिऊणं, पारद्धा धम्मदेसणा मुणिणा मोहंधयारहरणी, तरणी संसारसिंधुम्मि ॥३७१ ।। सो अवहिनाणजुत्तो मुणीसरो तेण पुच्छिओ रना । को एस सुरो भयवं तुह कमकमलम्मि भत्तिपरो ॥३७२॥ सो आह सुणसु नरवइ ! इह नयरे रयणकोडिपडिपुनो । नामेणं धणसारो आसी जणसम्मओ सिट्ठी ॥३७३।। . 2010_04 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा तेण गुरुणो सयासे बारस भेओ गिहत्थवरधम्मो । पडिवो बहुकालं सम्मं परिवालिओ तहया ॥ ३७४॥ समयंतरम्मि देसंतरिएणेगेण तस्स सिट्ठिस्स । पासे थवणीकज्जे मुक्को रयणाण नेहुलओ || ३७५।। आयारपुव्वं भणिओ सो सिट्ठी तेण देसियनरेण । अहयं तुह वीसत्थो सम्मं रक्खिज्ज मह वत्युं ॥ ३७६ ॥ इच्चाइ जंपिऊणं तम्मि गए तेण सिट्ठिणा तस्स । छोडेउं नेहुलओ निरूविओ कोउहल्लेण ॥३७७॥ दट्ठूणममुल्लाई, महप्पभावाणि पवररयणाणि । लोभगओ जत्तेणं, तं अप्पर सो सभज्जाए ॥ ३७८ ॥ वरिसंतरम्मि पत्तो, देसिय पुरिसो वि मग्गए वत्थं । रुट्ठेण तेण भणियं, किं भुल्लो झखसे एवं ॥३७९॥ साहित्राणं सव्वं, पभणंतो कूडबुद्धिणा सो वि । नियहट्टाओ वराओ, सहसा निक्कासिओ तेण ॥ ३८० ॥ जं जंपिउं न सक्का, जं च न सक्कंति चिंतिउं चित्ते । लीलाए तंपि पावं, पुरिसा कुव्वंति लोभहया ॥ ३८१ ॥ न गणंति धम्मनासं, न य जसनासं नया वि कुलनासं । लोभपरतंतचित्ता, रायविरुद्धं पि न गणयति ॥३८२॥ सो य गहिल्लो भूओ, झंखइ सव्वत्थ वणियवीहीसु । वाणियगा नेहुलगं, नेहुलगं देसु मह इहिं ॥ ३८३ ॥ अन्नदिणे सचिवेणं, दिट्ठो तं चेव पुण वि झंखतो । करुणा वत्रेण तओ, नीओ निययम्मि पासा ||३८४|| सव्वं तेण वि कहियं, मंतिसयासम्मि मंतिणा स्त्रो । नासो वि हु सिट्ठी, पुट्ठो न य मन्नए किंचि ॥३८५ ॥ रत्ना साहित्राणं, नेहुलगं पुच्छिऊण सो पुरिसों । ठविओ विचित्तदेसे, आसासिय निययपुरिसेहिं ॥ ३८६ ॥ 2010_04 २५१ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मासंतरम्मि सिट्ठी, पसायपुव्वं विससओ रना । भणिओ रमसु मए सह, पासयसारेहिं वरजूयं ॥३८७॥ सो य रमंतो रना, भणिओ सारेसुं किंपि नियवत्थु । सारेइ अंगुलेयं, निययं सो छोहिओ सेट्ठी ॥३८८॥ थइयावहस्स तत्तो, समप्पियं तंपि राइणा सो वि । कय संकेओ वच्चइ, पासे सिट्ठिस्स भज्जाए ॥३८९॥ सो भणइ सिट्ठिणो ते, संदिळं अंगुलेयमहिनाणं । घित्तुं अमुगागारं, नेहुलगमिमस्स अप्पेस् ॥३९०॥ अवह मज्झ अणत्थो, होही तो सा वि सरलसब्भावा । अप्पइ तं नेहुलगं, सो वि समप्पेइ नरवइणो ॥३९१ ।। रना सिट्ठिसमक्खं, मुत्तुं निय नेहुलाण मज्झम्मि । भणिओ देसिय पुरिसो, गिण्हसु निययं वियाणेउं ॥३९२॥ तेण वि नियनेहुलगो, गहिओ तो राइणा वि सो सिट्ठी । घरसारं घित्तूणं, मुक्को पाणेहिं कहकहवि ॥३९३॥ पच्छा पच्छायावं, करेइ सिट्ठी न मज्झ नियनियमो । जाओ नेव य रयणा, हा ! कह लुद्धो विगुत्तम्हि ॥३.९४।। पच्छायावेण तओ, मरिओ असुरो इमो समुप्पनो । जइ सम्मं आजम्मं, करिज्ज नियम तओ नियमा ॥३९५।। वेमाणिएसु देवो, हुज्ज इमो किंतु अन्ननियमेहिं । खंडिय सच्चवओ वि हु पत्तो असुरत्तणं एसो ॥३९६।। तो पुरिसेणं नियमा, गहियव्वा तहय पालियव्वा य । जावज्जीवं सम्मं, समीहमाणेण अप्पहियं ॥३९७॥ इच्चाइ सप्पवंचं, मुणिणा कहियं निसामिउं धम्मं । सम्म सम्मत्तजयं, दुइयं वयं गिण्हए राया ।।३९८।। अह महिनाहो मुणिणा भणिओ बिइयस्स नरवर वयस्स । तुमए वज्जेयव्वा पंच इमे निच्चमइयारा ॥३९९।। 2010_04 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा २५३ वीसत्थ-मंतभेओ मोसुवएसो य कूडलेहो वि । सहसा अब्भक्खाणं, तह गुज्झ-पयासणं चेव ।।४००॥ खामेइय तं असुरं भवंतरे तुज्झ संतियं दव्वं ।। सव्वं गहियं आसी सहियव्वो एस अवराहो ॥४०१।। कयकिच्चं पि व अप्पं मनंतो सो वि जाइ नियभवणे । समयंतरम्मि जायं जं अच्छेरं तयं सुणसु ॥४०२।। वासहर-सिहर-दीसंत-विरल-खीणप्पईवनिउरूंबे । निद्दा-मुद्दा-मुद्दिय-जण-नयण-कवाड-संपुडए ।।४०३।। पायाल-कलस-अंतर-समाण-सद्दोह-रहिय-रायपहे । सुव्वंत-तियस-मंदिर-रण-झणायंत-किंकिणी-सद्दो ।।४०४।। जाए निसीह-समए रनो कन्त्राण गोयरे पत्तो । सहसा निद्दामुदं उवमइंतो करुणसद्दो ।।४०५॥ हा इह कहमाणीया, इमेण पावेण अहयमवहरिउं । हा ताय ! माय ! निययं, दुहियं रक्खेह अइदुहियं ॥४०६।। हा ! निव्वीरा पुहई, हा धीरनरा ! सुयंति निच्चिंता । हा ! गयणदेवयाओ तुज्झे वि हु जं न जग्गोह ॥४०७।। निसुणिय विलावसद्दो, राया भवणाओ निग्गओ बाहिं । पिच्छइ पल्लंकगयं, खयरं तह कन्यं गयणे ॥४०८॥ करवालकलियबाहुँ, सो राया विज्जखित्तकरणेण । उप्पइऊणं सहसा, आरूढो तम्मि पल्लंके ।।४०९।। गहिऊण ताणि तिन्नि वि, पल्लंके सो वि पवणवेगेण । गच्छइ पिच्छंते वि हु, अच्छेरजुयं महीनाहो ॥४१०॥ सो आह खयरनाहं, हरिया रे ! कीस कनया एसा ? | मडही-कय-सुर-सुंदरि, तारुना लडह लायना ॥४११ ।। मुंचसु कन्नं एयं, अहवा गिण्हेसु आउहं निययं । न हु छुट्टइ नासंतो, पत्तो मह गोयरं पुरिसो ॥४१२॥ ___ 2010_04 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ विज्जाहरो पयंपइ, मरेसि अप्पत्थिओ वि किं मूढ ! न हु अवरकंदणेसुं, छेया छेयंति नियकेसे ॥४१३ ॥ एमाइमाइचक्की सो जंपर जाव नरवराभिमुहं । ताव सहस त्ति तेहिं घोरो हक्कारवो निसुओ ॥ ४१४ || नियकुलकलंकपंको छलसयदुल्ललिय कन्नयाहरणं । रे ! पावकुणंतेणं विहिउं तो मरसि निब्भतं ॥ ४१५ ॥ रे ! मुंचसु मह धूयं नाससु अहवा हवेसु रणसज्जो । इय जंपतो पत्तो, विज्जाहरनायगो तत्थ ॥ ४१६ ॥ जुयलं ॥ हाता ! रक्खियावाय, भुवणतायणपरायणोवाय ! | सुणिय निय जणयवयणा, इय कन्ना पलवए धणियं ॥ ४१७ ॥ विज्जाहराण ताणं, अवरुप्परमच्छाराणमच्छेरं । पिच्छंताण कुणंता, उत्तरपच्चुत्तरा जाया ॥ ४१८ ।। तथाहि मा को विमज्झ दुहियं, भुवणाहिवरूवसंपयाकलियं । हरिही अवरो वि तओ, इमस्स रनो समप्पिस्सं ॥ ४१९ ॥ इय जंपिऊण भणिओ, कन्ना जणएण सायरं राया । रक्खज्जसु मह धूयं मा अप्पसु अवरपुरिसस्स ॥४२०॥ जाव अहं जिणिऊणं एवं दुट्ठं समेमि तुह पासे । ताव इमं मह धूयं, थवणीरुवेण रक्खे || ४२१ ॥ अवरो वि खयरराया, जंपइ भो राय ! मज्झ वरदइया । धारेयव्वा जाव य अहयं जुज्झेमि एएण || ४२२॥ इय जंपिराण ताणं पढमं वायाए गरुयसंगामो । संजाओ अब्रुनं दूसणभूसणविहाणेहिं ॥४२३॥ मुत्तूण विसंवायं समवायं ते करितु तो रायं । पति तुज्झ कज्जे समुज्जया मच्छरुच्छइया ॥४२४॥ जो को वि अम्ह मज्झे जिणिऊण समेइ तुह समीवम्मि । तस्स इमा वरकन्ना अप्पेयव्वा न अन्नस्स || ४२५ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा २५५ आमं ति तेण रवा भणिए जुज्झति विविहभंगीहिं । अवरुप्परसंहारं समीहयं ता महाबाहू ॥४२६॥ निद्दयतिवइप्फोडणकायरसंहरियहिययसंघट्टा । अन्नोन्नलग्गखग्गोवघायकयवण्हिकणवरिसा ।।४२७॥ गाढतरनिजुद्धेणं जुज्झतो ते सहति संबलिया । अन्नोननागबंधणबद्धगुरुतरभुयंगु व्व ॥४२८।। दठूणमइभयावहमाहवमेयाण धीरवीराण । भीय व्व जामिणी वि हु पलाइया तक्खणा चेव ॥४२९॥ कन्ना पिउणा विज्जाहरेण तह कह वि मुट्ठियाएण । पहओ सिरम्मि इयरो, जह सो वि पलाइओ तुरियं ॥४३०।। उब्भडभिउडीभंगुरकरालमालो फुरंतअहरुट्ठो । तप्पिट्ठिओ वि दुइओ गच्छइ रोसेण रत्तच्छो ॥४३१॥ खयरवीरा दुन्नि वि जुज्झंता मच्छेरण संच्छन्ना । हक्कंता वग्गंता नयणाणमगोयरे पत्ता ॥४३२॥ तो कन्ना वीसत्था जंपइ नरनाह ! मज्झ जणएणं । मुक्काहं तुह पासे तो तुह भवणम्मि गच्छामो ॥४३३ ।। आम ति तेण रना भणिए विज्जाहरीए पल्लंको । नियविज्जाए खणेणं नीओ नरनाहपासाए ॥४३४।। रना कन्ना लीलावइदेवीए समप्पिया सव्वं । कहिऊण खेयराणं, वुत्तंत जुज्झपज्जतं ॥४३५॥ इत्तो य दिणारंभे, पत्तो नियजणणिपाय-नमणत्थं । तं चित्तंगयकुमरो, कत्रं कनंतपत्तच्छिं ॥४३६।। पिच्छइ नियख्वेणं, जेउं विज्जाहराण तरुणीओ । इह सयलभूमिगोयरतरुणी विजयाय पत्तं व ॥४३७|| तीए वि सरागाए, दिठ्ठो सव्वंगसुंदरो कुमरो । मारकुमारजयंते, बिजयंतो निययरूवेणं ॥४३८॥ ___ 2010_04 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पायप्पणाम पुव्वं, पुच्छइ लीलावई च सो कुमरो । का एसा वरतरुणी, जणनयणमहुसवायंती ॥४३९॥ सा साहइ वरकन्ना, रम्रो पासम्मि दोहिं खयरेहिं । मुक्का थवणीकज्जे, जुझंता ते गया दूरं ॥४४०॥ सोऊण इमं कुमरो, मणिमयभवणे नियम्मि संपत्तो । चिंतेइ धुवं खयरा, जुज्झंता ते मया दो वि ॥४४१ ॥ इत्तो च्चिय नो पत्ता, पाणप्पियकन्नयाए गहणत्थं । ता मन्ने पुनेहिं कन्ना, मह चेव होहि त्ति ।।४४२॥ देवो व जयंतो वा सो, च्चिय मयणो व जो सया तिस्सा । मुहपंकयमयरंदे, इंदिदिरलीलमुव्वहइ ।।४४३।। कइया परिणयणिज्जा कइया संलावगोयरंगमिही । जियरंभारंभोरू मह परिरंभं कया करिही ॥४४४॥ इय चिंतंतो कुमरो सुक्खं चउसालयम्मि अलंहतो । विरहहुयासणतत्तो उववणकेलीहरे पत्तो ॥४४५॥ निब्बींटी-कयपंकयमयसयणिज्जं तु सारसरिसं पि । उव्वत्तणपरियत्तणसएहिं उसिणं कुणंतेण ।।४४६।। सरसो चंदण-पत्तो लग्गो देहे इमस्स दहणसमो। . उव्वाणोवाएणं निज्जह धूलीसमूह व्व ॥४४७।। परिहरिय पाण-भोयण-सिणाण-दाणाइ-सयलवावारो । सो मित्तेहिं पुट्ठो चिट्ठइ मोणं समल्लीणो ॥४४८॥ लीलावइदेवीए निवेइयं तेहिं सा वि संभंता । संपत्ता तुच्छजले मच्छं पि व चलवलायंतं ।।४४९॥ पिच्छइ कुमरं दीहर-उण्हुण्हसासदंडेहिं । सुसंताहर-पत्तं, जुत्तं सविसायमित्तेहिं ।।४५०।। सा नियय-पाणि-पंकय-फरिसेण जरं वियाणिउं गरुयं । दासिं पट्ठविऊणं, भीया आहवइ नरनाहं ॥४५१ ।। 2010_04 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांगकुमरकथा राया विज्जेहिं समं, पत्तो विज्जानिरूविरं कुमरं । एगे भणति होही, वायपकोवेण एस जरो ॥४५२॥ तो कारह निव्वायं कंठयफुक्कं व लंघणं तह य । मा उज्जाण समुब्भववायं देहम्मि लग्गेह ||४५३ ॥ अलवंति मूढा एस जरो पित्त-संभवो नियमा । तो धारेयव्वो एसो इहेव सीओवयारेहिं ॥ ४५४॥ अवरे भांति पित्तं वाऊ वा होइ अहव सिंभो वा । न हु किरिया किज्जती कयावि दोसं समावहइ ||४५५ ।। तो निज्जउ धवलहरे किज्जउ विज्जोवइट्ठवरकिरियं । एवं च कुणताणं जं होही तं सहिस्सामो ॥ ४५६॥ आमंति राणा विहु भणिए कुमरं बला वि धवलहरे । नेउं निवायठाणे ठावंति महापयत्तेण ॥ ४५७॥ कुमरो चिंतइ विज्जा में जीवंत अखुट्टए काले । मारंति महापावा तो हं कस्सा वि मित्तस्स ॥४५८ ॥ साहिस्समभिप्पायं निययं ति विचिंतिऊण कुमरेण । अब्भिंतरवरमित्तो एगंते पभणिओ एगो ॥ ४५९॥ मह मित्त ! एस आही न हु वाही होइ विज्जवयणेहिं । कि मारह जीवतं वारह किं चंदणाईयं ॥ ४६०॥ सो आह सपरिहासं कुमर ! तुमं पिच्छओ वि नो कहसि । तो तुह सरिसं विहियं विज्जेहिं महाछइल्लेहिं ॥ ४६१ ॥ अज्जवि न किंपि नट्ठे साहसु मह चेव निययमभिप्पायं । जेण समीहियकज्जं करेमि रायप्पसाएण ॥४६२ ॥ लज्जानिही वि कुमरो नन्रह मुक्खु त्ति निच्छिउं हियए । साहेइ अभिप्पायं सणियं मित्तस्स कह कह वि ॥४६३ ॥ एसा खेयरकन्ना नव तारुण्णा मए समं रत्ता । जइ इह विवाहणिज्जा तो जीयं अनहा मरणं ॥ ४६४ || 2010_04 २५७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं कुड्डुतरिया देवी जणणी कुमरस्स सणिय भणियम्मि । सुणिऊण तत्थ पत्ता कुमरं पइ जंपए एवं ॥४६५॥ दुक्खं गिण्हेमि तुम जीयं दावेमि निययजीवेण । मह कहसु अभिप्पायं करिहेमि तुरियं तुह कज्जं ॥४६६॥ लज्जा सज्जा कुमरे मणोरहं कहइ तस्स वरमित्तो। सा भणइ एत्तिए वि हु इत्तिय मित्ता किमिह चिंता ॥४६७॥ तह राया भणियव्वो जह तुमए कनयाय वीवाहं । कारइ अप्पवसे वि हु अत्थे को नाम मणखेओ ॥४६८॥ परिवालसु पंचदिणे मा को वि हु खेयराण मज्झम्मि । एही तब्भिच्चो वा पच्छा कन्ना तुह च्चेव ॥४६९॥ उट्ठसु करेसु भोयण-सिणाण-पमुहाणि देह-किच्चाणि । निच्चं निच्चिंतेण होयव्वं मज्झ वयणेणं ॥४७०।। इय आसासिय कुमरं गच्छइ देवी नियम्मि भवणम्मि। कमरो वि ह विसत्थो मणम्मि मणयं कणइ तोसं ॥४७१ ।। दिनपंचगपज्जते गया इमा राय-पायपासम्मि। उल्लवइ देवकुमरो होही निरुओ न संदेहो ॥४७२ ।। जइ एयं वरकन्नं वियरसि कुमरस्स परिणयनिमित्तं । को दोस च्चिय तेसं मएस वि गएस खेयरेस ॥४७३।। देविं सकोवचित्तो राया जंपेइ एस जइ मूढो । बालो कामगहिल्लो तुम पि ता किंतु मूढा सि ? ॥४७४।। बहवरिसकया वासो अवरपिसाओ वि कहवि न ह सज्जो। तो भवकोडिविलग्गो कामपिसाओ कहं सज्झो ॥४७५॥ अने नरा गहिल्ला पाणच्चाए चयति गहिलतं। कामपिसल्ल-गहिल्लो न मयइ जम्मंतरेणा वि ॥४७६।। जंपइ जं वा तं वा नच्चइ गाएइ पडइ पाएसु। जइ एसो न गहिल्लो किं तस्ससिरे हवइ सिंगं ॥४७७।। 2010_04 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितंगकुमरकथा २५९ पंचदिणा मासा वा वरिसा वा जं त वरिसलक्खा वा । न ह नासायविमक्कं कन्नं अप्पेमि कमरस्स ॥४७८॥ पंचपयारं सव्वं जगंतकाले वि नेव लोवेमि । न ह गहिलाणं वयणं विवेयवंतो कणइ चित्ते ॥४७९।। कुड्डंतरिओ कुमरो एवं सोऊण निययपासाए । संपत्तो सिज्जाए चिट्ठइ कंठग्गगयपाणो ।।४८०॥ मित्तेहिं तओ देवी आहविया पिच्छिऊण तह कुमरं । झ त्ति धसक्का हियया सद्दावइ सा महीनाहं ॥४८१ ॥ रायं तत्थ निसण्णं भणइ इमा पिच्छ पत्तदुत्थतं । इत्तिय मित्ते वि गए कन्नं दिज्जास कमरस्स ॥४८२॥ उवाइयलक्खेहिं लद्धो लक्खणगुणेहिं पडिपुत्रो । संपुण्णकलाकुसलो जो रज्जधुरंधरो कुमरो ॥४८३।। नियवंसमत्तियमणी एगो च्चिय जीवीयाउ अब्भहिओ। निय नियममित्तकज्जे तं पि हु हारेसि किं पुत्तं ॥४८४॥ जस्स कए नियजीयं लच्छीदेवीए अप्पियं तमए । तं वंसभवणखंभं किं हारसि तच्छकज्जेण ॥४८५।। तुमए वि इमं भणियं कामगहिल्लो न चेव चेयंति । ता चेयसु सुविचक्खण तुमं पि मा होसु मूढप्पा ॥४८६।। पच्छा पच्छायावो तुज्झ वि होही विवनए कुमरो। तो हं भणेमि पढमं बुज्झसु मा मुज्झ नरनाह ! ॥४८७॥ जइ नियमभंगभीरु कनं दाऊण तह वि कुमरस्स । पच्छा पायच्छित्तं गुरुवयमूले चरिज्जासु ।।४८८।। इय भणिओ वि ह राया, चिट्ठइ वाचं जमो व्व मोणेणं । ता सा दासीवग्गं,संवग्गिय एवमाइसइ ॥४८९।। जावज्जवि मह पत्तो, धरेइ जीयं जियाउ अब्भहिओ। ताव मए पढम चिय, जलंतजलणे वि सेयव्वं ॥४९०॥ 2010_04 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० तो कड्ढह कट्ठाई, मा हु विलंब करेह इह अत्थे । रे किर- सारियाए ! तुमए भव्वेण होयव्वं ॥ ४९१ ॥ हं जे लवंग ! तुमए अच्चेयव्वा सया वि जिणपडिमा । पियसहि ! पियंगुलइए !असोयलइया तुहं दिना ||४९२॥ इच्चाइ जंपिरी सा,सहसा उट्ठेइ कुमरपासाओ । कुमरो वि भणइ सणियं, हा अंब ! तए किमारद्धं ? ॥४९३ ॥ सुक्खासमारूढा, दीणाण होइ दाणतल्लिच्छा । पउरेहि सदुक्खेहिं, निरिक्खिया निग्गया नयरा ॥४९४॥ रायं सुबुद्धिमंती, जंपइ संपइ तुमं पि तत्थेव । गच्छह जइ पुण एसा, तुह दंसणओ नियत्तेहिं ||४९५|| इय भणिय महाराओ, नीओ मंतीहि पिउवणे तत्थ । पिच्छइ जलंतजलणं, किंकरकयखाइयं भीमं ॥४९६॥ अह लीलावइदेवी, उच्चसरेण भणइ हे असुरा ! I लोया य लोयपाला ! सुणंतु वित्तियं मज्झ ॥ ४९७॥ मह पाणपिओ पुत्तो, मह मरणेणं इमेण विहिएण । जम्मंतरम्मि सुहिओ हवेउ, जइ अत्थि धम्म-फलं ॥४९८॥ मंतीहिं इमा भणिया, किं कत्थ वि देवि ! अप्पघाएण । थेवो वि होइ धम्मो, किं तं मूढा सिणेहेण ? ॥४९९॥ अन्ना विहियाए, इत्थीहच्चाए होइ जइ धम्मो । तो तुह अप्पवणं, होही धम्मो इमेणा वि ॥ ५०० ॥ भणियं च भाविय जिणवयणाणं, ममत्तरहियाण नत्थि ह विसेसो । अप्पाणम्मि परम्मि य, तो वज्जे पीडमुभवो वि ॥ ५०१ ॥ सा भणइ मंती अहयं, सव्वं जाणेमि किंतु पढमम्मि । पडिया जलंत-जलणे, नियपुत्त - दुहं न पिच्छिस्सं ॥५०२॥ मंतीहि निवो भणिओ, जइ एसा कह वि देव ! तुह इत्थीग्गहेण गहिया, मा धम्मजडो तुमं हो ||५०३ ॥ देवी । 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं - Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितगकुमरकथा २६१ ते विज्जाहरधीरा, गया मया कन्नया य अणुरत्ता । लोओ वि भणइ सव्वो, किमजत्तं एत्थ पिच्छेसि ॥५०४।। भणइ निवो कन्नाए, माया-भाया व कोइ जइ देही । ता होउ पाणिग्गहणं, अवह नियमं न खंडेमि ॥५०५॥ पुत्ता-मित्त-कलत्ता, रज्जं जीयं च सयलजंतूहिं । पत्तं भवे भवेवि य, अखंड-धम्मो न संपत्तो ॥५०६॥ ता मंति ! पुत्तकज्जे कलत्तकज्जे य नेय निय नियमं । खंडेमि एस कहिओ परमत्थो तज्झ किं बहणा ? ॥५०७॥ सोऊण इमं देवी जलंतजालावलीस लोयाण ।। हा हा रवमवगणिय झंपावइ चत्त पुत्तासा ॥५०८॥ जाव ससोओ लोओ चिट्ठइ सहसा विसट्ट-कंदट्टा । पज्जंतपत्तनीरा ता सरसी खाइया जाया ।।५०९॥ वियसियसहस्सपत्ते, कमले कमल व्व सा वि सविसना । सुरधरिय धवलछत्ता उत्तरीया खाइयाहिंतो ॥५१०॥ एगो जंपइ असुरो हे नरवर ! साहु साहु तुह नियमो । धनसारसिट्ठि-जीवो सो अहयं जो पुरा दिट्ठो ॥५११॥ तइया तुमए नियमं गहियं नाऊण पुच्छियं पच्छा । किं भयवं नरनाहो एसो पालिस्सए नियमं ॥५१२।। भयवं जंपइ राया न चेव नियमं कयावि लोवेही । तो हं असद्दहंतो इह पत्तो तो परिक्खत्थं ॥५१३॥ पल्लंको गयणे विलावकरणं कन्नाय दो खेयरा । जझंताण भयंकरं परिणयग्गाहो कमारस्स वि ॥५१४|| देवी कुग्गहधारिणी हुयवहावेसो इमाए तहा । सव्वं सच्च परिक्खणाय कमसो एयं मए निम्मियं ॥५१५॥ सा कज्रया वि नरवर ! मणुस्सरूवा नियाए सत्तीए । इह दंसीया मए च्चिय, संहरियं संपयं सव्वं ॥५१६॥ 2010_04 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इह कहिऊणं असुरो, भणिओ राएण जाइ नियठाणे । राया वि देविसहिओ, पुरम्मि पविसेइ रिद्धीए ॥५१७॥ वरिसाण सहस्साई, रज्जं काऊण विहियगिहि-धम्मो । पवराराहणविहिणा, सोहम्मे सुरवरो जाओ ॥५१८॥ तत्तो य चइत्ताणं, महाविदेहम्मि पवरखित्तम्मि । रायउले उप्पन्नो, गच्छिस्सइ मक्खसक्खम्मि ॥५१९॥ एएण जहा रत्ना नियनियमो पालिओ पयत्तेण । तह अवरेहि वि नियमा, पालेयव्वा सुहत्थीहिं ।।५२०॥ इह अलियवयण-चाओ पुव्वं निव्वन्निओ समासेण । परविहवपरिहारं कहेमि, इण्हिं सदिळेंतं ॥५२१॥ इति सत्यव्रते ललितांगराजकथानकं ॥ गाथा ३ ४२५॥ परविहवपरीहारविसए वज्जबाहुकुमारकथा - लच्छी तरुणमयच्छी अच्छीविच्छोहचवलसब्भावा । परधणहरणं तिस्सा, कज्जे कुव्वंति किं विउसा ?।।५२२॥ जं मज्झं दिणदिणमणिसंसत्तविहंगगलचलं जीयं । चोरिक्कं निक्करुणो तस्स वि कज्जम्मि को कुज्जा ?॥५२३॥ जुव्वणं-नई जराए निदाहरवि-किरण-लहरि-सरिसाए । सोसिज्जतं पिच्छिय छेया कुव्वंति कह पावं ? ॥५२४।। पाणेहितो वि पिओ, अत्थो पुरिसाण तो कुणंतेणं । परधणहरणं मरणं, विहियं तेसिं न संदेहो ॥५२५॥ एक्कस्स चेव दुक्खं, हणिज्जमाणस्स हवइ खणमित्तं । जावज्जीवं दुसह, सपत्तगत्तस्स धणहरणे ।।५२६॥ इह चेव खरारोहण-गरिहा-धिक्कार-मरण-पज्जतं । दुक्खं तक्कर-पुरिसा लहंति निरयं परभवम्मि ॥५२७।। जायइ जणणी दह-सय-जणणी वप्पो वि कालसप्प व्व । तक्करनरस्स सहसा वि गयाबंधो हवइ बंधू ॥५२८॥ 2010_04 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा परधण-हरणं वसणं जेसिं निवडंति ते महामूढा । घोरम्मि नरयकूवे जले महालोह-पिंडु व्व ॥५२९।। निरयाओ उव्वट्टा केवट्टा-कुंट-मंट बहिरंधा । चोरिक्कवसणनिहया हुंति नराभवसहस्सेसु ॥५३०॥ चोरित्तविरत्तमणा, जे उण तेसिं सयंवरा लच्छी । आगच्छइ न वि दूरे, कित्ती सग्गोपवग्गो वा ॥५३१ ।। परविहवपरीहारं, कणंति जे वज्जबाह-कमर व्व । इहलोए वि समिद्धं पाविय पावंति ते सिद्धिं ॥५३२।। हारिविहाररवन्नं, मुत्तिय-मणि-कणय-रयणपडिपुत्रं । सत्तभुवणावयारं, अत्थि पसिद्धं पुरं भरहे ॥५३३॥ उद्दाम-वामसिनासायर-निम्महण-मंदरगिरिदो । . तत्थ सरिदो राया पहत्तपरिभूयतियसिंदो ॥५३४॥ जस्स निवइस्स मन्ने सिनासंभारभारियं धरणिं । अखमोवहिउं सहसा सीससहस्सं कुणइ सेसो ॥५३५॥ अकलंकसीलपालणसंरंभाहारिरूवजियरंभा । तस्सासि पिया रंभा रंभा थंभाभिरामोरू ॥५३६॥ रविणो सनिच्छरो विव अणज्जलं कज्जलं व दीवस्स । ताणं पुत्तो कूरो संजाओ वज्जबाहु त्ति ॥५३७॥ सो उण जीवविघायं विणोयमित्तं विचिंतए चित्ते । निच्चमसच्चं वयणं जलपाणसमं मुणइ धिट्ठो ॥५३८॥ परदव्वं सव्वं चिय नियजणयसमज्जियं व करप्पा । मनइ परिणीयं पिव पररमणिं रमइ अइलुद्धो ॥५३९॥ गरुयारंभपरिग्गहजंगलगसणाइविहियरिंभो। अनं पि पावकम्मं सव्वं पि हु मणइ सव्वस्सं ॥५४०॥ सविसेसं पुण एसो चोरिक्कं कुणइ तस्स पावस्स । तद्दियहे न वि निद्दा एइ न चोरेइ जत्थ धणं ॥५४१ ।। 2010_04 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं एसो निसाए ईसरगिहेसु खत्तं खणेइ उवउत्तो । जीयं जमु व्व विहवं हरेइ पच्चक्खमवि पावो ॥५४२ ।। रनो वि कोससाला रंभासालो व्व तेण निम्मविया । सयलं पि परं पावो खणेइ लूया वियारु व्व ॥५४३।। सयमेव तेण रत्ना पहाणसचिवेहिं तस्स मित्तेहिं । सामेण य दण्डेण य सिक्खविओ विविहभंगीहिं ॥५४४॥ जाहे न ताण वयणं लवमवि मनइ निरंकुसो एसो । रुद्रुण तेण रत्ना ताहे निव्वासिओ नयरा ।।५४५॥ पुरबाहिरप्पएसे दिवसं निव्वाहिऊण सो पावो । रयणीए खणइ खत्तं पुरमज्झे जीयनिरविक्खो ॥५४६॥ अह पउमसत्थवाहस्स मंदिरं दारिऊण सो सहसा । घित्तूण रयणनिरयं निग्गच्छइ हरिसपडिहत्थो ॥५४७।। गिरिकंदरम्मि गंतुं नग्गोहदुमस्स हिट्ठभूमीए । तं विहवं निहणतो कसिणभयंगेण सो दट्ठो ॥५४८॥ सो तत्थ हत्थलग्गो, रेहइ भयगो कयंतहत्थु व्व । नरयाभिमहं हत्थं, आयच्छतो व्व तं पावं ॥५४९॥ सो सहसा विसलहरि-परंपरा-हरिय-सव्व-चेयत्रो । धूली लुलंत-कुंतल-पन्भारो पडइ महिवढे ॥५५०॥ सास-परिचत्त-नासावसो, मिलियच्छिसंपुडो एसो । निप्पंद-नाडि-निवहो, चिट्ठइ निच्चिट्ठ-कठ्ठ व्व ॥५५१॥ तं तह पडियं पिच्छइ, ओहिनाणेण मुणिय परमत्थो । सुय-सायर-पारीणो, अणन-सामन-कारुनो ॥५५२।। तत्थेव गिरिनिकुंजे, निच्चल-उसग्ग-चत्त-वावारो । धम्मं झियायमाणो, हरिचंदो नाम रायरिसी ।।५५३।। नाऊण तदुवयारं, उस्सग्गं पारिऊण मुणिनाहो । गरुडोववायनामं, अज्झयणं पढइ उवउत्तो ॥५५४॥ 2010_04 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २६५ तस्स य माहप्पेणं, गरुडो चलियासणो तहिं सहसा । आजाणुकणयगोरं, आनाहिं संख-ससि-धवलं ॥५५५॥ आकंठाओ नवरं, विसमवनं आसिराओ अलिसामं । कंचण-पक्खसणाहं, देहं परिकप्पिउं पत्तो ॥५५६।। जुयलं ॥ करकलियंजलिबंधो, मणिवयण-विणिग्गयं तमज्झयणं । तत्थ निसण्णो निच्चल-चित्तो निसणेइ विहगगई ॥५५७॥ तह अज्झयण-सुहारस-धारा-सारेहिं सित्त-गत्तस्स । देहम्मि विहगवइणो, रोमकूरा न मायंति ॥५५८॥ अज्झयण-समत्तीए, विहंगनाहो मुणिंद-पय-कमलं । महि-मिलिय-मउलि-कमलो, पणमइ परमाए भत्तीए ॥५५९।। पिच्छइ य गरल-लहरी-मच्छा-संच्छन्न-वेयणं कमरं । तहसणेण सहसा गयं, असेसं पि तस्स विसं ॥५६०॥ तत्तो वियसिय-नेत्तो, निद्दा-विगयम्मि व उट्ठए कुमरो । विम्हिय-चित्तो पिच्छइ, मुणिनाहं विगहनाहं च ॥५६१ ॥ निच्छिय-मणिमाहप्पो, हत्थं उद्धित्त हरिस-पडिहत्थो । मणिणो पायारविंदं, सो वंदइ परम-भत्तीए ॥५६२।। आबद्ध-बंधांजलिबंधो, जयबंधवं मणिवरिदं । । संथुणइ इमो एवं, भत्तिब्भरुब्भिन्न-रोमंचो ॥५६३॥ महिमाए तज्झ सामिय ! एसा विसवेयणा असेसा वि । संहरिया गरुयाणं, पयप्पसाया न किं हवइ ? ॥५६४॥ जह विस-निद्दामुद्दा, तुमए उवमद्दिया असेसा वि । तह मोहमहानिदं, हरेस हरिचंदमणिनाह ! ॥५६५॥ अह तेण महामणिणा, संलत्तं भमसि किमिह अनिमित्तं ? । चोरिक्क-दत्त-चित्तो, किं हारसि कमर ! मणयत्तं ? ॥५६६॥ अत्था अणत्थसत्था, विणिवारिय मक्ख-लक्खणनिरत्था । ताण कए चोरिक्कं, कुमार ! को कुणइ सवियक्को ? ।।५६७।। 2010_04 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तो कुमर ! तक्करतं, चइत्त तत्तं जिणिंद-पन्नत्तं । समत्तमाइअंगीकरेसु, जइ महसि सिवसुक्खं ॥५६८।। कुमरो जंपइ भयवं ! पच्चक्खा मज्झ चोरिया दोसा । अहयं ख तक्करत्ता, पिउणा निव्वासिओ नयरा ॥५६९॥ तो काऊण पसायं, इण्डिं मह देस सुद्ध-सम्मत्तं । परदव्व-विरइ-नियम, वियरसु तह जइ अहं जुग्गो ॥५७०॥ जोगु त्ति तओ मुणिणा, दिनो कुमरस्स तइय-वय-नियमो । समत्तजओ तत्तो, सिक्खविओ सो इमं तेण ॥५७१ ॥ तइया अणुव्वयमेयं, समीहमाणेण सुद्धमाजम्मं ।। तमए पंचइयारा, वज्जेयव्वा पयत्तेण ॥५७२॥ कूड-तूल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं विरुद्ध-निव-गमणं । तेणाणुना तेणाणीयं, वज्जेसु पंचमयं ॥५७३।। अह तं जिणिंद-देसियधम्मे सम्मं मुणित्त दढचित्तं । जंपइ विहंगनाहो, कमार ! तं चिय कयत्थो सि ॥५७४।। जं तमए तइयव्वय-नियमो अइक्करो इमो गहिओ। तो तुज्झ अहं तुट्ठो, वरसु वरं किमवि मणइटें ॥५७५ ।। सो आह अहं संपइ वरम्मि पवरे वि तज्झ निरविक्खो । का वा अवरा लद्धे लद्धे धम्मम्मि सामग्गि ।।५७६॥ इय तस्स भणंतस्स वि बला वि वियरइ विहंगमाहिवई । रूव-परिवत्ति-जंगुलि-नहगामिणिपवरविज्जाओ ॥५७७।। मुणिनाह-विहगनाहा, तत्तो गच्छंति नियनियट्ठाणं । असिक्खेडयवग्गकरो, कुमरो वि हु पढियसिद्धाए ॥५७८॥ नहगामिणिविज्जाए उप्पइओ नहयलम्मि वच्चेइ । अवलोयंतो गिरि-सर-सरिया-वणराइयं वसुहं ॥५७९ ।। सो दूरसमुप्पइओ गिरि करि नयरनिलयमवि वलयं । सरियं पि हारसरियं मन्नइ मेरुंकसेरूं व ॥५८०॥ 2010_04 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २६७ सो कमसो गच्छंतो सावत्थिपुरीए झत्ति संपत्तो । अवयरिय नहयलाओ सकोउगो विसइ परमज्झे !!५८१ ।। वीसमइ सलिल-पाणं करेइ भंजेइ जत्थ जत्थेसो । रुव-निरिक्खण-रसिओ तत्थ जणो मिलइ परवासी ॥५८२।। एसो परम्मि भमिरो पिच्छइ मणिनिवहनिम्मियं रम्मं । एगं जिणंदभवणं तंगं सर-सिहरि-सिहरं च ।।५८३॥ तब्भवणरयण-निउरंब-किरण-लहरीहिं तिमिरपब्भारे । हरिए जत्तामित्तं करेइ सूरो सया तत्थ ॥५८४॥ चत्तनिमेसम्मेसो, सकोउहल्लो इमो इमं भवणं । नज्जइ निरिक्खमाणो, इहेव संपत्त-सर-भावो ।।५८५।। भवणम्मि तम्मि रम्मे, उत्तमजण-माणसम्मि सहस त्ति । उवयारो व कमारो, पविसइ केणावि अक्खलिओ ॥५८६॥ गब्भहरमज्झयारे, पिच्छइ नाराय-निवह-आवरियं । दंसण-चरणाचरियं, जीवं व जिणेसरप्पडिमं ॥५८७।। पिच्छित्तु इमं कुंडल-किरीड-उरमाल-तिलय-दिप्पंतं । सो तरयलंछणेणं, जणेइ तं संभवं देवं ॥५८८॥ तह नियइ देहली-तल-निवेसिउं तस्स तित्थनाहस्स । रयणमय-पीढ-संठियमय-पयडं पाउया जयलं ॥५८९॥ जो जो नयरनिवासी समेइ सो सो पवेसमलहतो । तं चेवं निच्चमच्चइ, जिण-पय-जयलं पमोएण ||५९०॥ रूव-परवित्ति-विज्जावसेण काऊण सुहुमतररुवं । पविसित्तु झ त्ति मज्झे जिणनाहं पूयए कुमरो ॥५९१ ॥ नीहरिऊणं एगं पुरिसं पुच्छेइ केण कइया वा । नारायदप्पवेसा एसा पडिमा विणिम्मविया ॥५९२।। सो आह कमर ! इह परवासी नीसेसगणगणनिवासो । नामेण कामदेवो रूवेण वि अत्थि वरसिट्ठी ॥५९३॥ 2010_04 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सयणोवयारदुत्थिय-उद्धारकयत्थरिथवित्थारं । तं धवमवलोइत्तो, अलयं पइ पत्थिओ धणओ ॥५९४॥ निरवज्ज-कज्ज-सज्जा, भज्जा नवकंद-चंद-सम-सीला । लीलामित्त-विणिज्जिय-रई, रई नाम तस्सत्थि ॥५९५॥ ताणं बहुतणयाणं, उवरि अरविंद-गब्भ-सम-गोरी । चोरी तरुणमणाणं, जाया धूया सतार' त्ति ॥५९६॥ . सा ससि-समाण-आणण-लच्छी अच्छीहिं विजयहरिणच्छी । लायण्ण-पुण्ण-गत्ता,संपत्ता चारु-तारुन्नं ।।५९७॥ कंचण-समाण-वनं कन्नं निव्वन्निऊण तं सिट्ठी । अणरूव-रूववंत, वरं वरं पिच्छिउं लग्गो ॥५९८॥ अह निय जणयाएसा, एसा रोलंब-निवहसमकेसा । कयफारतारवेसा, वम्महमाराहिउं चलिया ।।५९९।। सम-दुह-सुह-सहि-सहिया, जंपाणं आरुहित्तु उज्जाणं । वच्चइ जव-जण-निवहागरिसण-विज्ज व्व पच्चक्खा ॥६००॥ सा मयणभवणदारे, पत्ता तप्पडिममहपलोइत्ता । आनह-चिहर-निरंतर-बंधर-रोमंकरा जाया ॥६०१॥ निय-पाणि-पंकएणं, घसिणेण विलिंपए इमा मयणं । सो वि विलित्तो रेहइ, तइंसण-जाय-राओ व्व ॥६०२।। तं भमरसणाहेहिं कसमसमूहेहिं पूयए एसा ।। सो तीए दंसणत्थं, नज्जइ कयचक्खलक्खो व्व ॥६०३।। कप्पूरागरु-धूवं, एसा उक्खिवइ दीह-नीसासे । भावित्तव्विरहभत्तो, नज्जइ एसो मुयंतु व्व ॥६०४|| . इय कसम-पमह-पूया, पुरस्सरं पयड-रम्म-रोमंचा । संहरिय भवणदप्पं, कंदप्पं थोउमारद्धा ॥६०५॥ हंसरह-हीर-हरिणो, तह आणाकारिणो सया देव ! । कह मन्त्रह सावित्ती-गोरी-सिरि-संगहो तेसिं ॥६०६॥ 2010_04 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २६९ अरिमण-विहिय-धसक्को सक्को सग्गम्मि एत्थ चक्की वि। पायाले सेसो वि हु, सेसामिव वहइ तुह आणं ॥६०७॥ एवमसंभव-विक्कम-वसीकयासेस-भवण-तह-मयण !। पणयाहं सपसाओ, वरं वरं देस अचिरेण ॥६०८॥ इय तरुण-निवह-लोयण-महुयर-निउरुंब-मल्लिवल्लि व्व । जा कणइ थयं एसा, ता जं जायं तयं सणस ॥६०९॥ तब्भवणमज्झ देसे, स-पाडिहेरा सया स-अच्छेरा । अत्थि वणदेवयाए, पत्तलिया रयण-निम्मविया ॥६१०॥ पिच्छित्त चंगमंग, तिस्सा महरं सरं च सोऊण । निब्भर-मच्छर-गहिया, रोसारुण-लोयणा जाया ॥६११ । दासीजणाण तरुणीगणाण तह तरुणजणसमूहाणं । अन्नेसि पि जणाणं पच्चक्खं चेव सव्वाणं ॥६१२॥ निम्मेरा गय-लज्जा विविहाउह-निवह-कलिय-कर-नियरा । मुत्तूण नियं ठाणं संपत्ता तीए पासम्मि ॥६१३।। कन्नाए सुताराए विम्हियभय-तरल-तार-नित्ताए । निब्भयचित्ता तत्तो अंगं परिरंभिउं लग्गा ॥६१४।। किं किं ति काणणंतरवासी सव्वो वि तरुणजणनिवहो । जंपतो जा पत्तो वम्मह-भवणस्स मज्झम्मि ॥६१५।। तो जायसंभमाए, तीए पंचालियाइए सहस त्ति ।। निय पाणि-कमलगहिओ, तिस्साभिमुहं अही मुक्को ॥६१६॥ सो वि हु महंतसप्पो, दुरंतदप्पो लसंतगुरुगत्तो । हंकारफारवयणो रोसारुण-लोयणो सहसा ॥६१७॥ आयड्ढणि-मुहथंभणि-कीलिणि पमुहाओ विविहविज्जाओ । रायविसायवसेहिं, जुव-निवहेहिं पउत्ताओ ॥६१८।। अवगन्निय तं कनं पायपएसम्मि डसइ खणमित्तं । चरणम्मि चेव लग्गो चिट्ठइ विहियावराहु व्व ॥६१९॥(त्रिसृभिर्विशेषकम्) 2010_04 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सिरिपउमप्पहसामिचरियं एक्केण निब्भएणं, नरेण आगरिसिऊण पच्छम्मि ।। गाढं गहिय धराए, हत्थं अच्छोडिओ सप्पो ॥६२०॥ पंचालिया वि परजण-पच्चक्खं चलवलंत-गरुगत्तं । तमहिं गिण्हिय सहसा, सट्ठाणं चेव संपत्ता ॥६२१ ।। विसहर-विसलहरीहिं, संहरिया सेसचित्तचेयण्णा । कन्ना सा वि सतारा, ललंततारा तओ जाया ॥६२२॥ जंगलि-पमहं विज्जं, पउंजमाणेस तरुण-निवहेस । दिव्ववसेणं तह विसवसेण संहरियपव्व-वर-रूवा ॥६२३ ।। कज्जल-तमाल-वा, सिहिजाला-कविल-तुच्छतरचिहुरा । सज्जो खुज्जा जाया, संकुडिया सेस-सव्वंगा ॥६२४॥ एत्थंतरम्मि परजणमहेण सोऊण तीए वत्तत्तं ।। सो कामदेवसिट्ठी, संपत्तो कामभवणम्मि ॥६२५॥ तं अच्चब्भूयं अच्छरियं पिच्छिऊण सो सिट्ठी । विम्हिय-विसाय-गहिओ, तारसरं पलविउं लग्गो ॥६२६॥ हा चारुमत्ति ! हा हारिकित्ति ! हा हरियजणमणोवित्ति !। हा पुत्ति ! पुत्तिवरउत्ति, जुत्ति हा सवणजियसु त्ति ! ॥६२७।। हा वच्छे ! हयविहिणा, सा दारुणा अवत्था ते । जं दलै नवरमहं, जयपि दक्खयं जायं ॥६२८॥ थइयावहा वि सेरंधिया वि धाई वि तह सही निवहा । विलंवति तयं दळं, निठ्ठर-निग्घाय-हय-हियया ॥६२९॥ हा कुंदरयणि ! हा चंदवयणि ! तच्छहरिणसमनयणि ! । वरकामिणि ! वरगामिणि ! सामिणि ! किं तज्झ संजायं ? ॥६३०॥ विलवइ तारं तिस्सा जणणी रे रे हयास ! तुह दिव्व ! । किं इह मएवरद्धं जमकारणिदारुणो जाओ ॥६३१॥ सीसम्मि तज्झ निवडउ वज्जं निरवज्जमेरिसं पत्तं । निम्मविय जेण निक्किवदुत्थावत्था इमा विहिया ॥६३२॥ 2010_04 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २७ इत्थंतरे सुरेसरसमूहकरनियरघायउल्लसिओ । सजलजलवाहगज्जियगंभीरो दुंदुही-सद्दो ॥६३३ ।। सो दुंदुहिसंरावो सुरचारणविहिय जयजयारावो । तं तारं हाहारवमवहरमाणो पवित्थरिओ ॥६३४॥ खणमित्तेणं तत्तो जणाणमनिमित्त-वच्छलो भयवं । चारणसमणमुणिंदो कुरुचंदो तत्थ संपत्तो ॥६३५॥ सवियासहेमपंकयअंके पल्लंकमासणं काउं । उवविट्ठो वरकेवलनिट्ठो धम्मं कहइ सम्मं ॥६३६॥ भो भव्वा ! जइ भीया जाइ-जरा-मरण-वसणपमुहाणं । दुहनिवहाणं तत्तो चउक्कसाए परिच्चयह ॥६३७॥ कोहो माणो माया लोभो चउरो य तो इमे भणिया। पत्तेयं सिद्धंते अणेगभेया विणिद्दिट्ठा ॥६३८॥ भवकूवम्मि अगाहे दुरंतवसनोह-सलिल-कलयम्मि । अरहट्टो विव जीवो, कम्मावेलिमालियाबद्धो ॥६३९।। तं चउरो वि कसायावसहसमा मोह-गद्दहिल्लेण । तरियं पेरिज्जंता, जीवरहट्टं भमाडिंति ॥६४०॥ तह विरसे संसारे, अवारपारम्मि लवणनामम्मि । चउरो इमे कसाया, सहति पायाल-कलस व्व ॥६४१ ।। तत्तो विवायवायव्वसेण निच्चं पि धुठ्ठयं तेहिं । एए जीवव्वहणा बोलिज्जंते जले सहसा ॥६४२।। उच्छलण-पडण-घंचण-घोलण-पमह अणत्थरिछोलिं । कारिज्जंते निच्चं, आपार-भव-जलहि-मज्झम्मि ||६४३॥ संहरियतत्तबोहं, निहणिय-धम्माइ-कज्ज-संदोहं । कयजम्मकोडिकोडी दुक्खोहं कोहमुज्झेसु ॥६४४॥ मुत्तुं कारागारं कयधिक्कारं भवेसु विहवेसु । परिहरसु अहंकारं, विसंतगुणवलणपडिहारं ॥६४५॥ 2010_04 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पच्चक्खमवीसंभं, तह दुग्गयदाणविहियरिंभं । संसारमहामंदिरथंभं, दंभं निरुंभेस ॥६४६।। सिवगइ-विहिय-निरोहं,असेसदोसाण मूलपारोहं । मोहनिवमहाजोहं, लोहं दूरेण परिहरसु ॥६४७।। अज्जिन अन्नपहवा-रोगा सव्वे वि जह तहा सव्वे । लोभप्पभवा दोसा इहलोए चेव परलोए ॥६४८।। पुत्रं सुहाण पावं दुहाण रयणायरो य रयणाणं । धननिवहाण पुहवी मूलं लोभो अणत्थाणं ।।६ ४९ ।। भव-भमण-मूल-कारण-मसेस-गण-निवह-वारणं घोरं । परिहरसु लोहमिक्कं अचिरेणं महसि जइ मुक्खं ॥६५०॥ खंडोहंडि काउं नीओ वि विरामसेसउवसामं । लोहो पणरवि जीयं अणंतसंसारियं कुणइ ॥६५१॥ दीसंति खमावंता निरहंकारा तहेव निम्माया । निल्लोहा पण विरला दीसंति न चेव दीसंति ॥६५२।। तिव्वं तवंति विविहं पढंति कामं जिणंति उद्दाम। दसह सहति लोह, जिणंति विरला न वा अहवा ॥६५३ ।। माया-लोह-कसाया रागो दोसो य कोह-माणो य । दोहि वि मिलिऊण जयं भामिज्जइ विविहमेएहिं ॥६५४॥ इह चेव भवे वेरी कद्धो वि ह कणइ दक्खलक्खाणि । रागद्दोसा पावा भवकोडीसं दुहं दिति ॥६५५।। एयम्मि अंतरे सो सिट्ठी पुच्छेइ नाह ! मह धूया । पंचालियाए तीए किं कज्ज खज्जिया विहिया ॥६५६॥ केवलनाण-वियाणियजम्म-समूहो लसंत-कारुण्णो । कुरुचंदो आह मुणी, निसणसु हे सिट्ठि ! उवउत्तो ॥६५७॥ अमणिय उदयत्थवणा-विलसिर-मणिभवण-किरण-निवहेहिं । सव्वं पि अस्थि जीए, सा सावत्थीपुरी अत्थि ॥६५८|| 2010_04 For Private & Personal use only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा निहारि - नारि - विगलंत - नित्त- जल- सित्त- कित्ति-कतारा । अप्पडिचक्को चक्कि व्व, तत्थ 'चक्काउहो राया ॥६५९॥ अवरोहर - मणि- सेहर - मणि व्व नवकमल-पत्त-पिहु-लच्छी । लच्छी लच्छिहरस्स, व हरिणच्छी' नाम से भज्जा ॥ ६६० ॥ तं जियसुवण्णवण्णं, रमणिं पावित्तु चारु - तारुण्णं । नियचित्ते नरनाहो, मन्नइ मयरंकमवि रंकं ॥६६१ ॥ एसा विरूववंतं, विजयजयंतं लहित्तु तं तं । तिलमवि तिलुत्तमाविय मलाइ सोहग्ग - सव्वस्सं ॥६६२॥ अत्थाणसहासीणे, नरनाहे अवरवासरे तत्थ । एगं दिव्वविमाणं, मणिमय - पंचालिया कलियं ॥६६३ ॥ अनिल-चलंद्धय-किंकिणिरण - ज्झणाराव - पूरिय- दियंतं । उद्धमुह- लो- लोयण-पिच्छिज्जंतं समणुपत्तं ॥ ६६४॥ तम्मज्झाओ वियसिय-पंकय - उयराउ रायहंसो व्व । निहरीय नरो एगो, नरवर - पायंतियं पत्तो ||६६५|| सो राय-पाय-पंकय-पणाम - पुव्वं वरासणासीणो । आगमणकज्जमवणीसरेण पुट्ठो पयंपेइ ||६६६ ॥ अत्थि गिरी वेयड्ढो, वियड्ढविज्जाहरोह - कयवासो । रमणत्थलाउ वासो वि व, नहलच्छीए पब्भट्ठे ॥६६७॥ तस्स सिहरम्मि सेहर - समाणमसमाणरिद्धि- पब्भारं । अत्थि पुरं सुपसिद्धं, रहनेउर-चक्कवालं ति ॥६६८॥ राया वि रायगोयर - पाविय - दुर्द्दत - सत्तु - संभारो । भुयदंड - धरिय - धरणी - भारो रहसेहरो नाम || ६६९॥ नो तस्स पियाए, रहंगसेणाए कुच्छिसरहंसा । निज्जिय-तिलोय - रमणी, तिलुत्तमा नाम वरकन्ना ॥६७०॥ सा नियसहीहिं सहिया, चलिया अवरम्मि वासरे मुद्धा नंदीसरम्मि दीवे, जगप्पईवाण नमणत्थं ॥ ६७१॥ 1 2010_04 २७३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं वारिय-दुरिय-समूहाण, वारिसेणाइतित्थनाहाण । तत्थ नियच्छइ पुरओ, पिच्छणयं कमलपत्तच्छी ॥६७२ ।। सोहम्मीसाणसूरेसराण, पच्चक्खमित्थ पिच्छणए । वायइ कलास कुसलो, कलावई तंबरुं वीणं ॥६७३ ।। हारिकरणंगहारं, मणहरणं विविहचारुचारीहिं । पयडइ ललियं नट्ट, रंभा रंभाभिरामोरू ॥६७४।। सा खयरेसरधूया, रंभारूवं निरूविउं सहसा । ऊहापोह काउं, जाईसरणं समणुपत्ता ॥६७५॥ जाणइ सुरिंद-सामाणियस्स तियसस्स कणयबाहुस्स । दइया पुव्वभवे हं, अहेसि नामेण कणयवई ॥६७६।। पिच्छणयंते पच्छइ,एसा विगलंत-नित्त-सयवत्ता । पियसहि !ममं भवंतर-नियय-सहिं मुणस कणयवई ॥६७७॥ तं सुणिय ससंरंभा, रंभा परिरंभिऊण तं कन्नं । जंपइ संपइ ट्ठिासि दिट्ठिया सुयणु ! दिलिहिं ॥६७८॥ तुह विरहदुहं दुसहं, जं जायं मज्झ तस्स पुण इण्डिं । वत्ता वि कन्नमूलं, निसुणिय मित्ता जणइ सूलं ॥६७९॥ निय दइय-तियस-समरण-तक्खण-संजाय-राय-मय-चित्ता । कन्ना ! संपइ साहस, मज्झ पिओ कत्थ उववन्नो ? ॥६८०॥ ओहिवाणवियाणिय, परमत्था वयइ तो इमं रंभा ।। सो कणयबाहतियसो, सावत्थीए निवो जाओ ॥६८१॥ तत्तो तिलत्तमा सा, रंभं आपच्छिऊण जिण-भवणे । वंदिय नियनयरं पइ, चलिया परिवार-संजुत्ता ॥६८२।। निय जणणि-जणयमापच्छिऊण सामंत-मंति-संजुत्ता । हे चक्काउह' नरवर ! सयंवरा तुज्झ सा एइ ॥६८३।। तुज्झ भवंतरदइयाइ तीए कन्नाइ किरणवेगो हं । निय-वइयर-जाणावण-कज्जे संपेसिओ एत्थ ॥६८४।। 2010_04 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २७५ अह पलय-समय-संकुद्ध-दुद्ध-मय-सिंधु-बंधुरारावं । सहसा विडंबयंतो उल्लसिओ तूर-संरावो ।।६८५।। खणमित्तेण नहतरमसेसमविसंकडं करेमाणो । मणिमयविमाणनियरो पच्चक्खो तत्थ संजाओ ॥६८६।। सोहम्मकप्पवासं चइत्तु एसो विमाणनिउरूंबो । तस्स निवस्स भवंतरपरिचयपत्त व्व पडिहाइ ॥६८७|| अच्छरियं तं पिच्छिय-राया रोमंच-रम्म-सव्वंगो । सहरिस-रहसापूरियचित्तो तत्तो पयंपेइ ॥६८८॥ हे किरणवेगखेयर ! ईसाणदिसाइ निययलोयस्स । कुसुममयरंदकाणणमझे कारेसु आवासं ॥६८९।। गंतं तह त्ति तेण वि विहिए उत्तममहत्तलग्गम्मि । सो तीइ पाणिकमलं गिण्हई रायाउरो राया ॥६९०॥ वीसज्जिऊण खेयरनियरं सव्वं पि तीए मुद्धाए । जम्मंतरनिद्धाए विसयसुहं भुंजए एसो ।।६९१ ।। राया तं चिय तरुणिं मनइ जीवं च अहव अहियं वा । रज्जस्स वि सव्वस्सं असार-संसारसारं वा ॥६९२॥ अबननेहनिब्भररत्ताणं ताणमवरपरिवारो । सव्वो वि हु विम्हरिओ किं वा वेयंति रायंधा ॥६९३।। संतत्थहरिणनयणाए, तीए अवहरियहिययसव्वस्सो । हरिणच्छीए राया वत्तामित्तं पि न करेइ ॥६९४॥ सा वि हु गलंतनित्ता दीहरनीसाससोसियसरीरा । वरिसं व निमेसं पि ह मन्नइ जुगलक्खमिवजामं ॥६९५॥ वामकर-कमल-मेलिय-कवोल-मूला निरंतरंसूहिं । नीसासलहरिसुसियं सिंचइ निच्चं अहरपत्तं ॥६९६।। ईसा-मच्छर-निब्भर-दुक्खोह-कडक्खिया लवंगीए । सा नियसहीए भणिया इमाहि सुपसिद्धजत्तीहिं ॥६९७॥ 2010_04 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सहि ! एरिसि च्चिय गई मारु व्व उत्तंस-वलियमुहइंदं । एयाण बालवालुंकि-तंतुकुडीलाण पिम्माणं ॥६९८॥ जम्मंतरलक्खपरूढदक्खरुक्खस्स तिन्नि साहाओ । सेवा खलेसु विहवो परेसु पिम्मं अपिम्मेसु ॥६९९।। एवं सिक्खविया सा तिलुत्तमाए पओसमावण्णा । तावस-दिक्खं गहिउं, मरिउं इह वंतरी जाया ।।७००।। अवहि-पओगं काउं, देहे चक्काउहस्स नरवइणो । कास-जर-सास-सूलप्पमुहदुहं सा वि उव्वेइ ॥७०१॥ बहवाहि-तत्तगत्तो, कहमवि मज्झत्थ-भावमावत्रो । राया मरिउं जाओ, राया सओ वज्जबाहु त्ति ।।७०२।। पियविरहकायरा सा, तिलत्तमा वंतरीइ विहिएहिं । रोगनिवहेहिं मरिउं, जाया हे सिट्ठि ! तुह धूया ॥७०३॥ वम्मह-भवण-निविट्ठा, सा दिट्ठा वंतरीए तुह धूया । समरिय पव्वं वेर, हरिणच्छी जम्म-पडिबद्धं ॥७०४।। पणरवि एसा पावा, वरं वरं पाविहि त्ति चिंतित्ता । पंचालिया मीसेणं, तीए इमा खुज्जिया विहिया ॥७०५।। जम्मंतरपत्ताण वि, वरं वड्ढंति जे महापावा । तिच्चिय धवं कसाया, जीवाणं वेरिणो मन्ने ॥७०६॥ जइया साहियविज्जा, एही इह चेव कुलिसवाहू सो । तइया तम्माहप्पा, सहावरूवा इमा होही ॥७०७॥ तुह पुव्वपुरिसकारिय-संभवजिण-भवणदार-देसम्मि । कारस पवेसवारणकज्जे, नारायघण-निचयं ।।७०८।। तविवरेहिं मज्झे, पविसिय संभवजिणस्स जो पूयं । करिहि विनायव्वो, सो तुमए वज्जबाहु त्ति ।।७०९॥ सा वि सुतारा खुज्जा, उवविट्ठा तत्थ चेव मुणिवयणं । सव्वं पि सुणिय सहसा, जाईसरणं समणुपत्ता ॥७१०॥ 2010_04 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा २७७ नियजम्मंतर-दइयं, समरिय खज्जत्तणं च अप्परस्स । सा पिच्छिय सविसाया, एवं परिभाविउं लग्गा ॥७११॥ रे निक्कारणवेरिय ! हयविहि ! किं तुज्झ कहसु अवरद्धं ?। पिय-विरह-करूवत्तण-पमह-दुहं मज्झ जं देसि ||७१२।। दोसा न चेव तिस्सा, वंतरदेवीए अहव अस्स । मज्झ भवंतर-दुक्कय-दोसो एसो धुवं किंतु ।।७१३॥ जं चित्ते चिंतेउ, जं न वि जीहाए भासिउं सक्का । इह हवइ तं पि दक्खं, ही विरसो एस संसारो ॥७१४।। इच्चाइ चिंतयंतिं नियधूवं संठवित्तु गहिऊण । मुणिवयणि गहियधम्मो, सिट्ठी सट्ठाणमणुपत्तो ।।७१५।। सो कणय-कमल-कुंडल-पउमेहिमलंकरित्तु जिणपडिमं । नारायवयं दारे, पाउयजुयलं ठवइ बाहिं ॥७१६।। तत्तो कमार ! संपइ, संभवजिणपूयणाउ मनेमि । सो चेव वज्जबाह कमरो तं होसि निब्भंतं ॥७१७॥ अहयं च तस्स सिट्ठिस्स नंदणो मीणकेयणो नाम । तत्तो कुमार ! तिस्सा, कनाए हरेसु खुज्जत्तं ।।७१८॥ निव्वाण-देह-जोव्वण-विहव-समूहाए विविह-वत्थूणं । अच्चंतमसाराणं, सारं जाणेस उवयारं ॥७१९॥ संजाय-जाइसरेण, तेण कमरेण तस्स उवरोह । तिस्सा निब्भरनेह, मणम्मि काऊणं तं खुज्जं ॥७२०।। आणाविय से दिना, रूव-परावित्ति-कारिणी विज्जा । भणिया य पव्वरूवं, चित्तिकाउं सरस विज्जं ॥७२१॥ अह तीइ सरणमित्तेण, सा वि संहरिय-खुज्जीया रूवा । जाया पुणरवि कन्ना, विजियसवना सवत्रेण ॥७२२॥ जवनयण-भमरमल्लि व्व मारवीरस्स हत्थभल्लि व्व । भवण-जण-चित्त-मोहण-संचारिम-नाय-वल्लि व्व ॥७२३॥ 2010_04 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सिरिपउमप्पहसामिचरिय कुच-कुंभत्थल-करिणी, तरंग-तरलच्छि-विजय-सिसु-हरिणी । रूवेण मयण-घरिणी, पच्चक्खा तेण सा दिट्ठा ॥७२४॥ अनन्न-नयणमिलिणे, ताण भवंतर-परूढ-पिम्माणं । रोमंचमिसा हरिसो, वियसइ अंगे अमायंतो ॥७२५॥ तह्रण कामदेवेण, कमर-कुमरीण ताणमन्त्रनं । वीवाहो निम्मविओ, नच्चिर-वर-तरुणि-संदोहो ॥७२६॥ विहिए दसाहियमहे, महंत-दिप्पंतरयण-निम्मवियं । भिन्नमभिन्नमणाणं, दिण्णं भवणंतओ तेण ॥७२७॥ दिज्जंतविविहवत्थस्स, निच्च-किज्जत-मंगल-सयस्स । पुज्जंतवंछियस्स य, तस्स गया कित्तिया दियहा ॥७२८।। सिद्धंत-सिद्ध-दिटुंत-हेउ-जुत्तीहि तेण सा विहिया । जिणमयनिरया संतो, इत्थ परमत्थ वि सह दिति ॥७२९।। ताणं विलासललियं, कलिऊणं तहय निब्भरं नेहं । हरिणच्छिवंतरी सा, संजाया रोस-रत्तच्छी ॥७३०॥ चिंतइय पिच्छ पावाए, पुण्ण वि पत्तो पिउ निओ तत्तो । कत्तो किह वा वेरं, निययं निज्जामइस्सामि ।।७३१ ।। संपइ इमाणि दन्नि वि, गुरूवएसाओ निच्चलमणाणि । तत्तो जिणिंद-धम्मप्पभावओ अहयमिण्हिमेयाणं । पिच्छेउं पि न सक्का, अणत्थकरणं पणो दूरे ।।७३२॥ कुमरस्स नियमभंगकारिय साहेमि तो नियं वेरं । सो चेव महासत्तू, करेइ जो धम्म-पब्भंसं ॥७३३।। इय चिंतिय देसंतर-वणिओ होऊण कुमरपासम्मि । संपत्ता सा पावा, अणेय-वणिउत्त-संजत्ता ॥७३४।। सह तेण कमारस्स य, जाया मित्ती अणन्न सामना । कुमरस्स पुरो कहियं विसाहभूइ' त्ति नियनामं ॥७३५॥ गच्छंति दो वि मिलिया, सरिया तीरम्मि पउरनीरम्मि । . 2010_04 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा । परकूले तरुमूले, वीसंता जाव चिट्ठति ॥ ७३६॥ आमूल-थूल - मुलुप्पाडीयबहु विडवि - पयड - सामत्था । पाउस - पारंभि - च्चिय, वित्थरिया सलीलपत्थारी ॥७३७॥ उभय-तड- निविड - मिलिया, रेहइ सरियाइ-सलिल-रिछोली । नव- पाउस - लच्छीए, कडक्ख-लहरि व्व वित्थरिया || ७३८॥ आगच्छिंतिं पिच्छंति, दो वि सरि-सलिल - मज्झ - देसम्म । मंजूसमेगमसमाण - विहव - संभार - पडिहत्थं ॥७३९॥ जंपर विसाहभूई, कुमार ! गिण्हेसु रयण-‍ - मंजू जेण मणोरह - निवहा, सव्वे सिज्झति आजम्मं ॥ ७४० || अह कूलमूल-पारूढ - विडवि - मूलेसु लंबमाणेसु । सहसा एसा लग्गा, मंजूसा ताण पच्चक्खं ॥ ७४१ ।। साहइ विसाहभूई सयंवरा कुमर ! तुह सिरीपत्ता । कूलंकसायकूले, जं मंजूसा सयं लग्गा ||७४२ ॥ तो गिण्हुसु अविलंब, जाव न पिच्छेइ को वि निवपुरिसो । अन्नं पि समयपत्तं, न वि हेयं किं पुणो विहवो ? ||७४३॥ वज्जरइ तओ कुमरो, मुहाए हे मित्त ! इत्थ लुद्धोम | नट्ठाणं विहवाणं नाहं नाहो जुगंते वि ||७४४|| उक्तं च पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितं । अदत्तं नाददीत स्वं, परकीयं क्वचित् सुधीः ॥७४५॥ निच्चल-चित्तं नाउं, कुमरं अह तेण कूडमित्तेण । निहत्थे वर - मुद्दा - रयणं विउरुव्वियं दिव्वं ॥ ७४६॥ जस्स मऊहसमूहा, करिति उज्जोयमंधयारम्मि । खर-किरण-किरण- नियरेहिं पाडिसिद्धिं समीहंता ||७४७ || तं पिच्छिय कुमरेणं, पुच्छिय मइ - रम्म - मुद्दिया - रयणं । हे मित्त ! तए दीवे कत्थ इमं कहसु संपत्तं ? ॥७४८॥ 2010_04 २७९ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सिरिपउमप्पहसामिचरिय सो आह मह कमागयमेयममुल्लं अमुल्ल-माहप्पं । मह जीवियसव्वस्सं, मुद्दारयणं वियाणाहिं ॥७४९॥ अह पूरे मंदजले जाए निय-भवणसम्मुहं दुण्हं । वच्चंताणं पडियं, विसाहभूइस्स तं रयणं ।।७५०॥ पच्छा आगच्छंतो, कुमरो पिच्छित्तु गिण्हए तं च । चेलंचल-पज्जंते, जत्तेणं बंधए तत्तो ॥७५१ ।। मंदिरदारे तत्तो, 'विसाहभूई' पयंपए कुमरं । हा मज्झ तं पि रयणं, कराउ पडियं नई तीरे ।।७५२ ।। जइ कमरं तं पि रयणं, न लहिस्सं संपयं धवं तत्तो । होही पाणच्चाओ, तो तं वलिऊण पिच्छामो ॥७५३॥ वियसिय-मह-कमलेणं, निरीह-चित्तेण तेण कमरेण । चेलंऽचलाउ रयणं, समप्पियं तस्स मित्तस्स ॥७५४॥ चिंतइ विसाहभूई, इमस्स कमरस्स निच्चलमणस्स । सच्चरियं अच्छरियं, न ह कस्स जणेइ हिययम्मि ॥७५५।। संपइ उवायमेगं, तं किं पि करेमि जेण कमरस्स । सहसा चलिही चित्तं, निच्चलमवि नियय नियमाउ ॥७५६॥ अह तेण सुताराए, विहिया सिर-वेयणा महाघोरा । अत्थी कुच्छी सुकयं, सूलं मूलं दुहसयाणं ॥७५७॥ मूलेण तेण अंतो, पविट्ठलोहमयसूल-सरिसेण । दलइ व चलइ व बाला, एसा झिज्झइ व विज्झइ व ॥७५८॥ विरसं रसेइ दीहं, ससेइ करुणं रुएइ गलिरच्छी । तारं विलवइ बाला, तह जह भुवणं पि विलवेइ ॥७५९॥ सयणो सनो तिस्सा, दहि विसनो य परियणो जाओ। अइ दुहिओ य कुमारो, तहा ससोओ पुरी लोओ ॥७६०॥ विलवंतीए, तीए, पत्ते अवयरिय वंतरी वयइ ।। जइ कुमर ! तुह पीयाए, कज्जं ता कुणसु मह वयणं ॥७६१ ॥ 2010_04 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा मरहट्ठदेसतिलए, रिट्ठपुरे उत्तरम्मि दिसिभाए । कुसुमनिहाणुज्जाणे, चिट्ठइ जक्खो साणंदो ॥ ७६२ ॥ कम्मितस्सवामे, मउह- ह - संभार - भरिय - नह-विवरं । अत्थि अमुल्लं रयणं, अणप्पमाहप्प - दिप्पतं ॥ ७६३॥ हविऊणं तं रयणं नीरं पाएस निय पियं जीयं । जइ वंछसि एयाए, अन्नह मरणं धुवं सरणं ॥ ७६४।। अह सा वयइ सुतारा, सच्चं जइ कुमरमज्झ नाहोऽसि । आणेसु तओ गंतुं, नएण अनएण वा रयणं ॥ ७६५।। अह खग्गवग्ग-हत्थो, कुमरो आयास - गमण - विज्जाए । मरहट्ठे रिट्ठपुरे, जक्खामि संपतो ||७६६ || तब्भवण- पडिहारो, चिंतइ संतराओ दूराउ । उवाइय-वसपत्तो, एसो मं अच्चिही अज्ज ॥७६७॥ सो उण कुमरो पूयं, पणाम - मित्तं पिस अकाऊण । जाविस भवणमज्झे, ता तेणं हक्किओ सहसा ||७६८ || रे दुट्ठ-धिट्ठ ! निक्किट्ठ ! कोसि ? पाविट्ठ ! अज्ज न हु होसि । अज्जं मरेसि रे नट्ठ ! एस कयंतो अहं पत्तो ॥ ७६९ ॥ इय जंपिरेण तेणं, कराल -कंकाल - भूय-वेयाला । किलिकिलिरागिलि - रमणा विउव्विया पंचसयसंखा ||७७० || परिवेढिओ य तेहिं, गुडु व्व मक्कोडएहिं सो कुमरो । आयड्ढिय करवालं, वेयालगणं हणइ जाव ॥ ७७१॥ ताव पयंपियमेयं, एगेण तत्थ घोर - भूण | जइ खत्तिओसि सच्चं, ता जुज्झसु मल्लजुज्झेण ॥७७२॥ परिहरिय मंडलग्गो, कुमरो वि तेहिं भूएहिं । ते वि हु महल्लमल्ला, होउं जुज्झति कुमरेण ॥७७३॥ के वि हु निठुर - कुप्पर - घाएणं हणइ गुरुचवेडाहिं । हु के वि हु, पतल - घाएणं के वि मुट्ठीए ||७७४|| 2010_04 २८१ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं भूमीतलम्मि के वि हु, अप्फालइ के वि निहणइ कुमरो । अन्नना घाएण, के वि ह उच्छालए गयणे ॥७७५।। दिसि दिसि वेयालेसं, पलायमाणेसु जंपए कुमरो । रे पडिहारवराए किमि व्व मारावसे किमिमे ॥७७६॥ सच्चं चिय जइ सूरो, मरण-भयं नत्थि सह मए तत्तो । निसियतरं तरवारिं, करियकरे जुज्झ सयमेव ॥७७७।। तं कन्नमूलसूलायमाणवयणं निसामिउं एसो । सह कुमरेण ब्भिट्ठो करकय-धाराल-करवालो ॥७७८।। निक्किव-किवाण-पाणी, सपाण (नि)रविक्ख मह इमे जाव । जज्झंति तावतेसिं, तट्टा वारं गओ खग्गा ॥७७९॥ कमरेण पट्ठिदेसे, निहओ मट्ठीइ तह इमो जह से । धूली वि हु न वि दिट्ठा, पलायमाणस्स वेगेण ॥७८०।। कुमरो वि भवणमज्झे, पविसंतो तेण जक्खराएण । भणिओ कहेस सपरिस ! आगमणपओयणं निययं ॥७८१ ।। नियवामसवणरयणं, देसु त्ति पयंपिए कुमारेण । सो आह जगते वि हु, न इमं अप्पेमि जीवंतो ॥७८२॥ जइ पुण अविदिनं पि हु, बला वि गिण्हेसु तो इमं गिण्हे । किं मूढ ! को वि जीविय सव्वस्सं अप्पए वत्थं ।।७८३।। सो आह मज्झ भज्जा, अज्जं रोगेहिं गाढसंगहिया । तत्तो एयं रयणं, करुणं काऊण अप्पेसु ॥७८४।। अह न वि अप्पसि निययं, रयणं तत्तो इमस्स अप्पेसु । पहाण-जलं तेणावि हु, वाहि-विमुक्का इमा होही ॥७८५।। वज्जरइ जक्खराओ, तज्झ कडुंब पि मरउ किं मज्झ ? । सम्मुहनिरक्खणं पि हु, न देमि निययाण वत्थूणं ॥७८६ ।। जइ पण बला वि गिण्हसि, सह मह जीएण तो इमं गिण्ह । किं कोउगमिह अहवा हणंति जं दुब्बलं बलिया ॥७८७॥ 2010_04 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जबाहुकुमारकथा ||७८८|| कुमरो वि आह नाहं वित्तमदत्तं कया वि गिण्हेमि । जं तइयव्वय-नियमो सुगुरु- समीवे मए गहि गच्छेउ लच्छि-जीवीय - देह - कलत्ताइ - वत्थु - वित्थारो | निय नियमं अह यं, पाणच्चाए वि भंजेमि ॥७८९ ॥ जइ पुण एयं रयणं, मुहुत्तमित्तं पि मज्झ अप्पेसि जं मग्गियस्स दाणं, करेमि तो तुह न संदेहो || ७९०॥ जक्खो जंपइ निययं, सीसं जच्छेसु जेण तुट्ठमणो । गंतूण तुज्झ भज्जं, करेमि सज्जं खणद्धेण ॥७९१॥ आमंति पयंपतो, कुमरो सिर-कमल- छेयण-निमित्तं । धारालं निय छुरियं, तुरियं आयड्ढए सहसा ||७९२ ।। एत्थंतरम्मि पयडा, होऊणं वाणमंतरी सा वि । जंपइ कुमार ! साहसमवियार करेसि किं एयं ? ||७९३॥ किं मूढ ! मुहा मरिहिसि, भिक्खायर - वयण - -पडु- - पवंचेहिं । किं देसि नियं सीसं, सत्थे वि विमोहिओ बाढं ॥ ७९४ || छुरियाए इमाइ च्चिय, इमस्स जक्खस्स छिंदिउं सवणं । रयणं गिण्हसु जम्हा, वसुंधरा वीर - परिभुज्जा ॥ ७९५॥ सो आह नियपइण्णा, निव्वाहे होउ सीसछेउं वि । सिरछेयणाउ अहियं, मन्ने पडिवन-विच्छेयं ॥ ७९६ ॥ इय जंपिय जाव इमो, लुणेइ सीसं नियाय छुरियाए । तो ती जंपियमिणं, हे सुपुरिस ! 'साहु साहु ति ॥७९७|| तुज्झ भवंतरदइया, हरिणच्छी नाम जा तए चत्ता । मरिऊणं सा अहयं, वंतर - देवित्तणं पत्ता ॥७९८ ॥ नियम - ब्स - निमित्तं, मए उवाएहिं विविह - भंगीहिं । मच्छर-परव्वसाए, कुमार ! जं खेइओ विविहं ॥ ७९९ ॥ सव्वं पि तं खमिज्जसु, गरुया न कुणंति दीहरं रोसं । को वा कोवावसरो, निययजणे सावराहे वि ॥८०० ॥ 2010_04 २८३ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ इच्चाइ पयंपेउं, अप्पेउं तस्स विविह- रयणाणि । कुमरं अणुनवेडं, सा सहसा जाइ निय - ठाणे ॥ ८०१ ॥ धणदायगाणि विस - घायगाणि रयणाणि रोगहरणाणि । दिनाणि ती कुमरो, गिण्हेउं जाइ नियनयरे ॥८०२॥ निय दइयं चिय नवरं, अवरं पि जयं करेइ नीरोयं । कुमरो गुणीण अहवा, सव्वं सव्वस्स सामन्नं ॥८०३॥ सरियाण जलं वेसाण जुव्वणं, तरुवराण फल- निवहो । सप्पुरिसेहिं वित्तं, सामन्नं सयल - लोयस्स ॥८०४|| विन्नाय वइयरेणं, रत्ना तेणा वि कुमरजणएण । आहविय तस्स रज्जं दिनं, दिक्खा तओ गहिया || ८०५ || सो पत्तसाहुवाओ, कय अणुराओ नियम्मि नियरज्जं । परिहरिय जीवघाओ, पालइ परिकलियमज्जाओ ॥८०६ ॥ अप्पस्स वि माहप्पं, नियमस्स वियाणिऊण सव्वाणि । गिण्हइ गिहिव्वयाई, अविचल - चित्तो सुगुरुपासे ॥८०७ ॥ नियनियमे परिवालिय, सो पत्तो अच्चुयम्मि कप्पम्म । चविउं अक्खयय - सुक्खं, मुक्खं लहिही विदेहमि ॥८०८ || तेणत्तणविरइवयं, कयं जहा तेण तह विहेयव्वं । अवरेण वि छेएणं सीसच्छेए वि संपत्तो ॥ ८०९ ॥ इति तृतीयव्रते वज्रबाहुकथानकं समाप्तम् ॥गा.३७१६॥ परदारविरमणवये अणंतकित्तिकुमरस्स कहा इयलोय-पारलोइय-सुहाणि कित्तिं तहा समीहंतो । हुज्जा सदारतुट्ठो, परदारं वा विवज्जिज्जा ॥ ८१० ॥ परदारं तह वेसं वज्जेइ नरो सदारसंतुट्ठो । परनरसंगहियं चिय वज्जइ दुइओ न उण वेसं १८११ ॥ अन्नं पि कामसुक्खं कामयमाणं दुरंत - निरएसु । वच्चति अकामा वि जं भणियं पवरसिर्द्धते ॥ ८१२ ॥ हु 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा २८५ सल्लं कामा विसं कामा कामा आसी-विसोवमा । कामे य पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई ॥८१३॥(उत्त.अ.९।गा.५३।) परदारपसंगो पण निरयगईए विसेसओ हेऊ । तत्तो वज्जयव्वो अप्पहियं जाणमाणेहिं ॥८१४॥ जे परदारपसत्ता तव्विरहयासणेण डझंति । नरयम्मि अग्गजाणं मन्ने पत्तं परा तेसिं ॥८१५।। न वि उवसंतो जेसिं विरह-हुयासो तुसार-किरियाहिं । तं तेसिं अवहरिही नरए वज्जानलो जलिओ ।।८१६॥ परदारपरिरंभ आरंभइ जो विवेय-परिचत्तो । सच्चं सच्चं कारइ सो तंबय-तत्त-पुत्तलियं ॥८१७॥ अंधा तह जच्चंधा कोवंधा विहव-लोह-कामंधा । एएण कमेण सव्वे वि सेस अंधा मणेयव्वा ।।८१८।। परदार-हरणं पावं, विसय-तिसाए करेइ जो मूढो । नरएसु तत्त-तंबय-तउ-पाणं सो धुवं करिही ॥८१९॥ पढमं हियया कंपो, पर-परिस-भयं पचंड-दंड-भयं । कामिणि तह वि तत्थ वि, रई अहो मोह-माहप्पं ॥८२०॥ वनति केस-पासं वरिह-कलावं व तरुण-रमणीणं । न मणति निरय-सम्मह-माकरिसण-काल-पासं च ।।८२१॥ भंगर-भमहं वनंति, काम-कोदंड-दंड-सारिच्छं । निरय-दवारुग्घाडण-कंचियमेयं न याणंति ॥८२२॥ खीरोय-जलहि-लहरीसरिसं पिच्छंति चक्खु-विक्खेवं । विसय-मय-गरल-लहरीमालाउ इमा न वेयति ।।८२३॥ नासावंसं पिच्छंति, नयण-नव-नलिण-नाल-सारिच्छं । न मुणंति सिंभ-निग्गम-पनाल-नालं इमं मूढा ॥८२४।। हिययत्थ-राय-सागर-तरंग-सरिसं भणंति अहरदलं । न मणंति कामिणीणं गहणत्थं आमिसं एयं ॥८२५॥ 2010_04 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ कामं दोलण - सरिसा, भांति सवणा निकाम-कामंधा । न मुणंति कूडपासा, कामय - हरिणाण गहणत्थं ॥८२६॥ जे उण विवेयवंता, सम्मं मन्नंति ते इमं इत्थं । असुइ-मल-भरियमेयं, अणवट्ठिय कुट्ठियारूवं ॥८२७॥ तो इक्कारस मुत्तासुइप्पवाहा सव्व इत्थओ | मुत्तुं जइ वि न सक्का, परदारं तह विवज्जेह ||८२८।। नेरइया तह तिरिया, कुंटा मुंटा नपुंसगा रोरा । दोहग्ग-दहण-दद्धा, परदार - रया सया हुंति ॥ ८२९॥ देवा उत्तम-मणुया, धणिणो सव्वंग - सुंदरावयवा । सोहग्ग-महानिहिणो, सदार - तुट्ठा नरा हुंति ॥ ८३० ॥ जह परदारं पुरिसा, विवेयवंता चयंति आजम्मं । इत्थीहिं पर–पुरिसो, तहेव वज्जो पत्ते ||८३१ ॥ परदार-विरत्ताणं, इहेव महिमा हवेइ सुरविहिया । इह अत्थे दिट्ठतो, अणंतकित्तिस्स कुमरस्स ॥ ८३२ ॥ अणंतकित्तिकुमारकहा जंबूदीवे दीवे, भारहवासम्म आसि वरनयरी | नामेण वेजयंती, नयरेसुं वेजयंति व्व ॥ ८३३ ॥ उच्छलिय- सिन्न -धूली - छायइमायंड - मंडलो तत्थ । राया जहत्थ नामो, अनंतसेणो कुणइ रज्जं ॥ ८३४|| सयलावरोहसारा, सारासारत्थ - विहिय-सुवियारा । तस्सासि पट्टदेवी, जयलच्छी नाम कमलच्छी ||८३५॥ रनो य तस्स पुत्ता, अवरावर - देवि - गब्भ-संभूया । आसि सयममरकित्तीसयकित्तिप्पमुहनामाणो ||८३६॥ जामणि- विरामसमए, सा जयलच्छी वि पिच्छए सुमिणे । पविसंतं नियवयणे, अनंतमुत्तियमयं हारं ॥ ८३७ ।। सा पडिबुद्धा देवी, पासाए नरवइस्स गंतूणं । आइक्खइ तं सुमिणं, सुयजम्मं संसए राया ॥ ८३८ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा तद्दिणमारंभेउं, गब्भं धारेइ रयण - निउरंबं । रोहणधर व्व समए, सुयं पसूया लडह - देहं ॥ ८३९॥ वद्धावणाइपुव्वं, रजा सुविणाणुसारओ दिनं । पुत्तस्स तस्स नाम 'अणंतकित्ति त्ति सुपसिद्धं ॥ ८४०॥ रत्नो महूसंवेहिं, वड्ढंतो सो वि सुंदरावयवो । सक्खी काऊण गुरुं, कला - कलावं कलइ सयलं ॥८४१ ॥ तस्स य सह सिद्धाओ, हविंसु उप्पत्तियाइ - बुद्धीओ । सुर - गुरुणोवि समत्थो, सो कुमरो पत्त - दाणम्मि ॥८४२ ॥ आबाल - कालओ च्चिय तस्स य सिद्धंत - तत्त - परमत्थो । परिणमिओ सव्वंगं, महुररसो सक्कराए व्व ॥ ८४३॥ जिय- सुर - रूवं रूवं, निरुविउं तस्स कामरागंधा । सुरसुंदरी वि मोहं, कुणंति बहुणा किमन्त्रेण ? ||८४४|| अत्थाण - सहासीणे, नरनाहे अवरवासरे पुरिसो । एगो सनारिजुयलो, पडिहार-निवेइओ पत्तो ||८४५॥ राय - प्पणाम - पुव्वं, उवविट्ठा ते वि उचिय - ठाणम्मि । रना पसाय - पुव्वं, भणिया विन्नवह निय-कज्जं ॥८४६ ॥ ताणं एगा विलया, जंपइ मह देव - देवसमरूवो । भत्ताएसो जणयावमाणिउं निग्गओ स पुरा ||८४७।। एएण समं अहमवि, चलिया भत्तार - भत्ति - उज्जुत्ता । कमसो इह सो पत्तो, अज्ज निसाए मए सद्धिं ॥ ८४८|| वसिओ दुवारवासिणि- देवी भवणम्मि एस वीसत्थो । जाए पभाय- समए, दिट्ठा एसा वि पाविट्ठा ॥८४९ ॥ मह पणा सह विविहं, विलसती तो मए समारद्धो । कलहो इमाए सद्धिं, न य एसा निज्जिया कह वि ॥८५० ॥ तो काऊण पसायं, छिंद विवायं वियारणा पुव्वं । सच्चासच्चविवेओ, रायायत्तो जए सयले ॥८५१ ॥ 2010_04 २८७ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अवरा वि जंपइ इमं, सामिय-निय-जणणि-जणय-सयणाई । निय दइयमोह-मोहियमणाए मुक्को मए सव्वो ॥८५२।। एसा उ वंतरी वा, खयरी वा हियय-वल्लहं मज्झं । दठूण अंगचंगं, अणंगमिव लडह-लायन्नं ॥८५३॥ काऊण मज्झ रूवं, पत्ता कलहं करेइ निल्लज्जा । । तो कुणसु सुद्ध-निन्नयामिहरा दोसो तुह च्चेव ।।८५४॥ उल्लसिय कोउहल्लो, मंति-महं नियइ झ त्ति नरनाहो । ते तं भणंति पुरिसं, पत्तेयं पुच्छ एयाओ ॥८५५॥ काऊण भिन्न भिन्ना, रहस्स भणियाणि हरिय-रमियाणि । पुट्ठा उ तेण दुन्नि वि, सव्वं साहिति अणुभूयं ॥८५६।। जं जं रहस्स विहियं-भज्जा साहेइ वंतरी सा वि । तं तं सव्वं साहइ, ओहिनाणेण जाणित्ता ॥८५७॥ अणमिस-नयणप्पमहं, सरचिधं ताण ते वि पिच्छंति । सो उण सरमायाए, निमेसपमहं पयासेइ ॥८५८|| तो राया सविसाओ, मतिप्पमहाइ जाव चिट्ठति । तोऽणंतकित्तिकुमरो, तं पुरिसं निय समीवम्मि ॥८५९।। उववेसित्ता दुन्नि वि, जंपइ इत्थिउ तुम्ह जा सच्चा । सा दत्था दइयं, छिवेउ निय-सील-माहप्पा ॥८६०॥ जा दूरत्थं दइयं, सीलपभावेण नियय हत्थेण । छिविही तीए भत्ता, अप्पेयव्वो न संदेहो ॥८६१ ॥ तो वाणंमतरी सा, निब्बद्धी छिवइ दूरओ दइयं । संडा दंडागारं, निययं हत्थं पसारित्ता ॥८६२।। तं चेव दीहबाहुं धरिउं कुमरेण वंतरी भणिया । पाविट्ठि ! अम्ह नयरे दंभसि वीसंभियं लोयं ।।८६३॥ एवं चिय तुह बाहुं सह नासाए इहेव छिंदेमि । इय भणिया कुमरेणं पलाइया वंतरी सहसा ।।८६४|| ___ 2010_04 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा २८९ मंतीहि कुमरबुद्धी पसंसिया राइणा वि सो परिसो । निय भज्जाए सद्धिं विसज्जिओ निग्गओ नयरा ।।८६५।। समयंतरम्मि पुणरवि दो पुरिसा इत्थिया य तह एगा । नवतारुण्णरवन्ना संपत्ता राय-अत्थाणे ॥८६६॥ पुरिसा कुणंति दुन्नि वि इत्थी-कज्जम्मि ते विसंवायं । एगो वयइ इमीए सह भज्जाए अहं चलिओ ॥८६७॥ मिलिओ य अंतराले एसो काऊण किं पि संलावं । जंपइ धुत्तो धिट्ठो एसा मह चेव भज्ज त्ति ॥८६८॥ भत्तारं पइ महिला जंपइ धुत्तम्मि विहिय संकेया । पाविट्ठ ! पारदारिय न भवसि सुमिणो वि मह भत्ता ।।८६९।। कुमरेण ताणि तिन्नि वि भिन्ने भिन्नम्मि ठाविउं ठाणे । पुट्ठाणि पुव्वगामे अन्नुन्नं तेहिं जं भुत्तं ।।८७०।। वमण-विरेयण-विहिणा कया परिक्खा तओ विसंवाओ। महिलाए धुत्तस्स य अन्नोन्नं तेण विन्नाओ ।।८७१॥ निय पइणो सा महिला समप्पिया किं चि सिक्खवेऊण । गहिऊण सव्वसारं धत्तो निव्वासिओ नयरा ।।८७२।। एवं विवायलक्खा उवायकसलेण निययबुद्धीए । निट्ठविया कुमरेणं किमसज्झं बुद्धीमंताण ? ॥८७३॥ साहस्सियाण दाणेसराण दक्खाण रूववंताण । तस्स कुमरस्स रेहा पउरेहिं दिज्जए पढमा ॥८७४॥ . लीलावणेसु कीलागिरीसु सरसीसु वाहकेलीसु । दीवसु व्व दिवसनाहं तं चिय अणुगम्मए लोओ ॥८७५॥ अन्ने सयं कुमारा जिट्ठा कुमरस्स नेय नाम पि । ताणं को वि वियाणइ, दियहे तारागणाणं च ॥८७६।। विनयंकिओ वि वंसुब्भवो वि पुरिसो तहेव को दंडो । न वि पावइ गुणमुक्को वर-कित्तिं तह य टंकारं ॥८७७।। 2010_04 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सिरिपउमप्पहसामिचरिय निच्चं जत्तं गुणेसुं कुणह किमवरं केसपासे निबद्धं । फुल्ली मल्लीइ मल्लं परिहरइ जणो जेण गंधेण मक्कं ॥८७८॥ गुंजा मुत्ताहलाणं मिहर-ससि-मणी वालुया सक्कराणं । कत्थूरी कद्दमाणं च इय नियगणं हंत ! को वा विसेसो ॥८७९॥ लोउत्तरचरियगणं कमरं तं चेव विविहगोट्ठीस । वीसंभकहासं चिय सव्वो वि जणो पसंसेइ ॥८८०॥ अत्थाणं-सहासीणं रायं समयंतरम्मि सप्पणयं । उज्जाणपालगनरा ससंभमं विनवंति इमं ।।८८१॥ भट्टा उद्दीयमाणं कहमवि उवरि पिक्खिउं पक्खिजायं । सुंडादंडं पयंडं जमभुयसरिसं उड्ढओ भामयंतो । अज्जं उज्जाणदेसे दिसि दिसि मिलिया लोलरोलंबरोलो । संपत्तो को वि हत्थी मयपसरझरो जंगमो विंझसेलो ।।८८२॥ सुणिऊण इमं राया सकोउहल्लो ससिन्नपरिवारो । नियकमरविंदवरिओ संपत्तो तत्थ उज्जाणे ॥८८३।। पिच्छइ दंतवलाहयपति विगलंतमयजलासारं । गंभीरं गज्जतं तं भूमिगयं च जलवाहं ।।८८४॥ तस्सेव गंधसिंधुरगंधेणं अवहत्थिणो रनो । पढमं चेव पलाणा पयंडपवणेण मेह व्व ॥८८५।। उइंडसुंडदंडं दीहं धरिऊण सो वि वणहत्थी । पसरइ जणाणमुवरि दंडकरो कुवियकालो व्व ॥८८६।। तं पसरतं जाणिय अमच्चभणिओ पलाइओ राया । आरूढो पायारे कया विं अवसरमवि रम्मं ॥८८७।। सिच्छाए संहरंतो भंजतो सो परम्मि संपत्तो । न य केण वि पडिसिद्धो जयम्मि हयविहिविलास व्व ॥८८८। पसरते तम्मि गए आराहत्था तहेव पडियारा । लक्का कहिं चि रयणी तिमिरभरे कायचंन्द्रं व ॥८८९॥ 2010_04 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा भवणजण- पुरविणासं पिच्छइ राया भणेइ हे वीरा ! एयं दुट्ठगइंदं दमेह अहवा वि तासेह ||८९०॥ ते वीरा धीरा वि हु रत्ना भणिया विचित्तलिहिय व्व । ऊससियं पिन सक्का दूरे सिंधुरवसीकरिऊं ॥ ८९१ ॥ भमिऊणं सव्वत्थ सो वि गइंदो वि पुरम्मि सच्छंदं । दिपि संपत्तो अणंतकित्तिस्स कुमरस्स ॥८९२ ॥ कुमरो विवियाणित्ता तं करिरायं परक्कमासज्यं । पुव्वासारियवीणं महुरसरं वायए तत्तो ||८९३॥ अहमन्नो विव रन्नो आणादाणेण वीणसद्देण । तेहि वि पएहि रहिओ सहसा सो तत्थ वणहत्थी ॥८९४ ॥ वीणासरेण तेणं बहलो कोलाहलो वि लोयाणं । उवसंतो मुहथंभणमंतेण व सप्पभावेण ||८९५|| सो सिंधुरो वि बंधुरगीयं सवणाणममयवुट्ठि व । आमुक्कसरलहत्थो, सुणेइ उत्तंभियस्सवणो ॥८९६॥ सव्वंगपरिणएणं अमयरसासारमहुरगीएणं । मयसंतावो सव्वो उवसंतो तस्स हत्थिस्स ॥८९७॥ इंदिंदिरझंकारो, विग्घं गीयस्स मन्त्रमाणेण । बहु - भमर - भमण - कारण - मय-धारा तेण संहरिया ॥ ८९८ । आरोविय - चउ-चलणो, नज्जइ चउखंभिउ व्व गीएण । लिप्पमओ विव अहवा, वत्थमओ वा कओ हत्थी ॥८९९ रायप्पमुहो लोओ, सणियं सणियं करिंदपासम्मि । पत्तो सुणेइ गीयं विमुक्क - भय-सयल - वावारो ॥ ९००॥ सुव्वं वरगी, करिणो हरिणा य दिंति नियपाणे । तत्थ वि परम्मुहाणं, पुरिसपसूणं हा जम्मो ॥९०१॥ संगीयं निसुणतो, चिट्ठइ सव्वोवि जाव निच्चिट्ठी । ता साहसिओ कुमरो, सहसा करिकुंभमारूढो ॥९०२॥ 2010_04 २९१ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अंकुसमंकुसमप्पह, एवं भणिरम्मि तम्मि कुमरम्मि । वणहत्थी वणसंमूह, मह चलिओ वाउवेगेण ॥९०३॥ तं गच्छंतं दऔं, रायप्पमुहाण सयललोयाण । उच्छलिओ समकालं, बहलो कोलाहलो एसो ॥९०४॥ हं हो वीरा ! करिदं, वरकमरहरं अग्गओ पिट्ठओ वा । होउं रुंभेय आरासयकलियकरा मम्मदेसं हणेह ॥९०५॥ एसो गच्छेइ एसो हरिय निवसुयं सिंधुरो दूरदूरं । घित्तं पीयूसकंभं, पि व विहगवई सव्वलोयाण सक्खं ॥९०६॥ सामंततंतवाला रे रे गच्छेह पिट्ठओ करिणो । दूरं सिंधरगमणे पयमवि दलहं धवं होही ॥९०७॥ इय भणिरो नरनाहो चलिओ सयलेण निययसिनेण । अनो वि नयरलोओ अणुरत्तो चलइ कुमरम्मि ॥९०८॥ मण-नयण-बाण-किरणानिल-गरुडजवं पि सो जयंत व्व । कमसो दरसियवेगो नयणाणमगोयरे पत्तो ॥९०९॥ राया वि अइगयस्स वि गयस्सपयमित्तमग्गमणुलग्गो । गच्छइ तुच्छकई विव कइंदपयमित्तमग्गेण ॥९१०॥ पयमित्तमग्गलग्गा दूरे गच्छंति जाव निवपमहा । ताव सहस त्ति मग्गे समेवि तं पि ह पयं नठं ॥९११॥ जंपति मंतिपमुहा धुवमित्तो सो करी समुप्पइओ । आयासेण हयासो विगयासो सो सया गमणे ॥९१२॥ सो राया धरणिए मुच्छा मिलियच्छिसंपडो पडिओ। पडियाणमहवसरणं एसा सव्वं सहा चेव ॥९१३।। सरसो चंदणपंको सिसिरसमीरो य तस्स सचिवेहिं । विहिओ विच्छेयंतो अतुच्छमच्छं पि सच्छंदं ॥९१४॥ आवनो चेयनं राया विलवेइ तारतारं सो। हा वच्छ ! लच्छिनंदण ! सच्छह तं कत्थ पिच्छिस्सं ?।।९१५॥ 2010_04 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा २९३ जित्तियमित्तं सुक्खं संजायं मज्झ तुज्झ चरिएहिं । हरिणम्मि जाय ! जायं तत्तो दुक्खं तु लक्खगणं ॥९१६॥ सयलजणाण समक्खं सहस त्ति गओ असक्कपडियारो । हा हरिय मज्झ पत्तं सो बालो कविय काल व्व ॥९१७।। वयणाणं विनासो सो हासो जणयभत्तिउल्लासो । मित्तेसं विसासो कुमार ! हा कत्थ दट्ठव्वो? ॥९१८।। सव्वो वि मक्ककंठं कंदइ लोओ कमारहरणम्मि । जह सुक्खं तं दुक्खं गरुयाणं सयलसाहीणं ॥९१९॥ के वि ह विवेयवंता सचिवा जंपति राइणोऽभिमहं । धीराणमुदाहरणं किं होउं कायरो आसि? ॥९२०॥ किं देव ! को वि भवियव्वयाए पुरिसो सुरो व असुरो वा । ललियं परिकलियं पि हु सक्को दूरं तु पडियारो ॥९२१॥ परिसा गवसणत्थं तह वि निरुवेस विविहदेसेस । जइ को वि कह वि सुद्धिं कत्थ वि लहिही गवसंतो ॥९२२॥ राया तहेव काउं चलिओ नियनयरसम्मुहं कह वि । जं कज्जपरिच्छेओ तं चिय छयाण छेयत्तं ॥९२३॥ विचलियविलक्खपुहईसपमुहजणवयणमणिय सुयहरणा । विलवेइ तारतारं जणणी कुमरस्स जयलच्छी ॥९२४।। हा लोउत्तमवाचाहारहिमसरिसकित्तिपब्भार ! जियमारसारविक्कमकमार ! हा कत्थ दीसिहसि? ॥९२५॥ पढमं चेव न वंज्झा विहिया किमिह हयास रे दिव्व ! अह दिनं सुयरयणं हरियं निढुक्खतो कीस ? ||९२६॥ अना वि सवत्तीओ सह तीए रुयंति कुमरहरणम्मि । मित्ताणममित्ताण वि गरुयाण गणा चमक्कंति ॥९२७।। पुरीसा वि गवेसेउं कुमरं सव्वत्थ काणणाईसु । दिणपंचगपज्जते वलिया विच्छायमुहकमला ।।९२८॥ ___ 2010_04 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं साहिति जहा वित्तं अमच्चपमहाण तो विसेसेणं । कमरागमणनिरासो राया सोयाउरो जाओ ॥९२९॥ सोओ वि सावया सो गसेइ भुवणंपि तम्मि हरियम्मि । गरुयाण वसणकाले पसरति खला किमच्छरियं ॥९३०॥ तं नयरं सव्वत्थ वि घरपुरसुव्वंतकंदणारावं । कलिऊण सिद्धपत्तो पत्तो गयणेण बहुविज्जो ॥९३१ ।। रायं रायंतेउरममच्चपमुहं च सयलपरिवार । विलवंतं. दह्णं पडिहारं पुच्छए एसो ॥९३२।। कहिऊण तेण सव्वं सो नीओ नरवरस्स पासम्मि । उल्लवइ सिद्धपुत्तो किं विलवसि राय ! दुक्खत्तो? ॥९३३॥ जह नयण-पम्ह-संपड-विओग-संजोग-संभवो सययं । तह संजोग-विओगा जाणंति नराणमणवरयं ॥९३४॥ राय-विसाय-पिसायं नियमण-धवलहरमज्झयारम्मि। मा पविसावस कायर-धुरंधरो ता हवेऊण ॥९३५॥ तव्वयण-सजल-जलहर-धारा-सारो वंसत-दुह-दावो । उचिय पडिवत्ति-पव्वं सायरमेयं भणइ राया ॥९३६।। हे साहम्मिय ! तुमए, सुठुकयं जं दुहाउ उद्धरिओ । अवराण वि उवयारो, कज्जो किं पुण सधम्माणं ? ॥९३७|| किं तु इमं जह तुमए, विहियं तह कहसु निययनाणेण । जाणिय कमारसद्धिं, कया वि किं मज्झ सो मिलिही ?॥९३८।। सो विज्जासत्तीए, साहइ मुणिऊण कुमरवृत्तत्तं । तुह पुत्तो महिवलये, नियचरियसयाणि पयडित्ता ।।९३९।। सुरविहिय-पाडिहेरो अणेयविज्जाहरेहि परियरिओ । इह एहि निब्भंत, बारसवरिसाण पज्जते ।।९४० ।। तह हरिओ तियसेणं, करिंदरूवेण निययकज्जम्मि । इत्तियमित्तं नरवर ! जाणेमि अओ परं ननं ॥९४१ ।। 2010_04 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा २९५ राय ! विसाय-पिसायं, तत्तो परिहरसु मं विसज्जेसु । तित्थाण वंदणत्थं, जेणं गच्छामि सिच्छाए ॥९४२॥ तइंसण-तिसिएणं, स्ना अ विसज्जिओ वि सो जाइ । संतो विहिय-परत्था कया वि पच्छा न चिट्ठति ॥९४३॥ राया रम्मं पि पुरं, परिहरिय वसेइ बाहिरुज्जाणे । मणवल्लहजणविरहे, अमयं पि विसं विसेसेइ ॥९४४।। एत्तो य तं कुमारं, हरियकरिंदो महंत-वेगेण । गच्छंतो कमरेणं पहओ मट्ठीहि मम्मम्मि ॥९४५।। सो तेहिं पहारेहि, विवरिओ पेरिओ व्व कंतारं । उद्देसियविसेसेणं, वेगेणं जाइ वणहत्थी ।।९४६॥ चिंतइ चित्ते कुमरो, न हु सज्जो एस महुरगीएणं । दंडेण न वा नेवयमग्गेण नत्रेण खलसरिओ ॥९४७।। चिंतंतु च्चिय एवं, मग्गे गयणग्ग-लग्ग-सय-साहं । निज्झायइ नग्गोहं, रुद्धोभय-मग्ग-पविभागं ॥९४८॥ दंसण-समसमयं चिय, सो हत्थी तत्थ चेव संपत्तो । कमरो वि लद्धलक्खो, लग्गो नग्गोह-साहाए ॥९४९।। हत्थी वि कुमरमुक्को, कोलो होऊण नहयले नट्ठो । गरुएहिं अहव मक्का, हवंति लहया किमच्छरियं ? ॥९५०॥ मूलाओ थूलमूलप्पाडण-कय-विविह-कडयडारावो । सुरमायाए तरु वि हु, उप्पइओ नहयले सहसा ॥९५१॥ गहिऊण पुरिसरयणं, पच्छा गच्छंत-सिन्न-भीउ व्व । गच्छइ वेगेण तरूसारं गहिऊण चोरो व्व ॥९५२॥ मा एसो साहसिओ, दहाइ दह्ण झ त्ति निवडेही । इय दिव्वपभावेणं, पढममिमो उड्ढमप्पइओ ॥९५३॥ एसो तह दूरगओ, समीव-दीसंत-तारया-नियरो । जह गिरिणो करिसरिसा, करी वि दीसंति किरिसरिसा ॥९५४॥ 2010_04 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सो जंगमकप्पतरुं, कुमरं पावित्त नंदणवणस्स । कप्पतरुमंडियस्स वि, नज्जइ विजया य चलिउ व्व ॥ ९५५ ॥ कुमरो वि सेलकाणण - सरिया - सय - सहस - संगयं वसुहं । पिच्छंतो गच्छंतो, विम्हिय - हियओ विचिंते ॥ ९५६ ॥ जाईसरस्स विज्जाहरस्स, असुरस्स सुरवरस्सऽहवा । कस्स विकज्जं, मए वि होही तओ हरिओ ॥ ९५७ ॥ अहव भवंतरवेरी, हरियमहं सायरम्मि पक्खिवि । भवउ व जं वा तं वा, पज्जंतं जाव पिच्छेमि ॥९५८॥ अह सो नग्गोहरू - कमसो अंतरिय - विविह- गिरी - नियरो | पत्तो अंजणसेले, अंजण - घण - तिमिर - भर - सरिसे ॥९५९॥ सिहरिस्स तस्स सिहरे, फालिह - मणि- निम्मियस्स भवणस्स । रहिओ दुवारदेसे, संजायसमु व्व सो विडवी ॥ ९६० ॥ कुमरो वि भवण - काणण - सरसी - सरि - सिहर - विवर - पहाणं । अवलोयणाय सहसा अवयरिओ तरुवराहिंतो ॥९६१ ॥ मणि-भवण- - दार-संठिय-सरसीजल5- सुद्ध - पाणि-पय-कमलो । बहु-पयडपाडिहेरावलोय - निच्छइ य जिणभवणो ॥९६२॥ आसन्न-रम्म-काणण-संगहिय - सुगंध - कुसुम - पब्भारो । अइरम्म-भवण- दंसण- विम्हय - विम्हरिय - नियनयरो ॥ ९६३॥ पडिसिद्धावरकज्जो, सज्जो जिणपूयणाइकज्जेसु । भत्तितरंगियहियओ, पविसइ जिणभवणमज्झम्मि ||९६४ || दूराउ दूर - निरसिय- बहिरंतर - निविड - तिमिर - पब्भारं । अभिनंदणस्स पडिमं, अप्पडिमं नियइ मणिमइयं ॥ ९६५ ॥ जय जय सद्दं भणिरो, पविसिय मज्झम्मि पवरकुसुमेहिं । पूएइ जिणं सपुलइय-कवोल - मूलो सुगमूलं ॥९६६॥ तिपयाहिणाइपुव्वं, विहिणा अभिनंदणं च जिननाहं । भुवनजण - मणाणंदणमभिवंदइ भत्ति - संपन्नो ॥९६७॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा भत्तितरंगिणि-विलसिर - तरंगमाला - समाइवाणीए । सुर-असुर - खयर-कय-पय- सेवं देवं थुणइ एवं ॥९६८॥ मन्ने सिद्धि-वहू-कडक्ख-लहरी - लक्खाण पुत्रोदया । भव्वाणं चवलत्तमुज्झिय चिरा एसो मणो वानरो ॥९६९॥ आराहेइ सया वि लंछणछलं काऊण जं निच्चलो । तं वंदे अभिनंदणं जयगुरुं तेलुक्कचूडामणिं ॥ ९७० ॥ भत्ती जस्स जणणिं, गब्भगयस्सा वि पइदिणं सक्को । अभिनंदइ तं भुवणाणंदणमभिणंदणं वंदे ॥ ९७१ ।। सिद्धत्था जणणी, तुह संसग्गेणं न केवलं जाया । भुवणं पितुज्झ जोगा, सिद्धत्थं संपयं जायं ॥ ९७२ ॥ एसो अंजणसेलो, दिट्ठो वि हु मोह - तिमिर - नियरं पि । अमयं जणं व सामिय ! हरेइ तुह पाय- सुपवित्तो ॥ ९७३ ॥ तुह मयनाहि - विलेवण - मणवरय- सिणाण-सलिल-पल्हत्थं । मन्ने अंजणसेलं, जहत्थ नामं सया कुणई || ९७४ ॥ इय थोऊण कुमारो, नीहरिओ बाहिरम्मि भवणस्स । नियइ विहारं तं चिय, उज्जोइय दसदिसाचके ॥ ९७५ ॥ चिंतइ य इमो मन्ने, रयणा जे के वि भुवणमज्झम्मि । ते पायं इहइं चिय, भवणे आरंभया विहिया ॥ ९७६ ॥ तुंगतमस्स इमस्स य, हारि - विहारस्स तुंगयापारं । दुक्खेण कह वि नज्जइ, सुपुरिस - महिमाए पारं व ॥९७७॥ अणिमिसनयणाउ इमा, मणिमय- पंचालियाउ रेहति । तियसवहू विव पत्ता, हारि - विहारावलोयत्थं ॥ ९७८ ॥ इय जाव तं विहारं कुमरो वनेइ ताव दिणनाहो । संहरिय किरणजालो अंबरायल - सिहरमारूढो ॥ ९७९ ॥ कोलाहलच्छलेणं सउणा साहंति सउणलोयाणं । रविणो विचलं लच्छिं कलिऊण जणम्मि उवयरह ॥ ९८० ॥ 2010_04 २९७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अन्नदिसा अग्घाइ य कमेण कमलं व कमलिणीनाहं । अवराए दिति सा वि हु खिवेइ निम्मलमिव कुविया ॥९८१॥ तस्सिं अंजणसेले मिलियं तिमिरं विसेसदुज्जेयं । भवणं पि गसइ किं न वि करिति समवाइया कूरा ॥९८२।। तम-निउरंबकरंबियसेलो सो चेव मणिमयविहारो । मोहंधयारमज्झे दीसइ पयडो विवेउ व्व ॥९८३॥ पारंभे वि ह गलियं इमेण तिमिरेण सयलभवणं पि । पच्छा इमं हयासं किं करिही तं न याणामो ॥९८४।। इय एरिस निसिसमए कमरो जिणनाहवंदणा पव्वं । मणिमइयमत्तवारणसनिसनो चिंतए चित्ते ॥९८५।। पिच्छइ दिव्ववसेणं कहमिह सेलम्मि सयलजणमक्के । माणस-वावारस्स वि अगोयरे हंत ! पत्तो हं ॥९८६॥ सयणं व परजणं वा न कमवि पिच्छेमि हियय वीसामं । केण विणोएण मे इह दियहा निग्गमेयव्वा ॥९८७॥ ते सयणा ते सुहिणो सा रिद्धी सो पुराइवित्थारो । गंधव्वनयरसरीसो महत्तमित्तेण संजाओ ॥९८८।। सव्वाण वि दक्खाणं सक्खं मह इत्थ इत्तियं चेव । अभिनंदणजिणनाहो जं दिट्ठो सयलदुहदलणो ॥९८९॥ इय तेण चिंतिरेणं कायरपुरिसाण वज्जपहु व्व । अहियं भयं जणंतो डमरूयडक्कारवो निसुओ ॥९९०॥ रेहइ य कंदरोदरपडिसद्दसएहिं डमरूयारावो । एगो वि विविहरूवो रूवंतरसिद्धजोइ व्व ॥९९१॥ दिट्ठो य तयण तेणं महजालामित्तलक्खियावयवो । करवालकत्तिहत्थो एगो जोईसरो भीमो ॥९९२।। सो य भयंकरदेहो उद्धीकयसिहरसरिसभयदंडो। अंजणसमाणवनो अवरो अंजणगिरी भाइ ॥९९३।। 2010_04 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा २९९ तस्संसदेहभाए दिट्ठा सव्वंगसुंदरायारा । कन्ना पसत्थलक्खणलक्खेणवलक्खियावयवो ॥९९४॥ खणमित्तेणं जोई पत्तो जिणभवणदारदेसम्मि । भणिओ य कनयाए एयं दंसेस मह भवणं ।।९९५॥ सो सिद्धिविग्घसंकियहियओ एयाइ विविहभणियाणि । असणंत च्चिय गच्छइ आसने काणणद्देसे ॥९९६।। कुमरो वि विम्हियमणो परिकरबंधं करित्तु तस्सेव । मग्गम्मि जाइ सहसा साहसिया किं न कुव्वंति ? ॥९९७।। सो जोई गंतुणं काणणमज्झम्मि घोरविवरस्स । उग्घाडेइ दुवारं दुरंतनिरयस्स दारं व ॥९९८॥ तो कत्रा भयभीया विलवइ हा ताय!माय ! हा भाय ! । हा काणणदेवीओ रक्खह नररक्खसाहितो ।।९९९॥ सो अगणियतव्वयणो पविसइ मज्झम्मि तस्स विवरस्स । तेणं चिय देहेणं मन्ने नियरम्मि चलिओ व्व ॥१०००। तरुणी करुण-विलावं अणुसरमाणो य तम्मि विवरम्मि । पविसइ झ त्ति कमारो विम्हिय कारुण्णसंपण्णो ॥१००१॥ खणमित्तेणं पिच्छइ दिसिदिसिपसरंतकिरणहयतिमिरं । उत्तरदिसाए मणिमयमणुत्तरं वंतराययणं ॥१००२।। भवणस्स मंडवतले पिच्छइ पजलंतजलणप्पिच्छं । कुंडं महामहंतं कीणा समुहं च पजलंतं ॥१००३।। आययण-किरणमाला पयडिय पयवीए नियपयकमलो । कमरो सणियं सणियं गच्छइ मंडवसमीवम्मि ॥१०० ४।। भवणस्स गब्भमंदिरमवलोयइ भीमतियसपडिमाए । समहिट्ठियं भयंकरबहिनिग्गयजीह-वयणाए ॥१००५॥ दिट्ठा य मंडवतले मह-निज्जिय-चंदमंडला-बाला । पंकय-केसर-वत्रा कत्रा संपुन-लायन्ना ॥१००६।। 2010_04 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सिरिपउमप्पहसामिचरियं भालयल-तिलय-रेहा नासा वंसग्ग-संगया-जिस्सा । रेहइ तिलोय-विजयदत्तं पत्तं व स्वेण ॥१००७।। जोई वि कुसुमचंदण-पमुहेहिं वंतरस्स पडिमाए । काऊण विविहपूयं उवविट्ठो झायए झाणं ॥१००८॥ इत्थंतरम्मि कुमरो चिंतइ चित्तम्मि हंत ! पाविट्ठो । झाऊण कूरमंतं हुणिस्सए कनयं एसो ॥१००९॥ तो केण उवाएणं एवं रक्खेमि कनयं अहयं । हं नायं हं जिस्सं परविज्जाछेयणिं विज्जं ॥१०१०॥ अह तीए पउत्ताए अप्पडिहय-चक्कि-चक्क-सरिसाए । जोइस्स तस्स मंतक्खराणि दो तिन्नि छिनानि ॥१०११॥ पम्हसियं पि वियाणिय मंतं सो धिट्ठ-ट्ठपाविट्ठो । संखहियमणो झायइ पनं अठ्ठत्तरं सहसं ॥१०१२॥ उग्गं खग्गं घित्तुं जंपइ कन्नाए संमुहं जोई । समरस इठं देवं बाले ! पज्जंतकालम्मि ॥१०१३।। कन्ना जंपइ सरणं मरणे पत्तम्मि मज्झ पढमजिणो । दुहियाणमसरणाणं नराण निक्कारणो बंधू ॥१०१४।। एत्थंतरम्मि कुमरो, पयडो होऊण हक्कए जोइं । रे पाव ! पाविसि फलं नियस्स पावस्स इत्थेव ॥१०१५॥ जे नारि पुरिसं वा, मूढा निहणंति सिद्धिमीहंता । ते पासंडियवेसा, रक्खस-रूवा मणेयव्वा ॥१०१६॥ भयविम्हिय-मयहियओ, जोई दळं उवट्ठियं विग्घं । कनं मुत्तुं कुमरं पइ, चलियं गहियकरवालो ॥१०१७॥ अह कूर-वाणमंतर-पडिमा, पयडित्तु घोरतर-रूवं । जोई पयघाएणं, हणिउं निक्कासए विवरा ॥१०१८॥ नाउं कवियं मंतं, जोई सव्वंग-भंगरसरीरो । काऊण भत्त-चायं, मरिउं तो रक्खसो जाओ ॥१०१९॥ 2010_04 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमार कहा सो वाणमंत वि हु, कुमरं पइ जंपए महाभाय ! । एएण जोइणाहं, वंछिय-फल- सिद्धि-कामेण ॥१०२० ॥ विहिपुव्वं छम्मासे, विविहेहिं मंत- - जाव- होमेहिं । आराहिओ निरंतरमिह-लोय - रयाण किमसज्झं ? ॥१०२१॥ इत्तो य पुव्वदिय, कन्ना - रयणस्स पुहइमज्झम्मि । अवलोयणाइ गच्छइ, जोई मंतोवहारत्थं ॥ १०२२ ॥ पच्छा मए विचिंतियमेसो आजम्म- किंकरी - भावं । मह आणिस्सइ नूनं, सकज्ज - सिद्धी महापावो ||१०२३ ॥ ता किं करेमि अयं निजंतिओ निययविहियमंतेहिं । देवा वि हुंति वसगा नियजीहा मित्तदोसेण ॥१०२४॥ अहवा अहमवि दक्खं, कमवि हु आणेमि एत्थ साहसियं । पुरिसं सो वि महप्पा पत्तो नियबुद्धि - माहप्पा ||१०२५॥ रक्खस्स तं कनं मरणाओ ममं च दासभावाउ । गरुयाण जत्थ तत्थ वि पुरस्सरो हंत उवयारो ||१०२६ ॥ (जुयलं ) तो 'तुह पुरीए गंतुं वारणरूवं करितु हरिओसि । तो य परं तुझ वि पच्चक्खो सयलवत्त्तो ॥ १०२७।। जोईसरो वि गंतुं कुंतलदेसम्मि भीमरायस्स । दुहियं सुसीमनामं हरेइ एयं ससत्तीए ||१०२८|| संतेउरपरिवारो अणंतसेणो कुमार ! तुह जणओ । तुह हरणदुही चिट्ठइ तुमयं मुंचेमि तो तत्थ ॥१०२९॥ कुमरो जंपइ सुरवर ! रत्ना पडियं इमं दुहं सहियं । अहयं तु पसंगेणं निएमि सचराचरं धरणिं ॥ १३० ॥ तो मंच इमं कन्नं कुंतल सम्मि भीमरायस्स । मं पुण तक्खसीलाए पुरीए मुंचेसु उज्जाणे ॥१०३१॥ दट्ठूण कुमरचरियं सरायहियया सुसीमकना वि । सच्चिय मज्झ वरो इय हियए निच्छ्यं कुणइ ॥१०३२॥ 2010_04 ३०१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो वंतरो वि कुमरी, कुमराणं दिव्वहारमेगेगं । दाऊण पुव्व भणिए, नेऊणं मुयइ ठाणम्मि ॥१०३३।। कुमर-महकमल-निग्गय-धम्मामय-पाण-चत्तकूरत्तो । पत्तवरधम्ममग्गो सो गच्छइ वंतरो तत्तो ॥१०३४॥ कुमरो वि धम्मचक्कं पणमइ नाभेयपाय-सुपवित्तं । बाहबलिरायनिम्मियमणंतदरियाण संहरणं ॥१०३५॥ तत्थज्जाणपएसे सरेहि विज्जाहरेहि उप्पन्ने । केवलनाणे मणिणो पिच्छइ विहियं महामहिमं ॥१०३६॥ भत्तिब्भरनिब्भरंगो विहिणा पणमेइ केवलिं कुमरो । दठूण तस्स रूवं अच्चंत विम्हिओ जाओ ।।१०३७।। तं पच्छइ पत्थावे केणं वेरग्गहेउणा नाहं । नवजव्वणम्मि विहियं गिरिगरुयमिणं तवच्चरणं ॥१०३८॥ सो आह सिहरि-संठिय-विहार-धय-सरिसवत्थ-वित्थारो । संसारु च्चिय कारइ विवेयवंताण वेरग्गं ॥१०३९।। तह वि ह जइ निब्बंधो तो हं साहेमि सयलवत्तत्तं । वेरग्गकरं निययं अवहियहियओ निसामेसं ॥१०४०।। मणिमयविहाररम्मा विसालसालेण सोहिउं वंता ।। नयरी अत्थि वीसाला जहत्थ नामा इहं भरहे ॥१०४१ ॥ अगणीयकलाकलावो निच्चं अक्खंडमंडलो अत्थि । तत्थ य जयंतसेणो राया रायाओ अब्भहिओ ॥१०४२ ।। सो पच्छइ विबहजणं कयाविअत्थाणमंडवासीणो।। किं किं कलाण मज्झे नाहं जाणेमि अवियप्पं ॥१०४३॥ एगो य छंदवाई विबुहो जंपेइ नत्थि भुवणे वि । सा का वि कला जं न वि देवो जाणेइ पडिपुत्रं ॥१०४४॥ तं सवणमूलसूलं वयणं गहिऊण सणिय परमत्थो । अन्ने विबहो जंपइ तत्तं छंदेण परिमुक्कं ॥१०४५॥ 2010_04 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३०३ अन्नं कलाकलावं जाणइ सव्वं पि धणहवेयाई । इत्थीचरियस्स पुणो लवमवि देवो न याणेइ ॥१०४६॥ देवाण दाणवाणं मंतं मंतंति अत्तणो अनं । इत्थी चरियम्मि पुणो ताण वि मंता कहिं नट्ठा ।।१०४७।। जालंधरेहि भूमीहरेहि विविहेहिं अंगरक्खेहिं । निवरक्खिया वि रमणी दीसइ पब्भट्ठमज्जाया ॥१०४८।। उक्तं च -- कल्लोलादपि बुबुदादपि चलद्विधूद्विलासादपि, जीमूतादपि मारुतादपितरत्तार्योर्ध्ववपक्षादपि । चित्रं चित्रमयं चला त्रिभुवने किं श्रीन ते शेमखी । नैवं किं खलसंगति न न नन स्त्रीजातिरस्यै नमः।।१०४९॥ तं चेवपुनवंतं, पुरिसं मनेमि जस्स रमणीओ । पुत्रोदएण सुद्धं सिलं सीलंति आजम्मं ॥१०५०॥ कयचित्तचमक्कारो, राया अत्थाणमंडवाहितो । उठ्ठित्त इमं चिंतइ, एगते नियय-हिययम्मि ॥१०५१।। जह तेण वित्थरेणं, महिलाचरियं बुहेण परिसाए । सयलबुहाण समक्ख, अक्खियमेयं तह च्चेव ॥१०५२॥ पारावारस्स परं, पारं गच्छंति निययकल्लोला । जह तह महिलाचरियं, तीइ च्चिय मुणइ जइ हिययं ॥१०५३।। मन्ने इमं पियाई, इत्थी संसग्गदोसउ मेरं । मंचइ तो सव्वेसिं संसग्गमहं निवारिस्सं ॥१०५४॥ पहईसरस्स कस्स वि, तद्दिणं जायं कमारियं अहयं । परिणत्ता भूमिहरे, पक्खविय महासई काहं ॥१०५५॥ इय निच्छिऊण रना, भणिया सव्वे वि निययसामंता । जा का वि तम्ह धूया, होही सा मज्झ कहियव्वा ॥१०५६॥ समयंतरम्मि जाया, कन्ना पवनाभिहस्स नरवईणो । सो साहइ आगंतुं, जयंतसेणस्स निय पहुणो ॥१०५७|| 2010_04 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं राया तस्सावासे, गंतुं सयमेव कन्नयं जायं । अवलोइय वरलक्खणलक्खियमइरूव-संपनं ॥१०५८॥ सो राया पडितट्ठो वीवाहइ तत्थ तद्दिणप्पनं । कन्नं विणा वि लग्गं मणंसिणो नेव सविलंबा ॥१०५९।। आणावइ धवलहरे नियम्मि भूमीहरम्मि पक्खिवइ । वीसंभपरं धाई एगं आइसइ पयत्तेण ॥१०६०॥ निव-संदिट्ठा धाई सया वि मोणम्मि संठिया तत्थ । वद्धारइ तं कन्नं अनजणाणं अदिस्संति ॥१०६१ ।। सा सयण-पाण-भोयण-तंबोलप्पमुहदेहवावारं । मत्त अन्न कज्ज वुत्त पि न याणए बाला ॥१०६२॥ पउमसरमज्झयारे कन्ना नव कमइणि व्व तत्थेव । परिवड्ढंती पत्ता सा कमसो रायकरविसयं ॥१०६३।। नवज्जवणाए नवविन्भमाए नवपिम्मरायरत्ताए । सह तीइ रमइ निच्चं राया पायालकनाए ।।१०६४।। सा दुद्धमुद्धडमुही मुद्धा सयलम्मि लोयववहारे । अहिणवरायरायं मत्तं न वि जाणइ अन्नं ॥१०६५॥ आजम्मसद्धसीला कन्ना विद्धंसगं व तिमिरारि । सकलंकं व ससंकं सुमिणे वि न पिच्छिए बाला ॥१०६६॥ परिहरिय रज्जकज्जो पायं पायालभवणमज्झत्थो । विविहं विलसइ तीए सो राया नायकमरु व्व ॥१०६७॥ समयंतरम्मि देसंतराओ, नयरम्मि तम्मि सत्थाहो । पत्तो अणंगदेवो, नियरूव-विणिज्जियाणंगो ॥१०६८॥ विविहोवायणहत्थो, सत्थाहो राय-पाय-नमणत्थं । अत्थाण-मंडवतले, आगच्छइ वर-विभूईए ॥१०६९।। रब्रो पणामपुव्वं, उवणीओ तेहि विविहवत्थुर्हि । आमलयमाण-नित्तल-निम्मल-मुत्तमओ हारो ॥१०७०॥ 2010_04 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनतकित्तिकुमारकहा दिव्वं अदिट्ठपुव्वं, राया गिहित्तु हारिणं हारं । दाणपसायं काउं, तं सत्थाहं विसज्जेइ ॥ १०७१ ॥ मणि-रयण-हेम-कंदल-मुत्ताहल - पमुह - विविहवत्थूणं । सो विक्कयं कुणतो, अज्जइ विहवं जहिच्छाए ॥१०७२॥ तह तेण तम्मि नयरे, निरग्गलकलाइ - अज्जिओ विहओ । कोडीसराण मज्झे, जह लीहं लहइ सो पढमं ॥ १०७३ || तह सयलकलाकलिओ, अविकलसेवाए सो महिनाहं । आराहइ जह रन्नो, मणम्मि अनुन संवसइ ॥ १०७४ || पन्नंगणा पडाया, कामपडाया सया वि विहवेण । अप्पायत्ता विहिया, चमरधरा तेण नरवइणो ॥ १०७५ ।। मणिरयण-नियर-निम्मिय - मणेण - मणहारि-भूमियावद्धं । कारवियं धवलहरं, पुरम्मि तेणं वसंतेणं ॥ १०७६ ।। समयंतरम्मि पुट्ठा, कामपडाया अणंगदेवेण । जाणसि किमेस राया, परम्मुहो रज्जकज्जेसु ॥१०७७॥ उस्सूरम्मि सहाए, आगच्छइ तक्खणा वि गच्छेइ । दीसइ न किं पि पयडं, इत्थीजूयाइयं वसणं ॥ १०७८ ।। कामपडाया जंपइ, अहमवि समं न किंपि जाणेमि । सुद्धते पुणवत्ता, एसा सव्वत्थ वित्थरिया ॥ १०७९ ॥ आजम्म- ' - भूमि - मंदिर - विहिय - निवासए पवणधूयाए । नवजुव्वणाइराया, संपर विलसेइ सिच्छाए ||१०८० ॥ तो मन्त्रे सा बाला, तिलोय अब्भहिय-सारसोहग्गा । अत्थाणसंठियस्स वि, चित्तम्मि चमक्कए रनो ॥१०८१ ॥ जं अत्रेण न पत्तं, न य दिट्ठ तह सयावि जं छन्नं । कामीण किमवि तं चिय, रम्मं पि पडिहार || १०८२ ॥ इय तिस्सा वयणेणं, कंठयकविकच्छुयाए लग्गु व्व । सो कामकच्छुरो वि हु करेइ आयारसंवरणं || १०८३ ।। 2010_04 ३०५ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जंपइय दुद्धमुद्धच्छि ! नूण मुद्धासि जीए आजम्मं । दिटुं न किमवि एसा, होही पंचालिया सरिसा ॥१०८४॥ तं चेव पसंसेमो, तरुणिं जीसे कलासु कोसल्लं । पगरिसपत्तं नवनव-कामयसंसग्ग-माहप्पा ॥१०८५।। इय जंपिऊण पत्तो, सत्थाहो निययमंदिरे तत्तो । चिंतेइ सुंदरी सा, केण उवाएण दट्ठव्वा ॥१०८६॥ खर-किरण-किरण-फंसो, जीसे सुमिणे वि नेव उवलद्धो । तीसे सरीरसोहा, अहह अहो केरिसी हुज्जा ? ॥१०८७॥ सो कामगहग्गहिओ, विविहोवायणसएहिं नरनाहं । आराहतो गच्छइ, सयावि अंतेउरस्संतो ॥१०८८॥ कमसो तेण वियाणियमेयं जह अमुगभवणमज्झम्मि । भूमीहरम्मि चिट्ठइ, सा तरुणिसिरोमणी रमणी ॥१०८९॥ अह अभिंतरपुरिसे, नेउं नियभवणमज्झयारम्मि । कारइ सुरंगमेसो, तिस्सा भूमीहराभिमुहं ॥१०९०॥ थोवदिणेहि सरंगा, अइदल्लक्खा इमेण कारविया । निस्संधि-बंध-वीडय-पओग-सुह-गमण-निग्गमणा ॥१०९१ । बहिनिग्गयम्मि भूमीसरम्मि सव्वंगसुंदरायारो । भूमीहरम्मि गच्छइ, सारं सज्जित्तु सिंगारं ॥१०९२।। रइवसकिलंतगत्ता, सुत्ता सणियं च तेण जग्गविया । तरूणी-तरूणसिरोमणिमेयं पिच्छेइ सवियारं ॥१०९३॥ साणणयसवीसंभं, सप्पणयं तेण सा वि आलविया । बाला विम्हियहियया, मोणं परिमिल्लिडं लग्गा ॥१०९४॥ जहच्छेय-भणिय-भंगिं, वयइ इमो सा वि गाढरत्त व्व । अनायपय-पयत्था, तं तह अणुवयइ मुद्धमुही ॥१०९५॥ पढमम्मि चेव दियहे, विलसइ सा तेण जाय-वीसभा । अहवा असप्पवित्ती, अनाइ-भय-वास-पडिबद्धा ॥१०९६।। 2010_04 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३०७ राय-समागम-समए, गच्छइ सो निययमंदिरे पच्छा । तेहि विलसेहिं सत्ता, सा असइसिरोमणी रमणी ॥१०९७॥ दिवसंतरम्मि तिस्सा, परपमुह-पयत्थ-सत्थ-वित्थारा । नामग्गाहं तेणं, पयासिओ चित्तपडिलिहिओ ॥१०९८।। तव्विरहमसहमाणा, गयम्मि रायम्मि घग्घरी सहियं । हय-चिहर-चय-विणिम्मियतंतं चालेइ अइदीहं ॥१०९९॥ कयसंकेओ एसो, तत्थागच्छेइ पइदिणं धुत्तो । सा उण कमसो जाया, धत्ती तत्तो वि अब्भहिया ॥११००। सा विनाय पयत्था, जंपइ मह राय-वाडियं सयलं । नियभवणे नेऊणं, दंससु मा होस भयभीओ ॥११०१॥ अइनिब्बंधे विहिए, नीया निययम्मि मंदिरे तेण । जाल-गवखंतरिया, निएइ निवइं गयारूढं ॥११०२॥ रणझणिर-कणय-कंकण-कलरव-वायाल-बाहुनालाहिं । उक्खित्त-चामराहिं, वीइज्जंतं मयच्छीहिं ॥११०३॥ सिरिधरियमेहउंबरच्छत्तं वरवंदिविहिय जय सदं । गलगज्जिमुहल-मयगलगलंतमयसित्त-महिवलयं ॥११०४॥ माऊर-छत्त-अंतरिय-तरणि-तावेहिं मउड-बद्धेहिं । सामंत-सहस्सेहिं, वरियं इंदं व तियसेहिं ।।११०५।। (त्रिभिर्विशेषकम्) पुण भूमीहर-पत्ता, चिंतइ चित्तम्मि कयचमक्कारा । हंत इमो नरनाहो, विलसइ सव्वत्थ सच्छंदं ।।११०६॥ आजम्मं भूमीहरे, मं पुण पक्खिवइ निरयसरिसम्मि । तो मह किमेस भत्ता, जम्मंतरवेरिओ अहवा ॥११०७॥ अंतेउरीओ अवरा, कया वि पिच्छंति भुवणजण-निवहं । आजम्मं भूमीहरे, हा अहयं इत्थ पक्खित्ता ॥११०८॥ 2010_04 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ इच्चाइ चिंतयंती, विसेसविरया निवम्मि सा जाया । पभणइ अणंगदेवं, मह भणियं कुणसि किं नो वा ? ॥११०९ ॥ साहिक्खेवं वयणं, सोउं भीओ पयंपए एसो । कुवियासि किं तु सामिणि ! तुह आणा खंडओ नाहं ॥१११०॥ पविसेमि जलहिमज्झे, विसेमि जलणम्मि जामि वणवासे । साहेमि असज्झं पि हु, दासो विव तुज्झ आएसा ॥११११॥ तत्तो इमा पयंपइ, निवं निमंतेसु नियय-भवणम्मि । जेण समक्खं चिय, तस्स कए पडिकयं काहं ॥१११२ ॥ महुरेण वि निद्धेण वि, दुद्धेणं पिच्छ नियय सत्तस्स । अइताविएण विहियं, मणयं जलणस्स विज्झवणं ॥ १११३ ॥ कवडेण हवसु मंदो, पढमं पच्छा हवेसु गयमंदो | एयम्मि ऊसवदिणे, आहवसु निवं सभवणम्मि ॥ १११४|| तं तह करेइ सव्वं, झड त्ति विम्हइय माणसो एसो । पउराय तस्स भवणे, एंति चिगिच्छाकरणदक्खा ॥ १११५ ॥ सो पिहियघरदुवारो, पायं चिट्ठेइ भवणमज्झत्थो । काऊण मउलिबंधं, कया वि विज्जे समाहवइ ॥ ११६ ॥ चिंतइय इमो चित्ते, पिया बुद्धीए रायसेवा वि । थक्का निरंतरायं, भोगसुहं मज्झ संजायं ॥ १११७ ॥ मासम्मि वइक्कंते, रोयपमुक्की करेइ न्हाणं । पउराय अक्खवत्ते, गिण्हित्ता इंति तस्स गिहे ||१११८ || सो देव-गुरु-नमंसण-पुव्वं गंतूण निवसयासम्मि । गग्गरगिराए राय, दीणो होऊण विनवइ ॥ १११९॥ तुह पायपसाएणं, सामिय ! जम-भवण - दार - तोरणयं । दट्ठूण अहं वलिओ, दूरंत - रोगाओ जं मुक्को ॥११२०॥ ता काऊण पसायं, मह भवणे देव ! भोयणं कुण । अब्भत्थियाहि गरूया, न हुंति विमुहा जयंते वि ॥११२१ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३०९ अब्भुवगयम्मि रना, इमस्स भवणम्मि सयलसामग्गी । पउणा किज्जइ भोयण-वसणाभरणाइया विहिया ॥११२२॥ भवणस्स दारदेसे, दीसइ दूराओ मंडवो तुंगो ।. खीरोय-जलहि-कल्लोल-लोल-उल्लोय-परिकलिओ ॥११२३॥ धवल-धय-चिंधमाला तरला रेहति नहयलच्छंगे । दाणेसरस्स कित्तीतरंगिणी लहरिमाल व्व ॥११२४॥ खंभ--पएस-निवेसिय-कित्तिम-पारावयाण पंतीस । उल्लसिऊण विरालो, पडिओ हासइ जणं जत्थ ॥११२५।। पायालसंदरी सा पगणं सामग्गियं वियाणित्ता । जंपइ अणंगदेवं, परिवेसिस्सं अह रनो ।।११२६॥ सो भणइ नाह ! मित्तिय-पमाण-भंडाण होमि संवरणं । जाणिस्सइ जइ राया, मं मास्स्सिइ धुवं तत्तो ॥११२७॥ उल्लवइ इमा सच्चं, जच्चो वणिओसि जेण मरणाओ । बीहसि मज्झ वि भणियं, मरिहिसि वितह करेमाणो ॥११२८।। इय से भयं जणित्ता, परिवेस-विहिं पि सिक्खिउं सम्मं । आइसइ हिययवल्लह ! मा हवसु नियं महीनाहं ।।११२९।। गंतुण तेण तत्तो, आहविओ निययमंदिरे राया । पिच्छइय वियसियच्छो, इमस्स लच्छीए विच्छड्डं ॥११३०।। सीहासणे निवेसिय, विसालकच्चोल-परियलप्पमुहं । रनो दिन्नं तत्तो, सा धत्ती तेण आहविया ॥११३१ ।। जंपेइ सत्थवाहो, संदरि ! तं चेव निययनाहस्स । गिहमागयस्स अज्जं, परिवेसविहिं करिज्जास ॥११३२।। आएस त्ति भणित्ता, परिवार-निओग-वाउला-बाला । गंभीर-धीर-महरालावा, परिवेसणं कणइ ॥११३३॥ वरकमलसालि-मोयग-मुरुक्किया-मंडि-खंड-खज्जाइ । सागाइरेगरम्मा, उवणीया रसवई रनो ॥११३४॥ 2010_04 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सिरिपउमप्पहसामिचरियं उल्लसिय कोउहल्लो, राया चिंतेइ हंत ! वणियस्स । पायालरमणि-सरिसा, भज्जा पडिहासए एसा ।।११३५॥ नयणाण मह तिलाणं, इत्तियमित्तं न होइ तुल्लत्तं । जित्तियमित्तं दीसइ, दोण्हं एयाण विलयाणं ॥११३६॥ नूनं स च्चिय एसा, दिव्ववसेणं इहेव संपत्ता । अहवा किह सा होही, जा मुक्का संपयं तत्थ ॥११३७॥ किह नित्रयं लहिस्सं, किं कायव्वं च संपयं मज्झ ? । इय चिंतिरस्स रनो, धत्तीए तीमणं दिन्नं ॥११३८॥ रना निन्नयहेडं, झड त्ति चलियाए तीए वत्थम्मि । तीमण-बिंदुक्खित्ता, निय नह-सुत्तीए गिण्हित्ता ॥११३९।। कनंत-पत्त-नित्ता, नरवइ-वावारदत्तचित्ता सा ।। ते बिंदू खिप्पंते, पिच्छइ संतत्थ हरिणच्छी ॥११४०॥ जंपइ य हिययमझे, हं इह नाओ सि खिवसि किं बिंदु ? । एयारिसा छइल्ला, मूढबइल्ला पुरो मज्झ ॥११४१॥ कर-कलिय-तालविंटा, अयाणमाण व्व बिंदपक्खिवणं । अग्ग-निसना रनो, समीरणं कणइ सा धत्ती ।।११ ४२॥ जंपइ य सत्थवाहं मणुनमनं पि तुज्झ नरनाहो । सविसं पि मन्नंतो न जेमए अज्ज किं कज्जं ? ॥११४३॥ किं वणियाणं भोयणमिमं न रुच्चेइ अहव तुह भवणे । अन्नं पि किं पि वत्थु चित्तम्मि चमक्कए रनो ॥११४४॥ तो सत्थाह नरिंदा विम्हियहियया न किं पि जंपति । तत्तो तीए रनो पयसहिया सक्करा दिना ॥११४५॥ पयपाणं काऊणं सलील गिण्हित्त उठ्ठिओ राया । वत्थाभरणप्पमुहं किंचि वि घित्तूण संचलिओ ॥११४६।। सा वत्थ-कोस-सालं धुत्ती गच्छित्त पव्वसारिच्छं । परिहित्तु वत्थजुयलं पत्ता भूमीहरस्संतो ॥११४७।। 2010_04 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमार कहा राया संकियहियो बहूणि तालाणि जाव ताडित्ता । तत्थागच्छइ पिच्छइ ता तं निद्दाइयं बालं ॥ ११४८ ॥ जग्गविया सा सणियं, धुत्ती जिंभायमाण - मुह - कुहरा । कर-कमल-मलिय- लोयण - जुयला उट्ठेइ कह कह वि ॥११४९ ॥ राया वि वत्थजुयलं, अन्नं अप्पित्त ताणि वत्थाणि । रयणुज्जोय-पयासे, निएइ निहुए सदिट्ठीए ॥११५०॥ न य मत्थिय पयमित्तं, पेच्छइ वत्थम्मि पुव्वकयबिंदु | ववगयसको तत्तो, विलसइ सह तीए सिच्छाए ॥११५१ ॥ तं किं पि छेयचरियं, छेयाणं जेण भुवण - पच्चक्खं । विहियं तेहिमसच्चं, नज्जइ सच्चाउ अब्भहियं ॥ ११५२ ॥ मासम्मि वइक्कंते, नियभत्तारं सया वि अणुरत्तं । रायविरायमइयं, पिच्छंती भणइ सत्थाहं ॥ ११५३॥ सलिल-निहि-सलिल-लंघण - सहाणि - वहणाणि कुणसु पउणाणि । संहर नियववहारं, परदेस जेण गच्छामो ॥ ११५४।। तह जत्तं विनत्तो, राया जइ हुज्ज तुज्झ स पसाओ । तो मग्गिज्जसु मग्गे, अणुगमणं निययभवणस्स ॥११५५ ॥ अइकायरो वि तिस्सा, गिराए काऊण सो अवट्ठभं । परतीरगमणजत्ता, जुग्गं सामग्गियं कुणइ ॥११५६॥ अविरलगलंतनित्तो, पत्तो नरनाह - पाय-पासम्म | विनत्तिं कुणइ इमं, सामिय ! मह आगओ लेहो ॥११५७|| दिवंतरम्मि माया-पियरो मह विरहसंभवं दुक्खं । अइदुसहं वि सहता धरति किच्छेण जीयं पि ॥ ११५८॥ तु पाय-पसाणं एत्तियमित्ताणि मज्झ वरिसाणि । वक्कताणि सुहं चिय संपइ गच्छामि नितं ॥ ११५९ ॥ ता झत्ति हरियचित्तो राया वज्जरइ तुज्झ जइ गाढं । निब्बंधो ता गच्छसु इह अत्थे किं वयं भणिमो ? ||११६० ॥ 2010_04 ३११ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दुरठिओ व इत्थ ठिओ व सहिओ व दक्खिओ अहवा । केण वि परिहविओ वा नियकज्जं कहस मह चेव ॥११६१ ।। सो आह नाह ! न किमवि खूणं मह किंतु कित्तियं मग्गं । सयमणगम्मस जेणं मह कित्ती हवइ परदेसे ॥११६२।। रना वि हु पडिवनो कारइ सव्वं पि वहणसामग्गिं । मण-नयण-पवणवेग पूरावइ वहणनिउरुंबं ॥११६३।। पत्ते पसत्थलग्गे रायं विनविय सयलजणसहिओ । चलिओ समुद्दतीराभिमुहं सो पवरसत्थाहो ॥११६४|| रायं चलियं नाउं सा वि ह भूमीघराउ निग्गंतं । सुक्खासणमारूढा चलिया सत्थाह नियडत्था ॥११६५।। जंपती सह रना एत्थ वसंतेण मज्झ नाहेण । जं नाह ! किमवि विहियं पडिकूलं खमसु तं सव्वं ॥११६६॥ तह पाय-पसाएणं समज्जियासेसविहव-वित्थारो । विहिय समीहियकज्जो एसो गच्छइ नियनयरे ॥११६७।। कइया वि संभरिज्जसु एवं सव्वंगसुंदरायारं । छेयाण नामगहणावसरे तं नाह ! मह दइयं ॥११६८।। इच्चाइ जपिरीए तीए निवइस्स सत्थवाहस्स । तिन्नि वि सहासणाई पत्ताणि समद्दतीरम्मि ॥११६९।। उद्दिसिय सलिलनाहं सा जंपइ एस सत्थवाहस्स । जत्ता समए मंगलरावं निम्मवइ गज्जंतो ॥११७०।। भंगर-तरंगमाला-मज्झ-ट्ठिय-सुत्ति-संपडो जलही । विहिय करंजलिबंधो नज्जइ अब्भागया गमणे ॥११७१ ॥ फटुंत-सत्ति-संपड-वियड-तडक्खित्त-सत्ति-उक्केरो । सत्थाह-गमणसमए दत्तचउक्को व्व पडिहाइ ॥११७२।। चिंतइ चित्ते राया होही नण मज्झ संदरी एसा ।। तिल-तस-ति-भागमित्तं पि जेण पिच्छेमि न विसेसं ॥११७३।। 2010_04 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३१३ अहवा किह सा होही एसा छेउ त्ति हरियजणहियया । सरिसा य विसरिसा वि य इंति पयत्था जओ भवणे ॥११७४।। सह तीए सत्थवाहो रायं पणमित्त पवहणारूढो । वीसज्जिओ य रत्ना गच्छइ सह-सउणसुनिमित्तो ॥११७५।। वहणाणि तस्स सहसा, समीरसममीसियाए वेगेण । गच्छंति कयत्थाणि व, अदिट्ठपारे नईनाहे ॥११७६।। अन्नं नयरं रनो, कहियं अनेण तेण वहणाणि ।। मग्गेण पेरियाई, पच्छागमणस्स भीएण ॥११७७॥ संकियचित्तो तत्तो, वलिओ राया वि झ त्ति संपत्तो । भूमीहरं नियच्छइ, सन्नं पायालकनाए ॥११७८।। उव्वरिओ विवसो विक्कयाओ आहवइ मंति-सामंते । साहइ जह इह हरिया मह दइया तेण धुत्तेण ॥११७९।। सामंत-मंति-पमहा हरणपओगस्स जाणणनिमित्त सम्म निरूवयंता नियंति वीडय-सरंगाई ॥११८०॥ तो तीए सरंगाए अणंगदेवस्स मंदिरं पत्ता । तं पि हु नियंति सुन्नं समग्गपरिवार-परिमुक्कं ॥११८१ ।। रोसपिसल्लगहिल्लो निवो निजंजेइ निययसामंते । गच्छह गच्छह तुरियं आणह पावाणि मह पासे ॥११८२ ।। किं को वि अत्थि भवणे धीरो वीरो य मज्झ सुहडेसु । जो तं झड त्ति पावं आणइ सह तीए मह नयरे ॥११८३ ।। इच्चाइ उच्चसई जंपतो सयलसिनपरियरिओ । अकलियतत्तो मूढो, जलनिहितीरम्मि संपत्तो ॥११८४॥ वहणाण समूहेहिं तहेव सत्थाहसव्वलोएहिं । जलनिहितीरं सन्नं सनमणो पिच्छए राया ।।११८५।। आइसइ नावियजणं वहणे पउणी करित्तु रे चलह । जपति ते वि सामिय ! न हु एसा गंधियप्पुडिया ॥११८६।। 2010_04 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ वर - सुहड सहसवरिओ सो वि हु तरुणिं हरित्तु नीहरिओ | पवहण - सयसामग्गी सामिय ! न हु हवइ सहसति ॥ ११८७ ॥ विम्हय-विसायकलसं रसंतरं जाव सयलपुरलोओ । अणुहवमाणो चिट्ठइ इह किं कायव्वया मूढो ॥११८८ ।। ताव सहस त्ति तेहि वि पयडंतो केवलिस्स आगमणं । वर - अमर-नियर - ताडिय - दुंदुहि - सद्दो तहिं निसुओ ॥११८९ ॥ राया चिंतइ सुद्धिं केवलिपासम्मि निययदइयाणं । पुच्छेमि ताव पच्छा जं होही तं करिस्सामि ॥११९०॥ उज्जाणे संपत्तं राया पुच्छे झत्ति केवलणं । किं नाह ! हिययदइया कइया वि मिलिस्सए मज्झ || १९९१ ॥ सो केवली पयंपइ नरवइ ! जम्मंतरे वि सा पावा । न हु मिलिही मह वयणं उवविसिय सुणेस एगमणो ॥ ११९२ ॥ नरनाहो मुणिनाहं विहिणा पणमित्तु उचियदेसम्मि । उवविसइ सेसलोओ तहेव पणमित्त उवविट्ठो ॥११९३॥ अह तीए भाविचरियं, केवलनाणी कहेइ सा तेण । मिलिया जा छम्मासं, गच्छिस्स विविहदीवेसु ॥११९४ ॥ इत्तोय अत्थि मित्त, अणंगदेवस्स काण - वीभच्छो । निय महुरसरविनिज्जिय किन्नरकंठो सुकंठु त्ति ॥११९५ ।। अह देवरसंबंधा, करिही हासाइयं इमा तेण । नारीण महव तत्तं, पायं नियाणुगामित्तं ॥ ११९६ ॥ वर - र - महुर - गीय-लुद्धा, सह तेण निकाम-काम - रायंधा । वंचित्तु सत्थवाहं, सा असइ धुरंधरा रमिही ॥ ११९७॥ सा चिंतिस्सइ होही, न हु इमिणा अभय - महुरसद्देण । सच्छंदसुरयसुक्खं, जीवंते सत्थवाहम्मि ॥११९८॥ भाडयमुल्ले पुन्नेव खरवत्युं खिवे जह पुरिसो । तह सा निसीहसमए खिवही जलहिम्मि सत्थाहं ॥११९९॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३१५ दरं गयम्मि वहणे करिही कोलाहलं इमा घोरं । रे धाह धाह, पडिओ मह दइओ इत्थ सत्थाहो ॥१२००। वहणाणि नंगरित्ता सायरसलिलं निरक्खिही सयलं परिवारो पिच्छेइ न य तं मक्खं अभव्व व्व ।।१२०१ ।। वाहप्पवाह-धारा-धोरणि-सिप्पंत-कंचयाभोगा । सा तारतारसई पावा कवडेण विलवेही ॥१२०२॥ हा नाह ! नरसिरोमणि, दाणेसर, सुहय, सुंदरायार ! मं मुत्तूण अनाहं, कत्थ गओ देसु पडिवयणं ॥१२०३।। न हु मज्झ पहइनाहो, सत्थाहो वा न चेव संजायं ।। हय विहि-हयास ! अहयं, हा ! अबला धाइया तुमए ॥१२०४।। रयणायर ! रयणेहिं, इत्तियमित्तेहिं किं न तट्ठोसि ? | जं हरसि अभग्गाए, नररयणं मज्झ तं दइयं ॥१२०५॥ अज्ज वि न जाव दूरं, गच्छइ दइओ अहं पि गच्छिस्सं । इय जंपिऊण सहसा, परिकरबंध इमा करिही ॥१२०६॥ पवहणजणो वि सव्वो, तिस्सा नेहेण विम्हिओ संतो । कर-चरण-गहण-पव्वं, धरिही कट्टेण कहकह वि ॥१२०७॥ एवं सुकंठपमुहा, तं जंपिस्संति देवि ! अम्हाणं । काहिसि अकालमरणं, अज्जमती अणाहाणं ॥१२०८॥ तं दइया तं जीयं, तं विहओ तस्स सत्थवाहस्स । तो विहिवसेण वि गए, तम्मि तमं एत्थ सत्थाहो ॥१२०९॥ इत्तियमित्तेणं चिय, कज्जं तिस्सा वि ताण वयणेहिं । उवरोहिय व्व तत्तो, झड त्ति मोणं इमा करिही ॥१२१०॥ पवहणजणसमवायं, गिण्हित्ता पुण वि वहण-निवहं तं । पेराविस्सइ पमइयचित्ता, नियकज्जसिद्धीए ॥१२११।। सा तेण सुकंठेणं निब्भरराया रमिस्सए विविहं । चिंतिस्सइ सो चित्ते पिच्छसु एयाए धिट्टत्तं ॥१२१२।। 2010_04 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं नूणमिमीए महप्पा सत्थाहो उठ्ठिओ निसीहम्मि । देहट्टिई कणंतो पवाहिओ जलहि-मज्झम्मि ।।१२१३।। ता कित्तिय-दियहेहिं मज्झ वि एसा करिस्सए नासं । जा निवई सत्थाहं मुंचइ सा मज्झ कह होही ? ॥१२१४।। इय विहिय निच्छओ वि हु तिस्सा चरिएण कंपिरो एसो । पडु-चाडु-पयडण-परो गमिस्सए कित्तियं कालं ॥१२१५॥ इत्तो य सत्थवाहो पवाहिओ तीए जलहिमज्झम्मि ।। पाविस्सइ किच्छेणं फलहं भव्वु व्व जिणधम्मं ॥१२१६॥ सो तेण पाविएणं महल्ल-कल्लोल-पिल्लिओ घोरं । पारावारं तरिही अपार-संसारमिह भव्वो ॥१२१७।। सिंहलदीवं पत्तो चिंतिस्सइ हंत ! केरिसं जायं । नवपिम्मरम्मचित्तो अहयं पि पवाहिओ तीए ॥१२१८॥ वंचिज्जइ नियसामी दिज्जइ जीयं पि किज्जए जिस्सा । कज्जे गरुयमकज्जं हा इत्थी सा वि विहडेइ ॥१२१९।। जं चित्ते चिंतेउं जं न वि सुविणे वि पिच्छिउं सक्का । लीलावईण लीलावावारो तं पि कज्जम्मि ॥१२२०॥ हत्थेण गाढगहिया, जा किर पारयरस व्व विहडेई । को नाम वामनितं, निययं मन्निज्ज तं विबुहो ॥१२२१ ।। इय चिंतिऊण चित्ते, विरत्त-चित्तो गुरूण पयमूले । दक्खो दिक्खं सहसा, गिहिस्सइ गहियपरमत्थो ॥१२२२ ।। ताणं तं पि ह वयणं, सिंहल-दीवम्मि दिव्वजोएण । वच्चिस्सइ जं अहवा, संकइ तं चेव पावेइ ॥१२२३॥ तत्थूजाणपएसे, विहवं विलसंतयाणि सच्छंदं । धम्मं झियायमाणं, तं पिच्छिस्संति मणिनाहं ॥१२२४॥ किं देवयाए किं वा, एसो भवियव्वयाए इह नयरे । मक्क त्ति चिंतयंतो, खामिस्सइ तं सकंठो वि ।।१२२५।। 2010_04 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा सा तं पि हुं मुत्तूणं, संकिय-हियया झड त्ति वहणाणि । पूरावित्ता दीवंतरम्मि, गच्छिस्सए पावा ॥१२२६।। आजम्मं वेसत्तं, तत्थ वि सच्छंद-कारिणी काउं । निरयं गमिही पावा, नहि विप्फला पावपडिवत्ती ॥१२२७॥ सो वि ह सकंठनामो, झ त्ति विरत्तो गहिस्सए दिक्खं । ते दुन्नि वि सुरसुक्खं, कमेण मुक्खं पि गमिहति ॥१२२८।। तो नरवर ! को मोहो, चंचल-चित्ताए तीए असईए । मंच विसायपिसायं, कणस हियं किं पि अप्पस्स ॥१२२९॥ लीहालयसंघायं, निएइ धत्तुरिओ जहा कणयं । तह इत्थिं विसमइयं, अमयमयं नियइ मूढप्पा ॥१२३०।। पिच्छइ मरुत्थलीसु, जह रवि-किरणे झलझलायंतो । सलिलं व तहित्थीसं, दोसा दीसंति गणरूवा ।।१२३१ ।। इय गुरुगिराए राया, विरत्त-चित्तो समप्पिउं पुत्ते । रज्जभरं पडिवज्जइ, सामन्त्रमणन-सामनं ॥१२३२।। संसार-वत्थु-वित्थर-मसाररूवं निरूवियं तेण । तह जह सत्तमदियहे, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥१२३३॥ सो हं जयंतसेणो, कमार ! वसहातलम्मि विहरतो । इह पत्तो इय कहियं, वेरग्गनिबंधणं निययं ॥१२३ ४।। ता कमर-गहिय तत्तो, तमं पि परिहरस सयलइत्थीओ। तं किं हवेइ नाणं, किरियाकालम्मि जं विहलं ॥१२३५॥ कुमरो जंपइ भयवं, नाहं तुम्हारिसाण धूलिं पि । अणहरिउं पि समत्थो, नियममिणं किंत गिहिस्सं ॥१२३६।। देवी तहेव वेसा, परनारी तहय वज्जिया सव्वा । जावज्जीवं एसो, मह नियमो होउ तुह पुरओ ॥१२३७॥ इत्तरगहिया गमणं, अपरिग्गहियासेवणं चेव । परवीवाहो तिव्वो राओ य अणंगकीला य ॥१२३८।। 2010_04 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ सिरिपउमप्पहसामिचरिय इय अइयारविसुद्धं नियमं गिण्हित्तु मुणिसमीवम्मि । सच्छंदगमणसीलो, सो गच्छइ विविहदेसेस ॥१२३९।। अच्छरियसयाइनं वसुहावलयं कमेण पिच्छंतो । पत्तो एगमरणं सरियागिरि-नयरसंकिनं ॥१२४०॥ करवालमित्तमित्तो सुनं रनं पि वसिमसारिच्छं । मन्नतो सच्छंदं हिंडइ सव्वत्थ सीहु व्व ॥१२ ४१ ।। साहस-विवेय-विक्कम-पयाव-पत्राणि पवरपरिवारो । हरिणा नयणविणोया रयणसिलामसिणसयणिज्जं ॥१२ ४२ ।। संहरियसयलपरिसमहिययावटुंभउज्जमप्पमुहो । हय-गय-वाहण-निवहो संतो सो कोससाला य ॥१२४३॥ पवणकसील व नच्चिरपउमिणिवरकामिणीहि निम्मवियं । गंजंत-सवण-सहयरभमरी गीयं च संगीयं ॥१२४४।। पत्तल-तरुवर-छाया छत्तं गिरिकंदराय धवलहरं । सन्ने रन्ने वि इमा पुरलच्छी तस्स कुमरस्स ॥१२४५।। अह सो. परिब्भमंतो कुमरो रनम्मि अवदियहम्मि ।। गयणग्गलग्गसिहरं नियच्छए सिहरिणं एगं ॥१२४६।। निज्झरणहारिहारो अंबरवरमेहडंबरो निच्चं । वरसिहरमउडबंधो नज्जइ सिहरीसु सो राया ॥१२४७॥ कोउहलतरलमणो कमरो तस्सग्गसिहरदेसम्मि । आरुहइ दुरारोहे दुलहे गरुयाण आरंभो ॥१२४८॥ सो तत्थ समारूढो पिच्छंतो करयलं च महिवलयं । पिच्छइ महामहल्लं पउमसरं दूरदेसम्मि ॥१२ ४९।। तं मज्झ देसभाए हारिणमेगं विहारमइतुंगं । सम्मं निरूवयंतो निरिक्खए रम्मरोमंचो ॥१२५० ॥ नाऊण दूरदेसे पउमसरं सो वसेइ सिहरस्स । तस्सेव कंदराए चंचलचित्ताण न हु लच्छी ॥१२५१॥ 2010_04 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३१९ चलिओ पभाय-समए निमित्तनिच्छइयवत्थुसंपत्ती । पत्तो तं चेव सरं ववसाय पराण किं दूरं ॥१२५२।। पिच्छइ अच्छजलभरपूरियगयणग्गमग्गवित्थारं । अविलक्खियपरपारं तं कुमरो पालिसिहरत्थो ॥१२५३॥ तं चिय सियसयवत्तं परिमलउग्गारवासियदियंतं । कलहंस-कोंच-सारस-रहंग-सारंग-परिकलियं ॥१२५४॥ विज्जाहरी विलासाभिहाणमयमाणसलिलवित्थारं । दळं अदिठ्ठपव्वं पउमसरं चिंतए कमरो ॥१२५५॥ अमयमयं सलिलभरं गिण्हिय मूलेहि पायवा मन्त्रो । छायाछलेण पच्छा अवइन्ना एत्थ तियसि व्व ॥१२५६॥ पच्चोणीए पेसइ पहियजणाणं समीरणं पढमं । अह ते पिच्छियवियसियकमलेहि वियासए अच्छी ॥१२५७॥ तयणु परिरंभत्थं वित्थारइ वीचिनिचयनियबाहू । कलहंसकलरवेहि सा गयवत्तं पि पुच्छेइ ॥१२५८।। सत्था तुच्छ-जलेहिं तयण सिणाणं तहेव निम्मवइ । सहयारपमुहतरुवरफलेहिं भोयणविहिं तत्तो ॥१२५९।। इय समयपरिचियाण वि पहियाणब्भागयं कणंतेणं । मनेइ इमेण सरसा उत्तमपरिसा इयं निच्चं ॥१२६०।। मत्तवणहत्थि-जूहं एत्तो गिण्हेइ सलिलसंभारं । तीरंतरिम्मि इत्तो सीहकिसोरा वि चिट्ठति ॥१२६१ ।। इत्तो उण हरिणउलं सलिलं गिण्हेइ जायवीसंभं ।। अकयविहा वा वाहा इत्तो चिट्ठति वीसंता ॥१२६२।। जलदेवया वि इत्तो सिणाण मणहं कणंति वीसत्था । एत्तो पंथियलोया तण्हं छेयंति सच्छंदं ॥१२६३॥ अवनमवित्राया विविहा चिट्ठति पाणिसंघाया । एयस्स अहो पिच्छस गंभीरत्तं विसालत्तं ॥१२६४॥ 2010_04 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सिरिपउमप्पहसामिचरियं परि-भमिर-भमर-मग्गण-संकड-घणि-भवण-सरिस-कमलवणं । वरपालिसालिकलियं सहइ इमं नयरसारिच्छं ॥१२६५॥ तह उन्निद्द-कसेसयकडंबमेयं दरिद्दगिहसरिसं । रेहइ अइमत्तेहिं कोलकुलेहिं खणिज्जंतं ॥१२६६।। मन्ने दिसि-विदिसाओ खर-किरणकरेहि ताविया निच्चं । पडिबिंबमिसेण सया सिणाणमिह निम्मवंति व्व ॥१२६७।। इय दियहे दिणनाहो निसाए पडिबिंबिओ निसानाहो । रेहइ किरणखरत्तं कलंकपंकं च निहणतो ॥१२६८।। निच्चं पि चंचलाए जुत्तं कमलाए इत्तियं विहियं । परिहरिय हरि जलहिं इमस्स कमलेस जं च सिया ॥१२६९।। जइ अज्जवि इह वासं करिही नारायणो वि तो मन्ने । परिमुसियलवणजलभरकालत्तो उज्जलो होही ॥१२७०॥ गंभीरिमाए जेणं विजिओ जलही वसेइ दूरम्मि । तस्स सरस्स समग्गं लच्छिं कह नाम वनेमो ? ||१२७१ ।। इय विविहं वनंतो पउमसरं तस्स मज्झयारम्मि । फलिहमणिनिम्मवियं चउम्महं नियइ जिणभवणं ॥१२७२॥ उदंड-इंडबाहं उद्धं काऊण किंकिणीमहलो । आहवइ व्व पडायंगलीहि कमरं विहारो वि ॥१२७३।। सो झ त्ति भत्तिभरपिल्लीउ व्व पज्जाए तत्थ गंतुणं । अजियजिननाहपडिमं पिच्छइ भवणस्स मज्झम्मि ॥१२७४।। सच्छंद-कय-सिणाणो कमलायर-गहियकमलनिउरूंबो । उल्लसियपलयपडलो जिणपडिमं पूयए कमरो ॥१२७५।। सो सट्ठि-हत्थ-मित्तं उग्गहखित्तं जिणस्स मत्तूणं । विहिपव्वं वंदित्ता एवं संथणइ जिणनाहं ॥१२७६।।। जियसत्तु-नराहिव-कुलवयंस ! जय-विजय-कुच्छिसररायहंस ! । जय तियण-माणसवणवसंत ! जय अजिहनाह ! कयभवदहंत ! ॥१२७७॥ 2010_04 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३२१ इय थुणिऊण कुमारो, बाहिं नीहरइ भवणमज्झाओ । अणमिसलोयणजयलो, तं पिच्छंतो विचिंतेइ ॥१२७८।। अच्छच्छमणिविणिम्मियमेयं पडिहाइ निम्मलं भवणं । पडिपत्र-पउमसरवर-उक्कलियं सलिलनिवहं च ॥१२७९।। अहवा - भवणस्स चेव मन्ने सरम्मि दीसंति सलिलरूवेणं । मिलिया बहकालेणं बहला मणि-किरण-लहरीओ ॥१२८०॥ अहवा - भवणस्स सरजलस्स य किंकिणिसद्देण हंससद्देण । विमलत्तपइट्ठाए सया वि वाओ अहं मने ॥१२८१ ।। इमिणा मणिभवणेणं अजियजिणालंकिएण सरसलिलं । विजियं तत्तो लद्धा विजयपडाया सरेहिंतो ॥१२८२॥ मन्ने मज्झ वि पुत्रं संपुत्रं पायडं इहं जायं । सयलसुहकरण-कारणमेयं जं दिट्ठमिह भवणं ॥१२८३॥ इय जाव सो वि चिंतइ तत्तो सहस त्ति सलिलमज्झाओ । सवणसुहो उच्छिलिओ गंभीरो दुंदुहीसद्दो ॥१२८४॥ जलचर - थलचर-नहचरसत्ता सव्वे वि तेण सद्देण । टहरिय-कन्ना जाया रम्मं सव्वस्स खल रम्मं ॥१२८५।। तत्तो धूमसमूहो तस्स य भवणस्स पच्छिमदिसाए । सरसलिल-मज्झ देसा अइबहलो झ त्ति उच्छलिओ ॥१२८६|| सो य नहंगणगामीण जइ अंजण-तमाल-दल-सामो । सरसलिलं गिण्हित्ता नियत्तिओ मेह-निवह व्व ॥१२८७।। जालामाला तत्तो उच्छलिया नहयलम्मि विलसंती । अंतो धूम-समूह मज्झे मेहं जहा विज्जू ॥१२८८॥ खणमित्तेणं तत्तो उच्छलियं धवल-दंड-मइंडं । छत्तं सरावलोयण-सपत्ताणंत-सारिच्छं ॥१२८९॥ 2010_04 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सवियास-हेम-पंकयमासीणा कमलगब्भसमवना । नवनीलप्पलनयणा करयलपरिकलियनवकमला ।।१२९०।। निय अच्छि पिच्छिएहिं कवलवणं नहयलम्मि पयडंती । छणससी-समाण-वयणा दिव्वालंकार-नेवत्था ॥१२९१ ।। अंतो कमल-निरंतर-निवास-संजाय-गरुय-निव्वेया । बहि निग्गइ व्व तत्तो पच्चक्खा लच्छिदेवि व्व ॥१२९२।। लायन-पुनदेहा कन्ना सोहग्गपत्तजयरेहा । तियण-रमणी-तिलया उल्लसिया सरवराहिंतो ॥१२९३ ।। सा कणय-पंकय च्चिय उवविट्ठा चउदिसिं पलोइत्ता । करकलियंजलिबद्धा पणमित्ता अजियजिननाहं ॥१२९४।। उन्नामिय भय-नाला अइतारसरेण तिन्निवाराओ । जंपइ वसुहावलए किं को वि हु अत्थि साहसिओ ? ॥१२९५॥ इय वित्थारिय सद्दा सहसा तेणेव धवलछत्तेणं । भीय व्व सलिलमज्झे लक्कइ सा दिव्ववरतरूणी ॥१२९६॥ कुमरेण अवरतोरणखंभंतरिएण सव्वमवि दिव्वं । तं दिठें तो सहसा समरित्ता अजियजिणनाहं ॥१२९७।। मग्गम्मि चेव तिस्सा हत्थे गहिओ व्व झ त्ति तं तरुणिं । झंपावियं वियारं न सहइ साहस्सिओ कह वि ।।१२९८।। सो तिस्सा वयणेणं मंतेणाड्ढिओ व्व सरसलिले । पडिओ झ त्ति नियच्छइ हेट्ठा तं चेवमणिभवणं ।।१२९९॥ उवरिम भवणच्छाया सच्छहमच्छरियकोडिपडिहत्थं । जलकंतकिरणलहरीसदूरनिद्दलियजलनिवहं ।।१३००॥ मंडलतलावइनो पुणरवि पणमित्तु अजियजिणनाहं चिंतइ चित्ते एसो हंत किमेयं महच्छरियं ॥१३०१ ।। पायालसंदरी सा जलदेवी तिलयसंदरी अहवा ।। किं कज्जमिहं बाला निवसइ सर-सलिल-दग्गम्मि ॥१३०२।। 2010_04 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३२३ अहवा - किमिंदजालं इंदविमाणम्मि अहव जाओ हं । सुमिणं च अहव अन्नो मह चित्ते चित्त-सम्मोहो ॥१३०३।। कहमित्तो नीहरणं किंवा मह पाणधारणं होही ? । अहवा सव्वं भव्वं जं दिट्ठो अजियजिणनाहो ॥१३०४॥ इच्चाइ चिंतयंते एगा तंबूलवाहणी तरुणी । तत्थेव समागंतं कुमरं विनवइ सप्पणयं ॥१३०५॥ जा कमरलच्छि-लच्छिं विडंबयंती सविब्भमा कन्ना । दिट्ठा नियभवणगया सा तुममाहवइ सयमेव ॥१३०६।। निद्दिस्समाणमग्गो तीए कमरो वि तत्थ गच्छंतो । पिच्छइ विसालसालं भवणं भवणवइभवणं व ॥१३०७॥ सत्ततल-भूमिबद्धं अणेयचउसालयाइपरिकलियं । मणिरयण-किरणमाला संहरिया सेसतिमिरभरं ॥१३०८।। चिंतइ कुमरो एयं चंदविमाणं पराए मुत्तीए । किं राहुभउभंतनिलुक्कमिह सलिल-दुग्गम्मि ॥१३०९॥ अहवा रम्मं भवणं एवं पायालभवणसंदोहं । मन्ने जिणित्त तत्तो चलियं सरभवणविजया य ॥१३१०॥ कमरो कमेण पत्तं पासाए तम्मि सा वि कमलच्छी । पिच्छइ तिलोयरमणी मण-नयण-महसवायंतं ॥१३११॥ कणियार-कणय-चंपयवनं सव्वंग-सुंदरायारं । नियरूव-जिय-जयंत निब्भर-नव-जव्वणारंभं ॥१३१२।। समिणे वि जे वियारा उवलद्धा नेव तीए मुद्धाए । तइंसणेण पयडा सहावसिद्ध व्व ते जाया ॥१३१३।। चिंतए चित्ते एसा कत्थ वि तित्थम्मि तिव्वतव-चरणं । तविऊण मणंगेणं मन्ने अंग इमं पत्तं ।।१३१४॥ सहसा सा अब्भट्ठिय नियपाणिसरोरुहेण कमरस्स । 2010_04 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं आसणमणहं दिती कहकह वि निवारिया तेण ॥१३१५॥ दासिविमक्कवरासणमासीणो ईसि लज्जियं तिस्सा । लीला-विलास-विब्भम-कलियं पिच्छेइ मुहकमलं ॥१३१६॥ लज्जाए पडिक्खलियं निब्भरअणुरायपिल्लियं गाढं । ताणं लोयण-जयलं गयागयं कुणइ अणवरयं ॥१३१७॥ खणमिलियचलियमउलियविमहाभिमहेहि पिम्मरम्मेहिं । वेवाहियाण कम्मं ताणं नयणेहिं निम्मवियं ॥१३१८॥ उवलालइ तं बालं कुमरो पसयच्छि ! पढमदिवसम्मि । मह लोला लोला वि हु अणवसरा चयइ लोलत्तं ॥१३१९॥ तहाहि - पायालसंदरी वा खयरी वा कनया अकन्ना वा । इय पुच्छा किज्जंती अवुहत्थं पयडए मज्झ ॥१३२०॥ वसुहावलयं सयलं परिब्भमंतेण कह वि नो दिट्ठा । तह तल्ल त्ति इमो खल थइवाओ पायडो मज्झ ॥१३२१ ।। तज्झ निमित्तं खित्तो अप्पा सलिलम्मि दुद्धमद्धच्छि ! ।। इय पयडइ अत्थित्तं अकलिय तत्तम्मि वत्थुम्मि ॥१३२२।। कज्जेण जेण अहयं आहविओ कहस जेण साहेमि । कज्जं तं चिय खिप्पं इय होही अप्पबहमाणो ॥१३२३॥ जइ अज्ज वि तं कना तो मह कुमरस्स संपयं उचियं । तमए सह संबंधो इय धिट्ठत्तं फडं मज्झ ॥१३२४॥ इय तियणसीमंतिणि ! सीमंतसमाणरम्मसव्वंगि ! । मह जीहा मूढ च्चिय जं जाणसि तं करिज्जासु ॥१३२५॥ रंभोरु सा भमुहा निद्देसेणं लवंगियं नाम । आइस्सइ जहा सव्वं साहसु कुमरस्स वृत्तंतं ॥१३२६॥ सा जंपिउं पवत्ता कुमार इह चेव भरहवासम्मि । चंप त्ति आसि नयरी सुपसिद्धा अंगदेसेसु ॥१३२७।। 2010_04 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३२५ हारि-विहार-किरीडा सरकुंडलमंडिया विवणिहारा । सा तरुणि व्व विरायडू नयरी पायारपावरणा ॥१३२८।। निम्मलगणगणरंजियदिसि-चक्को नियपयाव-जिय-अक्को । सत्तंजउ त्ति नामो जहत्थ नामो तहिं राओ ।।१३२९।। नियरूव-विजिय चंपयवना सव्वंगलडहलायन्ना । रनो चंपयमाला नामेणं पट्टदेवी त्ति ॥१३३०।।। रनो य तिस्स तिस्सा उयरसरो रायहंससारिच्छा । पत्ता पयावदिन्ना पयावमउडाइया जाया ।।१३३१ ।। सवियासकमलमाला समिणेणं ताण चेव उप्पना । नवकमलगब्भवना कन्ना कमलावई नाम ॥१३३२॥ अभिरामगणारामा समग्गजणनयणविहियवीसामा । तिहयणरामा तिलया सा बाला वड्ढए तत्थ ॥१३३३ ।। सा जम्मंतरनिम्मियअणनसामनपुनमाहप्पा । रनो तह देवीए जाया जीयाउ अब्भहिया ॥१३३४॥ सा जाव जव्वणभरं संपत्ता ताव विहियजिण-धम्मो । संजायविसुइरोगा सो राया दिव्वजोएण ॥१३३५।। अकयपरमिट्टिसरणो अमणिय नियमरणसमयपज्जतो खणमित्तेणं मरिउं महिड्ढिओ वंतरो जाओ ॥१३३६।। सो सयणमोहनेहा ताणं संपनपनमाहप्पा । मत्तं वंतर-सक्खं संपत्तो झ त्ति तत्थेव ॥१३३७॥ पत्तं पयावमउडं नियरज्जभरम्मि सो निवसेइ । अनं पि रज्जसत्थं कारइ दिव्वाए सत्तीए ||१३३८॥ सयलं पि कोससालं सवन-मणि-रयण-कोडिपडिपन्नं । काउं जंपइ एसो साहह अनं पि जं कज्जं ॥१३३९।। चंपयमालाईया सव्वे पच्छंति वंतरं सयणा ।। कमलावईए भत्ता को होही तुज्झ धूयाए ? ॥१३४०॥ 2010_04 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सो अवहिनाणजाणिय तत्तो जंपेइ वंतरो तत्तो । कुमरो अणंतकित्ती होही कमलावई भत्ता ॥१३४१ ।। कहमिइ पुट्ठो तेहि वि साहइ सव्वं सवित्थरं एसो । इह आसि दुग्गमग्गा जहत्थ नामा महाअडवी ॥१३४२ ।। तिस्सा य मज्झयारे विसालसिंगो त्ति सेहरी अत्थि । नियरसिहरनियरवित्थरकयसंकडनहयलाभोगो ॥१३४३ ॥ पुव्विं अजियजिणेणं केवलवरनाण-दंसणधरेणं । सयले वसुहावलए विहारमणहं करितेण ॥१३४४॥ सिहरिस्स तस्स सिहरे वंतर - - सुर-असुर - मणुयपरिसाए । समवसरणठिएणं परूवणा एरिसी विहिया ॥१३४५ ॥ इय जिणभवणे वा तस्स बिंबे व रम्मे । समणपमुहसंघे चउव्विहे पुत्थए वा । न य गहियनियत्थो निम्मिओ जो कयत्थो । तमणहमिहमन्त्रे अत्थमन्त्रं अणत्थं ॥ १३४६ ॥ उद्दंड - दंड - रम्मं जिणभवणं जेण कारियं मन्त्रे । विहियसुकयाण मज्झे जय हत्थो उब्भिओ तेण ॥१३४७॥ जेण जिणभवणसिहरे विहिणा धम्मेण रोविओ कलसो || समगं पि तेण मन्त्रे सधम्मजसजीविएस पि ॥१३४८।। तह जिण - बिंब - इट्ठा न कारिया जेण एगचित्तेण । सिवपुररज्जपइट्ठे सो कह लहिही अकयपुन्नो ॥१३४९ ॥ इच्चाइ धम्मदेसणमणहं काऊण अजियजिणनाहो । भव्वारविंदभाणू विहारमकरिसु अनत्थ ॥१३५० ॥ एवं च जिणाभिहियं अणन्नचित्तेण भत्तित्तेण । तप्पव्वयाहिवइणा निसुयं मणिचूलनामेण ॥ १३५१ ।। उल्लसिय विवेएणं तेणं चित्तम्मि चिंतियं एयं । कत्थ वि विसुद्ध से जिणभवणं कारइस्सामि ॥ १३५२॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा इत्तो य नियडदेसे तस्सेव गिरिस्स पलयकाले वि । अविदितलपएसं पउमसरं अस्थि वित्थिण्णं ॥१३५३।। विज्जाहरी विलासाभिहस्स तस्सेव मज्झयारम्मि । मणिचूलेणं मणिमयभवणं निम्मावियं तत्ते ॥१३५४॥ गब्भहरम्मि मणिमयपडिमा अजियस्स ठाविया तेण । चारणमुणीसरेणं सा वि पइट्ठाविया विहिणा ॥१३५५॥ तस्स सरस्स अगाहे तलम्मि दुइयं पि अजियनाहस्स । जलकंतरयणभवणं विहिणा तेण कारवियं ॥१३५६।। जलभवणदक्खिणेणं जलकंतमणीहि सत्ततलबद्धो । लीलामंदिरनामो पासाओ कारिउं तेण ॥१३५७|| मणिचूलसरो तत्थ य पासाए विविह-तियस-तरुणीहि । सच्छंदविसयसुक्खं अणुहवमाणो गमइ कालं ॥१३५८॥ पउमसरतीरसंठियरम्मुज्जाणाउ गहिय वरकुसुमो । सो अजियजिणं पूयइ दोस वि भवणेस तिक्कालं ॥१३५९॥ आउक्खएण चविओ मणिचूलो तत्थ चेव आवासे । कालक्कमेण बहवे जाया मणिचूलनामेणो ॥१३६०॥ चंपापरीए राया अहमवि मरिऊण तस्स ठाणम्मि । उप्पनो मणिचूलो महिड्ढिओ वंतरो एत्थ ॥१३६१ ।। तो मह अप्पयधूयं कमलावइ नामियं इमं तत्थ । नेउं जलमज्झत्थे पासाए जेण मंचामि ॥१३६२॥ सो वि ह अणंतकित्ती गइंदहरिओ कमेण देसेस । विविहेस परिभमंतो एही तत्थेव दिव्ववसा ॥१३६३॥ इच्चाइ जंपिऊणं मणिचूलसुरेण तेण नेऊणं । इह पासाए मक्का कमलावइनामिया एसा ।।१३६४॥ भणिया य तेण वच्छे ! सुवनकमलं इमं समारूढा । मह सामत्थेण तमं पउमसरे तत्थ गंतूण ॥१३६५॥ 2010_04 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं एयं भणिज्ज निच्चं किं को वि हु भुवणमज्झयारम्मि । अत्थि महासाहसिओ समेइ जो इत्थ जलमग्गे ॥१३६६।। सोऽणंतकित्तिकुमरो सदं सोऊणं तुज्झ साहसिओ । अप्पं खवित्त सलिले भवणमिणं समागमिही ॥१३६७।। इय सुरगिराए एसा तहेव सव्वं करेइ वरकज्जे । संपइ तमं पि पत्तो सेसं तह चेव पच्चक्खं ॥१३६८॥ इय जा लवंगिया सा जंपइ ता तत्थ विविहतित्थेस । नमिऊण तत्थ भवणे मणिचूलसूरो वि संपत्तो ॥१३६९॥ निज्जिय मारकुमार कुमरं दठूण विम्हिओ हियए । कमलावई पयंपइ वच्छे ! सो एस तज्झ वरो ॥१३७०॥ साहस-विवेय-विक्कम-निरूवम-रूवाइगुणगणं जस्स । दठूणलज्जिओ विवसो वि जयंतो गओ सग्गं ॥१३७१ ॥ कमरं पि जंपइ सरो एसा नीसेसतरुणिजणतिलया । नियजम्मंतरधूया तज्झ मए संपयं दिना ॥१३७२॥ तत्तो तेसिं सहरिससरसंदरिगिज्जमाणचरियाणं । तत्थेव तेण विहिओ वीवाहमहसवो रम्मो ॥१३७३।। समनेहनिब्भराणं समवयरूवाण ताण संबंधं ।। पिच्छंतीहि सरीहिं अणमिसभावो को सहलो ॥१३७४॥ तस्स नवल्लवरस्स य काउं सव्वं दसाहिया पमुहं । मणिचूलसो तत्तो पत्तो चंपाए नयरीए ॥१३७५।। सो सयलं वत्तंतं पयावमउडस्स नरवरिदस्स । कमलावइकुमराणं साहइ परिणयण-पज्जतं ॥१३७६ ।। राया पयावमउडो मणिचूलसूरो य तत्थ चंपाए । ताण पवेसमहूसवसामग्गिं झ त्ति कुव्वंति ॥१३७७॥ तहाहि - मणिमयतोरणमाला गोउरदारेसु निम्मिया तेहिं । घणघुसिणचंदणरसो मग्गे मग्गे य पक्खित्तो ॥१३७८॥ 2010_04 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३२९ रोलंबरोलमहला परिमल उग्गारवासियदियंता । वियसियकसमसमूहा दसद्धवत्रा पइना य ॥१३७९।। मणिमंदिरदारेसं दिनो मुत्तिय चउक्कउक्केरो । विहिया य हट्टसोहा पहे पहे देवसेहिं ॥१३८०।। इय चिंधवेजयंती अलं व निउरंबबंधुरो तेहिं । रयणमयमंचनिचया ठाणे ठाणे व निम्मविया ॥१३८१ ।। इय सुरनरेसराणं ताण वि विविहं पवेससामग्गिं । कव्वंताणं दियहा दुन्नि वि लग्गा तहिं नयरे ॥१३८२।। सो केरिसो कुमारो सा वि हु कन्ना वि केरिसी हुज्जा । नयणमहूसवसरिसो ताण पवेसो कहं होही? ॥१३८३।। जइ दिव्वं अणकूलं जइ वि ह अम्हाण दीहरं जीयं । नूणं पभायसमए पिच्छिस्सामो तओ सव्वं ॥१३८४।। इय हरिसनिब्भराणं जणाण पइमंदिरम्मि आलावा । उल्लसिया समकालं तईया चंपाए नयरीए ॥१३८५।। इत्तो य विवरदुग्गे जो जोइंदो इमेण कुमरेण । नासिय विज्जो पुव्वं मरिऊणं रक्खसो जाओ ॥१३८६।। सो पावो अवहीए कमरं पिच्छेइ तम्मि पासाए ।। कमलवईए सहियं हरियं मणिचूलतियसेणा ॥१३८७।। जम्मतरियं वरं समरिय सहसा फरंतअहरूट्ठो । उन्भडभिउडीभंगुरकरालभालयलदुप्पिच्छो ॥१३८८॥ अंजणतमालसामो वामो नीसेसभुवणसत्ताणं । सो कमरहरणचित्तो पत्तो तं चेव जलभवणं ॥१३८९॥ मुह-कुहरंतर-विलसिर-जीहो गुरुवेग-वियड-भयदंडो । अइपिंग-जडिल-कंतल-पब्भारसिरो य सो रक्खो ॥१३९०॥ कंदर-विवर-विणिग्गय-भुयगो अक्खुडिय-पक्ख-जुयलिल्लो । जलियदवानल-सिहरो नज्जइ सो जंगमो सिहरी ॥१३९१ ।। ___ 2010_04 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सिरिपउमप्पहसामिचरियं हा पाव ! तए तइया अहयं पन्भट्ठ-मंत-पय-बीओ। विहिओ तमं पि संपइ होहिसि पन्भट्ठ-निय-जीवो ॥१३९२॥ इच्चाइ जंपिरो सो कुमरं सरसंदरीण पच्चक्ख । हरिऊण जाइ अहवा हवंति चलियाण चलिययरा ॥१३९३।। अह सो मणिचूलसुरो पुरम्मि निम्मविय-सयलसामग्गिं । कुमरायण-निमित्तं जा पत्तो तम्मि मणिभवणे ॥१३९४।। ता तेण सयल-जलयर-स-करुण-रव-मिलिय-बहल-पडिसहो । . कमलावई पमहाणं पलाव-सद्दो तहिं निसओ ॥१३९५।। हा नाह ! नाह ! मह-ससि-निज्जिय-निसिनाह ! परिह-सम-बाह । हा नियवयणविणिज्जिय सुरसिंधुपवाह ! कत्थ तुम ? ॥१३९६॥ कलहंस-मिहुण-विरहो नूनं जम्मंतरम्मि हा विहिओ। तेण मह पाणनाहो हरिओ नव-संगम-समयम्मि ॥१३९७।। हा ताय ! रक्खियावाय मणिचूल तम पि तत्थ नयरीए । सामग्गिं कुणमाणो हय-विहि-ललियं न याणेसि ? ॥१३९८॥ हा दिव्व ! जइ अजग्गा, तस्स कुमारस्स कहण तो दिन्ना । अह दिवा पाव तए, अह हरिओ कीस मह नाहो ? ||१३९९।। मह कहस पत्ति ! तस्स वि किं किं नरसेहरस्स संजाइं? । इय जपतो पत्तो, मणिचूलसुरो तर्हि सहसा ॥१४००।। सोउं कमारहरणं, ओहिनाणेण मणिय-परमत्थो । आसासइ नियधूयं, मा वच्छे ! कणस मणखेयं ॥१४०१ ।। थेवेण वि कालेणं, तं नररयणं नियाए सत्तीए । आणेमि त्ति वयंतो, मणिचूलो निग्गओ सहसा ॥१४०२ ।। सुरसंदरी वि एगा, पयावमउडस्स नरवरिदस्स । विनवइ कुमरहरणं, निब्भर-हरिसस्स संहरणं ॥१४०३।। राया पयावमउडो, चिंतइ चित्तम्मि पिच्छ, हयविहिणो । विलसियमचिंतणिज्जं, अपिच्छणिज् अकहणिज्जं ॥१४० ४।। 2010_04 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमारकहा ३३१ सा सामग्गी सो चेव, वित्थरो सोयनिब्भरो हरिसो । एक्क पइ च्चिय सव्वं, हयास ! हरियं तए दिव्व ! ॥१४०५।। आरोविय भवचक्के, परिसं पिंडं व विविहरूवेहिं । दंडेण भामयंतो, विही कुलाल व्व निम्मवइ ॥१४०६।। चंपयमाला पमहं, सयलं अंतेउरं पि विलवेइ । कमरम्म अदिठे वि हु, तिलोय-पच्चक्ख-गणगहियं ॥१४०७॥ तेमुत्तियावचूला, उल्लोया मंचसंचया ते य । कुमरेण विणा सव्वं, नयरं रनं व पडिहाइ ॥१४०८॥ मन्ने दूरगएणं वि, हरिएण वि तेण भुवणवलयम्मि । संसारनाडयमिणं, पायडियं विविह-भंगीहिं ॥१४०९॥ एत्तो य रक्खसो वि ह, कमरं हरिऊण चिंतए एवं । किं गिलिय नियय वेरिणमेयं वेर विसुज्झेमि ॥१४१०॥ अहवा नहि नहि एवं, गिलिओ मह उयरदारणं करिही । इय चितंतो पत्तो, जलनिहि-मज्झम्मि सो रक्खो ॥१४११ ॥ सो गरुय-रोस-परिपिल्लिउ व्व न दूरे नहम्मि गंतूणं । तं खिवइ जलहि-सलिले, कच्छभ-मच्छाइदुप्पिच्छे ॥१४१२।। रंगत-गरुय-भंगर-तरंग-वाहाहि-दर-देसाओ । तं निवयं तं दटुं, गहिओ मणो गज्जए जलही ॥१४१३॥ एत्थंतरम्मि सहसा, देवी सिरि नामिया सपरिवारा ।। वियसिय सवन-पंकयमासीणा दिव्वनेवत्था ॥१४१४|| मत्त-गइंद-समूह, केहि वि केहिं वि नरविंदं । तरिय तरंगम-निवहं, केहिं वि हु वरवराहनिउंरबं ॥१४१५।। कलकलहंससमूह, केहि पि हु वरवराह-निउरबं । वरगरुडगणं केहि वि, केहिं पि विमाणसंदोहं ॥१४१६॥ केहिं पि सिहिसमूह, आरूढेहिं समानवेसेहिं । सुरसुंदरि-निवहेहिं, परियरिया लक्ख-संखेहिं ॥१४१७।। ___ 2010_04 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ कस्स वि उवएसेणं, उप्पिच्छंती नहम्मि निवयंतं । नियपाणिपंकरणं, तं गिण्हइ रायहंसं व ॥१ ४१ ८ ।। तत्तो गहीर- दुंदुहि-निवहो, सुरसुंदरीसमूहेहिं । जय जय विराव - मीसिय- सद्दो, संताडिओ सहसा ॥१४१९ ॥ हरिस - भर - निब्भरमणा, कुमरं गिहित्तु दिव्व-सत्तीए । अज्जुणसुवण्णवन्ने, गच्छइ सेलम्मि हिमवंते ॥ १४२० ॥ कल्हार - कुमुय - पंकय - इंदीवर - पउम-नियर-संच्छन् । पउमहरयम्मि एसा, गच्छइ सवियासकमलच्छी ॥१४२१ ॥ पउमहरयंतराले मणिरयण - सुवन्न-पत्त-परियरियं । दो कोसमाण - वित्थरमइ - बंधुर - केसरसणाहं ॥ १४२२ ।। रयणमय-कन्नियंतर-विसाल-पासाय- सोहियं रम्मं । सा नियनिवास - पउमं पत्ता कनंत-पत्तच्छी ॥ १४२३ ॥ पासायंतरमणिसयणिज्जे तं सुह मुत्तूणं । करकलियतालविंटा मंद मंदं कुणइ पवणं ॥ १ ४२ ४।। वियलिय तणु संतावो सिरीए भणिओ कुमार ! उट्ठेसु । पउमद्दहस्स लच्छिं पिच्छसु अच्छरियं संजणयं ॥ १४२५ ॥ इय तग्गिराए कुमरो, उम्मीलइ जाव लोयणे सहसा । तो सयल - दिव्व - तरुणी- सिरोमणिं पिच्छए एयं ॥ १४२६ ॥ सा वि कुमार घित्तुं, बाहिं भवणाओ निग्गया तत्तो । जंप कुमार ! एसो, हिमवंतो नाम वरसेलो ॥१ ४२७॥ एत्तो च्चिय सरियाओ, गंगा - सिंधू य रोहियं सा य । पवहंति सुहा - धारा -धोरणि - सम-सलिल - पुनाओ ।।१ ४२८ ॥ हिमवंत - सेल - सिहरे, मणिमय-सोवाण - मालिया रम्मो । चउदिसिरणंत- किंकिणिमणितोरण- मंडि- उद्देसो ॥ १४२९ ॥ सिद्धाययण- जिणेसर-वंदण - संचलिय- सुरसमूहेहिं । 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंत कित्तिकुमरकहा अणवरयगहियपउमो, कुमार ! पउमद्दहो एसो || १४३०|| हरयंतरालदेसे, अरिट्ठ-वेरुलिय- पमुह - रयणमयं । सा सयमेयं पउमं, मह लीलामंदिरं कुमरं ॥ १४३१ ।। अठुत्तरं सहस्सं, इमस्स सरिसाणि मूल - परिहीए । वत्थाहरण-विलेवण - भंडार - समाणि पउमाणि ॥१४३२ ॥ बाहिरपरिहीसु पुणो, वररयणमयाणि लक्खसंखाणि । सामाणिय-महयरिया, अणियवई पमुह - पउमाणि ॥। १ ४३३ ।। इय रिद्धि - समुदयस्स य, सव्वस्स सामिणी अहं चेव । सिरि नामा जा लोए, कमलनिवास त्ति सुपसिद्धा । ।।१ ४३ ४।। इय पउमम्मि मए सह कुमार ! सुरलोय - विसय- सुक्खाणि । अणुहवसु वरिसलक्खे परियरिओ तियसविलयाहिं ॥१४३५ ।। पयडंति जीए कज्जे सुरा य असुरा य विविहचाडूणि । सुरसुंदरिपरियरिया सयंवरा तुज्झ सा अहयं ||१४३६॥ मणिणो वि नियं मोणं जिस्सा रूवं निरूविउं सहसा । मुंचति सुहयसेहर ! सयंवरा तुज्झ सा अहयं ॥ १४३७ ।। भुवणं पि जीए कज्जे दुरंतवावारवाउलं भमइ । देहेण वि विहवेण वि सयंवरा तुज्झ सा लच्छी ॥१४३८ ॥ तव्वयणगहियतत्तो तत्तो कमलं पयंप कुमरो । करभोरू ! कहं जुग्गो मणुस्स मित्तो अहं तुज्झ ॥१४३९ ॥ ल-मुत्त - कलिल - कलसं मह देहं सेय-सलिलदुप्पिच्छं । कप्पूर - पूर - सरिया सहेसि कहि तस्स दुग्गंधं ॥ १४४० ॥ किं कलहंसी वायससंबंधं महइ का सराभिगमं ? | किं भद्दजाइकरिणी सुरतरुणी महइ किं मणुयं ? ।।१ ४४१ ।। कमला जंपइ तत्तो जियमारकुमार ! भणसु मा एवं । किं जाइमित्तदोसा मणुया सव्वे वि सारिच्छा ||१ ४४२ ।। मल - 2010_04 ३३३ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अवकेसी कप्पतरू चिंतारयणं तहेव तिणरयणं । छीरं च अक्कछीर न जाइमित्तेण सारिच्छे ॥१४४३।। भरहो भरहाहिवई पुत्तो पढमस्स तित्थनाहस्स. । चक्केसराण पढमो वरिओ गंगाए देवीए ॥१४४४|| पव्विं दिव्व-सहेसी वरिससहस्सं सया वि अणरत्तो । नारी विरत्तचित्तो विविहं रमिओ न किं कुमर ! ॥१४४५।। कुमरो जंपइ सुंदरि ! वियारसारासि तो विचिंतेसु । अकयसरतरुणि-विरई सिद्धते सव्वए भरहो ॥१४४६ ।। सोऊण धम्मतत्तं जयंतसेणस्स मुणिवरिंदस्स । पासे एसो नियमो मए पवनो परा सयण ! ॥१४४७।। दिव्वा रमणी वेसा तह नारी अवर परिससंगहिया । . तेरिच्छी सव्वा वि ह परिहरिया निययकाएण ॥१४४८॥ कमलच्छि-कमलवासिणि तत्तो सरसंदरी परिग्गहिया । अहवा अपरिग्गहिया परिहरियव्वा मए सव्वा ॥१४४९।। कमला जंपइ तत्तो कुमार ! उवयारिणी अहं तुज्झ । तइया अवारपारे निवडतो रक्खिओ जेण ॥१४५०॥ तो मं अवगनंतो कयग्घनरसेहरोसि हे सुहय ! जइ मह पच्चवयारं करेसि मनेस मह भणियं ॥१४५१॥ सव्वाण वि अहमाणं कयग्घमहमाहमं निदीसंति । सव्वाणमुत्तमाणं कयनुय उत्तमं बिंति ॥१४५२ ।। उवयारिणीए कज्जे तत्तो नियम पि खडिउं पच्छा । पायच्छित्तं चरिउं विसद्ध-धम्मो हविज्जास ॥१४५३।। कुमरो जंपइ सुंदरि ! कत्तो उवयारिणी हवसि मज्झ । भंजावसि मह नियमं जम त्ति जत्तीहि विविहाहिं ॥१४५४॥ सो उवयारी जो किर सम्मं धम्मम्मि ठावए अनं । 2010_04 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमरकहा सो चेव महावेरी जो पावपहे पयट्टेइ ।।१४५५॥ तमए रक्खियमेयं देहं जलहिम्मि खिवस पणरुत्तं । वरमिहदेहच्चाओ न उणो नियनियमपन्भंसो ।।१४५६।। अवि य - वरमिह समद्दमज्झे पडिओ खणमित्तदहनिमित्तम्मि । न उणो अणोरपारे संसारेऽणंत-दुक्खम्मि ॥१४५७|| तत्तो सिरी सहरिसा जंपइ हे साहु साहु दढचित्त ! तुह चितानिच्चलत्तं पसंसियं तेण केवलीणा ॥१४५८॥ अवहियहियओ निसणस कज्जेणं जेण तज्झ सीलस्स । विहिया मए परिक्खा कमार ! साहेमि तं इण्हिं ॥१४५९।। महिवलयाए कुंतल-कलावसरिसो इहासि वरदेसो । कुंतलनामो समणसनिउरंबनिवासदुल्ललिओ ॥१४६०।। अमरपुरीमवि चेइयभवणपडायंगुलीहि तज्जती । रयणमयसालकलिया अत्थि सुवेणी पुरी तत्थ ॥१४६१ ।। सारय-तारय-नायग-निम्मल-गणसंपयाए निस्सीमो । भीमो विपक्ख-भीमो तं नयरं पालए राया ॥१४६२।। तस्स यजारिसिया दासीओ तारिसमंतेउरंपि नऽन्नेसिं । जह पाइक्का न तहा अनेसिं सिवनाहा वि ॥१४६३।। इत्थंतरम्मि कुमरो चिंतइ सोहंतकंतलो देसो । जत्थ सुसीमा कन्ना निस्सीमा अत्थि इत्थीसु ॥१४६४।। सविसेसदत्तचित्तं कलियसिरी वि जंपए राया। समयंतरम्मि चिट्ठइ सहाए सीहासणासीणो ।।१४६५।। तत्थ य तवतेयंसी तवणं पवणं च विगयसंबंधो । बंधर-विहारसीलो अपक्खवाई तहा अचलं ॥१४६६।। 2010_04 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अकलंक- सोम-मुत्ती सोमं आजम्ममप्पमत्तो य । भाडपक्खी जुलं वि विगयमलमाणसो निच्चं ॥१ ४६७॥ सेवालकलुसमाणसनीरं अमरत्तमित्तिसु निमित्तं । अमयं सिव-सुह-कारणवयणामयदाणदुल्लहिओ ॥१ ४६८।। हा सविरओ वि पायं निम्मल - नियदंतदित्ति छउमेण । निच्चं पि उवहसंतो पत्तो चारणमुणी एगो ||१ ४६९।। ( चतसृभिः कलापकम् ) अब्भुट्ठाणं सम्मुहगमणं सीहासणाइसम्माणं । तस्स य विहियं रत्ना विणओ गरुयाण सह सिद्धो || १४७० ॥ जाए कहापसंगे मुणिनाही तेणमवणिनाहेण । वित्तो सप्पणयं भयवं ! साहेसु किं तत्तं ॥ १ ४७१ ।। सो आह हे नरेसर ! पमाय-मइराए मत्त - चित्तस्स | रायस्स इमं चेव य कहणिज्जं सक्कणिज्जं च ॥ ४१७२ ॥ जीवाणमभयदाणं दाणं साहम्मियाण लोयाणं । बिंबाण पइट्ठाणं अणुजाणं रह - समूहस्स ॥१४७३ ।। विविह-मणि - रयण-कंचण - निम्मिय- मई मित्त- मत्तवारयणं । सिहरसयरुद्धनहयलमग्गं कज्जं च जिणभवणं ॥१४७४ || इच्चाइ मुक्ख-मग्गं पयडं पयत्ति नरवरिदस्स । पत्तो निरीहचित्तो एसो देसंतरे सहसा || १४७५ ।। राया चिंतइ चित्ते नूणं न पुरम्मि मज्झ जिणभवणं । अच्छरय सयाइत्तं विज्जइ ता कारविस्सामि ॥१४७६ ॥ भवणविहिबद्धचित्तो वद्धरणो आहवित्त नरनाहो । कारावर जिणभवणं भवणं अच्छरियलच्छीए ॥१४७७॥ सिवभमणसमारोहणबंधुरसोवाणमालियाबंधो । भवजलहि- सेउ-बंधो पासाओ कारिओ रम्मो ॥। १४७८ ॥ सिरिपउमप्पहसामिचरियं 2010_04 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमर कहा तेण पडायारोवा नियजम्मस्सेव तस्स कारविओ । गुरूहि ताव दुज्जणनेहो विव विहडियं भवणं ॥१४७९॥ पुणरविना रम्मं भवणं निम्मावियं विसेसेण । पारद्धं नियकज्जं गरुया न मुयंति विग्घे वि ॥१४८० ॥ प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः । प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ॥ १४८१ ॥ विप्रैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः । प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥१४८२ ॥ जाव पइट्ठा तेणं कारविया ताव भवणमेयं पि । फुट्ट झति इत्थी - चित्त - निहित्तं रहस्सं च ॥ १४८३ ।। तत्तो विलक्खचित्तो राया चिंतेइ नूणमह अत्थि । को वि भवंतरवेरी देवो जो भंजए भवणं ॥ १४८४ ॥ निमित्तयमाहविउं राया पुच्छे कहसु तं किंपि । मह जिणभवणं जेणं सासयकालं इमं होही ॥१४८५ ॥ परिभाविय निय चित्ते सो साहइ देव ! तुज्झ रज्जस्स । समहिट्ठा य देवी रज्जसिरी नाम इह अत्थि ॥१४८६ ॥ आराहिया तए पहु ! सव्वं तुह चिंतियं धुवं करिही । तह पुव्वपत्थिवाण वि विहुरे सा चेव जं सरणं ॥ १४८७॥ झाणेण य मोणेण य तवो विसेसेण राइणा तत्तो । सा देवी उवयरिया पच्चक्खा तत्थ संजाया ॥१४८८ ॥ जा पच्चक्खा देवी सा उण अहमेव कुमर नायव्वा । तत्तो मए नरिंदो आइट्ठो वरसु मणइट्ठे ॥१४८९ ॥ रत्ना वित्तमिणं सामिणि ! निम्मावियं मए रम्मं । फुट्ट तडत्ति भवणं दोसेणं कस्स मह कहसु ॥१४९०॥ ततो मए पयंपियमहमवि नरनाह ! एत्थ संसइया । 2010_04 ३३७ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ केवलनाणि मुणीसरमिह अत्थे कमवि पुच्छिस्सं ॥१४९१ ॥ कित्तियमित्तं कालं एत्थ विलंबेस जंपिओ एयं । अहयं पत्ता पासे जयंतसेणस्स केवलिणो ॥१४९२ ॥ सम्मेयसेलसिहरे खेयर - सुर-असुर-वंतर - सहाए । धम्मं पयासयंतो सो दिट्ठो केवली भयवं ॥१४९३ ।। सो तत्थ य संदेहं पुट्ठो दुट्ठट्ठ-कम्म-निट्ठवणो । साहइ भीमनराहिव - वेरी संहरइ तं भवणं ॥। १४९४ ।। तहाहि सिरिपउमप्पहसामिचरियं सावथिए पुरीए भीमो जम्मंतरम्मि नरनाहो । आसि मयंको नामं पायं परदाररमणमणो ।। १४९५ ॥ सो नियसामंतेणं निम्मविउं बंधुदत्तनामेण । भुंजइ विविहभोज्जं सपरियणो तस्स भवणम्मि ॥१४९६॥ हरिणक-किरण-निम्मल - सीलालंकारहारिणी तरूणी । तस्सासि पट्टदइया हरिणी नामेण हरिणच्छी ॥१४९७ ॥ सो तेण गोविया विह मयंकराएण दिव्वजोएणं । अवयवमित्तेणं चिय दिट्ठा रायंधचित्तेण ॥१४९८ ।। तक्खणमब्भुववनो राया काऊण भोयणं किंचि । मग तं चिय तरुणिं किमकज्जं मयणनिहयाणं ॥१४९९ ॥ तत्तो य बंधुदत्तो जंपइ नरनाह ! मज्झ जीयं पि । तुह आयत्तं कित्तियमित्तं सीमंतणी एसा || १५०० || सामि ! तुमं नियभवणे गच्छसु पच्छा गिराहि महुराहिं । संभासिय तं मुद्धं सुर्द्धते तुझ पेसिस्सं || १५०१ || तब्भत्तिहरियचित्तो तत्तो राया नियत्तिओ सहिं । गच्छइ पच्छा भणिया पसयच्छी बंधुदत्तेण ॥१५०२॥ देवि ! मयंको राया मयंकबिंबं व पयडियकलंको । तं भासइमिच्छावि हु जं न वि भासंति कहकह वि ॥१५०३ ॥ 2010_04 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमरकहा मग्गइ तमं पि संदरी ! तो एस बला विहिय य सव्वस्सं । दइयं हरिही पाणे पुण हरिही मज्झ तह विरहे ॥१५०४॥ तं सणिय पिहिय सवणा चिंतइ चित्तम्मि सा इमं बाला । दोससयकोससाला नृणमिणं चेव मह रूवं ॥१५०५॥ दइस्स य सीलस्स य संपत्तो एत्थ ताव पज्जतो । दुह-निवह-दुग्ग-दुग्गइगमणं जम्मंतरे होही ॥१५०६।। इय चिंतती पत्ता असोयवणियाइपाणचायत्थं । उब्बंधणकरणमणा पासं सा कुणइ कंठम्मि ॥१५०७।। निम्मलसीलपभावा सासणदेवी हवित्तु पच्चक्खा । जंपइ अप्पविघायं वच्छे ! मा कणस दहजणयं ॥१५०८॥ जइ जीवियनिरवेक्खा रक्खसि सीलं जिणिंदपनत्तं । तत्तो केवली पासे पव्वज्जं गिण्ह निरवज्ज ॥१५०९।। आमंति तीए भणिए नीया उज्जाणसमीवसरियस्स । केवलिमणिणो पासे सासणदेवीए सा बाला ॥१५१०॥ विहिपुव्वं पव्वज्जं पडिवज्जिय केवलिस्स पासम्मि । सामन्नं सा पालइ पवत्तिणी पायमूलम्मि ।।१५११ ।। विविह-तव-चरण-निरया कसायलेसं पि सा विवज्जती । विहियाणसणा मरिउं सोहम्मे सुरवरो जाओ ॥१५१२।। तत्तो सा चविऊणं अणंतसेणस्स नरवरिदस्स । पुत्तो अणंतकित्ती जाओ संपुनपुनेहिं ॥१५१३॥ . सो वि हु मयंकराया हरिणिं नाऊण गहिय पव्वज्ज । पच्छा पच्छायावं करेइ विविहं स चित्तम्मि ॥१५१४।। समयंतरम्मि केण वि केवलिणा बोहिओ इमो सम्म । समणोवासगधम्मे जहत्थ एवं पवज्जेइ ॥१५१५।।। हारि विहारे विविहे, पडिमा अप्पडिम-रयणमइयाओ । निम्माविय मरिऊणं, सो सोहम्मे सुरो जाओ ॥१५१६॥ 2010_04 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सिरिपउमप्पहसामिचरियं तत्तो चविय सुवेणीपुरीए निस्सीम-विक्कम-समिद्धो । भीमो नाम नरिंदो, उप्पनो पव्व-पन्नेहिं ॥१५१७॥ इत्तो य बंधुदत्तो, परिभाविय परिभवं स चित्तम्मि । विसय-विरत्तो तत्तो, पारिव्वज्जं पवज्जेइ ॥१५१८॥ सो कय-विविह-किलेसो, भवणनिवासी सुरो समुप्पनो । सुमरियवेरो सत्तु, सोहम्मे नियइ अवहीए ॥१५१९॥ न य सक्कइ तं हणिउं, तइया सोहम्म-तियस-मज्झत्थं । साणुसय-चित्त-वित्ती, भमइ भवे कित्तियं कालं ॥१५२०॥ पुणरवि पारिवज्जं, पडिवज्जिय विविह-बाल-तव-चरणो । नामेण धूमकेऊ, जोइसिय-सरो समुप्पन्नो ॥१५२१॥ सुमरिय वेर पिच्छइ, जम्मंतर-वेरिणं इमो तइया ।। जिणमंदिर-निम्मावण-हिट्ठमणं भीमनरनाहं ॥१५२२॥ चिंतइ चित्ते पावो, भवण-विहाणेण जीवियं निययं । एएण कयं सयलं, किमहं रुट्ठो करिस्सामि ॥१५२३॥ फलमविकलमिह जेणं, गहियम्मि य जीवदेह-विभवाणं । किं तस्स सरा रुट्ठा, कणंति जीयं हरता वि ॥१५२४॥ तत्तो इमस्स भवणं, विहडाविय निय समीहियं काहं । सो चेव महावेरी, जो भंजइ धम्म-कज्जाणि ||१५२५।। इय नियमणे विगप्पिय, दुन्नि वि वाराउ तेण भवणमिणं । विहडावियं समंता, किं किं न कणंति पावहया ? ॥१५२६॥ जइ पण अणंतकित्ती, कुमरो गंतूण तत्थ नयरीए । आरंभइ तं भवणं, सासयकालं तओ होही ॥१५२७॥ जं सो दढसम्मत्तो,विरत्त-चित्तो य अनइत्थीस । ता तस्स सत्त-सील-प्पभावओ तं थिरं होही ॥१५२८॥ सचराचरजयधरणी, धरणी आलंबवज्जिया निच्चं ।। जं चिट्ठइ तं सव्वं जाणिज्ज सुधम्म-माहप्पं ॥१५२९।। 2010_04 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमरकहा ३४१ आणय-पाणय-आरण-अच्चुय-पमुहेसु देवलोएसु । चिट्ठति जं विमाणा तं सव्वं धम्म-माहप्पं ॥१५३०॥ सो उण अणंतकित्ती जलनिहि मज्झम्मि अमुगदियहम्मि । तुमए उद्धमुहीए निवडंतो झ त्ति गहियव्वो ॥१५३१॥ इय सुय मुणिंदवयणा जलनिहि मज्झम्मि जावचिटठामि । ता तत्थ मए दिट्ठो तमं पि नीओ य नियभवणे ॥१५३२॥ विहिया मए परीक्खा सकोउहल्लाए तज्झ सीलस्स । सुरगिरीचूला सरिसं मणयं पि मणं न ते चलियं ॥१५३३ ।। जिणवयण-हत्थिमल्लं आरुहिउं जेहि सीलकुलिसेण । हसिओ मयणमरट्टो ताण नमो धीरवीराण ॥१५३४॥ जे सील-पालणत्थं लीलं अवहीलयंति लीलाए । दिव्वाण वि तरुणीणं ताण नमो भवणवीराणं ॥१५३५।। उप्पत्रकेवला वि ह जाण पसंसति सीलमाहप्पं । भवणजणसेहराणं ताण नमो सीलवंताणं ॥१५३६॥ इय जाव सा पयंपइ मणिचूलसुरो वि ताव संपत्तो । सव्वं पि ह वत्तत्तं साहइ सिरिदेविकमराणं ॥१५३७॥ तक्खण-निम्मिय-मणिमय-विमाण-मालाए लच्छिदेवीए । मणिचूलेण य सहिओ पत्तो चंपाए सो कुमरो ॥१५३८॥ मणिचूल-सर-समाणिय-कमलावइसंजओ तओ कमरो । सुरतरुणिगीयचरिओ पयावमउडाइपरीयरिओ ॥१५३९।। महया विच्छड्डेणं पविसइ अमरावइए इंदु व्व । चंपापुरीए बंधुर-सिंधुर-कंधर-समारूढो ॥१५४०।। अह दिण-दुग-पज्जते सिरिए साहित्तु सयण-वग्गस्स । नीओ भीमपुरीए कुमरो जिणभवणकज्जम्मि ॥१५४१ ॥ सो अजियनाहसुमरण-पुव्वं कम्मं पइट्ठिउं कुमरो । कारावइ जिण-भवणं पइट्ठियं तं च सुगुरूहिं ॥१५४२॥ 2010_04 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो धूमकेउदेवो पुणरवि पत्तो नियच्छिउं कुमरं ।। सविसेसनिद्धदिट्ठी ऊहापोहं कुणइ विविहं ॥१५४३।। समरिय हरिणीजम्मं पयडो होऊण जंपए कमरं । मज्झ भवंतरदइया होहिसि ते कहस जं कज्जं ॥१५४४॥ कुमरो जंपइ सुरवर ! जिणदव्वविणासगो वि संसारे । पावइ अणंतदुक्खं किं भणिमो भवणघाइस्स ? ॥१५४५।। जिणदव्वं जिणभवणं जिणबिंबं जो विणासए पावो । को नाम नाम गिण्हइ तस्स महापावकारिस्स ? ॥१५४६।। तम्हा विविहविहारे करेस परिहरस भीमरायम्मि । वेर तस्स विहारे विग्घविणासी हवसु निच्चं ॥१५४७।। सो तियसो तं सव्वं तहेव निम्मवइ मणिय परमत्थो । गरुयाण वयणमित्तं कल्लाणं जीवलोयस्स ॥१५४८।। भीमनराहिवधूया सुसीमनामा निरूविउं कुमरं ।। हरिसियहियया सव्वं वृत्तत्तं साहए रनो ॥१५४९॥ एसो स-ताय-कुमरो जेणाहं जोइ-रक्खसाहितो । जीविय-निरविक्खेणं दक्खेणं रक्खिया तइया ॥१५५०॥ रना ससीमकन्ना दिना कमरस्स विम्हियमणेण । परिणयण-विहि ताणं पसत्थ-दियहम्मि संवत्तो ॥१५५१॥ सिरिदेवीए कमलावई वि कमरस्स अप्पिया तत्तो । सो कित्तियं पि कालं अइवाहइ ताहि परियरिओ ॥१५५२॥ नियजणणि-जणय-दंसण-समूसओ कहवि भीमनरनाहं । आपुच्छिय संचलिओ सुसीम-कमलावई सहिओ ॥१५५३।। मणिचूल-सिरीसहिओ मणिरयण-विमाण-नियर-परियरिओ। नियपुर-रम्मुज्जाणे सो पत्तो तक्खणा कुमरो ॥१५५४।। आराम-मज्झ-निम्मियपासायसिरम्मि संठिओ राया । संजायकोउहल्लो, जाओ दठूण सुर-निवहं ॥१५५५।। 2010_04 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमर कहा मणिचूलसुरो तत्तो, गंतुं विन्नवइ नरवरिंदस्स । पत्तो अणंतकित्ती, बारसवरिसाउ तुह पुत्तो ॥ १५५६॥ किं सच्चं ति विचिंतइ, जाव निवो ता विमाणमज्झाओ । नीहरिउं अवयरिओ, पासाए तम्मि सो कुमरो || १५५७।। महि-मिलिय-मउलि-कमलो पणमंतो वियसियच्छिपत्तेण । नियपाणिपल्लवेणं उच्छंगे ठाविओ रत्ना ॥ १५५८ || निय-पुत्त-दंसणुब्भव-हरिसो हियाउ नरवरिंदस्स । बाह - पवाह-मिसेणं अहिओ निगच्छइए तइया || १५५९ ॥ जयलच्छी वि कुमारागमणं सोऊण तत्थ संपत्ता । तं उच्छंगे कलिउं, उवलाल विविहभंगीहिं ॥१५६०॥ पवीसावइ पुरमज्झे कुमरं राया वि से परियरिओ । नवबहुयाहिं समेयं रइपीइजुयं अणंग व्व ।।१५६१ ।। मणिचूलो वि हु सव्वं सिंधुरहरणाइकुमरवृत्तंत्तं । रनो कहिं पवत्तो सिरीजुत्तो नियं ठाणं ॥ १५६२ ॥ कयकिच्चो विव राया परिवालिय कित्तियाणि वरिसाणि । निय रज्जं तस्सेव य दाउं कुमरस्स पव्वइओ ॥१५६३॥ हारि - विहार - समूहं कारइ वारइ जीवसंहारं । रहजुत्ता उज्जत्तो सो वि पयट्टावए नयरे || १५६४॥ निरवज्जं नियरज्जं परिवालिय वच्छराणि लक्खाणि । समयंतरम्मि मणिमयपासायसिरे समारूढो || १५६५ ॥ ता विच्छ - गुच्छ - सच्छह - घण - मज्झे सो वि पिच्छए रम्मं । धणुहं पियरहियाणं तोरणमिव मच्चु भवणस्स ॥१५६६॥ चं चेव अपिच्छंतो अणतकित्ती वियक्कए चित्ते । पिच्छह पयत्थ-सत्था कह हुंति सहावओ गयणे ॥१५६७॥ धणुहमिणं घेत्तूणं धारासारं सया वि वरिसंतो । गंभीरं गज्जंतो पहरइ गिण्हामि जलवाहो ॥ १५६८॥ 2010_04 ३४३ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अहवा पियजलवाहसमागमहरिसियहिययाए गयणलच्छीए । फडियवयस्स पडियं धणहमिसा दीसए अद्धं ॥१५६९॥ पच्छंतस्स य रनो उच्छलिया तच्छ-पबलपवणेण । संहरियं तं धणहं मेहेण समं खणद्धेण ॥१५७०॥ परिभाविय नियहियए राया पेच्छेह वत्थुवित्थारं । खणदिट्ठ-नट्ठरूवं सासइ रूवं जणो मुणइ ।।१५७१ ।। वाणासणेण धारासारं वरिसंतओ वि जह हरिओ। मेहो पवणेण तहा हीरइ धीरो वि कालेण ॥१५७२।। पजलंत-जलण-जाला-माला-संतत्त-पारय-सरिच्छं । दिव्वं पि विसय-सुक्खं का चिंता मणुय-सुक्खेसु ॥१५७३॥ जलहिम्मि सिरिसयासे मन्ने कल्लोलमंडली सहिया । चवलत्त-महिज्जित्ता नहम्मि इह दंसए विज्जू ॥१५७४॥ अरविंद-विहिय-वासा इंदिदिरविंद-मंदिरा मने । तह सिक्खावइ दक्खा तं पि ह जल-चंचलं जायं ॥१५७५॥ ता इंद-धणुह-सरिच्छं लच्छी-रूवाइ-वत्थु-वित्थारं । अवउज्झिउं असारं सारं गिण्हेमि पव्वज्जं ॥१५७६॥ इच्चाई चिंतयंतो विरत्तचित्तो खणेण नरनाहो । सह विविहकिलेसेहिं समूलमुम्मूलए केसे ॥१५७७॥ हरिणी जम्माहिज्जियसुएण परिमणिय सयलमुणिकिरिओ । पत्तेअबुहो जाओ अणंतकित्ती महीनाहो ॥१५७८॥ कमलावई सुसीमा, पमुहं अंतेउरं नरिंदस्स । कुमरा वि के वि तइया, पव्वइया केवलिसमीवे ॥१५७९।। सो घोरबंभचेर, पालिंतो विविह-तिव्व-तव-चरणं । कणमाणो उप्पाडइ, जयपयर्ड केवलं नाणं ॥१५८०।। भवियार-विंद-विंदं, पडिबोहिय केवलेण नाणेण । 2010_04 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकित्तिकुमरकहा ३४५ निट्ठविय अट्ठकम्मो, संपत्तो सासयं ठाणं ॥१५८१ ।। दिव्वाए वि तरणीए, विविहं अब्भत्थिएण जह नियमो । निव्वाहिओ इमेणं, तहेव कव्वंत अने वि ॥१५८२॥ इति चतुर्थाणुव्रते अनन्तकीर्तिकथानकं समाप्तम् || गाथा-४४८५ ॥ परिग्रहपरिमाणवते रत्नसारकथानकम् - परदारपरिहारो निरूविओ गिहिवए चउत्थम्मि । इण्हिं परिग्गहमाणं फुडं पवंचेमि पंचमए ॥१५८३॥ इह धण-कण-कुवियाणं रुप्प-सुवनेण खित्त-वत्थूणं । दुपयाण चउपयाणं माणं सव्वाण कायव्वं ॥१५८४॥ गणिमं धरिमं मेयं पारिच्छिज्जं धणं पि चउभेयं । पूगाइसक्कराई कमसो जीराइवत्थाई ॥१५८५॥ धनाणि चउव्वीस सेसा भेया हवंति सुपसिद्धा । धनाणि पण इमाई जणेस सिद्धंतभणियाणि ॥१५८६॥ धनाणि चउव्वीसं जव-गोहुम-सालि-वीहि-सट्ठिया । कद्दव-अणया-कंगू-रालय-तिलय-मग्ग-मासा य ॥१५८७।। अयसि-हरिमेत्थ-तिउडग-निप्फाव-सिलिंद-रायमासा य । इक्खू-मसूर-तवरी-कलत्थ तह धन य कलाया ॥१५८८।। आरंभ-संसरंभा वयंति जे न वि परिग्गहग्गहाइं । ते पाव-परिक्कंता, पडंति निरयंधयारम्मि ॥१५८९॥ निग्गहिय कोह-जोहा वि दंत-दुइंत-गइंदा वि । विणिरंभियदंभा वि हु पडंतिलुद्धा धुवं नरए ॥१५९०॥ कोडीसराण पहईसराण अमरे सराण अहिययरं । संतोसवज्जियाणं वड्ढइ लोहो अहो निच्चं ॥१५९१ ।। विलसंत-सुसिद्धंता वि फुरिय-तव-तेयवंता वि । माहप्प-महंता वि ह भमंति भीमे भवे लद्धा ॥१५९२।। पावाणमूलकारणममंदकंदो य वसण-वल्लीणं । 2010_04 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं गुणगणकाणण-दहणो परिहरणिज्जो सया लोहो ॥१५९३।। सिद्धिगइमूलमंगलमसमागुणाण सासयं कोसं । संहरिय सयल-दोसं संतोसं कुणसु किं बहुणा ? ॥१५९४॥ भव-संभव-दुक्खाणं काऊण खयं महेसि जइ सुक्खं । तत्तो तण्हावल्लिं उम्मूलस मूल-पज्जतं ॥१५९५।।। उक्तं चश्लोकार्द्धनैव तद्वक्ष्ये यदक्तं ग्रन्थकोटिभिः । तृष्णा च संपरित्यक्ता प्राप्तं च परमं पदम् ॥१५९६।। इच्छापरिमाणवयं, निरीहचित्तो करेइ जो परिसो। इह-परलोय-सुहाई सो पावइ रयणसारो व्व ॥१५९७॥ रयणसारकहा - रणरणिय-रयण-तोरण-किंकिणिगण-रावमहलियदियंता । रयणविसाला नयरी सुरपुरसरिस्सा इहं अत्थि ॥१५९८।। अरि-करि-हरिसारिच्छो सारय-ससि-किरण-सरिस-जस-पसरो । अनघ-भयंग-नरिंदो तत्थ नरिंदो समरसीहो ॥१५९९॥ रूवेण रई बद्धीए भारई तह सईस रिद्धिए । देवि व्व चित्तरूवा, तस्स पिया चित्तलेह त्ति ॥१६००। तत्थ पुरे वसभारो, सिट्ठी बहुदीव-विविह-ववहारो । भज्जा वसंधरा से, ताण सओ रयणसारो त्ति ॥१६०१ ।। इत्तो य - तत्थत्थि सत्थवाहो वसमइ-वसदत्तपत्तभावेण । सुपसिद्धो गोवद्धणनामो अभिरामगणगामो ॥१६०२॥ दिव्ववसा अइकक्कस-भासा बहकलहकंदली सरीसा । सोहग्गगव्वउद्धर-देहा सा गोमई भज्जा ।।१६०३।। सत्थाहे वसदत्ते कीणास-निवास-गोयरं पत्ते । सह सासुयाए कलहं कारइ सा गोमई निच्चं ॥१६०४॥ 2010_04 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३४७ कारइ तं घरकम्मं मम्मं पयडेइ थोवदोसे वि। तक्कय-कज्जमकज्जं मनइ अवमन्नए निच्चं ॥१६०५।। निय जणणि--दक्ख-संभार-तविय-हियएण तेण नियभज्जा । गोवद्धणेण भणिया थेरीए करेसि किं राडि ?॥१६०६।। सीमंतणीण भत्ता गरू य सामी य देवया अहवा । तो तस्स पूयणिज्जा बहूण पज्जा विसेसेण ॥१६०७।। इय तेण वारिया वि ह वारियवामा करेइ सा कलहं । सह वसमई तह जह सत्त-सयज्जीउ निव्विना ॥१६०८॥ मंडं मंडावित्ता दासि व्व करेइ गेह-कम्माणि । जह वसमई तहा वि हु कह वि न कलहं इमा चयइ ॥१६०९॥ तत्तो बह बह-दूसह-वयणानलजलिय-देहाए । नीससिय वसमईए पत्तो वत्तो सनिब्बंधं ॥१६१०॥ तुह दइया गुरु-मच्छर-भरिया कवि-कच्छुवल्लि-सारिच्छा । वच्छ ! न ह देहदाहं विरमइ हत्थं पयच्छंती ॥१६११।। तो पुत्त ! मज्झ वि निव्वेय-कारण-जीवियव्वेण । संपइ अलाहि कट्ठाणि देहिज्जइ होसि मह पत्तो ॥१६१२।। सो वि निय-घरणि-कक्कस-भासा संजाय-निब्भरविसाओ । नियमाणसम्मि मंतिय आमं ति पयंपए तयण ! ।।१६१३।। गंतूण भणइ कज्जं करेइ कट्ठाण मग्गणं जणणी । सा आह रोसनिब्भर-फुरंत-दंतच्छया दइयं ॥१६१४।। तुज्झ जणणीए जग्गा कट्ठा न गहम्मि सति गोहूमा । जइ सग्ग-मग्ग-गमणं मणम्मि कह वि ह वसइ तिस्सा ||१६१५॥ जइ इच्छइ सा चइडं असार-संसार-दुक्ख-संभारं । जइ महइ तियणम्मि वि सारय-ससि-दित्ति-समकित्तिं ॥१६१६॥ ता पविसेउ हुयासण-जाला-कलियाणि हंत ! कट्ठाणि । अज्ज चिय आसि मए, संगहिया दारु-पत्थारी ॥१६१७।। 2010_04 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सिारपउमप्पहसामचारय गोवद्धणेण मोणे, विहियम्मि इमा वि सयण-जण-मज्झे । आह मह नाह जणणी, साहिस्सइ अज्ज कट्ठाणि ॥१६१८॥ नयर-नर-नारि-विसरो वि मिलीयं गंतूण वसुमई वयइ । अज्जे ! अज्ज कयत्था, पाणे परिचयसि जं जलणे ॥१६१९॥ रोयंतियाए वि हसंतियाए नूणं समागयं मज्झ । इय चिंतयंतीए सुओ भणिओ पगणेसु कट्ठाणि ॥१६२०॥ तेण वि विसाय-विम्हिय-मयनियहियएण दारु-संभारं । नीहारिया नियजणणी विहिया जंपाणमारूढा ॥१६२१ ।। एसा वि ससंरंभा गब्भाभिरामवरवत्था । चंदणविलित्तगत्ता नियसुयणजणोह संजुत्ता ॥१६२२॥ कायर-नराण सभयं सदयं धम्मियजणाण सदुगुच्छं। सयणाण पिच्छिराणं पत्ता पुरबाहिरुद्देसं ॥१६२३॥ पड़-पडह-भेरि-झल्लरिवज्जाउज्जेस वज्जमाणेस । सा सयमेव पविट्ठा विरइयकट्ठाण मज्झम्मि ॥१६२४|| पउरो वि पउरलोओ निब्भरसोओ इमाए तं मरणं । पिच्छित्तुमपारंतो संपत्तो नियनियं गेहं ॥१६२५॥ इत्थंतरम्मि तरणी, गुरुतरसुरमग्गगमणखिनो वि । तद्दह-दसण-कायर-मण व्व दीवंतरं पत्तं ॥१६२६।। निय पणइणीए सह गोमईए गोवद्धणो वि तत्थेणेगो । विगएसु वि सयणेसु थक्को एक्को मसाणम्मि ॥१६२७।। पासाइ जाव पिच्छइ ताव न पिच्छेइ तच्छमवि जलणं । जंपइ दइयाभिमहं हयवहमाणेस गेहाओ ॥१६२८॥ सा आह अहं बीहेमि नाह !नियमंदिरम्मि गच्छंति । अच्छंती वि मसाणे इक्का बीहेमि निसिसमए ॥१६२९।। ता दुन्नि वि गच्छामो हुयवहगहणाय नयरमज्झम्मि । एयं ति पयंपित्ता पत्तो सह तीए सो सगिहं ॥१६३०॥ 2010_04 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३४९ एत्थंतरम्मि विरइय चिया गया दहणदाहसंभंता । वड्ढा इमं विचिंतइ पिच्छस पावाए माहप्पं ॥१६३१ ।। पुरजणपुरओ कहियं हयाए एयाए वज्जगिरयाए । जह मह पिययम-जणणी साहिस्सइ हुयवह अज्ज ॥१६३२॥ ता किं वहुए भग्गा अभग्गसिरसेहरा नियं जीय । हारेमि हंत ! कइयावि लहइ सव्वं पि जीवंतो ॥१६३३ ।। इय चिंतिय सा सहसा चियाए नीहरिय नियय ठाणम्मि । ठवियं अनाहमडय आरूढा नियडवडसिहरं ॥१६३४।। अह डमडमंतडामरड-मरुय-कर-भमिर-जोइणिसमूहं । जोइणि-समूह-कलयल-मिलंत-पल-लोल-वेयालं ॥१६३५॥ वेयालमक्क-पल-लव-वसारुहिर-पगिद्ध-गिद्ध-निउरबं । गिद्ध-निउरुंबं तासिय-फुरंत-फिक्कार-फेरगणं ॥१६३६॥ फेरुगण-घोर-पडिरव-बहली-कय-घूय-विसर-घंकारं । घंकार-छंद-नच्चिर-हरिसद्दर-भूयसंघायं ॥१६३७॥ भूयसंघायसाहयसहस्सं दिज्जंतनियमहामंसं । मंसऽत्थि तुट्ठ-सुर-विसर-दिन-रज्जाइ सुहनिवहं ॥१६३८॥ भीमं मसाणदेसं कायरमण-कंपकारणं पत्तो । पत्तो हुयास-हत्थो तिस्सा पुत्तो पियाजुत्तो ॥१६३९॥ पंचभिकुलकम् ॥ उज्जालिऊण जलणं जंपइ हे जणणि ! कट्ठस यासं । जाहे न किंचि जंपइ पियाइ-पुत्तो इमो ताहे ॥१६४०॥ । नाह ! भयावहमेयं भूयवणं इत्थ नेव चिरमुचियं । .. ठाणं जालियजलणं तम्हा सिग्घं गिहं जामो ॥१६४१ ।। इय जंपिऊण पावा जलणं पज्जालिऊण सयमेव ।। कयकिच्चा पइजत्ता पत्ता निययम्मि गेहम्मि ॥१६४२ ।। दद्धे अणाहमड़ये पत्ते गोवद्धणे वि नियगेहं । एत्था जं संजायं तमवहियमणा निसामेह ॥१६४३॥ 2010_04 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सिरिपउमप्पहसामिचरिय कय नयर-सार-मोसा गिण्हिय आभरणरयणसंभारं । नग्गोह-साहि-मूले तक्करपरिसा तहिं पत्ता ॥१६४४।। विभयंति जाव दव्वं विभायति य कप्पणाए ते तिन्नि । ताव पयंपइ थेरी धीरा नग्गोह-सिहर-गया ॥१६४५॥ मज्झ वि चउत्थभागो कज्जो निय जीविएण जइ कज्जं । अन्नह एसा निब्भरविद्देसा मारइस्सामि ॥१६४६।। उड्ढं पलोयमाणा अवयरमाणिं निरिक्खिउं थेरि । कय रक्खसि-संकप्पा चत्तधणा तक्करा नट्ठा ॥१६४७।। गंतूण दूरदेसं मिलिया जंपति हंत पावाए । थेवेण चेव मक्का घणं धणं जीयमाणाणं ।।१६४८॥ दिव्वे मह अणकूले जलणपवेसो धणाय संजाओ । इय चिंतइ सा थेरी उत्तरीया तरुवराहिंतो ॥१६४९॥ गहियाभरणसमूहा पणरवि वडविडविसिहरमारूढा । जाए पभायसमए गच्छइ निययम्मि गेहम्मि ॥१६५०॥ कय पणिवाया पत्तेण हिट्ठचित्तेण पच्छिया वयइ । जलणेण गया सग्गं लहंति एयारिसं विहवं ॥१६५१ ।। अह विहवबद्धबद्धी जंपइ सा गोमई वि किं अंब ! । अहमवि लहेमि विहवं विसामि जलियं जइ हयासं ॥१६५२।। सा आह अहं थेरा लहेमि थेवं विसेमि जइ जलणं । तरुणतरट्टी तत्तो लक्खगुणं लहइ निब्भंतं ॥१६५३॥ थेरीए कहिय विहिणा लद्धा सा गोमई महावद्धा । जलंणम्मि पविट्ठ च्चिय पत्ता छारत्तणं सहसा ॥१६५४।। जामिणि विरामसमए मग्गं निय पिययमाए पिच्छंतो । पुत्तो इमाए वुत्तो मुद्ध ! न दद्धा घरं पंति ॥१६५५।। जं चिय मूढा पावहय चिंतहि कज्ज परस्स । तं निय पाविण पडिहयह आवइ ताह घरस्स ॥१६५६॥ 2010_04 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३५१ लुद्धाए गोमईए पत्ता एत्थे वणत्थपत्थारी । वसुसारधणिसुएणं निसुयमिणं रयणसारेण ॥१६५७॥ तेणमलुद्धमणेणं विणयंधरसूरिपायमूलम्मि । गहियं परिग्गहमाणं विहियं माणं धणाईणं ॥१६५८।। रयणाण लक्खमेगं हतं सवत्राण मज्झ दस लक्खा । धण-रुप्प-कणाइणं वि एवं संखाकया तेण ॥१६५९॥ धण-धण्णाण पमाणाइक्कमणे तह य सव्व कवियाणं । दुपयाईणं वत्थूखित्ताणं कणयपमुहाणं ॥१६६०॥ बंधणकरणेण तहा भावेणं गब्भओ य जोयणओ । दाणेण तहा पंचमवयस्स पंचेव अइयारा ।।१६६१ ।। इय अइयारविसद्धं सव्वस्स परिग्गहस्स परिमाणं । काऊण सया निम्मल-सम्मत्तो कुणइ गिहिधम्मं ॥१६६२॥ समयंतरम्मि भमिरो समाण-वय-वेस-मित्त-संजत्तो । रोलंबरोलनामं रम्मारामं इमो पत्तो ॥१६६३॥ कयसंगीय पिव अलिउल-रवेहि कसमेहिं चारुहासं वा । आराम पिच्छंतो कीलागिरि-सिहरमणपत्तो ॥१६६४।। सच्चवइ सो वि तत्थ य गीयारव-सवण-पत्तमयमिहुणं ॥ किन्नर-मिहुणं हय-सिर-नर-देह-दिव्व-नेवच्छं ॥१६६५॥ दळं अदिट्ठपव्वं तं मिहणं नियमणेण विम्हइओ। सो आह सोवहासं पिच्छह पिच्छह महच्छरियं ॥१६६६॥ जइ ताव दिव्वरूवो अभिरूवो एस तो महं किहण । तरयस्स विगयसोहं चहोडियं एत्थदेहम्मि ॥१६६७।। अहवा हयवयणाओ न इमो देवो न चेव माणुस्सो । किं पण तिरिओ को वि ह दूरे दीवंतरे जाओ ॥१६६८॥ नेयं पि जुत्तिजुत्तं नर-कर-पय-दसणाउ किंतु इमं । केण वि सुरेण विहियं एवंविह वाहणं निययं ॥१६६९॥ 2010_04 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सिरिपउमप्पहसामिचरिय किन्नरपुरिसो जंपइ कुमार ! कस्स वि हु वाहणं नाहं । किं पुण वंतरतियसो सिच्छा वण-भवणदुल्ललिओ ॥१६७०।। जेणं चिय मूढ ! तमं सर-नर-तिरियाइतत्तबाहिरओ।। तेणं चिय जणएणं वि निच्चं चिय वायरो विहिओ ॥१६७१।। रे रे ! तुह जणयगिहे निलाभो सयललक्खणसणाहो । मण-पवण-किरण-तरुणी-लोयण-जव-जयण-जव-जुत्तो ॥१६७२।। रुयगमणि-किरण-निम्मिल-मिउ-सुहुम-सिणिद्धा रोमराइल्लो। अभिरूव-रूववंतो तुंगत्तण-विजिय-रेवंतो ॥१६७३॥ खर-खर-पहार-निब्भर-टंकारिय नायराय-फण-रयणो । समरंधयारनामा तुरंगमो विज्जए पवरो ॥१६७४॥ सत्तासो तुरियमिणं दटुं हरिणि त्ति जायसंकप्पो।। सो सिट्ठी धवमेयं धरेइ भूमीहरस्संतो ॥१६७५।। लक्खणलक्खाहिट्ठिय एयस्सणप्पमाहप्पा । हत्थं चिय आगच्छइ तस्स घरे विहवसंभारो ॥१६७६।। सो आसवारमाणसपाडिसिद्धीए केलिमित्तेण । एगेण अहोरत्तेण जाइजोयणसयं एगं ॥१६७७॥ धुवमित्थपवणपावयहरिहीरहिरनगब्भखंदिंदा । मयछाग-गरुल-वसहे मराल-सिहि-हत्थिमल्ले य ॥१६७८॥ नियवाहणाणि मुत्तुं तुरयमिणं आयरेण गिण्हित्ता । हज्जा पव्वपनो जइ एसो गुणगणावासो ॥१६७९।। जो को वि पुट्ठिदेसं इमस्स आरुहइ सत्तमे दिवसे । तियणदलहमउव्वं लहइ नरो सो धवं वत्थू ॥१६८०॥ रे मूढ !नियगिहत्थं तरंगममिमं पि तं न याणेसि । मह उण नियबद्धिए कलंकपकं पयच्छेसि ॥१६८१ ।। सच्चं चिय तेयंसी दक्खो सुहओसि धीर-वीरोऽसि । देवाण वि दुलहं तं लहेसि जणयाओ जइ तुरियं ॥१६८२।। 2010_04 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३५३ इय जंपिय सो किन्नरपुरिसो सह पिययमाए उप्पइओ । अलिउल-हरगल-कवलय-तमाल-तमसामलं गयणं ॥१६८३।। कुमरो वि तं निसामिय दूसह-दुह-दहणसिमिसिमायंतो । गंतुं गिहम्मि मालंतरालभूमीए पासुत्तो ॥१६८४|| अपवरयदारबंधं काउं मित्ताण देहमित्तेण । भित्राण वि नियदंसणमदिनवि सो देइ किं बहणा ? ॥१६८५।। तं वइयरं वियाणिय वसुसारो मित्तपरिवारो । गंतूण दारदेसे जंपइ किं वच्छ ! रुट्ठोसि ॥१६८६॥ तह आणत्ती केण वि न मन्निया अहव तज्झ विनत्ती । अवमन्निया मए किं परिभविओ अहव केणावि ? ॥१६८७॥ चित्तम्मि का वि बाला चमक्कए कहस विहव-निवहो वा । छन्नाण मोत्तियाणं नहि अग्घो तीरए काउं ॥१६८८।। इय तग्गिरं निसामिय कमरो संजायहरिसपब्भारो । उग्घाडिऊण दारं जणयं पइ जंपए एवं ॥१६८९॥ किं बहुणा भणिऊणं ताय ! पसायं करित्तु नीलाभं । 'समयंधयार तुरयं जइ मह अप्पेसि अज्जेव ॥१६९०।। ता नूण मज्झ भोयण-सिणाण-तंबोल-जीवियव्वाणि । अन्नह नव-दंतेहिं करं कप्पूरपमहं वा ॥१६९१॥ अह जंपइ वसुसारो पयत्तपरिगोविओ वि सो तुरओ । कह कह वि तए नाउं ता निच्छियमप्पणिज्जो त्ति ॥१६९२।। भुंजसु विलससु सिच्छा इह वसु हे वच्छ ! निच्चनिच्चंतो । इय जंपिय सो तरओ दिन्नो भूमीहराहिंतो ॥१६९३॥ कुमरो वि विहिय-भोयण-सिणाण-कम्मो तुरंगमारूढो । निम्मिय मणालनालोवमाणवरवत्थपरिहाणो ॥१६९४॥ मसिणमणिनिवहखंचियपहाणपल्लाणदेसमासीणो । वामेयरकर-किसलयलसंतचम्मट्ठिया जुत्तो ॥१६९५॥ 2010_04 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं आरूढ-तुरय-समवय-वयंससंदोहमिलिय दो पासो । नियवाह-वाहणत्थं संपत्तो वाह-केलीए ॥१६९६॥ पवरेण आसवारेण झ त्ति तरओ इमेण तोरविओ । पंचमगइमारूढो सो सहसा सिद्धजीवो व्व ॥१६९७।। एत्तो य सिट्ठिगेहे पंजरपक्खेवरुद्धसंचारो । अत्थि सओ सहममई लसंतसत्थत्थपरमत्थो ॥१६९८।। सो मणियकज्जसारो वससारं वयइ ताय ! मह भाया । वच्चेइ रयणसारो जंघालतुरंगमारूढो ॥१६९९।। चंचलचित्तो कमरो चंचलवेगो तरंगमो एसो । अइचवलं विहिललियं न याणिमो कज्ज परमत्थं ॥१७००।। ता ताय ! तुहाएसो संपइ जइ होइ सुद्धिकज्जेण । तो जामि विसमसमए हवेमि कुमरस्स तह भिच्चो ॥१७०१ ।। एवं ति पयपित्ता तट्टेण सिट्ठिणा वि सो मक्को । तरयस्स पट्ठिदेसे गंतु वेगेण आरूढो ॥१७०२॥ सो आसवारमाणससमगं अहमहमिगाए वच्चंतो । मंचइ मित्त-तरंगम-निवहं परपरिसरे चेव ॥१७०३ ।। कुमरस्स वरतरंगमगयस्स भमडंतचक्कचडियं वा । गुरु-गिरि-तरुवर-काणणपमुहं पडिहाइ भवणं पि ॥१७०४।। खर-खुर-पहार-जज्जर-धरायलुच्छलिय-धूलि-छउमेण। हय-रय-भरमसहंती नासइ सव्वं सहा वि धुवं ।।१७०५।। जं कलियरए तुरए दिसाउ भमडंतियाउ दीसंति । हय-गिलण-संकियाओ वंचं वंचंति तं मन्ने ॥१७०६॥ मह-गहिय-फेन-संचय-दंतरियं सहइ मेयणी-वलयं । खर-घाय-भीय-विहगाहिव-वियरिय-मत्तियचयंब ।।१७०७॥ सो कमसो परिविलसिर-तरच्छ-हरियच्छ-रिछोलिं । रिच्छ-रिछोलि-तासिय-पुलिंद-नरविंद-दुप्पिच्छं ॥१७०८।। 2010_04 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा दुप्पिच्छ-सरह-सरभ-ससंतासिय-हरि-करिंदबहुजूहं । बहु-जूह-कलह-मयगल-मसमरिय-कमलवणसंडं ॥१७०९॥ कमलवण-संड-पसरिय-पराय-पिंजरीय-सयल-दिसिचक्कं । चक्कंक-कुंच-सारससउंत-सुव्वंत-महुर-रवं ॥१७१०॥ महुर-रव-मत्त-महुयर-झंकारा हविय-पहिय-संदोहं । पहिय-संदोह-मंडिय-लवली-कयलीहरद्धं तं ।।१७११॥ नामेण सबरसेणं अडई पत्तो पुरो नियच्छेइ । दोलारूढं तावसकमारमेगं वरायारं ॥१७१२।।पंचभिःकुलकम्।। नव-वक्कलकलियस्स वि रेहइ अंगस्स चंगिमा तस्स । उदयंतस्स व रवीणो मुत्ती नव-अब्भ-संछन्ना ॥१७१३॥ तं रयणसारकुमरं तावसकुमरो नियच्छिउं सहसा । रोमंच-कंप-लज्जा-वियार-सय-कायरो जाओ ॥१७१४।। कहकह वि संठवित्ता अप्पाणं उत्तरित्त दोलाओ । जंपइ तिहुयण-वल्लह ! कत्तो पत्तोसि नयराओ ? ॥१७१५।। देसस्स व नयरस्स व वत्तामित्तं पि तस्स न हि जत्तं । काउं तुमए चत्तो जो किर नर-विसर-रयणेण ॥१७१६॥ संलाव च्चिय एसो किं पण अम्हेहि अहव मन्नेहिं । कीरइ तत्तो साहसु सव्वं सयणाइवुत्तत्तं ॥१७१७।। इय सललियतव्वयणं सोऊण तरंगमो वि गइपसरं । परिहरिय थभिओ विव टहरियसवणो तहिं जाओ ॥१७१८। निरुवमरूवनिरूवणजायचमक्कारमाणसो कुमरो । जाव न किंचि पयंपइ कीरो वज्जरइ ताव इम ॥१७१९।। तावसकमर ! किं खल करेसि कमरस्स सयणनयरेहिं । न हि वेवाहिय-कम्मं पारद्धं अत्थि इह तुमए ॥१७२०॥ एयं तु अहं तुज्झ वि कहेसि सव्वेसि सव्वहा अतिही । पज्जा पढंति जम्हा सव्वस्सब्भागओ रूओ ॥१७२१॥ 2010_04 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सिरिपउमप्पहसामिचरिय ता जइ विज्जइ चित्तं इमम्मि कुमरम्मि विविहभंगीहिं । कुणसु सयं सक्कार अवरवियारेहिं पज्जतं ॥१७२२॥ इय जंपिरस्स तावसकुमरेणं तस्स कीर-रायस्स । नवकमल-मउलमाला खित्ता कंठम्मि हिट्टेण ॥१७२३॥ भणियं च कमर तं चिय धन्नो तह चेव तियणे रेहा । कीरो वि जस्स एरिस उत्तम-करणम्मि अइचउरो ॥१७२४॥ उत्तरसु तुरंगाओ करेसु अम्हे वि एत्थ सकयत्थे । विहलीकरंति कस्स वि कह वि न अब्भत्थणं गरुया ॥१७२५।। वियसियकमलं पल्ललमेयं तरु-तरुण-मंजरिसनाहं । काणण-महव-सयं चिय अम्हे वि हु तुज्झ आयत्ता ॥१७२६॥ अवयरियस्स हयाओ तवस्सिणो तेण तस्स कुमरस्स । गिरि-सर-सरियापमुहं सयमेव पयंसियं सव्वं ॥१७२७॥ कयली -फलाणी सरसी-जलाणि लवली-दलाणि सप्पणयं । उवणामियाणि तेणं तवस्सिणा तस्स कुमरस्स ॥१७२८॥ भत्तत्तरम्मि कीरो पच्छइ पडिहत्थचारुतारुन्ने । भयवं विरायकारणमिह तुह किं कहसु संजायं ॥१७२९।।। एसो पहाणजद्दरजुग्गो सुकुमालकडियलाभोगो । कक्कस-वक्कल-निवसणबंधं न सहइ जगते वि ॥१७३०॥ एसा निज्जिय-कज्जल-कुवलयकालिंदि-वहल-कल्लोला । कंतलवल्ली न सहइ कया वि निविडं जडाबंधं ॥१७३१ ।। एयं पि पंचमंगं अणंगमंगलनिहं तिलोयस्स । न य णालि-कमल-काणण-महि-वंछइ नेव तिव्वतवं ॥१७३२॥ ता किं वेरग्गेणं किं वा कवडेण दिव्ववसओ वा । देवाभिओ गओ वा कहस तवं किं पवनो सि ? ॥१७३३॥ तं सुणिय तावसो वि हु, अविरल-विगलंत-नेत्त-नीरेहिं । अग्घंजलिं व दिंतो, कमरं पइ जंपए एवं ॥१७३४॥ 2010_04 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३५७ सूरा जयम्मि विरला, उदारचित्ता तओ वि विरलयरा । परदक्ख-जाय-दक्खा विरलतमा तिहयणे परिसा ॥१७३५॥ अबलाण तरलनेत्ताण तहय भीरूण कुमर ! तं चेव । सरणं जम्हा तत्तो,तह पुरओ साहइस्सामि ॥१७३६॥ एत्थंतरम्मि काणण-समूल-निमूलणिक्क-वावारो । दुव्वारो खर-निब्भर-विराव-संजणिय-सवण-जरो ॥१७३७॥ केसरि-किसोर-केसर-धूसर-मच्छलिय-धूलि-निवहेहिं । दस दिसि-भत्ति-विराय, सहस च्चिय तह वि उव्वंतो ॥१७३८॥ तावस-कहण-मणोरह-रहस्स पब्भंजणो महाघोरो । संतासिय सवणजरो पभंजणो वाउमारद्धो ॥१७३९॥ तिसृभिःविशेषकं कीर ! कुमराण तेण वि समीरवीरेण नयण-वयणेसु । दाऊण धूलि-निवहं, सो तावस-सेहरो हरिओ ॥१७४०॥ हा ! पबलसत्ति-निज्जिय-कुमार ! हा हारिरूव-जियहार ! । हा चत्तमार ! हा हा कमार ! हा पवरपरिवार ! ॥१७४१ ।। हा तरुणि-लोय-लोयण ! सिहिकलजलवाह ! रक्ख रक्ख त्ति । केवलमिणमो तेहिं,पलावसद्दो तहिं निसओ ॥१७४२ ।। (जयलम्) अह जमजीहकरालं, करवालं सो करित्तु करकमले । रे हरिय मज्झ जीवियसव्वस्सं जासि कहसु कहिं ? ॥१७४३॥ इय जपतो कुमरो, अणुसदं सद्दवेहि बाणो व्व । गुरुवेगावेगेणं, पहाविओ केत्तियं भूमिं ॥१७४४॥(जयलं) पिच्छित्तु तमच्छरियं,कुमारचरियं सुएण वज्जरियं । किं कुमर !पामरो वि य मुद्ध !महा विप्पलद्धो सि ॥१७४५।। हरिय मुणीसररयणं, रयणं चोरो व्व कुमरनिब्भंतं । संपइ पयंडपवणो, जोयणलक्खेहिं अंतरिओ ॥१७४६॥ नूणं न एस तावस-पुरिसो एसो नया वि गंधवहो । अवरं किं पि वियाणसु, निम्मिलियच्छो धुवं कज्जं ॥१७४७॥ 2010_04 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सट्ठाणसमासीणो, अमंदमंदक्खपूरिउं कुमरो । वयइ कया पिच्छिस्सं, हा मुणिमहपन्नियायदं ॥१७४८।। हा ते वि अमयसारणि, सहोयरा सरसवयणकल्लोला । हा सा वि अलसविवलियलोयणलीला गया दूरं ॥१७४९॥ इय विविहं विलवंतो,कुमरो कीरेण जुत्तजुत्तीहिं । विहिओ कमसो विगलिय-निब्भर-गुरु-सोय-संभारो ॥१७५०॥ तं चिय मुणिंदचंद, चित्तनिहित्तं च दोवि सुमरंता । पणरवि तरयारूढा, निच्चपयाणेहिं वच्चंति ॥१७५१ ।। नग-नगर-सरि-सरोवर-सरहस्समइवाहिऊण ते कमसो । पुलयंति पुलइयंगा,पुरओ आराममभिरामं ॥१७५२ ।। आरामे पविसंता, झ त्ति नियच्छंति सिहर-दंतरियं । चलिरपडायालडहं, मणि-भवणं उसहनाहस्स ॥१७५३ ।। सो तिलय-सालिमूले, तुरयं संजमिय कुसुमकलियकरे । सह कीरेण पविट्ठो, कुमरो गब्भहर-मज्झम्मि ।।१७५४॥ अंचिय जिणिंदचंद, बंधर-रोमंच-दंतरसरीरो । देवाहिदेवमेयं, एसो संथणिउमारद्धो ॥१७५५॥ तथाहि - सम्प्राप्यं मोक्षसौख्यं, यतिभिरसिलतावासतुल्यैस्तपोभिमत्वैवं विश्ववेत्ता, नमि-विनमिभुजादण्डनिस्त्रिंशयष्टौ ॥१७५६॥ शङ्के सङ्क्रान्तमूर्तिश्चरति गुरुतपो यः स्वयं मोक्षहेतुम् । प्रत्यूहव्यूहनाशं दिशतु भगवानादिमस्तीर्थनाथः ॥१७५७|| भूयो योजनभीमदुर्गमतमं निर्गम्य यः प्रान्तरं, प्रत्यक्षी कुरुते जगत्त्रयपतिं विश्वप्रियं भावकः ॥१७५८।। श्रीमन्नाभिनरेन्द्रगोत्रतिलकं देवं ध्रवं वीक्षितो । मोक्षस्तेन त व्यतीत्परभसासंसारकक्षान्तरम् ॥१७५९।। इय थोऊण जिणेसरमसरिस-मणि-रयण-मत्तवारणए । सनिसनो सो तावस-विरह-विसनो विचिंतेइ।।१७६०॥ 2010_04 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३५९ हा हयविहिणो ललियं चरियं सोउं पि तस्स वरमणिणो । अम्हेहिं न संपत्तं दूरे सुस्सुसणा पमुहं ॥१७६१ ।। नलिणिदललग्गजललवचवलं संजोयजीवियप्पमुहं । पत्तो चिय हेयव्वो असारसंसारवित्थारो ।।१७६२॥ अह नियविरावतासियहरियंदणलग्गभुयगसंदोहं । विहगेस जयपडाया विब्भमपयडणसिहारम्मं ॥१७६३।। ता पिच्छ गच्छ-सच्छह सच्छच्छ-अतुच्छ-पिच्छ-संभार । कमणीयदेहसोहं दिव्वं वर-सिहिणमारूढो ॥१७६४॥ मुहससिनिज्जियसोहा संगयससि-रविसमाणताडंका । नवचंदजायविब्भमचकोरपरिचयमुहसोहा ॥१७६५।। विहसियमहपंकेरुहसुरहिसमीराहिवासिय दियंता । नवइंदिवर-विब्भम-इंदीदिरविंद-चुंबियच्छिजुया ॥१७६६।। आभरण-किरण-लहरी निज्जिय-खर-किरण-किरण-निउरुंबा । कणियारकसमगोरी एगा तरुणी तहिं पत्ता ॥१७६७|| सा रिसहेसरपडिमं पणमित्ता नियसिहडिणा जत्ता । करणंगहाररम्मं नच्चइ सच्चविय बहभावा ॥१७६८।। कीरकुमाराण निब्भरबंधुररोमंचकंचुयंगाण । नच्चावियाई तीए चित्ताइ वि नच्चयंतीए ॥१७६९।। रूव-विणिज्जियमारं सा वि निरूविउं सहसा । वियसंत-नेत्तपत्ता, सचमक्कारा तओ जाया ॥१७७० ॥ करभोरु ! नत्थि जइ मण-खेओ मणयं पि एत्थ निविसित्ता । तत्तो धुवमम्हे वि हु, सकयत्थे कुणसु खणमित्तं ।।१७७१ ।। इय भणिया कुमरेणं,उवविट्ठा तत्थ पुच्छिया तेण । सा साहइ वुत्तत्तं, निययं आमूल-पज्जतं ॥१७७२॥ जुयलं ॥ सारय-ससंक-जोण्हा, मुणाल-नालोवमाण-गुण-नियरो । राया कणयपरीए,विज्जइ कणयद्धओ नाम ॥१७७३ ।। ___ 2010_04 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सिरिपउमप्पहसामिचरियं चलियम्मि जम्मि जत्ता, समए हय-खुर-पहारओ चलिया । धूली वि मज्झ पडिया, करेइ लवणायर जलहिं ॥१७७४।। सयलंतेउरसारा, नामेणं कुसुमसुंदरी तस्स । . कंता हसियपुरंदर-ससंक-मयरंक-हरिकंता ।।१७७५ ।। एसा मिलंत-महयर-मालइ-मालाहि-मिलियघणकेसा । सहसत्ता निसिपच्छिमजामे समिणं इमं नियइ ॥१७७६॥ मयरंक-अंकपालिं परिहरिय-रवन-तरल-लायन्नं । रइ-पीइ-जयलमिहमहहत्थं उच्छंगमल्लीणं ॥१७७७।। मुद्धा झ त्ति विउद्धा, पहरिस-पीयूस-पूरीय सरीरा । नियसविणं नरवइणो, साहइ गंतूण जह दिळें ॥१७७८।। सो नरवई पयंपइ, तरंगतरलच्छि -कन्या जुयलं । लडहं तिलोयतरुणी, जयप्पडायं च तह होही ॥१७७९॥ तं सणिय कन्नयाण वि, लाहे सा हरिस-निब्भरा जाया । पुत्तो वा कन्ना वा, भव्वं सव्वेसि खलु भव्वं ॥१७८०।। सट्ठाणे संपत्ता, कमसो नवकमल-मउल-ललियंगी । नव-दंति-दंत-निम्मल-कवोलमूला इमा जाया ॥१७८१ ।। तिस्सा कन्नाजुयलं, जायं तरुणाण महिण छुप्पायं । संसंतमिव दिसाए, ससंकजयलं व पव्वाए ॥१७८२॥ रना असोयमंजरिनामं पढमाए पवरदियहम्मि । अवराए तिलयमंजरिनाम निम्मावियं रम्मं ॥१७८३।। कमसो इमाउ वियसियवयणाहिनियंकपालिकलियाओ । धाईहि वड्ढियाओ, कुमारभावम्मि पत्ताओ ॥१७८४।। सयलं कला-कलावं, इमाउ कलयंति थेव दिवसेहिं । को वा कालक्खेवो, कज्जे ववसायनयसज्जे ॥१७८५॥ दिव्ववसेणं अहवा वि जमलजायत्तणेण दुण्हं पि । कब्राण, ताण निब्भर-पडिबंधो बंधुरो निच्चं ॥१७८६ ।। 2010_04 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा वम्मह-लीलागारं वियारसय-सहस-नयर-पायारं । परिवडिढय लायण्णं तारुण्णं ताउ पत्ताओ ॥१७८७॥ तरुणीहि कयं दोहि वि वम्मह-सर-विसरजज्जरं भुवणं जह कसम-घण-समागम-सिरीहि समकाल-पत्ताहिं ॥१७८८।। कणयद्धय-नरनाहो मयरद्धयजयपडायजुयलं व । पिच्छिय कन्नाजुयलं वरम्मि चिंताउरो जाओ ॥१७८९।। चिंतइ मणम्मि जइ हज्ज हंत एयाण भिन्नवर-वरणं । ता मरिहंति परुप्पर-विरहेण इमाउ निभंतं ॥१७९०।। किं को वि जवा होही जम्मंतरविहियसकयसंभारो । करकमलमउलगहणं दण्ह वि एयाण जो करिहि ।।१७९१ ।। सो नत्थि च्चिय इह जो इमाण इक्कं पि लहइ वरकन्नं । तो कणयद्धयराया सल्लियहियओ कहं होही ॥१७९२।। जणयं दरंतचिंता पारावारम्मि खिवइ वड्ढंती । एक्का वि धवं कन्ना बयाणं ताण किं भणिमो ॥१७९३॥ चिंताभल्लीसल्लियमणस्स मासा वि वरिससयसरिसा । कह कह वि ह वक्कता जगलक्खसमा समा रनो ॥१७९४।। सहसा वियासयंतो सहवणलच्छीए मारवीरस्स । भवणत्तय-जयकित्तिं वसंतसमओ समणपत्तो ॥१७९५।। जित्तं पंचसरेण सव्वभुवणं तत्तो वसंतो इमो । तब्भिच्च व्व चिरं हसेइ महरंगाए संनच्चए ॥१७९६।। मल्लिफल्लमिसेण कोइलकलारावच्छलेणं वहा । मंदं मारुदकंपिदाहिलवलीसाहाभयाहिं धवं ॥१७९७॥ अह कमर ! ताओ दन्नि वि रवन्न-लावण्ण-पन्न-तारुन्ना । कन्ना चलंति काणणलच्छिं सा पिच्छिउं सहसा ॥१७९८॥ जंपाण-जाण-लंघिणि-तुरंग-गय-कलह-लेसरारूढा । समवेस-सहि-समूहा सह चलिया ताहि कन्नाहिं ॥१७९९।। 2010_04 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मणहरमसोयकाणणनामं पत्ताउ ताउ आरामं । पिच्छंति काणण-सिरि पसइ सरिच्छीहि अच्छीहिं ॥१८००।। अह चारु-दारु-घडियं मणिजडियं रम्म-चमर-मण-हरणं । जव-जण-मण-हिंदोलण-मंदोलण-मसम-सिरि-कलियं ॥१८०१॥ रत्तासोयसुसाहादढबद्धमसोयमंजरी कन्ना । उल्लसिय कोउहल्ला आरूढा भुवणपच्चक्खं ॥१८०२।। पढमं च तिलयमंजरि कनाए तरुण-नयण-चित्तेहिं । सहसा कुमार सहसा अमंदमंदोलिया बाला ||१८०३।। साहंतरालदेसे तिस्सा नवपायघायपरितुट्ठो । नवपल्लव-रोमंकर-दंतरिओ सहइ किंकिल्ली ।।१८०४।। पल्लविओ किंकिल्ली उल्लसियं नहयलम्मि ससि-बिंबं । अंदोलियाई जुवजणमणाणि अंदोलयंतीए ॥१८०५।। रणझणिर-रयण-मेहलरम्मं रमणत्थलं मयच्छीए । दोलाकीलालालसम्मि व गाढं किलकिलेइ व्व ॥१८०६।। कसमसरकित्तितरुणी सहरिससमसीसियाए विलसंती । गयणयले सा बाला वेगावेगं समारूढा ॥१८०७॥ तरुणेसु सरोमंचं सामरिसं तरुणरमणि-निवहेसु । पिच्छंतेसं चित्तं जं वित्तं कमर ! तं सणस ॥१८०८।। सरंभं सहयारकुंजकयली कंपावणे मारूदे । वेगावेसवसा तड त्ति रभसा तट्टम्मि हिंदोलए ॥१८०९॥ एसा गच्छदि गच्छदि त्ति बहले लोयाण कोलाहले ।। बाला केलिरसद्धरावहरिया केणा वि दोला जया ॥१८१०॥ हेलल्लासिय-चारु-चामरवरं काउं करंभो रुहे । दोलादंडजयं नहम्मि सहए दूरम्मि गच्छंतिया ।।१८११ ।। पायालं तह मच्चलोयमखिलं जेउं पडाया जया । सग्गेसग्गविलासिणीण विजए एसा धुवं वच्चए ।।१८१२।। 2010_04 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा मक्का खंड-पयंड-कंडनिवहं को दंड-दंडं करे । रे रे काउमनन्त्र-पोरिस-रसावेसेण धाणुद्धरा ॥१८१३।। हत्थं गच्छह गच्छह त्ति तरुणी चोरं धरेह च्छलं । काउं,जेणमिणं हरित्तरमणिं दत्थं जयं निम्मियं ॥१८१४।। इय पिच्छिराण तिस्सा हरणं वीराण दूरमुल्लसिओ। अवरुप्परसरंभाहवणघणो तमलसंरावो ॥१८१५॥ कणयद्धयनरनाहो कन्नाहरणं मणित्त तारसरं । संतेउरपरिवारो विलवइ विगलंतनेत्त-जलो ॥१८१६॥ पडिबंध-बंधरं नियसयणजणं परिहरित्त हा वच्छे !। दोलाकीलारसिया कत्थ गया तं न याणामो ? ॥१८१७।। किं दहसि मज्झ देहं अमयरसासारमहरसव्वंगि ।। वच्छे असोयमंजरि ! कहं ससोयं कुणसि लोयं ।।१८१८।। कलकंठचारुहासिणि दूरे चिट्ठतु तुह इमे सयणा । नियजयलसंभवं पि ह जामिं परिहरसि किं मद्धि ! ॥१८१९।। अह नरवइणो कहियं केण वि सा तिलयमंजरी कन्ना ।। मच्छामिलियच्छिपडा चिट्ठइ धरणीयले ललिया ॥१८२०।। सिसिरोवयारवावडकरनरपरिवारिओ तहिं राया । पत्तो तिस्सा मच्छा विच्छेयणत्थं कणइ जत्तं ॥१८२१ ।। चंदणरसेण सिंचइ ससलिलकयलीदलेहि वीएइ ।। वियसिय नवपंकेरुहनियरं वियरइ कवोलेस ॥१८२२।। कह कह वि हु सा मुद्धा उम्मिलियलोयणा इमं वयइ । हा सामिणि गयगामिणि ! वरभामिणि कहसु तं कत्थ ? ॥१८२३॥ सो निक्कित्तिमनेहो सो वि सुहा-महुर-वयण-वित्थारो । तं हसिय कमलकाणणहसियं हसियं कहसु कत्थ ? ॥१८२४।। सो वि ह लीला हेला निज्जियसरतरुणिगव्वसव्वस्सा । सो वि हु कलाविसेसो पुणरवि हा कत्थ दट्ठव्वो ? ॥१८२५।। 2010_04 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सिरिपउमप्पहसामिचरिय इच्चाइविलवमाणा विलुलइ धरणीयलम्मि धूलि व्व । सिमिसिमइजलणजाला कवलियनवसिंसिवि तरु व्व ॥१८२६॥ उव्वत्तइ परिवत्तइ तत्त-सिलायल-विमुक्कसफरि व्व । कढकढइ दुद्ध-मुद्धड-मुही कढिज्जतदुद्धं व ॥१८२७।। मच्छइ कंदइ विलवइ तह सा नीससइ तरुणहरिणच्छी । जह से जणयाइजणो जाओ तज्जीय विगयासो ॥१८२८॥ अह कसमसंदरी सा तिस्सा जणणी वि तत्थ संपत्ता ।। विलवइ हयासदिन्नं दुक्खमिणं मज्झ किं दिव्व ? ॥१८२९।। एक्का हरिया दुहिया अवरा तव्विरह-जाय-दुह-निवहा । मरिहि मह पच्चक्खं हा अहयं कस्स साहेमि ॥१८३०॥ वणदेवयाउ जलदेवयाउ तह गयणदेवयाउ य । रक्खिज्जह मह धूयं संपइ महिमिलियललियतणं ॥१८३१ ।। रे दिव्व ! इमं दूसहहनिवहनिवायनिच्चदल्ललिया । निवडउ तुह सीसे च्चिय तुम पि जाणेसि जेण दुहं ॥१८३२ ।। सहिजणगणा वि सेरंधिया वि अवरा वि परपरंधीओ। विलवंति मुक्क-कंठं ताण दुहे जायदुक्खाओ ।।१८३३ ।। रुन्नं रण्णा रुण्णं पुरेण रुन्नेण तह तया रुन्न । दसहि दिसाहि विरसं विहंगनिवहेहि तह रगं ॥१८३४॥ एत्थंतरम्मि तरणी, तदुहसंभार (भार) भरिओ व्व । अवरे पारावारे, बुड्ढो सहस त्ति वहणं व ॥१८३५।। पव्वं पि पव्वसेला,तइया पसरंति तिमिर-सिबिराणि । निब्भर-सोय-दुहाणि व, नयरी नरनारि हियएसु ॥१८३६॥ तह पव्वपव्वयाओ, उच्छलिया बहलतिमिररिंछोली । जगवं जयं गिलंती, रक्खसिरूव व्व पडिहाइ ॥१८३७।। सो च्चिय पव्वगिरिदो, पव्वदिसा सा वि पव्वमकरिस । उज्जोयं तममिहिं, जयउ अहो समयमाहप्पं ॥१८३८॥ 2010_04 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३६५ रेहति अंबराणि व, दिसाण सीमंतीणीण नीलाणि । कुसुमियचपयलइया, विलयासु केस-पास व्व ॥१८३९।। चक्कायमिहणचक्के, अकाल-संपत्त-कास-पास व्व । राजीवराइजीविय-संहारण-कालसप्प व्व ॥१८४०।। घणतम-तमाल-निब्भर-निकंज-कंजर-गड व्व अइनिविडा । पुरसंदरि-हियएसं मोहसमूह व्व तिमिराणि ॥१८४१ ॥ त्रिसृभिर्विशेषकम् ॥ अह उल्लसिओ लोयण-चकोर-चयदत्त-निब्भराणंदो । निवडंधयार-सायर-दरंत-वडवानलो चंदो ॥१८४२।। जस्स मऊह-समूहावराउछुहिउ व्व हरिस-पडिहत्था । सयलं गिलंती तिमिरं गरुडसमूह व्व अहिनिवहं ॥१८४३ ।। संसद्धकसमसायगजीवावणअमयपनकलस व्व ।। अइमलिण-लंछणच्छल-पयडिय-मद्दो सहइ चंदो ॥१८४४।। अमयरस-पसर-सहयर-तसार-किरण-लहरीहिं । सहस त्ति तिलयमंजरि-कन्ना आसासिया तइया ॥१८४५।। पविरल-पायम्मि परीजणम्मिमं दायमाणसोयम्मि । नरवरलोयम्मि इमा, समट्ठिया पच्छिमे जामे ॥१८४६॥ कुलदेवयाए चक्केसरीए आराममज्झ भवणम्मि । ससिकर-पयडिय-मग्गा, संपत्ता सा सही सहिया ॥१८४७।। नियपाणिपंकएणं, पंकयमालाहि देवि-पय-मूलं । काऊण भत्ति-जत्ता, एवं विनविउमारद्धा ॥१८४८।। चिर पणमियासि चिर पूइयासि तह संथूयासि चिरकालं । कुलपरमेसरि ! चक्केसरि ! सामिणी ! जइ मए पव्विं ॥१८४९॥ तो मह भइणी सुद्धिं,कहेसु सामिणी ! हवेसु सपसाया । आजम्ममेस अप्पा, समप्पिओ तुज्झ सप्पणयं ॥१८५०॥ तिस्सा भत्ति-विसेसा, चित्त-चमक्कारपूरियसरीरा । होऊण पयडरूवा, देवी भणिउं समारद्धा ॥१८५१॥ 2010_04 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरिय तह भत्तीए संदरी, तट्ठम्मि असोयमंजरी सद्धिं । मासेण लहसि तं चिय, पिच्छसि पसयच्छि ! अच्छीहिं ॥१८५२।। किं भणसि कहं सामिणी ! दट्ठव्वा कहसु कत्थ कइया वा । तं सुणसु तिलयमंजरि ! संखेवेणं कहिज्जतं ॥१८५३ ।। कणयपुरी पच्छिमाए दिसाए दूरेण दूरपेरंते । दुमसमवाय-निवारिय-मिहिरकर अत्थि कंतारं ॥१८५४।। जत्थ - सरह-ससहरिणसिंधर-जहाणि सहति गवलनीलाणि । सरणं समागयाणि व मिहिरभया तिमिर-वंदाणि ॥१८५५॥ रेहंति हरि-विदारिय-सिंधरकभत्थलाओ वित्थरिया । मत्तिय निचया तारयचय व्व रविपायपल्हत्थ ॥१८५६॥ तत्थत्थि पढमतित्थंकरस्स रिसहस्स मणिमयं भवणं । दंसणमित्तपणासिय तिहुयणजणपावपब्भारं ।।१८५७।। भवणस्स मज्झयारे निम्मल-ससिकंत-मणि-विणिम्मविया । कप्पतरु-काम-सरही-चिंतामणि-अहीय-माहप्पा ॥१८५८।। अभिरूवा पडिरूवा पसायजणणी य दंसणिज्जा य । सिरिरिसहेसरपडिमा अप्पडिमा विज्जए तत्थ ॥१८५९।। तप्पडिमा पूयाए वच्छे ! नियभयणिगाए वत्तत्तं । पाविसि तह अनं पि ह सव्वं भव्वं तहिं होही ॥१८६०॥ किं भणसि तत्थ गच्छामि दूरदेसंतरत्थ भवणम्मि ।। किह भूमिगोयरा हं तं पि ह साहेमि निसणेस ॥१८६१ ।। मह अत्थि चंदचूडो, किंकरतियसो सया वि कज्जसहो । सो तुह कलाविरूवो,समप्पिओ तत्थ गमणत्थं ॥१८६२।। तं कयकला विरूवं आरूढा निच्चमेव वच्चाहि । कयरिसह-चरण-पूया पणरवि इत्थेव एज्जाहि ॥१८६३॥ अह सुहय-विरय-वायारतीए देवीए देवि-पय-पुरओ । 2010_04 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा मणहरकलावकलिओं सच्चविओ ताए वर-वरिहा ।।१८६४।। तं सरसिहिणं तीए आरूढाए जिणिंदनमणत्थं । एंतीए वक्कंतो कित्तियकालो अहं सा य ॥१८६५॥ एयं निययं चरियं कमार ! तह साहियं मए सव्वं । हे सहय ! तं पि साहस नियचरियं जइ अहं जग्गा ॥१८६६।। एयं वि अहं पच्छामि का वि भवणम्मि परिभमंतेण । तमए रूववएहिं मह सरिसा कन्नगा दिट्ठा ।।१८६७|| जंपेइ तयण कमरो वि तरुणिमहविजियजामिणी रमणि । सिस-मुट्ठि-गिज्झमझे, तरंगतरलच्छि-रंभोरु ॥१८६८।। कलकंठि-चारुहासिणि, गयगामिणि अमयभासिणि मए वि । भमडंतेण वि भवणं, सगाम-नग-नगर-कंतारं ।।१८६९।। तह सरिसा अंसेण वि अहवा तिल-तस-तिभागमित्तेण। दिट्ठा न का वि रमणी पिच्छिस्सं नेव कइया वि ॥१८७० ॥ एयं तु अहं साहेमि, सबरसेणाए घोर-अडविए । अंदोलणमारूढो, नवजव्वण-रम्मसव्वंगो ॥१८७१ ।। रूवेण जुव्वणेण य, वएण वेसेण तुज्झ सारिच्छो । अच्चन्भय-वररूवो, तावसकुमरो मए दिट्ठो ॥१८७२।। समरिय सहावनेह, तस्स कुमारस्स चारुउवयार । दलइ व चलइ व जलइ व, अज्ज वि, पसयच्छि ! मह हिययं ॥१८७३॥ सो व तमं चिय अहवा,तम पि सो चेव अहव हयविहिणो । विलसियमवरं किं पि हु, जाणसु अच्छरिय-संजणणं ॥१८७४|| जं पुण पुढं तुमए, नियचरियं कहसु जइ अहं जुग्गा । साहेमि तुज्झ तं पि हु, नत्रो जग्गो तुमाहितो ॥१८७५।। एत्थतरम्मि मणिमय-रणंत-मंजीर-मंजु-संरावा । नवमुक्कसेसनिम्मोय-धवल-सोमाल-पक्ख-जुया ॥१८७६ ।। सा मरिसुं हंसीसु हंससमूहेहिं साणुरायं च । 2010_04 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पिच्छिज्जती सहरिस-स-विम्हयं कुमरपमुहेहिं ॥१८७७।। अइदूरनह-विलंघण-घणपरिसमसासभरियगलविवरा । एगा दिव्वा हंसी ललिया कमरस्स उच्छंगे ॥१८७८॥ (तिसृभिर्विशेषकम्) सा सज्झसवसकंपिरदेहा कुमरस्स तस्स मुहकमलं । पिच्छंती जंपेउं नरभासाए समारद्धा ॥१८७९॥ साहसिय सुहयसेहरसरणागयवज्जपंजरकुमार ! परितायहि परितायहि अहयं तुह सरणमणुपत्ता ॥१८८०॥ हवइ कसेसयकाणणमायासेखरसिरम्मि सविसाणं । कह वि हु तह वि न कहमवि चयंति सरणागयं धीरा ॥१८८१॥ पुरिसो नारी नारी पुरिसो उदयत्थमण-विवज्जासो । कह वि ह हवइ न कहमवि चयंति सरणागयं धीरा ॥१८८२ ।। नव-नलिण-नाल-कोमल-करेहि अह तीए पिच्छसंभारं परिमसमाणो कुमरो जंपइ मा भाहि मा भाहि ॥१८८३।। सक्को वा चक्की वा सेसो वा खेयरो व गरूडो वा । हे हंसि ! मज्झ उच्छंगसंगयं हरिउमसमत्थो ॥१८८४।। निम्महिय खीरसायरतरंगसरसाणि निययपिच्छाणि । किं किं पावसि भीया मज्झं उच्छंगपत्ता वि ॥१८८५॥ तं कलिय नियकरेहिं सयमेवमट्ठिऊण सरियाओ। सलिलं सलिलरुहाणं किसलयनिवहं समाणेइ ॥१८८६॥ ताणि निय पाणिपंकयगयाणि काऊण तत्थ सयमेव । भुंजावइ तं कुमरो पायइसरसलिलमइरम्मं । जह जह तिस्सा कमरो सणियं परिमसइ पिच्छसंभार । उद्धसिय पिच्छनिवहा तह तह संजायए एसा ॥१८८७॥ को निय जीवियतित्तो मह इव मरणं अखुट्टए काले । जगपरियत्तविसंठलजलणपवेस, महइ को वा ? ॥१८८८॥ ___ 2010_04 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३६९ अहिलसइ को वि इण्हि, कयंतदंतंतराल-संवासं ।। इय परबलाण धीरो, संरावो तेहि अह निसुओ (जुयल) ॥ १८८९ ।। आययणदार-देसे, किरो होऊण जा निरूवेइ ।। ता पेच्छइ विज्जाहर-सेन्नं गयणंगणे इंतं ॥ १८९० ॥ तित्थाणुभावओ वा, अहवा कुमरस्स पुन्नमाहप्पा । निय धीरिमाए अहवा, कीरो तं हक्कए सिन्नं ।। १८९१ ।। कि रे खेयरवीरा ! आगच्छह एत्थ किं न पिच्छेह ।। पुरओ कुमारमेयं, नियभुय-परिहविय तिइलोक्कं ॥ १८९२ ॥ दूरम्मि निययभूमी, पलायमाणाण रे धुवं होही । कोभिमुहो नणु रुटे, जमम्मि अहवा कुमारम्मि ॥ १८९३ ।। सोऊण इमं ते वि हु, सच्छ-स-विम्हय-विसाय-पडिहत्था ।। नियनायगस्स पुरओ, गंतुं साहंति तं सव्वं ।। १८९४॥ को वि हु सुयरूवेणं, विज्जइ भवणस्स दारदेसम्मि । अम्हारिसा न सक्का, सामिय! हक्कं पि से सहिऊं ॥ १८९५ ॥ जो उण चिट्ठइ कुमरो, भउहा-विक्खेवमेत्तजियभवणो ।। वत्ता वि न से सामिय पुच्छेयव्वा कहेयव्वा ।। १८९६।। अह विज्जाहरराया, भंगुर-भडभिउडी-भासुर-निडालो ।। रोसातंबिरनयणो, एवं विउरुव्विउं रूवं ।। १८९७ ।। असि-फलयजुयं दोहिं, दोहिं करेहिं सकंडकोदंडं ।। गुरुमोग्गरं च दोहिं,दोहिं धमायतवरसंखं ।। १८९८ ।। कडतल्ल-कुंत-सव्वल-तीरी-वावल्ल-भल्लसेल्लाणि ।। असि-घेण-सत्ति-पतिस-तिसूल-चक्काणि सेसेहिं ।। १८९९ ।। बारसहि नियकरहिं, कलावं तो वीस हत्थदुप्पेच्छो । हुंकारं मुंचंतो सीहनिनायं च कुव्वंतो ॥ १९०० ।। ... गज्जंतो य हसंतो, हक्कंतो नियवलाणि तज्जंतो ।। वरसंखं वायंतो, जवमाणो दिव्ववरमंतो ।। १९०१ ।। 2010_04 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० तह किलिकिलिसंरावं, कायर-मण- कंप-कारणं घोरं ॥ पयडंतो अइपयडं निब्भच्छंतो य तं कुमरं ॥ १९०२ ॥ एवं जहक्कमेणं, धारितो भिन्नभिन्नवावारं ॥ आणणदसगं नहयल - पहेण सयमेव संपत्तो ।। १९०३ ॥ (सप्तभिः कुलकम्) सो कीरो पेच्छंतो, अहिणवदसकंधरं व तं सुहडं ॥ भयभीओ कुमरं चिय, सरणं सहसा समल्लीणो ॥ १९०४ ॥ सो वि भयंकरपुरिसो, कुमरं पइ वयइ पाव ! निल्लज्ज ! ॥ रे रे अणज्ज नियकुल- कलंक - विहिसज्ज अज्ज न हु होसि || १९०५ ॥ मह जीविय सव्वस्सं हंसि उच्छंग-संगयं काउं ॥ सिरिपउमप्पहसामिचरियं इह चिट्ठतो मरणं, पावसि रे पाव ! निब्भंतं ॥ १९०६ ।। 1 कुमरो वि आह रे रे ! बीहावसि मं इमेण रूवेण ॥ बीहंति ताल - घाया, देउल - पारेवया नेय । १९०७ ।। मुंचसु मह दिट्ठिपहं, नाससु रे मूढ ! जीवियग्गाहं || अन्नह दसहिं सिरेहिं, दिसिवालबलिं करिस्सामि ॥। १९०८ ॥ अह चंदचूडतियसो, कलाविरूवं चइत्तु सुर - रूवं ॥ काउं पहरण जुत्तो, संपत्तो कुमारपासम्म ।। १९०९ ।। अह तिलयमंजरीए, मोत्तूण पाणि कमलम्मि || संजमिय केसपासो तं निय तुरयं समारूढो । १९१० ॥ तह चंदचूड-दिन्नं पयंडकोदंड-मसमसरविसरं ।। काऊण करे कुमरो, अब्भट्ठो तस्स सुहडस्स ॥ १९११ ॥ (जुयलं) ते दो विहु अफ्फालिय धणु-गुण- टंकारव - हिरियदियंता ॥ मुंचंता सर - विसरं, असरिसरोसेण पहरंति ॥। १९१२ ॥ आय ंति य निय निय धणुजीवं निय विपक्खजीयं च ॥ मुंचति य सरवसरं, नियजसपसरं च ते धीरा ॥। १९१३ ।। कलिऊण दूरघाइणमसमपहारिणमणंतबलकलियं ॥ 2010_04 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३७१ कुमरं अह सो जुगवं, पहरइ सव्वेहि सत्थेहिं ॥ १९१४ ॥ वीसहिं भुय-दंडेहि, नाणाविहपहरणेहिं तिक्खेहिं ।। समकालं पहरंतो, जमो व्व सो दुद्धरो जाओ ॥ १९१५ ॥ तस्साउहसंदोहं, खिप्पं कुमरो खुरप्प-बाणेहिं ।। लघुहत्थो अविहत्थो, छिंदइ अह अद्धचंदेहिं ।। १९१६ ।। एक्केण सायगेणं, भग्गं कोदंड-दंडमवि तस्स ।। तह अवरेणं एसो, विद्धो हिययम्मि कुमरेण ।। १९१७ ॥ अह सो फुरियामरिसो, सहसा बहुरूविणीइ विज्जाए ।। रूवाणि गयण-देसे, विउरुव्वइ लक्ख-संखाणि ॥ १९१८ ।। विम्हियहियओ कुमरो वित्थारइ-जत्थ जत्थ नियनयणे ।। भुयकाणणदुप्पेच्छं, पिच्छइ तं तत्थ तत्थेव ।। १९१९ ॥ तह वि हु अबद्धलक्खं, पहरइ सव्वेसु तस्स रूवेसु ।। अहव न कया वि धीरा हवंति समरे निरुच्छाहो ।। १९२० ॥ अह चंदचूडतियसो, कुमरं मुणिऊण संकडावडियं ॥ गुरुमोग्गरकलियकरो जुज्झइ सह तेण खयरेण ॥ १९२१ ॥ तह तेण मुग्गरेणं, निहओ, सीसम्मि खेयरो सहसा ॥ जह तस्स इमा विज्जा, नट्ठा सत्तीए सहस त्ति ।। १९२२ ।। धुवमेयस्स सुरा वि हु, कुणंति कुमरस्स निच्च सन्निझं ।। इय निद्धारिय खयरो, सहसा अइंसणं पत्तो ।। १९२३ ॥ विजयसि वद्धाविज्जसि, तुज्झ पयावेण सो मए जित्ता ।। इय भणिरेण सुरेणं, पत्तो कुमरो नियं ठाणं ॥ १९२४ ।। अह तीए तिलयमंजरिकन्नाए हरिसनिब्भरंगीए ।। अच्छरियकारि-सुचरिय-दंसणसंजायपुलयाए ॥ १९२५ ।। सज्झसपरवसपुलइय, ससेय-विरलंगुलीसणाहेण ।। निय करयलेण मुक्का, सा हंसी कुमर-कर-कमले ॥ १९२६ ।। (जुयल) हंसी व कुमर-करयल-कोमल-सुह-फरिस-जाय-परितोसा ।। 2010_04 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं आह मह वराईए, कज्जे खिन्नोसि खणमित्तं ।। १९२७ ।। सरणागयरक्खटुं, खयरेणं तेण जुज्झयंतेण ।। हे कुमर ! तए विहिओ धीराण धुरंधरो अप्पा ।। १९२८ ।। नवरं कुमर ! मए च्चिय अज्ज अणज्जाए विगयलज्जाए। उच्छंगमणुसरंतीए, एस दुहिओ तुमं विहिओ ।। १९२९ ।। अहवामन्ने उवयारि च्चिय, मह सो खयरो भएण जस्साहं ।। पत्तम्हि जम्मसयकयसुकयसुलभं तुहुच्छंगं ।। १९३० ।। ता तिहुयणसिरसेहर ! नंदसु तं जाव सासयं कालं ॥ अम्हारिसा वि दुहिया, हवंतु सुहिया तुमाहितो ।। १९३१ ॥ सो आह महुरभासिणि ! कासि तुमं? कह इमेण खयरेण ? ।। पत्तासि कहसु कह वा, तुह जाया एरिसी भासा? ।। १९३२ ।। अह सा हंसी जंपइ, कणयपुरीए पुरीए महुसमए ॥ दिट्ठा असोयमंजरिकन्ना अंदोलणारूढा ।। १९३३ ।। वेयड्डसिहर-संगय-रहनेउर-चक्कवालपुर-पहुणा ॥ खयरेसरेण तरुणी, मयंकनामेण दिव्ववसा ।। १९३४ ।। (जुयलं) अह तीए चारु-तारुन्न-रम्मलायन्न-हरिय-हियएण ।। वायं विउव्विऊणं, हरिया दोला जुया बाला ।। १९३५ ॥ सा कुमर ! सबरसेनाए घोरअडवीए मज्झयारम्मि ।। मुक्का निकुंजमज्झे, भयवस-कंपंत-सव्वंगा ॥ १९३६ ।। खयरेसरो पयंपइ, कंपसि किं भीरु ! रूयसि किं मुद्धि ! । किं तरलतारनेत्ता, दिसाउ पिच्छेसि पसयच्छि ! ।। १९३७ ।। नाहं चोरो परदारिओ वररंभोरू ! किंतु खयरो हं ।। अब्भत्थेमि मए सह, मनसु वीवाहसंबंधं ॥ १९३८ ।। 2010_04 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३७३ न व परिचएण अहवा, भएण अहवावि अहव खयरम्मि । पिम्मा भावेण इमा न कि पि पडियं पिया तस्स ॥ १९३९ ।। संपइ सयं विउत्ता, एसा समयंतरम्मि मं रमणं ।। मन्निस्सइ त्ति तेणं सरिया कामकरी विज्जा ॥ १९४० ।। विज्जा माहप्पेणं, तावसरूवं करित्तु तं कन्नं । निच्चं समालवंतो, कित्तियकालं गमइ खयरा ॥ १९४१ ॥ ठाणंतरम्मि पत्ते केण वि कज्जेण तम्मि नयरम्मि । दोलामारूढेणं, तावसकुमरेण तं दिट्ठो ।। १९४२ ।। तुह पुरओ नियचरियं, कह इमो जाव ताव खयरो वि ॥ हरिऊण इमं पत्तो, रहनेउरचक्कवालम्मि ।। १९४३ ।। मूत्तूण इमं मणिमयमंदिरसिहरम्मि जंपए सुयणु ! ।। मह वयणं पि न जच्छसि जंपइ सह तेण कुमरेण ।। १९४४ ।। तह वि हु न किंपि जंपेमि मज्झ मन्नेसु सुयणु ! संबंधं । अनह तुज्झ अज्जेव य कुवियकयंतो अहं पत्तो ।। १९४५ ।। सा आह न हि धणेणं, कयावि न वि हुंति रम्मपिम्माणि ।। अवराणि ताणि वत्थूणि , जाणि लब्भंति विहवेहिं ।। १९४६ ।। अह वालतालकालं , करवालं कड्डिऊण सो खयरो ।। जंपइ सुमरसु देवं इठें कालो तुहं पत्तो ।। १९४७ ।। पुण चितइ सासंको, कुवलयदललोललोयणि तरूणि ।। मुत्तूण इमं मज्झ वि पाणपरित्ताण संदेहो ॥ १९४८ ॥ मूढेण मए ता किं अया किवाणीयमेयमारद्धं ।। मयसंजीवणवल्ली, धुवमेसा रक्खणिज्ज त्ति ।। १९४९ ।। तन्नो कोसे खग्गं, खिवित्तु कामकरीए विज्जाए ।। नरभासं तं हंसिं काउं सो पंजरे खिवेइ ।। १९५० ।। अमयरसपसरनिब्भर कुल्ला तुल्लाए महुरवाणीए ।। पइदिणमातूणं, तं कलहसिं समालवइ ।। १९५१ ॥ 2010_04 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चाडूण पायडंतो निसुओ कमलाए तस्स भज्जाए । ईसा मच्छरनिब्भरफुरंतदंतच्छयदलाए ।। १९५२ ।। आपुट्ठ नियय विज्जामुहेण मुणिऊण वइयरं सव्वं ।। तीए हंसी मुक्का, आयड्ढिय पंजराहिंतो ।। १९५३ ।। हंसी वि सबरसेणं, अडई, उद्दिसिय नगवराहिंतो।। चलिया कुमार-दसण- संभासण - लालसा तुज्झ ।। १९५४ ।। एयम्मि रम्मभवणे, वीसमिउमणाए दिव्वजोएण ॥ निसुओ तुह संलावो, पच्चक्खं तुह तुमं दिट्ठो । १९५५ ॥ कामंकरि माहप्पा, माणुस- भासाए जंपमाणा सा ।।। पत्ता तुहं कपालिं, एवं चरियं नियं कहियं ।। १९५६ ।। जो उण विजिओ तुमए वीसभूओ खेयरो इमं मन्ने ।। तरुणी मयंकखयरं विज्जासत्तीए इह पत्तं ।। १९५७ ।। अह तिलयमंजरी सा नाउं नियभइणि वयइरं सव्वं ।। विलवेइ तारतारं, तद्दुहसंजायदुह-निवहा ।। १९५८ ।। हा सामिणि ! सजायं भवम्मि एत्थेव तुज्झ तिरियत्तं ।। हा तुमए सुहवासिणी ! पंजरवासो कहिं सहिओ ॥ १९५९ ।। नृणं तुमए कस्स वि विरहो विहिओ उवेहिओ तह य॥ सामिणि ! मए वि जायं फलमेयं तस्स कम्मस्स ।। १९६० ।। अह चंदचूडतियसो सलिलं नियपाणिपंकए काउं ।। अच्छोडइ तं हंसिं निययाए दिव्वसत्तीए ।। १९६१ ॥ तो झ त्ति दिव्वसत्ती माहप्पेणं रवन्नलावन्ना ।।। हंसी पुणरवि कन्ना संजाया चारुतारुन्ना ।। १९६२ ॥ अह सा असोयमंजरि, कन्ना तह तिलयमंजरी कन्ना ।। सप्पणयं ससंरंभं, परिरंभं झ त्ति कुव्वंति ।। १९६३ ।। कुमरस्स वि कन्नाणं ताणं दुन्हं पि दंसणे सहसा ।। हरिसो वयण- विसेसा विसओ को वि हु तया जाओ ।। १९६४ ।। 2010_04 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३७५ सो आह तिलयमंजरि, वरतणु नणु पारितोसियं दाणं ॥ जामि समागमसमए, अम्हेहि तुमाहि लहणिज्जं ॥ १९६५ ।। ता कहसु किं पयच्छसि जं च जच्छेसि देसु तं इण्हि ।। को वा कालविलंबो, सरहसदाणे पहारे य ॥ १९६६ ।। सा वि पयंपइ देयं सव्वस्सं चेव तुज्झ जेण इमा ।।। नियजीवियनिरविक्वं, खयराउ रक्खिया रमणी ॥ १९६७ ।। तह वि हु सच्चंकारो एसो सव्वस्स दाणकरणम्मि ।। इय भणिय कुमरकंठे, मुक्को मुत्तामओ हारो ॥ १९६८ ।। रोमंचपंकलज्जा लीला विच्छित्ति निब्भमविलासा ।। चित्ते विचित्तभावा, तिस्सा तइया तओ जाया ।। १९६९ ।। सो वि कुमरो वि तइया तिस्सा हिययं च बाहुलइयं वा ॥ जीविय सव्वस्सं वा मनइ तं बधुरं हारं ।। १९७० ।। अह आह चंदचूडो विग्घसमूहेण सेय कज्जाणि ।। हंहो असोयमंजरि, हवंति गसियाणि निब्भंतं ।। १९७१ ॥ तो कुमरेण तुब्भं सिणेह तरुतरुणमंजरिसरिसो ।।। अमिरामे आरामे इह इहि हवउ वीवाहो ।। १९७२ ।। इय जंपिय उठ्ठित्ता तस्स कुमारस्स तिलयकुंजम्मि । कन्नाजुयलेण समं, निम्मविओ, पाणिसंबंधो ।। १९७३ ।। रूवंतरं च काउं, गंतुं चक्केसरीए देवीए ।। सो साहइ वुत्तंतं सयलं, आमूलपज्जंतं ।। १९७४ ।। रणझणिर-रयण- किंकिणि- कलावबंधुर -पडाइया लडहं ॥ नीलिंद-नील- मरगय-मऊह- हरियायमाणरविकिरणं ।। १९७५ ।। वरपउमरायमणिचय-किरणनहाभोयविहियकमलवणं ॥ नवहरिचंदणदलचयनिम्मिय मंगल्लदामसंदोहं ।। १९७६ ।। विलसंतहार-निउरुंबहसियसुरसिंधुबहलकल्लोलं ।। उल्लसियचारू -चामर-निज्जयखीरोयफेणसंघायं ॥ १९७७ ।। 2010_04 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं रणिरमणिरयणघंटामणितासियदिसिगइंदसंदोहं ।। मरगयमणिमयतोरणकयदिसिमुहपत्तवल्लरीसोहं ॥ १९७८ ।। ससिकंतपमुहमणिमयविसालवरसालभंजिया निवहं ।। वेगावेगविणिज्जयसमीरमणबाणगरुडगुरुवेगं ॥ १९७९ ।। रम्मं विमाणसमुदयमारूढाहिं समाणवेसाहिं ।। पायालकन्नयाहिं, परियरिया चारुतारसोहाहिं ।। १९८० ॥ संवच्छरसयजीहा, सहस्स निज्जणणिज्ज महिमाणं ॥ आरूढा सुविमाणं, पत्ता चक्केसरी सयं तत्थ ।। १९८१ ।। सा नववहूवरेहिं , कय पणिवाया पयच्छए तेसिं । वरमासीसं तुब्भे नंदह सुहिया हवह निच्चं ॥ १९८२ ।। सुरसुंदरी मुहनिग्गयमंगलसंरावजणियरोमंचो । देवीए वित्थरेणं, वीवाहमहो कओ तेसिं ॥ १९८३ ।। मणिमयभूमिनिबद्धं मणनयणपसायकारणं दिव्वं ॥ विउरुव्विय पासायं., देवी तेसिं पयच्छेइ ।। १९८४ ॥ जं संसाररहस्सं, उचियं जं जुब्वणस्स रम्मस्स ।। उवविसइ जं अणंगो, छेया वनंति जं चेव ।। १९८५ ।। जं जम्मंतरसंचयअणनसामन्नपुनपरिणामो । निय तवविक्कयपुव्वं महंति मुणिणो वि जं के वि ।। १९८६ ॥ सिमंतिणीहि ताहिं, परूढ-पिम्माहिं रम्म-रूवाहिं । तं दुहलेसविमुक्कं अणुहवइ इमो सुरय-सुक्खं ॥ १९८७ ।। अह देविसमाएसा सुरेण सिट्ठम्मि चंदचूडेण ॥ वुत्तं तम्मि असेसे चलिओ कणयद्धओ राया ।। १९८८ ॥ अनिलचलवेजयंती-संतज्जिय- वरविहारहसमूहा ॥ घंटारव-संतासिय-दिसागइंदा गइंदा य ।। १९८९ ॥ अरिमण-विहियधसक्का पायक्का वेग-विजियरेवंता ।। रंगंताय तुरंगा चलंति सह तेण नरवइणा ॥ १९९० ।। 2010_04 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३७० सुद्धंत- पुरोहिय-सत्थवाह-सामंतमंति-पमुहेहिं ।। जुत्तो कमसो पत्तो तत्थ निवो थेव दिवसेहिं ।। १९९१ ।। महि-मिलिय-मउलिकमलो, तेहि सव्वेहि पणमिओ राया ॥ कुमरं नरं निरुविय मन्नइ सकयत्थमप्पाणं ।। १९९२ ।। तह कुसुमसुंदरी वि हु सव्वेहिं तेहिं पणमिया तत्तो।। परिरंभइ धूयाओ सिरम्मि परिचुंबए हिट्ठा ।। १९९३ ॥ कित्तियमित्ते काले वकंते वंछियत्थकप्पतरूं ।। सिरिरिसहेसरनाहं नमित्तु संसारसंहरणं ।। १९९४ ।। चक्केसरिनियकन्ना कुमारवरकीरचंदचूडेहिं ।। अन्नेहि वि परियरिओ राया चलिओ पुराभिमुहं ।। १९९५ ।। सो कमसो बलसमुदय-नामिय सेसो जलासयसमूहं ।। सोसंतो संपत्तो, नियनयरासन्नउज्जाणे ॥ १९९६ ।। एसो नूणमणंगो रइ-पीइ-समाहिं दोही तरुणीहिं ।। लक्खिज्जइ त्ति नयरी लोएण पसंसिओ कुमरो ।। १९९७ ॥ पुररमणि-नयण-कुवलयमाला-निववेहिं अंचिओ रण्णो ॥ नयरे महुसव्वेहिं पवेसिओ नियपिया जुत्तो ।। १९९८ ।। सा चक्केसरिदेवी, तेण समं चंदचूडतियसेण ।। कुमरि अणुनवित्ता, संपत्ता निययठाणम्मि ।। १९९९ ।। कणयमयपंजरगओ कीरो उण मुणिय सत्थपरमत्थो ।। कुमरमणविणोयत्थं, कहेइ अक्खाइया निवहं ।। २००० ।। मणवंछियभोग-सुहं अणुहवमाणस्स तस्स कुमरस्स ।। वरिसम्मि वइक्कंते संजायं तयं सुणसु ।। २००१ ॥ जाए निसिहसमए, अमुद्द-निद्देसु जामइल्लेसु ।। निहुयम्मि पुरी लोए, उवसंते बहलहलबोले ॥ २००२ ।। घणतमतमाल-काणण-सम-तिमिरभरेण सयलभुवणम्मि । गसियम्मि दिसिविभाए, सव्वत्थपणट्ठसब्भावे ॥ २००३ ॥ 2010_04 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ मणिरयणवासभवणे सुत्तो सो नियपियाहि संजुत्तो ॥ कह विहु विगलियनिदो पंगणदेसम्म संपत्तो ॥ २००४ ॥ वर-मउड-मंडिय-सिरं वत्थत्थललुलिय- तरलतरहारं ॥ कयमणहर - सिंगारं, चलकुंडल - मंडियकवोलं ॥। २००५ ।। आयड्डिय करवालं, उब्भडभडभिउडिभंगुर - निडालं ॥ उद्धरतेयकरालं, सुरमेगं पिच्छए कुमरो || २००६ ॥ कोसि तुमं किं कज्जं, इह पत्तो कहसु कत्थ निवसेसि ? ॥ इय जा पुच्छइ कुमरो, ताव सुरो रोसरत्तच्छडो । २००७ ॥ रे अलिय गव्व - पव्वयकुमार निच्चं पि रे दुरायार ? | सच्चं सुहडोसि तुमं जइ तत्तो हवसु रणसज्जो || २००८ ॥ एयं पयंपमाणो, पयंड-पवणो व्व तूल-संघायं ॥ हरिऊण कीर-पंजरमुप्पइओ नहयले सहसा || २००९ ।। अणुसरमाणो सद्दं फुरंततेयं च तस्स तियसस्स ।। निक्किव - किवाण - पाणी कुमरो उद्धाइओ तत्तो । २०१० ।। सो हत्थं गच्छंतो मंदं मंदं पलोयमाणेण || सिरिपउमप्पहसामिचरियं धुत्तेण तेण नीओ सूरेण संतरं दूरं || २०११ ॥ नम्मितम्मितियसे परिभावइ सो मणम्मि को एसो ॥ देवो वा दाणवो वा नूणं मह वेरिओ को वि || २०१२ ।। भवउ व जं वा तं वा, न किंचि चित्ते जणेइ मह दुक्खं ॥ कीरेण तेण विरहा, दुसहो देहं दहइ नवरं ॥। २०१३ ॥ तह वि हु नयववसाया, कायव्वा चेव धीर - पुरिसेहिं ॥ सव्वं पि धुवं भव्वं होही ववसाय - नाहिं | २०१४ ॥ इय चितिय सो कुमरो कीरस्स गवेसणाय गच्छंतो ॥ दिवसंतरम्मि गच्छइ पुरओ पुरमेगमइरम्मं ॥। २०१५ ।। फालिहमणिपायारं, पडिपउलि- निविट्टरयणपडिहारं ॥ चित्तविचित्तायारं, मणिनिम्मिय-मणहर-विहारं || २०१६ || जुयलं 2010_04 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा नयरस्स रम्याए, अक्खित्तो खिप्पमेव पुरमज्झे || पविसंतो पुरपरिसरसालगयाए य एगाए । २०१७ ॥ वरसारियाए भणिओ कुमारजइ महसि अप्पणो जीयं ॥ तामा विससु कह वि हु इमस्स नयरस्स मज्झमि ॥ २०१८ ॥ किं भणसि रम्ममेयं कहं पवेसस्स अणुचियं नयरं ॥ तंपि हु साहीज्जंतं, निसुणसु हे धीर ! उवउत्तो || २०१९ ॥ गोसीस - दारु-निम्मिय-पओलिदाराहिवासियसमीरे ॥ रयणपुरे एत्थ पुरे पुरंदरो आसि नरनाहो || २०२० ।। अत्थाणसहासीणस्स, तस्स रायस्स केण वि नरेण ॥ विन्नत्तं तुह नयरं मुसियं केणावि चोरेण ॥। २०२१ ।। अह तरुणतरणिकरणिं समुव्वहंतेण रोसरत्तेण ॥ रन्ना समाहवित्ता पुट्ठो आरक्खिओ वयइ || २०२२ ॥ देव ! न वि मज्झ सज्झो, न मज्झ सयणस्स नेव अन्नस्स ॥ सो चोरचक्कवट्टी, जं जाणसि तं कुणिज्जासु ॥ २०२३ ॥ सयमेव पुहइपालो निसाए करकलिय-निसिय-करवालो ॥ भमडइ चउक्कचच्चरसुन्नागाराइठाणेसु ॥। २०२४ ।। समयंतरम्मि नयरं च्छिन्नमविच्छिन्नमेव पिच्छंतो ॥ चोरं खत्तमुहाओ निग्गच्छंतं लहइ राया ॥। २०२५ ।। कोसि तुहं नरवइणा सो पुट्ठो वयइ वसणसंतत्तो ॥ अनिययपासंडधरो मुसेमि नयरं कुमुयनामो ॥ २०२६ ॥ परिकुविएणं रन्ना सूलाए चढाविओ इमो तत्तो ॥ दिव्ववसा मरिऊणं संजाओ रक्खसो घोरो ॥। २०२७ ।। कुद्धेण तेण सहसा, नयरे उव्वासियं असेसं पि ॥ जो अज्ज व पुरमज्झे, पविसइ तं हणइ निब्धंतं ॥ २०२८ ॥ अह सारियाए वयणं, अवगन्निय रयणसारकुमरो वि ॥ रक्खसविक्कमदंसण-स- कोउहल्लो विसइ मज्झे । २०२९ ॥ 2010_04 ३७९ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो नियइ नरं विमुक्कं तं कत्थ वि दिवससमयगयणं व ॥ कत्थ वि सचंदतारं रयणी समयंतरिक्खं व ।। २०३० ।। वच्चंतो सो पुरओ मलयायलमेहलं व पिच्छेइ ।। घणसारगंधसारागुरुरम्मं गंधहट्टगणं । २०३१ ।। रयणायरवेलं पिव अणेयमणिरयणविदुमसणाहं ।। सोवन्निय हट्टगणं कत्थ वि सो पिच्छए तत्थ ।। २०३२ ।। दोसिय हट्टसेणिं कत्थ वि सो नियइ तरुणि रमणि व ।। पयडियनम्मं निम्मल-नित्तसमारूढपरभायं ।। २०३३ ।। मणहरणखज्जगावणमेसो वल्लइ विपंचियसरं व ।। पयडियवंजणमसमप्पमोयजणगं नियच्छेइ । २०३४ ।। इय विविह वत्थू-भरियं नयरं पुरिसप्पयार-परिहरियं ।। पिच्छंतो सो कमसो पत्तो नरनाह-भवणम्मि ।। २०३५ ।। जं रयणनियर-तोरण-हरिचंदण-कलसवेजयंतीहिं । पुरपिच्छणाय पत्तं सग्गविमाणं व पडिहाइ ॥ २०३६ ।। सुद्धं तं पि असेसं, वुध्दसु सिध्दंत-तत्तमिव सुन्नं ।। सो पुलयंतो कुमरो आरूढो भवण-सिहरम्मि ।। २०३७ ।। सो नियइ तत्थ मणिमयममुल्लंपल्लंकमसमसोमालं ।। वर-हंसतूलकलियं, सुरसरिपुलिणं व सुविसालं ।। २०३८ ।। सो परिसंतो निब्भयचित्तो, तत्थेव रयण-पल्लंके ।। सुहनिदाए सुत्तो, निययावासं व संपत्तो । २०३९ ।। अह नरपयप्पयारं पलोयमाणो फुरंतअहरुट्ठो । कुमुओ रक्खस-चक्की संपत्तो तत्थ भवणम्मि ।। २०४० ।। सो रयणसारकुमरं निब्भरनिदाए मुद्दियच्छिजुयं ।। अवलोइउण चिंतइ, पिच्छह पिच्छह महच्छरियं ।। २०४१ ।। जं नन्नो चिंतेउं नेव गिराए पियंपिउं सक्को । तं इमिणा कुमरेणं, पारद्धं केलिमित्तेण ॥ २०४२ ।। 2010_04 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३८१ सुहसुत्तं चिय तत्तो, पारावारे अदिट्ठपारम्मि ।। किमिमं खिवामि सहसा, उप्पाडियभवणसंजुत्तं ।। २०४३ ।। अहवा तमाल- कज्जल-सामल-करवाल-निसिय-धाराए ।। खंडोहंडिकाउं, करेमि भूयाणमुवहारं ।। २०४४ ।। अहवा खिवामि कुलिसप्पहारसंचुन्नियं इमं पावं ॥ सहसा भुवणजुयं चिय दिसोदिसिं इक्कपुक्काए ।। २०४५ ।। रोसानलपज्जालिय-नयण-झलक्काहिं अहव निदहिउं ।। सहस त्ति भासरासिं, करेमि एवं दुराचारं ।। २०४६ ।। अहवा नहि नहि एयं, जुत्तं जम्हा सुदूरदेसाओ ।। पत्तो इह मह भवणे, एसो अतिही अओ मज्झ ।। २०४७ ।। ता जाव इमो जग्गइ, ताव नियं सच्चभूय-संघायं ॥ अहवा हवेमि पच्छा, जं जुत्तं तं करिस्सामि ।। २०४८ ।। इय चितिय निग्गच्छिय, आहविय असेसभूय-संघायं ।। पुणरवि पत्तो एसो, कलयलरव-भरिय-दिसिचक्को ।। २०४९ ।। कुमरं तहेव सुत्तं, पिच्छित्ता वयइ पावनिल्लज्ज ! ॥ निब्भय मह भवणाओ निग्गच्छसु अहव जुज्झेसु ।। २०५० ।। भूयाण कलयलेणं, रक्खससद्देण तहय घोरेण ।। कुमरो विगलिय उम्मीलियलोयणो वयइ ॥ २०५१ ॥ रे रक्खसिंद ! अहयं सुदूरदेसंतराओ संपत्तो ।। इह सुत्तो किंतु तए, निद्दा विग्घो कओ मज्झ ।। २०५२ ।। ता सुरहिघय-विमिस्सिय-सलिलं गिण्हंतु मज्झ खणमित्तं ॥ तलहट्टसु चरणजुयं, पुण निद्दा एइ मह जाव ।। २०५३ ।। सो रक्खसो विचिंतइ, तिलोयलोयाणमसममच्छरियं ।। चरियं इमस्स चित्ते, उप्पाइय विक्कमधणस्स ।। २०५४ ।। साहसविक्कमहिययावटुंभा धुवमिमस्स कुमरस्स ।। सकस्स वि मणं कंपं कुणंति अन्नस्स किं भणिमो? ।। २०५५ ।। 2010_04 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अहवा साहसरसिओ अतिही तह पुन्न-पन्न-संभारो । तम्हा इमस्स वयणं, इक्कं मन्नेमि किं बहुणा? ॥ २०५६ ।। इय चिंतिय कुमरपए सघय-पएण मुहुत्तमिक्कं सो ।। तलहट्टइ पुन्नाणं, नेव असझं जए किंचि ।। २०५७ ।। तं नियपाय-विलग्गं, निसियरनाहं पलोइउं कुमरो ।। अब्भुट्ठिऊण सहसा, जंपइ काऊण पणिवायं ।। २०५८ ।। हे सुपुरिस ! तुह भवणे सुत्तोहमतुल्लमुल्ल-पल्लंके ।। विहिया य तुह अवन्ना, जं तं सव्वं खमिज्जासु ।। २०५९ ॥ जुव्वण-दुल्ललिएणं, धिट्टेणं मूढबुद्धिणा अहवा ।। तुज्झ अवन्ना विहिया, न मए बलगव्वगहिएण ॥ २०६० ।। ता रक्खससिरसेहर ! महिमाए तुज्झ महिय-चित्तोहं ।। आइससु तओ संपइ कज्जं दुस्सज्झमवि मज्झ ।। २०६१ ।। भणियं च रक्खसेणं, कुमार ! सयले वसुंधरा वलए ।। सो नत्थि च्चिय इह जो अत्थिजणं कुणइ सकयत्थं ॥ २०६२ ।। हत्थं आगच्छं ता गुणमुक्का जायणिक्कवावारो।। मग्गणगण व्व मग्गण-पुरिसा न हि कस्स भयजणया ।। २०६३ । सीसम्मि तस्स निवडउ वज्जजीहा वि जाउ सयखंडं। जो परपत्थणपावं, करेइ लज्जमज्जाओ ।। २०६४ ।। धूलीपुंजाहि समीरणाहि, तूलाहि तह तिणाहिंतो ।। अत्थी लहू तओ वि हु हीणो जो तं कुणइ विहलं ।। २०६५ ॥ तह वि तह कुमरपुरओ करेमि अब्भत्थणं अहं किं पि । जइ मह भणियं न कुणसि अपमाणं तं जुगंते वि ।। २०६६ ॥ कुमरेणुत्तं विक्कम-मइ-धण-संभार-देह-पाणेहिं ॥ जं साहिज्जइ कज्जं, निब्भंतं तं मए कज्जं ।। २०६७ ।। सो रक्खसो पयंपइ, जइ एवं तो इमम्मि नयरम्मि ।। हवसु तुमं चिय राया तत्तो जुग्गो तुमाहितो ।। २०६८॥ 2010_04 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३८३ सुरतरुणिपालिचालिय-बंधुरचामर-समीर-लहरीहिं ।। तुह जस-पंकय-काणण-परिमल-निवहो भमउ भवणे ॥ २०६९ ।। उप्पलमुणालकोमल-कराहि तह कुमर ! तियसतरुणीहिं॥ उच्छंगीकयचरणो, सभाए सीहासणे विससु ।। २०७० ।। पायालकन्नया-मुह-गिज्जंत-ससंकसरिसकित्तीहिं॥ भुवणजणसवणकाणणमुल्लाससु सासयं कालं ॥ २०७१ ।। तह सुरसहायसाहिय-महंतदुदंत-वेरि-महिवालो ।। एगच्छत्तं सयले, महिवलए कुणसु वररज्जं ।। २०७२ ।। इय समलंकिय रज्जं, तुममेव सयंवराउ सुरविलया ॥ सरियाउ व सरिनाहं, परिरंभिस्संति सारंभं ।। २०७३ ।। एयं नयरं रम्म, इमाणि भवणाणि सपरिवारो || तह अहयं सयमेव य साहिणो तुज्झ किं बहुणा? ॥ २०७४ ।। चिंतइ चित्ते कुमरो भवसयकयसुकयनिवहतोरविओ॥ धुवमेस सुरो रज्जं, निरवज्जं जच्छए मज्झ ।। २०७५ ।। पडिवनं तह पव्वं मए वि जं भणसि तं करिस्सामि ।। लवमित्तं पि न तत्तो, एत्थत्थे किमवि वयणिज्जं ।। २०७६ ।। किंतु परिग्गहमाणं विणयंधर-सूरि-पाय-मूलम्मि ।। गहियं पुरा मए जं तत्थ निसिद्धं धुवं रज्जं ।। २०७७ ।। एगत्थ नियमभंगो, अन्नत्थ इमस्स पत्थणा भंगो ।। हा रयणसारकुमरो, करेउ किं संकडावडिओ ॥ २०७८ ।। अहवा तं चिय कज्जं जं होइ देह-पमुहेहिं ।। अब्भत्थिएणं वि न तं कायव्वं जत्थ वयभंगो ।। २०७९ ।। भणियं च तो पढियं तो गुणियं तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा ।। आवडिय पिल्लियामंतिओ वि जइ न कुणइ अकजं ।। २०८० ॥ इय चिंतिय वज्जरियं कुमरेणं तुज्झ पत्थणा सव्वा ।। 2010_04 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं विसमा वि मए कज्जा न जत्थ नियमस्स पब्भंसो ॥ २०८१ ।। पुव्वं गुरूवएसा नियमो रज्जस्स गहिय पुव्वो मे ।। तो कह तुज्झ गिराए, सुपुरिस ! भंजेमि निय नियमं । २०८२ ।। रुट्ठो रक्खसनाहो जंपइ सिच्छाए वससि मह भवणे ।। मह पत्थणाए भंगं करेसि रे पाव ! निल्लज्ज ! ।। २०८३ ।। किं न हि निसुयं तुमए, सव्वं भव्वं कुणंति संतुट्ठा ।। रुट्टा तियसा सहसा, पुरिसं निहणंति निब्भंतं ।। २०८४ ।। ता कुणसु मज्झ भणियं, विलससु सिच्छाए एत्थ नयरम्मि ॥ अनह खिवामि तुमयं, अदिट्ठपारे नई-नाहे ।। २०८५ ।। कुमरो जंपइ रक्खस ! न हि नियनियमं जुगंतकाले वि ॥ भंजेमि तुमं जं पुण, जाणसि तं कुणसु किं बहुणा ? ॥ २०८६ ।। अह सो निसियरनाहो, मुहनिग्गच्छंतजलणविकरालो॥ उप्पाडिऊण कुमरं, उप्पइओ नहयलुच्छंगे ॥ २०८७ ।। गंतुं दूरं गयणे पक्खिवइ अगाहसिंधुनाहम्मि । भवजलहि-पडण-निच्चल-सच्चंकारं व तं कुमरं ।। २०८८ ।। सलिलाओ समुच्छलिउं, गहियं करसंपुडेण तं वयइ ॥ कि मरसि मोरउल्ला, कुमार ! अवियार रे मूढा ! ।। २०८९ ।। जइ न कुणसि मह भणियं, ताहं कक्कससिलाए चीरं व ॥ अप्फालिऊण तुमयं, एसो पेसेमि जमभवणं ।। २०९० ।। कुमरो जंपइ रक्खस ! अवियप्पं कुणसु निययसंकप्पं ।। को नाम तुमं वारइ मुहा विलंबं कुणसि इण्हि ।। २०९१ ।। सो तस्स असम-साहस-दसण-संजाय-पुलयपब्भारो ।। संहरिय घोररूवो, विमाणवासी सुरो जाओ ।। २०९२ ।। जंपइ य तुज्झ रेहा कुमारभुवणम्मि धीरवीरेसु ।। तुमए च्चिय वीरेणं वीरवई भयवई पुहवी ।। २०९३ ।। तह चेव य गरुवयणं. सकयत्थं विक्कमो य जम्मो य ॥ 2010_04 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३८५ जस्स सुरालयचूलासरिसं चित्तं सया नियमे ॥ २०९४ ।। सोहम्मकप्पवासी हरिणगमेसी सुरिंदबलनाहो ॥ तुह चित्तनिच्चलत्तं पसंसए कुमर ! सुरसक्खं ॥ २०९५ ॥ किं भणसि कत्थ विहिया पत्थावे तेण मज्झ वि पसंसा ।। तं पि हु निसुणसु इण्हि, संखेवेणं कहिज्जंतं ॥ २०९६ ।। सोहम्मीसाण-सुरेसराण जाओ विमाणलुद्धाण ।। गरुयवीवाओ सुरगणमाणसउत्तासणो इण्हि ।। २०९७ ॥ बत्तीस अट्ठवीसा विमाणलक्खा कमेण जइ दुण्हं ॥ . सोहम्मीसाण पहू तह वि हु जुझंति लोहंधा ।। २०९८ ॥ माणवग-थंभ-संठिय-जिणदाढा संति सलिल-माहप्पा ।। कित्तियमित्ते काले, गलिए ते दो वि उवसंता ॥ २०९९ ।। अह ताण सुरिंदाणं, पसंतचित्ताण विरयजुज्झाणं ॥ समवाएणं कहिया सचिवेहिं पुव्वछेवाडी ॥ २१०० ॥ सा य इमादक्खिणदिसा विमाणा सव्वे वि हु आभवंति सक्कस्स ।। उत्तरदिसा विमाणा, ईसाणपहुस्स सव्वे वि ॥ २१०१ ।। पच्छिम-पुव्वदिसासुं, वट्टविमाणा य इंदगा तहया । तेरस संखा एए, सव्वे सक्कस्स आभव्वा ।। २१०२ ।। पच्छिम-पुव्व-दिसासुं, तंसा चउरंसगा विमाणा जे ।। सक्कस्स तेसि अद्धा, अद्धा ईसाण नाहस्स ।। २१०३ ।। एसेव कमो नेओ सणंकुमारे तहेव माहिंदे ॥ उभयत्थं इंदगा पुण वट्टागारा मुणेयव्वा ॥ २१०४ ।। भणियं चःजे दिक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली भवे तेसि ।। जे पुण उत्तर इंदा, उत्तरओ आवली तेसिं ॥ २१०५ ।। पुव्वेण पच्छिमेण य सामन्ना हुंति आवली मुणेयव्वा । 2010_04 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जे पुण वट्टविमाणा मज्झिल्ला दाहिणिल्लाणं ।। २१०६ ।। पुव्वेण पच्छिमेण य जे वट्टा ते वि दाहिणिल्लाणं ।। तंसं चउरंसगा पुण, सामन्ना हुति दुण्हं पि ।। २१०७ ।। एत्थावसरे पुट्ठो हरिणगमेसी ससंकसिहरेण ।। तियसेण धुवं भुवणे, सो नत्थि जो महालुद्धो ।। २१०८ ।। अणिमाइ सिद्धिजुत्ता, दंभोलिकरा वि निज्जिया जेण ॥ तिहुयणभडेसु रेहा दिज्जउ तस्सेव लोहस्स ।। २१०९ ।। जइ मणवंछियपूरियकामो जुझंति अस्थि लोहेण ॥ इंदा वि तो न कज्जं, वत्तामित्तं पि अन्नस्स ।। २११०॥ अह आह हरिणगमेसी, सच्चं चिय भणसि जं तुम इण्हि ॥ मोत्तूण रयणसारं, किं पुण वसुसारअंगरुहं ।। २१११ ।। विहियपरिग्गहमाणं, नियनियमाओ सइंददेवा वि ॥ तं रयणसारकुमरं, नूणं चालेउमसमत्था ।। २११२ ।। तव्वयणमसहमाणो, ससंकसिहरो इहेव संपत्तो ॥ विहिया तुज्झ परिक्खा, कीरं हरिऊण तेण इमा ।। २११३ ।। हरिओ कीरो विहिया य सारिया मणहरं पुरं विहियं ॥ तुह चित्तं परिक्खत्तं, रक्खसरूवं तहा विहियं ।। २११४ ।। तेणं चिय तियसेणं, अवारपारे अदिट्रपारम्मि ।। मुक्कोसि तुमं एसो, सो हं ससिसेहरो तियसो ।। २११५ ।। ता सव्वं पि खमिज्जसु, आइससु मए वि जं इह कज्ज । तियसाण कुमर ! दंसणमसोहमिह वत्रियं जेण ॥ २११६।। कुमरो जंपइ सुरवर! नंदिसर-पमुह-तीत्थ जत्ताओ ।। तं कुणसु तियस!कामिणि-सुहलोयं चयसु निच्चं पि ।। २११७ ॥ आमं ति पयंपित्ता, कुमरं उप्पाडिऊण सहस त्ति ॥ सह कीरपंजरेणं, कणयपुरीए सुरो मुयइ ।। २११८ ।। आपुच्छिय तं कुमरं कुमारगुण-निवह-भरियभुवणम्मि । 2010_04 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसारकहा ३८७ अचयंतो विव ठाउं सोहम्मे झ त्ति सो पत्तो ॥ २११९ ॥ कुमरो वि तिलयमंजरि असोयमंजरिवहूहिं परियरिओ॥ आपुच्छिय नरनाहं, संचलिओ नियपुराभिमुहं ।। २१२० ।। अक्खंड-पयाणेहिं, असंख-सामंत-मंतिसंजुत्तो ।। रयणविसालं नयरिं, पत्तो थेवेहि दिवसेहिं ।। २१२१ ।। अह समरसीहरना, वसुसार-पमुक्खसेट्ठि-सहिएण ।। महया विच्छड्डेणं पवेसिओ नयरमज्झम्मि ।। २१२२ ।। विहिए उचिए कज्जे, सव्वेसिं राय-पमुह-लोयाण ।। कुमराइट्ठो कीरो, वुत्तंतं साहए सव्वं ॥ २१२३ ॥ सोऊण कुमरचरियं, चित्तचमक्कार-पूरिया सव्वे ॥ सम्म जिणिंद-धम्मं, सुणंति जाणंति कुव्वंति ।। २१२४ ।। सो रयणसारकुमरो, जम्मंतर-विहिय-सुकय-संभारो ।। सह ताहि कनयाहिं, अणुत्तरे भुंजए भोए ॥ २१२५ ।। विविहा रहजत्ताओ बिंबपइट्ठाओ लक्खसंखाओ। संघस्स वि पूयाओ पुणरुत्तं कारए कुमरो ।। २१२६ ।। सम्म जिणिंदधम्मं, काऊण समाहिपत्त-मरणेण ।। सह ताहि कनयाहिं, सो पत्तो अच्चुए कप्पो ।। २१२७ ।। चविउं महाविदेहे पुणरवि धम्म जिणिंद-पन्नत्तं ।। परिवालिय पाविस्सइ, सासय-सोक्खं लहुं मोक्खं ॥ २१२८ ।। परिहरिय महालोहं, विहियं कुमरेण रयणसारेण ॥ जहा इच्छापरिमाणं, तहेव कुव्वंतु अन्ने वि ।। २१२९ ।। इति पंचमाणुव्रते रत्नसारकथानकं समाप्तमिति भद्रम् । जालिहरगच्छनहयलमयंकसिरिदेवसूरिरइयम्मि ।। सिरि पउमप्पहचरिए सम्मत्तो तइय पत्थावो ॥ २१३० ॥ तृतीय प्रस्तावे गाथा संख्या २१२७ सर्वाङ्क ५०२९ ॥ 2010_04 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चउत्थ-पत्थावो दिसिपरिमाणवए संखकुमारकहाः इहलोए परलोए, धणियं गुण-निवहं कारणत्तेण ।। तिन्नेव गुणवयाई, पन्नत्ताई जिणिदेहिं ॥ १ ॥ आहिंडण चाएणं अच्छऽच्छाहार वज्जेणेणं च ॥ तहणत्थदंडचाएण, ताणि कुव्वंति गुण-निवहं ।। २ ।। दिसिपरिमाणं पढम, बिईयं भोगोवभोगपरिमाणं तहणत्थदंडचाओ गुणव्वयं तइयमक्खायं ।। ३ ॥ पुव्वाइ-दसदिसासुं गिहिणो माणं कुणंति जं तत्थ । दिसिपरिमाणं पढमं गुणव्वयं तं जिणा बिंति ।। ४ ।। लोभारंभय सन्नानय दिसिमाणं कुणंति जे मूढा ॥ आरंभे ताण मणो, निरग्गलं भमइ भुवणम्मि ॥ ५ ॥ जह बंधे पक्खित्ते, विसमं विसहरविसं पि न हि उड़े ।। कमइ तहा दिसिमाणे, विहिए जीवस्स आरंभो ॥६॥ तत्ताय पिंडभावे, गिहिभावे जेसि परिमियं खित्तं ।। पसरंतलोहजलही, परमियपाओ फुडं तेसिं ।। ७ ।। उड्व-अहो-तिरिय-दिसा-परिमाणवइक्कमम्मि खित्तस्स ।। वुड्डीए सइभंसे, हवंति इह पंच अइयारा ॥ ८ ॥ सचराचरजीवाणं, रक्खत्थं जो करेइ दिसिमाणं ।। मणवंच्छियलच्छीओ सो पावइ संखकुमरो व्व ।। ९ ।। भुवण-निहाण-निहाणं, इहत्थि भुवणावयंससारिच्छं । भुवणावयंस नामं, मणिमयभवणं पुरं भरहे ।। १० ।। नियमइमाहप्पेणं, अवलोइयभुवणवलयवित्थारो ॥ भुवणावलोयराया, तत्थ पुरे पालए रज्जं ॥ ११ ॥ हरिणंक-किरण-निम्मल-सीला-लीलाए विजियरइ रूवा ॥ सोहग्गभग्गगोरी, तस्स पिया भवणलच्छि त्ति ।। १२ ।। 2010_04 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखकुमारकहा ३८९ इत्तो यसोरियपुरम्मि को वि हु, धुत्तो देसंतराउ संपत्तो ।। गंतूण वणियहट्टे, जंपइ मह देहि घय-पमुहं ॥ १३॥ उप्पाडिया य तेणं, हट्टे घय-दालि-सालिपमुहेहिं॥ दो टंका तं वणियं जंपइ पेसेसु नियपुत्तं ।। १४ ।। दावेमि जेण लब्भंति भणिय गिण्हित्तु तस्स सो पुत्तं ।। गंतुं दोसिय हट्टे, गिण्हिइ चीराणि रम्माणि ॥ १५ ॥ जंपइ दोसियवणियं मह पुत्तो एस तुज्झ पासम्मि ।। चिट्ठिस्सइ अहयं पुण वच्छे ! दावित्तु घरिणीए ।। १६ ॥ हत्थं आगच्छिस्संतो, गंतुं चंडिलस्स सालाए । छिंदावइ नहनिवहं, जंपइ पट्ठवसु निय भज्जं ॥ १७ ॥ दावेमि जेण दव्वं, गंतुं तंबोलियाण हट्टम्मि ।। गिण्हइ पत्तसमूह, जंपइ एसा महं भज्जा ।। १८ ।। तुह पासे चिट्ठिस्सइ, खणमित्तं गिहिऊण तुह दव्वं ॥ जाव समेमि तओ सो पत्तो थेराए गेहम्मि ।। १९ ॥ कय पणिवाओ जंपइ तुहंगजाओम्हि अंब ! तह मह तं ।। माया सि एस बंधुरपडिबंधो हवउ आजम्मं ॥ २० ॥ एवं ति तीए भणिए, अप्पइ चीराणि पत्त-संदोहं ॥ सेच्छाए तीए गेहे, चिट्ठइ सो निच्च निच्चंतो ।। २१ ॥ अह सालिदालिवणिओ गवेसमाणो सुयं नियं पत्तो ।। दोसियहट्टे जंपइ हत्थं उढेसु रे वच्छ ! ।। २२ ।। दोसियवणिओ पभणइ, इमस्स जणएण मज्झ चीराणि ।। गहियाणि तओ दव्वं, दाऊण इमो वयउ इण्हि ॥ २३ ॥ जाओ ताण विवाओ, चंडिल-तंबोलियाण एवं पि ।। भज्जा कज्जे कलहो, केण वि सिटुं महीवइणो । २४ ।। रना समाहवित्ता भणिओ आरक्खिओ अरे धुत्तं ।। 2010_04 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० सिरिपउमप्पहसामिचरियं लहसु तुमं सो जंपइ, आणेमि इमं न संदेहो ।। २५ ।। जइ सत्तमम्मि दिवसे, धुत्तं नाणेमि सामि, तो मज्झ ।। निय सेच्छाए नरवर ! पयंडदंडं करिज्जासु ॥ २६ ॥ थेरिए तस्स कहिए, धुत्तो सत्तम-दिणम्मि गंतूण ।। आरक्खियस्स गेहे, जंपइ तब्भारियाभिमुहं ।। २७ ॥ धुत्तो न चेव पत्तो, रन्ना कुविएण तुज्झ से सामी ! ।। संजमिओ निव-पुरिसा, इह एति तुमं पलाएसु ॥ २८ ॥ भमुयासन्नाए अहं पट्टविओ तेण तुज्झ दइएण ॥ सा वि वराई भीया नासइ मोत्तुं गिहं सुनं ।। २९ ।। सो सव्वं मुसिऊणं, पत्तो थेराए चेव गेहम्मि ।। आरक्खिओ य पच्छा, पत्तो पभणइ कहं भज्जा ॥ ३० ॥ नयरम्मि तस्स हासो, संजाओ तह निवस्स परिसाए ।। कामपडाया वेसा, कुणइ पयन्नं महा धुत्ती ।। ३१ ।। धुत्तो वि तीए गेहे, देसंतर-वाणियस्स वेसेण ।। गच्छइ जंपइ अज्जं, सत्थाहो इह पुरे पत्तो ॥ ३२ ।। तुज्झ पसिद्धि सोउं, सोलस सहिया इमेण पंचसया ।। टंकाण दाविया तो तरंगतरलच्छि ! गिण्हेसु ॥ ३३ ।। सा दट्ठणं दव्वं, मुद्धा लुद्धा इमस्स संलावं ॥ . सोऊण तयं दव्वं, गिण्हइ धुत्तेण वेलविया ।। ३४ ।। तत्तो धुत्तो जंपइ, आगच्छसु मज्झ सामि पासम्मि ॥ चलिया य इमा लुद्धा, वेलविओ को न लोहेण ? ॥ ३५ ।। पुरिबाहिरप्पएसे, गंतुं धुत्तो वि आह सत्थाहो । जा एइ ताव इहयं, पाणीयसालाए वीसमेसु ॥ ३६ ।। जाए निसीहसमए, वसिया तह तेण सा वि धुत्तेण ।। निद्दामुद्दियनयणं, काऊण इमं महाधुत्तो ॥ ३७ ॥ आहरणचीरनिवहं, गिण्हियं थेराइ चेव गेहम्मि ।। 2010_04 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखकुमारकहा पत्तो पच्छा तिस्सा, हासो नयरम्मि संजाओ ॥ ३८ ॥ अह नरवरपरिसाए, अवरा बहूकवडनाडयगरिट्ठा || नामेण कामसेणा, कुणइ पइन्नं तहिं वेसा ॥ ३९॥ जाए संज्झा - समए, धुत्तो गंतूण बुद्धसालाए । जंपर हंहो दारं उघाडह लेह नियपोत्थं ॥ ४० ॥ वाहिं चि विम्हरियं, तुम्ह पडताण भणह मा कहियं ॥ तुट्ठा वयंति नरं, मुसियं केणावि धुत्तेण ॥ ४१ ॥ तत्तो न चेव दारं, उग्घाडेमो इमो वि जंपेइ || मा उग्घाडह दारं गिण्हह एयं तु नियपोत्थं ॥ ४२ ॥ बुद्धे बहिं विहिए हत्थे छिंदित्तु तं महाधुत्तो ॥ गिण्हिय वच्चइ न किमवि कवडाणमगोयरे नूणं ॥ ४३ ॥ तं हत्थं निय हत्थे, बंधित्ता वयइ कामसेणाए || हम्म इमोसा विधुत्ती जाणेइ तं धुत्तं ॥ ४४ ॥ अह सुरयसमत्तीए, धुत्तो पभणेइ भवणवाहम्मि || आयमणकए अहयं, वच्चेमि तओ इमा वयइ ।। ४५ ।। इह चेव आयमिज्जसु सो जंपइ मज्झ किं न वीसससि ? ॥ जइ एवं तो एयं, मह हत्थं गिण्हसु मयच्छि ! ॥ ४६ ॥ अप्पित्तु कामसेणा हत्थे तं चेव छिंदियं हत्थं ॥ आयमइ वित्थरेणं, वर धुत्तो सोयवाई सो ॥ ४७ ॥ ओणमियमुहं काउं, करवत्तिं कामसेण हत्थम्मि ॥ परिहरिय तयं हत्थं, धुत्तो निग्गच्छए सहसा ॥ ४८ ॥ जाए पायसमए, एसा गच्छइ नरिंदपरिसाए । जंपइ नरिंद ! एसो, धुत्तकरो आणिओ एत्थ ॥ ४९ ॥ सो चेव य नायव्वो धुत्त जस्सत्थि छिंदिओ हत्थो ॥ अह सो सहसा बुद्धो, पुक्करमाणो तहिं पत्तो ॥ ५० ॥ सो जंपइ भो रायं केण वि धुत्तेण एस मज्झ करो ॥ 2010_04 ३९१ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं छिनो त्ति तओ स्ना भणिया वेसा किमेयं ति ? ॥ ५१ ।। अह सा सयलसहाए परिहसिया जाइ निययगेहम्मि । तो कुणइ रायरजओ पइन्नमइ-कूडकवडनिही ।। ५२ ।। धुत्तो वि तस्स गेहे, संज्झा समयम्मि वयइ तेणावि ।। पुट्ठो जंपइ अहयं, कलिंगदेसाओ संपत्तो ॥ ५३ ।। जो मं नियए गेहे, वंठं धारेइ तस्स गेहम्मि ।। चिट्ठामि रंजिएणं, रजएणं धारिओ तत्तो ।। ५४ ।। वेणकलाकुसलेणं, पक्खालिंतेण विविहवत्थाणि।। हरिऊण तस्स हिययं, एसो वीसासिओ कमसो ।। ५५ ॥ सुत्तम्मि तम्मि रन्नो, पहाणचीराणि तस्स गेहाओ ।। हरिऊण महाधुत्तो, पत्तो थेराए गेहम्मि ।। ५६ ॥ जामिणि-विराम-समए, हसिओ रयगो वि सव्वलोएण ।। रना कया पइन्ना, तत्तो धुत्तस्स गहणत्थं ।। ५७ ।। आरक्खियं पयंपइ, राया बंधेसु पउलि-दाराणि ।। मा निग्गमप्पवेसं, कस्सवि दिज्जासु निसिसमए ।। ५८ ।। सयमेव निवो तत्तो, तुरयारूढो भमेइ सव्वत्थ ।। धुत्तं गवेसयंतो, पउलीदारेइ ठाणेसं ।। ५९ ॥ धुत्तो उण खरपिटे, आरोविय पवरवत्थसंदोहं ।। होऊण रयगरूवो, वच्चइ पउलीदुवारम्मि ॥ ६० ॥ जंपेइ जामइल्लं, उग्घाडसु झत्ति पउलि-दाराणि ।। सो जंपइ पडिसिद्धं, दाराणुग्घाडणं रना ।। ६१ ।। धुत्तो जंपइ रनो, इमाणि चीराणि जइ विणस्संति॥ तत्तो निवस्स पुरओ तुमए पच्चुत्तरं कज्जं ॥ ६२॥ भीएण तेण दाराणि, झत्ति उग्घाडियाणि पउलीए । निग्गच्छइ सो धुत्तो गच्छइ सरपालिसिहरम्मि ।। ६३ ।। जंपइ मच्छियमेगं नाससु रे मूढ ! एइ नरनाहो ।। 2010_04 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ संखकुमारकहा धुत्तं गवेसयंतो, तुममेव धरिस्सए नूणं ॥ ६४ ॥ सरसलिलमज्झ देसे, इमम्मि नट्ठम्मि सो महाधुत्तो ।। तत्थेव खरं मोत्तुं, चलिओ पुरसंमुहो सहसा ।। ६५ ।। इत्तो य महिनाहो, पुराउ नाऊण निग्गयं धुत्तं ।। बाहिं गवेसयंतो, आगच्छइ सम्मुहो तस्स ।। ६६ ।। रना पुट्ठो, दिट्ठो, को वि हु पुरिसो सगद्दहो तुमए ।। धुत्तो जंपइ चिट्ठइ, नट्ठो सर-सलिल-मज्झम्मि ।। ६७ ॥ रना भणियं तुरियं, इमं धरेज्जासु जेण केसेसु ।। गहिऊण सरवराओ हत्थं कड्डेमि तं धुत्तं ।। ६८ ॥ आमं ति तेण भणिए, राया जा विसइ सलिलमज्झम्मि । ता तुरयमारुहित्ता, चलिओ धुत्तो पुराभिमुहं ॥ ६९ ।। पविसित्तु जामइल्लं, जंपइ बंधेसु पउलिदाराणि ।। 'मा कस्स वि प्पवेसं, दिज्जसु धुत्तो जओ निहओ ।। ७० ॥ तेना वि तह त्ति विहिए, नरनाहो सासभरियमुहविवरो । पत्तो पउलिद्दारे, जंपइ विहडेसु दाराणि ॥ ७१ ॥ पाहरिओ वि पयंपइ, तुरयारूढो नरेसरो मज्झ ।। चिट्ठइ तत्तो तुमयं, न होसि राया धुवं अन्नो ॥ ७२ ।। धुत्तो वि हयारूढो, पाहरियं चयइ मा हु दाराणि ।। उग्घाडसु धुवमित्तो, अन्नो धुत्तो इहं पत्तो ॥ ७३ ।। राया विलक्ख-चित्तो, चिंतइ धुत्तेण धुत्तिओ अहयं ।। नूणं विजयपडाया, गहिया एएण धुत्तेण ।। ७४ ।। ता संपइ धुत्तं चिय सामगिराए भणेमि जेण इमो।। भणिऊण जामइल्लं, विहिडावइ पउलिदाराणि ।। ७५ ।। इय चिंतिय नरनाहो, जंपइ हे धुत्त ! धुत्तिया पुहई ।। तुम पच्चिय ता तुट्ठो, वरसु वरं कमवि मणइटुं ।। ७६ ॥ अह पायडिउं अप्पं, विहिडावइ झत्ति पउलिदाराणि ।। 2010_04 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं महिमिलियमउलिकमलो पणमइ धुत्तो महीनाहं ॥ ७७ ॥ रन्ना पसायपुव्वं, दिनो पुट्ठो तस्स निय हत्थो ।। दिट्ठो य सबहुमाणं, अच्छिरयमयाए दिट्ठीए ।। ७८ ।। धुत्तो निवप्पसाया, सेच्छाए पुरम्मि भमइ विलसेइ ।। निययं कलाकलावं, पयडइ अच्छरिय संजणयं ।। ७९ ।। समयंतरम्मि चिंतइ, किमहं चिट्ठामि इत्थ संजमिओ ।। पिच्छामि किं न सयलं, महिवलयं चित्तसंजणयं ।। ८० ॥ सो किं भन्नइ पुरिसो, उंबर-पसउ व्व जो तहिं चेव ।। उप्पन्नो य विलीणो, अदिट्ठमहिवलयवित्थारो ।। ८१ ।। ता किं इमिणा बहु चिंतिएण गच्छामि दूर देसम्मि ।। इय चितिय नरवइणा, अकहियवत्तं गओ धुत्तो ॥ ८२ ।। गामागरपुरपट्टण,सहस्समेसो कमेण धुत्तंतो ।। भुवणावयंसनयरे, पत्तो वीसमइ तरुमूले ।। ८३ ।। नव फुल्लगंध-लालस-फुल्लं धुयरोलमुहलसाहालं ।। साहालंबभुयाहिं परिरंभियसयलदिसिचक्कं ।। ८४ ।। चक्कंक-चंचु-पिंजर-पराय-पिंजरिय-गयण-वित्थारं ।। वित्थार-विजिय-नंदण-काणण-वर-साहिपब्भारं ।। ८५ ।। पिच्छित्तु चंपयतलं, अणेयसंकप्प-कप्पिय-पमोओ। कयचित्तचमक्कारं, सयमेव पयंपए धुत्तो ।। ८६ ।। हारि-नियवन-निज्जियजच्च-सुवनस्स अहह एयस्स ।। विलसिरच्छप्पय-चंपय-तरुस्स सोहा नवा का वि ।। ८७ ।। एयस्स तले तरुणो तत्तो जुत्तं विसाल-धवलहरं ।। वरसाल-भंजियालं, सत्तममणि-विहियसत्ततलं ।। ८८ ।। पासो वासे एयस्स, असममणिरयणनिवहविहियाणि ।। जुत्ताणि मंदिराई, अंतेउरियाण सव्वाण ।। ८९ ।। एत्थ य कीलावावी जुत्ता जुत्तं च इत्थ पमयवणं ।। 2010_04 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखकुमारकहा ३९५ एत्थ य गयहयसाला, इत्थ य राया अहं जुत्तो ।। ९० ।। सोउं असोयणिज्जं, असंभविज्जं च तस्स तं वयणं । जंपइ वंतरदेवी, वरतरुणो सामिणी तस्स ।। ९१ ॥ रे मूढ ! तं न याणसि, अप्पाणं देसभमणदुल्ललिय ।। पेच्छामि तं न तणुमवि तणुम्मि तुह लक्खणं कमवि ।। ९२ ।। जेण तुह वंछियत्थो, एसो संपज्जए असेसो वि ।। देवि जंपइ धुत्तो, सुमरसु एयं नियं भणियं ॥ ९३ ।। जइ सयदिणाण मज्झे नाहं साहेमि भासियं निययं ॥ ता तुह पच्चक्खं चिय, चियाए पविसेमि किं बहुणा? ।। ९४ ।। अह नयरम्मि विसंतो, पुरदारे नियइ दारवासिणी भवणं ।। चिंतित्तु किमवि चित्ते, पविसइ तत्थेव भवणम्मि ।। ९५ ।। काऊण करे खडियं, कडित्त कत्तालयाइमेलित्ता ॥ जेवालकितवपमुहं कप्पिय सो खिल्लए जूयं ।। ९६ ।। लंबोदरखित्ताहिव-जक्खाहिव-दारवासिणी-पमुहे ॥ छाहं चडावयंतो, जिणइ इमो टंकलक्खाणि ।। ९७ ।। संहरिय अंकनियरं, महंतपाहाणखंडकलियकरो ।। लंबोदरं पयंपइ, इण्हं मह देसु लहणिज्जं ।। ९८ ।। अन्नह तिकोणपाहणकोणग्घाएण लंबमुदरं ते ।। दारेमि अहं एसो, मा भणिहिसि जं न कहियंति ।। ९९ ।। इय जंपिय उप्पाडइ, तं उवलं जाव ताव भीएण ।। लंबोदरेण दिन्ना, दो लक्खा तस्स टंकाणं ।। १०० ।। एवमवरे वि तियसा गहिया धुत्तेण निय नियं लब्भं ।। जयइ धुत्तत्तसाहसमहिमा, भुवणम्मि अक्खलिओ ।। १०१ ॥ गंतुं चंपयमूले, झत्ति इमो मुत्तहारनिवहेहिं ।। सव्वं पि पुव्वभणियं, रम्मं निम्मावए धुत्तो ।। १०२ ॥ तत्तो सहस्स-टंकय-सुलभभोगाए चंगअंगाए ।। 2010_04 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सह विलसइ तत्थ इमो, अणंगसेणाए वेसाए ॥ १०३ ।। जंपइ चंपयसामिणि, देवि संभरसु भासियं निययं ।। सव्वं पि मएभिहियं समीहियं किं न विहियंति ।। १०४ ।। अह तस्स धुत्तचिट्ठिय रुट्ठा सा वाणमंतरी सहसा ।। अट्टहासपूरिय नहविवरा जंपए धुत्तं ॥ १०५ ।। रे धुत्त ! नियय धुत्तिमधुत्तिय नीसेस तियसनरविसर ! ।। पाविट्ठ धिट्ठ रे दुट्ठ ! होसि निक्किट्ठ न हु अज्ज ॥ १०६ ।। बहुदेस भमण-विन्नाण-गव्वसव्वस्स पच्चयं तुज्झ ।। चिर संचियं पि अज्जं, न एमि सयसिक्करं एसा ॥ १०७ । तो धुत्तं केसेसुं धरिऊण, पुरस्स मज्झयारम्मि । नेऊण तस्स चरियं साहइ सव्वं पि लोयाणं ।। १०८ ।। अहयं खलु निद्दोसा, एसो पावेउ निययपावफलं । इय भणिय तीए कत्थ वि पक्खित्तो झत्ति सो धुत्तो ।। १०९ ।। नाणाविहदेसाणं, भमणमकारणमणत्थसत्थाणं ।। धुत्तस्स धुवं जायं, निसुयमिणं संखकुमरेण ।। ११० ।। धणदत्तधणि-सुएणं, तत्तो सुरगुरु-गुरूण पयमूले ॥ दिसिपरिमाणं विहियं, दसदिसिमाणेण विच्छिन्नं ॥ १११ ॥ ससि-संख-कुंद-निम्मिलमणस्स अह तस्स संख-कुमरस्स ॥ परिगलइ को वि कालो, सम्मं धम्म करितस्स ।। ११२ ॥ एत्तो य तामलित्ती, निवासिणा रिसहदत्तवरवणिणा ।। कुमरस्स नियय कन्ना, दिन्ना नामेण रयणवई ।। ११३ ॥ ताणमणनमणाणं, निब्भरपडिबंध-बंधुरं जोगं ।। कलिउं नरनारिगणो, तं चिय मिहुणं पसंसेइ ॥ ११४ ।। निच्चं पि रम्मपिम्मा लीला लीला-निवास-सारिच्छा ।। सा तस्स हिययकमले, कमलालीलाइयं वहई । ११५ ॥ अह अत्थसिहरिसिहरं, पत्ते सहस त्ति सत्ततुरयम्मि ।। 2010_04 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ संखकुमारकहा निविडंधयारसायरमग्गम्मि जए समग्गम्मि ।। ११६ ।। दिप्पंतरयणदीवं, सुरसरिया-पुलिण-सरिस-पल्लंकं ।। थंभनिवेसियफुल्लं-फुलं धुयहारिझंकारं ॥ ११७ ।। जालगवक्ख-विणिग्गय-कालागुरु-धूव-वासियदियंतं ।। निम्महिय-नीरसायर-तरंग-विलसंतउल्लोयं ।। ११८ ।। सेधिपुरंधीयण-कंकणगण-रावजणियसवण-सुहं । निव्विटीकयपंकय-टिविडिक्कियकुट्टिमं तह य ।। ११९ ॥ मन-नयण-हरिस-कारणमसमं सो वासभवणमइरम्मं ।। कयचंगअंगभोगो, पियाए जुत्तो समणुपत्तो ।। १२० ।। पञ्चभिःकुलकं रयवस-किलंतगत्तो, निब्भर-निद्दाइ-जाव पासुत्तो ।। कित्तियमित्ते समए, समइक्कंतम्मि जग्गेइ ॥ १२१ ।। ता न नियइ नियपासे, तं तरुणि तरुण-हरिणि-तरलच्छि ।। अप्पाणं चिय केवलमवलोयइ सो तया कुमरो ।। १२२ ।। झत्ति धसक्किय चित्तो, समुट्ठिओ भवणवलहिपेरंतं ।।। पिच्छइ दस वि दिसाओ तह मूढपहु व्व सो नियइ ।। १२३ ।। नियदइयमपिच्छंतो, महल्लसेरंधिजामइल्लनरे ।। पुच्छइ कि तुब्भेहिं, सा दिट्टा तत्थ हरिणच्छी ।। १२४ ॥ नहि नहि नहि त्ति तेहि वि, भणिए सो तार तार संरावं ।। विलवियकरकलियासी, नीहरिओ वासभवणाओ ॥ १२५ ।। आराम-काम-मंदिर-कोलागिरि-सरिसमूहमविरामं ।। अमणिय मग्ग-परिस्सममवलोइ य सो पिया कज्जे ॥ १२६ ॥ रे चंपय ! नव चंपय-गोरि हरिया तए न संदेहो ॥ अन्नह रवन्नवन्नो, कत्तो तुमए कहसु पत्तो ।। १२७ ।। इच्चाइ विविह-वाउल-संलाव-विणोयगमिय बहुदियहो । 2010_04 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं समयंतरम्मि पत्तो, तुंगगिरिसिंगमइरम्मं ।। १२८ ।। खरकरकिरणकरंबियगणणंगणमेस पिच्छिरो कुमरो ।। हंसाधिरूढमेगं नियइ नरं नहयले जंतं ॥ १२९ ।। अच्छरिय भरिय हिययस्स, तस्स पासम्मि सो वि पुरिसो वि॥ अवयरिओ सव्वं पि हु नियठाणं कामचारीणं ।। १३० ।। तं सरण-निद्ध-लोयण-पलोयमाणं निरिक्खिउं पुरिसं ॥ सो आह संखकुमरो, पणयपगब्भाए वाणीए ।। १३१ ॥ पिच्छित्तु तुज्झ नहगमसत्तिं मह झत्ति विम्हओ जाओ ।। तुह अवयरणं पुलइय उत्तरिओ दुक्खपन्भारो ।। १३२ ॥ ता काऊण पसायं, साहसु निय नाम नयरगोत्ताणि ।। तह कहसु एस हंसो, कट्ठमओ कह नहे जाओ ।। १३३ ॥ सो पुरिसो वि पयंपइ, सुंदर ! सुंदरपुरं ति अइरम्मं ॥ पुरमत्थि अत्थि चत्तं, पुरेसु पत्तं परं कित्तिं ॥ १३४ ।। चउरंग-चमू-साहिय-महिवलओ तत्थ अस्थि महिनाहो । चउभेयनायजुत्तो सुंदरतिलउ त्ति नामेण ।। १३५ ।। तेणमवीसरेणं, आइट्ठो सुत्तहार-सिरिसिहरो ।। मइविजियविस्सकम्मो, नामेणं निउणबुद्धि त्ति ॥ १३६ ।। हं हो करेसु सहसा, वरभवणं चारुदारुनिफ्फन्नं ।। एगत्थंभविराइयमिह सरसलिलस्स मज्झम्मि ।। १३७ ॥ आएसो त्ति भणित्ता, गंतुं वणसंड-मज्झयारम्मि ।। लक्खणलक्खियमेसो, निरिक्खए दारुसंभारं ।। १३८ ।। पुन्नाग-नाग-सागाइ-विविहसालाण संगहंतेण ।। कुव्वंतेण दिटुं, कटुं एगं महालटुं ॥ १३९ ।। कटेण तेण विहिओ कीलासंचारविहियनहगमणो ।। एसो हंसो नियगइजियहंसो पुण विजियहंसो ।। १४० ॥ सर-सलिल-मज्झ-देसे, नहयल-विलसिर-पडाइयालडहं ।। 2010_04 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ संखकुमारकहा रन्नो भवणं विहियं जह भणियं सेसदारुहिं ।। १४१ ।। रायप्पसाय-पावियमहंतविहओ वि कोउहल्लेण ।।। तक्खा सक्खा भुवणस्स हिंडए हंसमारूढो ।। १४२ ।। सो हं हंसारूढो, इह पत्तो परिस-विसर-सिरवयणं ।। दट्टण तुमं कीलाचारेणं एत्थ अवइन्नो ।। १४३ ॥ सुपुरिस ! नियवुत्तंतो, तुज्झ मए साहिओ इमो सव्वो ।। संपइ नियवुत्तंतं. तुमं पि साहेसु सव्वं पि ॥ १४४ ।। कुमरो जंपइ भुवणावयंसनयरम्मि संखकुमरोहं ।। धणदत्तइब्भपुत्तो, रयणवई नाम मह भज्जा ।। १४५ ।। सह तीए वासभवणे, सुहं पसुत्तस्स कमलदलनयणा ॥ हरिया केण वि एसा, निद्दा गहिओ अहं छलिओ ॥ १४६ ।। तं चिय गवेसयंतो, इह पत्तो नहयलम्मि तुमए वि ।। परिभमिरेणं दिट्टा, का वि हु तरुणी विरहगहिया ॥ १४७ ।। अह आह सो वि तरका कुमार ! निसुणेसु हविय उवउत्तो ॥ सुंदरपुरे पुरे सो सुंदरतिलओ महीनाहो ॥ १४८ ।। अहिणव वसंतसमए, लसंतनवकुसुमसालमभिरामं ।। मत्तमऊरारामं पत्तो नरविसरपरियरिओ ॥ १४९ ।। तरुणतरुमंजरिवियसियकुसुमावचायजलकेलिं ।। काऊण निसारंभे, पविसइ कयलीहरस्संतो ॥ १५० ।। एत्थंतरम्मि राया, कंचणमयदंडमंडियकरेणं ।। दंडप्पमाणपुव्वं, पडिहारवरेण विन्नत्ता ।। १५१ ।। आरामदारदेसे, चिट्ठइ देसंतराउ संपत्तो ।। कोलायारपरायण पढमो सिरि विक्कमाणंदो ।। १५२ ।। अवणीसरो पयंपइ, सिग्घं पविसेसु तयणु पडिहारो ।। जोईसरेण सहसा, सह पत्तो रायपासम्मि ॥ १५३ ॥ रनापणामपुव्वं, कंचणसीहासणम्मि उवविठ्ठो । 2010_04 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पुट्ठो दंससु किंचि वि अच्छरियं अह इमो वयइ ॥ १५४॥ हरसिरजडाउगंगं, लच्छि लच्छीहरस्स वच्छाओ || आयच्छेमि नरेसर ! मणिनिवहं सेससीसाओ ।। १५५ ।। साहेमि दुसज्झं पि हु, अगम्ममवि जामि तिहुयणे सयले ॥ तं नत्थि जं न सहसा, करेमि मह कहसु मणइटुं ॥ १५६ ॥ रायसयासनिविट्ठो, भासइ वेहासिउ मए दिट्ठा | आरामे विलसंती, संखकुमरेण सह तरुणी ॥ १५७ ॥ सा इह आणेयव्वा तुमए जइ अत्थि का वि तुह सत्ती ॥ इय भणिओ सो जोई, झड त्ति झाणं कुणइ तत्थ ॥ १५८ ॥ खणमित्तेण निरंतररणज्झणायंतरयणमंजीरा || सुत्त विबुद्धा मुद्धा, नहमग्गेणं समणुपत्ता ।। १५९ ।। रन्ना ल्हसंतवसणा लुलंतचिहुरा तरंततरलच्छी || वरकुंभिकुंभसिहिणि, अदिट्ठपुव्वा इमा दिट्ठा ॥ १६० ॥ सव्वो वि पासदेसा, निग्गच्छइ नरवइस्स परिवारो ॥ ते चेव धुयं छेया, मुणंति जे कज्ज -परमत्थं ॥ १६१ ॥ अह आह महिनाहो, सुंदरि ! सुंदरपुरस्स राया हं ॥ मा मा मं अवगन्नसु, करेसु करभोरु ! मह भणियं ॥ १६२ ॥ सा जंपइ सयलपया सामिय ! तुह इह निसामियं वयणं ॥ पुणरुत्तं एवं चि मा भणिहसि नणु निसिद्धोसि ॥ १६३ ॥ निवडंतु सव्व सूरा सव्वे मुंचंतु जलहिणो मेरं || विचलंतु सव्व सेला सीलं भंजेमि न हि अहियं ॥ १६४ ॥ अह राया रायाउर-चित्तो चिंतेइ धुवमिमा मज्झ ॥ जोईसरवरसत्ती, माहप्पेणं वसे होहि ॥ १६५ ॥ एवं च चितइत्ता में आहविउं करावए भवणं ॥ सरसलिलमज्झ देसे, मुंचइ तत्थेव तं तरुणि ॥ १६६ ॥ अह निवउवरोहेणं, काउय संवरणणचुन्नबहुमंते | 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखकुमारकहा १९ • जुंजइ जोई तह वि हु न इमा अहिलसइ नरनाहं ॥ १६७ ॥ ता जइ नियदइयाए, कज्जं आरुहसु तो इमं हंसं ॥ हत्थं चिय गच्छामो, जेण वयं तत्थ नयरम्मि ॥ १६८ ॥ कुमरोजंप कित्तिय मित्ते दूरम्मि तं पुरं एसो || आह इमाउ नगाओ, तं जोयणसयचउक्केण ॥ १६९ ॥ जित्तिय मित्तो कालो, निम्मेस उम्मेस- अंतरालम्मि ॥ तित्तिय कालेण तुमं हंसगओ तत्थ वच्चिहसि ॥ १७० ॥ सो आह सच्चमेयं, किं पुण मह अत्थि चउसु वि दिसासु ॥ जोयणसयदुगअहिए, गमेण गुरु सक्खिओ नियमो ॥ १७१ ॥ अज्जं वा कल्लं वा भज्जा जीवंतयस्स मह मिलिही ॥ सयमेव भग्गनियमो न कह वि मिलिही जुगंते वि ॥ १७२ ॥ धणजणणिजणयचाओ अहव पियाए हविज्ज परिहारो ॥ देहं पि दहउ विरहो तह वि न भंजेमि नियनियमं ॥ १७३ ॥ वज्जरइ निउणबुद्धी, तसाइ - संमद्दवज्जणनिमित्तं ॥ किज्जइदिसिपरिमाणं, वज्जिज्जइ अहियंदिसिगमणं ॥ १७४ ॥ न हि नहयलगमणेणं, कस्स वि जीवस्स होइ संहारो || तम्हा विहियवयस्स वि अविरुद्धं तुज्झ नहगमणं ॥ १७५ ॥ अहना अवर दिसाए, खिवित्तु जोयणसयाणि अह दोन्नि ॥ आगच्छसु तत्थ पुरे जइ तं नियपिययमं महसि ॥ १७६ ॥ सो आह हयलेण वि कयावि अप्पस्स अहव अन्नस्स ॥ अहवा वंछियनयरे, गयस्स संभवइ जीववहो । १७७ ॥ तह अवराइदिसाए, माणं पक्खिविय तत्थ गमणं जं ॥ ते धुवं अइयारो, हवइ विसुद्धस्स नियमस्स ॥ १७८ ॥ सो जंपइ जइ एवं, तो हं गंतूण तत्थ नयरम्मि || आमि तुज्झ भज्जं, जइ आएसं पयच्छेसि ॥ १७९ ॥ कुमरो जंपइ नाहं तुमं पि पेसेमि जेण एवं पि ॥ 2010_04 ४०१ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो चिर पालिय नियमो नियमा खंडिज्जए मज्झ ॥ १८० ॥ अह तस्स असमसाहसरंजियचित्तेण पुप्फचूलेण ।।। वंतरसुरेण तग्गिरिनिवासिणा सो इमं भणिओ ।। १८१ ।। हे संख कुमर ! ससहर-संखच्छवि सच्छहा गुणा तुज्झ ।। नियमंतु जणमणाई, जं परिरंजंति तं चित्तं ।। १८२ ।। नमिमो नमिमो नमिमो, तुह पयजुयलं सयावि पुण नमिमो । विसमवसणे वि एरिस नियवयनिव्वाहणं जस्स ॥ १८३ ।। वीरजणणी सुजणणी रेहं तुह चेव लहइ जा उयरे । धारियपुव्वा तुमयं, अउव्व निय चरियभरियजयं ॥ १८४ ॥ वीरेसु जयपडाया, गहिया गोत्तं पवित्तियं जं मो।। विहिओ सहलो तुमए भवजलही पाविओ पारं ॥ १८५ ॥ एत्थंतरम्मि नियरयजियमणवेगं फुरंतकरमेगं ।। पत्तं महप्पमाणं मणहरणं मणिमय-विमाणं ॥ १८६ ॥ तम्मज्झाओ सरजलमज्झाओ कमलिणि व्व रयणवई॥ नीहरियहसियनवमुहकमला रविमिव नियइ कुमरं ।। १८७ ॥ उल्लवइ पुप्फचूलो निम्मलसीला कुमार ! तुह दइया ।। एसा मए स किंकरसुरेणमाणाविया एत्थ ॥ १८८ ।।। सुंदरतिलयस्स मुहे, मसिकुच्चो हवउ हवउ मह सहलो ॥ परिसमलवो वि गिण्हउ कुमरो नियपिययमं एयं ।। १८९ ॥ पडिबंध-बंधुराणं, निम्मलसीलाण सरिसचित्ताणं ॥ मिलियाण ताण दोण्ह,वि अउव्व सोहा परिप्फुरइ ।। १९० ॥ अह आह निउणबुद्धी कुमार ! मित्तो गुरू य मह तं सि ॥ तत्तो गिहत्थधम्मं, साहसु आमूल-पज्जंतं ।। १९१ ।। तत्तो वित्थरपुव्वं, गिहत्थधम्म परूवए कुमरो ।। तिसिउ व्व अमयपाणं, एसो पडिवज्जए तं पि ॥ १९२ ॥ कट्ठगया वि हु गरुया तरंति लीलाए वसणजलरासिं ।। 2010_04 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४०३ पवहणनिवहसरिच्छा हत्थं तारंति तह अन्नं ।। १९३ ।। भुवणावयंसनयरे विमाणजाणेण पुप्फचूलो वि ॥ मोत्तूण ताण तिन्नि वि सयं नियं ठाणमणुपत्तो ।। १९४ ।। एसो उण निउणमई, कुमारपडिबंधबद्धमणवित्ती ।। गिहिधम्म कुव्वंतो, निवसइ तत्थेव नयरम्मि ।। १९५ ।। परिवालिय गिहिधम्म, दाणं दाऊण समणसंघस्स ॥ सिद्धतं लेहाविय, निम्माविय-बिंब-निउरुंबं । १९६ ।। उत्तंगसिहररेहिरमइरम्मं निम्मवित्त जिणभवणं ॥ समए विहिणा तिन्नि वि चयंति ते जज्जरं देहं ।। १९७ ॥ संखो रयणवई वि हु अच्चुयकप्पम्मि निउणबुद्धी वि ।। बावीससागराऊ, तिन्नि वि तियसा समुप्पना ॥ १९८ ॥ चविया जंबुद्दीवे, एखए पवरगोत्तजाईसु॥ उववन्ना कयपुन्ना, सासय-सोक्खं लहिस्संति ॥ १९९ ॥ जह संखकुमारेणं, दिसिपरिमाणं न खंडियं कह वि ।। तह न हि खंडेयव्वं अन्नेहि वि मोक्खकंखीहिं ।। २०० ।। ॥ इति दिग्व्रते शंखकुमारकथा समाप्ता ॥ गाथा ५२२८ ।। भोगोपभोगपरिमाणवए महापउमकुमार कहा : दिसिपरिमाणं भणियं, इन्हि भोंगोवभोगपरिमाणं ।। पयडे संखेवेणं, दिटुंतजुयं परूवेम्मि ॥ २०१॥ भुजंतमपुणरुत्तं, भोगं जाणिज्ज अन्नकुसुमाई ।। पुणरुत्तं भुज्जं भज्जा-सिज्जाइउवभोगं ॥ २०२ ।। भोयण-कम्म विभेया, दुविहं भोगोवभोगपरिमाणं ।। महु-मक्खणाइ-मज्जं, मंसं वज्जिज्ज पढमम्मि ।। २०३ ।। पंचुंबरि-अन्नायं, फलं च विदलं च गोरसुम्मीसं ।। वइंगणमणंतकायं, रयणीभत्तं च वज्जिज्जा ।। २०४ ।। पाणिगणघायजायं बीभच्छं मच्छियाण निच्छुढं ।। 2010_04 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मूढा महुं पि महुरं, मन्नंता अहह भुंजंति ॥ २०५ ।। अंतमुहुत्ताउ परं, सुहुमा जायंति जंतुणो जत्थ ।। तव्वण्णा तग्गंधा, तं नवणीयं विवज्जेह ॥ २०६ ॥ सज्जोसं सज्जंते, असंखजीवाण जत्थ संताणा ।। तव्वन्ना तग्गंधा कवलं ति न तं वुहा पललं ॥ २०७॥ दुग्गम्मि य दूरम्मि य दुग्गइमग्गम्मि संबलं विउलं॥ सुगइपहपट्ठियाणं अमंगलं जंगलं चयसु ॥ २०८ ।। निरयगइगमणकारणमसेसगुणनिवहवारणं घोरं ।। परिहरसु वारुणि, जइ महेसि माहप्पमप्पस्स ।। २०९ ॥ पिप्पल-पिलस्स-उंबर-काउंबर-वड-तरूण-पंचण्हं ।। किमिजाल-संकुलाइं, फलाइं वज्जिज्ज जत्तेण ॥ २१० ॥ अनेण अप्पणा वा फलं वियाणित्तु भुंजिउयं जुत्तं ।। मा होउ विसफले वा, पडिसिद्धे वावि पडिवत्ती ।। २११ ॥ पल्लंकसट्ठसागा मुग्गगयं आमगोरसुम्मीसं ॥ केवलिपच्चक्खेहिं, जीवेहिं जुयं विवज्जिज्जा ॥ २१२ ॥ एक्कम्मि चेव कंदे होंति असंखाणि जीवदेहाणि ।। एक्केक्कम्मिय देहे अणंतजीवा मुणेयव्वा ॥ २१३ ॥ तो णंतजीवमइयं, कंदं पढमुग्गमंतकिसलं च ॥ गिरिकनियाइ सव्वं, समयाभिहियं विवज्जेज्जा ।। २१४ ।। लोइय लोउत्तरिए, सिद्धते सव्वहा वि पडिसिद्धं ॥ संपाइमसंसज्जिमजीवजुयं चयसु निसिभत्तं ॥ २१५ ॥ दिवसस्स अंतिमाओ पढमाओ दोन्नि दोनि घडियाओ। चयउ निसिभत्त-विरमण विसुद्धनियमं समीहंतो ।। २१६ ॥ भज्जाणं परिमाणं, माणं सिज्जाण वत्थपरिमाणं ।। आसणमाणं च तहा, विरत्तचित्ते करिज्जासु ॥ २१७ ॥ दुइयम्मि पुणो भेए, बहुजीवखयंकराणि वज्जिज्जा ।। 2010_04 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ महापउमकुमरकहा कम्मस्स कारणाई, कम्मादाणाणि पन्नरस ॥ २१८ ॥ इह सच्चित्ताहारो, संबद्धो तेण तेण तह मीसो ।।। दुप्पक्को तुच्छोसहिभक्खणमिइ चयसु आयारे ।। २१९ ॥ भोगोवभोगसन्ना, जे सत्ता मारिऊण पाणिगणे । पोसंति समप्पाणं तान वि अप्पा न सासइओ ॥ २२० । भोगोवभोगनियम, पाणच्चाए वि जे न भंजंति ।। ते तियसनिवहपुज्जा होति महापउमकुमर व्व ॥ २२१॥ तथाहि :फालिह-मणिमय-साला विमाणमाणा समाणगिहमाला ।। अकलंकसीलमहिला महिला नामेण वरनयरी ।। २२२ ।। पररायकित्ति काणण-निम्मूलण-मत्त-कुंजरायारो ।। गिरिकुंजरो वियरिऊ, राया रिउकुंजरो तत्थ ॥ २२३ ॥ सव्वंगचंगदेहा, भुवणत्तय-तरुणि-पत्त-जयरेहा ॥ निय पियनिबद्धनेहा, वम्महरेहा पिया तस्स ।। २२४ ।। सुमिणंतरम्मि वियसिय-पंकियसहसंहमणहरं वयणे ।। पविसंतं पउमसरे, पेच्छइ संतत्थ हरिणच्छी ।। २२५ ।। पुट्ठो इमाए राया सुयजम्म, कहइ हरिसपडिहत्थो ।। निसमिय निय पियवयणा वियसियनयणा इमा जाया ॥ २२६ ॥ समयम्मि सा पसूया, वियसियनवकमलगब्भसमवनं ।। तणयं लक्खणलक्खियममन्त्रलायन्नसंपुन्नं ॥ २२७ ।। दासीजनवित्रत्तो, तत्तो कारेइ नियपुरे राया ॥ वद्धावणयं जणमणनयणाण महूसवायंतं ॥ २२८ ॥ पउमसरदसणाओ, नामं विहियं पसत्थदियहम्मि ॥ ऊसवपुव्वं रना, तस्स महापउमकुमरो त्ति ॥ २२९ ।। तो पंचहिं धाइहिं, लालिज्जतो पवड्ढए कुमरो ।।। नंदणकाणणरोवियचंदणाण विडवि व्व सो कमसो ।। २३० ।। 2010_04 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अह अट्टमम्मि वरिसे सक्खी काऊण सो उवज्झायं ।। सयलं कलाकलावं, कुमरो परिकलइ लीलाए ।। २३१ ॥ एत्थंतरे वणंतरचारी तह विरहिहरिणसंहारी ।। दुइंत-सिसिर-वारण-दारण-अइभीमवावारो ।। २३२ ॥ अंतो निलीणमहुयर-पाडल-वर-कुसुम-नयण-दुद्धरिसो॥ पवणचललवलिजीहो, वसंतसीहो तहिं पत्तो ।। २३३ ।। मल्लीवल्लीसु दिन्ना भुवणमणहरा कुंदलच्छी असेसा, धोयस्सेयं सुएसं पयमिहविहियं रत्तवत्थाण सव्वं ॥ गोरव्वा चंददित्ती न उण रविकरा गिण्हए रज्जमित्थं, धूलिं दाउं वसंतो सिसिरनिवमुहे धुलिपव्वच्छलेणं ॥ २३४ ।। मंदं दक्खिणपवणो चरो व्व मयणस्स चरइ सुणणत्थं ।। को न कुणइ पहुआणं को वा माणं करेइ त्ति ॥ २३५ ।। पत्तं वसंतसमयं मुणिऊणं महापउमकुमरो सो ।। कुसुमावयंसकाणणमणुपत्तो मित्तसंजुत्तो ।। २३६ ॥ मणिकंचणघडियाए सुहरसघडियाए सो समारूढो ।। दोलाए गयणसरे, तरेइ लीलाए हंसो व्व ।। २३७ ॥ तरुणि-मण-हियय-मंथण-मंथाण-समाण-नयण-वित्थारो ॥ जलकेलिं सरसलिले, वरुणकुमरो व्व निम्मवइ ।। २३८ ॥ पुण कयवरनेवत्थो, बंधुरसिंगारभासुरसरीरो ।। उवविसइकामदेवाययणे मणिमत्तवारणए ।। २३९ ।। सो मल्लाण निजुद्धं, अंधाणं रज्जुहत्थाण ।। चिट्ठइ पहट्ठचित्तो, पिच्छंतो पिच्छणिज्जाणि ।। २४० ।। अह चित्तयरकुमारा, संपत्ता तत्थ पट्ठिया हत्था ।। सव्वंगचंगदेहा, समाणवयवेसमारूढा ॥ २४१ ।। कुमरपुरस्सरपुरिसा पुरओ गायंति ते इमं चरियं ॥ अच्छरियं जणयंतं, जणसवणसुहारसासारं ॥ २४२ ॥ 2010_04 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४०७ तथाहि :इह अस्थि हत्थिसिर-परिगलंत-मयसलिलसित्ततरुनियरा ॥ सुर-खयरेहि अवंज्झा, अडई विज्झाडई नाम ।। २४३ ।। जा य केरिसा :कप्पूर-पूर-परिमल-मिलियानललहरिहरियजणचित्ता ॥ हरिहयगयसिरविगलिरमुत्ताहल-नियर-दंतुरिया ॥ २४४ ।। अह तीए मज्झयारे, रसंत-सारंग-हंस-वायालं ।। रंगिरतरंगमालं, तरंगलोलं सरं अत्थि ।। २४५ ।। जलहिब्भमेण जत्थ य अवयरमाणेहि अब्भनिवहेहिं ।। अन्न गयंदभमेण, जुद्धं कुव्वंति जल-किरिणो ॥ २४६ ॥ तन्नीरतीरदेसे, तिसियं खर-किरणकिरणसंतत्तं ।। एगं कुरंगमिहुणं, संपत्तं सलिल-पाणथं ।। २४७ ।। आकंठसलिल-पाणं काउं वलियम्मि तम्मि मिहुणम्मि ।। अह तत्थ निसियभल्लीहत्थो आहेडिओ पत्तो ।। २४८ ।। दट्ठण हरिणमिहुणं, निद्दयहियएण तेण पावेण ।। आकनकड्दिएणं, बाणेणं पडिहया हरिणी ।। २४९ ॥ तं दट्टणं हरिणि, धरणि पत्तं लुलंत-तरलच्छि । मम्मच्छेयण दूसह-पहार-वियणा समकंतं ।। २५० ।। निब्भरनेहनिबद्धो लुद्धयबाणं विणा वि सो हरिणो ।। उद्धच्छो चेव मओ पिच्छ अहो नेहमाहप्पं ॥ २५१ ।। हा नाह ! पढममेव य तुमए निवेण जीवियं चत्तं ॥ सरपहरविहुरगत्तं, मं मोत्तुं कत्थ वच्चेसि ।। २५२ ॥ रे वाह ! मज्झ घायं, काउं संधेसि किं पुणो बाणं ।। नीरस ! न कि नियच्छसि, मह नाहं चत्तनियजीहं ।। २५३ ।। इच्चाइ चिंतयंति, अणुहरिणं चेव सा मया हरिणी ।। तं दट्ठण सह धणुणा, वाहेण वि जीवियं चत्तं ।। २५४ ॥ 2010_04 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ इय हरिणमिहुणचरियं फलहयलिहियं जणाण पयडंता ॥ सकरुणमहुरसरेणं, गायंति सवित्थरं लंखा ।। २५५ ॥ सोऊण इमं मुच्छानिमीलियच्छो धस त्ति धरणियले ॥ संजायजाइसरणो, पडिओ सो रायवरपुत्तो ।। २५६ ॥ चंदणरसच्छडाहिं, तह ससलिल-ताल- विंटवाएण ॥ अविगयमुच्छो पुच्छइ, रे लंखा ! कस्सिमं चरियं ? ॥ २५७ ॥ बिंति सामि ! सम्मं निसुणसु, नवफलिहरयणकयसालं ॥ सग्गावयारनयरं, इहत्थि सग्गं व अवयरियं ॥ २५८ ॥ दरियारिमत्तमायंगकुंभनिब्भेयकेसरिकिसोरो ॥ राया जहत्थ नामो, नयरे हरिविक्कमो तत्थ ।। २५९ ।। अकलंकसीलसाला ससंककर - नियर विमल - गुणमाला | नामेण कुसुममाला, पिया पियालाविणी तस्स ॥ २६० ॥ सुविणंतरम्मि एसा, सुरगिरिसिहरम्मि नंदणारामे ॥ सुरजणमणाभिरामे, पत्ता सयवत्त - पत्तच्छी || २६१ ॥ विदारएण केण वि, दिन्ना सहयारमंजरी तिस्सा ॥ खणमित्तेण विबुद्धा, पियपासे वच्चए मुद्धा ॥ २६२ ॥ हिम्मती सुविणयवुत्तंते दंतदित्तिभरियदिसो ॥ एसो जंपइ दुहिया रहिया दोसेहिं तुह होही || २६३ ॥ तस्स मयं चिय एसा गब्धं नीरं व हेमरिंच्छोली ॥ धारइ सयं निवारइ, नियगब्भाणुचियसलिलं पि ॥ २६४ ॥ सा समयम्मि पसूया धूया जाया निवेण कारवियं ॥ वद्धावणयं एसा, बहुपुत्ताणुवरि जायति ॥ २६५ ॥ सुहवार - तिहि - मुहुत्ते, रन्ना सुविणाणुसारओ तिस्सा || दिनं नामं एसा, हवेउ सहयारमंजरिया || २६६ ॥ उत्तमनरवित्ती विव, अहवा अवरण्हसमयछाय व्व ॥ सह नियजणणि-मणोहर - निवहेहिं वनए एसा ॥ २६७ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४०९ अहिगय-कला-कलावा, रवन्न-लावन्न-पुनतारुन्ना ॥ पुन्निम-ससंक-मुत्ति व्व लोयसुयणसुहा जाया ।। २६८ ।। मयमहणमह वहत्थं, जं निससि-निसंसकन्नियं बीयं ॥ ता मन्ने सुहजीविरनेहस्स न गोयरे पडिओ ॥ २६९ ॥ घाएण मई सद्देण, तह मओ पेच्छिऊण तह चोज्जं । अवठंभिय कोदंडं, वाहेण विम्हियं जीयं ॥ २७० ।। एयं गाहाजुयलं दिव्ववसा अहव पुन्नमाहप्पा ॥ सुविणंतरम्मि एसा पिच्छइ सिहिपिच्छसमकेसा ।। २७१ ॥ अवगय-निद्दा-मुद्दा, विमुद्द-अरिविंद-चंद-पुन-मुही ।। गाहा जुयलं चित्ते, चिंतंती सरइ निय जाई ।। २७२ ।। नियदइय-हरिणजाणण निमित्तमइ-मित्त-विरहसंतत्ता ॥ भुवणजणचित्तजाणय-चित्ते सा लिहइ निय चरियं ॥ २७३ ॥ हरिणं चिय सुमरंती, पुरिसंतरविहियगरुयविद्देसा ।। समयंतरम्मि एसा, पुट्ठा जणणीए वरकज्जे ॥ २७४ ।। सा आह मज्झ नाहो, हरिणो च्चिय अंब ! पुव्वभवदइओ ॥ तं चिय कत्थ वि जायं, तायं विन विनय जणेसु ।। २७५ ॥ तज्जणणीए राया विनत्तो विविह-देस-निवहेसु ।। लिहिय तच्चरियपट्ठियहत्थे पट्ठवइ नियपुरिसे ॥ २७६ ।। अम्हे पुण तुह नयरे पेसविया कुमर ! तेण नरवइणा ।। इय सोऊणं कुमरो अवराए चित्तपट्टीए ॥ २७७ ॥ साहिन्नाणं सव्वं, हरिणभवं आलिहित्तु सविसेसं ।। अप्पेइ ताण हत्थे, तं चित्तं तहय गाहमिणं ॥ २७८ ॥ सहयारमंजरीए, अमंद-मयरंद-पाणदुल्ललिओ ।। भमरो दुहं वसंतो, वसंतसमयं समीहेइ ।। २७९ ॥ ते वि कुमरेण लंखा, दाउं लक्खाणि कणयरयणाणं ॥ सम्माणिऊण सग्गावयारनयरम्मि पट्टविया ॥ २८० ॥ 2010_04 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं गंतूण हरिसिएहि, तेहिं वि हरविक्कमस्स नरवइणो ।। धूया सहियस्स इमो, कहिओ कुमरस्स वुत्तंतो ।। २८१ ।। तत्तो कुलवुद्धाहिं, सहियण-सामंत-मंति-पमुहेहिं ।। सहिया सह निय धूया, सयंवरा पेसिया रन्ना ।। २८२ ।। रिउकुंजरनरवइणा, आगच्छंति वियाणिउं कन्नं ॥ पच्चोणीए तीस्सा, पट्टविया नियय सामंता ॥ २८३ ।। ऊसवपुव्वं पत्तं, एसा रिउकुंजरस्स आएसा ।। रोलंबरोलमुहले, निवसइ कुसुमायरुज्जाणे ।। २८४ ॥ सहयारमंजरीए सह निय कुमरेण तेण सुमुहुत्ते ।। रना अच्छेरकरो, वीवाहमहूसवो विहिओ ।। २८५ ।। रन्ना नियभंडारा, विहिया भरिया य मग्गणावसहा ।। वेवाहिएहि तेहिं, वीवाहविहिं कुणंतेण ॥ २८६ ।। विहिए दसाहिय महे, तीए नवोढाए रयणनिम्मविओ ॥ रिउकुंजरनरवइणा, पासाओ अप्पिओ रम्मो ।। २८७ ।। सामंत-मंति-पमुहा, नियम्मि नयरम्मि जंति कयकिच्चा ।। निद्धेण समं निद्धा, सा मुद्धा रमइ कुमरेण ।। २८८ ।। पत्तभवंतरदइया, असारसंसारगहिय सारा सा ।। निच्छियमसारयाए मन्नइ रंभे पि रंभं व ॥ २८९ ॥ चुंपालयसिहरगया, सह निय दइएण निच्चनिच्चंतो ।। अट्ठावयजूएणं गमइ निमेसं व दिण-निवहं ॥ २९० ॥ कुमरो वि हत्थिसिक्खं, न सिक्खए हत्थिमंथरगईए । निच्चमवहरियचित्तो, तीए नव पिम्मरम्माए ॥ २९१ ।। संखुहियखीरसायर-विलोल-कल्लोल-लोल-नयणाए ।। अक्खित्तमणो एसो, तरल-तुरंगेण वाहेइ ।। २९२ ॥ अवहरियमणो तीए, वम्महकोदंडसरिसभमुहाए । मनइ मणम्मि एसो उव्वियणिज्जं धणुहवेयं ।। २९३ ॥ 2010_04 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४११ दिवसंतरम्मि कुमरं, पडिहारो विनवेइ तुह नयरे ॥ सामिय ! अचिंतणिज्जं, अच्छरियं अज्ज संजायं ॥ २९४ ।। देसंतराओ को वि हु विहु व्व नीसेसजणमणाणंदो । निय वण्णजियसुवण्णो खण्ण लायण्णसंपुण्णो ॥ २९५ ।। रूवविणिज्जियमारो, देवकुमारो व्व धरणि-मणुपत्तो ।। पत्तो इहेव नयरे, तरुणनरो तरुणि-मण-हरणो ।। २९६ ।। वीणाविणोयपमुहं, कलाकलावं च पायडंतेण ।। तरुणीण य तरुणाण य तेणं चित्ताणि हरियाणि ।। २९७ ।। अभिरूवतरं रूवं, निरूविउं सो नियम्मि पासाए । अब्भत्थिय सप्पणयं नीओ एगाइ तरुणीए ।। २९८ ॥ संपज्जंतसमीहियकज्जो नयरम्मि पेम्महरियाए ।। सह तीए विसयसुहं, चत्तदुहं निच्चमणुहवइ ।। २९९ ॥ मासम्मि वइक्कंते, कह वि हु तम्मंदिराओ नीहरिओ। अवराए तरुणीए, अब्भत्थिय नियगिहे नीओ ॥ ३०० ॥ तह तीए तस्स हिययं हरियं सम्माण-दाण-भोएहिं ।। जह सा पुव्वा रमणी निब्भरनेहा वि विम्हरिया ।। ३०१ ॥ सा पुण पुव्वा रमणी, तमपेच्छंती रहंगघरणि व्व ।। तारं विलवइ तरलं , पिच्छइ मन्नइ जयं सुन्नं ॥ ३०२ ।। विनाय वइयराए, तीए गंतूण तस्स भवणम्मि || तह विहिओ कलहो जह तियसा वि सविम्हया जाया ॥ ३०३ ।। मज्झ इमो मज्झ इमो, रमणो त्ति पयंपिराण रमणीणं ।। ताणं सो तरुणनरो, गच्छइ पुव्वाए गेहम्मि ।। ३०४ ।। अइ दुल्लहस्स अइवल्लहस्स पयाए विविहभंगीहिं ।। रमिऊण तस्स सीसं, च्छिनं मा होउ अवराए । ३०५ ।। वरकुसुम-वत्थ-भूसण-निवहेहिं पूइऊण पट्टवियं ॥ काऊण कणयथाले, सीसं अवराइ गेहम्मि ।। ३०६ ॥ 2010_04 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जइ अत्थि तुज्झ नेहो, इमेण सह विससु तं हुयासम्मि । अहयं तु कबंधेणं, पविसिस्सं नत्थि संदेहो । ३०७ ।। तो दो वि कामणीओ कमसो सीसेण तह कबंधेण ॥ जलणम्मि पविट्ठाओ, विम्हियलोयाण पच्चक्खं ॥ ३०८ ॥ इय वइयरं निसामिय, कुमरो चिंतेइ अहह तरुणेण । तेण बहतरुणरमणीवसेण पत्तं अहो मरणं ॥ ३०९ ।। सहयारमंजरि च्चिय, एगा भज्जा हवेउ तो मज्झ ॥ इय चिंतिय सीलंधरगुरुणो पासम्मि वच्चेइ ।। ३१० ॥ गिण्हेइ इमं नियम, मह पहु ! सहयारमंजरिं मोत्तुं ।। अवराणं रमणीणं, परिहारो हवइ सव्वाण ।। ३११ ॥ अह अन्नया कुमारो पियाए सहिओ नियम्मि पासाए । मणिमयजालगवक्खय-उवविट्ठो चिट्ठए जाव ।। ३१२ ।। ताव सहस त्ति दिट्ठो, तेण कुरंगो सुवन्न-रुइ-रंगो । भुवणजणमणोहारी,असोयवणयाए मज्झम्मि ॥ ३१३ ॥ दट्ठण नयणहरणं, तं हरिणं सुहमरोमराइल्लं ।। विम्हिय वियसिय नेत्तो, तत्तो कुमरो विचितेइ ॥ ३१४ ॥ परिहाणि बुद्धि कलियं विडप्पमुहकुहरकवलियं मन्ने । हरिणकमंकहरिणो, परिहरिय इमो इहं पत्तो ।। ३१५ ।। अहव नवफुल्लकाणणमज्झम्मि इहेव गंधवाहस्स ।। परिवीसंतस्स इमो, वाहणहरिणो परिब्भमइ ॥ ३१६ ।। विज्जाहरस्स कस्स वि, अहवा कीए वि तियसरमणीए ।। दिव्ववसा पब्भट्ठो, कीलाहरिणो इमो अहवा ।। ३१७ ।। सहयारमंजरीए इय चिंतंतो इमो इमं भणिओ ।। हे नाह ! मज्झ कीलणकज्जे आणेसु हरिणमिणं ॥ ३१८ ॥ सो तव्वयणाणंतरमासारिय पवरवल्लई हत्थो ।। उल्लसियकोउहल्लो, उवहरिणं वच्चए निहुयं ।। ३१९ ॥ 2010_04 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४१३ सरमंडलनिउणेणं, तेण विपंची विपंचिया निउणं ।। तह जह टहरियसवणो, हरिणो लिहिओ व्व सो जाओ॥ ३२० ॥ अह महुरगोरिगीयं गीयं कुमरेण हरिणहरणत्थं ।। सोयारसवणपाली सुहारसा सारपडिबिंबं ।। ३२१ ।। गीएण तेण हरिणं, हरियमिणं निम्मवित्तु तो कुमरो । गिण्हइ करेण अहवा, सुहगिज्झा चेव वसणहया ।। ३२२ ॥ सहयारमंजरीए पत्तो, पासम्मि तयणु सो कुमरो ।। नियहत्थेहिं इमस्स य बंधुरदुव्वंकरे देसु ॥ ३२३ ।। इय जंपिय तं अप्पिय अदूरदेसम्मि चिट्ठए जाव ।। कुमरो ताव कुरंगो, गहिओ तीए मयच्छीए ॥ ३२४ ॥ परिहरियहरिण रूवं, करकलियकरालनिसियकरवालो ।। उच्चत्तविजियतालो, वेयालो झ त्ति सो जाओ ॥ ३२५ ।। हा परिवाह, हा चत्तगाह, पडिवनविहियनिव्वाह ।। कयतरुणिहिययउम्माह, नाह हा ! रक्ख रक्ख त्ति ॥ ३२६ ॥ इच्चाइ विलवमाणिं, विधुं विव विधुंतुदो इमं तरुणि ।। गेण्हइ कज्जलकालो, वेयालो कुमरपच्चक्खं ॥ ३२७ ॥ गहिऊणं तं तरुणिं, धिट्टो रिद्धो व्व झत्ति बलिनिवहं ।। उप्पइओ गयणयलं, कज्जल-कुवलालिकुलनीलं ।। ३२८ ।। मा भीरु भयं चिंतसु, रक्खस्स वि भक्खसो अहं एसो । तुह दुहनिवारणत्थं, हरणमिमस्स संपत्तो ।। ३२९ ।। रे रे च्छलेण पाविट्ठ ! धिट्ठ ! निक्किट्ठ हरिय मह दइयं ॥ वेयालपलायंतो, महासियालो सि निब्भंतं ।। ३३० ।। इय विविहं जंपंतो, कुमरो तस्सेव मग्गमणुलग्गो।। वरखग्गवग्गहत्थो, अविहत्थो वच्चए तुरियं ॥ ३३१ ।। सो रक्खसो वि तरुणि नियंसदेसम्मि तं निवेसित्ता ।। कुमरस्स दिट्ठिमग्गं अ वि मुंचंतो पुरो जाओ ॥ ३३२ ।। 2010_04 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ गंतूण दूरसं, कुमारदइयं हरित्तु तुह एसो ॥ वच्चेमि त्ति वयंतो, सहसा अद्दंसणं पत्तो ॥ ३३३ ॥ पिययमनियंतो कुमरो उक्खयचक्खु व्व हरिय जीउ व्व ॥ मुच्छामिलियच्छिफुडो, झड त्ति पडिओ महीवीढे ॥ ३३४ ॥ खणमित्तेणं काणणसमीरणासंगपत्तचेयन्नो || विलवेइ तारतारं, सुमरिय सुमरिय निय दइयं ॥ ३३५ ॥ हा पुन्नकप्पपायवमंजरिसहयारमंजरि मए तं ।। रूवजिय तियससुंदरि ! खामोयरि कत्थ दट्ठव्वा ॥ ३३६ ॥ तं हसियं तं वसियं तं तसियं विलसियं च तं रसियं ॥ तं वियसियमुद्धसियंवरो रुहा कत्थ पिच्छिस्सं ? ॥ ३३७ ॥ तं भमियं तं रमियं, चंकमियं तह महंकवीसमीयं ॥ तं विरहे उत्तमियं सुमरणं सरणं महं जायं ॥ ३३८ ॥ इच्चाइ विलविऊणं, सरवरकंतार - सिहरिसरियासु ॥ सहयारमंजरिं सो, पिच्छंतो भमइ भमरो व्व ॥ ३३९ ॥ रत्तासोयं पिच्छिय जंपइ रे चोर ! जं असोओ सि ॥ रत्तोसि यता मन्ने, दइया गहिया तए चेव ॥ ३४० ॥ अनिलचलकमलमेसो, पिच्छिय जंपेइ पत्तनित्तेहिं ॥ चलिरे हिअरे कंपिरदइया चोरो त्ति नाओसि ॥ ३४१ ॥ इच्चाइ गहिलवावारदत्तचित्तो अन्नमज्झम्मि ॥ भमिरो वि तीइ सुद्धि, न लहइ रिद्धिं च अनयपरो ॥ ३४२ ॥ सो कसो गच्छंतो, मोत्तिय - सत्थिय - पसत्थभवणाए || सेयविया नयरीए, परिसरदेसम्मि संपत्तो ॥ ३४३ ॥ तत्थ य सरियातीरे, निच्चं चिय सव्व पच्चयवराए ॥ कालीए दारवासिणि देवीए अत्थि मणिभवणं ॥ ३४४ ॥ कुमरो परिब्भमंतो, पत्तो तं चैव देवया भवणं ॥ उवविसइ परिस्संतो, मणि- निम्मिय- मत्तवारणए । ३४५ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४१५ सो तत्थेव पसुत्तो, संतत्तो विरहजलणजालाए । उव्वत्तण परियत्तण-सएहिं निग्गमइ दिणसेसं ॥ ३४६ ॥ एत्थंतरम्मि तरणीनहपहपरिवहणखिन्नदेहाण ।। नियवाहाणं परिसमसमणत्थं जलहिमणुपत्तो ।। ३४७ ।। मित्तेण वि सुरेण वि न मए कुमरस्स दुक्खमवहरियं ।। इय चिंतिउं व एसो, झंपावइ जलहिमज्झम्मि ॥ ३४८ ।। अह अवरदिसिविभाए, संझाजलणो जलेइ अहिययरं ।। तस्स कुमरस्स हियए, निय दइया विरहजलणो व्व ॥ ३४९ ।। निब्भरतमलहरीए गलियं भुवणोयरं असेसं पि ।। कुमरस्स माणसं पिव विगया संझ त्ति संजायं ॥ ३५० ।। रयणमयमत्तवारणगयस्स एयस्स जामिणी समए । वज्जानलदुव्वियसहं सयग्गुणं तं दुहं जायं ।। ३५१॥ दीहरनीसासेहि, खंभनिविट्ठाण रयणमइयाण ।। पंचालियाण माणण-निवहं एसो कुणइ अंधं ।। ३५२ ।। अइसंतत्तसिलायलउव्विल्लिरचलवलंतनउलो व्व ।। उवत्तण परियत्तण-सहस्समेसो कुणइ सहसा ॥ ३५३ ।। रूवं निरूवणिज्जं, अणन्नसामन्नपुनलायन्नं ।। नव्वं जोयणलच्छि, नियच्छिउं तस्स कुमरस्स ।। ३५४ ।। एगा खंभनिविट्ठा, सपाडिहेरा चइत्तु तं खंभं ।। वरपउमरायमइया पुत्तलिया एइ तप्पासे ।। ३५५ ।। सा विहियदिव्वरूवा, जंपइ हे सुहय ! तुज्झ रूवेण ।। अभिरूवेणं हरियं मह हिययं दिट्टमित्तेण ॥ ३५६ ॥ सुमिणे वि जीए दंसणमइदुलहं सा वि तुज्झ कमलच्छी ! ।। पायालकनयाहिं, सयमेव सयंवरा पत्ता ॥ ३५७ ।। पविसंति विवरमज्झे, भीममसाणम्मि घोरतरमंतं ।। साहंति जीए कज्जे, सा तुज्झ सयंवरा अहयं ।। ३५८ ॥ 2010_04 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ लंघंताण वि निच्चं, आराहंताण झाणनिरयाण ॥ जा पडा होइन वा सयंवरा तुज्झ सा अहयं ॥ ३५९ ॥ सत्त - तल भूमिरम्मे, मणिभवणे सह मए वरिसलक्खं ॥ अणुवसु विसय- सोक्खं, दिव्वं दिव्वाए तरुणीए ॥ ३६० ॥ सो आह तियसतरुणी संगं को नाम कामए नेय ? ॥ पत्तियमित्तं भूमिं मणो वि गच्छइ न तुच्छाणं ॥ ३६१ ॥ भोगोव भोगसमए, किं पुण मह नत्थि एरिसो नियमो ॥ सहयारमंजरि च्चिय भोत्तव्वा सेस परिहारो ॥ ३६२ ॥ कमलच्छि ! पच्छ अच्छे ! ता तुम किंचि नेय वत्तव्वं ॥ अवि निच्छियं मरिस्सं, भंजिस्सं नेय निय नियमं ॥ ३६३ ॥ दिव्वभवेसुं दिव्वं, मणुयभवेसुं च माणुसं सोक्खं ॥ पत्तं अनंतसो वि हु, अखंडनियमो न संपत्तो ॥ ३६४ ॥ सा आह कुमर ! भणियं, जह मह मन्नेसि तुज्झ तो दइयं ॥ अप्पेम संपयं चिय, ओहिन्नाणेण जाणित्ता ॥ ३६५ ॥ अन्न न तुज्झ जीयं, नया वि रज्जं न चेव सा दइया ॥ नन्नपि किं पि कज्जं, होही जइ कह वि रुट्ठाहं ॥ ३६६ ॥ रे मूढ ! तर निसुयं, इमं पि जं दिव्वकन्नया तुट्ठा || तिहुयणरज्जं वियरइ, मारइ रुट्ठा न संदेहो || ३६७ ।। सो आह मज्झ सुंदरि ! न जीविएणं नया वि रज्जेणं ॥ दइयाए नेय कज्जं, कज्जं अक्खलियनियमेण ॥ ३६८ ॥ अवि रविउदओ होही, अवरदिसाए अवारपारो वि ॥ मुंचइ मेरं नियमं, नयामि भंजेमि चिर विहियं ॥ ३६९ ॥ पंचालिया पवंचं, चइत्तु अह आह तं सुरो एगो || सिरिपउमप्पहसामिचरियं साहु साहु ! सुपुरिस ! रेहा धीरे तुह चेव ॥ ३७० ॥ ताण नमो ताण नमो नमो नमो वीर धीर पुरिसाणं ॥ निय जीयसंसए वि हुन खंडिओ जेहिं निय नियमो ॥ ३७१ ॥ 2010_04 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापउमकुमरकहा ४१७ सक्को वि सुहम्माए, तुमं पसंसेइ जह महापउमो ।। सहयारमंजरीए, न रमइ रमणि कहवि अन्नं ।। ३७२ ।। हरिगिरमसद्दहंतो हं पुप्फावचूलवरनामो ।। इह पत्तो नरसेहर! तुह नियमपमाणगहणत्थं ॥ ३७३ ।। काऊण हरिणरूवं, अभिरूवं झत्ति तुज्झ तो दइया ॥ हरिया तइया इह तुह, आणयणत्थं मए चेव ॥ ३७४ ।। दटुं विरहदवानलजालामाला करालियं तुमयं ।। पंचालियागएणं, कया परिक्खा मए तुज्झ ।। ३७५ ।। कुमरो जंपइ हरिणो नव नव अच्छरियहरियहिययस्स ।। को पत्थाओ जाओ मज्झ पसंसाए तुच्छस्स ॥ ३७६ ।। तत्तो जंपइ तियसो, कुवलयदललोललोयणा मज्झ ।। पंकयकेसरगोरी, गोरी नामेण अत्थि पिया ।। ३७७ ।। नयतरुकाणणभंजण-पभंजणेणं पभंजणसुरेणं ॥ हरियहियएण हरिया, दइया सा मज्झ मूढेण ।। ३७८ ।। सो पावो रायंधो, निब्मरनिरयंधयारसारिच्छे ।। पविसेइ अंधयारे, तं गिण्हिय किण्हराइए ।। ३७९ ॥ विनाय वइयरेणं, हरिणा पविणा समाहओ गाढं ।। मुच्छानिमीलियच्छो, अच्छइ सो जाव छम्मासा ॥ ३८० ।। मह चेव समप्पित्ता, गोरि हरिणापयं पियं एयं ।।। अहह अहो सुरलोओ विगुप्पए कामरायंधो ।। ३८१ ।। धन्ना धीरा मणुया अतुच्छरायाहिं अच्छराहिं पि ।। अत्थिज्जंता विसयं, कह वि न भंजंति निय नियमं ॥ ३८२ ।। पत्थावे एत्थ मए, भणियं को सामि ! अत्थि सो मणुओ? ॥ जो नवि भंजइ नियम, तो हरिणा कुमर ! तं कहिओ ।। ३८३ ।। इय जंपिरेण तेणं, सुरेण सहयारमंजरी पयडा ।। काउं पुलइयतणुणो, समप्पिया तस्स कुमरस्स ।। ३८४ ।। 2010_04 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं किरणगणदिप्पमाणे, रयणविमाणे सुरेण निम्मवए ।। आरूढो तो कुमरो, स पिओ वच्चइ निय नयरे ।। ३८५ ।। निब्भरसोयं लोयं, रायप्पमुहं पहिट्ठमुह-कमलं ।।। निय दंसणेण कुमरो, कुव्वंतो विसइ निय नयरे ॥ ३८६ ।। विनायवइयरेणं, रन्ना सह तेण पवरतियसेण ।। रज्जाभिसेणमहिमा, विहिओ तस्सेव कुमरस्स ।। ३८७ ।। कुमरेण अणुनाओ, वच्चइ तियसो नियम्मि ठाणम्मि ।। राया गिण्हइ दिक्खं, सिक्खिय सिक्खं गओ मोक्खं ॥ ३८८ ॥ कुमरो वि जायपच्चयनिच्चलचित्तो कलंकपरिचत्तं ।। संमत्तं सेसाणि वि वयाणि पालेइ सव्वाणि ।। ३८९ ।। सहयारमंजरीए सह गिहिधम्म समग्गमवि सम्मं ।। परिपालिय सो पत्तो, सग्गं कमसोऽपवग्गं च ।। ३९० ॥ भोगोवभोगनियमो, जहा महापउमनाहकुमरेण ।। निच्चलमणेण विहिओ तह अन्नेहिं विहेयव्यो ।। ३९१ ।। ॥ इति भोगोपभोगवते महापद्मकथा ।। गाथा ५८२० अनत्थदंडे वाचाल कहा जं देह-गेहकज्जे, पावं गिहिणो कुणंति परलोए । तमणत्थदायगं पि हु इहत्थजुत्तं परूविति ॥ ३९२ ॥ जं पुण निरत्थयं चिय, कुणंति पावोवएसदाणाई ॥ एयं अणत्थदंडं, परिहरणिज्जं जिणा बिंति ।। ३९३ ।। पावोवएसहिं सप्पयाण वज्झाण बहुपमाएहि ।। चउहा अणत्थदंडं, अणत्थहेऊ विवज्जिज्जा ।। ३९४ ।। वसहे दमेह खेत्तं ववेह संढं करेह निय तुरियं ।। दक्खिनविसयवज्जं, इच्चाइ चइज्ज उवएसं ।। ३९५ ।। हल-मुसल-अनल-जंगल-करवाल-घरट्टपमुहमहिगरणं ।। दक्खिन्न मुत्तूणं न समप्पिज्जा दयानिरओ ॥ ३९६ ।। 2010_04 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचालकहा ४१९ मह हवउ सक्करिद्धी खेयररिद्धी च चक्करिद्धी वा ॥ अरिणो मरंतु इय न वि झाएज्ज परं मुहुत्ताओ ।। ३९७ ।। धणदाणेणं गीयं, नटुं वज्जे विणा विवाहाई ॥ हुडकुकुडाइभेडण-दोला-जल-केलि-जूयाइं ।। ३९८ ।। पहपरिसमरोयाई, मुत्तुं न मुएज्ज सयलरयणि पि । वेरिसुएणं वेरि-विकह-चउक्कं पबंधेणं ।। ३९९ ।। असणं खाइम-साइम-पाणं हासं विलास-निट्ठणं ।। निबं कलहं विकहं, वज्जे जिणभवणमज्झम्मि ।। ४०० ।। उवभोगस्सइरेगो, मीलिय अहिगरणधारणं चेव ।। कंदप्पो कुक्कुइयं मोहरियं चयसु अइयारे ॥ ४०१ ॥ जेऽणत्थदंडवसगा, तेसिमणत्था हवंति इहलोए ।। निरयगई परलोए, वायालो एत्थ दिटुंतो ।। ४०२ ।। तथाहि :मरगय-मणिमय तोरण-रणंत-मणि-किंकिणिहिं वायाला ॥ फालिहसाल-विसाला, तोरणमाला पुरी अस्थि ॥ ४०३ ॥ नूणमिमीए पुरीए, विहारदंडे रवी वि अफ्फलिओ ।। कह मनह चरइ सया, जामो तूरअयलजुयलेण ॥ ४०४ ।। दुद्धर-पयावसाहियरिउचक्को रूवनिज्जियाणंगो।। राया अणंगसेणो, तत्थ पुरे पालए रज्जं ।। ४०५ ।। चइऊण पुक्खरवणं, जस्स य करवाल-पुक्खरवणम्मि ॥ नव-नव-निवास-लीला-दुल्ललिया निवसए लच्छी ॥ ४०६ ।। सयल-दिसि-विजय-जत्ता, निमित्तमेसो अमित्त-मण-कंपं ।। कव्वंतो संचलिओ, सामंत-सहस-परियरिओ ॥ ४०७ ।। पडिवक्ख-लक्ख-विजयं, कुणमाणो सो कमेण संपत्तो ।। अट्ठावयम्मि सेले रिसहेसरपायसुपवित्तो ।। ४०८ ।। कुसुमियवणववएसा, एसो सयपत्त-रिसह-पय-कमलो ॥ 2010_04 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सिरिपउमप्पहसामिचरियं जम्मदिणण्हाण-जलभरमित्त-पवित्तं हसइ मेरुं ।। ४०९ ॥ निय निय पमाणवन्ना, चउवीसं तत्थ तेण तित्थयरा ।। उल्लसियपुलणपडलेण पूइया विविहपूयाहिं ।। ४१० ।। सो जाववणुद्देसं, अट्ठावय-पव्वयस्स पुलएइ ।। ता तत्थ सही सहियं, विज्जाहर-कनयं एगं ।। ४११ ।। नवतारुण्णरवण्णं, निरुवम-लायन-लहरि-सरि-सरिसं ।। पेच्छइ कुसुमावचयं, कुव्वंति काणणसिरिं व ॥ ४१२ ॥ चिंतिउं च पवत्तो :कुसुमाउहस्स आउहममोहमहमेव तिजयविजयम्मि ।। इय एसा रोसेणं, मन्ने कुसुमाणि उच्चिणइ ।। ४१३ ।। सा वि हु अणंगसेणं, दट्ठमणंगं च अंगसंपुत्रं ।। झत्ति ससज्झ सहियया, कुसुमावचयं तओ चयइ ॥ ४१४ ॥ सा पयड-पुलय-पडला, सराय-हियया नियच्छिउं रायं ।। मुत्तूण तत्थ चित्तं, संचलिया देहमित्तेण ॥ ४१५ ॥ अइवाहियदिणसेसो, राया सिन्नम्मि जाव संपत्तो ।। चिट्ठइ तं चिंतंतो, ता पत्ता खेयरी एगा ॥ ४१६ ॥ कयपणिवायं रायं, जंपइ नरनाहसूरतेउ त्ति ।। सुरावयंसनयरे, विज्जाहरनायगो अत्थि ।। ४१७ ।। तब्भज्जाहं कमला कन्ना सा मयणमंजरी मज्झ ।। जा पुन-कप्प-पायव-मंजरी-सरिसा तए दिट्ठा ।। ४१८ ।। लायन्नलहरिसरिया, दुहिया सा चेव तुह मए दिन्ना ।। इय जंपिरीए तीए, खेयरराया तहिं पत्तो ।। ४१९ ।। अन्नोन्ननेह-निब्भर-चित्ताणं ताण सरिसरूवाणं ।। विज्जाहराण तेणं, वीवाह-महसवो विहिओ।। ४२० ।। सो मन्नइ निय हियए, नूणं अट्ठावयस्स तित्थस्स ॥ दंसणमिहेव जम्मे, मह सहलं संपयं जायं ।। ४२१ ।। 2010_04 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचालकहा सो विज्जाहरकन्नं, वीवाहियवाहिणीए परियरिओ || कयकिच्च विवराया, विणियत्तो निय पुराभिमुहं ॥ ४२२ ॥ नवरम्मपिम्मभिंभल-हिययाए तीए निय पुरे पत्तो ॥ विसयसुहं निरवज्जं, अणुहवइ सया महीनाहो || ४२३ || विज्जाहर- सयण - गणो, विम्हरिओ तीए रत्त-चित्ताए || रज्जं पुण नरवइणो, अणुरायमयस्स विम्हरियं ॥ ४२४ ।। दिणमिणमेसा रयणी, सयणजणो एस परजणो अहवा || अहयं नवाहमेयं, ताण मणो मुणइ न हि तइया ॥ ४२५ ॥ जीयस्स चंचलत्ता, ताण स- संपुन - पुत्र - माहप्पा || विहि-विलसिएण अहवा कित्तिय मित्ते गए काले ॥ ४२६ ॥ निरवज्ज - विज्ज - विज्जा - गज्जिर-हिययाण सयल - विज्जाणं ॥ पच्चक्खं सा तरुणी, संहरिया संनिवारणं ।। ४२७ ।। अह रुवइ तारतारं, लज्जा मज्जा य वज्जिओ राया ॥ भामिणि - कामिणि - जीविय - सामिणि - मह देसु पडिवयणं ॥ ४२८ ॥ परिहर मोणं सुंदरि ! आलावं कुणसु नियय नाहस्स ॥ कलकंठि ! कंठदेसे, चिट्ठइ मह सयं जीयं ॥ ४२९ ।। तुझ निरिक्खणकज्जे, मन्ने चलिय व्व महइ मे पाणा ।। तामागच्छसु सग्गं, आगच्छसु धरसु मह जीयं ॥ ४३० ॥ एवं विलाव - वाउल - भूवाल - दुहेण दुक्खिए लोए ॥ मंतीहि तीए देहो, विहिणा सक्कारिओ जलणे ॥ ४३१ ॥ परिहरिय सव्वकज्जो, सम्ममविन्नायवत्थु - परमत्थो || राया उण अणवरयं, गहिलत्तं पयडिए विविहं ॥ ४३२ ॥ तो य तत्थ एगो, जूयारो दारवासिणी भवणे || हारइ असंखवारे, घरसारं चीर - पज्जंतं ॥ ४३३॥ सो अवरमुवायंतरमनिरिक्खंतो नरेसरं गहिलं ॥ कलिऊण कूडबुद्धी, पत्तो पडिहार - भूमीए ॥ ४३४ ॥ 2010_04 ४२१ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं पडिहारेण निरुद्धो, जंपइ विनवसु नरवरिंदस्स ॥ सग्गाउ अस्थि दूओ देवि सयासाउ संपत्तो ।। ४३५ ॥ तेण वि सविम्हएणं, वित्रत्तो झत्ति हरिसिओ राया । आहवइ तमापुच्छइ, संच्छंदं विविहभंगीहिं ।। ४३६ ॥ रे दूय ! कहसु किं मह दइया सग्गम्मि चिट्ठए सुहिया ।। कइया इहागमिस्सइ, किं वत्तं पुच्छए मज्झं? ॥ ४३७ ।। सो आह नाह ! देवी, तुमं पसंसेइ सक्कपच्चक्खं ॥ थोवदिणेहिं सग्गं, निरिक्खउं एत्थ आगमही ।। ४३८ ।। किं पुण विसेसकज्जं, कहियमिणं देव ! तुज्झ देवीए । मग्गिज्जसु आहरणं, कणयमयं रायपासाओ ॥ ४३९ ।। एवं जंपतो वि हु धुत्तो, पडिहार-सचिव-पमुहेहिं ।। न निसिद्धो नरवइणो, विणोयमेयं करेउ त्ति ।। ४४० ।। भंडारियमाहविओ राया वरकणयनिम्मियं रम्मं ।। देवीजोग्गं सहसा, आहरणं अप्पए तस्स ।। ४४१ ॥ पुणरवि धुत्तं पभणइ, साहेज्जसु दूय ! मज्झ देवीए ।। जह तुह नाहो मग्गं, गवेसए विरहसंतत्तो ।। ४४२ ।। . सो उण धुत्तो देसंतरम्मि गंतूण सयलमाभरणं ।। हारइ जूयाराणं, विसेसचवला जओ लच्छी ।। ४४३ ।। पुणरवि रायसयासे, पत्तो विनवइ तुज्झ सा जाया । सामि ! निसामिय सव्वं, तुह कहियं ऊसुया जाया ॥ ४४४ ।। मासम्मि वइकंते, एत्थागमिही न एत्थ संदेहो ।। अच्छरसाहिं किं पुण, संपइ जाओ विसंवाओ ॥ ४४५ ॥ तत्तो नित्तुलमोत्तियहारं, तह रयणनिम्मियाहरणं ।। अप्पेहि जेण देवी, जिणेइ सग्गंगणा नियहं ॥ ४४६ ।। राया हरिसियहियओ, सव्वं अप्पेइ तस्स धुत्तस्स ।। धुत्ताण वि धुत्तेहिं, मंतीहिं पभणियं तत्तो ।। ४४७ ।। 2010_04 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचालकहा ४२३ देव ! न एसो सम्मं मग्गं सग्गस्स जाणए तस्स ।। जत्थ सयं सा देवी, निवसइ तुह नेहबद्धमणा ।। ४४८ ॥ एएण कारेणेणं, सामिय ! इह सा न चेव संपत्ता ।। अन्नह तुह विरहदुहं, सोउं सा नूणमागमिहि ।। ४४९ ।। मग्गेण जेण देवी, पत्ता सग्गम्मि तं वयं मग्गं ।। एयस्स पयासेमो, आगच्छइ जेण सा झत्ति ।। ४५० ॥ राया गहिल्लचित्तो, जंपइ रे दूय ! मंतिसंदिढे ।। वच्चसु मग्गे एयं, गिण्हित्ता मोत्तियाहरणं ।। ४५१ ॥ मंतीहिं नयरबाहिरदेसे, अंगारपूरिया रुंदा ।।। किंकरगणेहि सहसा, कारविया खाइया तत्तो ।। ४५२ ॥ सोक्खासणमारूढो, आहरण करंडमंडिउच्छंगो । धुत्तो बाहिरदेसे, निज्जइ विच्छायमुहकमलो ।। ४५३ ।। राया अणंगसेणो, सामंता मंतिणो य सुद्धंतो ।। वच्चंति तेण सद्धिं, सकोउया बाहिरुद्देसे ।। ४५४ ।। मग्गेण जेण देवी, पत्ता सग्गम्मि तेण मग्गेणं ॥ एसो गमिहि त्ति पुरं, सयलं पि सकोउयं मिलियं ॥ ४५५ ।। एत्थंतरम्मि एगो, तं सोउं सयलमेव वुत्तंतं ।। पत्तो धुत्तसयासे वायालो तरलजीहालो ।। ४५६ ॥ अहिणवपसूयसाहिणिसरिसं जीहं निजंतिउं निययं ॥ असमत्थो सो धुत्तं जंपइ नरनाह-पच्चक्खं ॥ ४५७ ॥ भद्द ! तुमं देवीए, साहिज्जसु तुज्झ विरहसंतत्तो ।। सूसंतसयलगत्तो, राया अइवाहए कालं ॥ ४५८ ॥ तं चिय निच्चं चित्ते, आयारो तुज्झ चित्तफलयम्मि ।। तुज्झ गुणा जीहाए, संपइ पसयच्छी ! नरवइणो ।। ४५९ ॥ कीला-कला-विलासो, सिणाण-तंबोल-नव्वकव्वाणि ।। रसवइरसाहिगमणं, सह तुमए पवसियं रत्रो ।। ४६० ।। 2010_04 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं विरहेण तुज्झ सुंदरि, सह पत्ता नरवरिंद-पासम्मि । अरुई अरई चिंता, दीणत्तं चित्तसंमोहो ॥ ४६१ ॥ तं नवधवलहरं पि हु सुन्नारनं च मन्नए राया। पीऊसकर-मऊहा, बाणसमूहा अणंगस्स ॥ ४६२ ॥ एगते परिसाए मणम्मि सुमिणम्मि राइणा देवि ।। एगा विविहसरूवा, दीससि बहुरूवविज्ज व्व ॥ ४६३ ।। हरिणच्छि हारिणा वरहारेण इमेण भूसणगणेण ।। जे ऊण अच्छराणं निवहं एज्जासु इह सिग्घं ।। ४६४ ॥ जइ पुण कालविलंब, करेसि करभोरु ! तो धुवं राया। तुह विरहाणल-जालाजलिओ जीविस्सए कह वि ॥ ४६५ ।। अवहारसु तं सम्मं हे दूय ! इमाणि मज्झ भणियाणि ।। एएहि धुवं देवी, इह एही रायपासम्मि ॥ ४६६ ॥ दूओ भणइ नरेसर, इमाण वयणाण धारणं काउं ।। न समत्थो हं तत्तो, एयं चिय तत्थ पेसेसु ।। ४६७ ।। जे जत्थ निउण मइणो, सकज्जसिद्धिं समीहमाणेहिं ।। तत्थ निमुंजेयव्वा, तिच्चिय नूणं छइल्लेहिं ।। ४६८ ।। नरनाहवयणचउरो, नाहं संदेसहारओ सम्म । तेणं चिय पुव्वं पि हु न हि देवी एत्थ संपत्ता ॥ ४६९ ।। अह वायालं राया, पभणइ तं चेव तत्थ वच्चेसु ।। गिण्हिय आभरणगणं, आगच्छइ जेण इह देवी ।। ४७० ।। अह तं चिय निवसचिवा, बला वि ठावंति धुत्तठाणम्मि ॥ गहिलस्स वि नरवईणो, कुणंति आणं धुवं सव्वे ॥ ४७१ ॥ तो निज्जंतो जंपइ, तुंडं रक्खंतु अप्पणो सम्मं ।। तुंडपसाया एसो, वायालो निज्जए सग्गं ॥ ४७२ ॥ सचिवेहिं इमो नेउं, बला वि खित्तो हुयासमज्झम्मि । मा पुण वि को वि धुत्तो, आगच्छउ रायपासम्मि ।। ४७३ ।। 2010_04 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४२५ दिवसंतरम्मि राया, देवी मग्गं नियच्छमाणो सो॥ सचिवेहिं कहिय सव्वं, तत्तो पडिबोहिओ कमसो ॥ ४७४ ।। पत्तो निरत्थएणं, उवएसेणं जहेस वायालो ।।। मरणं अन्ने वि तहा, अणत्थदंडेण पावंति ।। ४७५ ।। पावोवएसहिं सप्पयाणवज्झाणपमुहमिह तत्तो।। जिणवयणगहियतत्तो, अणत्थदंडं विवज्जेसु ॥ ४७६ ।। इत्यनर्थदंडे वाचालकथा ।। गाथा ५५०५ ॥ सामाइए चंदलेहा कहा सावज्जजोगवज्जण-पुव्वं मण-वयण-काय-सुद्धीए ।। सिद्धिसुहमीहमाणो, कुज्जा सामाइयं निच्चं ॥ ४७७ ॥ भणियं च :सामाइयम्मि य कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ।। ४७८ ।। सासय-पय-सोक्खाणं, सच्चंकारो समप्पिओ सच्चं ।। मा एत्थत्थे कहमवि, संदेहं कुणह कइया वि ।। ४७९ ॥ एत्तियमित्तं सारं, गिहत्थधम्मस्स हंत, सव्वस्स ।। अंसो एस जिणेहि, जइ-जण-धम्मस्स निद्दिट्ठो ।। ४८० ॥ सिक्खावयाणमाइमवयस्स सामाइयस्स पन्नविओ ।। सामाइयं त एसो, एयक्खरत्थो समासेण ।। ४८१ ।। आयो लाभो भन्नइ, समस्स सामस्स अहव आयो जो ।। सो जस्स कज्जमेयं, सामाईयं बुहा बिंति ।। ४८२ ।। खवइ निरग्गलचित्तो, पुग्गलपरियट्टएहिं जं जीवो ।। कम्मं सममणभावो मुहुत्तमित्तेणं तं खिवइ ।। ४८३ ।। इह चेव मोक्ख-सोक्खं, इमेण जज्जरतरेण देहेण ।। जइ महसि कह वि तत्तो, धरिज्ज चित्तम्मि समभावं ॥ ४८४ ॥ मित्तेसु अमित्तेसुं, धणम्मि निहणम्मि हारखारम्मि ।। 2010_04 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जस्स समो मणभावो, चयंति सामाइयं तस्स ॥ ४८५ ॥ तिव्वतवं तवमाणो, जं नवि निट्ठवइ जम्मकोडीहिं ॥ तं समभावियचित्तो, खवेइ कम्मं खणद्धेण || ४८६ ।। मरुदेवा - भरहेसर - पमुहा निट्ठविय अट्ठ कम्मंसा || सिद्धंतेसु पसिद्धा, सामाइयमित्तसंसिद्धा || ४८७ ।। गया मोक्खं जे वि य गच्छंति जे गमिस्संति ॥ ते सव्वे सामाइय-माहप्पेणं मुणेयव्वा ॥ ४८८ ॥ सत्तिंतर बाहिरओ तवो य नाणं च तस्स सकयत्थं ॥ समसत्तुमित्तभावे, निय चित्तं जस्स वीसंतं ॥ ४८९ ।। विज्झइ झाणं दाणं, जागो जोगो तवो वि नवि को वि ॥ एमेव अहो सिद्धी, लब्भइ समभावमित्तेण ॥। ४९० ।। उक्तं च: हूयते न तप्यते न दीयते वा न किञ्चन ॥ अहो अमूल्य क्रीतेयं साम्यमात्रेण निर्वृतिः ॥ ४९१ ।। जिणभवणबिंबकारणदाणाइसु थेव जीवहिंसा वि ॥ निरवज्जो पुण धम्मो सामाइयकरणसंजणिओ || ४९२ ।। जो पुण कडसामाइओ चित्ते चिंतेइ गेहवावारं ॥ झायइ अट्टं रोद्दं, निरत्थयं तस्स सामइयं ॥ ४९३ ।। भणियं च: सामाइयं ति काउं, घरचितं जो उचितए सड्डो ॥ अवसट्टोवगओ निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥ ४९४ ॥ तह जो कडसामाइओ गिराए भासेइ पेसणाईणं ॥ सावज्जगिरं न चयइ, निरत्थयं तस्स सामइयं ॥ ४९५ ॥ तह जो कडसामइओ देहेणं दुप्पमज्जणाईयं ॥ न य वज्जइ सावज्जं, निरत्थयं तस्स सामइयं ॥ ४९६ ।। जो मण-वय-तणुरोहं, काउं सावज्ज- वज्जणं कुणइ || 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४२७ निरवज्जजोगजुत्तो, सहलं सामाइयं तस्स ॥ ४९७ ॥ एसा केवलिमेरा एयं तत्तं तिलोयसारमिणं । जइणा वा गिहिणा वा समभावो जमिह कायव्वो ॥ ४९८ ॥ माणसतणुवयणाणं, दुप्पणिहाणं च आयरच्चाओ। सइपब्भंसो य इमो, अइयारे चयसु सामइए ।। ४९९ ।। तित्थयरा चउवीसं, नवहलिणो चक्किणो य दस संखा ।। अन्ने दमदंताई, दिटुंता जइ वि सामइए । ५०० ।। तह वि उवएसविसओ न अत्थि पुणरुत्तय त्ति वरनायं ॥ अवलंबिय साहिस्सं, दिटुंतं चंदलेहाए ।। ५०१ ।। सिरिखंडसंडमंडियसिहरो, सिहरीण सेहरो अस्थि ।। नामेण मलयसेलो, रयणसिला सहसरमंणिज्जो ।। ५०२ ।। निज्झरण-सलिल-धारा-निवाय-सद्देहि वित्थरंतेहिं ।। सेस गिरीणं मज्झे, जयपडहे पायडंतो व्व ।। ५०३ ।। एला-लवंग-कयली-लवली हरएसु खयर-मिहुणेहिं । तित्थंकराण चरियं, अणवरयं गिज्जए जत्थ ।। ५०४ ॥ कुसुमसरो वि अणंगो जस्स य वाएण वाउलो भुवणं ।। लीलाए जिणसयलं, किं भणिमो तस्स मलयस्स? ॥ ५०५ ।। मलयमहागिरिसिहरे, वसइ तहिं कीरमिहुणगं एगं ।।। निब्भरनेहेन बद्धं नव-किसलय-सच्छहच्छायं ।। ५०६ ॥ विज्जाहरेण केण वि कोऊहलतरलिएण तं मिहुणं ।।। तत्थ वसंतं गहियं, पढमे च्चिय बालकालम्मि ॥ ५०७ ।। अइगरुयकोउहल्ला, सिक्खवियं तेण तं कला सयला ॥ छदंसणाण तत्तं, जाणवियं तहय नीसेसं ।। ५०८ ॥ हेममयपंजरगयं, सुयमिहुणं गिण्हिऊण सो खयरो ।। सव्वत्थ भमइ सयलं, तव्विरहे मन्नए सुन्नं ।। ५०९ ।। तस्स खयरस्स जोगा, तं मिहुणं गुणसमुद्दपारीणं ।। 2010_04 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं जायं जइ वा सुपुरिससंगो, किं किं न साहेइ ? ॥ ५१०॥ चारणमुणिणा केण वि करुणावन्नेण बोहिओ खयरो॥ जं परबंधाउ तयं मुंचइ मलयदिसिहरम्मि ।। ५११ ॥ विज्जाहरसंसग्गा, मिहुणं तं गहियसत्थपरमत्थं ।। दक्खं कलासु कुसलं, विलसइ तं तत्थ सच्छंदं ॥ ५१२ ॥ समयंतरेण ताण वि पुत्तो रूवाइगणगणाइन्नो ।। उप्पन्नो जणयाओ, कलाकलावेण परिकलिओ ।। ५१३ ।। भवियव्वया नियोगा-विहिया संपुत्र-पुत्र-माहप्पा ।। पेमस्स चंचलत्ता, ताणं पेमं विसंघडियं ॥ ५१४ ॥ कीरेण तओ सहसा, तरुणी सव्वंगसुंदरावयवा ।।। पेमपरतंतचित्ता, विहिया पाणेसरी अवरा ।। ५१५ ।। तो सो पियं वराई, मन्नावइ पयड-चाडुवयणेहिं ।। नवरं सपेमरत्तो, न वयणमित्तं पि सो देइ ।। ५१६ ॥ नियदइयदिट्ठदोसा, पेम्म-निरासा पियं पयंपेइ ।। जइ निट्टरोऽसि तो पिय ! अप्पसु मह संतियं पुत्तं ॥ ५१७ ।। इत्थीण ताव पढमं, पिओ पिओ होइ सव्व भंगीहि ।। तविरहियाण पुत्तो, नियमणआसासणो होइ ।। ५१८ ।। किं च अहं वरतित्थे कत्थ वि गंतूण देहपरिहारं ।। विसय-विस-निप्पिवासा गय-घर-पासा करिस्सामि ।। ५१९ ।। एस सुओ मह पुरओ संसारासारयं पयासंतो ।। पास ठिओ मह चित्तं, अथिरं पि थिरं करेइ त्ति ॥ ५२० ॥ जाणं च धम्मज्झाणं, कुसलं निज्जामयं वि मुत्तूणं ।। पज्जंतसमयजलनिहिपारं गच्छेइ न हु कइया ।। ५२१ ॥ जरिओ व तग्गिराए, कीरो वज्जरइ मूढ ! हिययाऽसि ।। मह चेव इमं पुत्तं, मग्गंती किं न लज्जेसि? ।। ५२२ ।। पिउणो पुत्तो अंसं, हरइ त्ति इमस्स चेव सो होइ ।। 2010_04 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४२९ सत्थे वि सुम्मइ इमं, अप्पावे ! जायए पुत्तो ।। ५२३ ।। भणियं तीए सुपुरिस-पुत्तो माऊए चेव आहवइ ।। जणयाउ जेण जणणी, अइसयपुज्जा जओ भणियं ।। ५२४ ।। उपाध्यायाद्दशाचार्या, आचार्याणां शतं पिता ।। सहस्रं तु पितुर्माता, गौरवेणातिरिच्यते ।। ५२५ ।। विवयंताणि य ताणि वि पुत्तेण जुयाणि निच्छियनिमित्तं ।। पत्ताणि मलयसेला सन्नाए कंचिनयरीए ।। ५२६ ।। परपत्थिवसीमंतिणि-सीमंताभरणहरणदुल्ललिओ ॥ दुल्ललिओ नाम तहिं, रज्जं पालेइ नरनाहो ।। ५२७ ।। विज्जाहरसंसग्गा, निब्भयहिययाणि ताणि निवपासे ।। गच्छंति अंतरिक्खे, ठिओ सुओ थुणइ नरनाहं ।। ५२८ ॥ सो जयइ निवो आणणठाणं लहिऊण जस्स सा वाणी ॥ चउराणणं विमुंचइ, लज्जा मज्जा य परिचत्तं ।। ५२९ ।। एगं दाहिणचरणं, उन्नमिऊणं पणामपुव्वं सा ।। विन्नवइ भूमिनाहं, कीरी वि हु महुर-सद्देहिं ।। ५३० ।। मोत्तूण कूड-निनयरो दोसाइ दूसियं सग्गं ।। जस्स मूहे अवयरिया, वाणी सो जयइ नरनाहो ।। ५३१ ।। भो कीरराय ! दइया, सहिओ आगच्छए एत्थ भयरहिओ ।। तुह दंसणकोउहल-हल्लप्फलिओ अहं जेण ।। ५३२ ।। इय भणिरे नरनाहे, तं मिहुणं रायपायपासम्मि ॥ अवयरिऊणुवविटुं, जणमणहरिसं पयच्छंतं ।। ५३३ ।। तं पुच्छइ सुयजुयलं, अतुच्छअच्छेरपूरिओ राया ।। कत्थ निवसेह केण व कज्जेण एत्थ पत्ताणि ? ॥ ५३४ ।। कहिउं निवस्स ताणि वि वृत्तं तं निय विवायपज्जंतं ।। पुव्वुत्तजुत्ति-जुत्तं, निय निय पक्खं पसाहिति ॥ ५३५ ॥ मंतिमुहं नरनाहो, पिच्छइ मंती वि भणइ मज्झण्हे ।। 2010_04 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सामत्थिऊण निच्छयमेयाण महं करिस्सामि ॥ ५३६ ॥ तत्तो सुयमिहुणं तं राया नेऊण नियय सुद्धंते ॥ भुंजावइ वरदाडिम - सालिप्पमुहेहि भोज्जेहिं ॥ ५३७ ॥ तो सुयमिहुणसमक्खं, अत्थाणत्थे निवम्मि मज्झहे || पभणेइ मंतिवग्गो, एस विवाओ अउव्वो त्ति ॥ ५३८ ॥ मंतता विह अम्हे निच्छयमिह किं पि नेव पिच्छामो || तो पुच्छह अवरपुरे, सुयनाणि केवलिं वावि ॥ ५३९ ।। भंगुरभालकरालो महिवालो गव्वपव्वयारूढो || पभणेइ मंतिसम्मुहमेस विवाओ वि दिव्ववसा ॥ ५४० ॥ जइ कह वि अन्ननयरे वच्चइ तो मंति ! सासई लज्जा ॥ अहवा कित्तियमित्तो, एस विवाओ सुणह तत्तं ॥ ५४१ ॥ लोए पसिद्धमेयं, बीयं नणु होइ बीयवंतस्स ॥ खित्तं तु खेत्तियस्सा इत्थ वि इत्थं विचिंतेह ॥ ५४२ ॥ खेत्तं नियय सरीरं, कीरी गिण्हित्तु जाउ सच्छंदं ॥ कीरस्स चेव पुत्तो, इह अत्थे नत्थि संदेहो || ५४३ ॥ वज्जाहय व्व कीरी जंपइ, नरनाह ! एरिसा नीई ॥ तुह बुद्धिनिम्मिय च्चिय न हु गंधं कमवि पेच्छामि ॥ ५४४ ॥ सो वि तुझ मग्गो, पमाणमहवा वि किंतु सिरिकरणे ॥ लेहाविसु छेवार्डि जेणं संभरसि नियवयणं ॥ ५४५ ॥ तो गव्वमुव्वहंतो, एसो मह निन्नओ सुदिट्ठोत्ति || छेवाडि टिप्पणेसुं, लहावइ तं पि छेवाडि || ५४६ ॥ तथाहि : सिरिपउमप्पहसामिचरियं बीज एव हि बीजं, क्षेत्रं भवतीह तद्वतामेव ॥ दुर्ललितमहिनाथो, निर्नयमेनं स्वयं चक्रे ॥ ५४७ ॥ सुणिय नरनाहवयणा, पइमुक्का सा वि चत्तपुत्तासा ॥ धरणीयलम्मि लुलिया धस त्ति जलभिन्नभित्ति व्व ॥ ५४८ ॥ 2010_04 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४३१ एत्थंतरम्मि कीरो निठुरचित्तो नमित्तु नरनाहं ।। सुयसहिओ तं मोत्तुं, पत्तो मलयद्दिसिहरम्मि ।। ५४९ ।। सकरुणमंतिपणामिय-सीयल उवयार-लद्धचेयन्ना ।। लोएण ससोएणं, पलोइया सा वि उड्डिणा ।। ५५० ।। तित्थाणमाइ तित्थे सत्तुंजयपव्वयम्मि सा गंतुं ।। पणमेइ भत्तिजुत्ता, पढमजिणं पढमगणहारिं ।। ५५१ ।। भणिऊण नमुक्कारं जिणपुरओ चउविहंपि आहारं ।। परिहरइ जावजीवं, जीवियतारुण्णनिव्विन्ना ।। ५५२ ।। जे भव्वा इह तित्थे जत्तिं कुव्वंति भत्तिसंजुत्ता ।। परमत्थेण जत्तं करंति ते सिद्धनयरीए ।। ५५३ ।। जइ पुण एत्थ वि तित्थे पंडियमरणं पि पुनजोएणं ।। पाविज्जइ तो मन्ने मरणाण जलंजली दिन्नो ।। ५५४ ।। अवरं चःसरणं न होइ सरणं न य भत्ता नेयभायरो जाओ। तणओ वि नेयसरणं, संसारे जिणमयं मोत्तुं ।। ५५५ ।। इच्चाइ भावयंती,भावविसेसेण निवइगयचित्ता ।। पाणेहिं परिचत्ता उप्पना कंचि नयरीए ॥ ५५६।। (चतसृभि : कलापकं) चंदणदुमो व्व तत्थ वि पुरीए सव्वंगसीयलायारो ।। सेट्ठी चंदणसारो, निवसइ धणरयण-परिकलिओ ।। ५५७ ॥ सेट्ठिस्स तस्स धूया बहूण पुत्ताण उवरि सा जाया ।। नामेण चंदलेहा, रूववइसुं परा रेहा ।। ५५८।। संजायजाइसरणा, जिण-धम्म-परायणा भवज्झा सा । कमसो कलाहिं कलिया, सियपक्खे चंदलेह व्व ।। ५५९ ।। सम्म सम्मत्ताई जिणिदधम्मं करेइ सा बाला ।। 2010_04 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अज्जा संसग्गेणं अहिज्जए धम्मसत्थाणि ।। ५६० ।। कालेण कम्मपयडी पमुहे सत्थम्मि सुत्त-अत्थेहिं ।। सा चेव उदाहरणं जाया सविवेयलोयाणं ॥ ५६१ ॥ तिस्सा संसग्गेण, सिट्ठी सुविसिट्ठसावओ जाओ। तीए समप्पियकुसुमो, तिक्कालं पूयए बिंबं ॥ ५६२ ॥ घरकज्जे ववहारेसु, धम्मकज्जम्मि रायकज्जम्मि ।। पिउणा पुच्छिज्जंती, पमाणमेसा तहिं जाया ॥ ५६३ ॥ विनविऊणं सिद्धिं, सुदूरदेसंतराउ वरतुरए ।। खुंगाहे वोल्लाहे सेराहे कोंकनाहे या ॥ ५६४ ।। कंबोज-तेज-पारस-पाराकरपमुहविविहदेसभवे ॥ सोमाललोमफरिसे, आणावइ पवणमणवेगे ॥ ५६५ ।। पुरपरिसरसरतीरे, जलनिहिकल्लोललोलसरलंगा। दीसंति ते तुरंगा सहजणनयणेहि रंगंता ॥ ५६६ ॥ समयंतरे किसोरा, अतुल्लमुल्लेण मग्गिया रन्ना ॥ कहमवि न चेव अप्पइ, निय धूया वारिओ सेट्ठी ।। ५६७ ॥ अह वडवागब्भदिणे, उवरोहवसेण जाइया तुरिया ।। दुहिया संकेएणं, समप्पिया ते वि नरवइणो ॥ ५६८ ॥ एवं कइवय वरिसे सेट्टितुरंगा गहाविया रना ।। इय तस्स पंच वरिसा, वकंता गिण्हमाणस्स ।। ५६९ ॥ सा चंदलेहकन्ना, जणयं पभणेइ ताय ! रायकुले ।। मह तुरएहिं जाया, जे तुरिया गिण्ह ते सव्वे ॥ ५७० ॥ जइया राया तुमयं, धरेज्ज गाढं भणेज्ज तं तइया ।। मह धूया परमत्थं, जाणइ नाहं न वा अन्नो ।। ५७१ ।। तत्तो निय तुरयभवा, तुरंगमा रायपुरिसकरसहिया ।। जा पत्ता सरितीरे, संगहिया सेट्ठिणा ताव ॥ ५७२ ॥ सेट्ठिपरिवारतासियनरवर-परिवारकोविओ राया ।। 2010_04 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४३३ आहविय भणेइ सेटुिं, किह तुरया गिण्हिया तुमए ।। ५७३ ॥ चंदणसारो जंपइ, कारणमिह देव ! नेव जाणामि ।। विनाणनाणकुसला, मह कन्ना उत्तरं करिही ।। ५७४ ॥ कोऊहलकलियमणो, पडिहारं पेरिऊण नरनाहो । आहवइ तस्स धूयं अत्थाणसहा समासीणो ।। ५७५ ।। । तालविंट-हत्थसाडय-कप्पूरवट्ट जुत्त कच्चोलं ।। लीलाए करयलेणं, कलयंतीहिं समाइन्ना ।। ५७६ ।। जंपाण जाण लंघिणि सोक्खासण-पमुह वाहणगयाहि ।। बहु-देस-वेस-भासाहि, पवरदासीहि परियरिया ।। ५७७ ।। अवियःअंगोचियवेसाहिं, दविहपयारेहिं लाडवयणाहिं ।। वरकुंतलरयणाहि, कोसलभासाहिं ताहि जुया ।। ५७८ ।। वन्निज्जमाण विहवा, पए पए पवरवंदिवंदेहिं ।। बाला अबालचरिया, संपत्ता रायपासम्मि ॥ ५७९ ।। नणु दुद्धमुद्धडमुही, एसा कन्ना रवन्न लावण्णा ।। पडिउत्तरं करेही इय लोओ विम्हिओ जाओ ॥ ५८० ।। रायप्पणामपुव्वं, उवविट्ठा निय पिउस्स उच्छंगे ।। पुट्ठा रना पभणसु, हयहरणे उत्तरं किंपि ।। ५८१ ।। सा सावटुंभमणा रायं पभणेइ देव ! इह भुवणे । अन्नो वि सरइ भणियं दुल्ललिय निवो विसेसेण ।। ५८२ ।। जं किं चि भणइ भणियं, न सरइ न गणेइ लंछणं विहियं ॥ नरनाहो निवलच्छी सुहमुच्छा संनिवाएण ।। ५८३ ।। हालाहलसहवासा, कमलनिवासा सओवभुज्जंती ।। देंता वि अचेयन्नं न हु मारइ जं तमच्छरियं ॥ ५८४ ॥ विभवंतरं विसेसा, भवंतरं नूण सो समारूढो ।। कहसु मरइ नियविहियं जम्मंतरं विहिय वत्थं व ॥ ५८५ ।। 2010_04 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो रत्तच्छिकरालो, महिवालो भिउडिभुंगरनिडालो ।। पभणइ पावे ! तं चिय, संभारसु मज्झ वीसरियं ॥ ५८६ ।। सा आह नाह ! तुह मुहगिराए नियए करेमि वरतुरए ।। अनह मह घर-दव्वं, सव्वं चिय तुज्झ आयत्तं ॥ ५८७ ।। इय जंपिऊण एसा, निवइ निओगीहिं पुव्वछेवाडि ।। वायावइ मन्नावइ, निय तुरयभवे निए तुरए ।। ५८८ ।। सामंति-मंति-तलवर-पुरोहियप्पमुहसयलपुरलोओ।। तिस्सा बुद्धिविसेसं, कलिऊणं विम्हिओ जाओ ।। ५८९ ।। निय जणय-मणय-तोसो, मसिकुच्चो नरवइस्स मुहकमले । जगवं विहिओ तीए, उक्करिसो बंधुवग्गस्स ।। ५९० ॥ हरिसियमाण पुरजण-नियरेहिं पसंसिया इमा बाला ।। रायभवणाउ तत्तो, संपत्ता जणयभवणम्मि ।। ५९१ ।। तिस्सा तं विन्नाणं, अवमाणं नियगयं च पेच्छंतो ।। विम्हयविसायगहिओ, कयपडिकयमाणसो राया ।। ५९२ ।। समयंतरम्मि कन्नं तं चिय मग्गेइ परिणयनिमित्तं ।। भयभीओ सो सेट्ठी, परमत्थं पुच्छए दुहियं ।। ५९३ ।। सा चंदलेहकन्ना, हरिसभरुब्भिन्नरम्मरोमंचा ।। पभणइ कुणसु विवाहं, चयसु भयं नियय चित्तम्मि ।। ५९४ ।। चंदणसारेण तओ पुहईसरचंदलेहकन्नाणं ।। महया विच्छड्डेणं, वीवाह-महूसवो विहिओ ॥ ५९५ ॥ तीसे नवधवलहरं, राया अप्पित्तु पभणए जइ वि ।। धुत्तीण महाधुत्ती, तह वि हु छलियासि निब्भंतं ॥ ५९६ ॥ एसा मज्झ पइन्ना नाहं परिणयणदिवसमारब्भ ।। तुमए सह संलावं, करेमि रत्तेण चित्तेण ।। ५९७ ।। एसा धिट्ठा जंपइ, मज्झ वि निसुणेसु एरिस पइन्नं ।। तुममेव देव ! निययं उच्चिटुं जेमइस्सामि ॥ ५९८ ।। 2010_04 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा ४३५ तह नियसेज्जं तूलिं वाहेयव्वो य नियय सत्तीए । अन्नह तुमए अहयं, मुयाण मज्झे गणेयव्वा ॥ ५९९ ।। तव्वयणरत्तनेत्तेण, जइ वि सोहग्गसुंदरी बाला ।। दोहिग्गिणीस मज्झे, तो खित्ता तक्खणा चेव ।। ६०० ।। तित्थंकरपडिमाणं, अट्ठ पयारं विसिट्ठवरपूयं ।। तिक्कालं कुणइ इमा तिहा विसुद्धेण भावेण ।। ६०१ ।। सोहग्गकप्परुक्खो, कल्लाणतवो य सव्व संपत्ती ।। निरुजसिहो जव-मज्झो, एमाइ तवो तवइ बाला ।। ६०२ ।। आपुच्छिय नरनाहं, उज्जमणदिणम्मि जणयपासाए ।। पत्ता तवतणुयंगी तुसारभरदड्डनलिणि व्व ।। ६०३ ।। अंके कलिऊण तयं, विलवइ सेट्ठी सगग्गयगिराहिं ।। हा वच्छे ! किह तुमए, दूसहदहणस्स अप्पिओ अप्पा ।। ६०४ ॥ अहयं वीवाहमहं, सहि महिवइणा करेमि न हु कह वि ।। किं पुण हयास-विहिणो, न सक्किमो कह वि पहवेउं ।। ६०५ ।। पडिसिद्ध-सिट्ठवयणा, उज्जमणं करावेइ सा विहिणा ।। सव्वाणं पि तवाणं जिणं च संघं च पूयंती ।। ६०६ ।। सेट्ठी तं परिणयणं, मनंतो सल्लतुल्लमह तीए ।। किं ताय ! कायरधुरा, धुरंधरोसि त्ति सिक्खविओ ॥ ६०७ ॥ पुरिसो पराभवतलं, सिंचइ नयणं सुसलिलधाराहिं ।। तं चेव दहइ सयलं, तेण हुयासेण सहस त्ति ।। ६०८ ।। ववसायवायसहिओ ते हुयासो परूढगाढं पि।। दहइ पराभवकाणणमसंसयं झत्ति वित्थरिओ॥ ६०९ ।। तायविसायपिसायं, चयसु तओ कन्नयाण पन्नासं ।। सयलकला कलियाणं, अप्पसु खिप्पं सुरूवाणं ।। ६१० ॥ निय भवणाउ एगं, सुरंगयं मज्झ भवणपज्जतं ।। दुइयं दुवारवासिणि देवी मणहरणभवणाओ ॥ ६११ ।। 2010_04 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मह मंदिरपज्जंतं, कुणसु तुमं तह य मज्झ भवणस्स ।। हिट्ठा सुरंगमज्झे, मणिभवणं कुणसु रमणिज्जं ॥ ६१२ ॥ तव्वयणसवणसमयाणंतरमेव य समग्गसामग्गि ।। निम्मावइ तो सिट्ठी, अन्नं पि हु तीए जं भणियं ।। ६१३ ।। तत्तो निय भवणाउ, सुरंगमज्झेण जणयभवणम्मि ।। आगंतुं अज्झावइ, कन्नाउ कलाकलावं सा ।। ६१४ ।। गीए तह संगीए, रावणहत्थम्मि वेणु-वीणाए ।। नट्टे वज्जाउज्जे, निउणत्तं ताण तो जायं ॥ ६१५ ॥ तो सा पायालगिहे, अमुल्लमणिरयणकोडिसंघडिए ।। रविकंत-किरण-लहरी-संहरिया सेसतिमिर-भरे ॥ ६१६ ॥ अवितक्कियदिवसनिसा विभायपरभायपत्तरमणिज्जे ।। मणिमइय खंभमंडलमंडवमंडियदुवारम्मि ।। ६१७ ।। सीहासणे निसीयइ भासुरसिंगारतारसव्वंगा ॥ समवेस समविभूसणकन्ना पन्नास परियरिया ॥ ६१८ ।। तिसृभिः विशेषकम् तव्वयणेण नीसीहे समहत्थं कित्तियाउ कन्नाओ ॥ दिति बहुबुक्कढक्का, हुडुक्करवभरियदिसिचक्कं ॥ ६१९ ।। तालिं धरिति काउ वि वज्जं वायंति काउ आउज्जं ।। तयणु वरवेणुवीणं, महुरं वायंति काउ वि ।। ६२० ।। सत्तसरभेयभिन्नं, वीणं एयाहिं वाइयं तत्तो ।। नियभवणठिओ राया, सोउं एवं विचितेइ ।। ६२१ ॥ एयं किमंतरिक्खे, पुरि मज्झे किंच किंच गिरि मज्झे । • पायालपुरे किं वा कस्स पुरो विहिय सुकयस्स? ॥ ६२२ ।। किं नरमिहुणं किं वा, वीणं वाएइ तुंबरु अहवा ॥ किं वा देवी वाणी, सयमेव य वायए एसा ।। ६२३ ।। किं वा मह चिंताए, चिया समाणाए विग्घभूयाए ।। 2010_04 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रहाकहा कज्जमिमी तावय, सुणेमि सवणामयं गीयं ॥ ६२४ ॥ अह वरनट्टं घग्घरि-गुरुनिग्घोसा पयट्टए एगा || करणंगहारसारं, बत्तीसयचारिया सहियं ॥ ६२५ ॥ रमणीयसद्दरमणीगणेहि पूरिज्जमाणमहुरवा ॥ विच्छित्तलक्खलक्खियमयदिव्वं गायए एगा ॥ ६२६ ॥ संपुन्नगाममविणट्ठजाइमक्खलियगइपयारं च ॥ राया रायसरिच्छं, रायं निसुणेइ तव्विहियं ॥ ६२७ ।। मयभिभलावि करिणो, तक्खण संहरियमत्तवावारा ॥ अमयं व ताण गीयं, सुणंति उत्तंभियस्वणा ॥ ६२८ ।। मुक्कपल्लंकसुक्खो, महियलसंलुलियसवणजुयलिल्लो ॥ लिहिउ व्व मुच्छिओ विव स परियणो सुणइ तं राया ॥ ६२९ ॥ तत्तो मुहुत्तमित्ताणंतरमंतरियगीयपियूसो ॥ पाभाइयतूररवो, उच्छलिओ गरललहरि व्व ।। ६३० ।। सजलजलवाहसद्दो कोकिलकुलकलकलं जह समेइ ॥ सव्वं दिव्वं गीयं तह तेण रवेण उवसमियं ॥ ६३० ॥ सा चंदलेहकन्ना अन्ना कन्नाउ जणयभवणम्मि ॥ पस सयं तु नियए धवलहरे झत्ति संपत्ता ॥ ६३१ ॥ गरुयविसायनिसायं, समुव्वहंतो महंतदुक्खेण ॥ 1 राया पभायकज्जं, सज्जइ संगीयगयचित्तो ॥ ६३२ ॥ गणितरियं संगीयं पुण वि ताहिं पारद्धं || विविहपयट्टियनट्टं, अउव्व बंधं व मणकरिणो ॥ ६३३ ॥ अहो अहो मह कन्ना धन्ना दिव्वं सुणंति जं गीयं ॥ इय राया चिंतंतो, चएइ निद्दं च सेज्जं च ॥ ६३४ ॥ चजामा बि-तिजामा तइ जामसया हवेइ तो लठ्ठे ॥ पासायतलनिलुक्को इय चिंतइ सुणिय तं गीयं ॥ ६३५ ॥ आसन्नगिहारामे, पभायसमयम्मि पक्खिलक्खेहिं ॥ 2010_04 ४३७ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं संगीयरंगभंग, कुव्वंतो कलयलो विहिओ ॥ ६३६ ।। तत्तो विसन्नचित्तो हियसव्वस्सो व्व झायए राया ।। तं चेव दिव्वगीयं, पहिओ सलिलंबमरुमग्गे ॥ ६३७ ।। उइए वि दिवसनाहे, नढेसु वि निसियरेसु सव्वेसु ।। गरुय-विसाय-पिसाओ, न हु नट्ठो तस्स निवइस्स ।। ६३८ ॥ दिणयर-कर-संघडियं, अंभो अ वणं पि वियसियं सयलं॥ रन्नो उण मुहकमलं, मिणालमहियं तहिं जायं ।। ६३९ ।। अत्थाण-मंडवगओ, जाणगजोइसिय-पुच्छणा पउणो ॥ निच्चं पि सो निसीहं, समीहयंतो गमइ कालं ॥ ६४० ॥ अह तत्थ पुरे रन्नो, संगयसंगीय-हरिय-हिययस्स ।। तिस्सा संकेएणं पत्ता, वरजोगिणी एगा ।। ६४१ ।। जायकेरिसी :हेममय-दंड-मंडिय-कर-किसलासेसजोइणीहितो ॥ गढ-गहिय-चंड-दंडा, नज्जइ निययाए सत्तीए ।। ६४२ ॥ रयणमयपाउयाओ आरूढा गाढ-गरुयवटुंभा ।। उप्पयणमणा नज्जइ संचरमाणा वि धरणीए ।। ६४३ ।। नेत्तमयं तलवटें, सविब्भमं सा सिरम्मि कलयंती ॥ पेच्छइ लोयाण तहिं दित्तिं नेत्ताण मिलियं च ।। ६४४ ।। कर-किसलय-कलिय-नित्तल अंक्खावलि मालिया सहइ एसा ।। किसलयजुयाइं सिद्धी, वीयाणि समुव्वहंति व्व ।। ६४५ ॥ नवरविकिरणमयं पिव कलयंती कणयजोग पटुं व ॥ जद्दरवरपावरणं, धारंती ससिकरचयं व ॥ ६४६ ।। फलिहंकमणिगणंकियमंदोलिरमंसुजालदिप्पंतं ॥ सवणजुयलम्मि कुंडलजुयलं लीलाए धारती ।। ६४७ ।। सा सहइ सवणमूलं गयाहि निच्चं पि विनविज्जंती ।। 2010_04 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा सिद्धा तुह त्ति अम्हे, मिलियाहिं सयलसिद्धीहिं ॥ ६४८ ॥ कणयमयरयणमंडियपवरासणपाणिचेल्लिया जुत्ता ॥ पडिहारदिन्नमग्गा, निज्जियसुरनारिसोहग्गा ॥ ६४९ ॥ नवतारुन्नरवन्ना, कमसो अत्थाण- मंडवे पत्ता ॥ तेण निवेणं एसा, जोइणीगणसामिणी दिट्ठा ॥ ६५० ॥ विष्फारियमुहकमलो, दावइ सीहासणं च नरनाहो || कह पणिवायं रायं, आसंसइ सा वि उवविट्ठा ॥ ६५१ ॥ मणवंछियत्थसिद्धी, सिद्धी निव्वाणनामिया सिद्धी ॥ अट्ठ पयारा जम्हा, सो जोगो तुह सिवं दिसउ || ६५२ ।। राया जंपइ अम्हे, सकयत्था तुज्झ दंसणा चेव ॥ तह विहु पुच्छेमि तुमं, जाणासि अच्छेरयं किं पि ।। ६५३ ।। सा आह दिवसनाहं, चंदं चंदं तु कमलिनी नाहं ॥ कारेमि ससत्तीए गेरुयचुन्नं व मेरुं पि ॥ ६५४ ॥ सग्गे वा दुग्गे वा को वि हु कज्जं करेज्ज जं गूढं ॥ जाणेमि तं पि करयलकलियामलकुवलयफलं व ॥ ६५५ ॥ हुं सिद्धो मह अत्थो, तुज्झ पसाएण जंपिरो एवं ॥ या आयरपुव्वं, नियए तं तइ धवलहरे ।। ६५६ ॥ सम्माण-दाण-भोयण-सिणाण पमुहाणि तीए कुव्वंतो ॥ राया गमेइ दियहं विवहविणोएहिं सयलं पि ॥ ६५७ ॥ ततो निसीहसमए, गीयं सुणिऊण भमइ नरनाहो || एयं मह पेच्छणयं, दंससु निययाए सत्तीए ॥ ६५८ ।। सा आह सयलहईनाह ! निदंसेमि तुज्झ एवं पि ॥ किं तु तुह नयण- -जुयले, पट्टतिगं बंधइस्सामि ॥ ६५९ ॥ तह तुह देहं दिव्वं, करेमि निययाए मंतसत्तीए । अन्नह तत्थ पवेसो न लब्भए कह वि नरनाह ! ॥ ६६० ॥ आमंति तेण भणिए, पभायसमयम्मि लिहियमंडलए ॥ 2010_04 ४३९ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सिरिपउमप्पहसामिचरियं उववेसिय नरनाहं, उच्चारइ दिव्वकरमंतं ॥ ६६१ ।। जाए पओससमए, जणसंचारं निवारियं तत्तो ।। नरनाहनयणजुयले, पट्टतिगं बंधए गाढं ॥ ६६२ ।। नीओ य चंदलेहाभवणे तत्तो य सेट्ठिभवणम्मि ।। तत्तो दुवारवासिणिदेवी भवणम्मि सो तीए ॥ ६६३ ।। तीए य सुरंगाए पुव्वं विहियाए रयणभवणम्मि ॥ नीउं कमेण मुक्को, विवित्तदेसम्मि महीनाहो ॥ ६६४ ॥ जा सणियं पट्टतिगं छोडइ अच्छेरपुरिओ ताव ।। पेच्छइ छाइयनहयलमणिमंडियमंडिउवंतं ।। ६६५ ।। खीरोय-जलहि-लहरी-निम्मलतरलायमाणउल्लोयं ।। मणिरयण-सालभंजिय-सणाहं सयसंखवरखंभं ।। ६६६ ।। रणझणिर-कणय किंकिणि-निबद्ध-धयलक्खय लक्खियाभोयं ॥ अइतेयदुरालोयं राया पायालमणिभवणं ॥ ६६७ ।। तयणु समवेसकन्ना जुत्ता दिप्पंतमणिमयाहरणा ।। कयदेवदूसवेसा, मालइमिलियालिसमकेसा ॥ ६६८ ॥ जयस जिय तियसकामिणि-गयगामिणि नायलोयरायस्स ॥ जीविय-सामिणि-भामिणि-मुहनिज्जिय जामिणी जाणी ॥ ६६९ ॥ इय असुरसुंदरी समतरुणीगणधुव्वमाणवरचरिया ।। सीहासणे निविट्ठा, दिट्ठा सा तेण ससिलेहा ।। ६७० ।। दट्टण इमं राया, नूणमिमा दिव्वसुंदरी का वि ।। इय कयमणसंकप्पो, स चमक्कारो विचिंतेइ ।। ६७२ ।। रूवस्स वि वररूवं, तारुण्णस्सावि किं पि तारुण्णं ।। एसा सुदिव्ववेसा, अच्छेरस्सावि अच्छेरं ।। ६७३ ।। सहइ इमा मणिनिम्मियझलज्झलायंतसवणताडंका । नवमुहमयंकसेवासंगयदिणरयणिनाह व्व ॥ ६७४ ।। इय तस्स चिंतयंतस्स ताहिं कन्नाहिं तीए आएसा ॥ 2010_04 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा पारद्धं संगीयं, असंभवं सग्गलोए वि ।। ६७५ ।। सा जोगिणी वि तीसे, आसीसं परिचिय व्व पयडित्ता ॥ विहियपणामा तीए, महरिहसीहासणे विसइ ॥ ६७६ ॥ नाऊण निवं पत्तं तह ताहि वि विविहभंगिमणहरणं ॥ संगीयं निम्मवियं जह रयणी विगलिया सव्वा ।। ६७७ ।। दिवसे वि जाममित्ते वक्कंते तं विसज्जियं गीयं ॥ तस्सा संकेयवसा, अइदिव्वा रसवई पत्ता ॥ ६७८ ॥ चाउज्जयगमीसियपेऊसद्वारसं वंजणसणाहा ॥ वरकमलसालिमोयगमुरुक्कियामंडिया जुत्ता ॥ ६७९ ॥ सा जोयणी पपड़, किं कज्जं चइय णायपहुरज्जं ॥ पायालयकामिणिसामिणि इह तंसि संपत्ता ।। ६८० ॥ अविरलगलंतनेत्ता दीहं नीससिय जंपए एसा || जाणसि तुमं पि पट्टो मह चेव इमस्स सुद्धंते ॥ ६८१ ॥ किं तुह किंकरीसुं, कुसला वीणाए वाइणी एसा ॥ निय मित्तस्स निमित्तं, पूयाणंदाभिहाणस्स ॥ ६८२ ॥ धरण मग्गिया विहु मए वि संगीयभंगभीयाए || नो अप्पिया तओ सो भाइ हढेणावि गिहिस्सं ॥ ६८३ ॥ अवमाणगहियहियया, ता हं रूसित्तु एत्थ संपत्ता ॥ विहियवररयणभवणा, चिट्ठेमि इहेव अइसुहिया ॥ ६८४ ॥ महावं, अर्चितसामत्थमंतमाहप्पा ॥ जह सो कह वि न याणइ मह ठाणं इह पएसम्म ॥ ६८५ ॥ इच्चाई जंपमाणी, हत्थे गहिऊण जोइणि झत्ति ॥ पत्तो भोयणभवणे, निज्जियनीसेससुरभवणे ॥ ६८६ ॥ सायरमेसा पण बहुहिं दिवसेहिं मज्झ मिलियासि ॥ तो अज्ज मए सद्धि भुंजसु एगम्मि थालम्मि ॥ ६८७ ।। आमंति तीए भणिए, महमहिया मोयगंति अग्घाणं ॥ 2010_04 ४४१ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सो भुंजिउं पवत्ता, तं दिव्वं रसवई तत्थ ।। ६८८ ।। विम्हयवियसियनयणो, तं पिच्छंतो विचिंतए राया ।। पायालकन्नयाए रूवमहो निरूवमं भुवणे ।। ६८९ ।। तह मह धन्ना कन्ना, जेहिं सुया महुरजंपिरी एसा ।। धन्ना अहो भयवई, जा जिमइ इमीए सह मिलिया ।। ६९० ।। एत्थतरम्मि तिस्सा, संकेयवसेण जोगिणी भणइ ।। हा हा मज्झ पमाओ वीसरिओ जं नओ सीसो ।। ६९१ ।। सच्चं पमायमइरामत्तो संभरइ नेय अप्पं पि । अहवा न किंपि नटुं, तेण विणा नेय जेमिस्सं ॥ ६९२ ।। सा चंदलेहकन्ना, ससंभमा भणइ तं अयाण व्व ।। जोइणि सामिणि ! को ते सीसो मह कहसु निब्भंतं ।। ६९३ ।। देवो वा असुरो वा नायकुमारो व्व किंनरो वा वि ।। जो सीसो तुज्झ गोरव्वं तस्स कायव्वं ।। ६९४॥ सा जोइणी पयंपइ सीसो न हु देवजाइओ को वि ।। किं पुण एसो मणुओ, दुल्ललिओ नाम नरनाहो ।। ६९५ ॥ सा पभणइ अवणाए, वेलविया तंसि भत्तिलोहेण ।। जं भणसि मज्झ पुरओ नियसीसं मणुयमित्तं पि ॥ ६९६ ॥ ते जोइणीए भणियं मयच्छि ! मा भणसु कि पि इह अत्थे । जं मंतपभावेणं, दिव्वसरीरो कओ एसो ॥ ६९७ ।। तुमए वि अउ चेव य इहागओ जइ वि तह वि इह नाओ। जस्स अहं परित्तुट्ठा, किं दुलहं तस्स ति जए वि ।। ६९८ ।। तो दिव्वसरीरं तं दिव्वेण रसेण दिव्वभवणम्मि ।। तं दिव्वसुंदरि ! सयं जेमावसु मज्झ वयणेण ।। ६९९ ।। तुज्झ पमाणं वयणं ति जंपिऊणं इमा वि तं थालं ।' उच्चरिय भत्तपुनं उप्पाडइ नियय हत्थेण ।। ७०० ।। पुत्तय ! पुत्तय ! तुरियं, एसु इहं दिव्वभोयणं कुणसु ॥ 2010_04 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रलेहाकहा इय जोइणीए भणिउ, राया तप्पासमल्लीणो ।। ७०१ ।। सकयत्थं पिव अन्नं, मन्नतो गिण्हिऊण तं थालं ।। दिनासणो तहिं चिय, उवविठ्ठो जिमइ रंको व्व ।। ७०२ ।। कन्नाउ ताउ अन्नं मणुनमनं पुणो वि से दिति ।। काओ वि तस्स मज्झे जोइणिवयणेण भुंजंति ।। ७०३ ।। कप्पूर-पूरमीसो, तंबोलो तस्स दाविओ तयणु ।। भणिओ य जोइणीए, उट्ठसु पिच्छेसु मणिभवणं ।। ७०४ ॥ तो ताहि कन्नयाहिं, हासिज्जंतो वियट्टभणिईहिं ।। मणिभवणं पिच्छंतो, तं दियहं गमइ नरनाहो ।। ७०५ ॥ पत्ते पओससमए, वित्ते पिच्छणय-पमुहवावारे ।। करकलियंजलिबंधो, नरनाहो भयवइं भणइ ।। ७०६ ।। सच्चं निच्चं पि महं जइ तुट्ठासि कामधेणु व्व ॥ एआण अच्छराणं, तो दावसु कनयं एगं ।। ७०७ ॥ आयरपुव्वं भणिओ, जो परकज्जं न साहए पुरिसो।। चंचानरसारिच्छो सो गणियव्वो चलंतो वि ।। ७०८ ।। सा भणइ अच्छराणं अच्छेरवसेण मणुयसंबंधो ।। जइ होइ सुरकुमारा, चयंति तो ताहि सह संगं । ७०९ ।। निय सामत्थेण अहं सव्वं तुह वंछियं पि साहेमि ।। किंतु तए आजम्मं, आणा एयाण कायव्वा ।। ७१० ।। आमं ति तेण भणिए कन्ने होऊण चंदलेहाए ।। तयभिप्पायं कहिउं पभणइ तस्सेव पच्चक्खं ।। ७११ ।। चिरजागरिओ एसो, उवरिमभूमीए लहउ घणनिदं ।। तुज्झ पसाएण तहा, पावउ सुरलोयसेज्जसुहं ।। ७१२ ।। एगा ताण पयंपइ उवरिं न हु अस्थि का वि वरसेज्जा ।। जइ एस सुहं वंछइ उप्पाडइ तो इमं तूलिं ।। ७१३ ।। तव्वयणसवणसमयांणंतरसंगुणियदसगुणुच्छाहो ।। 2010_04 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं तं तूलिं नियसिरसा, उप्पाडित्ता गओ उवरिं ।। ७१४ ।। पुणरवि आगंतूणं, पल्लंकं रयणकिरणदिप्पंतं ।। सो उवरिं गिण्हित्ता अत्थुरइ पसत्थदेसम्मि ।। ७१५ ।। सो जोइणीए भणिओ सुरसुंदरिसामिणिए तं सिज्जं ।। उप्पाडसु एयं पि हु आगच्छइ जेणिमा उवरिं ।। ७१५ ।। स्ना तहेव विहिए, उवरिमभूमीए सा गया बाला ॥ छयवयणेहिं रायं, सरायहियया समालवइ ।। ७१६ ।। नियविनाणपयासण-पुव्वं तह तीए रंजिओ राया ।। जह सो तिलोयमझे, न हु अन्नं मन्नए रमणि ॥ ७१७ ॥ जाए पच्छिमजामे, अच्छीसुं पुण वि बंधिउं पढें ।। सो जोइणीए तीए नीओ तं चेव धवलहरं ।। ७१८ ॥ एवं दियहे दियहे, आगच्छंते निवम्मि सा भणिया ।। वरजोइणीए एसो, सामी दासो तुह च्चेव ।। ७१९ ।। अह सा विहियसमीहियकज्जा सिंगारतारसव्वंगा ।। अंतेउरमज्झगयं रायं पभणेइ अन्न दिणे ।। ७२० ।। जइ पयडियावराहा, अहयं विद्देसगोयरे व चिया ठविया ॥ अंतेउरमेयं पि हु तो किं परिहरसि निद्दोसं ॥ ७२१ ।। अह वाउलाउ एसो सुरसुंदरिललियभोयदुल्ललिओ ॥ अम्हारिसाण नूणं अगोयरे संपयं जाओ ॥ ७२२ ।। वियसियवयणाए निवो सहासवयणं निसामिओ तिस्सा ।। दिव्वं च देहसोहं, दटुं चिंतेइ किं एयं ।। ७२३ ।। अह तीए इमं भणिओ मणवल्लह ! जोइणीए वयणाओ। जो तुह विणयब्भंसो, विहिओ तं खमसु मह सव्वं ।। ७२४ ।। विम्हयविसायहरिसे, समुव्वहंतेण तेण नरवइणा ।। सा चेव पट्टदेवी, विहिया अंतेउरी मज्झा ।। ७२५ ।। अंतेउरपरियरिओ तीसे धवलहरमज्झमग्गेणं ॥ 2010_04 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ चंद्रलेहाकहा पायालगिहे पत्तो, सच्छंदं रमइ नरनाहो ॥ ७२६ ।। ता गव्वो ता रोसो ताव च्चिय पुव्वदोससंभरणं ।। उक्कीरिय व्व हियए, जाव चहुटुंति नेव गुणा ।। ७२७ ।। वरिसाण सहस्सेसुं, वक्रतेसुं बहूसु तम्मि पूरे ॥ कुसुमायरमुज्जाणं,अभयंकरसूरिणो पत्तो ।। ७२८ ॥ राया वि चंदलेहा सहिओ गंतूण तत्थ तं सूरिं ।। विहिपुव्वं नमिऊणं, उवविट्ठा उचिय देसंम्मि ।। ७२९ ॥ गुरुणा वि धम्ममग्गो, पयासिओ निव्वुईए मग्गो व्व ।। भो भव्वा ! न पमाओ कायव्वो दुक्खसयहेऊ ।। ७३० ।। उक्तं चःश्रेयो विषमुपभोक्तुं, क्षमं भवे क्रीडितुं हुताशेन ।। संसारबंधनगतैर्नतु प्रमादः क्षमः कर्तुम् ।। ७३१ ।। तस्यामेव हि जातौ नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा ॥ आसेवितः प्रमादो, हन्याज्जन्मान्तरशतानि ।। ७३२ ॥ परिहरिय तो पमायं छव्विहआवस्सयम्मि निच्चं पि । उज्जममवस्स कज्जे, करेह सामाइयप्पमुहे ।। ७३३ ।। तत्थ वि समभावेणं, करिज्जसामाइयं सया चेव ।। । इच्छंतो निट्ठवणं, रागद्दोसाइदोसाणं ॥ ७३४ ॥ वरतित्थे पत्तो वि हु पत्ते मरणे वि जो न समभावं ।। चित्तम्मि धरइ न लहइ, सो सग्गं वापवग्गं वा ।। ७३५ ।। जह एत्थ चंदलेहे गयाए सत्तुंजयम्मि नरनाहे ।। कयविद्देसाइतया, नरभवमित्तं तए पत्तं ।। ७३६ ।। सोऊण इमं एसा, गिण्हिइ संमत्तसंजुयं तत्थ ।। सामाइयस्स नियम, अवगयगुरुवयणपरमत्था ॥ ७३७ ।। तथाहि :एगम्मि एगवारं, दिणम्मि सामाइयं मए कज्जं ।। 2010_04 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं निय नयरम्मि ठियाए, रोगाइविमुक्कदेहाए ।। ७३८ ।। रायाइजणो मुणिपयमूले, नियजुग्गयाए गिण्हित्ता । नियमे नियम्मि ठाणे मुणिनाहं नमिय संपत्तो ।। ७३९ ॥ निच्चं पि चंदलेहा सम्म सामाइयस्स पडिवत्तिं ।। सुद्धंते सुद्धमणा, कुव्वंती गमइ बहुकालं ।। ७४० ।। अन्नदिणे सामाइयगहणं, काऊण निच्चमुज्जुत्ता ।। आवस्सयं पि काउं, काउसग्गे ठिया एसा ।। ७४१ ।। धम्मं झियायमाणा, दोहिं वरवाणमंतरसुराहिं ।। सम्मत्तं मिच्छत्तं उव्वहमाणाहि सा दिट्ठा ॥ ७४२ ।। समत्तधरा देवी, जंपइ सुर-असुर-नरवरिंदा वि ।। धम्मज्झाणाउ धुवं, एयं चालेउमसमत्था ।। ७४३ ॥ अवरा पभणइ पिच्छसु, सामत्थं मज्झ एत्थ कज्जम्मि ।। इय जंपियवेयाला, घोरा विउरुव्विया तीए ।। ७४४ ।। करकलियकत्तिनिवहा मुहकंदरनीहरंतगुरुजाला ।। ते घोररावतासिय-दिसागयंदा पयंपंति ।। ७४५ ।। पाविट्टि ! इमं मुंचसु झाणं उव्वेयकारणं अम्ह ।। अन्नह इमे वि रुठ्ठा, सहस त्ति तुमं गिलिस्सामो । ७४६ ॥ सा न वि जंपइ जाला, ताला सव्वे वि झत्ति वेयाला ।। तिमिराणि व्व पभाए, अदंसणं चेव संपत्ता ।। ७४७ ।। एवं तीए गइंदा, तहय मयंदा वि उच्चिया ते वि ॥ उवसग्गं काऊणं,विहला जाया पुरो तिस्सा ॥ ७४८ ।। तत्तो सुरमायाए, रायं गिण्हित्तु केसपासम्मि ।। होऊण पुरो तिस्सा, जंपइ सा वंतरी पावा ।। ७४९ ।। अइधिटे निल्लज्जे ! एवं परिहरसु नियमणुट्ठाणं ।। अन्नह इमं वहिस्सं, मा भणिहिसि जं न कहियं ति ॥ ७५० ॥ विहियम्मि तीए मोणे, वंतरमायाए जंपए राया । 2010_04 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतकुमारकहा ४४७ हा देवि ! किमारद्धं, मह मरणकरं इमं तुमए ।। ७५१ ॥ परिहरसु अणुट्ठाणं, एयं पसयच्छि ! जेण जीवेमि ।। इत्थीहिं धुवं भत्ता तायव्वो सव्वहा चेव ।। ७५२ ।। अह सा चिंतइ संपइ मह नाहो नूण संकडावडिओ। तो वंतरीए भणियं, करेमि किं दइयकज्जेण ।। ७५३ ।। अहवा न जुत्तमेयं जंपिय पमुहा अणंतसो पत्ता ।। एत्थ भवे सयणगणा, अखंडनियमो न संपत्तो ।। ७५४ ।। मरणं च जीवियं वा धणगणसयणाइयाण हाणी वा ।। अन्नं पि हवउ नाहं, निय नियमं भंजइस्सामि ।। ७५५ ।। इय तीए निच्चलाए, घायचउक्के खणेण खीणम्मि ।। उपन्नं वरकेवलनाणं संहरियसंदेहं ॥ ७५६ ॥ आसन्नसुरवरेहिं, उवणीयं गिण्हिऊण जइ-मुई ।। काऊण पंच-मुट्ठियलोयं, अच्छरियसंजणयं ।। ७५७ ।। सुरविहियपाडिहेरा, साहइ धम्मं असेसलोयाणं ।। तीए वि वंतरीए, पयडाए खामिया तत्तो ।। ७५८ ॥ दुल्ललियनिवप्पमुहं, लोयं पडिबोहिऊण सा कमसो ।। सत्तुंजयम्मि सेले निव्वाणमणुत्तरं पत्ता ।। ७५९ ।। जह विहिणा सामइयं, पालियमेयाइ चंदलेहाए । अन्ने वि हु सामइयं तह पालह मोक्खमिच्छंता ।। ७६० ।। ॥ इति सामायिके चंद्रलेखा कथा ।। गाथा ६६४३ ।। देसावगासियवए वसंतकुमार कहा :पुव्वं दिसिपरिमाणे गहिया जा जीवजीविया संखा ।। सा संखिप्पइ पइदिणमेयं, देसावगासियं वयं ।। ७६१ ।। अहव परिग्गहमाणे, विहिया जा जावजीविया संखा ।। धण-धण्ण-रुप्प-कंचण-खेत्तप्पमुहाण वत्थूणं ॥ ७६२ ।। पइवरिसं पइमासं पइपक्खं पइदिणं पि सा संखा।। 2010_04 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सिरिपउमप्पहसामिचरिय संखिप्पइ एवं पि हु वयंति देसावगासिवयं ।। ७६३ ।। दिसिपरिमाणवयस्स य संखेवो अहव सव्व नियमाणं ।। देसावगासियवयं, जेसिं तेसिं सुहं सयलं ॥ ७६४ ।। उवओगो निच्चं पि हु नवनव विरईय पइदिणं चेव ।। चित्तविसोहीपरमागमणागमणाइयपरिहारो ॥ ७६५ ।। कम्मक्खओ य विउलो जइ जिणधम्मस्स तह य अब्भासो॥ देसावगासियगुणा एए सव्वनुपन्नत्ता ॥ ७६६ ॥ सद्दस्स य रूवस्स य अणुवाओ तह य पोग्गलक्खेवो ।। आणवणं पेसवणं, चयसु इमे एत्थ अइयारे ॥ ७६७ ।। देसावगासियवए वसंतकुमरस्स हवइ दिटुंतो ।। तं पि हु संखेवेणं. कहेमि निसुणंतु एगमणा ।। ७६८ ।। हेममयरम्मसालं, हेमविणिम्मियविसालधणिभवणं ॥ हेममयहारिचेइय-निचयं पुरमत्थि हेमपुरं ।। ७६९ ।। जस्स धणिभवणलच्छि, पुलइय लंकाउरी वि संभंता ।। मन्ने लवणजलोयहि जलमज्झे निवडिया सहसा ।। ७७० ।। सलिलनिहिकलमलंतविहियजयकित्तिथंभपब्भारो ॥ नियमहिमविजियराया, राया हेमद्धओ तत्थ ।। ७७१ ।। कलकंठिलद्धकंठी, बिंबोट्ठी कयलीथंभथोरोरू ।। देवी वन्नविणिज्जिय हेमा हेमावली तिस्सा ।। ७७२ ।। ताणमजायसुयाणं, वसंतलच्छीपसायमाहप्पा ।। भुवणमणेसु वसंतो, वसंतकुमारो समुप्पन्नो ॥ ७७३ ।। पच्चक्खवसंतेणं, वसंतकुमरेण तेण तरुणियणो॥ . मयरद्धयसरधोरणिजज्जरदेहो विणिम्मिविओ ।। ७७४ ।। अत्थाणत्थं रायं, पणामपुव्वं कयाइ पडिहारो॥ विनवइ देव ! दारे,चिट्ठइ पुरिसो नवो को वि ॥ ७७५ ।। मुंचसु इमं ति रना भणिए पडिहारसंजुओ सुहडो ।। 2010_04 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ वसंतकुमारकहा फारफरक्किदफरुओ करवालकरो परिहबाहू ॥ ७७६ ।। गोउरकवाडसंपुङ-सच्छहअइनिविडवियडवच्छयलो ।। मंसबहलंदेसो, अत्थाणसहाए संपत्तो ॥ ७७७ ॥ रना दिने सीहासणम्मि, निवपायविहियपणिवाओ ।। उवविट्ठो अह पुट्ठो, कहेसु निय नाम गोत्ताइं ।। ७७८ ॥ सो जंपइ पुहईसर ! कलिंगदेसाउ एत्थ पत्तो हं।। रणरंगमल्लनामो, सुहडो सोऊण तुह कित्तिं ।। ७७९ ।। घणसारहारहरससितुसारपब्भारसच्छहं कित्तिं ।। तुह तियसकामिणीओ गिरिसरितीरेस गायंति ।। ७८० ।। एयं पि मए निसुयं, रायंगरुहो वसंतवरकुमरो ।। जुज्झम्मि जयं तस्स वि गव्वं अवहरइ नीसेसं ।। ७८१ ।। तो कुमरो अवरो वा जो बाहुबलस्स गव्वमुव्वहइ ।। सो मल्लनिजुद्धेणं, जुज्झउ अतिही अहं पत्तो ।। ७८२ ।। दट्ठण तस्स हिययावटुंभमसेसमंति-सामंता ।। लिहिय व्व कीलिया विव न किं पि पडिजंपिया तस्स ॥ ७८३ जंपइ वसंतकुमारों, गव्वो पुरिसेण नेव कायव्वो ।। . गज्जाउ पव्वयाउ व दुरंतदुक्खाय नणु पडणं ।। ७८४ ॥ इह संति के वि ते वि हु जेसिं चरियं पि भुवणअच्छरियं ।। कुव्वंतं सव्वेसिं, निहणइ गव्वस्स सव्वस्सं ।। ७८५ ।। धीरेण वीरेण वि दक्खेण वि तह य थूललक्खेण ।। अप्पा बहुमाहप्पं, न य निय संकप्पओ नेओ ।। ७८६ ।। उक्तं च :दाने तपसि शौर्ये च, विज्ञाने विनये नये ॥ विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुंधरा ।। ७८७ ।। तह वि हु भणियम्मि तए भणामि पूरेसु कोउयं मज्झ ।। 2010_04 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सिरिपउमप्पहसामिचरियं मल्लक्खवाडमझे, पविसिय जुज्झेसु किं बहुणा ? ॥ ७८८ ॥ एवं ति ताण भणिए, महिनाहो गरुयचित्तउच्छाहो ।। निम्मवइ अक्खवाडं, सहसा पुरबाहिरुद्देसे ।। ७८९ ।। निद्धं जिमंति निच्चं, थंभम्मि वहंति गरुयवेगेण ।। धावंति पुलिणमझे, अन्नं पि कुणंति अब्भासं ।। ७९० ।। पत्तम्मि वक्कवारे दुव्वारो ते वि वक्कवावारा ।। पविसंति रंगमज्झे, दोन्नि वि निवपमुहपच्चक्खं ।। ७९१ ।। पढम पि भुयप्फालणमुद्दामं निम्मवंति ते धीरा ।। तह जह सहाजणाणं, सवणा भयजज्जरे जाया ।। ७९२ ।। गयणम्मि उप्पइत्ता, पडंति दूराउ गरुयनिग्घाया ।। तह जह सहाजणेहिं, सह सहसा कंपए वसुहा ।। ७९३ ।। निब्भरमच्छरगहिया, आयंबरलोयणा वि सारंभं ।।। परिरंभं कुव्वंता, सिणिद्धबंधु व्व नज्जंति ॥ ७९४ ।। अइकोडविडरिल्ला, मिलंति विहडंति झत्ति पुणरुत्तं ।। दोन्नि वि महल्लमल्ला उत्ताला कंसताल व्व ।। ७९५ ।। निट्ठरकुप्परमुट्ठीपमुहपहारेहिं अंगुवंगाणि ॥ जज्जरतराणि सहसा, कुणंति अवरुप्परं दोन्नि ।। ७९६ ।। कत्तरिपमुहे बंधे, दोन वि अन्नोन्नमसमनिब्बंधा ।। जच्छंति य मुच्चंति य निय निय लक्खेसु बद्धमणा ॥ ७९७ ।। उब्भडभंगुरभालो, कुमरो अइरत्तनयणविकरालो ।। सक्खा नयरजणाणं, कक्खाए तं खिवेऊणं ॥ ७९८ ।। जा तस्स जीवियव्वं, हरेइ ता तेण दुट्ठमल्लेणं ॥ परिरंभिय तं कुमरं, उप्पइयं नहयले सहसा ॥ ७९९ ।। रे रे कोदंडकरा, पयंडकंडेहिं हणह सत्तिकरा ॥ रे झत्ति ,सत्तिनिवहं, मुंचह रे नागपासकरा ।। ८०० ॥ काऊण पासविवसं, छलकारिणमेयमित्थ आणेह ।। 2010_04 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतकुमारकहा ४५१ इय रायप्पमुहाणं, उल्लसिए बहलतुमुल-रवे ।। ८०१ ।। सो मल्लो कालिंदीजल-कज्जल-गवल-सिहिगलच्छायं ।। गयणयलं लंघतो, नयणाणमगोयरं पत्तो ।। ८०२ ।।। हा भुवणनयणकाणणवसंत ! हा संतहियय निवसंतं ॥ नियविक्कमकमलीलानिसंतविलसंतगुणनियर ! ॥ ८०३ ॥ हा वच्छ वच्छ ! कंचणकवाडसमवच्छ ! दच्छकमलच्छ ! ।। असमपरक्कमसाहसनिज्जिय ! सिरिवच्छ कत्थ गओ ।। ८०४ ।। इय विलवंतम्मि निवे पुराणि अंतेउराणि विलवंति ।। तह भवणाणि विणा ण वि दिसा वि पडिसद्दसदाला ।। ८०५ ॥ मंतीहिं महीनाहो, भणिओ भवनाडयम्मि का थिरया ।। पविसिरनिग्गमिराणं, पत्तसरिच्छाण वत्थूणं ॥ ८०६ ॥ खणदिट्ठनट्ठधणसुयधणाइबहुवत्थुबुब्बुयसणाहे ॥ भवसिरिनाहे सोयसि, किं एक्कं वसणसलिलम्मि ।। ८०७ ।। निय पुण्णेहिं एही, पुणरवि कुमरो त्ति सुणिय तव्वयणं ।। मंदायमाणसोओ सपुरी लोओ निवो जाओ ॥ ८०८ ॥ कुमरो वि तेण मल्लेण, दूरगयणंगणम्मि हीरंतो ॥ चिंतए सो को वि हु सुरो व असुरो व्व खयरो वा ॥ ८०९ ॥ ता मुट्ठिपहारेणं कुलिसेण व सेलचूलमेयस्स ।। पावस्स सिरकवालं करेसि सयसिक्करं सहसा ।। ८१० ।। अहवा इमं न जुत्तं पज्जंतं जाव ताव पेक्खेमि ।। किं कुणइ कत्थ मुंचइ, केण व कज्जेण अवहरइ ।। ८११ ॥ नेयं पि जुत्तिजुत्तं, न जाव दूरे नहम्मि वच्चेइ ।। ता हणिय सह इमेणं, निवडिस्सं इह मही-वीढे ।। ८१२ ।। इय चिंतिय हणणत्थं, मुट्ठी उग्गामिया कुमारेण ।। जाव भीएण तत्तो, तेण विमुक्को कुमारो वि ॥ ८१३ ।। दिव्ववसा सरसलिले, वियसिय कमले झड त्ति सो पडिओ ॥ 2010_04 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दढबद्धाउयगंठिस्स, नत्थि मरणं अकालम्मि ।। ८१४ ॥ तरिऊण तीरदेसे, संपत्तो उत्तरम्मि कूलम्मि ।। वाणीर-जंबु-जंबीर-नाग-नारंग-तरु-कलियं ॥ ८१५ ।। कलि-अंजण-सोहंजण-धम्मण-धव-नव-पियाल-मणहरणं ।। मणहरणकुसुमपरिमलभमंतभमरोहसंच्छन्नं ।। ८१६ ।। संच्छन्नमिहिरकिरणं, परायपिंजरियसयलदिसिचक्कं ॥ पिच्छेइ कयंबनाम, आरामं निच्चमभिरामं ॥ ८१७ ॥ मज्झम्मि तस्स पविसेइ, तरुणतरुनियरमज्झयारम्मि ॥ पिच्छेइ जक्ख-मंदिर-ममंदमणि-किरण-दुप्पेच्छं ।। ८१८ ।। उल्लसियकोउहल्लो, सो पिच्छेइ झत्ति भवणमज्झम्मि ।। रणरंगमल्लसरिसं, पडिमं जक्खस्स अप्पडिमं ॥ ८१९ ।। नूणं इमेण हरिओ केण व कज्जेण चिंतिउं एवं ।। दुहवारणए निवसइ, मणिगणमयमत्तवारणए ।। ८२० ।। अह जक्खकुमाराणं, संलावोवसरदाणहेउं वा ।। अवयरइ अवरजलनिहितीरतरंगेसु दिणनाहो ॥ ८२१ ।। अत्थमियदिणनाहे, उदयपत्तम्मि तारया नाहे ।। एत्थंतरम्मि तिमिरं, खलजणसरिसं वियंभेइ ॥ ८२२ ।। पसरंति लोयलोयण-अवमच्चुकरा तमोरगा तेसिं ।। तेणं चिय सिरमणिणो तारयछउमेण दीसंति ।। ८२३ ।। दुव्वयारअंधयारे, पसरते जलथलाइववहारो ।। न हि दस दिसिवित्थारो, लक्खिज्जइ नियय हत्थो वि ॥ ८२४ ।। अह पलयसमयगज्जिर-मेहसमूहाण घोरसंरावं ।। सहसा विडंबयंतो, वित्थरिओ अट्टहासरवो ॥ ८२५ ॥ अह जक्खो पच्चक्खो, होऊणं वयइ कुमर ! एयस्स ।। आरामस्स अदूरे, एस गिरि मंदरो नाम ॥ ८२६ ॥ एयस्स सिहरदेसे, अवरं सिहरं व निच्चलसरीरो । 2010_04 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतकुमारकहा काउसग्गम्मि ठिओ सीहो नामेण मुणि सीहो ।। ८२७ ।। एसो तवणाभिमुो, आयव्वंतो सरीरनिरवेक्खो || लक्खिज्जइ उड्ढमुहो, गवेसयंतो व्व सिवमग्गं ॥ ८२८ ॥ जं रविकरतावेणं, इमस्स नीहरइ सलिलपत्थारी ॥ तं पावतुहिणपिंडं, झाणानलविलइयं मन्त्रे || ८२९ ।। धम्मं झियायमाणो झाणं सो सत्त चेव दिवसाणि।। निम्ममचित्तो निम्मलसीलो वक्कमइ तत्थेव ॥ ८३० ॥ अह सत्तम रयणीए सत्तम चरियस्स तस्स वरमुणिणो ॥ हासपओसपरिक्खा, कज्जेणं कोऊएणऽहवा || ८३१ ।। सुरकेसरिनामेणं, रक्खसनाहेण घोरतररूवा ॥ उवसग्गा पारद्धा, मंदरगिरिमावसंतेण ॥ ८३२ ॥ अहि-नउल- कोल-मयगल - बिडाल - करवाल-सीहरूवेहिं ॥ तस्सुवसग्गा विहिया, उवसग्गसिवं पि पत्तस्स ॥ ८३३ ॥ एवं तिन्नि निसाओ पच्चक्खं मज्झ दूसहा तस्स ॥ तेणुवसग्गा विहिया, न किं पि काउं अहं सक्को ॥ ८३४ ।। अह चितिउं पयट्टो इमस्स तियसाहमस्स को होही ॥ माणमरट्टघरट्टो, सुहडो सूरो य धीरो य || ८३५ || तो लवणसायराहिं बहिं, अवहिन्नाणेण पिच्छमाणेण || एयस्स निग्गहसहो, नन्नो दिट्ठो तुमाहिंतो || ८३६ ॥ काऊण मल्लरूवं सुरेण रणरंगमल्लणामेण || हरिय मए नयराओ समाणिओ तं सि इह धीर ! ॥। ८३७ ।। एसो रक्खसनाहो, मुणिनाहो एस निय निए कज्जे ॥ चिट्ठति दो वि पऊणा, जं जाणसि तं करिज्जासु ॥ ८३८ ॥ कुमरो जंपइ संपइ, दंससु तं मज्झ रक्खसं जेण ॥ चूरेमि तस्स दप्पं तह तुह पूरेमि मणइटुं ॥ ८३९ ॥ तो जक्खेणं तेणं तस्स कुमारस्स धणुहपमुहाणि || 2010_04 ४५३ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं दिनाणि आउहाइं, वच्चंति य दो वि तं सेलं ।। ८४० ॥ करकलियकालसप्पं, फुरंतदप्पं मुणीसराभिमुहं ।। मुंचंतं तं रक्खं, कुमरो अवलोयए तत्थ ।। ८४१ ।। तो कुमरो आरोविय पयंडकोदंडमसमसाहसिओ।। हक्कइ रक्खसनाहं, रे पाव ! तए किमारद्धं ? ॥ ८४२ ॥ सुत्ताण पमत्ताणं, अबलाणं बालयाण समसाणं ॥ सरणागयाण वीरा पहारबुद्धिं न कुव्वंति ।। ८४३ ।। इय भणिओ दंडाहयअहि व्व सो अहिमुहो कुमारस्स ॥ ढुक्को रक्खसनाहो विउरुव्विय दिव्वसत्थाणि ।। ८४४ ।। ते कुमररक्खसिंदा समीवदेसे सहति वरमुणिणो । दिणरयणिविभाया इव सुरगिरिणो उभयपासेसु ।। ८४५ ॥ दिव्वेण दिव्व सत्थं, निहणइ सामन्नएण सामन्नं ।।। सहसा रक्खसमुक्कं, अमुक्कविक्कमधणो कुमरो ।। ८४६ ।। खणमित्तेणं दोन्नि वि नियपयनिद्दलियसेलमहिगोला ।। मोत्तुं आउहनिवहं, जुझंति य मल्लजुज्झेण ।। ८४७ ॥ कुमरेण रक्खसिंदो, निट्ठरमुट्ठीए झत्ति तह पहओ ।। जह नट्ठो वरमुणिणो सहसा सह मोहमल्लेण ।। ८४८ ।। तो उप्पन्नं केवलनाणं, सीहस्स समणसीहस्स ॥ पच्चूहवूहदलणे, सुहेण सिझंति कज्जाणि ।। ८४९ ।। नूणं महमहिमाए, निसायरो कुणइ विग्घसंघायं ।। तं तो कुमरो हणिही ममं ति परिनासए रयणी ।। ८५० ।। हणिऊण तिमिरसिविरं, मुणिणो समसीसियाए आरूढो ।। उदयसिहरम्मि तरणी, पयडियवरजोइसंभारो ॥ ८५१ ॥ रणरंगमल्लपमुहा, जक्खा जोइसिय-तियससंदोहा। मिलिया केवलिमहिमं, कुणंति सीहस्स वरमुणिणो ॥ ८५२ ॥ कंचण-कमल-निसण्णो, सीहो साहेइ वत्थुपरमत्थं ।। 2010_04 | Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ वसंतकुमारकहा भो भव्वा भवभीया, जइ तत्तो कुणह जिणधम्म।। ८५३ ॥ मुंचय विसयपिवासं, पसमामयरसरसायणं पियह ।। निज्जिणह निरयमग्गं, इंदियवग्गं समग्गं पि ॥ ८५४ ।। अवि पज्जलिओ जलणो तिप्पइ कइया वि इंधणगणेहिं ॥ विसयामिसेण अप्पा, एस दुरप्पा न तिप्पेइ ।। ८५५ ।। अवि जलही-सलिलेहिं, महल्लकल्लोलपूरियदियंतो॥ तिप्पइ पावो जीवो न तिप्पए विसय-विसगिद्धो ।। ८५६ ॥ आवायमित्तमहुरं, दारुणपरिणाममसमदुहहेउं ।। विस-विसमं विसय-सुहं, वज्जसु सिव-सोक्खमिक्खंतो ।। ८५७ ॥ भणियं च :आवायमित्त महुरा, विवायकडुया विसोवमा विसया ॥ अविवेगजणायरिया, विवेइजणवज्जिया पावा ।। ८५८ ॥ एत्थंतरम्मि कुमरो पुच्छइ भववास-पासबंधाओ ।। किह छुट्टोसि मुणीसर ! वेरग्गे कारणं किं वा? ॥ ८५९ ॥ अह जंपइ मुणिनाहो, कुमार ! एगग्गमाणसो होउं ॥ निसुणसु साहिज्जं तं, मह चरियं जणिय अच्छरियं ।। ८६० ।। फालिहमणिमयभित्तिसंकंत-ससंक-कंतरूवेहिं । कयमिणनिच्चकलहा, विज्जइ विज्जापुरी भरहे ॥ ८६१ ॥ वेरिपुरंधिनिरग्गलगलंतनवनेत्तसलिलधाराहि ॥ सिप्पंतकंतिकाणण-निवहो वि जो तहिं राया ॥ ८६२ ॥ तस्स य अणुद्धराए, मणोरमायारहरियजणनयणो । देवीए सुओ जाओ, सीहो नामेण सुपसिद्धो ॥ ८६३ ॥ वम्महनिवासभवणं, वियारसयसगोयरं रम्मं ।। परिवड्डियरंगत्तं, कमसो नवजोव्वणं पत्तो ।। ८६४ ।। अह वाहकेलिदेसे, केलिनिमित्तं तुरंगमारूढो । विविरीयसिक्खिएणं, तेण वि हरिओ इमो सहसा ।। ८६५ ।। 2010_04 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ गो- गवय-गयवरा - हय-ससय-सयसहस्स संकुलं भीमं ॥ सुन्नान्नं नीओ, दूरतरं तेण तुरएण || ८६६ ।। परिसमविवसो एसो, मुंचइ वग्गं हरी वि नियवेगं ॥ परिहरइ तओ कुमरो उत्तरइ तुरंगमार्हितो || ८६७ ।। नियसामिवसणकारणमिमो त्ति सो झत्ति निययपाणेहिं ॥ परिचत्तो गंधव्वो, कुमरो उण भमइ स्न्नम्मि || ८६८ ।। साले साले निवसइ, सेले सेले य निज्झरं पियइ ॥ सरियाए सरियाए, गेण्हइ कमलाणि भमडंतो ॥। ८६९ ॥ अह पेच्छइ मयधारा मिलंतगुंजंतभमरझंकारं ॥ नियचरणभारकंपियवसुंधरा सेलपब्भारं ॥ ८७० ।। सुंकाररावकंपियकाणण- पल्लविय वल्लि संदोहं ॥ उज्जय गज्जय नासिय दिसिवारणवारमइपसरं ।। ८७१ ॥ सरलियसुंडा दंडं, पयंडनियवेगनिज्जयसमीरं ॥ वणगयमभिमुहमिंतं कुवियकयंतं व पच्चक्खं ॥ ८७२ ॥ अह कुमरो नियविक्कमचमक्किया सेसभुवणवलओ वि ॥ गिरिगरुयकरिवरो भीओ तुरियं पलाएइ || ८७३ ॥ पुरओ कुमरो पच्छाय करिवरो दो वि गरुयतरवेगं ॥ रेहंति समारूढा, दियहविभावरि - विभाय व्व ॥ ८७४ ॥ नियवेगविजियपवणो, वणहत्थी पसरिओ तहा तइया ॥ जह सो कुम जाओ विगयासो जीवियव्वम्मि || ८७५ ॥ अह दिव्ववसा पुरओ पेच्छइ निविडंधयारदुप्पिच्छं ॥ गरुयतरमंधकूवं, कयंतमुहकुहरविवरं व ॥ ८७६ ।। वरमिह कूवावडणं, न उणो वणहत्थी चलणनिद्दलणं ॥ इय चितिय सो कुमरो झंपावइ तस्स मज्झम्मि ॥ ८७७ ॥ निवडतेणं तेणं, कह वि हु तडरूवविडविवडतरुणो ॥ पाओ पत्तो गाढं, गहिओ नियपाणिजुयलेण || ८७८ ।। 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ वसंतकुमारकहा कूवस्स अंतराले, लंबंतो वग्गुल्लि व्व सो हिट्ठा ।। कह कह वि निरिक्खंतो, पिच्छइ अइघोरतरं देहं ।। ८७९ ॥ दूरपसारियवयणं, गिलणमणं तह भयावहं घोरं ।। एगं अजगरभुयगं, नियरदुवारं व पच्चक्खं ॥ ८८० ॥ तह तेण अजगरस्स वि चउद्दिसिं चलवलंतजीहाला ।। उक्कडफणा कराला, दिट्ठा चउरो कसिणसप्पा ।। ८८१ ।। उड्ढे जाव निरिक्खइ, सो पिच्छइ ताव मत्तमातंगं ॥ दंत-मुसलेहि तं चिय, निहणंतं झत्ति वडविडविं ॥ ८८२ ।। तह दंतिदंतघाया, वियडियमहुकंडरस्स पडिरोमं ।। पिच्छेइ मच्छियोहं, गसिज्जमाणं नियं देहं ।। ८८३ ।। जत्थ विलग्गवि तं पि हु वडवायं नियइ काल-धवलेहिं॥ घोरेहिं उंदुरेहिं, कडकडरावेण खज्जंतं ॥ ८८४ ।। इय एवंविह दुसहदुहनिवहकडक्खियस्स एयस्स ।। तह चित्तमाउलत्तं, पत्तं जह मुणइ सो चेव ।। ८८५ ।। एत्थंतरम्मि निवडइ, विहडिय महुकंडरस्स महुबिंदुं ।। सीसम्मि तस्स तत्तो, मणायमासासिओ तेण. ।। ८८६ ।। अवरावरमहुबिंदू, संमिलिया भालघायमग्गेण ॥ तस्स वयणम्मि पत्ता, रसिया रसणाए तेणावि ॥ ८८७ ।। तह दुहकडक्खिओ वि हु पाविय महुबिंदुलेसआसायं ।। तं मन्नइ मूढप्पा, पच्चक्खं अमयनीसंदं ।। ८८८ ॥ पुणरवि मुहुत्तमित्ते, वक्कंते तस्स लालसमणस्स ।। कह कह वि अवरबिंदू, पत्तो जीहाए मग्गम्मि ।। ८८९ ॥ तं चिय विचिंतियंतो, चिराउ पत्तं पि एस महुबिंदुं । तह दुखिओ वि पावो, मन्नइ सुहियं च अप्पाणं ।। ८९० ॥ अह को वि खयरिंदो, अमंदवेगं विमाणमारूढो ।। गयणयले गच्छंतो, तं तह दुहियं नियच्छेइ ॥ ८९१ ॥ 2010_04 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं करुणारंजिय चित्तो, तत्तो अवयरिय तं नरं वयइ ।। जइ भणसि तुमं तत्तो, इमाउ कड्डेमि अवडाओ ॥ ८९२ ।। सो आह अहं इहई, सुहेण चिट्ठामि [एत्थ कूवम्मि] ।। आसायंतो तत्तो एत्थत्थे किमवि मा भणसु ।। ८९३ ।। अह सो खेयरनाहो, जंपइ रे मूढ ! महुरसलवम्मि ।। वारसु निययं चित्तं, परिचिंतसु अप्पहियकज्ज ।। ८९४ ।। किं न नियसि कूवतले, गिलणमणं अजगरं महाभीमं ॥ विसविसमविसहरे तह, तरुणारुणतरणिसमनयणे ॥ ८९५ ।। किं न नियसि खज्जंतं, वडवायं वज्जदसणजुयलेण ।। पिच्छेसि मच्छियाओ किं न हि पडिरोमलग्गाओ ।। ८९६ ॥ निहणंतं वडरुक्खं, किं न निरिक्खेसि मत्तमातंगं ।। एमाइ तेण भणिओ मणम्मि काऊण तव्वयणं ।। ८९७ ।। पभणइ उद्धरसु ममं नीओ तेणावि नियडसेलम्मि ।। गयणेण सुरतेओ चारणसमणो तहिं पत्तो ।। ८९८ ।। सो जंपइ मुणि नाहो, हे सुपुरिस ! विसमरन्नकूवाओ ।। जह नीहरिओ सि तुम, तहेव नीहरसु भवकूवा ।। ८९९ ।। एयाउ कूवयाओ नीहरिऊणं अगाहभवकूवे ।। मा पडिहसि जं एसो, दुहावहो जम्मकोडीसु ॥ ९०० ॥ तथाहि :जह कुमरतुरंगेणं, वणकिरणा नासिऊण कूवम्मि ।। निविडंधयारभीमे, खित्तो कंपंतसव्वंगो ।। ९०१ ।। तह भवकूवे रुंदे, अन्नाणमहंधयारभीमम्मि ।। कम्म-परिणामकरिणा, पुणरुत्तं खिप्पए जीवो ॥ ९०२ ॥ जह तत्थ अंधकूवे, अजगरभुजगो भयंकरो एत्थ ।। तह भवकूवे मोहं, भयावहं मुणसु भुवणस्स ।। ९०३ ।। जह इह चउरो भुयगा, तह चउरो कोह-दंभ-मय-लोहा ॥ 2010_04 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतकुमारकहा ४५९ भवकूवम्मि वि अहिणो, विसविसमविवागदुप्पिच्छा ॥ ९०४ ।। जह वडवायविलग्गो, तुमं तहा आउयम्मि कम्मम्मि ।। चिट्ठइ लग्गो जीवो, भवबंधकूवम्मि भीमम्मि ।। ९०५ ॥ जह एत्थ मच्छियाओ दुरंतदुक्खाउ तुज्झ लग्गाओ । तह जीवस्स वि देहं, गसंति विविहाउ वाहीओ ॥ ९०६ ।। जह वडवाओ खज्जइ, उंदुरजुयलेण हंत आउं पि । तह खज्जइ जीवाणं, पक्खेहिं बहुलधवलेहिं ।। ९०७ ।। महुबिंदुरसे गिद्धो, जह तं तह विसयसोक्खलेसम्मि ॥ गिद्धो जीवो न मुणइ, पडणं भवकूवमज्झम्मि ।। ९०८ ।। ता कुमर ! निच्छियमिणं, नीहरिओ वि हु अरनकूवाओ ।। न हि नीहरिओ सि धुवं, जइ पडसि भवंधकूवम्मि ॥ ९०९ ॥ विसयपसत्तासत्ता, भवकूव-पमाय-पमुहदुह-निवहं ।। पच्चक्खं दिलृ पि हु गणंति न हि कह वि कइया वि ।। ९१० ॥ विंसयसुहलेसगिद्धो, जीवो इंदियतुरंगहीरंतो ॥ अइ भीमे निस्सीमे, खिप्पइ संसारकंतारे ।। ९११ ॥ विसय-सुह निवहगिद्धि, तत्तो परिहरिय हरियसिवमग्गं ।। दंसियसासयसम्मं, सम्मं धम्मं करिज्जासु ॥ ९१२ ।। इय सुरतेयमुणिणो, निसम्मवयणं पयंपयं कुमरो । भयवं ! खयरेण अहं, उद्धरिओ रनकूवाओ ।। ९१३ ।। तुमए पुण उद्धरिओ दुरंतसंसार-अंध-कूवाओ । निरवज्जं पवज्जं तो मह हत्थं पयच्छेसु ।। ९१४ ।। तत्तो मुणिणा कुमरस्स तस्स जिणदेसिओ समण-धम्मो ॥ दिन्ने तत्तो अहिणवसमणो सो विहरए वसुहं ।। ९१५ ।। उवसग्गे सहमाणा, सोलस वि परीसहे य बावीसं ।। उवसमसिरिकुलमंदिरमणुपत्तो मंदरं सेलं ॥ ९१६ ।। सुरकेसरिणा वंतरसुरेण उवसग्गियस्स तस्सेव ॥ 2010_04 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सिरिपउमप्पहसामिचरियं उप्पन्नं वरकेवलनाणं, सो कुमर ! अहमेव ।। ९१७ ।। तत्तो कुमार ! जइ तं, बीहसि भवअंधकूववडणाओ ।। तत्तो जिणिददिक्खं, गिण्हसु जइ महसि सिवसोक्खं ॥ ९१८ ।। कुमरो जंपइ भयवं, नाहं तुह चरणरेणुसरिसो वि ॥ तो मह गिहत्थधम्मं, वियरसु सम्मं असेसं पि ।। ९१९ ।। तो सीहमुणिवरेणं, वसंतकुमरस्स बारसविहो वि ।। दिनो गिहत्थधम्मो, विहिणा सम्मत्त संजुत्तो ।। ९२० ।। पडिवज्जिऊण कुमरो, गुरुपयमूले गिहत्थवरधम्मं ।। रणरंगमल्लसहिओ संपत्तो तम्मि भुवणम्मि ॥ ९२१ ॥ सीहो होऊण मुणिनाहो, जणमणपंकयवयणाणि बोहंतो । मोहंधयारहरणो, निहरइ विविहेसु देसेसु ॥ ९२२ ।। अरोवियमणिनिम्मियमेसो कुमरो विमाण मइरम्मं ॥ नियनयरम्मि विमुक्को, सहसा रणरंगमल्लेण ॥ ९२३ ॥ कुमरं निरिक्खिऊणं, पहरिसवसगलिरनित्तनीरोहो ॥ परिरंभइ सारंभं, राया रोमंचियसरीरो ॥ ९२४ ।। रणरंगमल्लवंतर-परिकहिए कुमरचरियवुत्तंते ।। रायप्पमुहो लोओ सव्वो वि हु विम्हिओ जाओ।। ९२५ ।। सिद्धंतसिद्धविहिणा, परिवालितो गिहत्थधम्मं सो । समयंतरम्मि गेण्हइ, कुमरो देसावगासिवयं ॥ ९२६ ।। एगाए रयणीए, इमाउ अपवरयमज्झ देसाओ । कह वि हु निग्गंतव्वं न मए जा उग्गए सूरो ।। ९२७ ॥ सुरकेसरिणा वंतर-सुरेण नाऊण वइयरं एयं ।। कुमरवयभंगकज्जे, पारद्धा विविहउवसग्गा ।। ९२८ ।। कुमरस्स तुरयरयणं, पढमं सो हरइ तयणु सव्वेहिं ।। उच्चसरमिक्कसरियं, पुक्करियं जामइल्लेहिं ॥ ९२९ ।। हं हो सुहडा सुहडा, पहरह पहरह तुरंगमं हरिउं ।। 2010_04 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ वसंतकुमारकहा पुरपच्चक्खं एसो, आसहरो जाइ जाइ त्ति ॥ ९३० ।। सोऊण इमं कुमरो, चिंतइ चित्तम्मि हंत चोरेण । गिण्हिज्जउ हरिरयणं, नियनियमं ने य भंजिस्सं ।। ९३१ ।। उइयम्मि वि आइच्चे, घणतमतिमिरा हवेइ जइ रयणी ।। तह वि न निययं नियम, पाणच्चाए वि भंजेमि ॥ ९३२॥ तह चित्तनिच्चलत्तं, नाऊणं पुण वि वंतरो दइयं ।। तस्सेव हिययसायरससिलेहं हरइ ससिलेहं ॥ ९३३ ॥ सा वंतरहीरंती तारं, पलवेइ नाह नियदइयं ।। रक्खसु रक्खसु हत्थं, सुरेण केण वि हरिजंति ॥ ९३४ ॥ किं चिट्ठसि ससओ विव अहव सियालो व्व एत्थ संलुक्को ।। न हि निय दइया हरणं, कह वि उवेहंति सप्पुरिसा ॥ ९३५ ।। विलवंतीए तीए कुमरं निच्चलमणं वियाणित्ता ।। रुट्ठो सुरो दुरप्पा, मणम्मि एवं वियप्पेइ ।। ९३६ ।। एयस्स धुवं एयं, न जाव सहसा पलीवियं गेहं ।। ताव न निययं नियम, एसो भंजिस्सए कह वि ।। ९३७ ।। एवं विचिंतइत्ता, सच्चंकारो व्व निरयदुक्खाणं ।। कुमरगिहस्स चउद्दिसिहुयासणो तेण परिमुक्को ।। ९३८ ।। जलिरम्मि तम्मि जलणे, दुरंतजालावलीहिं दुप्पेच्छो । लोयाण समुल्लसिओ उत्तालो तुमुल-संरावो ॥ ९३९ ।। हं हो धीरा धीरा, पलीवणं झत्ती झत्ती विज्झवहं ।। नणु मज्झम्मि कुमारो, चिट्ठइ धम्मिक्कवावारो ।। ९४० ।। सेरिह निवहं तुरियं तूरह पूरह जलेहिं कुंभेहिं ।। मुसुमूरुह तिणनिवहं, चूरह जलिरं इमं जलणं ।। ९४१ ॥ रायाइजणो जंपइ, कुमार ! नीहरसु गेहमज्झाओ॥ डज्झउ सव्वं पि इमं रक्खेयव्वो तुमं चेव ।। ९४२ ।। न हि नीहरसि तुमं जइ तत्तो एसो जणो असेसो वि ।। 2010_04 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं झंपाविस्सइ सहसा, तुह दुक्खकडक्खिओ जलणे ।। ९४३ ।। तत्तो मा मा सुपुरिस ! करेसु संहारमसममेयाणं ।। आयं चेयं विचिंतिय भंजियनियमं पि नीहरसु ।। ९४४ ।। तत्तो संकडपडिओ चिंतइ कुमरो किमेत्थ कायव्वं ॥ एगत्थ नियमभंगो, अनत्थ असेसजणमरणं ।। ९४५ ।। अहवा एए सयणा, सकज्जकरणुज्जया न अन्नस्स ।। कज्जे मरंति अहवा, मरंतु नियमं न भंजिस्सं ॥ ९४६ ।। खणदुक्खकारणाओ नीहरिय पलीवणाउ एयाउ ॥ संसारपलीवणए, बहुदुक्खे नेव निवडिस्सं ।। ९४७ ।। एत्थंतरम्मि सासणदेवी, सहसा सविम्हया तत्थ ॥ संपत्ता तं तियसं, जंपइ रे रे किमारद्धं ? ॥ ९४८ ।। रे दुट्ठ ! इमो कुमरो, जइ निय नियमं न भंजए कह वि ।। ता तुज्झ कीस जायं, हिययं गुरुमच्छरच्छनं ? ॥ ९४९ ।। अह सो तियसो सहसा, नासइ गहिऊण जीवियं निययं ।। नणु होति रक्खसाण वि, भयंकरा भेक्खसा के वि ॥ ९५० ।। जणमणसंतावेहिं, सहसा सा तं पलीवणं देवी ।। विज्झवइ झत्ति कज्जं, किमसझं अहव गरुयाणं ॥ ९५१ ॥ सा आह कुमरं संमुहमिह धन्नो वीरपुरिससिररयणं ।। तं चिय तिलोयमझे, जस्सेरिसमविचलं चित्तं ।। ९५२ ।। गिण्हंति नेय नियम, अहवा गिण्हंति तयणु भंजंति ।। गहिऊण नियं नियम, विरला पालंति सप्पुरिसा ॥ ९५३ ।। ता कहसु किमवि कज्जं, कुमरो जंपइ जिणिंदधम्मम्मि ।। संपत्तम्मि समीहा, का नाम असारकज्जाणं ।। ९५४ ।। तह वि हु तुमए कज्जा, जत्ता नंदीसराइतित्थेसु ।। अवहियहियएण तहा पभावणा सासणे निच्चं ॥ ९५५ ॥ इय भणिया सा देवी, जयउ जयउ जिणवरिंदपन्नत्तो ।। 2010_04 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुचंद्रकहा ४६३ धम्मो त्ति घोसिऊणं, सयं नियं ठाणमणुपत्ता ।। ९५६ ।। कमरो उण जिणधम्म, सम्म निय जीवियं च पालितो ।। कित्तियमित्ते वरिसे, सुहं सुहेणं वइक्कमइ ।। ९५७ ।। निय तायपाय-पंकय-पसायसंपत्तरज्जपब्भारो ।। एगच्छत्तं रज्जं, पालइ जिणधम्मतत्तं च ॥ ९५८ ।। तह तम्मि महीनाहे, जिणधम्मपभावणाए महमहियं ।। जह सहसा गंधो वि हु परिमुट्ठो अवरधम्माणं ॥ ९५९ ।। रहनिवहतित्थजत्ता, समूहमप्पडिमबिंबनिउरुंबं ।। सो तुंगसिहररेहिरविहारनियरं च निम्मवइ ।। ९६० ।। समए समयपयासियविहिणा मरिऊण अच्चए कप्पे ।। निप्पंकचंगअंगो हरिसरिससिरी सुरो जाओ ॥ ९६१ ।। चविओ धायइ संडे, भारहखित्तम्मि रायगोत्तम्मि ॥ उववन्नो कयपुन्नो, पाविस्सइ सासयं सोक्खं ।। ९६२ ।। जह तेण कुमारेणं वसंतनामेणं पालियं एयं ।। देसावगासियवयं पालेयव्वं तहान्नेहिं ।। ९६३ ॥ ।। इति देसावकासिके राजपुत्रवसंतकुमारकथानकं । गा. ६९९३ ।। पोसहवए कुस्वंदकहा पुनिम-अमावसाए अट्ठमि-चाउद्दसीसु अन्हाणे ।। अव्वावाराहारे बंभे चउ पोसहं कुज्जा ।। ९६४ ।। तियस-नर-तिरिय-नारय-चउगय-भवतिक्ख-दुक्ख-हरणत्थं ।। समय-भणिएण विहिणा, चउव्विहं पोसहं कुज्जा ।। ९६५ ॥ विविह-गुणनिवह-पोसह-पोसहनिरया गिही वि इह विरया । भवसंताणमणंतं, नयंति अंतं खणद्धेण ।। ९६६ ।। सामाइयस्स पगरिसकरणं तुलणाय सव्वविरईए ।। पव्वतिहीण चउण्हं, सम्मं आराहणा चेव ॥ ९६७ ।। दीहं धम्मज्झाणं, अममत्तं एगया य जिण-आणा ।। ___ 2010_04 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं परमो कम्मोवरमो, सासय-सोक्खं च पज्जंते ॥ ९६८ ।।. परिवालियस्स समणोवासगपवरेहिं पोसहवयस्स ।। एए गुणा पसत्था, परूविया जिणवरिंदेहिं ।।९६९ ॥ सेज्जा संथाराणं, अप्पडिलेहाय दुप्पडिलेहा ।। अप्पमज्जण-दुप्पमज्जणमेवं उच्चारभूमीए ।। ९७० ।। भोयण-आभोगो वि य, एए पोसहवयस्स अइआरा ।। जाणेयव्वा सम्मं पंच वि तत्तो चएयव्वा ।। ९७१ ।। सिद्धंत-सिद्ध-विहिणा, जे परिवालंति पोसहप्पडिमं ।। कुरुचंदो व्व न तेसिं, दूरे सग्गोपवग्गो वा ॥ ९७२ ।। गयणग्गलग्गसाला, तह नव जोयण-पसत्थ-वित्थारो ।। बारस-जोयणदीहा, अत्थि अउज्झापुरी भरहे ।। ९७३ ।। उववण-तरुणो जत्थ य, ससिमणिसंचयविणिम्मिया बाला ॥ उल्लसिय पल्लविल्ला सया वि रेहंति सच्छाया ।। ९७४ ।। सयमेव देवराया, करेइ सिरिरिसहरज्जसमए जं ।। कणयमयभवणबंधुरमाइमनयरिं भरहमज्झे ॥ ९७५ ।। तस्सा असरिससोहं, सहस्सजीहो वि साहिउं न खमो॥ पडिपुन्नवन्नणाए, इयर कई कहसु हा इंतु ॥ ९७६ ॥ भुवण-मण-नयण-णंदन-पवित्त-निय-चरिय-हरिय-जणचित्तो ॥ हरिचंदणसममहिमा, हरिचंदो तत्थ महिनाहो ।। ९७७ ।। जस्स जस-दुद्ध-सायर-मग्गा, निस्सीमहरिसवियसंता ।। सीमंतणी समूहा, मन्नंति सया वि जलकेलि ।। ९७८ ॥ कय अच्छरियं चरियं वित्थरियं जस्स भुवणवलयम्मि ।। मोत्तियउत्तं सत्तं, पत्तं जणसवणमूलेसु ॥ ९७९ ।। अह तस्स कुरुमईए, निवस्स दइयाए सयलगुणकलिओ ।। जणहिययजलहिचंदो, कुरुचंदो नंदणो जाओ ।। ९८० ॥ अहिगयकलाकलाओ सविसेसुल्लसियअंगचंगत्तं ।। 2010_04 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुचंद्रकहा ४६५ उद्दामकामकेसरिवणं इमो जोवणं पत्तो ।। ९८१ ।। एत्तो य दविडदेसे कंचणपुरपट्टणम्मि नरवइणो ।। विक्कमधणस्स धूया,विज्जइ गंधव्वसेण त्ति ।। ९८२ ।। सा गीयकलाकुसला, इमं पइन्नं करेइ जइ को वि ।। वीणाए मं जिणित्ता, परिणिस्सइ नन्नहा कह वि ॥ ९८३ ।। विक्कमधणेण रन्ना, नरिंदपुत्ता कमेण आहविया ।। वीणं वायंतीए, तीए सव्वे वि ते विजया ।। ९८४ ।। एयं दूयमुहेणं, सो कुमरो अन्नया सुणेऊणं ।। रायं अणुनवित्ता, वच्चइ कंचणपुरे नयरे ।। ९८५ ॥ पच्चोणीए विक्कमधणो वि सयमेव तस्स नीहरिओ ।। वच्चंतु जत्थ तत्थ व, गुणेहि गरुया महिज्जंति ॥ ९८६ ।। दिन्ने तस्सावासे, अणेयसामंतमंतिपच्चक्खं ।। दिवसंतरम्मि जाओ वाओ गंधव्वसेणाए ।। ९८७ ।। सत्त सरेहि सणाहं, वीणं वाइत्तु रायकनाए । कवलो मुहेण पत्तो, गएण मिल्हाविओ तीए ।। ९८८ ।। अह सो कुमरो जंपइ, इत्तो वि हु हवइ मच्छरियं ।। इय भणिय तह वि पंचीवि पंचिया तेण कुमरेण ॥ ९८९ ।। जह सा कन्ना हत्थी, जणो वि निद्दाइ असेसो वि ।। अह सो आभरणगणं, हरित्तु तेसिं कुणइ निचयं ।। ९९० ॥ निद्दा विगमे कन्ना, हरिसविसाए मणम्मि समकालं ।।. उव्वहमाणा कंठे वरमालं खिवइ कुमरस्स ।। ९९१ ।। हरिचंदअमच्चेहिं, विक्कमसेणेण तह य दुण्हं पि ।।। तेसिं वीवाहमहो, विहिणा विहिओ विभूईए ॥ ९९२ ॥ विहिए दसाहियमहे, चलिओ गहिऊण रायवरकन्नं ।। कमसो य पइट्ठाणं, पट्टणमेसो समणुपत्तो ।। ९९३ ॥ आरामे चिटुंतो, नीहरमाणं निइत्तु सो मडयं ।। 2010_04 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं भणइ पिए सवमेयं, निज्जइ लोएण जीवंतं ।। ९९४ ।। कह जाणसि त्ति पुढे पभणइ वाइत्तसद्दभेएणं ।।। जाणामि धुवं एसा, सविसा कढिज्जए कन्ना ।। ९९५ ।। जीवावसु त्ति तीए, भणिए गंतुं चियाए पासम्मि ॥ वारइ करुणपलावे, निरिक्खए तं सवं सम्मं ॥ ९९६ ।। सचिवमुहेण वियाणइ, जह एसा कक्कराइणो धूया ॥ लीलावइ त्ति अहिणा दट्ठा मुक्का नरिंदेहिं ।। ९९७ ।।' आलिहिय मंडलं तं, तत्थ निवेसित्तु सरिय नियमंतं ॥ जंपइ उट्ठसु वियरसु, जणणीए दंतवरकटुं ।। ९९८ ।। उद्वित्तु तओ एसा, सहसा गिण्हित्तु कणयकरगाई ।। वियरेइ दंतकटुं, जणमणहरिसं पयच्छंती ।। ९९९ ।। अह ताडावइ तुट्ठो, मंगलतूराणि कक्कराया सो।। वारावइ सो कुमरो, अज्जवि सविसा इमा अस्थि ।। १००० किं पुण दंसियमेयं, पढमं तुम्हाण मंतसामत्थं ।। एवमवरत्थविसए, संका मणवसणहरणाई ॥ १००१ ।। काऊण तत्थ खेड् विसरहिया तेण निम्मिया एसा ।। जाओ हरिसो सहसा, तत्तो रायाइलोयाणं ।। १००२ ।। परिभाविऊण हियए, दिन्ना तस्सेव राइणा एसा ।। वीवाहिऊण एयं, तह गिण्हिय सो पुरो जाइ ।। १००३ ।। उज्जेणीए पत्तो, सुवण्णजाले सरस्स पासम्मि । संज्झा समए पिच्छइ, जलंतमेगं चियं एसो ।। १००४ ।। पासनिविट्ठा पुरिसा, तेण य पुट्ठा कहति जह एसा ।। धूया अवंतिसुंदरि, नामा रनो जियारिस्स ।। १००५ ।। उप्फेरएण सहसा अज्ज मया एत्थ डज्झए तत्तो ।। कुरुचंदो तं जाणइ, जालाभेएण जीवंति ।। १००६ ।। नियदइयाण वि अ कहियवत्तो गहिऊण खग्गमंतरिओ। 2010_04 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुचंद्रकहा ४६७ चिट्ठइ तत्तो एगो, पत्तो कावालिओ तत्थ ।। १००७ ॥ तं दद्रुण भयंकररूवं, नासंति रायवरसुहडा ॥ कावालिएण तत्तो, आलिहियं मंडलं तत्थ ।। १००८ ।। सुमरिय विहिणा मंतं, डमरुयमप्फालिया चिया चलिया ॥ तत्तो समुट्ठिया सा, सहसा कन्ना चियाहिंतो ।। १००९ ॥ हा ताय ताय ! हा जणणि जणणि ! रक्ख त्ति जंपमाणीए । मुत्ताहलाणि तीए, मुहाओ पाडेइ सो पावो ।। १०१० ।। अह भयकंपिरदेहा, धरिया केसेसु कड्डिया तत्तो । सा तेण विलवमाणा, निवेसिया मंडलस्संतो ।।१०११ ॥ कड्डिय कत्तियमेसा, भणिया सुमरेसु देवयं इटुं ।। तत्यंतरम्मि कुमरो, खग्गकरो हवइ पच्चक्खो । १०१२ ।। उद्दामसरं जंपइ, रेरे ! कन्नं निसंसनिहणंतो ।। मारिज्जंतो इण्हि, सुमरसु तं चेव इट्ठसुरं ।। १०१३ ॥ . नाउं विग्घमुवट्टिय मह सो सुमरेइ थंभणि विज्जं ।। सा वि हु पुत्रवसेणं, पहवइ न हि तस्स कुमरस्स ।। १०१४ ।। कुमरं समीवपत्तं, सो भणेइ किं करेसि मह विग्घं ।। अहयं खु भारभूई नामा कावालिओ कुमर ! ॥ १०१५ ॥ इत्थीरयणागरिसणमंतो पारंभिओ मए पुव्वं ।। विहियाय पुव्वसेवा, विहिणा संवच्छरं जाव ।। १०१६ ।। उत्तरसेवाए पुणो, कन्नारयणेण एत्थ कायव्वो ।। उवहारो अह दिट्ठा, एसा कन्ना अवंतीए ।। १०१७ ॥ उप्फेरएण विहिया, गयचेयन्ना मए ससत्तीए । एत्थ चियाए हुयासो, नरसेहर ! थंभिओ तह य ।। १०१८ ।। जाए निसाय समए, इह संपत्तो इमाए कन्नाए ।। उवहारं काऊणं, साहिस्समहं धुवं मंतं ।। १०१९ ।। कुमरो जंपइ सुपुरिस ! अलाहि एयाए मंतसिद्धिए ।। 2010_04 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं परलोयविरुद्धणं कन्ना घाएण जा होही ।। १०२० ।। उक्तं च :यत्परलोकविरुद्धं, यल्लज्जाकरमिहैव जनमध्ये ।। अन्त्यावस्थायामपि, तदकरणीयं न करणीयम् ।। १०२१ ।। इच्चाइकुमरभणियं, सोउं परिचत्तकूडवावारो ।। कावालिओ पयंपइ, साहु तए बोहिओ अहयं ।। १०२२ ॥ एसा कन्ना तुमए, अप्पेयव्वा जियारि नरवइणो ।। पायच्छित्तनिमित्तं, नियगुरुपासे गमिस्सामि ।। १०२३ ।। कुमरेण अणुन्नाओ सो जाइ समीहियम्मि ठाणम्मि ।। कुमरो उण गंतूण, साहइ दइयाण वुत्तंतं ॥ १०२४ ।। नियपियचरियं सोउं,इमाउ हरिसं वहंति हिययम्मि ।। कुमरो पभायसमए अप्पइ कन्नं जियारिस्स ।। १०२५ ।। हिटेण तेण रन्ना दिन्ना सा चेव कन्नगा तस्स ।। सव्वत्थ सपुन्नाणं, पुरस्सरं धणधणापमुहं ।। १०२६ ।। तरुणिहिं ताहि सहिओ वच्चइ पउमावईए नयरीए । उदएण तत्थ रना, पवेसिओ गरुयरिद्धीए ॥ १०२७ ।। कित्तिय दिणाणि चिट्ठइ, तत्थ पुरो तेण गोरविज्जंतो ।। अह अत्थाणगएणं, उदएण पयंपियं रन्ना ।। १०२८ ।। संपइ न को वि दीसइ, देवयमवयारिऊण पत्तम्मि । जो जंपावइ वत्तामित्तं कुव्वंति पुण बहवे ।। १०२९ ।। कुमरो भणइ नरेसर ! अहयं दंसेमि कोउयं एयं ।। मणिमंतओसहीणं, नत्थि असझं जए किंचि ।। १०३० ।। भणइ निवो मह पत्तो, जइ अवयारसि मुणेमि तो सच्चं ॥ संकेइय पत्तेहिं, चित्तं दंसंति इय बहवे ।। १०३१ ।। आमं ति तेण भणिए, मूयं निय कन्नयं महीनाहो । उववेसइ मंडलए, आलिहिए तेण कुमरेण ।। १०३२ ॥ 2010_04 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६९ कुरुचंद्रकहा कुसुमलया नामेणं, सा कन्ना तेण सरियमंतेण ।। आवसिया वि कह वि हु जंपइ मूयत्तदोसेण ।। १०३३ ।। गाढतरं उवउत्ते तम्मि कुमारे चिरेण सा कन्ना ।। परिजंपिउं पवत्ता, तत्तो पुच्छइ इमं कुमरो ।। १०३४ ।। हे परमेसरि ! सव्वं मुंचसु अन्नं कहेसु किं कज्जं ॥ कालविलंबो जाओ अह पत्तगया भणइ देवी ।। १०३५ ।। मूयं मए वियाणिय पत्तं गंतूण तयणु हिमवंते ।। आणित्तु पवरमोसहिमिमाए मूयत्तणं हरियं ॥ १०३६ ।। तत्तो कालविलंबो, मज्झ वि जाउ त्ति राय-पच्चक्खं ।। इच्चाइ सायंती, कुमरेण विसज्जिया देवी ।। १०३७ ॥ तं दिणमारंभित्ता, कुसुमलया जंपिउं समारद्धा ।। तेणेव कुमारेणं, रत्ना परिणाविया तत्तो ।। १०३८ ॥ नीईण चउक्केण व दइयाणं संजुओ चउक्केणं ॥ कमसो रायंगरुहो चलिओ पत्तो य नियनयरं ।। १०३९ ।। वच्चंतु जत्थ तत्थ व होति महग्घा गुणेहिं सप्पुरिसा ।। दूरं गया वि घेप्पंति जं गया कणयकोडीहिं ।। १०४० ।। इय पुरजणसंवायं, सो निसुणंतो पियाहिसंजुत्तो ।। हरिचंदेणं नयरे, पवेसिओ सिंधुरारूढो ॥ १०४१ ।। एत्थं तरम्मि तत्थ य उन्नामिय सरल कंठनालेहिं ।। फुरिओ दुंदुहिसद्दो, अणुगमिओ नीलकंठेहिं ।। १०४२ ।। चारणमुणिगणसहिओ, विज्जाहरसुरवरेहिं परियरिओ॥ तो तत्थ मुणी पत्तो तएण जइसेहरो नाम ।। १०४३ ।। सुरविहियकणयपंकयमासिणो जलहिगहिरसंरावो । वागरइ धम्मतत्तं, स सुरासुर-मणुय-पच्चक्खं ।। १०४४ ।। जो मनइ विसयसुहं, असुहविवागं पि परमसुहरूवं ।। सो मन्नइ हिमसिसिरं, चंदणतरुसंभवं जलणं ।। १०४५ ॥ 2010_04 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० सिरिपउमप्पहसामिचरियं इच्चाइ धम्मदेसणमिमस्स मुणिणो सुणित्तु सो कुमरो । गेण्हइ गिहिव्वयाई, विसेसओ पोसहप्पडिमं ॥ १०४६ ।। अलिउल कुवलय-कज्जल-तमाल-सामलेण गयणेण ॥ उप्पइए मुणिनाहे, सो गिण्हइ पोसहं पव्वे ।। १०४७ ।। तं वयइ सुरो एगो, मिच्छदिट्ठी हवित्तु पच्चक्खो ।। मुंचसु एयं पडिमं, अन्नह निहणेमि निभंतं ॥ १०४८ ।। इय जंपिय सो तियसो, सिहिगल-गवलालि-सामलच्छायं ।। गज्जिर-घण-संघायं, दिसि-दिसि विउरुव्वए सहसा ।। १०४९ ।। दिसि दिसि तह निवडते, खडक्खडाराव-भरियनह-विवरे ।। उदंड-विज्जूदंडे, पयंडकोवे विउव्वेइ ।। १०५० ।। कंपति गुरुगिरिंदा, निग्घायरवेहि तेहि भीमेहिं ॥ . मणयं पि मणं तस्स य, न कंपए झाणमल्लीणं ।। १०५१ ।। अन्ने वि सीहपमुहे, भयंकरे निम्मवित्तु उवसग्गे । परिसंतो उवसंतो, खमावए सो इमं कुमरं ।। १०५२ ॥ मोणम्मि ठिए कुमरे, मणिकंचण-पमुह-वत्थुवित्थारं ।। तस्संगणप्पएसे, वरिसत्तु गओ नियं ठाणं ॥ १०५३ ।। एसो पोसहपडिमं, पभायसमयम्मि पारए कुमरो॥ विहवेण तेण रम्मं, कारावइ चेइयं सहसा ।। १०५४ ।। नियजणयपसाएणं, पाविय रज्जं बहूणि वरिसाणि ।। पालिय पत्तो सग्गं, पियाहिं जुत्तोपवग्गं च ।। १०५५ ।। जह पोसहवयमेयं, पालियमवणीसरेणमकलकं ॥ कुरुचंदेणं सम्म, पालेयव्वं तहन्नेहिं ।। १०५६ ।। इति पौषधव्रते कुरुचन्द्रकथा समाप्ता ।। गा. ७०८६ ॥ अतिहि संविभागवए धनसेन कहा : पोसह पारणसमयाणंतरमहवा वि सव्वया चेव ॥ अतिहीण संविभायं, काउं भुंजंति इह धन्ना ॥ १०५७ ॥ 2010_04 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा ४७१ बहुजणसाहीणाणं, पाणसमाणाण पवणचवलाणं ।। आयाससयमयाणं, धणाण दाणं फलं एकं ।। १०५८ ।। उक्तं च :अपायशतलब्धस्य, प्राणेभ्योऽपि गरीयसः ।। गतिरेकैव वित्तस्य, दानमन्या विपत्तयः ।। १०५९ ॥ ग्रासादद्धमपि ग्रास-मर्थिभ्यः किं न दीयते ।। इच्छानुरूपो विभवः, कदा कस्य भविष्यति ? ॥ १०६० ।। अह अणुकंपादाणं, धम्मोवटुंभनाणदाणाणि ॥ अभयपयाणं चउरो, कमेण एयाणि गरुयाणि ।। १०६१ ॥ जं दिज्जइ धणदाणं, कारागाराइखित्तपुरिसेसु ।। तं अणुकंपादाणं, नवि पडिसिद्ध जिणिदेहि ।। १०६२ ।। पंच महव्वयपालणरयाण मुणियसमयसाराण ॥ सुद्धमसणाइदाणं, धम्मोवटुंभदाणमिणं ।। १०६३ ।। धम्मं कहंति धम्म कुणंति अज्झावयंति जे धम्मं ।। ताणमुवटुंभकरं, धम्मोवटुंभदाणमिणं ॥ १०६४ ॥ नाणीण चरित्तीण य कुणंति जे सव्वहा उवटुंभं ।। तत्तेण अवोछित्तिं, ते जिणतित्थस्स कुव्वंति ॥ १०६५ ॥ संसारजलहिजाणं, मन्ने लेहावयंति जे नाणं ॥ ते सिवरज्जपयासण-पत्तलमसमं लिहाविति ॥ १०६६ ॥ आरोग्गं सोहग्गं, इह परलोए समीहमाणेहिं ।। नीसेसदाणपवरं, अभयपयाणं विहेयव्वं ।। १०६७ ॥ भणियं च :देवेसु वीयरागो, चारित्ती उत्तमो सुपत्तेसु ।। दाणाणमभयदाणं, वयाण बंभव्वयं पवरं ।। १०६८ ॥ सग्गे देवाहिवत्तं, सुरनिवहसिरोमालि-मालाहि पुज्जं, रज्जं पायाललोए, तह धरणितले सव्वभूमीसरत्तं ॥ .. 2010_04 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ लच्छि तित्थंकराणं, जइ महह तया कारविज्जासु देसे गामे वा पट्टणे वा अभयवियरणं सव्वजीवाण निच्चं ॥ १०६९ ॥ दाणाणमिह चउण्ह वि धम्मोवट्टंभकार दाणे || अवयरइ धुवं अतिहीसंविभागव्वयं एयं ॥ १०७० ।। सचित्तेण पिहाणं, निक्खेवो तम्मि कालअइवाओ ॥ ववएसमच्छरा वि य इमस्स पंचेव अइयारा ॥ १०७१ ॥ पंच अइयाररहियं, अतिहिविभागव्वयं सुमित्तो व्व ॥ जो पालइ सो पावइ भवसोक्खं मोक्खसुक्खं च ॥ १०७२ ।। तथाहि : गंगाविस रम्मो, विजयत्थलपुरवरस्स आसन्नो || इह अत्थि सालिसीसं गामो जननयणअभिरामो ॥ १०७३ ।। तत्थ य सुया वि सुहिए, हरिसिय हियए जणे वि निवसंते ॥ एगो वसइ सुमित्तो, नाम दुहत्तो विगयपुन्नो || १०७४ ।। पयईए दाणसद्धा परायणो सो सया वि थोवं पि ॥ जस्स वि तस्स वि दाउ, भुंजइ नियमेण सुद्धमणो ॥ १०७५ ।। मन्नइ मम्मि एसो, दाणं दिनं न अन्न जम्मे वि ॥ सिरिपउमप्पहसामिचरियं कहं वि मए तो अहयं, इह अइ दुहिओ सया जाओ ।। १०७६ ॥ अन्नम्म दिने चलिओ कट्ठायणाय कट्ठमगणंतो ।। तत्थ य गामे पायं, अइदूरे चारुदारुणि ॥ १०७७ ।। तो गहिय विविहमन्नं, सो वच्चंतो गिरिंदसिहरम्मि || काउसग्गपवन्नं, महामुणिं पेच्छए एगं ॥ १०७८ ।। तं मुणिचंदं दट्टु, मणजलनिहिणा इमस्स उल्लसियं ।। सयलम्मि वि सो जम्मे, सुदिण्णं तं चेव मन्नेइ ॥ १०७९ ॥ खणमित्तं तं समणं, चिट्ठइ सो तत्थ पज्जुवासितो || दिव्ववसा तम्मि दिणे, मासतवो तस्स सम्मत्तं ॥ १०८० ॥ पारणकज्जे पारिय, उस्सग्गो विजियसव्वउवसग्गो ॥ 2010_04 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा ४७३ गहिऊण पत्त पमुहं, गामाभिमुहो इमो चलिओ ।। १०८१ ।। अह चित्तेइ सुमित्तो,पिच्छ इहो मज्झ भागधेयाणि ॥ देयाणि महामुणिणो, इमाणि वत्थूणि जं एत्थ ।। १०८२ ।। इय चिंतिय मुणिनाहं, आमंतइ अन्नपाणविवहेण ।। उल्लसियमणो वियसियनयणो बहुभत्ति संजुत्तो ॥ १०८३ ।। मुणिणा धरिए पत्ते, अद्धं अन्नस्स तेण से दिन्नं ।। दूरे गामो त्ति मणे, चिंतिय अद्धं पुणो धरियं ॥ १०८४ ।। पुणरवि इमेण चिंतियमिमेण दाणेण हंत नो मज्झ ।। न वि मुणिणो पडिपुन्ना, तित्ती तो देमि सव्वं पि ।। १०८५ ।। इय उल्लसियमणेणं, तं पि हु अन्नं इमेण पच्छद्धं ।। खंडियमणेण खंडं, पुन्नं पि हु अज्जियं तत्तो ।। १०८६ ।। निय गेहे संपत्तो, दाणपभावेण तेण सो कमसो ॥ पावइ विहवं अहवा, इहावि धम्मो धुवं सहलो ।। १०८७ ।। इत्तो य तत्थ गामे, वरमुणिणा भुवणमित्त नामेण ।। अप्पसमक्खं गहिओ, अभिग्गहो एरिसो आसी ॥ १०८८ ।। मंडयमेत्तं दव्वं, इह गामे दिवसपच्छिमे जामे ।। पुरिसो धूलीधूसरगत्तो अइदूरदेसाउ ॥ १०८९ ।। पत्तो तुरंगजुयलं, आरूढो पाणिकमलजुयलेण ।। जइ दाही पारणयं, तो होही नत्रहा मज्झ ।। १०९० ।। सो वि सुमित्तो पुव्वं , केण वि कज्जेण अन्नगामम्मि ।। संपत्तो आसि पुणो, नियत्तिओ सत्तमे मासे ॥ १०९१ ॥ अह से मित्तस्स गिहे, वीवाहो तेण तस्स गेहाओ ।। आसणनिवहो सव्वो, थालसमूहो व्व संगहिओ ।। १०९२ ।। भज्जा वि तस्स गेहे, भोयणकज्जेण आसि संपत्ता ।। सो पत्तो निय गेहं, तं जाणइ वइयरं सव्वं ।। १०९३ ॥ अइछुहिओ दिणपच्छिमजामे आसणसमूहमन्नं सो । ___ 2010_04 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं अनियच्छंतो मेलिय, कट्ठमयं तुरयवरजुयलं ॥ १०९४ ।। उव्वविसिय पुव्वगामे, भोयणउव्वरियमंडयसमूहं ।। काउं पासे चिंतइ, हा अतिही अज्ज नवि दिट्ठो ।। १०९५ ।। एत्तो य भुवणमित्तो, मुणिनाहो गोयरग्गचरियाए ।। चरमाणो निव्वाहइं, छम्मासे तत्थ गामम्मि ।। १०९६ ॥ तत्थ निवासी सव्वो, लोओ विविहेहिं दव्व-भावेहिं ।। तं आमंतइ केण वि न पूरिओ अभिग्गहो तस्स ।। १०९७ ।। दिव्ववसा तस्स गिहे सो पत्तो तीए चेव वेलाए । सो मग्गपरिस्संतो, मुनिसन्नो चेव तत्थेव ॥ १०९८ ।। जंपइ भयवं ! गिण्हसु, मंडयनिवहं करेसु मं सहलं ।। भवसयकयसु कएहिं, भवारिसं लब्भए पत्तं ।। १०९९ ॥ . दव्वाइसु उवओगं, काउं नाउं अभिग्गहं पुत्रं ।। मुणिणा धरिए पत्ते, करेहि सो मंडए खिवइ ।। ११०० ।। एत्थंतरम्मि पत्ता मित्तस्स गिहम्मि भोयणं काउं ।।। भज्जा तस्स सुसेणा, पेच्छइ दितं नियं नाहं ।। ११०१ ॥ हरिसिय चित्ता चितइ, धन्नो मह हिययवल्लहो जेणं ॥ घोराभिग्गहधारि, पारणयं कारिओ भयवं ।। ११०२ ॥ मुणिनाहो मह नाहो, कयकिच्चा दोन्नि चेव इह जेण ।। विहिओ अभिग्गहो तह, कारवियं जेण पारणयं ।। ११०३ ।। किं पुण एसो भयवं, निच्चं अभितरम्मि सुद्धो वि ।। अइदग्गंधं देहे, कि बाहिं धारए जल्लं ।। ११०४ ॥ इय विहियदुगंछाए, तत्तो निव्वत्तिऊण मुणिनाहो ।। सट्ठाणं गंतूणं, पारणयं कुणइ विहिपुव्वं ।। ११०५ ।। सव्वो वि तस्स गेहे, गंतुं लोओ पसंसए एवं ।। एत्थ वि धम्मेण धुवं, कित्ती सोक्खं तु परलोए ।। ११०६ ।। दाणस्स पहावेणं, विविहं विहवं समज्जिउं एसो ।। 2010_04 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा निच्चं करेइ सयणुद्धारं परोवयारं च ॥ ११०७ ॥ आउक्खएण मरिडं, विजयत्थलपुरवरम्मि अइरम्मे ॥ इगविसरयणकोडीसरस्स पुरलोयतिलयस्स ॥ ११०८ ।। मंगलसमूहनिहिणो, नामेण सुमंगलस्स इब्भस्स || सिरियादेवी पियाए, उयरम्मि इमो समुप्पन्नो | ११०९ ॥ कमसो जाये पुत्ते, मायर - पियरेहिं ऊसवं काउं ॥ धण - सेणो त्ति पट्ठियमभिरामं नाममेयस्स ॥ १११० ।। कमसो परिवतो, सक्खी काऊण सो उवज्झायं ॥ गेहइ कलाकलावं, कमसो पत्तो य तारुन्नं ॥ ११११ ॥ परिणाविओ य पिउणा, धणिणो सिरिबंधुदत्तनामस्स ॥ नामेण दंसणेण य, धूयं पियदंसणं एसो ॥ १११२ । तत्थ पुरम्म दुगुंछादोसेणं मरिय सा सुसेणा वि । लीलावइवेसाए, दुहिया भावेण उववन्ना ।। १११३ ।। एसा निय जणणीए, अणंगसेण त्ति विहियवरनामा || कमसो कलाकलावं, गिण्हइ सह जोव्वणभरेण ॥। १११४ ॥ नियजम्मंतरदइयं, अनियच्छंती सविसं व नरविसरं ॥ मन्नंति जणणीए, भणिया सुपसिद्धजुत्तीहिं ॥ १११५ ॥ वयं बाल्ये डिंभांस्तरुणिमनि यूनः परिणता । वपीच्छामो वृद्धान् परिणय विधौ नः स्थितिरियं ॥ त्वयारब्धं जन्म, क्षपयितुममार्गेण विधिना, न मे गोत्रे पुत्रि, क्वचिदपि सती लांछनमभूत् ॥ १११६ ॥ अह तीए धणसेणो, दिट्ठो उज्जाणियाए उज्जाणे || गच्छंतो तो सहसा, वम्हह सरगोयरे पडिया ॥ १११७ ॥ गंतूण वासभवणे, दूसहदाहज्जरेण संतत्ता ॥ संवच्छरसयसरिसं, तं रयणि गमइ कह कह वि ॥ १११८ ।। लीलावईए पुट्ठा, जंपइ जइ जीविएण मह कज्जं ॥ 2010_04 ४७५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ . सिरिपउमप्पहसामिचरियं तो आणह धणसेणं, तरुणीमणकुमुयवणचंदं ॥ १११९ ॥ लीलावईए अह सो दासी निवहेहिं मित्तनिवहेहिं ।। अब्भत्थिओ वि गेहे न वि पविसइ वारविलयाणं ।। ११२० ॥ तीए अवरुद्धेहिं, इमस्स मित्तेहिं विहियसंकेया ।। पेरंति अन्नदियहे, निसाइणो गयजुयं जुगवं ।। ११२१ ।। संकडवडिओ एसो, सहसा मित्तेहिं तयणु नासविओ ।। लीलावईए गेहे, किमसज्झं सुहुमबुद्धीण ॥ ११२२ ।। पविसंतेणं तेणं, महरिहवररयणसयणमारूढा ।। कसदिन्नकणयवन्ना, तरंगतरलच्छिविच्छोहा ।। ११२३ ।। नियरूवहसियरंभा, तिहुयणमणहरणजोव्वणारंभा।। चलिरकरकणिरकंकणविरावकयतरुणरणरणया ॥ ११२४ ।। आसन्नसहि पणामिय सज्जो भज्जंतवीडिया निवहा ।। छेयतरतरुणिताडियवीणारवदत्तनिय सवणा ॥ ११२५ ।। दिट्टा अणंगसेणा, अणंगवीरस्स भुवणविजयाय ।। गुरुसिहिणगुड्डरिल्ला अणंगसेण व्व पच्चक्खा ।। ११२६ ॥ एसा उब्भड-वेसा, वेसा विहरेइ जं मणो मज्झ ।। तो जम्मंतरदइया इम त्ति एसो विचितेइ ॥ ११२७ ।। सो च्चिय मह मणचोरो, इमो त्ति अब्भुट्ठिऊण सो तीए ।। सप्पणयं सयणिज्जे, नियम्मि उववेसिओ सहसा ।। ११२८ ।। अन्नोन्ने दिदिमिलणे, पढमे च्चिय तेहिं जं सुहं पत्तं ।। तं नेव जुगसएहिं वि लहंति अवराणि मिहुणाणि ।। ११२९ ॥ निय कयकज्जपसाहणछउमं उब्भाविऊण अह तेसिं ॥ सव्वो वि परिवारो निग्गच्छइ वासभवणाओ ॥ ११३० ॥ तह सुरयसुहं ताणं, जायं दोन्ह वि समाणपेम्माणं ।। जह एक्कनिमेसं पिव गलिया सा जामिणि सव्वा ॥ ११३१ ।। तं दिणमारंभित्ता, तिस्सा भवणाउ पेम्मपेरंतो ।। 2010_04 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा ४७७ धणसेणो न य बाहिं नीहरिओ गरुयकज्जे वि ।। ११३२ ।। नाउं सुमंगलेणं वइयरमेयं विचिंतियं चित्ते ।। धन्नो चिय मह पुत्तो वयउचिया जस्स पडिवत्ती ।। ११३३ ॥ तत्तो मणिकणयाई, तिस्सा गेहम्मि पेसियं तेणं ।। अप्पच्छिय दाणेणं, तेणं लीलावई तुट्ठा ॥ ११३४ ।। धणसेण नाम लंछियमुदं पेसित्तु सेट्ठिगेहाउ ।। आगरिसइ धणसारं, रुहिरं व जलूगसा एसा ।। ११३५ ।। सो वि निय जणयपेसियधणेण पुज्जंतसव्वभोगंगो।। तिस्सा गिहम्मि चिट्ठइ बारस वरिसे निमेसं व ॥ ११३६ ॥ मरणं इमस्स जणए पत्ते जणणीए पेसिओ विहवो ।। सव्वं पि गेहसारं, पज्जंतं जाव संपत्तं ॥ ११३७ ।। अन्नदिणे सह मुद्दारयणेण इमाइ नियमसेसं पि ।। कुंडलकंकणपमुहं पेसयमाभरणपब्भारं ॥ ११३८ । सव्वं पि गेहसारं, गहियं नाऊण सिंभली एसा ।। धूयाए जावयरसे वि मग्गिए पायरायत्थं ॥ ११३९ ।। अप्पइ अवहरियरसं, जावयमह सा पयंपए जणणि ।। एएण असारेणं, न हि कज्जं हवइ इह किंचि ।। ११४० ।। सा आह इमं जाणिसि, जइ तत्तो मुयसु एय सारिच्छं। नामेणं चिय सुंदरि ! धणसेणं विगयधणनिवहं ।। ११४१ ।। रुट्ठा अणंगसेणा जंपइ हे दुट्ठि ! भणसि मह पुरओ। मा एरिस दिटुंते, मया वि न इमं चइस्सामि ॥ ११४२ ।। अह तीए निवडनेहं, धूयं नाऊण निययदासीहि ।। उवरिमतलावरेणं कमेण निव्वासिउ एसो ॥ ११४३ ।। छुरिया-रक्खसि-साइणि-पमुहाणं हवइ को वि पडियारो ।। वीसंभघाइणीसुं, न सिंभलीसुं जुगंते वि ॥ ११४४ ।। इच्चाइ चिंतियंतो, एसो जा जाइ निययगेहम्मि ।। 2010_04 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं ता तं उव्वसियं पिव पिच्छेइ पुच्छेइ नरमेगं ।। ११४५ ।। अह जणयमरणपमुहे कहियम्मि इमेण वइयरे सव्वे ।। सो चिंतइ धुवमहमाहममोहनन्नो ममाहितो ॥ ११४६ ।। वच्चंतु खयं जोव्वणजीवियपमुहाणि तस्स पुरिसस्स ।। आमरणं उवभुंजइ, जो जणयसमज्जियं विहवं ॥ ११४७ ।। इगवीसरयणकोडीसरस्स इब्भस्स नंदणो अहयं ।। तो जाव न कोडीओ, बायालीसं समज्जेमि ॥ ११४८॥ पविसामि ताव न गिहे इय निय चित्तम्मि निम्मियपइन्नो ॥ साहसमेत्त सहाओ नीहरिओ झत्ति नयराओ ।। ११४९ ।। वच्चंतो सो कमसो, संपत्तो पुंडवद्धणे नयरे । दिव्ववसा पउमेणं दिट्ठो तज्जणयमित्तेण ॥ ११५० ।। नेउं नियम्मि गेहे तेणं काऊण गरुयगोरव्वं ।। पुट्ठो निययं सव्वं साहइ वुत्तंतमेयस्स ॥ ११५१ ।। भणियं तेणं सुपुरिस ! मुंच विसायं इहेव अइबहुयं ।। अहयं ववहारत्थं तुह दव्वं अप्पइस्सामि ।। ११५२ ।। इच्चाइ जंपिऊणं, तम्मि पसुत्तम्मि तस्स सव्वं पि ।। दटुं पलीवणेणं, गेहं धणधन्न-संपुत्रं ॥ ११५३ ।। । सव्वो तुरंगनिवहो, जाइ धुवं जत्थ सिंगिओ घाडो । बज्झे इत्ति विचितिय धणसेणो लज्जिओ जाइ ।। ११५४ ॥ अह कमसो गच्छंतो, पत्तो मंगलपुरम्मि नयरम्मि । अयलेण तत्थ सगिहे, नीओ तज्जणयमित्तेण ।। ११५५ ।। विनायवइयरेणं, तेण वि अब्भुवगयम्मि बहुदव्वे ।। चोरेहिं तस्स गेहं, मुसियं खत्तं खणेऊण ॥ ११५६ ॥ भज्जइ तं चिय डालं, जत्थ कमेडो चडेइ निब्भंतं ।। इय चिंतित्तु विसनो, सो पुरओ वच्चए तुरियं ।। ११५७ ।। पत्तो कमसो एसो, नयरीए तामलित्ती नामाए ।। 2010_04 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा तत्थ य सुदंसणेणं, नीओ एमेव निय गेहे ॥ ११५८ ।। भोयणकरणानंतर ममस्स पत्तस्स उवरिमतलम्मि ॥ नामेण तरलहारा, मणिमाला दंसिया तेण ॥ ११५९ ।। भणियं तेण सुपुरिस ! इमाए रयणावलीए रयणाणि || तुह ववहारनिमित्तं, केत्तिय मेत्ताणि अप्पिस्सं ॥ ११६० ॥ इय भणिय रयणमालं, पासे एयस्स सो वि मोत्तूणं ॥ कज्जवसेणं उवरिमतलाओ सो कह वि अवयरिओ | ११६१ ॥ इह धणसेणं दट्टु, कुविएणेगेण वंतरसुरेण ॥ चित्ता लिहिया खुद्दासीसमहट्टीया सहसा ।। ११६२ ॥ चित्ताउ ओयरित्ता, तत्तो एसा इमस्स पच्चक्खं ॥ रयणावलियं सहसा, गिलित्तु नियद्वाणमणुपत्ता ।। ११६३ ।। विम्हयवसायगहिओ एयं पिच्छित्तु गरुयमच्छेरं ॥ अकहियवत्तो एसो, नीहरिओ तस्स गेहाओ | ११६४ ॥ वच्चतो सो चितइ, पेच्छइ मह गरुयपावपब्भारं ॥ वच्चामि जत्थ अहयं, तत्थ अणत्थाण पत्थरी ॥। ११६५ ॥ दाऊण मए दाणं, भवंतरे नूण खंडिओ भावो || तत्तो मोरहरहा, सज्जो भज्जंति मह सव्वे ॥ ११६६ ॥ अहवा : पुन्नेहिं हवइ लच्छी, जाइ अपुन्नेहिं जइ वि धीरेहिं ॥ परिचत्तविसाएहिं, ववसाओ तह वि कायव्वो । ११६७ ॥ इच्चाइ चिंतयंतो, कमसो पत्तो य पउमिणीसंडे ॥ आरुहिय तत्थ वहणं, सायरसेणेण सह चलिओ | ११६८ ॥ पत्तो सिंहलदीवं, सो चिंतइ नूण मज्झ पावाणि ॥ पायंखीणाणि तओ कह वि न भग्गं इमं वहणं ।। ११६९ ।। तो किंचि वि ववसायं इत्थ करेमि त्ति चिंतिऊं तेण ॥ पारद्धा रयणपुरे, तत्थ धणोवज्जणोवाया ॥ ११७० ।। 2010_04 ४७९ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अज्जेइ विहवनिवहं, अखंडचित्तेण दाणपमुहाणि || नयसंगहिय धणेहिं, करेइ सो धम्मकम्माणि ।। ११७१ ।। पत्तो उदारसेहरनरेसु रेहं च तत्थ नयरम्मि || दाणेण अहव कित्ती, हवेइ किं एत्थ अच्छरियं ॥ ११७२ ।। अन्नम्म दिने चितइ, विणा अवच्चेहि नेव वीवाहो ॥ बीएणविणा सस्सं, अत्थेण विणा हवइ अत्थो ।। ११७३ ।। निसुयं च तेण जह इह पुरम्म नामेण सुंदरो जक्खो || पाइगसएण विहवं, वियरइ आराहिओ विहिणा ।। ११७४ ।। तत्तो सत्थदियहे, इमस्स जक्खस्स मंदिरे गंतुं ॥ विहिणा पूयं काउं, विन्नत्तो तेण सो जक्खो ।। ११७५ ।। दीणाराणं कोडी, तुमए जक्खिद अमुगट्ठाणम्मि || मोत्तव्वा दायव्वा, मए वि सकलंतरा एसा ।। ११७६ ।। इय जंपिय सो वच्चइ, भणिए ठाणम्मि सो वि धणकोडिं ॥ मुयइ कलंतरलुद्धो, हवंति तियसा वि खलु लुद्धा ॥ ११७७ ।। गहिऊण इमं दव्वं, धणसेणो तत्थ चेव नयरम्मि ॥ ववसायं कुव्वंतो, कमसो विहवं समज्जेइ ।। ११७८ ।। अह तेण अज्जियाओ बायालीसं पि रयणकोडीओ ॥ जह जाइ अपुन्नेहिं, लच्छी तह एइ पुन्नेहिं ॥ ११७९ ।। तापुव्वं दव्वं, दिनं सकलंतरं पि जक्खस्स ॥ विविहाय तरलहारा, सरसा रयणावली तेण ॥। ११८० ॥ कयकिच्चो सो चलिओ, अखंडपयाणेहि नियपुराभिमुहं ॥ पढमं सुदंसणगिहे, संपत्तो तामलित्तीए ।। ११८१ ।। हाण - विलेवण पमुहं, गोरव्वं तेण निम्मियं तस्स ॥ भणिया य चित्तसाला, सज्जणकज्जे निया भज्जा ।। ११८२ ॥ अह धणसेणं दट्टु, तुट्ठो सो पुव्ववंतरो तइया ।। सव्वो वि अपुन्नेहिं रूसइ तूसेइ पुत्रेहिं ।। ११८३ ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ धनसेनकहा तो तस्स पहावेणं, खुज्जा ओयरिय चित्तभित्तीए ।। मुंचेइ रयणमालं, पुणरवि वच्चइ नियं ठाणं ॥ ११८४ ॥ तं झत्ति चित्तसालं, सज्जंती पिच्छिऊण से भज्जा ।। सद्दाविऊण साहइ तं, सव्वं नियय नाहस्स ॥ ११८५ ॥ पावाण य पुन्नाण य, विलसियमेयं इमस्स धुवमेयं ।। चिंतित्तु तेण भज्जा, निवारिया कहसु मा कस्स ।। ११८६ ।। भुत्तुत्तरम्मि एसो, धणसेणेणं पयंपिओ मज्झ ।। भायासि तओ तुज्झवि, अकहित्ता तम्मि दियहम्मि ॥ ११८७ ।। मणिमाला संगहिया, मए तो तीए असममाहप्पा ।। इत्तियमित्तो सव्वो, समज्जिओ विहववित्थारो ।। ११८८ ॥ नियमणिमालं एयं, तत्तो गिण्हेसु जंपिउं एवं ॥ सा मणिमाला तेणं, समप्पिया तस्स वणियस्स ।। ११८९ ।। सो चिंतइ पिच्छ अहो, माहप्पमिमस्स पुरिसरयणस्स ।। संपइ मह भज्जाए, सच्चविया सा वि मुच्चंती ॥ ११९० ।। तइया इमेण दिट्ठा, गिलिज्जमाणा य तह य नवि एसो॥ निय महिमाए असंभविवत्थु परिजंपए कहवि ॥ ११९१ ।। निय अच्छिपिच्छियं पि हु पइट्ठमसमं समीहमाणेहिं ।। नेव असद्दहणिज्जं, कहणिज्जं गरुयपुरिसेहिं ।। ११९२ ॥ उक्तं च :अश्रद्धेयं न वक्तव्यं, प्रत्यक्षं यदि दृश्यते ॥ तथा वानरसंगीतं, तथा तरति सा शिला ।। ११९३ ।। इय नियमेण विभाविय, सो पभणइ भाउणो वि निययस्स ॥ किं कुणसि विप्पयारणमसच्चमेयं पयंपंतो ॥ ११९४ ।। इज्जाइ जंपिऊणं, सुदंसणेणं इमस्स सव्वो वि ।। निय भज्जा सच्चविओ, वुत्तंतो साहिओ सम्मं ।। ११९५ ।। धणसेणो वि हु सव्वं, जहट्ठियं चेव तस्स कहिऊणं ।। 2010_04 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं चिट्ठइ तस्सेव गिहे, कत्तिय मित्ताणि दियहाणि ।। ११९६ ॥ निय पुरदंसणऊसुयचित्तो तत्तो इमस्स अप्पित्ता ।। तं मणिमाला जुयलं, चलिओ गरुयाए रिद्धीए ।। ११९७ ।। मंगलपुरम्मि नयरे, पत्तो अयलस्स मंदिरे तेणं ।। गोरव्वं से विहियं, धणिणो सव्वत्थ महणिज्जा ॥ ११९८ ।। तइया य तस्स नयरे, सव्वत्थ अवरिसणं पुरं आसि ।। धणसेणे पुण पत्ते, सव्वत्थ वि अयलखेत्तेसु ।। ११९९ ।। तह वुटुं मेहेणं, हवंति जह तत्थ विविहधन्नाणं ॥ मूडसहस्सा अह सो जाणइ धणसेण माहप्पं ।। १२०० ।। केत्तियमित्तं दव्वं इमस्स दाऊण पुण वि सो चलिओ ।। सिरिपुंडवद्धणपुरे पत्तो पउमस्स गेहम्मि ॥ १२०१ ।। तह चेव तेण एसो गोरविओ तम्मि चेव दियहम्मि । नवरं इमेण पत्तं निहाणमसमाणमणिजुत्तं ।। १२०२ ।। पउमेण इमो भणिओ तुह चेव इमाणि गरुयपुन्नाणि ।। जं अज्ज मए पत्तो निही तओ गिण्ह तं एयं ॥ १२०३ ॥ धणसेणो वि निहाणं, तं तह अन्नं पि तस्स दाऊण ।। पुण कमसो वच्चंतो, संपत्तो निय पुरासन्ने ॥ १२०४ ।। निय गिहसुद्धिनिमित्तं, पुरमज्झे तेण पेसिओ वडुओ ।। नामेण भद्दमुत्ती, सो वि हु नाऊण सो कहइ ॥ १२०५ ।। देव ! तए लीलावइ गिहाउ परिनिग्गयम्मि परिहरियं ।। दियहाणि तिन्नि भत्तं, पाणं च अणंगसेणाए ।। १२०६ ।। अच्चाहियभीयाए, इमाए जणणीए तयणु भणियाओ ।। तिस्सा सहिउ कारह, मह धूयं भोयणं कह वि ।। १२०७ ।। अह ताउ तीए पासे, गंतूणं भणंति सायरं मुद्धि !॥ किं झायसि किं न कुणसि, भोयणमहवा नवं दइयं ।। १२०८ ।। वेसाण ठिई एसा जं नवतरुणेहि किज्जए नेहो ।। 2010_04 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ धनसेनकहा सा आह मह इमाए, ठिईए पज्जत्तमाजम्मं ।। १२०९ ।। करिहामि पुणो भोयणं मं वा जइ मह करिस्सए भणियं ।। झाएमि पुणो निच्चं, एयं छेयाण सुपसिद्धं ॥ १२१० ।। जीवन्त्यामपि यद्युपैति दयितो, मन्ये कलङ्कस्तदा, तस्मिन् स्निग्धजने वियोगिनि कथं, प्राणानिदध्यामहं ॥ मृत्युश्चेन्नहि तत्समागमसुखं तस्यापि मृत्युर्बुवं, कष्टं तद्विरहो विकल्पबहुलं दोलायते मे मनः ॥ १२११ ॥ तं सोऊण सहीहिं, चिंतियमेसा न होइ खलु वेसा ॥ नवरं पइव्वयाण वि जयम्मि पढम उदाहरणं ॥ १२१२ ।। ता एत्थ पत्तयालं, एयं चिय जं भणेइ धुवमेसा ।।। तं चेव विहेयव्वं, इय चितिय ताउ जंपति ।। १२१३ ॥ पियसहि ! अणंगसेणे, निय मणदोलावणेण पज्जंतं ॥ संपइ पइव्वया वयमणुचिट्ठसु नियमणोऽभिमयं ।। १२१४ ॥ अंबाए भलिस्सामो, अम्हि च्चिय तो अणंगसेणाए । भोयणपमुहं विहियं, सहीहि जणणीए से कहियं ।। १२१५ ।। नन्नागइ त्ति चिंतिय, सव्वं लीलावईए पडिवनं ॥ तत्तो अणंगसेणा, सिरिया देवी गिहे जाइ ।। १२१६ ।। अइघोरतरनिरंतरगलंतनयणंसुबिंदु-संदोहं ।। वरिसंती चलणेसुं, निवडइ नीययाए सासूए । १२१७ ।। विनवइ अंब! जइ तुह नाहं जोग्गा तहा वि आसाए । तुह पासे चिट्ठिस्सं, जा मह नाहो इहं एही ।। १२१८ ।। मह भवणं मह विहवो, मह परिवारो तहेव मह जीयं ।। धणसेण जणणि-सामिणि, सव्वं चिय तुज्झ आयत्तं ॥ १२१९ ।। सिरियादेवी चिंतइ, वेसा अच्छरियकारिणी एसा॥ धनो च्चिय मह पुत्तो, संबंधो जस्स एयाए ॥ १२२० ॥ धुवमेयं पिच्छंती, पिच्छामि नियं च नंदणं तह य ॥ 2010_04 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं मह पुत्तसमागमणे, एयं चिय मंगलं पढमं ॥ १२२१ ।। इय चिंतिय सा जंपइ, वच्छे ! वहुयासि मज्झ तं चेव ॥ सुंदरि ! चिटुंतीए, तुमए तह सुंदरं गेहं ॥ १२२२ ।। इय नियसासूवयणं, सोउं एसा निएहि हत्थेहिं ।। बंधेइ वेणीदंडं, धरेइ तह मंगलाहरणं ।। १२२३ ।। मुंचइ पल्लंकाई, सुणेइ निच्चं समागमकहाओ ।। तह पंथदेवयाओ, पूयइ परमाए भत्तीए ॥ १२२४ ।। दइयसमागममंतं जवेइ अंगीकरेइ अणवरयं ।। गिहिदेवयाण कम्मं, सारसमिहुणं समालिहइ ।। १२२५ ।। कररुहपयाई पिच्छइ, अवलोयइ जमलरुक्खनिउरुंबं ।। अग्घेइ उदयपुरिसं खीणं चंदं न पिच्छेइ ।। १२२६ ।। तह संतिमंडलाइं, करेइ तह वायसाण संघायं ।। उड्डावइ ओवाइयनिवहं वियरेइ तियसाणं ॥ १२२७ ।। तह सासूए समीवे, सुएइ तह विविहसुमिणविज्जाओ ।। परियत्तेइ विउज्झइ, नामं सोऊण दइयस्स ॥ १२२८ ॥ सुविणसमागमलुद्धा, निमीलच्छी सुएइ पुणरुत्तं ।। निय अंगेसु निरूवइ, अविहवनारीण लिंगाणि ।। १२२९ ।। इच्चाइ सा भणंती, इत्तिय कालं गमेइ तणुयंगी ।। तुह आगमणेण मए, संपइ वद्धाविया एसा ॥ १२३० ।। सोउं तुज्झागमणं, तह से अंगेहि विहसियं सहसा ।। जह सम्मं वनेउं सहस्सजीहो वि न वि सक्को ।। १२३१ ।। सयमेव सुहय तत्तो, सुवनलीहाइ मज्झ दाऊण ॥ निय गेहम्मि इमाए, मंगलदामाइनिम्मवियं ।। १२३२ ।। सिरियादेवी पमुहा, सयणा सव्वे वि तुज्झ आगमणं ।। सोऊण तुज्झ मग्गं, हेट्टा चिटुंति पिच्छंता ।। १२३३ ।। इय भद्दमुत्ति कहियं , सोउं सव्वं पि वइयरं सहसा ।। 2010_04 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसेनकहा ४८५ धणसेणो निय नयरे, पविसेइ तुरयमारूढो ।। १२३४ ॥ दीणाइयाण दाणं, वियरंतो तह जयम्मि पयडंतो ।। नियजणयनाम गोत्ते, नियम्मि भवणम्मि संपत्तो ॥ १२३५ ।। सिरियादेवीं पणमइ, पावइ एयाइ परममासीसं ।। तह कुणइ वेणिमोक्खं, अणंगसेणाए सयमेव ॥ १२३६ ।। न्हाण-विलेवण-भोयणपमुहं अणुहवइ मित्तसंजुत्तो । संमाणइ निय सयणे, अत्थि जणं कुणइ सकयत्थं ॥ १२३७ ।। अइ निवडसि णेहाए, अणंगसेणाए गाढमणुरत्तो ।। तियसाण वि मणहरणं, विसयसुहं भुंजए निच्चं ॥ १२३८ ॥ अह सिरिसेणप्पमुहा, अणंगसेणाए नंदणा जाया ।। अकलंकियसीलाए, तहेव पियदंसणाए य ।। १२३९ ।। जाया तणया कमसो, नयनिहिणो विजियदंसणाईया ॥ तेसु समप्पियभारो, तिवग्गमवि साहए एसो ॥ १२४० ॥ उज्जाणे संपत्तं, सयंपभं नाम केवलिं सोउं ।। वच्चइ अणंगसेणा, संजुत्तो तस्स नमणत्थं ॥ १२४१ ।। तेणं नमंसिऊणं, निययं जम्मंतरं मुणी पुट्ठो ।। साहइ सुमित्तजम्मं सव्वं आमूलपज्जंतं ॥ १२४२ ।। भणिओ मुणिणा तुमए, दाणं देतेण खंडिओ भावो । जं तइया तो जाया, एत्थ भवे खंडिया लच्छी ॥ १२४३ ।। भावेण भुवणमित्तो, पारणयं कारिओ अखंडेण ।। जं तेण तुमं जाओ, सामी बहुरयणकोडीणं ॥ १२४४ ।। दइया तुज्झ दुगुच्छावसेण वेसाकुलम्मि संजाया ।। ता भो सुपत्तदाणं, अखंडचित्तेण वियरेह ।। १२४५ ।। सोऊण इमं दोन्नि वि, सहसा संपत्तजाइसरणाणि ॥ मुणिणो तस्स समीवे, गिहत्थ-धम्मं पवज्जंति ।। १२४६ ।। गंतुं नियम्मि भवणे सम्म पालंति गहियजिणधम्मं ।। कमसो सग्गं मोक्खं, लहंति सत्तट्ठजम्मेहिं ।। १२४७ ॥ 2010_04 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ॥ इत्यतिथिसंविभागव्रते धनसेन कथा संपूर्णा || एयाणि गिहिवयाई सम्मत्तजुयाणि मोक्खकंखीहिं ॥ पालेयव्वाणि सया, सम्मं अविचलियचित्तेहिं ॥। १२४८ ॥ इय पउमप्पहपहुणा, परूवियं परिसुणित्तु तस्सेव ॥ मूले गिहिधम्मं, बहवे भव्वा पवज्र्ज्जति ॥ १२४९ ।। निच्चं मोहमहंधयारदलणो, मग्गाणमुल्लासणो, नीसेसं परवाइकोसियकुलं निन्नासयंतो सया ॥ बोर्हितो बहुभव्वपंकयवणं, सच्चक्कखेमंकरे लोयालोयपयासनाणकिरणो सूरो व्व भूमंडले सो सत्तुंजयपव्वया भयवं नीसेससत्तुंजओ, वेरुड्डामर - डिंब - चक्कदलणो, खेत्तम्मि सो भारहे ॥ सामी सव्व सुरासुराण सहिओ कोडीहिं पउमप्पहो निस्संबंधपबंधबंधुरतरं, कुज्जा विहारं सया ।। १२५१ ॥ जुयलं पउमप्पहस्स पहुणो परिवारे तिन्नि समणलक्खाणि ॥ तीस सहस्साहियाई लक्खा चत्तारि समणीणं ॥ १२५२ ॥ वीससहस्सेहिं जुया केवलनाणीण बारस सहस्सा ॥ चउदस पुव्वधराणं, तेवीस सयाणि भणियाणि ॥ १२५३ ॥ अवहिन्नाणजुयाणं, दसय सहस्सा समग्गसंखाए । मणपज्जवनाणीणं, दसय सहस्सा सया तिन्नि ।। १२५४ ॥ वेडव्वियलद्धीणं, सोलस सहसा सयं च अट्ठहियं ॥ वाईण नव सहस्सा, सएहिं छहि चेव अब्भहिया ।। १२५५ ।। सावयलक्खा दुन्निय, अहिया छस्सत्तरि सहस्सेहिं ॥ तह सावियाणि लक्खा, पंच सहस्सा तहा पंच ।। १२५६ ।। एकं च पुव्वलक्खं, सोलस पुव्वंगमासछक्केण ॥ ऊणं विहरंतस्स य पहुणो एसो परीवारो ।। १२५७ ।। इय परिवारसमेओ अणेयदेसेसु भवियसंदोहं || 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं ।। १२५० ।। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ सीहकुमारकहा पडिबोहितो पत्तो, सामी संमेयसेलम्मि ।। १२५८ ॥ अविरामभमणसंता, नक्खत्तगहा वि जत्थ खणमेत्तं ॥ उच्चतरसिहरतरुवरसिरेसु कुव्वंति वीसामं ॥ १२५९ ।। जत्थ जिणाण चउण्हं, निव्वाणगयाण रयणमयथूभा ॥ खयरामरेहिं महिया, तइया दीसंति पच्चक्खं ॥ १२६० ॥ हल्लीसयबंधेणं, जत्थ य मुणिजिणवराण चरियाणि ।। सुरसीमंतिणिनिवहा, गायंति सया सरोमंचा ॥ १२६१ ॥ अमलमयसलिलनिब्भरसंदोहमिसेण पुव्वसंगहियं । जिणवयणामयनिवहं, वियरइ लोयाण जो निच्चं ॥ १२६२ ।। सिहरिस्स तस्स सिहरे, विहियं सुरअसुर-वंतरगणेहिं ।। मणहरणसमवसरणं, पउमप्पहजिणवरिंदस्स ॥ १२६३ ॥ सीहासणे निविट्ठो, सम्मं साहेइ सव्व लोयाणं ।। पउमप्पहजिणनाहो, जिणिंदपूयाइयं धम्मं ॥ १२६४ ।। पूयाए जिणिंदाणं, जीवा पूयं लहिंति सव्वत्थ ।। पूयाए विग्घनासो, पूयाए सव्व संपत्ती ।। १२६५ ।। भणियं च :जं जं मणोभिरामं, दीसइ पुहईए सुंदरं किं पि ।। तं वीयरायपूया, फलंति नत्थित्थ संदेहो ॥ १२६६ ।। जे अट्टविहं पूयं करंति निट्ठवियअट्टकम्माणं ।। अट्ठ वि सयंवराओ तेर्सि अणिमाइसिद्धीओ ॥ १२६७ ॥ मणवंछियकप्पलयं, दुरंतदुहकंदपरसुसियधारं ।। इह परभवसुहवल्ली उल्लासणसजलघणधारं ।। १२६८ ।। कुव्वंति भत्तिजुत्ता, जिणपूयं जे सया वि उज्जुत्ता ॥ इच्छियलच्छी निवहं, लहंति ते सीहकुमारो व्व ॥ १२६९ ॥ पूयाफलोवरि सीहकुमारकहा :वर पहईसरकित्तीथंभसहस्सेहिं अत्थि दंतुरियं ।। 2010_04 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं रायगिहं नाम पुरं, वाणी लच्छीण कुलगेहं ।। १२७० ।। मणनंदणजसचंदणसंहरियसमग्गभुवणसंतावो । अरिकुलकाणणदावो सुग्गीवो तत्थ नरनाहो ।। १२७१ ।। पाइक्केसुं रनो, तत्थेव पुरम्मि कज्जविहिसज्जो ।। खत्तियवंसुप्पन्नो, अरिसीहो नाम वरभिच्चो ॥ १२७२ ।। सीहो तस्सत्थि सुओ गुणवं गुणनिवहपक्खवाई य । सो अन्नया वि चिंतइ, दटुं सेवा दुहं पिउणो ।। १२७३ ।। धिद्धि बुद्धीसेवयनराण जीयं च जीवियं धिद्धी ।। अन्नायत्तो अप्पा धणलवलुद्धेहिं जेहि कओ ॥ १२७४ ।। उक्तं च :हसति हसति स्वामिन्युच्चैरुदत्यति रोदिति कृतपरिकरं स्वेदोद्वारिप्रधावति धावति ।। गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति धनलवपरिक्रीतं जन्तुं प्रनृत्यति नृत्यति ।। १२७५ ।। किंच :सेविज्जंतो अवरो कयावि किंचि वि करेइ फललेसं ॥ अवकेसि व्व निवो पुण सयावि विफलो कुसंसग्गी ।। १२७६ ।। उक्तं च :आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि ।। इत्याशया बत विमोहितमानसानां • कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥ १२७७ ॥ इय चिंतिय जणयं, जाणाविय तम्मि चेव नयरम्मि || सेवं करेइ एसो, धणिणो निच्चं सुबंधस्स ॥ १२७८ ।। निच्चं पि सच्चवाई, एसो त्ति इमेण सुरहिचंदाणं ॥ 2010_04 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ सीहकुमारकहा गोवालो सो विहिओ लिहियाउ न लब्भए अहियं ॥ १२७९ ।। गोमहिसिचारणपरे, इमम्मि दुद्धरधणुद्धरो पत्तो ।। पाउससमओ गिम्हो, वरिवरिसंतो सरा सारं ॥ १२८० ।। जाव इमो आगच्छइ पुरम्मि ता अंतरम्मि कूलाणं॥ दोण्ह वि पाडण निरयं, पिच्छइ सरियं सलिलभरियं ।। १२८१ ।। गोमंडलेण सहिओ वसिओ एसो नईए परकूले ।। रिद्धीए समारंभे पायं नीया दूरवगाहा ।। १२८२ ।। दुद्धरपुरा सहसा पाडइ तडरूढविडविसंघायं ।। चिर सेवयं पि कुपहू,निक्कंदइ विहवमारूढो ॥ १२८३ ।। मंदायमाणपूरा, जाया एसा पभायसमयम्मि ।। नीयाण संपया खलु, न होइ न चिरं हवइ अहवा ।। १२८४ ।। पाडिय तडस्स मज्झे, मुहकमलं मणिमयाए रम्माए । रिसहेसर-पडिमाए निएइ पयडं च निय पुनं ।। १२८५ ।। अप्पं भवाउ तह जिणबिंबं उद्धरइ धरणि मज्झाओ॥ सह अप्पणाय सरिया जलेहि तं कुणइ निप्पंकं ॥ १२८६ ॥ थुणिऊण सरिसमीवे, कारइ एसो कुडीरयं तत्थ ।। तं न्हवइ सया पूयइ, पणमइ परमाए भत्तीए ॥ १२८७ ।। नयराउ नीहरंतो, अंतो नयरस्स सो विसंतो य ।। महिमिलियमउलिकमलो, नमइ जिणिदं सरोमंचो ।। १२८८ ॥ विनवइ अन्नदियहे, सामि ! न जाणामि सत्थपरमत्थं ।। किं पुण तुमं नमंसिय, नियमेण अहं जिमिस्सामि ॥ १२८९ ॥ पइ दियहं जिणनाहं तस्स नमंतस्स अन्नसमयम्मि । विरहिणिकालकयंतो, वासारत्तो समणुपत्तो ॥ १२९० ॥ सीहो जाव पुराओ, निग्गच्छइ ता पुणो वि सा सरिया ॥ गहिऊण दो वि कूले, चिट्ठइ विलसंतजलहभरिया ॥ १२९१ ॥ गहिऊण सुरहिवंद्रं सुबंधुसिट्ठिस्स सो गिहे पत्तो ।। 2010_04 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० तम्मि दिणे न वि एसो, जिमिओ जिणदंसणाभावे ।। १२९२ ॥ अवरे वि दोन्नि दियहे, सरिया पूरेण तेण जिणनाहो || नविदिट्ठो उववासा, तो जाया तिनि सीहस्स ।। १२९३ ॥ मंदायमाण पूरा, सरिया जाया चउत्थ दियहंते ॥ गंतूण जिणं एसो, पणमइ वरभत्तिसंजुत्तो ॥ १२९४ ।। जिणपयपंकयलग्गो, सो जंप नाह तिन्नि अकयत्था ॥ दियहा मह वक्कता, जेसु न दिट्ठो तुमं सामि ! ॥ १२९५ ।। मह तिहुयणपरमेसर ! कह वि हु मा होज्ज तं दिणं जत्थ ॥ तुह दंसणं न जायइ, भवदुह - संभार - संहरणं ॥ १२९६ ॥ इय पवरं विन्नत्ति, कुणमाणो नेत्तनीरनिवहेण ॥ पक्खालियजिणचरणे, सह एसो अप्पणा सहसा ॥। १२९७ ॥ भत्तीए तस्स रंजिय-चित्तो होऊण झत्ति पच्चक्खो || जिणपडिमा हिट्ठायग- जक्खो जंपेउमारद्धो ॥ १२९८ ।। हे सीह ! विणीएसुं पाविय वरलीह तुज्झ भत्तीए ॥ तुट्ठो अहयं नियमणइटुं मग्गेसु वरवत्थं ॥ १२९९ ।। सो आह मज्झ रज्जं, हवेउ तुट्ठोसि जइ तुमं सच्चं ॥ जक्खो भणइ हविस्सइ, पडिवालसु किंतु छम्मासा ॥। १३०० ॥ एवं ति पयंपित्ता, सीहो ! गेहम्मि जाइ पइदियहं ।। जिणनाहं पणमंतो, अइवाहइ जाव छम्मासा ॥ १३०१ ॥ अह राया. तत्थ पुरे, गयपुत्तो जमगिहम्मि संपत्तो ॥ अहिवासियाइं तत्तो, सचिवेहिं पंच दिव्वाणि ।। १३०२ ॥ पुरबाहिरम्मि कमसो, इमाणि पत्ताणि तरुतले सुत्तं ॥ जज्जरचीरमजज्जरपुन्नं पिच्छंति अह सीहं ॥। १३०३ ॥ तो पंचहि दिव्वेहिं, नियनियवावारपयडणपरेहिं ॥ अहिसित्तो सो तत्तो, वुढामच्चेहिं मंतित्ता ॥ १३०४ ।। परिहावियवरवत्थे, आरोविय कंधराए वरकरिणो ॥ 2010_04 सिरिपउमप्पहसामिचरियं Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ सीहकुमारकहा नयरम्मि तम्मि सीहो, पवेसिओ गरुयरिद्धीए ॥ १३०५ ।। सीहासणे निविटुं, नमंति तं नेवरायवरपत्ता ।। जंपंति कहं महिसी, गणसामी अम्ह नमणिज्जो ।। १३०६ ।। आगंतूण सहाए, समाणसीहासणेसु निवसंति ।। ते दटुं अनमंते, अहसो रुट्ठो पयंपेइ ।। १३०७ ।। इह अत्थि को वि जो धुवमिमे समुट्ठित्तु बंधए सहसा ।। सोऊण तस्स वयणं, हसंति सव्वे वि सामंता ।। १३०८ ।। अत्थाणदारदेसे, दारुमया तस्स पुनमहिमाए ।। तोरविया पडिहारा, उद्विय बंधंति निवनिवहं ॥ १३०९ ॥ भीया भणंति सव्वे, सीहमहाराय ! सरणमल्लीणा ।। तुह चेव देव तत्तो, मोयावसु हवसु सपसाओ ।। १३१० ।। तव्वयणेणं सहसा, मुयंति सव्वे वि दारुपडिहारा॥ आणा करेहि सव्वो, नराण संपुनपुन्नाणं ।। १३११ ।। अह सव्वे सामंता, मंतित्ता तस्स नेय परिसाए ।। आगच्छंति विमूढा, संगहिया अभिनिवेसेण ।। १३१२ ।। चिट्ठइ सहाए एको, सीहो सीहासणम्मि उवविट्ठो॥ पेसिय परिसं तेणं, सुबंधुसेट्ठी समाहविओ ॥ १३१३ ॥ सो चिंतइ तुच्छमई मह दासो एस मज्झ वरभत्ति।।। अहिलसइ तओ खेडु, कायव्वं इह पुरे सयले ।। १३१४ ।। इय चिंतिय वंसेसुं, पाणाहिया कंबलाइ बंधित्ता ।। ठावित्तु सीहदारे, वच्चइ गेहम्मि दुट्ठप्पा ॥ १३१५ ।। पुरिसेण तेण कहिए, सीहो गंतूण निययपासाए ।। सेज्जाइ गओ चिंतइ, धिरत्थु रज्जं इमं मज्झ ।। १३१६ ॥ रज्जेण वि किं तेणं, जत्थ पइट्ठा न विज्जए कावि ।। गोचत्तं पि कयत्थं, तं जत्थ पराभवो नत्थि ।। १३१७ ।। अह जक्खो पच्चक्खो, जंपइ हे सीह ! कुणसु मा खेयं ॥ 2010_04 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ सिरिपउमप्पहसामिचरियं लिप्पमयं वरकरिणं, कारेसु कुलालनिवहेण ॥ १३१८ ॥ सो हत्थी अविहत्थो, तुमम्मि आराहयम्मि आरूढो ।। होही मत्तो हणिही, सव्वे वि हु दुट्ठसामंते ॥ १३१९ ।। इय भणिय गए जक्खे, कुलालमाहवित्तु सो करिणं ।। कारइ तह जाणावइ, पडहेण पुरम्मि सव्वत्थ ॥ १३२० ।। जह करिही लिप्पकर, आरूढो रायवाडियं राया। सोऊण इमं सहसा, हसंति सव्वे वि सामंता ।। १३२१ ॥ जंपंति य अन्नोन्नं, इमेण चरिएण सो य गोवालो।। सच्चं चिय तो सहसा, हणियव्वो सिंधुरारूढो ।। १३२२ ।। इय चिंतिय सव्वे वि हु, मिलिया नयरी जणेण सामंता ॥ सिंगारिय तं करिणं, सो निस्संको समारूढो ।। १३२३ ।। गहिऊण अंकुसं तं, करिणं तोरवइ नयरमज्झम्मि ।। सो जक्खपभावेणं, जाओ एरावणसमाणो ।। १३२४ ।। गंधेण तस्स करिणो, अवरे चिटुंति नेव पुरमज्झे । रंगंता वि तुरंगा, दुट्ठण इमं पलायंति ॥ १३२५ ।। गलगज्जिरावतासिय, दिसागइंदो य दुट्ठसामंते ।। सो निहणइ दिव्वकरी सुंडादंडाइघाएण ।। १३२६ ।। अह के वि हु सामंता वयंति हे सीह ! तुह वयं पणया ।। रक्खसु तत्तो वारइ, सीहनिवो अंकुसे तेणं ।। १३२७ ॥ धणनिवहं वियरंतो स-मंति-सामंत-निवहपरियरिओ ।। गंतूण रिसहनाहं, सो पणमइ गरुयरिद्धीए ।। १३२८ ।। नियपासायं पत्तो, सो बंधुर-बंधुराउ उत्तरिओ ।। अह सो पुणरवि हत्थी, लिप्पमओ चेव संजाओ।। १३२९ ।। आहविय जणसमक्खं, सुबंधुसि४ि भणेइ गयमेयं ।। आरुहिय भमसु नयरे, अहवा छोडसु निए वंसे ।। १३३० ।। सेट्ठी विलक्खचित्तो, वंसे अवणेत्तु झत्ति तं नमइ ।। 2010_04 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीहकुमारकहा ४९३ विनवइ सामी अहयं, मूढो मह खमसु अवराहं ।। १३३१ ।। तुटेण तेण रन्ना सिरिकरणपयम्मि ठाविओ एसो॥ कहमवि कुणंति कोवं, कोवावसरे वि न हि गरुया ॥ १३३२ ।। जइ गुरुपयप्पासाया, करेइ अक्खलियसासणो रज्जं ॥ परचक्के वि हु पत्तो, जुज्झइ आरुहियं तं करणं ।। १३३३ ॥ तिक्कालं जिणनाहं, अंचित्ता वेरिनिवहपरिमुक्कं ।। काऊण चिरं रज्जं, पत्तो सग्गं सिवं कमसो ॥ १३३४ ।। ॥ इति सामान्यजिनपूजायां राजपुत्रसिंहकथानकं ।। एवं परूवइत्ता सामी पउमप्पहो वियाणित्ता ।। निव्वाणगमणसमयं, सिहरे तस्सेव सिहरस्स ।। १३३५ ।। ऊसासाइपमुत्तं, चइत्तु गमणाइसव्ववावारं ।। सामी मासपमाणं, पावयगमणं पवज्जेइ ॥ १३३६ ।। पडिवज्जिय सेलेसि, रुभियमण-वयण-कायवावारं ।। चत्तारि वि खविऊणं, भवोवग्गाहिकम्माणि ॥ १३३७ ॥ मग्गसिरकसिणएक्कारसीए चित्ताए संगए चंदो ।। अट्टहिं सएहिं सहिए, तिउत्तरेहिं च समणाणं ॥ १३३८ ॥ एसो असंजमो खलु, रागद्दोसाय दोन्नि बहुदोसा ।। कज्जम्मि जस्स निच्चं, उज्जुत्तेहिं चइज्जंति ।। १३३९ ॥ मणु-तणु-वयणारंभा वज्जिज्जंतो य तिन्नि सावज्जा ।। दुहनिवहदाणचउरा चउरो निच्चं कसाया य ।। १३४० ।। सद्दाइ पंच विसया, सया चइज्जति छण्ह जीवाणं ।। रक्खिज्जति निकाया, किज्जइ छब्भेय तवकम्मं ।। १३४१ ॥ वज्जिज्जंति भयस्स य सत्त मयस्सावि अट्ठ ठाणाणि ॥ पालिज्जइ नवगुत्ती, जुत्तं वरबंभचेरं च ।। १३४२ ।। धारिज्जइ दस भेओ, जइधम्मो तह य घोरउवसग्गा ।। ___ 2010_04 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ सिरिपउमप्पहसामिचरियं सोलस वि सहिज्जंतो, बावीस परिसहा चेव ।। १३४३ ।। पिंडो घिप्पइ सुद्धो, वायालिसेहिं तह य दोसेहिं ।। वरचरणं च चरिज्जइ, सत्तट्ठ भवाउ जस्स कए ॥ १३४४ ।। मासियभत्तं काउं, समएणिक्केण उज्जूसेणीए ।। सिरिपउमप्पहनाहो,संपत्तो सासयं सुक्खं ।। १३४५ ।। पहुणो कुमारभावे, पुव्वाणद्धट्ठमाणि लक्खाणि ।। रज्जम्मि पुव्वलक्खा इगवीसं अट्ठ संजुत्ता ॥ १३४६ ॥ सोलसपुव्वंगेहिं ऊणं परूवियं समए । पउमप्पहस्स तीसं पहुणो लक्खाण सव्वाऊ ॥ १३४७ ।। सोलस्स पुव्वंगेहिं अहिया तह चेव हुंति नायव्वा ।। एक्कं च पुव्वलक्खं, पहुणो परियायकालम्मि ।। १३४८ ।। अह सव्वे वि सुरिंदा, निव्वाणगयं मुणित्तु जिणनाहं ।। सोयजलभरियकंठा, तारं मुंचंति पुक्कारं ।। १३४९ ।। हा नाह नाह! सुचरियअगाह, भवअवडपडियजणवाह ! ॥ हा देव देव ! तिहुयणजणसमुदयविहियपयसेव ।। १३५० ॥ संसाररन्नमज्झे, सरणागयवच्छलो वि हा देव ! ॥ मोत्तुं अणाहा अम्हे,कह सिवनयरं वयसि एक्को ॥ १३५१ ।। किं चिट्ठसि मोणेणं, पुणरवि न कहेमि नाह ! किं धम्मं ।। तुह मुहचंदचकोरा, चिटुंति इमे सुरसमूहा ।। १३५२ ।। वयणं च नयणहीणं, उच्चिय कमलं व कमलसरसलिलं ।। सेन्नं व पहु-विमुक्कं, तुमं विणा भाइ भुवणमिणं । १३५३ ।। सद्धम्मदेसणामयधारासारेहिं देव ! को इण्हि ॥ धाराधरो व्व तिहुयणमणवणमंकूरियं करिही ॥ १३५४॥ सोयंधयारगहियं, भुवणं पि हु पिच्छिऊण इह सक्को॥ अप्पाणं संठविउं, जंपइ किं कुणह इय सोयं ।। १३५५ ।। सोउं तेसिं किज्जइ, मरिऊणं जे पडंति संसारे ।। 2010_04 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणनिव्वाणवण्णणं ४९० जे पुण निव्वाणगया, मरणं पि महूसवो तेसि ।। १३५६ ।। एवं सक्कगिराए, एसो मंदायमाणमहिमम्मि ।।। किंकरगणेहिं सक्को, आणावइ नंदणाहिंतो ।। १३५७ ।। घणसारअगुरुनियरं, कारइ तत्तो चियाण संदोहं ।। खीरोयजलवरेणं, कुणइ सिणाणं च जिणतणुणो । १३५८ ॥ गोसीसचंदणेणं, काऊण विलेवणं च सुरनाहो ।। पहुदेहं परिहावइ, सुहुमेहिं देवदूसेहिं ।। १३५९ ।। मणिमाणिक्कविभूसण-निवहेहिं भूसए तह सक्को। सेसा कुणंति तियसा, ण्हवणाई साहु-देहाणं ।। १३६० ॥ पहुपयपंकयजुयले, पणमिय सक्को जिणस्स तं देहं ॥ नरसहस्सवाहिणीए, आरोवई रयणसिवियाए ।। १३६१ ॥ सेस मुणिदाहनिवहं, सेस सुरा निक्खिवंति सिबियासं ॥ सयमेव सामि वि सयं, सक्को उप्पाडए तइया ।। १३६२ ।। उक्खित्ता सिवियाओ, अवरा अवरेहिं तियसनिवहेहिं ।। सिवियाण पुरो रम्म, कुणंति संगीय अमरीओ ॥ १३६३ ।। तालारासे काउं वि, कुणंति सिवियाणमुवरिकुसुमाणि ॥ मुंचंति काउ काउ, विसेसं गिण्हंति कुसुमाइं ॥ १३६४ ॥ तियसा लुलंति के वि हु के वि हु मुच्छंति के वि विलवंति ।। हा नाह, नाह ! संपइ, हयह इमाइ जंपंता ।। १३६५ ।। अंधा जाया अम्हे खीणो अम्हाण पुन्नपन्भारो ।। हे धरणि देहि विवरं, झड त्ति सुम्मति सुरसदा ॥ १३६६॥ तुरेसु वज्जिरेसुं, गिज्जंतेसुं च सामिचरिएसं॥ सिवियाओ नीयाओ, ताओ चियाणं समीवम्मि ॥ १३६७ ।। खित्तो जयगुरुदेहो, चियाइ सक्केण सेससमणाणं ॥ अवसेसासु चियासुं, देहा खित्ताय तियसेहिं ।। १३६८ ॥ सक्कस्स समाएसा, अग्गिकुमारो चियासु तो जलणं ।। ___ 2010_04 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सिरिपउमप्पहसामिचरियं वायुकुमारा वायं, मुयंति तस्सेव आसाए । १३६९ ।। अढेि मोत्तुं दड्डे, धाउसमूहम्मि खीरजलहिस्स ॥ विज्झाविति जलेहि, मेहकुमारो चियं पहुणो ।। १३७० ।। सक्को उवरिमदाहिणदाढं गिण्हेइ हेट्ठिमं चमरो ।। उवरिमवामं दाढं, ईसाणो हेट्ठिमं तु बली ॥ १३७१ ।। अवसेसा सुरनाहा, दंति गिण्हंति कीकसे तियसा ।। सविमाणठियाओ ताओ पूइज्जंते सया तेहिं ।। १३७२ ।। नरनारीसमूहेहिं, संति निमित्तं च घिप्पए भूई ।। गंतूणं सुरनाहा, माणवथंभस्स उवरिम्मि ॥ १३७३ ॥ पहुणो चियाए ठाणे, तियसा कुव्वंति रयणमयथूभं ।। नंदीसरम्मि इंदा, वयंति अट्ठाहियं काउं ।। १३७४ ।। काउणं अट्ठाहियमहिमं, दीवम्मि तत्थ सट्ठाणं ॥ गंतूणं सूरनाहा, माणवथंभस्स उवरिम्मि ॥ १३७५ ॥ वज्जसमुग्गयमज्झे, मुयंति पूर्यति ताउ दाढाओ ।। तेसिं थूयाए मंगलविजया सया होति ॥ १३७६ ।। सिरि सुमइजिणे मुक्खं पउमप्पहो सिवं पत्तो ।। नउईए सहस्सेसुं गएसु अयराणकोडीणं ।। १३७७ ॥ एवं वक्कंतासुं बहुसु अइयरोवमाणकोडीसु । सिद्धत्थरायपुत्तो उपन्नो वीरजिणनाहो ॥ १३७८ ।। सिरिवद्धमाणतित्थे जंबू पभवाइमुणिगणिदेसु ।। सुट्ठियसुप्पडिबुद्धो, गएसु सूरी समुप्पन्नो ।। १३७९ ।। तत्तो कोडियगच्छे, गच्छो विव विविहदीहसाहालो ।। आबालपयडमहिमा खमाइसु परिट्ठिओ जाओ ।। १३८० ॥ गच्छम्मि तम्मि चउरो, दीहरवित्थारफुरियसोहाओ । साहाउ अगाहाओ, चउदिसिपसरंतमहिमाओ ॥ १३८१ ।। उच्चानागरविज्जाहरा य वइरा य मज्झिमिल्ला य ॥ 2010_04 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ जिणनिव्वाणवण्णणं एयासि पसाहोणं, को जाणइ सव्व नामाणि ॥ १३८२ ।। विज्जाहरसाहाए, गच्छा गुच्छ व्व सुमणमणहरणा ।। जालिहरकासहरया, मुणिमहुयरपरिगया दोन्नि ।। १३८३ ।। सिरि जालिहरो गच्छो, विजयउ गयणं व जत्थ मुणिनाहा ।। अहमहमिगाए बहवे, पियंति सिद्धंतसिरिनाहं ।। १३८४ ।। तत्थ य :जाओ तारइ राइरेहिरतले, गच्छम्मि वोमंगणे, धम्मज्झाणमणीनिहाणकलसो सोबालचंदो मुणी॥ अप्पं कम्ममलीमसं पडिदिणं सोहंतओ जो सया, अटूटेहिं उवासएहिं अमलं तेवे तवं दुत्तवं ॥ १३८५ ।। सीसा तस्स जयंतु सक्कसरिसा मोहं महापव्वयं, तिक्खेणं चरणेण थोरपविणा चुण्णं कुणंता सया।। लोयाणं गुणभद्दसूरिगुरुणो सारस्सयं सव्वया, जच्छंतो अमयं सुहम्मनिरया चित्तं खमाए ठिया ।। १३८६ ॥ तेसिं पट्टिपयोनिहिम्मि कमला बंधूमणी निम्मलो, सव्वाणंदगुरुअसेसजगई जंघालकित्तीभरो ।। जं काउं हियएक्कलद्धवसहिं संतो समंतासिरी, पब्भारं पुरिसोत्तमत्तमहुणा के के न पत्ता सया ॥ १३८७ ।। वयणाउ जस्स निग्गयमणेयविबुहाण विहियमणि हरिसं ।। अमयं व सायराओ, चरियं सिरिपाससामिस्स ।। १३८८ ।। सिरिधम्मघोसपहुणो, अकलंकमयंकसरिसमाहप्पा ।।। सीसा तस्स अदोसा, कोसा नाणाइ रयणाणं ।। १३८९ ।। रेणुक्करेणु ण्हाया, जलंजलि जत्थ देंति दुक्खाणं ॥ तं ताण चरणकमलं, अउव्व तित्थं सया सरिसो ॥ १३९० ।। तप्पय पयट्ठिएहिं, कइहिं सिरिदेवसूरिनामेहिं । पउमप्पहस्स पहुणो चरियं रइयं कयच्छरियं ।। १३९१ ।। 2010_04 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ सिरिपउमप्पहसामिचरियं वेयसरसूर परमिय [१२५४] वरिसे निवविक्कमस्स वरिसाओ ॥ मग्गसिरसुद्धदसमी, तिहीइ वारम्मि तह रविणो ॥ १३९२ ।। रेवइ नक्खत्तगए हिमकिरणे वेरिभीमभीमस्स ।। चालुक्कवंसमुणिणो, निखज्जे रज्जसमयम्मि ।। १३९३ ।। सिविद्धमाणनयरे, ठिएण पज्जून्नसेट्ठिवसहीए ॥ सिरिपउमप्पहचरियं, पडिपुन्नमिणं मए विहियं ।। १३९४ ।। समणोवासगविद्दयलक्खणअब्भत्थणा इहं ।। पढमं जाया मज्झ पवित्ती, पउमप्पहचरियनिम्माणे ।। १३९५ ।। जं सिद्धंतविरुद्धं, लक्खणहीणं च जंपियं एत्थ ।। तं खमउ मज्झ सव्वं, सुयं च सुयधारिणो चेव ।। १३९६ ।। जइ वि नव कव्वविसया सत्ती मह नेव समयजलनिहिणो । परमं पारीणत्तं छेयत्तं नेव उत्तीसु ।। १३९७ ।। तहवि मए असमाए. पउमप्पहतित्थमहिमाए ।। पारद्धमिणं चरियं, निविग्धं तह य सम्मत्तं ॥ १३९८ ॥ कर्तुं न प्रकटां स्फुरत्रव नव प्रौढार्थदृष्टिं मया तो तत्वानि निवेष्टुमत्र भगवत्सिद्धान्तसिद्धानि वा ।। नैव ख्यापयितुं व्यधायि, चरितं रीतिं विदर्भोद्भवां भक्तिं किन्तु पुनः पुन र्न गदितं श्री पद्मलक्ष्मप्रभोः ।। १३९९ ।। उम्मीलंति निरंतरमत्था सद्दा य जं नवा मज्झे ।। ते देविंदगुरुणं पसायमहिमाइ मह महियं ॥ १४०० ।। तनिधीत्य देवेन्द्रगुरोः सिद्धान्तमादितः ।। श्री हरिभद्रसूरिभ्यश्चरितं निर्ममे मया ।। १४०१ ।। अंचइ सासयतित्थे नहलच्छी जाव रिक्खकुसुमेहिं ।। ससि-रविवरताडंका नंदउ चरियं इमं ताव ।। १४०२ ।। जालिहरगच्छनहयलमयंकसिरिदेवसूरिरइयम्मि ।। सिरि पउमप्पहचरिए संमत्तो तुरियपत्थावो ।। १४०३ ।। 2010_04 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंथकारपसत्थि ४९९ ॥ इति श्रीमत्पदमप्रभचरितं समाप्तं ।। छः ।। गाथा ७२३२ ॥ कृतिरियं श्री जालिहरगच्छमंडन श्रीधर्मघोषसूरि शिष्य श्री देवसूरिणामिति भद्रश्रीः ।। छः ।। आशिर्वादोऽयं संघस्य लिख्यते यथा :कार्याणामनिशं यतः शिवकरी सिद्धिं समासाद्यते, यस्मात्सर्वमनोरथदूमततिविश्वस्य पंफुल्यते अन्यद्यच्च मनोरथातिगमहो सर्व समासाद्यते युष्माकं भवताच्छुभाशयवतां पद्मप्रभः स श्रिये ॥ १४०४ ।। एला यत्र दया क्षमा च लवती सत्यं लवंगं परं, कारुण्यं क्रमुकी, फलानि विदितश्चूर्णश्च सत्वोदयः ।। कर्पूरं मुनिदानमुत्तमगुणं शीलं च पत्रोच्चया, . गृह्णीध्वं गुणकृज्जनैर्निगदितं तांबूलमेतज्जनाः ॥ १४०५ ।। संवत १६५१ वर्षे माघमासे शिते पक्षे नवमी गुरुवासरे श्री पूर्णिमा पक्षे तिमिरपुराक्षे वाचनाचार्य श्री ४ श्री पद्माणंद तत् शिष्य वाचनाचार्य श्री भावकलस तत्शिष्य वाचक श्री ४ श्री ठाकरसीह तत्शिष्य पंडितश्री वासा तत्शिष्य मुनिलीलाधरेण वसो ग्रामे लिखितमिदं ॥ यावल्लवणसमुद्रो-यावनक्षत्रमंडितो मेरु ।। यावच्चन्द्रादित्यो-तावदिदं पुस्तकं जयतु ।। १ ।। लेखक पाठकयोः शुभं भवतु ॥ छः ।। यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया ॥ यदि शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयते ।। १ ॥ जलाद्रक्षे तैलाद्रक्षे, रक्षेत् शिथिलबंधनात् ।। मूर्खस्य हस्तगता रक्षे एवं वदति पुस्तिका ॥ २ ॥ ॐ श्रीः ।। 2010_04 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_04 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010.04 For Prvale & Personal use only www.ainelibrary.org