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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
गोसीसु तत्थ चंदणु दहंति, पुट्टलियबंध-रक्खं कुणंति ।। जिणकन्नमलि तो कट्टयंति, रयणोवलदसदिसि फरियकंति ।।११५॥ पहुकन्नमूलि जंपति ताउ, भयवं ! भवाहि पव्वय समाउ । जिणजम्म-भवणि जणणि धारि, वच्चंति सयल तो दिसिकमारि ॥११६॥ सट्ठाणि दो वि तत्थ य मयंति, अप्पाण तयण सिवपहि धरति । नियनिय दिसासु ठायंतियाउ, गायति जणणि जिणचरिताउ ॥११७॥ इय पउमप्पहनाहह दीहरवाहह, विहिउ कम्म कुमरिहिं पवरु । इत्थंतरि सक्कह नयसुरचक्कह, आसणु कंपिउ दित्ति धरु ॥११८।। तं पकंपंतु पिच्छित्तु तियसेसरो, अवहिनाणेण जाणेइ तयसुरवरो । अज्ज कोसंबी नयरीए जाओ जीणो, भुवणलोयाणमाणंदनिम्मावणो ॥११९॥ झ त्ति परिहरियवररयणसीहासणो, पयइ सत्तट्ठ सो जाइमणिभूसणो । सक्कत्थएण जिणनाहपयपंकयं, थणइ मन्नेइ सकयत्थमप्पाणयं ॥१२०॥ तेण आइठ्ठ सयमेव हरिणाणणो झ त्ति भत्तीए पहकज्ज संसाहणो । लहिवि आएस सहस त्ति नियसामिणो, घंट ताडेइ जिणजम्मविहिकामिणो ॥१२१।। तीए घंटाए तत्थेव वज्जतिए, घोर-निग्घोसभरभरियगयणंतिए । बत्तीसलक्खघंटाण टंकारया, झ त्ति पसरति कयमच्छवित्थारिया ॥१२२॥ किं किमेयंति चिंतेइ जा सरगणो, ताव जंपेइ सो सत्त निट्ठावणो। चलह सक्केण जिणजम्मवरमज्जणे, हरिय संसारसरिनाहजिणमज्जणे।।१२३॥ ते वि जंपंति हे सामि ! संपत्तया, अम्हि अग्गम्मि तह वयणतूरंतया। जंपेवि एम सरमिलियवरवाहणा, झ त्ति वच्चंति पहकज्जनिव्वाहणा ॥१२४|| पालय नियभिच्चिण अइनिन्भिच्चिण जोयणलक्ख विमाणवरु । कारिय संपत्तउ भत्तितूरंतउ, दाहिणरइकरिवज्जधरु ॥१२५॥ संखेविय तण सो नियविमाण, संचल्लिड सुरपरियण समाण । कोसंबिनयरि जिणजम्मठाणि, सहस च्चिय पत्तउ कलिसपाणि ॥१२६॥ अवसोवणि जिणजणणीइ देइ पडिबिंब ठविवि जिण करि धरेवि । कय पंचरूवु तियसनाहु, एक्केण धरइ तेलुक्कनाहु ॥१२७।।
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