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चले और राज्य ग्रहण करे । कुमार ने स्वीकृति दे दी । अमृताम्बर देव के साथ केशरीयान में बैठकर कुमार
वा। मंत्रीयोंने उसका राज्याभिषेक किया। कछ दिन वहाँ रह कर राजा समरसिंह अपनी सेना के साथ अपने पिता के पास पहुंचा । उन से युद्धकर अपना परिचय दिया । पिता पुत्र का मिलन हुआ । पिता पुत्र के पराक्रम से बडा प्रसन्न हुआ। कुछ समय तक वहाँ रह कर समरसिंह शतद्वार नगर लौट आया और न्याय नीतिपूर्वक राज्य करने लगा।
एक बार निर्वाणधर नामके केवली शतद्वार नगर के मधुकर नामके उद्यान में ठहरे । राजा समरसिंह परिवार के साथ उनकी बन्दना करने के लिए गया । धर्मोपदेश के बाद राजा ने मुनि से पूछा-भगवन् । व्यक्ति चक्रवर्ती पद देव और तीर्थकर पद कैसे प्राप्त कर सकता है ? केवली ने कहा-तप से । उसके पश्चात् केवली ने समरसिंह
और रत्नमंजरी का पूर्व भव बताते हुए कहा-समरसिंह तुम पूर्वजन्म में सिद्धार्थ नामके ग्रामपति थे और रत्नमंजरी रोहिणी थी। दोनों ने कठोर तप किया। जिसके फल स्वरूप तुम्हें यह रिद्धि और सम्पदा मिली है । अपना पूर्व जन्म का वृत्तांत सुन दोनों को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। राजा ने अपने पुत्र विजय को राज्य गद्दी पर स्थापित किया और अपनी रानी रत्नमंजरि के साथ आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । कठोर तप कर उसने निर्वाण प्राप्त किया ।
तप का महात्म्य समझाने के बाद आचार्यश्रीने भावना धर्म का निरूपण किया और इस पर सुरसुन्दर कुमार की कथा कही । राजा सुरसुन्दर (पृ. १००-१३५)
जम्बूद्वीप के लवण समुद्र के किनारे साल नामका एक गहन वन था । उस वन में एक विशाल शाखा प्रशाखा युक्त वट वृक्ष था । उस वृक्ष पर एक सारस युगल रहता था। सारसी ने गर्भ धारण किया । एक दिन सारसी ने सारस से कहा-'प्राणनाथ । यह वासों का जंगल है । कभी भी आग लग सकती है अतः हमें अन्यत्र निवास करना चाहिए। सारसी की बात पर सारस ने ध्यान नहीं दिया । अवधि पूर्ण होने पर सारसी ने दो अण्डे दिये । सारसी रोज अपने पंखों से अण्डे सेंती थी । जब अण्ड़े परिपक्व हुए तब उस में से दो बच्चों ने जन्म लिया । सारस-सारसी बड़े प्यार से उनका लालन पालन करने लगे।
एक बार बासों के संघर्षण से दावानल भड़क उठा। आग की तीव्र लपटे वट वृक्ष के पास पहुंच गई । सारस ने अग्नि के ताप से व्याकुल होकर सारसी से कहा-मै बच्चों के लिए पानी लाता हूँ। तुम इन बच्चों की दावानल से रक्षा करना । ऐसा कहकर सारस उड़ा और इधर उधर पानी की खोज करने लगा। इधर दावानल की ज्वाला के ताप से सारसी अर्धमृतक अवस्था में तडप रही थीं । एक विद्याधर आकाश मार्ग से निकला । सारसी की हालत पर उसे दया आई । उसने विद्याबल से वर्षा वर्षा कर दावानल को शान्त किया । अर्धमृतक सारसी को उसने नमस्कार मंत्र सुनाया, पश्चात् सारस भी वहां पहुंचा । दोनों ने नमस्कार मंत्र श्रवण कर देह छोडा । नमस्कार मंत्र के प्रभाव से सारस मरकर श्रीतिलक नाम के नगर के राजा तिलक सुन्दर की रानी तिलकावली के गर्भ से सुरसुन्दर नामक पुत्र रूप में जन्मलिया और सारसी ने चन्द्रचूड के राजा चन्द्रपुर की रानी चन्द्रावली की कुक्षी से लीलाकुमारी नाम की सुन्दर राजकुमारी के रूप में जन्म लिया । सुरसन्दर राजकुमार युवा हुआ ।
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