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राजा तिलकसुन्दर ने उसे राज्य गद्दी पर स्थापित किया और स्वयंने दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण किया । राजा सुरसुन्दर न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करने लगा । राजा का मतिसार नामका एक अनन्य मित्र था ।
एक दिन राजा ने स्वप्न में चन्द्रपुरीनगरी के एक सुन्दर सरोवर के बीच एक स्थंभ प्रासाद में एक सुन्दर कन्या के साथ गांधर्व विवाह किया । स्वप्न का वृतान्त अपने मित्र मतिसार से कहा । मतिसागर मित्र ने चन्द्रपुरी नगरी की बहुत तलाश करवाई किन्तु नगर का पता नहीं लगा । उसने दान शाला खोली । दान ग्रहण करने के लिए हजारों पथिक वहां आने लगे । एक वृद्ध पथिक भी वहां आया । वह चन्द्रपुरी नगरी का निवासी था । मतिसार ने वृद्ध पथिक को बुलाकर पूछा- “तुम कहा से आये हो और तुमने अपने जीवन में कोई आश्चर्य जनक घटना देखी या सुनी है ?" पथिक ने कहा- "मैं चन्द्रपुरी का रहने वाला हूँ। वहां एक विशाल सरोवर के बीच एक स्थंभ प्रासाद है । वहां पुरुष से द्वेष करनेवाली लीलाकुमारी नामकी राजकुमारी रहती है ।'पथिक के मुख से चन्द्रपुरी नगरी की राजकुमारी की घटना सुन मतिसागर राजा के पास गया और उसने पथिक के मुख से राजकुमारी का जो वृत्तान्त सुना वह सब कह सुनाया । राजा बहुत प्रसन्न हुआ । दूसरे दिन राजा और मतिसार पथिक के साथ चन्द्रपुर की ओर चले । मार्ग में एक विद्याधर ने राजा को रूपपरावर्तिनी गुटिका दी। लम्बी यात्रा के पश्चात् वे चन्द्रपुरीनगरी के समीप पहुंच गये । नगर के बाहर तापसियों का आश्रम था। दोनों तापसियों के आश्रम में ठहर गये । धनादि की साहयता से उन्होंने मुख्या तापसी को अपने वश में कर लिया । राजा ने एक बार लीलाकुमारी से मिलने की इच्छा व्यक्त की । तापसी ने कहा-लीलाकुमारी नरद्वेषिणी है । स्त्रियों की प्रशंसा करना और पुरुषों की निंदा करना उसका स्वभाव है । राजा ने पूछा-पुरुषों पर द्वेष क्यों करती है ? तापसी ने कहा उसे पूर्व भव का स्मरण हुआ है । पूर्व भव में मरते समय सारसी की यह विचार धारा थी कि पुरुष स्वार्थी होता है । सारस पानी लेने के बहाने मुझे बच्चों सहित छोड स्वयं प्राण बचाने के लिए भाग गया । इतना प्रेम रखने पर भी प्रेम की कसौटी आने पर वह अपने ही प्राणों की रक्षा में रहा । अपनी प्राण प्रिया को भी छोड़ दिया । धिक्कार है इन पुरुषों की स्वार्थ वृत्ति पर । इन्हीं पूर्व संस्कारों के कारण वह पुरुषों पर द्वेष रखती है । अतः उसे यदि मिलना हैं तो स्त्री वेश में ही मिल सकते हो । राजा ने गुटिका के प्रभाव से स्त्री का रूप धारण किया । लीलावती से मिला । अपनी संगीत और चित्रकला से उसे प्रसन्न किया । राजा ने एक चित्रपट बनाया । उसमें दावाग्नि के समय का सारा दृश्य चित्रित किया । सारस जीवन में पानी लेने जाना, पानी ले के वापस लौटना और अपनी प्राणेश्वरी सारसी के वियोग में सिर पटक पटक कर प्राण देना आदि घटनाएँ उसने चित्रित की । वह चित्रपट उसने लीलाकुमारी को बताया । अपने जीवन चरित्र पट को देखा तो उसे जातिस्मरण हो गया। वह उसी क्षण मूर्छित हुई और वह अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। राजा ने अपना परिचय दिया । पूर्व जन्म का पति पाकर लीलाकुमारी बडी प्रसन्न हुई । पिता ने लीलाकुमारी का विवाह सुरसुन्दर के साथ कर दिया । सरसुन्दर राजा लीलाकुमारी के साथ अपने नगर लौट आया । लीलाकुमारी पर राजा का प्रगाढ स्नेह था वह एक क्षण भी उसे अपने से अलग नहीं रखता था । एक बार शूल वेदना से लीलाकुमारी की मृत्यु हो गई । वह शव के पास बैठकर सतत विलाप करता था। शव का अग्नि संस्कार भी नहीं करने देता था। एक दिन सडे हुए रानी के शव की बिभत्सता देख उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। अशरण, अनित्य,भव,एकत्व,असुचि,आश्रव,संवर
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