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आदि भावनाओं को भाता हुआ भावों की उच्च श्रेणी में उसने केवलज्ञान प्राप्त किया। लीलाकुमारी मरकर सौधर्मकल्प में देव बनी । भविष्य में नन्दन के भव में लीलाकुमारी सिद्धि पद को प्राप्त करेगी।
देशना समाप्ति के बाद अपराजित राजा ने पूछा- "भगवन् ! आपने इस नवयौवनकाल में आपारसुख वैभव का त्याग कर दीक्षा क्यों ली ?" आचार्य ने कहा-राजन् ! मैने अपाररिद्धि को छोड दीक्षा क्यों ग्रहण की उसका कारण बताता हूँ । आचार्यश्रीने अन्तरंग कथा कही (पृ. १३६ -१६२) और कहा-संसार की ऐसी विचित्रता से प्रेरित होकर ही मैने प्रवज्या ग्रहण की। आचार्य के उपदेश का राजा पर बड़ा प्रभाव पड़ा । उसने सम्यक्त्व पूर्वक ग्रहस्थ धर्म स्वीकार किया ।
कालान्तर में पिहिताश्रव नाम के आचार्य का आगमन हुआ। अपराजित राजा ने आचार्य का उपदेश सुना । उपदेश से प्रभावित हो उसने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की और कठोरतप किया । अर्हत भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराधना कर उसने तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन. किया । अन्तमें पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते हुए वह समाधि पूर्वक मरा और उवरिम नाम के ग्रैवेयक में देव रूप से उत्पन्न हुआ । पद्मप्रभ का जन्म दीक्षा और निर्वाण- (पृ. १६६ से-) ___ जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में वत्सदेश में कौशाम्बी नामकी नगरी थी । वह अत्यन्त सुन्दर थी । वहाँ धर नामका एक प्रतापी राजा राज्य करता था। उसकी सुसीमा नाम की सुन्दर रानी थी । उपरीम उपरीम ग्रैवेयक से अपराजित देव माघमास की कृष्णा छट्ठी को चन्द्र जब चित्रा नक्षत्र में अवस्थित था तब वहाँ से च्युत होकर देवी सुसीमा के उदर में प्रवेश किया। उस समय रानी सुसीमा ने तीर्थंकर जन्म सूचक हस्ती,सिंह,वृषभ आदि चौदह महास्वप्न देखे । नौ मास पूर्ण होने पर कार्तिक कृष्णा को जब चन्द्र चित्रा नक्षत्र में था तब उर्द्ध रात्री के समय रक्तपद्म लांछन से युक्त एक पुत्र को जन्म दिया ।
भोगंकरा आदि छप्पन दिककुमारियां आई और प्रभु-माता एवं प्रभु का जन्मकृत्य सम्पन्न किया । सौधर्मेन्द्र पालक विमान से आये और भगवान को मेरु पर्वत पर ले गये । वहां प्रभु को गोद में ले कर वे अतिपाण्डुकवला रक्षित सिंहासन पर बैठ गये। अच्युतेन्द्रादि त्रेसठ इन्द्रों ने तीर्थस्थलों से लाए जल से प्रभु को विधिपूर्वक नान करवाया। उसके बाद शक्र ने भगवान को ईशानेद्र की गोद मे रख कर उन्हें स्नान करवाया। अंगराग लगाया
और फिर उन्हें वन्दना कर उनकी स्तुति की । स्तुति के पश्चात् शक्र भगवान को ले कर उनकी माता के निकट पहुंचा और भगवान को माता के पार्श्व में सुला कर प्रणाम किया । तीर्थंकर माता की अवस्वापिनी निदा दूर कर तीर्थकर बिम्ब को वहां से हटाकर शक्र स्व निवास को लौट गया और अन्यान्य इन्द्र मेरु पर्वत से ही अपने अपने स्थान को चले गये।
प्रातः राजा धर मे पुत्र का जन्मोत्सव किया । बारह दिन पूर्ण होने पर राजा ने अपने मित्र-मण्डल से कहा 'जब यह बालक मां के उदर में था तब इसकी माता को ऐसा दोहद हुआ था कि मै कमल की शय्या पर सोऊं । अतः बालक का नाम पद्म रखा जाय । शक्र द्वारा अंगुष्ठ में भरा अमृत-पान कर प्रभु बढने लगे । अर्हत् स्तन पान नहीं करते इस लिए धात्रियों का केवल अन्य कार्य ही अवशेष था। वासव द्वारा नियुक्त पांच धात्रियों द्वारा प्रभु लालित होने लगे । वे छाया की तरह उनका अनुसरण करती रहती थी। भगवान के देव,असुर और राजन्यगण
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