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संखकुमारकहा
निविडंधयारसायरमग्गम्मि जए समग्गम्मि ।। ११६ ।। दिप्पंतरयणदीवं, सुरसरिया-पुलिण-सरिस-पल्लंकं ।। थंभनिवेसियफुल्लं-फुलं धुयहारिझंकारं ॥ ११७ ।। जालगवक्ख-विणिग्गय-कालागुरु-धूव-वासियदियंतं ।। निम्महिय-नीरसायर-तरंग-विलसंतउल्लोयं ।। ११८ ।। सेधिपुरंधीयण-कंकणगण-रावजणियसवण-सुहं । निव्विटीकयपंकय-टिविडिक्कियकुट्टिमं तह य ।। ११९ ॥ मन-नयण-हरिस-कारणमसमं सो वासभवणमइरम्मं ।। कयचंगअंगभोगो, पियाए जुत्तो समणुपत्तो ।। १२० ।।
पञ्चभिःकुलकं रयवस-किलंतगत्तो, निब्भर-निद्दाइ-जाव पासुत्तो ।। कित्तियमित्ते समए, समइक्कंतम्मि जग्गेइ ॥ १२१ ।। ता न नियइ नियपासे, तं तरुणि तरुण-हरिणि-तरलच्छि ।। अप्पाणं चिय केवलमवलोयइ सो तया कुमरो ।। १२२ ।। झत्ति धसक्किय चित्तो, समुट्ठिओ भवणवलहिपेरंतं ।।। पिच्छइ दस वि दिसाओ तह मूढपहु व्व सो नियइ ।। १२३ ।। नियदइयमपिच्छंतो, महल्लसेरंधिजामइल्लनरे ।। पुच्छइ कि तुब्भेहिं, सा दिट्टा तत्थ हरिणच्छी ।। १२४ ॥ नहि नहि नहि त्ति तेहि वि, भणिए सो तार तार संरावं ।। विलवियकरकलियासी, नीहरिओ वासभवणाओ ॥ १२५ ।। आराम-काम-मंदिर-कोलागिरि-सरिसमूहमविरामं ।। अमणिय मग्ग-परिस्सममवलोइ य सो पिया कज्जे ॥ १२६ ॥ रे चंपय ! नव चंपय-गोरि हरिया तए न संदेहो ॥ अन्नह रवन्नवन्नो, कत्तो तुमए कहसु पत्तो ।। १२७ ।। इच्चाइ विविह-वाउल-संलाव-विणोयगमिय बहुदियहो ।
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