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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
अवकेसी कप्पतरू चिंतारयणं तहेव तिणरयणं । छीरं च अक्कछीर न जाइमित्तेण सारिच्छे ॥१४४३।। भरहो भरहाहिवई पुत्तो पढमस्स तित्थनाहस्स. । चक्केसराण पढमो वरिओ गंगाए देवीए ॥१४४४|| पव्विं दिव्व-सहेसी वरिससहस्सं सया वि अणरत्तो । नारी विरत्तचित्तो विविहं रमिओ न किं कुमर ! ॥१४४५।। कुमरो जंपइ सुंदरि ! वियारसारासि तो विचिंतेसु । अकयसरतरुणि-विरई सिद्धते सव्वए भरहो ॥१४४६ ।। सोऊण धम्मतत्तं जयंतसेणस्स मुणिवरिंदस्स । पासे एसो नियमो मए पवनो परा सयण ! ॥१४४७।। दिव्वा रमणी वेसा तह नारी अवर परिससंगहिया । . तेरिच्छी सव्वा वि ह परिहरिया निययकाएण ॥१४४८॥ कमलच्छि-कमलवासिणि तत्तो सरसंदरी परिग्गहिया । अहवा अपरिग्गहिया परिहरियव्वा मए सव्वा ॥१४४९।। कमला जंपइ तत्तो कुमार ! उवयारिणी अहं तुज्झ । तइया अवारपारे निवडतो रक्खिओ जेण ॥१४५०॥ तो मं अवगनंतो कयग्घनरसेहरोसि हे सुहय ! जइ मह पच्चवयारं करेसि मनेस मह भणियं ॥१४५१॥ सव्वाण वि अहमाणं कयग्घमहमाहमं निदीसंति । सव्वाणमुत्तमाणं कयनुय उत्तमं बिंति ॥१४५२ ।। उवयारिणीए कज्जे तत्तो नियम पि खडिउं पच्छा । पायच्छित्तं चरिउं विसद्ध-धम्मो हविज्जास ॥१४५३।। कुमरो जंपइ सुंदरि ! कत्तो उवयारिणी हवसि मज्झ । भंजावसि मह नियमं जम त्ति जत्तीहि विविहाहिं ॥१४५४॥ सो उवयारी जो किर सम्मं धम्मम्मि ठावए अनं ।
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