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मेरा मानना है । ऋषभदेव के तेरहभव, भ. शान्तिनाथ के बारहभव, भ. नेमिनाथ के नौ भव. भ. पार्श्व के दस भव एवं भ. वीर के २७ भव कहे गये हैं। शेष तीर्थंकरों के तीन तीन भव शास्त्रों में वर्णित है तदनुसार मै भी भ. पद्मप्रभु के तीन भवों का ही वर्णन करूंगा ।
भ. पद्मप्रभु का प्रथम भव -
जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में ऐश्वर्य सम्पन्न वत्सविजय में सुसीमा नाम की एक अत्यन्त रमणीय नगरी थी । जिसका क्षितिज मंदिरों एवं विशाल प्रासादों की पताकाओं से सुशोभित था । वह नगरी इतनी सुन्दरी थी कि अमरावती नगरी भी उसके सामने फिकी लगती थी। उसी नगरी में अपराजित नाम का राजा राज्य करता था । वह अपराजित था और न्यायनीति से राज्य का संचालन करता था ।
एक बार वसन्त के समय राजा अपराजित मागध के अनुरोध से उद्यान श्री को देखने के लिए उद्यान में गया। वहां घूमते घूमते एक शिलापट्ट पर विराजमान ध्यानस्थ मुनि को देखा। मुनि सुन्दर युवा एवं तप तेज से प्रकाशित थे । मुनि के तपतेज से आकर्षित राजा मुनि के पास पहुंचा और मुनि को वन्दन कर उनके समीप बैठ गया। मुनि ने राजा को आशिर्वाद के साथ धर्मोपदेश दिया । उन्होंने कहा - " इस असार संसार में अगर कोई सारभूत वस्तु है तो वह धर्म है । धर्माचरण से ही मनुष्य जन्म, जरा, मृत्यु और रोग से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । दान, शील, तप और भावना रूप धर्म चार प्रकार का है"। आचार्य श्री ने चारों धर्मो का विशद विवेचन किया और दान के महत्व को प्रकट करने के लिए हंसपाल कथानक, शील का प्रभाव बतलाने के लिए मृगांकलेखा चरित्र, तप का महत्व बताने के लिए रोहिनी कथानक, और भावना का प्रभाव व्यंजित करने के लिए सुरसुन्दर कथानक बड़े रोचक ढंग से सुनाया । उपदेश श्रवण के बाद राजाने आचार्य से युवावस्था में दीक्षा लेने का कारण पूछा तो उन्होंने अपने जीवन की अन्तरंग कथा सुनाकर अपनी प्रव्रज्या का कारण बताया । इन चारों प्रधान कथाओं का संक्षिप्त सार इस प्रकार है
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हंसपाल की कथा : (पृ. ९-३५ )
वाराणसी नामकी नगरी थी। वहां कुसुमसार नाम का धनाढ्य श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम स्वयंप्रभा था । उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दीया । उसका नाम मयंक रखा। उसी नगरी में धनंजय नाम का श्रेष्ठी रहता था । उसकी पद्मावती नामकी पुत्री थी । मयंक और पद्मावती जब आठ वर्ष के हुए तब दोनों को एक ही दिन एक ही अध्यापक के पास पढने के लिए भेजा। सहाध्यायी होने से दोनों में अच्छी मैत्री थी। दोनों आपस में मिलकर पिता से प्राप्त धन से खाने पीने आदि की वस्तुएँ खरीदते थे और दोनों आपस में बाटकर खाते थे । एक दिन पद्मावती के पिता ने ८० कोड़ियां पद्मावती को दी । पद्मावती ने उनमें से ५० कोड़ियां मयंक को दे कर कहा- "तुम इन ५० कोडियों के खाद्यान्न ले आओ हम मिलकर खायेंगे । मयंक बाजार में गया और उन ५० कोड़ियों का खाद्य लेकर वह स्वयं खा गया । पद्मावती को जब इस बात का पता लगा तो उसने मयंक को उपालंभ देते हुए कहा- “कुमार ! तुमने मेरा विश्वासघात किया है । यदि ये कोड़ियां मेरे पास होती तो मैं अपने लिए वस्त्र या अलंकार लाती किन्तु तुमने तो अपनी स्वार्थवृत्ति का ही परिचय दिया है" । पद्मावती की यह बात उसे खटकी। अब वह बार बार पद्मावती के वचन का स्मरण करता रहता और
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