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________________ साथ उपदेश तत्व की योजना और लक्ष्य की दृष्टि से आद्यन्त एक रूपता पायी जाती है । क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, प्रमाद के शोधन, परिमार्जन और उनके विलयन का अनेक रूप से वर्णन किया है । साथ ही कथानक का आधार आश्चर्यजनक घटनाओं से परिपूर्ण कथावस्तु के विकास में जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का सघन जाल, कथानक रूढियों का प्रयोग, एवं पात्र वैविध्य इस चरित्र ग्रन्थ की विशेषता है । कथा को गतिशील और चमत्कार पूर्ण बनाने के लिए स्वप्र दर्शन, अश्वापहरण, एवं पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर प्रणयोद्बोध आदि कथानक की रूढ परंपरा का प्रयोग यत्रतत्र मिलता है। समासान्त पदावली, नये-नये शब्दों का प्रयोग पदविन्यास की लय, संगीतात्मक गति, भावतरलता एवं प्रवाहमय भाषा इस चरित्र काव्य की विशेषता हैं। इसमें विविध प्रकार के अलंकार, रस एवं भावादि की अभिव्यंजना उत्तम प्रकार से प्रस्तुत की गई है । इस चरित्र काव्य में लोक जीवन का सजीव चित्रण भी सरलभाषा में हुआ है । साथ ही आचार्य श्री ने अपने कथानकों में मानवीय मनोवेग, भावावेश, विचार, भावना उद्देश्य, प्रयोजन आदि का सुन्दर आकलन किया है एवं सामन्त, राजा, सेठ, मन्त्री प्रभृति नाना व्यक्तियों के चरित्र उनके छल, कपट, प्रेम के विभिन्न पक्षों, मध्यवर्गीय संवेदनाएं और कुंठाएँ सुन्दर रूप में अभिव्यक्त की गई है । इनकी लोकोक्तियां भी हृदयस्पर्शी हैं । इस प्रकार लेखक ने भाषा को सशक्त और मुहावरेदार बनाया है । इसमें उपमा और रूपक भी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। कथावस्तु : ग्रन्थकर्ता प्रारंभ में आदि जिनेश्वर भगवान ऋषभदेव, पद्मलंछन से युक्त भगवान शान्तिनाथ, श्यामलवर्णीय भगवान नेमिनाथ, नव हाथ उंचे कुवलय प्रभावाले भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य तीर्थंकरों को स्तुतिपूर्वक प्रणाम कर जिनेश्वर के मुख से निकली जिनवाणी स्वरूप सरस्वती की प्रशंसा करते हैं । तत् पश्चात् अष्टापद शिखर पर पहुँचनेवाले, संसार परिभ्रमण से मुक्त अभिनव सूर्य के समान तेजस्वी गौतमगणधर को एवं श्रेष्ठ दस नियुक्तियों के निर्माता भद्रबाहु को प्रणाम करते हैं । जिन के मुख से सदा अमृतरस का झरना बहता हो ऐसे हरिभद्र सूरि, विविध ग्रन्थों के रचयिता हेमचन्द्राचार्य जैसे महान् साहित्यकारों को हृदयपूर्वक स्मरण करते हुए कहते हैं- कवि रत्नाकर है जो रत्नों के समूह को ग्रहण कर स्वर्णकार की भाति नये नये अलंकारों को बनाता है अर्थात् अलंकारों से युक्त नये नये सुन्दर काव्यों की रचना करता हैं । सज्जन आंखों के समान होते हैं जैसे आंखे छोटी या बडी सभी वस्तु को प्रकाशित करती है किन्तु अपने आपको नहीं। उसी तरह सज्जन सदैव दूसरों के काव्यों की ही प्रशंसा करते रहते हैं भले ही वह अल्प गुणवाला ही क्यों न हो । दुर्जन का तो कहना ही क्या वे स्वभाव से ही निंदक होते हैं । मंत्र या चूर्ण से तो बिच्छु आदि का प्रतिकार किया जा सकता है किन्तु दुर्जनों का प्रतिकार करने में तो ब्रम्हा भी असमर्थ है । दुर्जन जन तो महा भयानक होता है फिर भी मै उनसे प्रार्थना करता हूं कि वे मेरे काव्य में रहे हुए दोषों को प्रकट कर मुझे अवश्य कृतार्थ करें । इसके बाद कवि अपने कार्य में आनेवाले विघ्रों के नाशक जिन भगवान को नमस्कार कर ग्रन्थारम्भ करता है और कहता है-सभी योगीश्वर मिलकर भी जिनेश्वर भगवान के सम्पूर्ण चरित्र को प्रकट करने में असमर्थ है तो मुझ जैसा सामान्य व्यक्ति भगवान के चरित्र को पूर्णरूप से कैसे प्रकट कर सकता है ? फिर भी मेरा नया ग्रन्थ निर्माण रूप व्यापार निष्फल नहीं होगा, ऐसा Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002597
Book TitlePaumappahasami Cariyam
Original Sutra AuthorDevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages530
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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