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रयणसारकहा
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एत्थंतरम्मि विरइय चिया गया दहणदाहसंभंता । वड्ढा इमं विचिंतइ पिच्छस पावाए माहप्पं ॥१६३१ ।। पुरजणपुरओ कहियं हयाए एयाए वज्जगिरयाए । जह मह पिययम-जणणी साहिस्सइ हुयवह अज्ज ॥१६३२॥ ता किं वहुए भग्गा अभग्गसिरसेहरा नियं जीय । हारेमि हंत ! कइयावि लहइ सव्वं पि जीवंतो ॥१६३३ ।। इय चिंतिय सा सहसा चियाए नीहरिय नियय ठाणम्मि । ठवियं अनाहमडय आरूढा नियडवडसिहरं ॥१६३४।। अह डमडमंतडामरड-मरुय-कर-भमिर-जोइणिसमूहं । जोइणि-समूह-कलयल-मिलंत-पल-लोल-वेयालं ॥१६३५॥ वेयालमक्क-पल-लव-वसारुहिर-पगिद्ध-गिद्ध-निउरबं । गिद्ध-निउरुंबं तासिय-फुरंत-फिक्कार-फेरगणं ॥१६३६॥ फेरुगण-घोर-पडिरव-बहली-कय-घूय-विसर-घंकारं । घंकार-छंद-नच्चिर-हरिसद्दर-भूयसंघायं ॥१६३७॥ भूयसंघायसाहयसहस्सं दिज्जंतनियमहामंसं । मंसऽत्थि तुट्ठ-सुर-विसर-दिन-रज्जाइ सुहनिवहं ॥१६३८॥ भीमं मसाणदेसं कायरमण-कंपकारणं पत्तो । पत्तो हुयास-हत्थो तिस्सा पुत्तो पियाजुत्तो ॥१६३९॥ पंचभिकुलकम् ॥ उज्जालिऊण जलणं जंपइ हे जणणि ! कट्ठस यासं । जाहे न किंचि जंपइ पियाइ-पुत्तो इमो ताहे ॥१६४०॥ । नाह ! भयावहमेयं भूयवणं इत्थ नेव चिरमुचियं । .. ठाणं जालियजलणं तम्हा सिग्घं गिहं जामो ॥१६४१ ।। इय जंपिऊण पावा जलणं पज्जालिऊण सयमेव ।। कयकिच्चा पइजत्ता पत्ता निययम्मि गेहम्मि ॥१६४२ ।। दद्धे अणाहमड़ये पत्ते गोवद्धणे वि नियगेहं । एत्था जं संजायं तमवहियमणा निसामेह ॥१६४३॥
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