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मयंकलेहाचरियं
अह भणइ पत्तलेहा, सच्चं चिय मुद्धि ! चित्तलेहासि । चित्तं मुत्तुं अन्नं, न किमवि जाणेसि वरवत्थु ॥४८७॥ मह पियसहीए जोग्गो, अणंगदेवो रवन-लायन्नो । गहियंगो व्व अणंगो, धणयसओ विस्सओ भवणे ॥४८८॥ तत्तो जंपइ अवरा, नामेणं मुद्धि ! पत्तलेहासि । पत्तपरिक्खं लवमवि,न मणसि सिक्खेस मह पासे ॥४८९।। को नाम कामसरीसं, अणंगदेवं न मनए किंतु । पुट्ठो पुरा मए च्चिय,वरकज्जे संवरो नाणी ॥४९०॥ कहियं तेण इमं चिय, अणंगदेवो मयंकलेहाए । न वि उचिओ जं एसो, वीसं वरिसाणि परमाऊ ॥४८१॥ अवरा भणइ न किं पि हु , जाणसि मरिहेसि जाणणनिमित्तं । थोवं पि मद्धि ! अमयं, सहावहं न उण विसभारो ॥४९२॥ सा उण मयंकलेहा, अमंदमंदक्ख-पूरिया बाला । वावारइ न निवारइ, ताणं इक्कं पि विवयंतिं ॥४९३॥ अह सो सागरचंदो, सोउं सव्वंपि ताण संलावं । कुद्धो असिमायड्ढिीय, ताण वहत्थं चलइ सहसा ॥४९४॥ तं धरिय करे जंपइ, धणमित्तो एस रोस-अवयासो । को नाम ? नेव वामा, वामा वि हु अरिहए मारं ॥४९५॥ बाला मयंकलेहा,लज्जासज्जा न किंपि जंपेइ। तो एसा निद्दोसा, अरिहेइ न वहं जगते वि ॥४९६॥ एसा वि चित्तलेहा, सही सहीए भणेइ जं किंचि । वीसत्था किह सत्थाघायं अरिहेइ? मह कहस ॥४९७|| इय भणिय निययगेहे नीओ मित्तेण तेण सो कमरो । वीवाहविहिविरत्तो चिट्ठइ गुरू दुक्खसंतत्तो ॥४९८॥ तुच्छा न विरज्जंते,दोससमुहं पि पिच्छमाणा वि । दोसलवं पि नियच्छिय झ त्ति विरज्जंति सप्पुरिसा ' ॥४९९।।
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