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सिरिपउमप्पहसामिचरिय
सो आह मह कमागयमेयममुल्लं अमुल्ल-माहप्पं । मह जीवियसव्वस्सं, मुद्दारयणं वियाणाहिं ॥७४९॥ अह पूरे मंदजले जाए निय-भवणसम्मुहं दुण्हं । वच्चंताणं पडियं, विसाहभूइस्स तं रयणं ।।७५०॥ पच्छा आगच्छंतो, कुमरो पिच्छित्तु गिण्हए तं च । चेलंचल-पज्जंते, जत्तेणं बंधए तत्तो ॥७५१ ।। मंदिरदारे तत्तो, 'विसाहभूई' पयंपए कुमरं । हा मज्झ तं पि रयणं, कराउ पडियं नई तीरे ।।७५२ ।। जइ कमरं तं पि रयणं, न लहिस्सं संपयं धवं तत्तो । होही पाणच्चाओ, तो तं वलिऊण पिच्छामो ॥७५३॥ वियसिय-मह-कमलेणं, निरीह-चित्तेण तेण कमरेण ।
चेलंऽचलाउ रयणं, समप्पियं तस्स मित्तस्स ॥७५४॥ चिंतइ विसाहभूई, इमस्स कमरस्स निच्चलमणस्स । सच्चरियं अच्छरियं, न ह कस्स जणेइ हिययम्मि ॥७५५।। संपइ उवायमेगं, तं किं पि करेमि जेण कमरस्स । सहसा चलिही चित्तं, निच्चलमवि नियय नियमाउ ॥७५६॥ अह तेण सुताराए, विहिया सिर-वेयणा महाघोरा । अत्थी कुच्छी सुकयं, सूलं मूलं दुहसयाणं ॥७५७॥ मूलेण तेण अंतो, पविट्ठलोहमयसूल-सरिसेण । दलइ व चलइ व बाला, एसा झिज्झइ व विज्झइ व ॥७५८॥ विरसं रसेइ दीहं, ससेइ करुणं रुएइ गलिरच्छी । तारं विलवइ बाला, तह जह भुवणं पि विलवेइ ॥७५९॥ सयणो सनो तिस्सा, दहि विसनो य परियणो जाओ।
अइ दुहिओ य कुमारो, तहा ससोओ पुरी लोओ ॥७६०॥ विलवंतीए, तीए, पत्ते अवयरिय वंतरी वयइ ।। जइ कुमर ! तुह पीयाए, कज्जं ता कुणसु मह वयणं ॥७६१ ॥
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