________________
वज्जबाहुकुमारकथा
मरहट्ठदेसतिलए, रिट्ठपुरे उत्तरम्मि दिसिभाए । कुसुमनिहाणुज्जाणे, चिट्ठइ जक्खो साणंदो ॥ ७६२ ॥ कम्मितस्सवामे, मउह- ह - संभार - भरिय - नह-विवरं । अत्थि अमुल्लं रयणं, अणप्पमाहप्प - दिप्पतं ॥ ७६३॥ हविऊणं तं रयणं नीरं पाएस निय पियं जीयं । जइ वंछसि एयाए, अन्नह मरणं धुवं सरणं ॥ ७६४।। अह सा वयइ सुतारा, सच्चं जइ कुमरमज्झ नाहोऽसि । आणेसु तओ गंतुं, नएण अनएण वा रयणं ॥ ७६५।। अह खग्गवग्ग-हत्थो, कुमरो आयास - गमण - विज्जाए । मरहट्ठे रिट्ठपुरे, जक्खामि संपतो ||७६६ || तब्भवण- पडिहारो, चिंतइ संतराओ दूराउ । उवाइय-वसपत्तो, एसो मं अच्चिही अज्ज ॥७६७॥
सो उण कुमरो पूयं, पणाम - मित्तं पिस अकाऊण । जाविस भवणमज्झे, ता तेणं हक्किओ सहसा ||७६८ ||
रे दुट्ठ-धिट्ठ ! निक्किट्ठ ! कोसि ? पाविट्ठ ! अज्ज न हु होसि । अज्जं मरेसि रे नट्ठ ! एस कयंतो अहं पत्तो ॥ ७६९ ॥ इय जंपिरेण तेणं, कराल -कंकाल - भूय-वेयाला । किलिकिलिरागिलि - रमणा विउव्विया पंचसयसंखा ||७७० || परिवेढिओ य तेहिं, गुडु व्व मक्कोडएहिं सो कुमरो । आयड्ढिय करवालं, वेयालगणं हणइ जाव ॥ ७७१॥ ताव पयंपियमेयं, एगेण तत्थ घोर - भूण | जइ खत्तिओसि सच्चं, ता जुज्झसु मल्लजुज्झेण ॥७७२॥ परिहरिय मंडलग्गो, कुमरो वि तेहिं भूएहिं ।
ते वि हु महल्लमल्ला, होउं जुज्झति कुमरेण ॥७७३॥
के वि हु निठुर - कुप्पर - घाएणं हणइ गुरुचवेडाहिं । हु के वि हु, पतल - घाएणं के वि मुट्ठीए ||७७४||
Jain Education International 2010_04
२८१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org