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________________ सेठानी बालक को देखकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने उसे अपना पुत्र मानलिया और उसका जन्मोत्सव किया । उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा । सुरेन्द्रदत्त युवा हुआ और उसका ३२ कन्याओं के साथ विवाह कर दिया गया । इधर मृगांकलेखा वस्त्र आदि का प्रक्षालन कर मंदिर पहुंची तो पुत्र को न पाकर उसे बडा आघात लगा । आसपास में पुत्र की उसने बहुत खोज की किन्तु वह नहीं मिला । निराश होकर वह अकेली ही आगे चली । रास्ते में उसे ग्वालों का अधिपति वसंत मिला । विलापकरती हुई मृगांकलेखा को उसने आश्वस्त किया और उसे अपने घर ले आया । वसंत इसके रूप पर मुग्ध हो गया था । रात्रि के समय जब वसन्त मृगगांरूलेखा की छेडखानी करने लगा तो सती के शीलप्रभाव से उसके उदरमें शूल हो गया और उसकी मृत्यु हो गई । मृगांकलेखा वहां से भागी और मकरंद तापस के आश्रम में पहुंची। मकरंद तापस ने उसे गांवके अधिकारी सुन्दर को रक्षण के लिए सोप दिया। गांव के अधिकारी ने देवी को बलि चढाने के लिए दस स्त्रियों और पुरुषों को बंदी बना रखा था। मृगांकलेखा को भी उसने बन्दी खाने में रख दिया । मृगांकलेखा ने बलि के दिन ग्रामाधिकारी सुन्दर को अहिंसा और दया का महत्व समझाया । उपदेश से प्रभावित होकर सुन्दर ने मृखांक लेखा एवं उनके साथियों को मुक्त कर दिया । बन्दीखाने से मुक्त होकर मृगांकलेखा आगे चली । मार्ग में सिंह और राक्षस मिला । किन्तु शील के प्रभाव से दोनो शान्त होकर चले गये । मृगांकलेखा भूख प्यास को सहती हुई और अनेक विपत्तियों का सामना करती हुई सिद्धपुर नामके नगर के बाहर एक उद्यान में वृक्ष के नीचे सो गई। थकान के कारण उसे नींद आ गई । उस समय नगर की प्रसिद्ध वेश्या कामसेना उद्यान में अपने साथियों के साथ घूम रही थी । उस की दृष्टि मृगांकलेखा पर पडी। उसके अद्भुत सौदर्य से मुग्ध होकर वह उसे उठाकर अपने घर ले आई । उसी दिन कामसेना की मृत्यु हो गई । वेश्याओं की मुखियाने बलपूर्वक मृगांकलेखा को कामसेना के स्थान पर त कर दिया। राजा कनकरथ ने मगांकलेखा के रूप की प्रशंसा सनी तो उस ने प्रतिहारी को मगांकलेखा को लाने के लिए भेजा । मृगांकलेखा ने अपने शील की रक्षा के लिए पागल बनने का ढोंग किया । उसने अपने वस्त्र फाडे । शरीर पर कीचड़ मला और पागल की तरह बकवास करती हुई नगरमें भटकने लगी । राजा ने उसकी चिकित्सा करवाई किन्तु वह ठीक नहीं हुई । बल्कि उसका पागलपन बढने ही लगा । शील के प्रभाव से जालामालिनी देवी को दया आई । उसने राजा से कहा-मृगांकलेखा शीलवती नारी है । उसने अपनी शीलकी रक्षा के लिए ही पागलपन का ढोंग किया है । तुम उसे अपनी पुत्री की तरह अपने घर रखना । इसी में तुम्हारी भलाई है । राजा ने वैसा ही किया । मृगांकलेखा सम्मानपूर्वक राजा के घर रहने लगी। ___ इधर धनवती के दो पुत्र हुए । वे दोनों बडे हुए । किन्तु सुरेन्द्रदत्त के प्रभाव के सामने उसे अपने दोनों पुत्र निस्तेज लगने लगे । एक दिन उसने सुरेन्द्रदत्त को मार डालने के लिए दो लड्डूओं में जहर मिला दिया । भाग्यवशात् सुरेन्द्रदत्त तो बच गया किन्तु भूल से वे विष मिश्रित लड्डू धनवती ने अपने पुत्रों को खिला दिये । दोनों पुत्रों की मृत्यु हो गई । एक दिन वसुसार श्रेष्ठी ने कहा- पुत्र ! सुरेन्द्रदत्त ! तुम मेरे पुत्र नहीं हो । तुम तो हमें रास्ते में पडे हुए मिले थे। यह नाममुद्रा लो और अपने माता पिता की अन्यत्र खोज करो। वसुसार श्रेष्ठी की बात सुनकर सुरेन्द्रदत्त Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002597
Book TitlePaumappahasami Cariyam
Original Sutra AuthorDevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages530
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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