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हुआ ज
नगर से निकला और ग्रामनगरों में माता-पिता की खोज करता हुआ वह ताम्रलिप्ति नगरी पहुंचा। वहां उसने भगवान ऋषभदेव के मंदिर में चक्रेश्वरी देवी की आराधना की । देवी ने प्रसन्न होकर कहा - वत्स ! तुमारे माता पिता तुम्हें सिद्धार्थपुर में मिलेंगे । देवी के कहने से वह सिद्धार्थपुर की ओर रवाना हुआ।
इधर सागरचन्द्र घर पहुंचा । वहां जब उसे पता चला कि मृगांकलेखा पर झूठा दोषारोपण कर उसे घर से निकाल दिया गया है तो वह मृगांकलेखा की खोज में निकल पड़ा । अनेक गाम,नगर,वन,उपवनों में घूमता
कलेखा नहीं मिली तो वह अपनी प्रियतमा के वियोग को नहीं सह सका । उसने अग्नि में प्रवेश कर मरने का निश्चय किया । एक विद्याधरने उसे मरने से रोकते हुए कहा- “सागरचन्द्र ! तुम मत मरो । तुम्हारा पुत्र और पनी जीवित है और वे तुम्हें सिद्धार्थपुर में मिलेंगे । यह बात सुनकर सागरचन्द्र सिद्धार्थपुर की
ओर चला । रास्ते में चित्रलेखा का मिलन हुआ । वहां से वे दोनों चलते हुए सिद्धार्थपुर पहुंचे । यहां तीनों का मिलन हआ। तीनों मिलकर अपने नगर लोटे। नगर निवासियोंने तथा सागरचन्द के माता पिता ने पत्र के आगमन का बडा उत्सव किया और दीन अनाथों को दान देकर अपने आपको कृतार्थ किया । सारा कुटुम्ब प्रसन्नता पूर्वक रहने लगा। एक दिन यगन्धर नामके केवली नगर के बाहर उद्यानमें ठहरे । सागरचन्द्र परिवार सहित उनके दर्शन के लिये गया । आचार्य ने उपदेश दिया । उपदेश के अन्त में मृगांकलेखा ने आचार्य से पूछा - "भगवन् ! मुझे जो पति का वियोग सहन करना पड़ा और अनेक कष्ट सहन किये वह किस कर्म का प्रभाव है ?''
आचार्यश्री ने कहा – “भद्रे ! यह सब पूर्वकृत कर्म का ही प्रभाव है । तुमने पूर्व भवमें जो पाप कर्म किये थे। उन्हें मै सुनाता हूँ । तुम ध्यान पूर्वक सुनो ।
सिंहपुरनगर में एक राजकुमार का मित्र कंदर्प नामका वेदविज्ञ अभिमानी ब्राह्मण रहता था। उसी नगर में उत्कटतप करने वाला सत्यकीर्ती नामका तापस भी रहता था । कंदर्प सत्यकीर्ती के उत्कर्ष को सहन नहीं कर सका। उसने सत्यकीर्ती को बदनाम करने का विचार किया। उसी नगरी में पदमदेव सेठ की पत्री कमला ललितांग श्रेष्ठी के पुत्र पर आसक्त थी । अवसर देख कर दोनों नगर से भाग गये। जिस दिन ये दोनों नगर से भागे उसी दिन सत्यकीर्ति तापस भी निजी कार्यवश नगर छोड कर अन्यत्र चला गया था । कंदर्प को सत्यकीर्ती को बदनाम करने का अच्छा अवसर मिला । उसने नगर में यह बात फैला दी कि तापस सत्यकीर्ति कमला को ले कर भाग गया है । कुछ दिन के बाद सत्यकीर्ति जब वापस लौटा तो कंदर्प घबडा गया । उसने अपना भंडा फूट जाने के भय से सत्यकीर्ति को नगर प्रवेश के पूर्व ही खूब पीटा । इस पाप के कारण कंदर्प के जीभ में फोडा हुआ । उस फोडे की असह्य वेदना से वह मरा और कुतिया के रूप में जन्मा । वहां भी उस कुतिया की जीभ में फोडा हुआ और वह कुतिया मर कर एक वेश्या के घर में पुत्री के रूप में जन्मी । पुत्री युवा हुई । वह चन्दन श्रेष्ठी के सम्पर्क में आई । चन्दनश्रेष्ठी के सत्संग से वह धर्मपरायणा हुई ।
एक दिन वह श्रेष्ठी के साथ क्रीडा करने के लिए सरोवर के तीर पर पहुंची । वहाँ सरोवर में हंस का एक जोडा जलक्रीडा कर रहा था । वेश्या ने हंस को पकड़ा और उसे रंग से रंग दिया । रंग से रंगे हुए हंस को हंसी पहचान नहीं सकी । वह उसके वियोग में तडप ने लगी । वेश्या को दया आई उसने हंस को पानी से धो डाला । हंस पूर्ववत् हो गया । हंसी ने हंस को पहचान लिया और दोनों का सुखद मिलन हो गया । हंसी हंस के वियोगमें २१ घंटे तक तडपती रही ।
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