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________________ कुछ समय के बाद धर्माचरण करती हुई वेश्या मरी और सौधर्म देव लोक में देवी के रूप में जन्मी । वहां से मरकर देवी के जीव ने मृगांकलेखा के रूप में जन्म लिया । अन्त में मुनि ने कहा-मृगांकलेखे ! वेश्या के भव में तू ने हंस हंसी का २१ घंटे तक का वियोग करवाया था उसी के फल स्वरूप तुझे अपने पतिका २१ वर्ष तक पतिका वियोग सहना पड़ा । तू ने कंदर्प के भवमें सत्यकीर्ति तापस पर झूठा दोषारोपन किया था जिसके कारण इस भवमें भी तेरे पर भूठा कलंक आया। आचार्यश्री से अपना पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन मृगांकलेखा को वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने पति के साथ दीक्षा ली और केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई। रोहिणी (पृ. ७४-९९) शील का महात्म्य बताकर आचार्यश्री तप का महत्व समझाते हुए उस पर रोहिनी की कथा कहते है मथुरा नाम की एक नगरी थी । वहा नरसिंह नामका एक राजा राज्य करता था। उसी नगर में धनद नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम था रोहिणी । वह अत्यन्त कलह प्रिय और चामुण्डा जैसी क्रूर प्रकृति की थी। श्रेष्ठी धनद की अन्य भी पलियां थी। रोहिणी सदैव अपने पति और सौतन के साथ लडती रहती थी । एक बार श्रेष्ठी ने रोहिणी के कलह से तंग आकर निद्रित अवस्था में ही उसे एक काष्ठ मंजूषा में बंदकर नदी में बहा दिया । नदी के प्रवाह में बहती हुई मंजूषा विजयस्थल गांव के किनारे पहुंची । सिद्धार्थ नाम के एक ग्रामाधिपति के हाथ में वह मंजूषा लगी । ग्रामाधिपति ने उसे खोला तो उसमें रोहिणी मिली । वह उसे घर ले गया । रोहिणी ने ग्रामाधिपति को कहा - "मुझे अपने गांव छोड दो। मै वहां जा कर अपने पति एवं सौतन से खूब झगड़ा करूंगी । ग्रामपति ने उसे समझाया और कहा - तुम अब शान्ति से मेरे घर पर ही रहो । एक बार गांव के उद्यान में भुवनभूषण नामके केवली पधारे । ग्रामपति के साथ रोहिणी भी केवली के दर्शनार्थ गई । केवली ने धर्मोपदेश दिया और तप का माहत्म्य समझाया । केवली के उपदेश का रोहिणी पर गहरा प्रभाव पडा । उसने मुनि से कहा – “आपने जो तप के प्रकार और उसकी विधि बताई है मैं उसी के अनुसार तपश्चर्या कर अपने जीवन को निर्मल करना चाहती हूँ।" अब वह केवली द्वारा बताये गये विविध प्रकार के तप करने लगी । कठोर तप के कारण उसका देह काष्ठ सा शुष्क हो गया । मणिचूड नामक देव अपनी देवी की मृत्यु से बड़ा संतप्त था । उसकी दृष्टि तप करती हुई रोहिणी पर पड़ी । वह रोहिणी के पास आया और अपना दिव्य रूप बताकर बोला- "तुम अगर अपनी तपस्या का निदान करो तो मृत्यु के बाद मेरी देवी बन सकती हो। रोहिनी ने कहा – “देव ! मै अल्पसुख के लिए अपनी तपस्या को निदान से अल्पफलवाली नहीं कर सकती । मैं संसार के सुख के लिए तप नहीं कर रही हूं किन्तु कर्म के क्षय के लिये कर रही हूं।" देव चला गया। रोहिणी ने निदान रहित कठोर तप कर के समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। मरकर अच्युतकल्प में महर्द्धिक देव बनी । रोहिनी के कठोर तप से प्रभावित हो सिद्धार्थ ग्रामाधिप ने भी कठोर तप किया और अन्त में समाधि पूर्वक मरकर अच्यत कल्प में देव बना । श्री विजय की चमरचंचा राजधानी में चम्पा नामकी नगरी थी । वहां पुरुषचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सर्वांगसुन्दरी था। सिद्धार्थदेव का जीव अच्युत कल्प से चवकर सर्वांगसुंदरी के उदर में आया । रानी ने शुभ स्वप्र देखा । गर्भकाल के पूर्ण होने पर उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । उसका Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002597
Book TitlePaumappahasami Cariyam
Original Sutra AuthorDevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages530
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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