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वज्जबाहुकुमारकथा
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सो कमसो गच्छंतो सावत्थिपुरीए झत्ति संपत्तो । अवयरिय नहयलाओ सकोउगो विसइ परमज्झे !!५८१ ।। वीसमइ सलिल-पाणं करेइ भंजेइ जत्थ जत्थेसो । रुव-निरिक्खण-रसिओ तत्थ जणो मिलइ परवासी ॥५८२।। एसो परम्मि भमिरो पिच्छइ मणिनिवहनिम्मियं रम्मं । एगं जिणंदभवणं तंगं सर-सिहरि-सिहरं च ।।५८३॥ तब्भवणरयण-निउरंब-किरण-लहरीहिं तिमिरपब्भारे । हरिए जत्तामित्तं करेइ सूरो सया तत्थ ॥५८४॥ चत्तनिमेसम्मेसो, सकोउहल्लो इमो इमं भवणं । नज्जइ निरिक्खमाणो, इहेव संपत्त-सर-भावो ।।५८५।। भवणम्मि तम्मि रम्मे, उत्तमजण-माणसम्मि सहस त्ति । उवयारो व कमारो, पविसइ केणावि अक्खलिओ ॥५८६॥ गब्भहरमज्झयारे, पिच्छइ नाराय-निवह-आवरियं । दंसण-चरणाचरियं, जीवं व जिणेसरप्पडिमं ॥५८७।। पिच्छित्तु इमं कुंडल-किरीड-उरमाल-तिलय-दिप्पंतं । सो तरयलंछणेणं, जणेइ तं संभवं देवं ॥५८८॥ तह नियइ देहली-तल-निवेसिउं तस्स तित्थनाहस्स । रयणमय-पीढ-संठियमय-पयडं पाउया जयलं ॥५८९॥ जो जो नयरनिवासी समेइ सो सो पवेसमलहतो । तं चेवं निच्चमच्चइ, जिण-पय-जयलं पमोएण ||५९०॥ रूव-परवित्ति-विज्जावसेण काऊण सुहुमतररुवं । पविसित्तु झ त्ति मज्झे जिणनाहं पूयए कुमरो ॥५९१ ॥ नीहरिऊणं एगं पुरिसं पुच्छेइ केण कइया वा । नारायदप्पवेसा एसा पडिमा विणिम्मविया ॥५९२।। सो आह कमर ! इह परवासी नीसेसगणगणनिवासो । नामेण कामदेवो रूवेण वि अत्थि वरसिट्ठी ॥५९३॥
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