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सिरिपउमप्पहसामिचरियं
तो कुमर ! तक्करतं, चइत्त तत्तं जिणिंद-पन्नत्तं । समत्तमाइअंगीकरेसु, जइ महसि सिवसुक्खं ॥५६८।। कुमरो जंपइ भयवं ! पच्चक्खा मज्झ चोरिया दोसा । अहयं ख तक्करत्ता, पिउणा निव्वासिओ नयरा ॥५६९॥ तो काऊण पसायं, इण्डिं मह देस सुद्ध-सम्मत्तं । परदव्व-विरइ-नियम, वियरसु तह जइ अहं जुग्गो ॥५७०॥ जोगु त्ति तओ मुणिणा, दिनो कुमरस्स तइय-वय-नियमो । समत्तजओ तत्तो, सिक्खविओ सो इमं तेण ॥५७१ ॥ तइया अणुव्वयमेयं, समीहमाणेण सुद्धमाजम्मं ।। तमए पंचइयारा, वज्जेयव्वा पयत्तेण ॥५७२॥ कूड-तूल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं विरुद्ध-निव-गमणं । तेणाणुना तेणाणीयं, वज्जेसु पंचमयं ॥५७३।। अह तं जिणिंद-देसियधम्मे सम्मं मुणित्त दढचित्तं । जंपइ विहंगनाहो, कमार ! तं चिय कयत्थो सि ॥५७४।। जं तमए तइयव्वय-नियमो अइक्करो इमो गहिओ। तो तुज्झ अहं तुट्ठो, वरसु वरं किमवि मणइटें ॥५७५ ।। सो आह अहं संपइ वरम्मि पवरे वि तज्झ निरविक्खो । का वा अवरा लद्धे लद्धे धम्मम्मि सामग्गि ।।५७६॥ इय तस्स भणंतस्स वि बला वि वियरइ विहंगमाहिवई । रूव-परिवत्ति-जंगुलि-नहगामिणिपवरविज्जाओ ॥५७७।। मुणिनाह-विहगनाहा, तत्तो गच्छंति नियनियट्ठाणं । असिक्खेडयवग्गकरो, कुमरो वि हु पढियसिद्धाए ॥५७८॥ नहगामिणिविज्जाए उप्पइओ नहयलम्मि वच्चेइ । अवलोयंतो गिरि-सर-सरिया-वणराइयं वसुहं ॥५७९ ।। सो दूरसमुप्पइओ गिरि करि नयरनिलयमवि वलयं । सरियं पि हारसरियं मन्नइ मेरुंकसेरूं व ॥५८०॥
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