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प्रस्तावना
प्रतिपरिचय :
पद्मप्रभ स्वामी चरित की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैं । एक ताडपत्रीय और दूसरी कागज की । प्रथम ताडपत्रीय प्रति संघभण्डार (संघवी पाड़ा) पाटण में हैं । संघभण्डार की सूची में इसका क्रमांक ३४६ है। इसका परिमाण ३२१/४ इंच और पत्र संख्या १८० है। इस प्रति के अन्त में दी गई पुष्पिका इस प्रकार है- “संवत १४७९ वर्षे वैशाखवदि ४ गुरौ । इष्टदेवताभ्यो नमः"। दूसरी पाण्डुलिपि कागज की है। यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार में है। इसका सूची में क्रमांक १८८७ है। इस प्रति में पृष्ट १६२ है। इसकी लम्बाई चौडाई२८११ सें.मी. है। इस पर लिपिकार की प्रशस्ति है किन्तु लेखन संवत नहीं हैं किन्तु लिपिकारकी लेखन शैली एवं अक्षरों के आकार प्रकार से यह अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रति पंद्रहवी सदी के उत्तरार्द में किसी समय लिखी गई होगी। इस प्रति के अन्त में लिखी गई प्रशस्ति इस प्रकार है. ___ "इति श्रीमत् पदमप्रभ चरित्रं समाप्तं ॥छ।। कृतिरियं श्री जालिहरगच्छमण्डन श्री धर्मघोषसूरि शिष्य श्री देवसूरिणामिति भद्रं ॥छ।। आशीर्वादोयं संघस्य लिख्यते । यथा--
कार्याणामनिशं यतः शिवकरी सिध्दिः समासाद्यते । यस्मात् सर्वमनोरथद्गमततिर्विश्वस्य पंफुल्यते ।। यन्यद्याच्चमनोरथाभिगमहो सर्व समासाद्यते । युष्माकं भवताच्छुभाशयवतां पद्मप्रभः सश्रिये ॥९॥ एला यत्र दया क्षमा बलवती सत्यं लवंगं परम् । कारुण्यं क्रमुकीफलानि विदितश्चूर्णश्च सत्वोदयः ।। कर्पूरं मुनिदानमुत्तमगुणं शीलं च पत्रोच्चया । गृह्णीध्वं गुणकृज्जनैर्निगदितं ताम्बूलमेतज्जनाः ॥२॥ शुभं स्यात् श्री चतुर्विधस्य संघस्य ॥छ।।श्री।।
अन्य अक्षरों में "पुस्तकमिदं श्री कमलसंयमोपाध्यायानां गृहीतं श्री चित्रकूटे ॥ संशोधन :
मैने अपने सम्पादन कार्यमें उपरोक्त प्रति का ही उपयोग किया है। साथ ही इसी ज्ञान भण्डार की अन्य दो प्रतियों का भी उवलोकन किया। मेरे सम्पादन में ये दो प्रतियां भी बडी उपयोगी सिद्ध हुई । कई अशुद्धियों को शुद्ध करने में इससे बडी सहायता मिली है । ग्रन्थ परिचय :
विक्रम की ग्यारहवी, बारहवी और तेरहवीं सदी में जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में अनेक चरितग्रन्थों की रचना
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