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सामत्थिऊण निच्छयमेयाण महं करिस्सामि ॥ ५३६ ॥ तत्तो सुयमिहुणं तं राया नेऊण नियय सुद्धंते ॥ भुंजावइ वरदाडिम - सालिप्पमुहेहि भोज्जेहिं ॥ ५३७ ॥ तो सुयमिहुणसमक्खं, अत्थाणत्थे निवम्मि मज्झहे || पभणेइ मंतिवग्गो, एस विवाओ अउव्वो त्ति ॥ ५३८ ॥ मंतता विह अम्हे निच्छयमिह किं पि नेव पिच्छामो || तो पुच्छह अवरपुरे, सुयनाणि केवलिं वावि ॥ ५३९ ।। भंगुरभालकरालो महिवालो गव्वपव्वयारूढो || पभणेइ मंतिसम्मुहमेस विवाओ वि दिव्ववसा ॥ ५४० ॥ जइ कह वि अन्ननयरे वच्चइ तो मंति ! सासई लज्जा ॥ अहवा कित्तियमित्तो, एस विवाओ सुणह तत्तं ॥ ५४१ ॥ लोए पसिद्धमेयं, बीयं नणु होइ बीयवंतस्स ॥ खित्तं तु खेत्तियस्सा इत्थ वि इत्थं विचिंतेह ॥ ५४२ ॥ खेत्तं नियय सरीरं, कीरी गिण्हित्तु जाउ सच्छंदं ॥ कीरस्स चेव पुत्तो, इह अत्थे नत्थि संदेहो || ५४३ ॥ वज्जाहय व्व कीरी जंपइ, नरनाह ! एरिसा नीई ॥ तुह बुद्धिनिम्मिय च्चिय न हु गंधं कमवि पेच्छामि ॥ ५४४ ॥ सो वि तुझ मग्गो, पमाणमहवा वि किंतु सिरिकरणे ॥ लेहाविसु छेवार्डि जेणं संभरसि नियवयणं ॥ ५४५ ॥ तो गव्वमुव्वहंतो, एसो मह निन्नओ सुदिट्ठोत्ति || छेवाडि टिप्पणेसुं, लहावइ तं पि छेवाडि || ५४६ ॥ तथाहि :
सिरिपउमप्पहसामिचरियं
बीज एव हि बीजं, क्षेत्रं भवतीह तद्वतामेव ॥ दुर्ललितमहिनाथो, निर्नयमेनं स्वयं चक्रे ॥ ५४७ ॥ सुणिय नरनाहवयणा, पइमुक्का सा वि चत्तपुत्तासा ॥ धरणीयलम्मि लुलिया धस त्ति जलभिन्नभित्ति व्व ॥ ५४८ ॥
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